Saturday 3 August 2019
Tuesday 2 July 2019
21. सहयज्ञ ।
अतिवादिता का उद्रेक
वांछनीय और प्रतीक्षित
रूपांतण की संभावित प्रक्रिया को
असाध्य बना देता है
फ़िर ये भटकते हुए सिद्धांत
समय संगति के अभाव में
अपने प्रतिवाद खड़े करते हैं
अपने ही विकल्प रूप में ।
यही संस्कार है
सांस्कृतिक संरचना का
जो निरापद हो
परंपरा की गुणवत्ता
और प्रयोजनीयता के साथ
करता है निर्माण
प्रभा, ज्ञान और सत्य का ।
ज्ञानात्मक मनोवृत्ति
संभावनात्मक नियमों की खोज में
लांघते हुए सोपान
करती हैं घटनाओं के अंतर्गत
हेतुओं का अनुसंधान
और देती है
सनातन सारांश ।
स्वरूप के विमर्श हेतु
सौंदर्यबोधी संवेदनशीलता
खण्ड के पीछे
अखण्ड का दर्शन तलाशती है
प्रतिवादी शोर को
संवादी स्वरों में बदलती है
और अंत में
अपनी आनुष्ठानिक मृत्यु पर भी
सबकुछ सही देखती है
क्योंकि वह
सब को साथ देखती है ।
--------- मनीष कुमार मिश्रा ।
Monday 15 April 2019
Thursday 11 April 2019
दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय अन्तर्विषयी परिसंवाद । मुख्य विषय - भारत का क्षेत्रीय सिनेमा ।
दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय अन्तर्विषयी परिसंवाद । मुख्य विषय - भारत का क्षेत्रीय सिनेमा । आयोजक - हिंदी विभाग : के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय, कल्याण(पश्चिम),महाराष्ट्र ।
अधिक जानकारी के लिए log in करें हमारी वेबसाइट
http://www.manishkumarmishra.com/
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Two Day International Interdisciplinary Conference on "Regional Cinema of India
Two Day International Interdisciplinary Conference on "Regional Cinema of India" @ K.M.Agrawal College,kalyan-west, Maharashtra. For more details log in
www.manishkumarmishra.com
MANISHKUMARMISHRA.COM
Being skilled in various field and constantly exploring every edge of Hindi literature, In Mr. Manishkumar Misra has presented more than 50 Papers at various events.
11. हाँ मैं भी चिराग़ हूँ पर ।
कुछ सवालात हैं
कि जिनमें
उलझा सा हूँ
मैं भी एक चिराग़ हूँ
बस
बुझा- बुझा सा हूँ ।
अब भी उम्मीद है
कि वो आयेगी ज़रूर
सो प्यार की राह में
ज़रा
रुका- रुका सा हूँ ।
न जाने
कितनी उम्मीदों को
ढोता हूँ पैदल
अभी चल तो रहा हूँ
पर
थका - थका सा हूँ ।
यूँ तो आज भी
इरादे
वही हैं फ़ौलाद वाले
बस वक्त के आगे
थोड़ा
झुका- झुका सा हूँ ।
.............Dr. Manishkumar C.Mishra
कि जिनमें
उलझा सा हूँ
मैं भी एक चिराग़ हूँ
बस
बुझा- बुझा सा हूँ ।
अब भी उम्मीद है
कि वो आयेगी ज़रूर
सो प्यार की राह में
ज़रा
रुका- रुका सा हूँ ।
न जाने
कितनी उम्मीदों को
ढोता हूँ पैदल
अभी चल तो रहा हूँ
पर
थका - थका सा हूँ ।
यूँ तो आज भी
इरादे
वही हैं फ़ौलाद वाले
बस वक्त के आगे
थोड़ा
झुका- झुका सा हूँ ।
.............Dr. Manishkumar C.Mishra
10. बीते हुए इस साल से ।
बीते हुए इस साल से
विदा लेते हुए
मैंने कहा -
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
अपने समय का
आख्यान बनकर
पथराई आँखों और
खोई हुई आवाज़ के बावजूद
आकलन व पुनर्रचना के
हर छोटे-बड़े
उत्सव के लिए ।
त्रासदिक
दस्तावेजों के पुनर्पाठ
व
संघर्ष के
इकबालिया बयान के लिए
तुम्हारी करुणा का
निजी इतिहास
बड़ा सहायक होगा ।
बारिश की
बूँदों की तरह
तुम आते रहना
पूरे रोमांच और रोमांस के साथ
ताकि
लोक चित्त का इंद्रधनुष
सामाजिक न्याय चेतना की तरंगों पर
अनुगुंजित- अनुप्राणित रहे ।
अंधेरों की चेतावनी
उनकी साख के बावजूद
प्रतिरोधी स्वर में
सवालों के
शब्दोत्सव के लिए
तुम्हारा आते रहना
बेहद जरूरी है ।
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
ताकि
ये दाग - दाग उजाले
विचारों की
नीमकशी से छनते रहें
संघर्ष और सामंजस्य से
प्रांजल होते रहें
जिससे कि
सुनिश्चित रहे
पावनता का पुनर्वास ।
----- मनीष कुमार मिश्रा ।
विदा लेते हुए
मैंने कहा -
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
अपने समय का
आख्यान बनकर
पथराई आँखों और
खोई हुई आवाज़ के बावजूद
आकलन व पुनर्रचना के
हर छोटे-बड़े
उत्सव के लिए ।
त्रासदिक
दस्तावेजों के पुनर्पाठ
व
संघर्ष के
इकबालिया बयान के लिए
तुम्हारी करुणा का
निजी इतिहास
बड़ा सहायक होगा ।
बारिश की
बूँदों की तरह
तुम आते रहना
पूरे रोमांच और रोमांस के साथ
ताकि
लोक चित्त का इंद्रधनुष
सामाजिक न्याय चेतना की तरंगों पर
अनुगुंजित- अनुप्राणित रहे ।
अंधेरों की चेतावनी
उनकी साख के बावजूद
प्रतिरोधी स्वर में
सवालों के
शब्दोत्सव के लिए
तुम्हारा आते रहना
बेहद जरूरी है ।
तुम जा तो रहे हो
पर
आते रहना
ताकि
ये दाग - दाग उजाले
विचारों की
नीमकशी से छनते रहें
संघर्ष और सामंजस्य से
प्रांजल होते रहें
जिससे कि
सुनिश्चित रहे
पावनता का पुनर्वास ।
----- मनीष कुमार मिश्रा ।
15. सबसे पवित्र वस्तु ।
महीनों बाद
जब तुम्हारे ओठ
चूम रहे थे
मेरे ओठों को
कि तभी
तुम्हारे गालों से
लुढ़कते हुए
आँसू की एक गर्म बूँद
मेरे गालों पर
आकर ठहर गई
और
आज तक
वहीं ठहरी हुई है
मेरे लिए
दुनियां की सबसे पवित्र
वस्तु के रूप में
तुम्हारे प्रेम का
यह उपहार
मेरे साथ रहेगा
हमेशा ।
................ Dr ManishkumarC.Mishra
जब तुम्हारे ओठ
चूम रहे थे
मेरे ओठों को
कि तभी
तुम्हारे गालों से
लुढ़कते हुए
आँसू की एक गर्म बूँद
मेरे गालों पर
आकर ठहर गई
और
आज तक
वहीं ठहरी हुई है
मेरे लिए
दुनियां की सबसे पवित्र
वस्तु के रूप में
तुम्हारे प्रेम का
यह उपहार
मेरे साथ रहेगा
हमेशा ।
................ Dr ManishkumarC.Mishra
14. अमलतास के गालों पर ।
अपने एकांत में
अपनी ही खामोशियाँ सुनता हूँ
सुबह की धूप से
जब आँखें चटकती हैं
तो महकी हुई रात के ख़्वाब पर
किसी रोशनी के
धब्बे देखता हूँ ।
धुंधलाई हुई शामों में
कुछ पुराने मंजरों का
जंगल खोजता हूँ
फ़िर वहीं
ख़्वाबों की धुन पर
अमलतास के गालों पर
शब्दों के ग़ुलाल मलता हूँ ।
तुम्हारी दी हुई
सारी पीड़ाओं के बदले
मैं
प्रार्थनाएं भेज रहा हूँ
करुणा के घटाओं से बरसते
उज्ज्वल और निश्छल
काँच से कुछ ख़्वाब हैं
जिन्हें फ़िर
तुम्हारे पास भेज रहा हूँ ।
हाँ !!
यह सच है कि
तुम्हारे बाद
मेरे कंधों पर
सिर्फ़ और सिर्फ़ समय का बोझ है
फ़िर भी
किसी अकेले दिग्भ्रमित
नक्षत्र की तरह
मैं समर्पण से प्रतिफलित
संभावनाएं भेज रहा हूँ ।
----- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
अपनी ही खामोशियाँ सुनता हूँ
सुबह की धूप से
जब आँखें चटकती हैं
तो महकी हुई रात के ख़्वाब पर
किसी रोशनी के
धब्बे देखता हूँ ।
धुंधलाई हुई शामों में
कुछ पुराने मंजरों का
जंगल खोजता हूँ
फ़िर वहीं
ख़्वाबों की धुन पर
अमलतास के गालों पर
शब्दों के ग़ुलाल मलता हूँ ।
तुम्हारी दी हुई
सारी पीड़ाओं के बदले
मैं
प्रार्थनाएं भेज रहा हूँ
करुणा के घटाओं से बरसते
उज्ज्वल और निश्छल
काँच से कुछ ख़्वाब हैं
जिन्हें फ़िर
तुम्हारे पास भेज रहा हूँ ।
हाँ !!
यह सच है कि
तुम्हारे बाद
मेरे कंधों पर
सिर्फ़ और सिर्फ़ समय का बोझ है
फ़िर भी
किसी अकेले दिग्भ्रमित
नक्षत्र की तरह
मैं समर्पण से प्रतिफलित
संभावनाएं भेज रहा हूँ ।
----- डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।
13. पागलपन ।
उस पागलपन के आगे
सारी समझदारी
कितनी खोखली
अर्थहीन
और निष्प्राण लगती है
वह पागलपन
जो तुम्हारी
मुस्कान से शुरू हो
खिलखिलाहट तक पहुँचती
फ़िर
तुम्हारी आँखों में
इंद्रधनुष से रंग भरकर
तुम्हारी शरारतों को
शोख़ व चंचल बनाती ।
वह पागलपन
जो मुझे रंग लेता
तुम्हारे ही रंग में
और ले जाता वहाँ
जहाँ ज़िन्दगी
रिश्तों की मीठी संवेदनाओं में
पगी और पली है ।
तुम्हारे बाद
इस समझदार दुनियाँ के
बोझ को झेलते हुए
लगातार
उसी पागलपन की
तलाश में हूँ ।
---------- मनीष कुमार मिश्रा ।
सारी समझदारी
कितनी खोखली
अर्थहीन
और निष्प्राण लगती है
वह पागलपन
जो तुम्हारी
मुस्कान से शुरू हो
खिलखिलाहट तक पहुँचती
फ़िर
तुम्हारी आँखों में
इंद्रधनुष से रंग भरकर
तुम्हारी शरारतों को
शोख़ व चंचल बनाती ।
वह पागलपन
जो मुझे रंग लेता
तुम्हारे ही रंग में
और ले जाता वहाँ
जहाँ ज़िन्दगी
रिश्तों की मीठी संवेदनाओं में
पगी और पली है ।
तुम्हारे बाद
इस समझदार दुनियाँ के
बोझ को झेलते हुए
लगातार
उसी पागलपन की
तलाश में हूँ ।
---------- मनीष कुमार मिश्रा ।
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