वर्तमान में
सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय, पुणे, महाराष्ट्र के
हिंदी विभाग में प्राध्यापिका के रूप में कार्यरत डॉ. शशिकला राय हिंदी
महिला लेखिकाओं की उस परिपाटी से आती हैं जिनमें नीलम कुलश्रेष्ठ, रजनी गुप्त, अनीता भारती,
गरिमा श्रीवास्तव, हेमलता, कंचन शर्मा
और शरद सिंह जैसी लेखिकाओं के नाम लिए जा सकते हैं । आप मूल रूप से उत्तर प्रदेश
के आजमगढ़ जिले के अंतर्गत आनेवाले सिरवां गाँव से हैं । आप की अबतक प्रकाशित
पुस्तकों में समय के साक्षी निराला, इस्पात में
ढलती स्त्री, कथासमय : सृजन और विमर्श तथा ज़िंदा कहानियाँ प्रमुख हैं । हिंदी की प्रमुख पत्र – पत्रिकाओं
में आप लगातार छपती रहती हैं । वर्ष 2015 से वर्ष 2017 तक आप विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग (UGC) की तरफ से रिसर्च
अवार्डी ( R.A.) के रूप में
जयपुर विश्वविद्यालय, राजस्थान में कार्यरत रहीं ।
यह शोध पत्र डॉ. शशिकला
राय की प्रकाशित पुस्तक ज़िंदा कहानियाँ पर केंद्रित है । इस पुस्तक का प्रथम
संस्करण वर्ष 2013 में वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया
। पुस्तक की भूमिका जानीमानी हिंदी लेखिका अनामिका ने लिखी है । अनामिका इन कहानियों को ग्लासी
पत्रिकाओं की “ सक्सेस सागा” और अख़बारों के पेज़ थ्री का हँसमुख प्रतिपक्ष मानती
हैं । रक्त और यौन संबंधों से परे जाती पारिवारिकता को भारतीय स्त्रीवाद की सबसे
महत्वपूर्ण संकल्पना मानती हुई अनामिका को इन कहानियों से “एक मशाल यात्रा सी”
उम्मीद है ।
अपने मनोगत में डॉ.
शशिकला राय स्पष्ट करती हैं कि कथाक्रम के विशेषांक (साठ पार जीवन ) ने इस
पुस्तक के स्वरूप को जन्म दिया । आप सिर्फ़ स्त्रियों को केंद्र में रखकर यह पुस्तक
नहीं लिखना चाहती थीं लेकिन यह हुआ “अय्यर सर” के कारण जिन्होंने निष्ठुरता पूर्वक
लेखिका से अपने ऊपर ना लिखने के लिए कहा और वहीं से लेखिका ने निर्णय लिया कि वे ज़िंदा
कहानियाँ के लिए किसी अन्य पुरुष के पास नहीं जायेंगी । इस तरह 60 वर्ष की
आयु पूर्ण कर चुकी महाराष्ट्र की 12 स्त्रियों के जीवन संघर्ष और उनके द्वारा
किये गये कार्यों को केंद्र में रखकर यह पुस्तक लेखिका ने पूर्ण की ।
लेकिन विश्वविद्यालय की नौकरी करते हुए आप सहज
ही कोई काम पूरा कर लें यह संभव नहीं होता, विशेष रूप से यदि आप किसी भारतीय विश्वविद्यालय के हिंदी
विभाग से जुड़ें हों । ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ जड़ों से नहीं जड़ताओं से जुड़े कुंठित,आत्ममुग्ध,हताश, निकम्मे और
निराश गिरोहबाज़ प्राध्यापकों की एक बड़ी
भारी फौज रहती है । जिनकी वजह से ही देश के अधिकांश हिंदी विभाग अजायबघर से अधिक
कुछ और नहीं लगते । यद्यपि इसतरह का एक सामान्य वक्तव्य देश के सभी हिंदी विभागों
के लिये देना तर्क संगत तो नहीं पर तर्कपूर्ण ज़रूर है । लेखिका के साथ भी कई तरह
के षड्यंत्र रचे गये । फ़र्जी छात्र के रूप में राजेन्द्र यादव को लंबा पत्र, चारित्रिक हनन और साहित्यिक चोरी जैसे अनेकों हथकंडों को आज़माया गया
लेकिन इनसब के बीच से निकलते हुए लेखिका ने अपना कार्य पूर्ण किया । लेखिका ख़ुद
लिखती भी हैं कि “.......इन सारी स्त्रियों ने मुझे अजेय और अभय भी बनाया है
............. जब कोई स्त्री थक कर हताश होकर बेजार होकर ज़िंदगी की अधराह में
घुटनों में मुँह ढाँपकर बैठ जाएगी तब कर्मों की रोशनी का काफ़िला लिए चुपचाप ये
जिंदगियाँ पाँतबद्ध खड़ी हो जाएँगी ।’’1
जिन 12 स्त्रियों की चर्चा इस पुस्तक में की गई
है, वे निम्नलिखित हैं ।
1. सिंधुताई सपकाल ।
2. नसीमा हुरजूक ।
3. लक्ष्मी त्रिपाठी ।
4. राजश्री काले नगरकर ।
5. सुनीता ताई अरडीकर ।
6. कुसुम कर्णिक ।
7. शोभा सालुंखे ।
8. गौराबाई ।
9. गुरुमाई ।
10. करुणा फुटाने ।
11. नजूबाई गावित ।
12. रुपाताई सालवे ।
ये वो
स्त्रियाँ हैं जिन्होंने अपने भोगे हुए कटु यथार्थ के आगे झुकने की बजाय, उनका पूरे साहस और विश्वास के साथ सामना किया और ऐसी ही परिस्थितियाँ
अन्य लोगों को न झेलनी पड़ें इसबात के मद्दे नज़र एक ईमानदार कोशिश शुरू की । इनकी
कोशिशें रंग लायी और आज़ ये स्त्रियाँ सफल सामाजिक कार्यों की ज़िंदा मिसाल बनकर एक आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श ( Ideal, Model & Sample ) के रूप में हमारे सामने हैं । समाज इनके द्वारा किये गए कार्यों के आगे
नतमस्तक होते हुए कृतज्ञ है । आज़ समाज में इनका भी “सेलेब्रिटी स्टेटस” है
। इसीलिए अनामिका जी इन स्त्रियों की कहानी को ग्लासी पत्रिकाओं की “ सक्सेस सागा”
और अख़बारों के पेज़ थ्री का हँसमुख प्रतिपक्ष मानती हैं ।
इन सभी स्त्रियों की कहानियों को विस्तार से इस शोध पत्र में चित्रित करना
संभव नहीं हैं इसलिए निम्नलिखित चार्ट के माध्यम से इनके बारे में संक्षिप्त
जानकारी देने का प्रयास कर रहा हूँ जिससे इनके जीवन संघर्ष और कार्यों की एक
सामान्य समझ बन सके ।
अनुक्रम
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व्यक्तित्व विशेष
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किये गये महत्वपूर्ण कार्य एवं
जीवन संघर्ष
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1.
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सिंधुताई सपकाल ।
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10
साल की उम्र में 30 साल के व्यक्ति से विवाह । लगभग 20 वर्ष की उम्र में नौ
महीने की गर्भवती सिंधु पर चरित्रहीनता का आरोप लगाकर पति ने घर से निकाल दिया ।
ख़ुद की माँ ने भी शरण नहीं दी तो अपनी दुधमुंही बच्ची के साथ रेल्वे स्टेशन पर
भीख माँगने के लिये अभिशप्त । भीख में मिले पैसों में से अपनी ज़रूरत भर का निकाल के शेष राशि साथी भिखारियों में
वितरित कर देना । पुणे के दगड़ू सेठ हलवाई के अनाथालय में अपनी ख़ुद की बेटी को
रखकर अनाथ बच्चों को पालने-पोसने के बड़े कार्य की शुरुआत । “माई” के रूप
में प्रसिद्ध । हजारों लड़कियाँ जो आज़ माई के संरक्षण पलते हुए अपना
सुनहरा भविष्य सँजो रहीं हैं, वे इस माई के बिना शायद किसी रेल्वे स्टेशन पर भीख माँगते हुए अल्पायु
में वेश्या बनने के लिए अभिशप्त होतीं । 172 से अधिक पुरस्कारों से
सम्मानित सिंधुताई अपने सनमती बाल निकेतन, पुणे के माध्यम से एक जाना-माना नाम । हजारों बच्चों को पालने और उन्हें
उच्च शिक्षित करने का अनुकरणीय कार्य ।
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2.
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नसीमा हुरजूक ।
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कमर
के निचले हिस्से की संवेदना हाई स्कूल के दिनों से ही धीरे-धीरे लुप्त होती रही
। आंपरेशन ने हमेशा के लिए अपाहिज बना दिया । पिता की मृत्यु से आर्थिक
परेशानियों की भी शुरुआत । बाबू काका दीवान की प्रेरणा से 1972 में
अपंग पुनर्वसन संस्था के गठन का काम शुरू किया । व्हील चेयर पर ही - व्हील
चेयर,गोला
फेंक,टेबल टेनिस जैसी प्रतियोगिताओं में प्रथम । इंगलैंड
भी गयी । अपनी जिद्द से कोल्हापुर में अपाहिजों के लिए खेल प्रतियोगिता का आयोजन
कराया । कस्टम विभाग में क्लर्क की नौकरी मिली । सहायता के लिए व्हील चेयर पकड़ने
वाले कुछ हांथ गर्दन और पीठ तक सहलाने लगते । लेकिन स्वार्थहीन समर्पण वाले लोग
भी मिले जिनकी सहायता से 274 से अधिक बच्चों का सफल आंपरेशन करा उनकी ज़िंदगी
नसीमा सँवार चुकी हैं । हेंडिकेप हेलपर्स (कोल्हापुर) इसी संस्था से
अनेकों डॉक्टर,इंजीनियर और सी.ए. बनकर निकले । कोल्हापुर
और सिंधुदुर्ग में संस्था का विशेष कार्य ।
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3.
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लक्ष्मी त्रिपाठी ।
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लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी उर्फ़ राजू बायोलाजिकल मेल पैदा हुआ था । कक्षा 6-7 तक घोषित रूप
से “गे” । मुंबई के मिठीबाई कालेज से बी.काम. की पढ़ाई । भरत
नाट्यम में पोस्ट ग्रेजुएट । यह
युवक स्वेछा से हिजड़ा समुदाय में गया बिना बधियाकरण । बचपन से ही पारिवारिक
लोगों द्वारा शारीरिक शोषण । 4 साल 11 महीने तक बार डांसर के रूप
में काम । लेकिन पार्टी और सेक्स
ही जीवन का लक्ष्य नही हो सकता अतः आजन्म हिजड़ों के अधिकारों के लिये लड़ने का
संकल्प । शबीना को अपना गुरु मानकर जोग जनम की साड़ी
लेकर विधिवत हिजड़ा समाज में शामिल । पेअर येजुकेटर दाई वेलफ़ेयर के
अध्यक्ष के रूप में काम । एड्स कंट्रोल सोसायटी के लिये काम । “अस्तित्व” की स्थापना । “एक्स डाई
फ़ैस्टिवल” में भारत का प्रतिनिधित्व युरोप में करने गयी । आत्मकथा
ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित ।
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4.
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राजश्री काले नगरकर ।
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महाराष्ट्र
की प्रसिद्ध लोककला लावणी को सहेजने वाली कोल्हाटी समाज़ की एक जिद्दी
लावणीसाम्राज्ञी । माँ “संगीत बारी” की पार्टी चलाती । राजश्री ख़ुद पाँच
बहनें । बाबा साहेब मिरजकर (कोल्हापुर) से नृत्य सीखा । अहमदनगर के
पास कलिका लोककला केंद्र की स्थापना । आज महाराष्ट्र की एक प्रसिद्ध
अभिनेत्री ।
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5.
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सुनीता ताई अरडीकर ।
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महाराष्ट्र
के लातूर जिले की एक कर्मठ,ऊर्जावान एवं ईमानदार राजनेता के रूप में लोकप्रिय । एक दलित
परिवार से बड़े संघर्ष के साथ आगे आना । पैदा होते ही पिता ने जिंदा जमीन
में दफ़न किया पर नाना ने जान बचाई । सौतेली माँ ने ज्वारी की रोटी में
काँच का बूरा मिला के खिला दिया । दिलीपराव नामक ब्राह्मण युवक से
अंतर्जातीय विवाह । यूक्रान्द दल से जुड़ना । नगरपालिका चुनाव जीतना । बेटा
आज सफल डॉक्टर । सम्मानपूर्ण जीवन ।
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6.
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कुसुम कर्णिक ।
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नर्सिंग
का कोर्स करने के बाद ढाई साल तक अस्पताल में नर्स की नौकरी करके छोड़ देना । 35
साल की उम्र में मनोविज्ञान में एम.ए. । विवाह के 20 साल बाद 44-45 की उम्र
में पति को छोडकर आनंद कपूर के साथ भीमा शंकर के जंगलों में आदिवासियों के लिए
काम । पहाड़ी झरने की पतली धारा का पानी संचय करके 99 क्विंटल गेहूँ की
पैदावार करना । लैंडशेपिंग का काम । नार्वे और स्वीडन की संस्थाओं के
सहयोग से आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल चलाना । ड़िभे बाँध के माध्यम से मत्स्य
खेती का काम, जिनमें
136 नावें लगी रहती हैं । पड़कई पद्धति द्वारा नये खेतों का
निर्माण ।
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7.
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शोभा सालुंखे ।
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अहमदनगर
जिले के रेडलाइट इलाके में त्रासदी भरा जीवन । पति ने ही देह व्यापार
में झोंका । देह व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के अधिकारों के
लिए संघर्ष । स्नेहालय नामक संस्था के लिए काम । आशा, मीना शिंदे और मीना
पाटिल ऐसी ही अन्य स्त्रियाँ ।
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8.
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गौराबाई ।
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देवदासियों के अधिकारों की महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ना । स्वयं देवदासी के रूप में
जीवन संघर्ष करना । कोल्हापुर से 60 किलो मीटर दूर गढ़हिंगलज में निवास ।
सात साल की उम्र में चचेरे दादा –दादी ने येलम्मा मंदिर में ले गए । पाँच गाँव घूमकर जोग
माँगना । जुलवा स्वीकार करने की बजाय मज़दूरी करती । लेकिन मजबूरन
करना पड़ा । 25-26 की उम्र में 5 पुरुष जीवन में आए और 02 बच्चे देकर चले गए ।
दादा-दादी के लिए वह बेटी नहीं रोटी थी । एक दिन हिम्मत करके एक
हमाल और पुलिश वाले को तमाचा जड़ा और देवदासियों के अधिकारों की लड़ाई में कूद
पड़ना ।
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9.
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गुरुमाई ।
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असली
नाम विमल लिंग्या स्वामी जंगम । जाति से ब्राह्मण । भीख मांगकर अथवा मृतक
से जुड़ी पूजा विधियाँ सम्पन्न करा के जीवन यापन की पारिवारिक पृष्ठिभूमि । आर्थिक
तंगी के बीच अपनी माँ के साथ मुंबई आना । धारावी के गणेश
मंदिर में शरण । कई तरह के कार्य करने के बाद अंततः श्राद्ध और शव पूजन से
जुड़ी विधियों को कराने का कार्य प्रारंभ करना । पुरुष पुजारियों द्वारा
विरोध झेलना लेकिन अपने काम में आज 30 सालों से लगे रहना ।
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10.
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करुणा फुटाने ।
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वर्धा
के पवनार जिले में आचार्य विनोबा भावे के संरक्षण में कृषि, गो सेवा, शराब बंदी और आदिवासियों के कल्याण के लिए कार्य । वर्धा
जिले को दारू मुक्त बनाने का महत्वपूर्ण कार्य ।
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11.
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नजूबाई गावित ।
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दस
भाई-बहनों वाले गरीब आदिवासी परिवार में जन्म। चौथी तक शिक्षा ।
महाराष्ट्र भर के आदिवासियों के संघर्ष में सदैव आगे । “भिवाफ़रारी”, “तृष्णा” जैसे उपन्यासों के अतिरिक्त कई
कहानियों का लेखन । कामरेड शरद पाटिल के साथ आदिवासियों के अधिकारों की
लड़ाई में सहभाग ।
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12.
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रुपाताई सालवे ।
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महाराष्ट्र
के एक गरीब दलित परिवार से आना । आर्थिक तंगी के बावजूद उच्च शिक्षित
होना । दलित समाज की लड़कियों के लिए छात्रावास निर्माण । उनके अधिकारों
की लड़ाई में हमेशा आगे । आंबेडकर को मनुष्य धर्म की तरह आत्मसाथ किया, अवसर की तरह नहीं ।
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इन बारह स्त्रियों के माध्यम से शशिकला जी ने देह व्यापार, भीख माँगने वाली,
दलित, आदिवासी, ट्रांसजेंडर, देवदासी, तमाशा, अपंग, मुस्लिम, कर्मकांडी, राजनीति, कृषि कार्य और शराब बंदी से जुड़ी स्त्रियों के जीवन संघर्ष को बड़ी ही गहराई,सच्चाई और मार्मिकता के साथ प्रस्तुत
किया है । इन सभी स्त्रियों की कहानियों के बीच से गुजरते हुए पता चलता है कि इस
पुस्तक में बारह नहीं तेरह स्त्रियों का संघर्ष अभिव्यकत है । वह तेरहवीं
स्त्री कोई और नहीं अपितु लेखिका ख़ुद हैं । लेखिका के ही शब्दों में कहूँ तो
– यातना को अभिव्यक्त करना भी यातना है ।2
इस पुस्तक में वर्णित जितनी भी स्त्रियाँ हैं वे
आज के हमारे समाज के डार्क फ़ेस को हमारे सामने लाकर खड़ा कर देती हैं ।
लेकिन ये इनकी विशेषता नहीं है । विशेषता यह है कि ये सभी स्त्रियाँ अपने जीवन की
गंभीर समस्याओं के बीच जूझती हुई श्रम,साहस और संघर्ष की पराकाष्ठा से ऐसा काम कर जाती हैं कि वे
अपने जैसी अन्य स्त्रियों के लिए एक अनुकरणीय मार्ग प्रसस्त कर देती हैं । सामाजिक
जीवन में श्रम और संघर्ष के महत्व को ये अपने कर्म से प्रस्तुत करती हैं ।
यथार्थ की ठोस और कठोर जमीन पर अपने श्रम के पसीने से जीवन को अर्थ देनेवाले बीज़
बो रहीं हैं । लैब टू लैंड वाले
सिद्धांत के संदर्भ में देखूँ तो 60 पार की इन स्त्रियों ने अपने जीवन को ही
सामाजिक बदलाओं की प्रयोगशाला बना डाली । सामाजिक-साहित्यिक विमर्शों से लदे,पटे और कटे इस दौर में बिना जाति,भाषा,लिंग,क्षेत्र और उम्र का
भेद माने औरत को उसके संघर्ष और कामयाबी के बीच गूथना और साहित्यिक कृति के रूप
में प्रस्तुत कर देना लेखिका का बहुत बड़ा काम है । हिंदी में इस तरह का प्रयोग इसे नयी ताज़गी से भरता
है । साहित्यिक विधाओं में इस तरह के प्रयासों की सराहना होनी चाहिए ।
इस
पुस्तक को पढ़ते हुए एक जो बाते मुख्य रूप से उभर कर आती हैं उन्हें निम्नलिखित
बिदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है ।
·
हिंदी साहित्य में भी लेखन और शोध के परंपरागत ढर्रे के बीच पार अनुशासनिक
दृष्टिकोण ( Cross Disciplinary Perspective ) को ध्यान में रखते हुए अंतरविषयी /
बहुविषयी शोधकार्यों को महत्व देना पड़ेगा ।
·
साहित्यिक विमर्शों के इस दौर में जहाँ अनुरूपता पर समरूपता भारी पड़ रही है, वहाँ सोच और चिंतन के दायरे को
ख़ेमेबाजी / गुटबाजी और गिरोहबाजी से आगे ले जाना होगा ।
·
उत्तर आधुनिकता के बाद जिस मानवतावाद और मानवीय चिंतन की वकालत की जा रही है
उस दिशा में लेखनी के फ़लक को विस्तार देना होगा ।
·
उत्तर मानवतावादी सिद्धांत / Post- Humanist Theory जिस तरह सिर्फ़ मनुष्यों ही नहीं अपितु सभी प्राणियों के प्रति उदारता की
बात करती है उसे हमें अपने चिंतन का हिस्सा बनाना होगा ।
·
किसी के आत्मसम्मान की लड़ाई किसी और के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाकर नहीं लड़ी
जा सकती इसलिए सहिष्णुता और उदारता को चिंतन का मुख्य तत्व बनाना होगा ।
·
भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस युग में क़ीमत (Price) और मूल्यों (Value) के बीच जो लड़ाई है उसमें मूल्यों
को बचाना कठिन लेकिन बहुत ज़रूरी है ।
·
स्त्रियों, दलितों , आदिवासियों, बच्चों ,
विकलांगों सहित समाज के हर गरीब और शोषित के अधिकारों की लड़ाई व्यक्तिगत, जातिगत या समूह विशेष की लड़ाई न होकर उस पूरे समाज की लड़ाई होनी चाहिये
जो अपने आप को प्रगतिशील और सभ्य मानता है ।
·
व्यवहार और चिंतन में ईमानदारी एक सहज प्रवाह के रूप में होनी चाहिये न कि
गुण विशेष के रूप में उसका महिमा मंडन ।
शशिकला राय जी की यह पुस्तक आनेवाले दिनों में उनकी
पहचान का एक केंद्र बिंदु होगा । उनके साहस, संयम, श्रम, प्रतिबद्धता और मानवीय सोच के साथ-साथ जिस एक चीज की सराहना होनी चाहिये
वह है मानविकी और समाज विज्ञान के सिद्धांतों को बड़ी सहजता और सूक्ष्मता से
अपनी बातों के ताने-बाने में इस तरह पिरो देना कि वो सिद्धांत, साहित्य का ही एक रूप/ हिस्सा बन जाये ।
कविता
की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा कि -
“ पुल पार करने से, नदी नहीं पार होती
उसके लिए पानी में उतरना पड़ता
है,
धंसना पड़ता है ।’’
डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा
असोसिएट – भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला।
प्रभारी – हिंदी विभाग, के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय, कल्याण (पश्चिम), महाराष्ट्र ।