Friday 7 May 2021

उतरे हुए रंग की तरह उदास ।

 उतरे हुए रंग की तरह उदास  । 


टूटकर 

बिखरे हुए लोग 

चुप हैं आजकल 

या फिर

मुस्कुरा कर रह जाते हैं 

हंसने और रोने के बीच

कहीं गहरे गड़े हुए हैं ।


झरते हुए आंसू 

रिसते हुए रिश्ते 

सब मृत्यु से भयभीत 

दांव पर लगी जिंदगी की 

इच्छाएं शिथिल हो चुकी हैं

सब के पास 

एक उदास कोना है

हंसी खुशी 

अब खूंटियों पर टंगी है ।


सब के हिस्से में

महामारी

महामारी की त्रासदी

महामारी के किस्से हैं

आशा की नदी

सूखती जा रही है 

सारी व्यवस्थाएं 

उतरे हुए रंग की तरह उदास हैं ।


संवेदनाओं का कच्चा सूत

रूठी हुई नींदों को

कहानियां सुनाता है

इस उम्मीद में कि

उसका हस्तक्षेप दर्ज होगा 

लेकिन 

अंधेरा बहुत ही घना है

जहरीली हवा

शिकार तलाश रही है

सत्ताओं का क्या ?

उनकी दबी हुई आंख को

ऐसे मंजर बहुत पसंद आते हैं ।


              डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

              के एम अग्रवाल महाविद्यालय

              कल्याण ( पश्चिम ), महाराष्ट्र ।

              manishmuntazir@gmail.com

Monday 3 May 2021

इस महामारी में ।

 6. इस महामारी में ।


इस महामारी में

घर की चार दिवारी में कैद होकर

जीने की अदम्य लालसा के साथ

मैं अभी तक जिंदा हूं 

और देख रहा हूं

मौत के आंकड़ों का सच 

सबसे तेज़

सबसे पहले की गारंटी के साथ ।


इस महामारी में

व्यवस्था का रंग 

एकदम कच्चा निकला 

प्रशासनिक वादों के फंदे से

रोज ही 

हजारों कत्ल हो रहे हैं ।


इस महामारी में

मृत्यु का सपना 

धड़कनों को बढ़ा देता है

जलती चिताओं के दृश्य

डर को 

और गाढ़ा कर देता है ।


इस महामारी में

हवाओं में घुला हुआ उदासी का रंग

कितना कचोटता है ?

संवेदनाओं की सिमटती परिधि में

ऑक्सीजन / दवाइयों की कमी से

हम सब पर

अतिरिक्त दबाव है ।


इस महामारी में

सिकुड़े और उखड़े हुए लोग 

गहरी, गंभीर शिकायतों के साथ

कतार में खड़े हैं

बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, अस्पताल से लेकर

शमशान घाट तक ।


इस महामारी में

हम सब एकसाथ अकेले हैं

होने न होने के बीच में

सासों का गणित सीख रहे हैं

इधर वो रोज़ फ़ोन कर पूछती है

कैसे हो ?

जिसका मतलब होता है

ज़िंदा हो न ?


               ------ डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

                       के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

                       कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र

                       manishmuntazir@gmail.com





Wednesday 28 April 2021

मराठी भाषा में राष्ट्रीय गौरव

 

            मराठी भाषा की बात करें तो 1188 ई. के आस-पास नाथपंथीय मुकुंदराज के विवेकसिंधु की चर्चा सबसे पहले होती है, जो अद्वैत भक्ति से संबन्धित है । इन्हें मराठी का आदिकवि भी माना जाता है । 1128 से 1200 ई. के बीच इनका जीवनकाल माना जाता है । "विवेकसिंधु" और "परमामृत" नामक इनके दो ग्रंथों की चर्चा मिलती है ।  ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी को कैसे भुलाया जा सकता है ? जो कि 1290 ई. के आस-पास की रचना मानी जाती है । कृष्ण पर केंद्रित वामन पंडित की रचना यथार्थदीपिका भी बहुत महत्वपूर्ण है । नारायनदास कृत नारायण किर्ति और रत्नाकर कृत रत्नाकर भी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । मुगलकाल के संत एकनाथ के साहित्य से सभी परिचित हैं । रामायण पर केंद्रित सबसे अधिक ग्रंथ बांग्ला और मराठी में लिखे गये हैं । कवि गिरिधर के सात अलग संस्करण, माधव स्वामी का एक और मोरेश्वर रामचंद्र पराड़कर / मोरोपंत(1729-1794) के 108 संस्करण की बात अद्भुद हैं । वैसे मोरेश्वर रामचंद्र पराड़कर / मोरोपंत के लिखे 94-95 संस्करण मिलते हैं । बाकी के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती । लेकिन एक ही व्यक्ति द्वारा रामायण को केंद्र बनाकर इतने संस्करण लिखना विलक्षण है ।   

 

           19वीं शती के अंत तक मराठी भाषा में भी राष्ट्रीय गौरव का भाव अधिक प्रबल हुआ । विष्णू शास्त्री चिपलूंकर निबंधमाला में अपने लेख शुरू करने से पहले संस्कृत की कोई सूक्ति लिखते थे । प्राचीन कथाओं को समकालीन समस्याओं से जोड़ते हुए उपन्यास लिखने की परंपरा महाराष्ट्र से ही शुरू हुई । साने गुरुजी, जी.एन. दांडेकर और वी.एस.खांडेकर कुछ ऐसे ही उपन्यासकार थे । पांडुरंग सदाशिव साने (24 दिसम्बर 1899 – 11 जून 1950) मराठी भाषा के प्रसिद्ध लेखक, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे साने गुरूजी के नाम से प्रसिद्ध हुए । आप ने कुरल नामक तमिल ग्रंथ का मराठी अनुवाद किया । आंतरभारती’ नामक संस्था की स्थापना साने गुरुजी ने  प्रांत-प्रांत के मध्य चल रही घृणा को कम करने हेतु की । क्षेत्रवाद और प्रांतवाद भारत की अखंडता के लिए घातक है, इस बात को वे अच्छे से समझते थे । ‘आंतरभारती’ का उद्देश्य ही था कि विभिन्न राज्यों के लोग एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति को सीखें, उनकी प्रथा,परंपरा और मान्यताओं को समझें ।

 

            गोपाल नीलकंठ दांडेकर / जी.एन. दांडेकर (1916- 1998) ने सौ से अधिक पुस्तकें लिखीं जिनमें 26 उपन्यास थे ।स्मरणगाथा के लिए आप को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । वी.एस.खांडेकर / विष्णु सखाराम खांडेकर (1898-1976 ) ने ययाति सहित कुल16 उपन्यास लिखे। जिनमें  हृदयाची हाक, कांचनमृग, उल्का, पहिले प्रेम, अमृतवेल, अश्रु  शामिल हैं। नाटकों के क्षेत्र में भी ऐसा ही प्रयोग हुआ । विष्णुदास भावे (1819-1901) ऐसे ही नाटककार थे । आप को मराठी रंगभूमि के जनक के रूप में भी जाना जाता है । आप ने ही  1843 में "सीता स्वयंवर" नामक मराठी का पहला नाटक रंगमंच पर प्रस्तुत किया । रामायण को आधार बनाकर आप ने विविध विषयों पर दस नाटक लिखे । "इंद्रजीत वध" , "राजा गोपीचंद" और "सीता स्वयंवर" जैसे नाटकों का लेखन और दिग्दर्शन आप ने सफलतापूर्वक

 किया।

 

          समग्र रूप में हम यह कह सकते हैं कि हमें अपनीय मानवीय उदारता और  विस्तार देना होगा,ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे ।  निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है । स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंश चिंतनीय है । विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक,पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है । समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं । जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है । भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है । सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा । अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा । खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा । सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा ।

 

भारतीय क्षेत्रीय साहित्य

 

         भारतीय क्षेत्रीय साहित्य किसी एक मूल तत्व को लेकर सबसे अधिक आंदोलित भक्तिकाल में दिखाई पड़ता है । सभी सगुण-निर्गुण संतों ने मानवता को जीवन के सबसे बड़े सत्य के रूप में स्वीकार किया है । आसाम में शंकरदेव, बंगाल में चंडीदास, उत्तर में सूरदास, तुलसीदास, कबीर और मीराबाई इत्यादि । कर्नाटक में पुरंदरदास, तमिलनाडु में कंबन, चेरुशशेरी केरला में, त्यागराज आंध्रा, तुकाराम महाराष्ट्र, नरसी मेहता गुजरात और बलरामदास उड़ीसा में इसी मानवीय भाव के गीत गा रहे थे । इनके पहले के रासो ग्रंथ, आल्हा गीत, पोवाड़ा इत्यादि के अंदर भी ऐसे ही राष्ट्रीय भाव थे । ठीक इसी तरह आगे चलकर पूरा भारत एक स्वर में आज़ादी के तराने बुन रहा था । नवीनचंद्र सेन द्वारा लिखित बैटल ऑफ प्लासी का हिंदी अनुवाद मैथिलीशरण गुप्त ने किया । काजी नज़रुल इस्लाम ने हिंदी में अग्निवीणा लिखी । ऐसे कई रचनाकार रहे जिन्होंने क्षेत्रीय दायरे में अपने को समेटे नहीं रक्खा । कन्नड के पुटप्पा, गुजराती के नर्मदाशंकर दवे, असमिया के अंबिकागिरी रामचौधरी और सावरकर, इक़बाल इसके उदाहरण हैं ।

 

         जमीदारों द्वारा गरीबों, वंचितों के शोषण की कहानी भी भारतीय भाषाओं में प्रमुखता से चित्रित हुई । प्रेमचंद का गोदान’, जसवंत सिंह का पंजाबी उपन्यास सूरजमुखी’, व्यंकटेश दिगम्बर माडगुलकर का मराठी उपन्यास बनगरवाडी’, फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आंचल’, उर्दू में राजेंद्र सिंह बेदी की एक चादर मैली सी’, बंगाली में शरतचंद्र चटर्जी का पल्ली समाज’, ताराशंकर बंदोपाध्याय की गणदेवता’, आसाम के चाय बगानों पर केंद्रित बिरंचि कुमार बरुआ का उपन्यास सेउजी पटर कहनी(1955)  उड़िया में फ़कीर मोहन सेनापति का ‘छह माण आठ गुंठ’, तेलगू में उन्नवा लक्ष्मीनारायण का मालापल्ली, तमिल के अकिलन/ पेरुंगळूर वैद्य विंगम अखिलंदम ( पी. वी. अखिलंदम) की 'पावै विलक्कु’, कन्नड़ के शिवराम कारंत / कोटा शिवराम कारंत का 'मरलि मण्णिगे’, मलयालम के तकजि शिवशंकर पिल्लै /टी.एस.पिल्लै की 'रंटि टंगषी' (दो सेर धान) और गुजराती के पन्नालाल पटेल लिखित मलाला जीव(मैला जीवन) इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं ।

 

       ऋतुओं के संदर्भ में कालिदास का ऋतुसंहार , गुरुनानक देव की तुखारी राग तथा राजस्थानी, अवधी की बारहमासा एक ही परंपरा का निर्वहन करते हैं । गुरु नानक देव ने  तुखारी राग के बारहमाहा में वर्ष के बारह महीनों का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है। मलिक मोहम्मद जायसी भी इस परंपरा का निर्वहन पद्मावत में करते हैं । कार्तिक मास में नागमती की विरह –वेदना का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि-

कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल,हौं बिरहै जारी।।

चौदह करा चाँद परगासा। जनहुँ जरै सब धरति अकासा।।

सेक्स और हिंसा को किसी भी क्षेत्रीय साहित्य में उस तरह जगह नहीं मिली जैसे यूरोप में पिछले बड़े युद्धों के बाद मिला । ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय दर्शन जीवन की संपूर्णता में विश्वास करता है ।

             श्वेताश्वतरोपनिषद(4/6) में वर्णन मिलता है कि दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। हमारा शरीर एक पीपल के वृक्ष समान है । आत्मा तथा परमात्मा सनातन सखा अर्थात् दो पक्षी हैं जो शरीर रूपी वृक्ष पर हृदय रूपी घोसलें में एक साथ निवास करते हैं । उनमें से एक तो कर्मफल का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।)

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥

मानवीय उदारता का श्रेष्ठ साहित्य महाभारत को माना जा सकता है । अलग-अलग भारतीय भाषाओं में भिन्नता के बाद भी कुछ सूक्ष्म सूत्र ज़रूर हैं जो इसे जोड़ता है । देवताओं और मनुष्यों के बीच पुल बनानेवाले भारतीय ऋषियों,मुनियों,संतों एवं कवियों ने दिव्य और पावन के अवतरण की संभावनाओं को हमेशा जिंदा रखा । राम और कृष्ण के रूप में इन्होंने समाज को एक आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श दिया ।