Sunday 18 August 2013

आधुनिक कन्नड़ साहित्य में चित्रित रामायण




                                  मूल लेखक -  डॉ. टी. वसंतकुमार
                                  अनुवाद - डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

किसी भी समाज की प्रगति और समृद्धि का मुख्य आधार उसकी सांस्कृतिक विरासत और उसके प्रत्यक्ष उपयोग पर निर्भर होती है। इनका आदान-प्रदान वर्णित मानवीय विचारों, मनोभावों, संकल्पनाओं एवम संवेदनाओ के माध्यम से ज्ञान के संगठित स्वरुप में सामने आता है। इस --- विजय पूरी तरह से निर्भर होती है सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक परिवर्तनों को लगातार समझने के प्रयास और --- समाज के साथ उसकी प्रासंगिकता पर।
महाकाव्य किसीभी सुसंस्कृत समाज की सांस्कृतिक और साहित्यिक संपत्ती हैं। किसी भी भारतीय को यह बताने में गर्व महसूस होगा कि उसके पास रामायण और महाभारत जैसे दो महान महाकाव्यों है। ये महाकाव्य संयुक्त रूप से सर्व समावेशक भारतीय दृष्टिकोन दखलाते हैं। दूसरे अर्थो में हम कह सकते हैं कि ये --- जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। वे प्राचीन --- पूर्ण विकसित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं और समांतर रूप से आधुनिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं। इन महाकाव्यों में विद्यमान मूल्य, मानवीय दृष्टिकोण और इनकी निश्चल --- अभिजात्य साहित्य में इनका शाश्वत स्थान बनाये रखे है।
इन महाकाव्यों की न्यायसंगतता एवम् इनकी यथार्थपरक -- सदियों से सृजनशील लेखकों को जटिल विषयों पर लिखने के लिए प्रेरित किया है। एक तरह से हर लेखक उस बात को -- व्यक्ति देना चाहता है जो पहले से ही महाकाव्यों के रूप में मौजूद रही है। विशेषज्ञता इस बात में होती है कि अपने अनुभव को कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जाये। नये दृष्टिकोण को सामने लाया जाये। पात्रों के वैविध्यपूर्ण चरित्रों का आधुनिक समाज के साथ तादाम्य स्थापित करना। इस तरह का योगदान यद्यपि किसी आधारभूत सामग्री से संबद्ध होते हुए भी सर्वथा नवीन होता है।
भारतीय दृष्टिकोण मुख्य रूप से दार्शनिक है। इसका छुकाव दैनिक दिनचर्या की तरफ न होकर आध्यात्मिक की तरफ है। हम इस बात में विश्वास करते हैं कि ``ना अनऋिषि कृति काव्यम्'' अर्थात जो संत नहीं है वह काव्य नहीं रच सकता।  हमारे पराने कृतिकार इन्हीं भावों से भरे रहते थे। महाकाव्यों में निहित व्यवहारिक उपयोगिता, सार्वभौमिक वेदना और जीवन के गुणों ने हमेशा ही कृतिकारो को नई रचना के लिए भावभूमि प्रदान की है।
यह सच्चाई है कि इन महाकाव्यों का प्रभाव पूरी तरह से नई रचनाओं पर दिखायी पड़ता है। जिसके माध्यम से उन्होंने ऐसी दुनिया में प्रवेश किया जो अपने नियमों पर चलती है।, खुद को सहारा देते हुए नये स्तर के सत्य को सामने लाती है। ठीक इसी समय हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कविता का सच अकेले धर्म और दर्शन का सच नहीं है, बल्कि यह अनुभूति के एक दूसरे पक्ष को भी सामने लाता है। इन्हीं बातों का ध्यान में रखते हुए पुराने कृतिकारों ने साहित्यिक स्पर्श के माध्यम से जीवन मूल्यों को नये रूपों में उद््घाटित करने का प्रयास किया।
महाकाव्य, किसी भी परिवर्तनशील समाज में समावेशित संस्कृति का संगठित खजाना होता है। लंबे समय से चली आ रही जीवन शैली, उसका विवचन, विश्लेषण, वैशिष्ट्य और अभिव्यक्ति के माध्यम पर इन महाकाव्यों का स्पष्ट प्रभाव दिखायी पड़ता है। हर व्यक्ति अपने अंदर निहित बहुमुखी प्रतिभा, कला इत्यादी को सामने लाने का प्रयास करता है। पीढ़ियों के बीच में ऐसे व्यक्ति संस्कृति संरक्षण का बड़ा कार्य करते हैं। इसतरह महान सांस्कृतिक विरासत सावधानीपूर्वक सँभाली जाती है और उसका पूर्णरूपेण उपयोग होता है। हमारे रचनाकारों ने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से अनेकों जीवनानुभवों को सजोने का सफल कार्य किया।
महाकाव्यों का मुख्य उ ेश्य वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के साथ मानवीय व्यवहार का पोषण एवम् संवर्धन है। आधुनिक कन्नड़ साहित्य में भी यही बातें परिलक्षित होती हैं। इस शोधपत्र में आधुनिक कन्नड साहित्य में इन्हीं बिंदुओं की चर्चा करने का प्रयास किया गया है। किसी भी अन्य भारतीय साहित्य की तरह ही कन्नड साहित्य ने भी महाकाव्यों से सीधे अनुवाद रूप में या रुपांतरण के तौर पर बहुत कुछ ग्रहण किया है। यद्यपि इनकी अपनी सीमाएँ हैं, अत: कुछ प्रतिनिधि रचनाओं की ही चर्चा यहाँ पे होगी, जिससे इस तरह की रचनाशीलता का जायजा लिया जा सके। साथ ही साथ आधुनिक कन्नड़ साहित्य पर महाकाव्यों का प्रभाव भी रेखांकित किया जा सके।
मैंने अपने अध्ययन को गंभीर विश्लेषण के लिए कुछ सीमाओं में बाँधा है। रामायण और महाभारत को अनेकों शैलियों में लिखा गया है। जैसे कि नाटक, उपन्यास, लघु कहानियाँ इत्यादि! मैंने करियम्पू द्वारा रचित ``रामायण दर्शन'' का चुनाव किया है, क्योंकि यह व्यापक रूप में आधुनिक कन्नड़ साहित्य पर रामायण का प्रभाव दिखाता है। ``रामायण दर्शन'' मुक्त छंद में लिखा गया काव्य है जिसे उसके महान साहित्यिक अवदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यद्यपि इसके अंतर्गत रामायण महाकाव्य की मूल कथा को बड़ी अच्छी तरह ग्रहण किया गया है लेकिन इसके बाह्य कथानक और आंतरिक विश्लेषण में काफी परिवर्तन दिखायी पड़ता है। लेखक इसे अपने शब्दों में इस तरह कहते है - ``यद्यपि यह मूल रूप में वही कथा है जो मुनि वाल्मिकि ने लिखी हैं, फिर भी यह कन्नड़ भाषा में नई बुनावट के साथ उसी कथा का पुनर्जन्म जैसा ही है।''
वे आगे इस बात पर भी जोर देते हैं कि इस रचना की गुणवत्ता इसके पुनर्लेखन प्रक्रिया में अधिक प्रखर होती है। यह कोई उ ेश्य विहीत रुपांतरित रचना मात्र नहीं है। कवि के अपने शब्दों में ``यह प्रकृति में घटित सर्वसामान्य घटनाओं का प्रतिबिंबित विश्लेषण मात्र न होकर, उसकी एक आंतरिक और अमर छवि है।'' राम-सीता के रूप में वे एक महाशक्ति की कल्पना करते हैं। जो कि मानवीय शक्ति के आध्यात्मिक सूत्रधार के रूप में सामने आते हैं। यह पूरी की पूरी रचना अपने आप में एक साहसिक यात्रा की तरह है जो अवास्तविक से वास्तविक और असत्य से सत्य की ओर बढ़ती है।
यद्यपि इस रचना विशेष में कई साहित्यिक मूल्य परिलक्षित होते हैं, लेकिन यहाँ हमारा अध्ययन मूल रूप से इसपर केन्द्रित है कि कन्नड़ साहित्य पर रामायण का सामान्य प्रभाव और रामायण दर्शन में निहित कलात्मक समागमता के तथ्यों की उपलब्धता।
कवि अपनी रचनाधर्मिता की स्वतंत्रता का उपयोग करता है और मूल एवम् अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन से कुछ हद तक दूरी बना लेता है। उनका मुख्य जोर आनंद की उस संकल्पना पर है जो मानवीय जीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। वे इस बात के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों को उद््घाटित करते हैं। अपनी बात को बल प्रदान करने के लिए उन्होंने कई ठोस और महत्त्वपूर्ण संकल्पनाएँ भी प्रस्तुत की हैं।
वह वर्णन बहुत ही प्रतीकात्मक है, जब एक घटना विशेष वाल्मीकि को रामायण कहने के लिए प्रेरित करती है। वो भी एकदम नये और आदर्शवादी दृष्टिकोण के साथ। वाल्मीकी व्याध की हरकत पर क्रोधित होकर रोष नहीं प्रकट करते और ना ही शाप देते हैं। बल्कि वे अहिंसा और सहिष्णुता के साथ व्यापक बोध दृष्टिकोण का परिचय देते हुए शांति प्रिय आत्मा का रूप सामने लाते हैं। यह कवि के उ ेश्य को भी उद््घाटित करता है जो मानते हैं कि - पाप से घृष्णा करो पर पापी से नहीं।
यह सच्चाई है कि हर मनुष्य के अंदर मूल गुण के रूप मे तामस, राजस और सत्व गुण विद्यमान रहते हैं। तामसी गुणों का दहन सत्व गुणों को बढ़ाने के लिए किया जाता है। ये मूल रूप में स्वतंत्र न होकर परस्पर एक-दुसरे पर अवलंबित हैं। एक की अधिकता या कमी दूसरे के परिणाम को निश्चित ही प्रभावित करता है। अगर हम इसे अधिक व्यापकता से समझना चाहेंगे तो एक दूसरा ही आयाम हमारे सामने होगा। वाल्मीकी ने अपनी रचनाधर्मिता की `संजीवनी' का उपयोग कर क्रौंच को नया जीवन दान दिया। यह मनुष्य की अमरता और आध्यात्मिक दया के स्वरूप को सामने लाता है। इसी तरह के कई जीवन मूल्यों को इस पूरी कृति में रचनाकार ने प्रस्तुत की है।
यह पूरी की पूरी पृष्ठभूमि एक तरह से स्पष्टीकरण है कवि द्वारा मूल रचना की आंतरिक और बाह्य संरचना में किये गये परिवर्तनों के लिए। करियम्पू स्वीकार करते हैं कि कोई काव्य को निर्मित नहीं करता, परंतु उसका पुनर्निर्माण अवश्य करता है। जो कि उसकी बौद्धीक मर्यादाओं पर अवलंबित होता है। कवि के शब्दो में ``एक शिल्पकार अपनी कलाकृति का निर्माता होता है ना कि उस पत्थर का जिसमें वह मूर्ति छुपी होती है।'' करियम्पू अपनी जीवन दृष्टि को अपनी साहित्यिक दृष्टि से मिला देते है। आप विनम्रता को सांस्कृतिक और कलात्मक प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं।
यह कोई नहीं बता सकता कि किसी कलाकार का व्यक्तिगत दायरा कहाँ समाप्त होता है और उसकी अभिव्यक्ति की शुरुआत कहाँ से होती है। एक रचनाकार का दूसरे रचनाकार से प्रभावित होना सहज और स्वाभाविक है। `करियम्पू' इस संदर्भ में अधिक से अधिक सार्वभौमिक दिखायी पड़ते हैं। इसकी झलक उनकी कृतियों में भी मिलती है। एक मनोवैज्ञानिक दायरे के अंदर वे सभी चरित्रों का आँकने का प्रयास करते हैं। यही बात उन्हें एक उदात्त सार्वभौमिक रचना के कार्य से जोड़ती है।
रामायण महाकाव्य अत्यंत प्राचीन है। इसके अंदर कई सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कर्मकांडों का वर्णन है जो उस समय के रीति-रिवाजों के अनुसार प्रयोग के लाये जाते थे। लेकिन बाद के साहित्यकार उसे दूसरे दृष्टिकोण से देखता है। इस बदलाव को समझने के लिए कलाकारों, कवियों को उसकी पुनर्रचना में थोड़ा-बहुत परिवर्तन करना पड़ता है। इसी के तहत रामायण की मूल संरचना में परिवर्तन किया गया, जिसमें हिंसा को `सात्विक विधान' में बदला गया राजा दशरथ पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टी यज्ञ करना चाहते हैं। जब राजा दशरथ को समझाते हैं कि ``हिंसा कभी भी बच्चों को जन्म नहीं देगी। वो तो साक्षात देवताओं की मूर्ति हैं। अपनी प्रजा को खुश रखने का प्रयत्न करो, उन्हें संतुष्ट करके उनका आशीष लो। इस सामान्य और संघटित कार्य से ही ईश्वर की अनुकंपा होगी और सद््गुणी बच्चों की प्राप्ति भी।'' इस तरह की नई बातें सामाजिक संदर्भो के प्रति जागरूकता दिखलाते हैं।
कवि हमारा ध्यान उन लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफ आकर्षित करता है, जिनके आधार पर वर्तमान समाज की  शासन व्यवस्था है। ये यह मान्य करते हैं कि रामायण काल में भी आम जनता की धारणा को बहुत महत्त्व दिया जाता था। इसीलिए ऐसी बातों की वकालत करते हुए भी वे दिखलायी पड़ते हैं।
मैं कुछ बातों को स्पष्ट करना चाहता हँू जिनसे कुछ अस्पष्टताएँ दूर हो सकें। जब हम कहते हैं कि `रामायण दर्शन' रामायण का पुनर्लेख है और बहुद हद तक समसामायिक संदर्भो को अपने में समेटे हुए है तो इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं निकाला जाना चाहिए। कि इसकी आंतरिक संरचना में कोई मिचकीय तत्त्व नहीं है। वास्तव में ये पारंपारिक तत्व किसी रचना के प्रभाव को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण होते हैं। `रामायण दर्शन' के अंतर्गत महामानवता को भी पूरी प्रमुखता से उठाते हुए कवि ने इसे वर्तमान संदर्भो से जोड़कर दो भिन्न कालखंडों के बीच सेतु का काम किया है।
`रामायण दर्शन' के अंतर्गत सार्वभौमिकता की संकल्पना अधिक व्यापक और स्पष्ट रूप से सामने आती है। पुराने समय की कई बातें मान्यताएँ आधुनिक पीढ़ी के साथ वैचारिक तादाम्य स्थापित नहीं कर पाती। इसीलिए `रामायण दर्शन' अधिक उदार मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं को बड़े कैनवास पर सामने लाता है। कवि किसी तरह के तात्विक विश्लेषण की चौह ी से बंधा नहीं होता जो कि उसकी अभिव्यक्ति के प्रवाह को कम करे। बल्कि वह कुछ नये संदर्भो, प्रतीकों इत्यादि के माध्यम से काव्यगत मूल्यों और सिद्धांतो को निखारता है, जिससे वह अधिक ग्राह्य और उपयोगी हो सके।
`करियम्पू' राम को सामान्य बालक के रूप में चित्रित करते हैं। उनके अंदर कतिपय दैवीय शक्तियाँ दिखायी गई हैं, जो आगे चलकर परिस्थितियों के अनुरूप सामने आती हैं, ना की किसी दिव्यता या भव्यता को दिखाने के लिए। मंथरा के प्रसंग में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अधिक स्पष्ट होता है। कवि बड़ी खूबी के साथ उसके (मंथरा) अंदर निहित बदले की भावना को दिखलाते हैं। कौशल्या के द्वारा अपनी अवहेलना का वह हमेशा से ही बदला लेना चाहती थी। इसी के परिणाम स्वरूप वह इतने बड़े महाविनाश का बीजारोपण करने में सफल हो पाती है। यह मानवीय स्वभाव का सामान्य व्यवहार है जिसे बड़े ही सुंदर तरीके से कवि ने प्रस्तुत किया है।
राम एक अबोध बालक हैं जो चाँद को अपने हाँथों में लेकर उससे खेलना चाहते हैं। राम की इस जिद पर सभी माताएँ परेशान हो जाती हैं। राम चाँद के लिए रो रहे हैं। ऐसे में बुद्धिमानी का परिचय देते हुए मंथरा कैकेयी को सलाह देती है कि राम को प्रतिबिंबित चाँद दिखाकर बहलाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए कौशल्या उसे भला-बुरा कहती है, क्योंकि वह बच्चे को बहलाने की बात करती है। कौशल्या मंथरा को अशुभ कहकर संबोधित करती है। अपने इस अकारण अपमान को मंथरा भूल नहीं पाती और उसके मन में बदले की भावना घर कर जाती है। वह अपना बदला लेने के लिए सही समय का इंतजार करने लगती है। यह पूरा प्रसंग मंथरा के मनोविज्ञान को समझने में काफी सहायक है।
कवि इस पूरे प्रसंग को बड़ी सजगता से प्रस्तुत करते हैं। वो उस सामाजिक धारणा को समझना चाहते हैं जो मंथरा को एक दुष्ट स्त्री के रूप में सामने लाती है। वो सामाजिक मनोविज्ञान को अधिक सूक्ष्मता में समझने का प्रयास करते हैं। कवि का स्पष्ट मानना है कि, ``सामाजिक घृणा अपनी भौतिक कुरूपता से व्यंग्यपूर्ण तरीके से संघर्ष करती रहती है।'' इसतरह के वर्णन के माध्यम से कवि समाज को अधिक जागरूक और नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक सजग बनाना चाह रहा है।

`करियम्पू' जीवन के सामान्य परस्पर विरोधी गुणों की चर्चा नहीं करते, अपितु एक व्यापक स्तर पर मानवीय जीवन पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को दर्शाते हैं। यह अच्छाई और बुराई का आंतरिक संघर्ष ही मनुष्यों के लिए यथोचित कार्यनिष्पादन का मार्ग दर्शक बनता है। इसका सबसे सुंदर उदाहरण हमें `सीता तपस्विनी' वाले अंश में मिलता है। इसका संबंध अहिल्या की कथा से है। अहिल्या की व्यथा राम के चित्त को आकर्षित करती है और उन्माद में नृत्य के लिए मजबूर भी कर देती है। पूरा वातावरण एकदम जीवंत सा प्रतीत होता है। राम अहिल्या के पैरों पर झुक जाते हैं। मानो कोई महान कवि (महाकवि) अपनी ही रचना के सामने झुका हो।

इक्कीसवीं शती और भारत



एक बड़ा ही स्वाभाविक प्रश्न हो सकता है कि नई शताब्दी के नाम पर इतना शोर क्यों? सिर्फ तिथियों के बदल जाने से क्या स्थितियाँ भी बदल जाती है? यह सब इसलिए क्योंकि हमें कहीं से शुरू करनी है वह यात्रा जो हमें नई शक्ति, नई चेतना, नया विकास और नया आयाम दे। हमें एक ऐसी यात्रा शुरू करनी है जो हमें उस मंजिल तक पहुँचाए; जहाँ हमें एक नई पहचान मिल सके, एक नया आकाश और एक नया - `नयापन'। इसलिए इस नई शताब्दी को लेकर अंत:करण में उथल-पुथल मची हुई है। और यह उथल-पुथल भी इसलिए हो रही है क्योंकि हम अपने बीते हुए कल को देखकर यह समझना चाह रहे हैं कि - गलत क्या हुआ?
हम ऐसे भविष्य को नहीं चाहते, जो अतीत से हमारा संबंध ही तोड़ दे। भविष्य का अनुमान लगाने के लिए हमें अतीत की ओर मुड़ना ही होगा। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि हमें आगे नहीं बढ़ना है। यह अतीत की तरफ देखना, वास्तव में भविष्य के प्रति तैयारी का ही हिस्सा है। जिस तरह धनुष्य पर तीर चढ़ाने के बाद हम डोरी को पहले पीछे की तरफ खींचते है, और तब तीर छोड़ते हैं। उसी प्रकार अतीत को हम जितनी गहराई से जानेगे, भविष्य की उतनी ही अच्छी तैयारी कर सकेगे। भूतकाल के ज्ञान के आधार पर भविष्य जाना जा सकता है। और प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह कितना ही सुख-सुविधा संपन्न हो, अपना भविष्य जानने की उत्कट इच्छा उसके मन में रहती ही है, क्योंकि मानव मन सदैव अप्राप्य और अगोचर के लिए उत्कण्ठित रहता है। मानव का भावी जीवन व जीवन की घटनाएँ भविष्य के गर्भ में निहित रहती हैं, अतएव उसकी भविष्य जानने की इच्छा बलवती रहनी स्वाभाविक है।
फिर ध्यान से समझनेवाली बात यह है कि हमें अतीत को जानना है, उसे समझना है। हमें अतीत से चिपकना नहीं है। हमें सिर्फ और सिर्फ अतीत का होकर नहीं रहना है। अतीत हमें यह बता देता है कि हमेने कब-कब कौन सी गलतियाँ की। इस तरह हम भविष्य के प्रति सचेत हो सकते हैं और बीते हुए कल की तुलना में आनेवाले कल को अधिक सुखमय और अधिक मानवीय बना सकेगें। इस तरह यह नई शती हमें आत्मचिंतन के लिए विवश कर रही है। और हमारा आत्मचिंतन हमें `नवीन' के संदर्भ में चेता रहा है। अतीत स्मरण करा रहा है वो भयंकर गलतियाँ जो हमें नहीं करनी चाहिए थी। इसीलिए मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है कि इक्कीसवीं शती का भारत कैसा हो? और वह भारत हम कैसे बना पायेगें? इसका उत्तर एक नई शुरुआत ही होगी। और शुरुआत कहाँ से होइस पर किसीकी ये पंक्तियाँ याद आती हैं कि -
``करनी है हमें, एक नई शुरुआत।
यह सोचना ही, एक शुरुआत है नई।''
हमें विरासत में कुछ ऐसे जलते हुए प्रश्न मिले हैं, जिनका उत्तर हम आज-तक तलाश नहीं कर पाये हैं। गरीबी की समस्या, कश्मीर की समस्या, दंगों की समस्या, दंगों की समस्या, बेरोजगारी की समस्या भाषा की समस्या और अच्छे नेतृत्व की समस्या आज भी हमारे सामने राक्षस की तरह मुँह खोले खड़े हैं। जब हम नयी शती को भारत की शती बनाने की बात करते हैं, तो यह जरूरी है कि हम पहले इन समस्याओं से पीछा छुडालें जो हमारे विकाश के मार्ग में अवरोध की तरह हैं। वरना हम बड़े-बड़े आयोजनों में योजनाएँ बनाते रहेगें, कागजों पर देश को प्रगति और विकाश की ओर अग्रसर होते हुए देखते रहेगे; जबकि बुनियादी - जमीनी सच्चाई `ढ़ाक के तीन पात' की तरह जस की तस ही रह जायेगी।
थोड़ा आश्चर्य, मेरी इस बात पर संभव है कि - आज तक हम जिन समस्याओं से जूझते रहे, उनके लिए जिम्मेदार हम खुद हैं। जिन्हें `महात्मा' मानकर हम भेड़ों की तरह उनका अनुसरण करते रहे वे जिम्मेदार हैं हमारी आज की समस्याओं के लिए। सभ्यता, संस्कृति रीति-रिवाज, वेद-पुराण आदि के नाम पर जो `भेड़चाल' हम चलते रहे, वह जिम्मेदार है हमारी आज ककी इन समस्याओं के लिए। हमारे अंदर की `कायरता' ही आज की हमारी समस्याओं के लिए। आचार्य श्रीराम शर्मा कहते भी हैं कि ``अन्यायी और अत्याचारी की करतूतें मनुष्यता के नाम पर खुली चुनौती है, जिसे वीर पुरुषों को स्वीकार करना चाहिए।'' मगर हमनें इतने सालों में स्वीकार नहीं किया, इसलिए क्योंकि हम वीर नहीं कायर हैं। इसलिए क्योंकि हमारे अंदर भय निवास करता है। बालजक ने लिखा ही है कि - `` '' पंडित कमलापति त्रिपाठी कहते हैं कि - ``अनाचार और अत्याचार को चुपचाप सिर झुकाकर वे ही सहन करते हैं जिनमें नैतिकता और चरित्र का अभाव हुआ करता है।'' इसलिए हमारे अंदर नैतिकता और चरित्र का अभाव है, यह हमें स्वीकार करना ही होगा। हमारा यही `अभाव' ही हमें जाने-अनजाने में अत्याचारी बना देता है, पापी बना देता है और दुखी बना देता है। राबर्ट बर्न्स लिखते भी है कि -
"Man's inhumanity to man
Makes countless thousands mourn!"
`मानव मात्र में बुद्धिगत ऐसा कोई दोष नहीं है जिसका प्रतिकार उचित अभ्यास के द्वारा न हो सकता हो। शारीरिक व्याधि दूर करने के लिए जैसे अनेक प्रकार के व्यायाम है वैसे ही मानसिक रुकावटों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के अध्ययन हैं। `जितना ही हम अध्ययन करते हैं, उतना हमको अपने अज्ञान का आभास होता जाता है।' `अध्ययन आनंद का, अलंकरण का और योग्यता का काम करता है।' और इन सबके बीचे जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि ``अध्ययन खंडन और असत्य सिद्ध करने के लिए न हो, न विश्वास करके मान लेने के लिए हो, न बातचीत और विवाद करने के लिए हो, बल्कि मनन और परिशीलन के लिए हो।'' हमें भी अब मनन करना होगा कि आखिर क्या कारण रहा जो हम इतनें सालों में भी देश की जमीन से जुड़ी हुई समस्याओं का समाधान नहीं निकाल पाये? कारण यही है कि हमने खंडन व मंडन, बातचीत और विवाद तथा दूसरे को असत्य व जिम्मेदार ठहराने के लिए अपनी पूरी शक्ती और अपने ज्ञात ज्ञान को लगाते रहे। अगर यह, सारी शक्ति, यह सारा अध्ययन, यह सारा समय और अपना अबतक का श्रम यदि हम मनन व चिंतनद्वारा देश के जलते हुए प्रश्नों को हल करने में लगाते हो आज की यह शती `भारत की शती' हो चुकी होती।
आज का भारत यदि इस शती को अपनी शती बनाना चाहता है, तो उसे सबसे पहले उन प्रश्नों का हल सामनें रखना होगा, जो प्रश्न `रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद' से जुड़े हैं, हिंदू-मुस्लिम दंगों से जुड़े हैं, नदियों के पानी के बॅटवारे से जुड़े हैं, भ्रष्टाचार व अपराध से जुड़े हैं साथ ही साथ उन प्रश्नों के भी हल अब निकालने ही होगे जो इस देश की एकता, अखंडता और समप्रभुता से जुड़े हुए हैं। और अगर हम इनका हल निकालने की कोशिश नहीं करेगें तो यह शती क्या, आने वाली कई-कई शताब्दियों तक भारत इसीतरह लाचार, विवश और दीन बना रहेगा। दुनियाँ चाँद-सितारों पर डेरा डालेगा और हम `रामलीला' में ही अटके रहेगें। `राम राज्य' बड़ा अच्छा था, सुखद था - यह सब ठीक है पर खाली बीते अतीत को दुहराने से क्या लाभ? बल्कि हमें एक ऐसा भारत और एक ऐसा नया भारतीय राज्य  लाने की चेष्टा करनी चाहिए, जिसे देख राम और कृष्ण भी अपने वंशजों पर गर्व कर सकें। मगर इन समस्याओं के संदर्भ में हम यह मान बैठें हैं कि -
``ये दर्द सर ऐसा है, कि सर जाये तो जाये ।
उल्फत का नशा, जब कोई मर जाये तो जाये।''
पूरनचंद जोशी जैसे विद्ववान यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इक्कीसवीं सदी में मानवता का भविष्य, मानवता का आर्थिक भविष्य, पश्चिम के विश्व पर वर्चस्व में सुरक्षित नहीं है। इक्कीसवीं सदी को एशिया, अफ्रिका और लेटिन अमेरिका की अभावग्रस्त और पश्चिमी अपविकास से अभिशप्त मानवता से मुक्ति की आकांक्षी विशाल जन साधारण की सदी होना पड़ेगा, इसी में मानवता के पश्चिमी भूभाग की मानवता की सुरक्षा भी निहित है। एशियाई नव-जागरण की उपनिवेशवाद की समीक्षा एक नए भविष्य की तलाश पर केन्द्रित होनी चाहिए। और इस समस्त नवजागरण के मूल में `शिक्षा व आत्मविश्वास' ये दो तत्त्व बीज रुप में होने ही चाहिए।
शिक्षा व समाज सदैव से परस्पर सम्बन्धित रहे हैं, क्योंकि समाज की अपेक्षित सामाजिकता की पूर्ति शिक्षा के माध्यम से ही होती है। सामाजिक व्यवहारों एवं मूल्यों के प्रतिमानों के समाजीकरण में भी शिक्षा की प्रमुख भूमिका है। शिक्षा मानव जीवन के लिए वैसे ही है जैसे संगमरमर के टुकड़े के लिए शिल्पकला। कार्य कौशल और कर्मशीलता ही हमारी शिक्षा का मूल मंत्र है। शिक्षा राष्ट्र की सस्ती सुरक्षा है। संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियाँ है, शिक्षा सबसे बढ़ कर है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा एक ऐसी सामाजिक प्रणाली है जिसके माध्यम से समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों को अपनी आकांक्षाओं के स्वरुपों में ढालता है।
हमने जिस दूसरे बीज तत्त्व की बात की वह है - आत्मविश्वास। आत्म-विश्वास की मात्रा हममे जितनी अधिक होगी उतना ही हमारा सम्बन्ध अनन्त जीवन और अनन्त शक्ति के साथ गहरा होता जायेगा। जो मनुष्य आत्म विश्वास से सुरक्षित है वह उन चिन्ताओं, आशंकाओं से मुक्त रहता है, जिनसे दूसरे आदमी दबे रहते है।  आत्म-विश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं है। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। आत्मविश्वास सफलता का मुख्य रहस्य है। इन दो बीज तत्त्वों के साथ ही हम देश की प्रगति और विकास सुनिश्चित कर सकते हैं।
और इन दोनों बातों को लेकर जो राष्ट्र श्रम करेगा, यह शती उसीकी होगी। अन्यथा कोई कारण नही है कि हम इस शती को भारत की शती बनाने का शोर मचाये। फिर भी अगर हम ऐसा करते हैं तो हम अपने को ही छलेगें। और इसमें हरतरफ से नुकसान हमारा ही है। इसलिए हमें इस शती को भारत की शती बनाने का सिर्फ शोर नहीं मचाना है; बल्कि पूरी निष्ठा और पूरे समर्पण के साथ इस कार्य को अंजाम भी देना है। इसके सिवा अब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है। कवि के शब्दों में अपनी बात समाप्त करना चाहूगाँ कि -
``राज-तिलक का वह अधिकारी है।

जिसके श्रम की दुनिया आभारी है।''

                                           डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

वृक्ष की आत्मकथा

                            
जी हाँ! मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जिसके विषय में पद््मपुराण यह कहता है कि - जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है वह स्वर्ग में उतने ही वह वृक्ष फलता फूलता है। इस तरह आप मेरे महत्त्व को समझ सकते हैं।  मेरी प्रशंसा करते हुए महाकवि कालीदास `अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में लिखते हैं -
``अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपस्तीऋामुष्णं।
शमयति परितापं छायया संश्रितानाम्।।''
जिसका अर्थ है कि मैं (वृक्ष) अपने सिर पर गर्मी सह लेता हँू। परन्तु अपनी छाया से औरों को गर्मी से बचाता हूँ। मेरे ही विषय में `शार्गधरपद््धति:' में कहा गया है कि -
``पत्रपुष्पफलच्छाया मूल वल्कल दारुभि:
गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मैं: कामान् वितन्वते।।''
अर्थात, मैं (वृक्ष) अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, मूल, वल्कल, काष्ट, गन्ध, दूध, भस्म, गुण्ली और कोमल अंकुर से सभी प्राणियों को सुख पहुँचाता हँू।
यह सब बातें मेरे महत्त्व को बतलाने में समर्थ हैं।  मैं हजारों-लाखो-करोडों वर्षो से अपना सबकुछ देकर इस धरा के धराधारियों को जीवन प्रदान कर रहा हँू। लेकिन आज मैं यह सोचकर सिहर जाता हँू कि आखिर मैं अपनी यह जिम्मेदारी कबतक निभा पाऊगाँ? मुझे नष्ट करने वाले नादान, ये नहीं समझ पा रहे हैं कि मेरे बिना उनका अपना ही अस्तित्व शून्य में विलीन हो जायेगा।
सूर्य इस संसार की आत्मा है। वेदों की यह वाणी आध्यात्मिक और वैज्ञानिक रुपों में सच है। आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी सूर्य की किरणों को `प्राकृतिक महौबाधि' मानता है। पर सूर्य कब तक हमें ऊर्जा और स्वास्थ्य देने वाला बना रहेगा? यह प्रश्न आज के मनुष्यों के चिंतन का विषय होना चाहिए। क्योंकि शायद बहुत लम्बे समय तक सूर्य अपनी यह जिम्मेदारी निभा नहीं पायेगा।
आज का मनुष्य अपनी करतूतों से ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करने जा रहा है कि सूर्य आराध्य देव नहीं बल्कि सबसे बड़ा शत्रु हो जायेगा।  सूर्य की किरणें कैंसर जैसे भयानक रोग अपने साथ लाएगी और रोग से लड़ने की इंसानी क्षमता को नष्ट कर देगी। गर्मी बेहद बढ़ जायेगी और बर्फ पिघल कर समुद्रतल को बढ़ा देगी। समुद्र के किनारे बसे शहर पानी में डूब जायेगे। कूएँ सूख जाएँगे और रेत का साम्राज्य इतना बढ़ जाएगा कि लोगों को जान बचाने के लिए मैदानों व जंगलों की तरफ भागना पड़ेगा। पर इसमें सूर्य की क्या गलती? गलती तो अपने अहंकार में चूर मानव की ही है। मनुष्य मुझे और मुझसे निर्मित पर्यावरण को महत्त्वहीन मान रहा है। हमारे साथ खिलवाड़ करते हुए वह यह भूल गया है कि हमारे बिना मनुष्य अपने आनेवाले कल की कल्पना तक नही कर सकता।
यह सब मैं इसलिए कह रहा हँू क्योंकि संकट की घड़ी आ चुकी है। जीवनभर सहज स्वाभाविक तौर पर जीते हुए साँसों के जरिये प्राणवायु का इस्तमाल करते हुए मनुष्य कभी भी उसके बारे में नहीं सोचता। परन्तु साँसों में तकलीफ होते ही आक्सीजन सिलेण्डर की याद आती है। जब तक आपदाएँ कहर बनकर नहीं टूटीं तब तक जल, हवा, जमीन और मेरे बारे में किसी मनुष्य ने भी नहीं सोचा।
ऐसा नहीं है कि सभी मनुष्य एक समान हैं। वे महान आत्माएँ जो मेर महत्त्व को समझने में सफल हुए, उन्होनें इसे दूसरों तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया। `सामान इकट्ठा करते जाना' इसे समृद्धि का प्रतिमान मानने की प्रवृत्ति को महान रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिस नाम से पुकारा वह है - `सभ्यतानाम्नी पाताल'। नदी के पानी पर बाँध-बाँधने के खिलाफ उन्होंने `मुक्तधारा' नाटक लिखा। धरती के नीचे सुषुप्त सम्पदा को कुछ लालची लोगों द्वारा निकाले जाने के विरूद्ध उन्होंने `रक्तकरबी' और अनेक निबंध लिखे हैं। उन्होंने कहा था, `मनुष्य का लोभ सिर्फ प्रकृति के विनाश से शान्त नहीं होगा, वह मनुष्य का भी विनाश करेगा।  `महात्मा गाँधी का यह कथन सभी देशों के पर्यावरण विद यंत्रवत उद्धृत करते हैं - Nature has enough for everybody's need but not for everybody's greed.
मनुष्य की सभ्यता का इतिहास मूलत: मेरे साथ उसकी गृहस्थी का इतिहास है। प्रत्येक प्राचीन सभ्यता में आम लोग प्राकृतिक शक्तियों का सम्मान करते रहे हैं।  उनसे प्यार करते रहे हैं। आदिम काल में मनुष्य ने सिर्फ अज्ञान और भयवश प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की है, ऐसा नहीं है। पर्यावरण संरक्षण के लिए तमाम नियम उन्होंने बनाये थे। जिन्हें वे मानते थे। किस मौसम में कौन-सी मछलियाँ या सब्जियाँ खायी जाएँ, जंगल से पेड़ काटने जरूरी हो तो कैसे छाँटे जाएँ, ऐसे अनेक नियम उन्होंने अपने अनुभवो से ही बनाए।  बंगाल में `खनार बचन' हिन्दी में `घाघ' और राजस्थान में `भडलीपुराण' तो असल में मिट्टी, जल और सौर उर्जा के अन्तरसम्बन्धों पर आधारित सटीक कृषि कार्य संचालन के अनुभवों का संकलन ही है।
मुझे कभी - कभी यह सोचते हुए हँसी भी आती है और गुस्सा भी आता है कि मैं वृक्ष होकर भी महान आत्माओं द्वारा कहे हुए व लिखे हुए ज्ञान को जानता हँू, समझता हूँ, पर मनुष्य खुद इन चीजों पर अमल करते हुए कही दिखायी नहीं दे रहा है। आज मनुष्य उसी शेख चिल्ली की तरह व्यवहार कर रहा है जो उसी डाल को काटने पर तुला हुआ रहता जिस पर खुद बैठता था। `आ बैल मुझे मार' यह बात आज के मनुष्यो पर उनके क्रियाकलापों को देखकर सच लग रही है। आज मेरे विनाश में पृथ्वी के सभी देशों की सरकारे लगी है। सत्ता संपन्न लोग भी वन-विनाश की नीतियाँ तैयार करते नजर आ रहे हैं। और यह काम दिन दुनी रात चौगनी वाली स्थिती में पहुँचकर आज एक भयानक मानवीय संकट के रुप में प्रतिष्ठित हो चुका है।
मनुष्यों द्वारा अपना स्वार्थ को साधने में मेरा भरपूर इस्तमाल किया गया है। भारत के संदर्भ में कहूँ तो - कहना होगा कि ब्रिटिश नौसैनिक बेड़ों की अपराजेयता भारत वर्ष और बर्मा के सागौन जंगलों की कीमत पर स्थापित हुई। इससे पहले यूरोप मे जहाज ओक की लकड़ियों से बनाये जाते थे। लेकिन औपनिवेशिक शक्तियों की आपसी लड़ाइयो में उन्नीसवीं सदी के शुरू में ही यूरोप के प्राचीन व विख्यात ओक के जंगल समाप्त हो गए। परिवहन सुविधा के म ेनजर ब्रिटिश हुक्मरानों ने जब भारतवर्ष में रेल की पटरियां बिछानी शुरु की और रेलवे इंजन दौड़ने लगे, तब पटरियों के स्लीपरों के लिए व्यापक पैमाने पर अहेतुक अपव्यय के बतौर हिमालय से, खासतौर पर कुमायूँ गढ़वाल से हजारों-हजार वृक्ष काटे गए। निर्यात के लिए जिन इलाकों में खेती का पैमाना बढ़ाने की जरुरत पड़ी, उन सभी जगहों पर मेरी अन्धाधुन्ध कटाई हुई। गुलाम भारतवर्ष की विशाल अरण्यभूमि इसीतरह हिंस्त्र, अदूरदर्शी, स्वार्थान्वेषी आक्रमणों में निहत हुई। यह सिर्फ भारतवर्ष का ही नहीं, तीसरी दुनियाँ के प्रत्येक देश का सत्य है। स्पेन ने दक्षिण अमेरिका के जिन देशों को उपनिवेश बनाया, वहाँ गन्ने के रस से चीनी तैयार करने के क्रम में इंधन के तौर पर उन इलाकों के जंगल काटकर फूंक दिये।
सबसे भयंकर बात तो यही है कि यह भयंकर विनाश बन्द होने के बजाय आज और भी ज्यादा तेजी से चल रहा है। उपग्रहों से मिली तस्वीरों के द्वारा मनुष्यां को यह ज्ञात है कि हरसाल लगभग 13 लाख हेक्टेअर जमीन पर बसे जंगल साफ हो रहे हैं। कहीं सड़के बन रही हैं, कहीं नये पर्यटन स्थल बन रहे है अथवा कहीं नगर-निर्माण के लिए हजारो-हजार हेक्टेअर प्राचीन वनभूमि का विध्वंस हो रहा है। जंगलों के विनाश से वनवासियों के संकट और कष्टों के अलावा सबसे बड़ा संकट भूमि कटाव का है। जंगल ही जमीन को वर्षा के सीधे प्रहार से बचाते हैं। जंगल - रिक्त भूमि की उर्वर ऊपरी सतह वृष्टि से घुल जाती है। इससे एक ओर तो विस्तीर्ण अंचल रूक्ष, निष्पादप और अनुर्वर बन जाते हैं, दूसरी ओर पानी के साथ निकली वह मिट्टी नदियों की सतह में जमा होने लगती है, और नदियों का स्वाभाविक प्रवाह बाधित होता है। इसी कारण से पशुपालन क्षेत्र भी नष्ट होते हैं।
इसतरह मेरी दुर्दशा का आलम यह है कि वह सार्वभौम होते हुए भी, काई सार्थक पहल मुझे बचाने के लिए नही हो रही है। सबसे चिंतनीय परिस्थितियाँ उष्णकटिबंध के जंगलों की है, जो धरती के केवल सात फीसदी हिस्से पर फैले हैं पर दुनियाँ के 50 से 80  जैविक और वानस्पतिक प्रजातियों के घर हैं। इन जगलों के विनाश की रफ्तार प्रति सेकेण्ड एक मैदान के बराबर है। ब्राजील के दो-दो सौ फुट ऊँचे पेड़ो वाले विशाल रांडोनिया के जंगलो का 20  नष्ट किया जा चुका है। और अगर इसकी यही रफ्तार रही तो आनेवाले 20-22 सालों में रांडोनिया के जंगल धरती के नक्शे से गुम हो जायेगें।
वैसे मनुष्यों द्वारा लिखे गए पौराणिक ग्रंथो में यह कहा गया है कि मेरा उद््भव मेरी कृतघ्नता के दंड स्वरुप हुआ है। जिसके प्रायश्चित स्वरुप मुझे इस जन्म में जेठ की गरमी, माघ की शीत व आषाढ़ की वर्षा सहनी पड़ती है। इस तरह मैं दूसरों के परमार्थिक, भौतिक विकास के कार्यो में अनवरत एकांगी भाव से लगा रहता हँू। हो सकता है कि मेरे द्वारा पूर्वजन्म में किये गये पापों से छुटकारा पाने का यह साधन है। यदि इसी को मनुष्य द्वारा खोजे गये वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक ढ़ग से सोचा जाय तो प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बोस ने सिद्ध किया है कि सामान्य मनुष्य की भाँति मुझे भी श्वसन, निद्रा, भय, भोजन तथा विसर्जन की आवश्यकता होती है। अर्थात समानता में मैं मनुष्य के समतुल्य जीव हँू। ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर क्यों आज हम दोनों के बीच भाईचारे का भाव घटता जा रहा है। क्योंकि अपने स्वार्थीपन के कारण मनुष्य अपने सिवाय दूसरों के बारे में नहीं सोचता है। वैसे जो आनेवाले दुष्परिणामों के बारे में नहीं सोचता वह अदूरदर्शी होता है। और मनुष्यों की मुझे मिटाने की मुहिम देखकर इसमें कोई शंका नहीं रह जाती कि आज का मनुष्य अदूरदर्शी हो गया है।
यदि यह विनाश लीला जारी रही तो मानव अपनी संतानों को विरासत में मरू-भूमि तथा संस्कार विहीन धरती को प्रदान करेगे। जिसमें सबसे ज्यादा हानि मनुष्यों की ही होगी। इसलिए चाहिए कि मनुष्य समय रहते चेत जाये। जो मनुष्य समय रहते नही चेतते; समय उन्हें नष्ट कर देता है। हे मनुष्यों! समय के महत्त्व को समझो और यह मान लो कि अब तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं बचा है - सिवाय पाने के। इसलिए आप सब से मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि आप सब मेरी इन बातों पर गंभीरता पूर्वक विचार करते हुए किसी साहसिक कदम को उठायें।
मनुष्य और शेष प्रकृति को इस विनाश से बचाने के लिए; जिसका जिम्मेदार स्वयं मनुष्य ही है, उसे (मनुष्य को) उस परंपरा की ओर लौटना होगा जहाँ मनुष्य और प्रकृति में सामंजसय हो विरोध नहीं। जीवन दृष्टि प्रकृति के संयमित और विवेकशील इस्तेमाल की हो, लूट खसोट की नहीं। वृक्षो की संस्कृति पर आधारित जीवन पद्धति की ओर और जीवन-दृष्टि की ओर मनुष्यों को लौटना ही होगा। क्योंकि मेरे बिना न प्रकृति होगी और न जीवन।  और जीवन के बिना मनुष्य क्या होगा? उत्तर होगा पाषाण। वृक्षो के बिना मनुष्य चेतना शून्य हो जायेगा। मनुष्यों में अगर चेतनता है तो इसका एकमात्र कारण सिर्फ मैं हूँ मैं। मनुष्य इस बात को जितनी जल्दी समझ जाये यह उसके हित में ही होगा।
मैनें अपनी व्यथा व अपनी चिंता आपके सामने रख दी है। मुझे न्ष्ट करके आपको कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। आपका कल्याण, मेरे कल्याण के ही साथ जुड़ा हुआ है। फिर भी अगर आप में से कुछ लोगों को यह लगता है कि मैंने यह सब बातें केवल अपने स्वार्थ के लिए आप की हमदर्दी हासिल करने के खातिर की है। तो मैं आप लोगों से कवि के इन्हीं शब्दों के साथ विदा चाहता हँू कि -
``मैं गाता हूँ, नहीं किसी की प्रीति चुराने के लिए।
मेरा यह तप है, दुनियाँ का दु:ख पी जाने के लिए।''

                               डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

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हिंदी साहित्य का इतिहास : पुनर्मूल्यांकन के कुछ चर्चित बिंदु

                 
हिंदी साहित्य के इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएँ नित नवीन शोधों, अनुसंधानों एवम् विचार धाराओं के आलोक में पुनर्मूल्यांकन एवम् पुनर्लेखन की ओर हम सभी का ध्यान केन्द्रित करती हैं। हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदृढ़ परंपरा इसी बात को बल प्रदान करती है। जब मैं बात हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा की करता हँू तो निश्चित रूप से यहाँ `परंपरा' का अर्थ ``आधुनिक मान्यताओं, विचारों एवम् अवधारणाओं को आत्मसाथ कर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति से ही है।'' संक्षेप में मेरी `परंपरा' की कल्पना में आधुनिकता (तथाकथित सम् सामायिक संदर्भो में) हमेशा परंपरा से जुड़ता चलती है। इसलिए नवीन शोधों, अनुसंधानों, तथ्यों, विचारधाराओं एवम् अवधारणाओं के परंपरा से जुड़ने पर मैं इसे `दुसरी परंपरा' या `तीसरी परंपरा' नहीं मानता। पुनर्मूल्यांकन व पुनर्लेखन वास्तव में आधुनिकता के ही परिचायक हैं। ये ही वो तत्व हैं जो परंपरा के परिमल - विमल प्रवाह को गति प्रदान करते हैं। यही परंपरा व्यापक स्वरूप में संस्कृति का निर्माण करती है। जोसेफ बी. कॉपर और जेम्स एल. मैकगाह अपनी किताब -
यहाँ पर जिस   की बात हो रही है, मेरे हिसाब से  परंपरा और  नवीन मान्यताओं की ही तरफ इशारा कर रहे हैं।
पिछले कई दशकों से हिंदी साहित्यातिहास के जिन बिंदुओं को लेकर व्यापक चर्चा हुई है, उनमें से कुछ की (`कुछ की' इसलिए कह रहा हँू क्योंकि मेरे अध्ययन की अपनी सीमाएँ हैं और हिंदी का क्षेत्र बड़ा व्यापक।) चर्चा मैं अपने तरीके से करना चाहूँगा। जब भी बात हिंदी साहित्येतिहास की चलती है तो पहला प्रश्न `इतिहास' और `साहित्येतिहास' की अवधारणा को ही लेकर उठता है। ``साहित्यिक इतिहास क्यों और कैसे?'' नामक अपने लेख में हिंदी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि, ``साहित्यिक इतिहास की विषय-सामग्री किसी भाषा की सर्जनात्मका और साहित्यिक-सृष्टि है, जिसकी गुणवत्ता का तारतमिक मूल्यांकन भी साहित्यिक इतिहासकार का अतिरिक्त दायित्व है। यह आलोचना-धर्म साहित्यिक इतिहास का ऐसा पक्ष है जो अन्य इतिहासों से उसे अलग करता है। इस दृष्टि से यदि एक ओर इतिहास से साहित्य की होड़ है तो साहित्यिक इतिहास भी इस होड़ में उसका बगलगीर है।'' नामवर जी की इस `होड़ दृष्टि' पर विचार करना आवश्यक है। मुझे लगता है कि यह कोई होड़ न होकर विकास की अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। जब कोई रचना बनती है या लिखी जाती है तो वह अपने निर्माण के साथ ही `कालजयी' होने का दावा नहीं करने लगती। बल्कि एक लंबे अंतराल के बाद उस रचना विशेष की लोकप्रियता, कथ्य, शिल्प, अलंकारिकता, काव्यगत तत्व, सम सामायिक राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐसे ही कई पक्षों  पर विचार करके उसकी `कालजयिता' का मूल्यांकन विद्ववानों द्वारा किया जाता है। काल वह कसौटी है जिस पर रचना (साहित्य) जाने- अनजाने लगातार घिसी जाती हैं। वह साहित्य जो काल परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने में सफल रहता है वही कालजयी कहलाता है।
काल सतत गतिशील है। (वृत्ताकार रूप में या कि एक रेखीय रूप में? इस विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहता।) लेकिन साहित्य के बारे में ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। साहित्य की गतिशीलता कई अन्य पक्षों पर आधारित होती है। साहित्य की होड़ साहित्य से ही होती है, काल से नहीं। जहाँ तक प्रश्न काल और कला का है तो, कला का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। काल विशेष की कला उस काल विशेष को ऐतिहासिक गरिमा प्रदान करते हैं। काल विशेष की परिस्थितियों में ही कला का जन्म होता है। मुझे तो ये परस्पर एक दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं। और अगर ना भी हों तो, कम से कम किसी होड़ में शामिल नहीं दिखते।
हिंदी साहित्येतिहास और इतिहास दर्शन को लेकर भी बहुत सारे विचार चर्चा में रहे। इतिहास संबंधी भारतीय दृष्टिकोण प्राय: आदर्शमूलक एवम् आध्यात्मवादी रहा। पाश्चात्य इतिहासकार यथार्थवादी दृष्टिकोण से अनुप्राणित रहे। इसके अतिरिक्त मार्क्सवादियों का द्वंद्ववात्मक भौतिक विकासवाद, वर्ग संघर्ष और आर्थिक परिस्थितियों से संबंधित सिद्धांत। जर्मन चिंतकों द्वारा प्रतिपादित `युग चेतना'   का सिद्धांत। मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण और अर्थ विज्ञान के आधार पर, आई. . रिचड्र्स, विलियम एम्पसन, सी.एम.लेविस, डब्लू. पी. कर एवम् एफ्. डब्लू. बैटसन का विशेषतया शैलीपक्ष से संबंधित सिद्धांत। इन तमाम दृष्टियों के बीच इतिहास लेखन की समस्या पर प्रकाश डालते हुए डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय जी ने अपने लेख `साहित्येतिहास - दर्शन की समस्याएँ' (जो हिंदी साहित्य का इतिहास : पुनर्लेखन की समस्याएं' नामक पुस्तक में छपा है) में लिखते हैं कि, ``इतिहास लेखन में दृष्टि से भी अधिक महत्त्व मनोवृत्ति का है। यदि मनोवृत्ति या नीयत खराब है तब इतिहास प्रामाणिक न होगा। हिंदी में विभिन्न वादों या दृष्टियों के अनुरूप इतिहास लिखे जाने चाहिए। ये एक दूसरे के पूरक होंगे क्योंकि जो तथ्य या व्यक्ति एक बाद के इतिहास में नहीं आएँगे वे दूसरी विचारधारा के इतिहास में आ जायेंगे।''
डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय जी का यह दृष्टिकोण यथार्थवादी है। इसलिए इसे स्वीकार करने में किसी को कोई परेशानी भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि साहित्यातिहास लेखक के अंदन यह गुण होना चाहिए कि वह अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं, पसंद-नापसंद आदि से बचते हुए तथ्यों के आधार पर अपनी बात रखें। तो यहाँ पर यही कहना चाहँूगा कि ये बातें सुनने में जरूर अच्छी लगती हैं पर व्यावहारिक दृष्टि से इसे निभा पाना मुश्किल है।  ऐसे विचार `उस फल की तरह हैं जो बाहर से देखने में बड़े सुंदर लगते हैं पर उन्हें काटने पर पता चलता है की वे सड़े हुए हैं। तथा किसी भी तरह आहार के रूप में उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है। इसलिए साहित्यातिहास और इतिहास दर्शन संबंधी अनेकानेक विचारधाराओं एवम् मान्यताओं के बीच तथ्यगत व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल देते हुए, उसे स्वीकार करना चाहिए। इतिहास का अर्थ अगर हम `   ' मानते हैं तो साहित्यातिहास को भी किसी एक निश्चित धारणा मे बाँधने के बदले बृहद रूप में एक अवधारणा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
साहित्य, इतिहास, साहित्यातिहास और इतिहास दर्शन के संदर्भ में थोड़ी और चर्चा आवश्यक है। साहित्य समाज का आईना मात्र नहीं है। समाज कैसा है? इससे आगे बढ़कर समाज कैसा होना चाहिए? इस बात को भी साहित्य स्पष्ट करता है। साहित्य मनुष्यों द्वारा रचा जाता है। हर व्यक्ति की अपनी विचारधारा, अपने आदर्श और उस क्षेत्र विशेष की अलग-अलग परिस्थितियाँ होती हैं जहाँ पर वह निवास करता है। इन परिस्थितियों का भी साहित्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए जब साहित्यातिहास लेखन की बात होती है तो यहाँ पर भी मान लेना चाहिए कि साहित्यातिहास लिखनेवाले अलग-अलग व्यक्तियों की विचारधाराएँ एवम् धारणाएँ अलग-अलग हो सकती हैं। इस प्रकार जिस तरह साहित्य रचना की अपनी अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं, ठीक उसी तरह साहित्यातिहास लेखन की भी अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि दोनों में कोई प्रतिस्पर्धा है। बल्कि ये दोनों के विकास एवम् मूल्यांकन की अलग-अलग स्थितियाँ हैं।
इतिहासकार और साहित्यातिहासकार की भी अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। क्योंकि इतिहास लिखना और साहित्य का इतिहास लिखने में बुनियादी अंतर है। इतिहास अधिक तथ्यपरक है अपेक्षाकृत साहित्यतिहास के। साहित्यातिहास में इतिहास की अपनी दृष्टि एवम् धारणाएँ भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी की `गवेषणा' और इसके माध्यम से प्राप्त `तथ्य'`हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' की भूमिका में डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, ``साहित्य के इतिहास को साहित्यिक बनाये रखना इतिहासकार का केंद्रीय धर्म है। ---- पूर्ववर्ती साहित्य तो वही रहता है पर उसे पढ़ने की दृष्टि बदल जाती है। भक्तिकाल को शुक्लजी ने एक ढंग से पढ़ा और द्विवेदीजी ने दूसरे ढंग से।----''
जहाँ तक प्रश्न इतिहास दर्शन का है तो हमें यह समझना होगा कि साहित्येतिहास के अंतर्गत `इतिहासदर्शन' के सिद्धांतो का व्यावहारिक स्वरूप क्या हो? `दर्शन' शब्द संस्कृत के `दृश्य' शब्द से बना है। कहा गया है कि ``दृश्यते यथार्थ तत्त्व मनने'' जिसका अर्थ है कि - ``जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो वही दर्शन है।ण'' अंग्रेजी भाषा में इसके लिए ``philosohpy'' शब्द प्रचलित है। इसकी भी उत्पत्ति दो युनानी शब्दों से हुई है।  ``philosohpy = Philos प्रेम + sophia (wisdom ज्ञान) ''इस तरह ``ज्ञान से प्रेम' या `सत्य की खोज' ही दर्शन है। प्लेटो ने अपनी किताब `रिपब्लिक' में दार्शनिक के बारे में लिखा कि, `` '' दर्शन के संदर्भ में जॉन डेवी की यह परिभाषा भी महत्त्वपूर्ण है कि, ``'' दर्शन के संदर्भ में जॉन डेवी की यह परिभाषा महत्त्वपूर्ण है कि, `` '' इतिहास के बारे में हम पहले ही देख चुके हैं कि ``'' जबकि साहित्य के बारे में कहा गया है कि, ``'' बल्कि इससे भी कुछ अधिक। साहित्य इतिहास और समाजशास्त्र की संयुक्त प्रयोगशाला की उत्पत्ति है। दुनियाँ के कई विश्वविद्यालयों में  ` ' को ` ' कहा जाता है। और जब बात `संस्कृति' की आती है तो यह समझ लेना चाहिए की `समाज' और `संस्कृति' ये समानार्थी शब्द नहीं ह। `` '' यहाँ पर जिस `रिकार्डिंग' की बात है वह साहित्य व अन्य कलाओं के द्वारा ही संभव है। इस तरह हम कह सकते हैं कि ``साहित्य   समाज   इतिहास   दर्शन'' यह सब मिलकर ही साहित्यातिहास की आधारभूमि बनाते हैं।
कुछ विद्वानों ने जिस `इतिहास आलेखकारी' की बात की है उसमें भी संस्कृति और समाज के महत्त्व को `साहित्यइतिहास' के संदर्भ में आसानी से समझा जा सकता है।  डॉ. रमेश कुंतल मेघजी ने `इतिहासआलेखकारी' की बड़े विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने आदर्श, प्रादर्श एवम् प्रतिदर्श ( ) की विवेचना के साथ साहित्येइतिहास के व्यवहारिक एवम् वैज्ञानिक स्वरूप को विवेचित किया है ( कुंतल जी के व्याख्यान की स्मृति के आधार पर)। समग्ररूप से कहने का तात्पर्य यही है कि परंपरा को उसके बृहद रूप में स्वीकार करते हुए इतिहास दर्शन के अनेकों सिद्धांतो के बीच हर दृष्टिकोण से साहित्यातिहास लिखा जाय पर `साहित्य के इतिहास को साहित्यिक' रहने दिया जाय। निश्चित धारणाओं की जगह बुनियादी अवधारणाओं को प्रतिदर्श के रूप में स्वीकार किया जाय। इस तरह विचारों के फेनोच्छवास से अध्ययन-अध्यापन की धूमिल स्थितियों को शायद एक स्पष्ट राह मिल सके।
इन सब के अतिरिक्त साहित्यातिहास से संबंधित एक और प्रश्न अक्सर उठता है। वह प्रश्न है कि, ``हिंदी साहित्य का आरंभ कब से माना जाय?'' इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा जी के अध्ययन एवम् चिंतन को प्रणाम करने से (स्वीकार करने से) एक तथ्यगत व तर्कगत उत्तर हमें प्राप्त हो जाता है। उन्होंने `हिंदी जाति' का विवेचन `यूरोप में आधुनिक जातियों के अभ्युदय और उसके आरंभिक निर्माण काल के साहित्य के आधार पर किया। उन्होंने सिद्ध किया कि किस तरह बाजार जातियों के निर्माण में सहायक होता है। उनके अनुसार ``जाति का निर्माण सामंती अवस्था के अंतर्गत व्यापारिक पूँजीवाद के विकास के साथ होता है, अत: यह विकास विषम गति से होता है और उसकी प्रक्रिया दीर्घकालीन होती है। (जाति और साहित्य - हिंदी साहित्य का इतिहास : पुनर्लेखन की समस्याएँ, पृष्ठ नं. 28)। इसी  लेख में वे लिखते हैं कि, ``प्राचीन काल में यहाँ के एक प्रदेश में भरत जन निवास करते थे। वे अपने कर्म से ऐसे विख्यात हुए कि सारे देश को ही भारतवर्ष कहा जाने लगा।  आगे चलकर यही स्थिति हिंद और हिंदुस्तान शब्दों की हुई। ये शब्द पहले हिंदी प्रदेश के लिए, फिर सारे देश के लिए प्रयुक्त होने लगे।...''
कहने का तात्पर्य यहाँ है कि `हिंदी' शब्द काफी पुराना है। खड़ीबोली ही नहीं राजस्थानी, ब्रज, अवधी जैसी बोलियों में जो भी साहित्य लिखा गया, उसे हिंदी ही मानना चाहिए। लेकिन यहीं पर एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है। वह यह कि `देशी भाषा' या `देश्य भाषा' कही जाने वाली बोलियों को अगर हिंदी साहित्य में माना जाता है तो फिर अपभ्रंश साहित्य को इसमे शामिल किया जाय या नहीं? इस संबंध में डॉ. राम कृपाल पांडेय जी का स्पष्ट मत है कि, ``--- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश इत्यादि साहित्य की परिनिष्ठित भाषाएँ थीं जो अपने-अपने समय की देशी भाषाओं से भिन्न थीं। अत: उनमें से किसी भी लोकभाषा या देशीभाषा समझना उपयुक्त नहीं। (`हिंदी साहित्य का आरंभ कब से मानना चाहिए?')'' आगे अपनी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि, ``.... साहित्यिक भाषा से देशी भाषा नहीं उत्पन्न होती। अत: अपभ्रंश से हिंदी देश भाषा नहीं उत्पन्न होती। अत: जिस प्रकार संस्कृत एवम् प्राकृत भाषाओं का साहित्य हिंदी भाषा के साहित्य के अंतर्गत नहीं आ सकता, वैसे ही अपभ्रंश भाषा का साहित्य भी हिंदी साहित्य के अंतर्गत नहीं आ सकता।''
अपनी किताब `हिंदी भाषा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य' में डॉ. रामकिशोर शर्मा लिखते हैं कि, ``छठीं से बारहवीं शताब्दी तक देशी भाषा (संस्कृत से भिन्न सामान्य काव्य भाषा) अपभ्रंश है। ---- `यह भाषा जनता के दिन रात के व्यवहार में आने वाली बोलियों में से उपज और प्राकृत की अन्य भाषाओं की तरह थोड़ा बहुत हेर-फार के साथ साहित्यिक बन गयी (प्रो. रिचर्ड पिशल)। अपभ्रंश के व्यापक प्रचार-प्रसार होने के कारण अनेक क्षेत्रीय भेदों और उप-भेदों का होना स्वाभाविक है। रुद्रट ने देश विशेष से अपभ्रंश के अनेक भेदों की ओर संकेत किया। उद्योतन सूरि ने देशी भाषा अपभ्रंश की अठारह विभाषाओं का उदाहरण सहित उल्लेख किया है।...''
उपर्युक्त दोनों विचारों से स्पष्ट है कि अपभ्रंश साहित्य को हिंदी साहित्य में शामिल करने या न करने का प्रश्न जटिल है। इसमें वे सभी भाषा वैज्ञानिक तत्त्व मिलते हैं जो इसके पूर्व की भाषाओं में थे। साथ ही साथ इसमें वे नवीन तत्त्व भी समाहित मिलते हैं जो की नयी विकसित भाषाओं में परिलक्षित होते हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं कि अपभ्रंश भाषा नवीन आर्यभाषाओं के निर्माण के पूर्व की संक्रमणकालीन भाषा थी। यह वही धरातल था जिसमें से आर्यभाषाओं का जन्म हुआ। लेकिन यह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक नहीं है। अत: हमें अपभ्रंश का मोह छोड़कर उसे हिंदी साहित्य में शामिल करने से बचना चाहिए। वैसे इस बात को कहने का कोई ठोस तथ्यगत अधिकार मेरे पास नहीं है। लेकिन इस संदर्भ में अध्ययन और अध्यापन की अपनी व्यक्तिगत समझ के आधार पर मैं यह राय रखता हँू।
इसी तरह हिंदी साहित्यातिहास से जुड़े ऐसे कई बिंदु हैं, जिनको लेकर लगातार चर्चा होती रही है। जैसे कि आदिकाल के काल निर्धारण का प्रश्न, भक्तिकाल में भक्ति के उदय का प्रश्न, रीतिकाल के अध्यापन के औचित्य का प्रश्न, भक्तिकाल की प्रासंगिकता का प्रश्न, आधुनिकता की अवधारणा का प्रश्न, उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा का प्रश्न, हिंदी उर्दू की समस्या का प्रश्न, और ऐसे ही न जाने कितने और विषय हैं, जिन्हे लेकर हमेशा साहित्यिक चर्चा होती रहती है। और ऐसी चर्चाओं के केन्द्र में जाते हैं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनके द्वारा लिखित साहित्य का इतिहास संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती है। लेकिन एक लेख या प्रपत्र की अपनी सीमाएँ होती हैं। इसलिए इन सब विषयों पर चर्चा के लिए कुछ ठहराव जरूरी हैं।
हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की प्रक्रिया एक तरह से परिमार्जन की प्रक्रिया है। यह लेखन कार्य सही दिशा में विकासशील है। जैसे-जैसे हिन्दी साहित्य के इतिहास का परिष्कृत व विकासशील रूप सामने आता जायेगा वैसे-वैसे साहित्यातिहासकारों से नयी अपेक्षाएँ भी जुड़ती चली जायेंगी। इसलिए यह जरूरी है कि `वाद-विवाद के बीच से ही संवाद' की नयी स्थितियों पर कार्य सतत रूप से होता रहे।
मनीष कुमार मिश्र
हिंदी व्याख्याता
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,
कल्याण (.) 421301.
जिला - ठाणे, महाराष्ट्र


मानवाधिकार और आतंकवाद


प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय विधि में ये संकल्पना पूर्णत: पोषित थी कि राष्ट्र ही अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं किन्तु कालांतर में उसमें परिवर्तन हुआ और राज्यों के अतिरिक्त, व्यक्तियों को अधिकार और कर्तव्य दिये जाने के कारण उनको भी अंतर्राष्ट्री विधि का विषय माना जाने लगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निर्विवाद हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा उसी समय बनी रह सकती है जब व्यक्तियों की स्थिति में सुधार हो तथा उनके अधिकारों मूल स्वतंत्रताओं की अभिवृद्धी हो। इसी कारण व्यक्तियों को राज्यों द्वारा दिये गए कई अधिकारों में से एक अधिकार को `मानवाधिकार' कहते हैं।
चूँकि मानव बुद्धिमान एवं विवेकशील प्राणी है। इसीकारण इसको कुछ ऐसे मूल तथा अहरणीय अधिकार प्राप्त रहते हैं जिसे सामान्यतया मानवाधिकार कहा जाता है। चँूकि ये अधिकार उनके अस्तित्व के कारण उनसे संबंधित रहते हैं अत: वे उनमें जन्म से ही विहीत रहते हैं। इस प्रकार मानवाधिकार सभी व्यक्तियों के लिए होते हैं, चाहे उनका मूलवंश, धर्म, लिंग तथा राष्ट्रीयता कुछ भी हो। ये अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए आवश्यक हैं क्योंकि ये उनकी गरिमा एवं स्वतंत्रता के अनुरुप हैं तथा शारीरिक, भौतिक, नैतिक, सामाजिक कल्याण के लिए सहायक होते हैं।
विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उनके विचार तथा उनकी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों में भिन्नता के कारण `मानवाधिकार' इस शब्द को परिभाषित करना कठिन है। लेकिन यह कहा ही जा सकता है कि मानवाधिकार का विचार मानवीय गरिमा के विचार से संबंधित है। अत: उन सभी अधिकारों को मानवाधिकार कहा जा सकता है जो मानवीय गरिमा को बनाये रखने के लिए आवश्यक है।
वियना के 1993 में मानवाधिकार सम्मेलन की घोषणा में यह कहा गया था कि सभी मानवाधिकार व्यक्ति में गरिमा और अंतर्निहित योग्यता से प्रोद्युत होते हैं और `व्यक्ति' मानवाधिकार तथा मूल स्वतंत्रताओं का केन्द्रीय विषय है। डी. डी. बसु मानवाधिकारों को उन न्यूनतम अधिकारों के रुप में परिभाषित करते हैं, जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति को, बिना किसी अन्य विचार के, मानव परिवार का सदस्य होने के फलस्वरुप राज्य या अन्य लोकप्राधिकारी के विरूद्ध धारण करना चाहिए।
मानवाधिकार अविभाज्य एवं अन्योन्याक्षित होते हैं इसलिए संक्षिप्त में भिन्न-भिन्न प्रकार के मानवाधिकार नहीं हो सकते फिर भी संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के अंतर्गत मानवाधिकार के क्षेत्र में किये गए विकास से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवाधिकारों को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा जा सकता है। अर्थात
1) सिविल एवं राजनैतिक अधिकार और
2) आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार।
जब आतंक का व्यवस्थित प्रयोग कतिपय उ ेश्यों को विशेष रुप में राजनैतिक उ ेश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है तब सामान्यतया उसको आतंकवाद कहा जाता है।
आतंकवादी कार्य एवं तरीको से राज्यों की सामाजिक एवं संवैधानिक व्यवस्था तथा राज्यक्षेत्रीय अखण्डता एवं सुरक्षा का भय बना रहता है। फिर भी, आतंकवाद की उपर्युक्त परिभाषा सार्वभौमिक नहीं हो सकती। बहुत से समय या अवसरों पर किसी राज्य की सरकार किसी कृत्य को इसलिए आतंकवादी कृत्य मान लेती है क्योंकि यह उसके हित को प्रत्यक्ष रुप से प्रभावित करने लगता है। तब उन लोगों द्वारा न्यायोचित ठहराया जाता है जो कृत्यों को कारित करते हैं। आतंकवाद या तो देशी या आंतरिक हो सकता है या अंतर्राष्ट्रीया राज्य देशी आतंकवाद को उनकी दाण्डिक विधि का उल्लंघन मानते हैं और अपनी देशीय विधि के प्रयोग करने में नहीं हिचकते हैं। यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद चाहे वह देशीय हो या अंतर्राष्ट्रीय, एक दाण्डिक अपराध है।
आतंकवाद से पीड़ित व्यक्तियों के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन होता है। विशेष रुप से इससे प्राण के अधिकार, शारीरिक निष्ठा के अधिकार एवं वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रभावित होते हैं। आतंकवाद के प्रोत्साहन हेतु उसमें धर्म की अफीम, काम (सेक्स) की स्वतंत्रता एवं उन्मुक्तता, ईश्वर या अल्लाह के लिए समर्पित कर्म, धन की उपाजेयता एवं स्वतंत्र तथा स्वच्छंद वातावरण की खुराक आवश्यक है।
आतंकवाद के प्रचार एवं प्रसार के लिए जहाँ एक वर्ग को जोड़ना आवश्यक है, वहीं युवाओं का झुकाव एक खुली सच्चाई है। जब कोई अपना सब कुछ लगाकर कुछ प्राप्त करने के लिए अवैधात्मक हिंसात्मक अवधारणाओं द्वारा किसी राज्य या उसके कुछ भाग के संवैधानिक आधारों तथा दाण्डिक एवं व्यवहारिक को नष्ट करता है तो वही ---- आतंकवाद है।
आतंकवाद का प्रारंभ ही मानवाधिकारों पर प्रहार है। किसी आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र की जनता को प्रदत्त मानवाधिकारों का हनन न सिर्फ आतंकवादियों द्वारा ही होता है बल्कि उसे रोकने के निमित्त सुरक्षाबलों द्वारा कर दिया जाता है। पोटा (आतंकवाद निरोधक अधिनियम) एवम् एसपीएएफ (स्पेशल पॉवर आफ आर्मड फोर्सेस) को प्रदत्त किये गए अधिकार आतंकवाद के खत्में के लिए हैं किन्तु ये क्षेत्र विशेष की जनता के मानवाधिकारों को भी प्रभावित कर जाते हैं।
इस संबंध में समुचित प्रयास एवं विनियमों को पारित किया जाना आवश्यक है क्योंकि यही आतंकवाद विनाश आतंकवाद सृजन का रुप लेता है। आहत मानव न्याय चाहता है चाहे उसका तरीका कुछ भी हो, सही हो या गलत, वह सहज हो तो आतंकवादी हो जाता है।
मानवाधिकार एवं आतंकवाद एक दूसरे से आपवादिक रुप से जुड़े हैं। आतंकवाद का होना मानवाधिकारों का हनन है और समग्रता में मानवाधिकार आतंकवाद के लिए कुछ भी नहीं छोड़ता है।

                                     डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 


संदर्भ ग्रंथ:-
1) अंतर्राष्ट्रीय विधि - अग्रवाल।
2) नोट्स - प्रो. . पी. तिवारी (एच..डी. लॉ गोरखपुर युनिवर्सिटी)
3) अंतर्राष्ट्रीय विधि - डॉ. कपूर।