Sunday 18 August 2013

हिंदी साहित्य का इतिहास : पुनर्मूल्यांकन के कुछ चर्चित बिंदु

                 
हिंदी साहित्य के इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएँ नित नवीन शोधों, अनुसंधानों एवम् विचार धाराओं के आलोक में पुनर्मूल्यांकन एवम् पुनर्लेखन की ओर हम सभी का ध्यान केन्द्रित करती हैं। हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदृढ़ परंपरा इसी बात को बल प्रदान करती है। जब मैं बात हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा की करता हँू तो निश्चित रूप से यहाँ `परंपरा' का अर्थ ``आधुनिक मान्यताओं, विचारों एवम् अवधारणाओं को आत्मसाथ कर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति से ही है।'' संक्षेप में मेरी `परंपरा' की कल्पना में आधुनिकता (तथाकथित सम् सामायिक संदर्भो में) हमेशा परंपरा से जुड़ता चलती है। इसलिए नवीन शोधों, अनुसंधानों, तथ्यों, विचारधाराओं एवम् अवधारणाओं के परंपरा से जुड़ने पर मैं इसे `दुसरी परंपरा' या `तीसरी परंपरा' नहीं मानता। पुनर्मूल्यांकन व पुनर्लेखन वास्तव में आधुनिकता के ही परिचायक हैं। ये ही वो तत्व हैं जो परंपरा के परिमल - विमल प्रवाह को गति प्रदान करते हैं। यही परंपरा व्यापक स्वरूप में संस्कृति का निर्माण करती है। जोसेफ बी. कॉपर और जेम्स एल. मैकगाह अपनी किताब -
यहाँ पर जिस   की बात हो रही है, मेरे हिसाब से  परंपरा और  नवीन मान्यताओं की ही तरफ इशारा कर रहे हैं।
पिछले कई दशकों से हिंदी साहित्यातिहास के जिन बिंदुओं को लेकर व्यापक चर्चा हुई है, उनमें से कुछ की (`कुछ की' इसलिए कह रहा हँू क्योंकि मेरे अध्ययन की अपनी सीमाएँ हैं और हिंदी का क्षेत्र बड़ा व्यापक।) चर्चा मैं अपने तरीके से करना चाहूँगा। जब भी बात हिंदी साहित्येतिहास की चलती है तो पहला प्रश्न `इतिहास' और `साहित्येतिहास' की अवधारणा को ही लेकर उठता है। ``साहित्यिक इतिहास क्यों और कैसे?'' नामक अपने लेख में हिंदी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि, ``साहित्यिक इतिहास की विषय-सामग्री किसी भाषा की सर्जनात्मका और साहित्यिक-सृष्टि है, जिसकी गुणवत्ता का तारतमिक मूल्यांकन भी साहित्यिक इतिहासकार का अतिरिक्त दायित्व है। यह आलोचना-धर्म साहित्यिक इतिहास का ऐसा पक्ष है जो अन्य इतिहासों से उसे अलग करता है। इस दृष्टि से यदि एक ओर इतिहास से साहित्य की होड़ है तो साहित्यिक इतिहास भी इस होड़ में उसका बगलगीर है।'' नामवर जी की इस `होड़ दृष्टि' पर विचार करना आवश्यक है। मुझे लगता है कि यह कोई होड़ न होकर विकास की अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। जब कोई रचना बनती है या लिखी जाती है तो वह अपने निर्माण के साथ ही `कालजयी' होने का दावा नहीं करने लगती। बल्कि एक लंबे अंतराल के बाद उस रचना विशेष की लोकप्रियता, कथ्य, शिल्प, अलंकारिकता, काव्यगत तत्व, सम सामायिक राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व ऐसे ही कई पक्षों  पर विचार करके उसकी `कालजयिता' का मूल्यांकन विद्ववानों द्वारा किया जाता है। काल वह कसौटी है जिस पर रचना (साहित्य) जाने- अनजाने लगातार घिसी जाती हैं। वह साहित्य जो काल परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने में सफल रहता है वही कालजयी कहलाता है।
काल सतत गतिशील है। (वृत्ताकार रूप में या कि एक रेखीय रूप में? इस विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहता।) लेकिन साहित्य के बारे में ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। साहित्य की गतिशीलता कई अन्य पक्षों पर आधारित होती है। साहित्य की होड़ साहित्य से ही होती है, काल से नहीं। जहाँ तक प्रश्न काल और कला का है तो, कला का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। काल विशेष की कला उस काल विशेष को ऐतिहासिक गरिमा प्रदान करते हैं। काल विशेष की परिस्थितियों में ही कला का जन्म होता है। मुझे तो ये परस्पर एक दूसरे के पूरक प्रतीत होते हैं। और अगर ना भी हों तो, कम से कम किसी होड़ में शामिल नहीं दिखते।
हिंदी साहित्येतिहास और इतिहास दर्शन को लेकर भी बहुत सारे विचार चर्चा में रहे। इतिहास संबंधी भारतीय दृष्टिकोण प्राय: आदर्शमूलक एवम् आध्यात्मवादी रहा। पाश्चात्य इतिहासकार यथार्थवादी दृष्टिकोण से अनुप्राणित रहे। इसके अतिरिक्त मार्क्सवादियों का द्वंद्ववात्मक भौतिक विकासवाद, वर्ग संघर्ष और आर्थिक परिस्थितियों से संबंधित सिद्धांत। जर्मन चिंतकों द्वारा प्रतिपादित `युग चेतना'   का सिद्धांत। मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण और अर्थ विज्ञान के आधार पर, आई. . रिचड्र्स, विलियम एम्पसन, सी.एम.लेविस, डब्लू. पी. कर एवम् एफ्. डब्लू. बैटसन का विशेषतया शैलीपक्ष से संबंधित सिद्धांत। इन तमाम दृष्टियों के बीच इतिहास लेखन की समस्या पर प्रकाश डालते हुए डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय जी ने अपने लेख `साहित्येतिहास - दर्शन की समस्याएँ' (जो हिंदी साहित्य का इतिहास : पुनर्लेखन की समस्याएं' नामक पुस्तक में छपा है) में लिखते हैं कि, ``इतिहास लेखन में दृष्टि से भी अधिक महत्त्व मनोवृत्ति का है। यदि मनोवृत्ति या नीयत खराब है तब इतिहास प्रामाणिक न होगा। हिंदी में विभिन्न वादों या दृष्टियों के अनुरूप इतिहास लिखे जाने चाहिए। ये एक दूसरे के पूरक होंगे क्योंकि जो तथ्य या व्यक्ति एक बाद के इतिहास में नहीं आएँगे वे दूसरी विचारधारा के इतिहास में आ जायेंगे।''
डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय जी का यह दृष्टिकोण यथार्थवादी है। इसलिए इसे स्वीकार करने में किसी को कोई परेशानी भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि साहित्यातिहास लेखक के अंदन यह गुण होना चाहिए कि वह अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं, पसंद-नापसंद आदि से बचते हुए तथ्यों के आधार पर अपनी बात रखें। तो यहाँ पर यही कहना चाहँूगा कि ये बातें सुनने में जरूर अच्छी लगती हैं पर व्यावहारिक दृष्टि से इसे निभा पाना मुश्किल है।  ऐसे विचार `उस फल की तरह हैं जो बाहर से देखने में बड़े सुंदर लगते हैं पर उन्हें काटने पर पता चलता है की वे सड़े हुए हैं। तथा किसी भी तरह आहार के रूप में उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है। इसलिए साहित्यातिहास और इतिहास दर्शन संबंधी अनेकानेक विचारधाराओं एवम् मान्यताओं के बीच तथ्यगत व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल देते हुए, उसे स्वीकार करना चाहिए। इतिहास का अर्थ अगर हम `   ' मानते हैं तो साहित्यातिहास को भी किसी एक निश्चित धारणा मे बाँधने के बदले बृहद रूप में एक अवधारणा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
साहित्य, इतिहास, साहित्यातिहास और इतिहास दर्शन के संदर्भ में थोड़ी और चर्चा आवश्यक है। साहित्य समाज का आईना मात्र नहीं है। समाज कैसा है? इससे आगे बढ़कर समाज कैसा होना चाहिए? इस बात को भी साहित्य स्पष्ट करता है। साहित्य मनुष्यों द्वारा रचा जाता है। हर व्यक्ति की अपनी विचारधारा, अपने आदर्श और उस क्षेत्र विशेष की अलग-अलग परिस्थितियाँ होती हैं जहाँ पर वह निवास करता है। इन परिस्थितियों का भी साहित्य के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए जब साहित्यातिहास लेखन की बात होती है तो यहाँ पर भी मान लेना चाहिए कि साहित्यातिहास लिखनेवाले अलग-अलग व्यक्तियों की विचारधाराएँ एवम् धारणाएँ अलग-अलग हो सकती हैं। इस प्रकार जिस तरह साहित्य रचना की अपनी अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं, ठीक उसी तरह साहित्यातिहास लेखन की भी अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि दोनों में कोई प्रतिस्पर्धा है। बल्कि ये दोनों के विकास एवम् मूल्यांकन की अलग-अलग स्थितियाँ हैं।
इतिहासकार और साहित्यातिहासकार की भी अपनी अलग-अलग स्थितियाँ हैं। क्योंकि इतिहास लिखना और साहित्य का इतिहास लिखने में बुनियादी अंतर है। इतिहास अधिक तथ्यपरक है अपेक्षाकृत साहित्यतिहास के। साहित्यातिहास में इतिहास की अपनी दृष्टि एवम् धारणाएँ भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी की `गवेषणा' और इसके माध्यम से प्राप्त `तथ्य'`हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' की भूमिका में डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, ``साहित्य के इतिहास को साहित्यिक बनाये रखना इतिहासकार का केंद्रीय धर्म है। ---- पूर्ववर्ती साहित्य तो वही रहता है पर उसे पढ़ने की दृष्टि बदल जाती है। भक्तिकाल को शुक्लजी ने एक ढंग से पढ़ा और द्विवेदीजी ने दूसरे ढंग से।----''
जहाँ तक प्रश्न इतिहास दर्शन का है तो हमें यह समझना होगा कि साहित्येतिहास के अंतर्गत `इतिहासदर्शन' के सिद्धांतो का व्यावहारिक स्वरूप क्या हो? `दर्शन' शब्द संस्कृत के `दृश्य' शब्द से बना है। कहा गया है कि ``दृश्यते यथार्थ तत्त्व मनने'' जिसका अर्थ है कि - ``जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो वही दर्शन है।ण'' अंग्रेजी भाषा में इसके लिए ``philosohpy'' शब्द प्रचलित है। इसकी भी उत्पत्ति दो युनानी शब्दों से हुई है।  ``philosohpy = Philos प्रेम + sophia (wisdom ज्ञान) ''इस तरह ``ज्ञान से प्रेम' या `सत्य की खोज' ही दर्शन है। प्लेटो ने अपनी किताब `रिपब्लिक' में दार्शनिक के बारे में लिखा कि, `` '' दर्शन के संदर्भ में जॉन डेवी की यह परिभाषा भी महत्त्वपूर्ण है कि, ``'' दर्शन के संदर्भ में जॉन डेवी की यह परिभाषा महत्त्वपूर्ण है कि, `` '' इतिहास के बारे में हम पहले ही देख चुके हैं कि ``'' जबकि साहित्य के बारे में कहा गया है कि, ``'' बल्कि इससे भी कुछ अधिक। साहित्य इतिहास और समाजशास्त्र की संयुक्त प्रयोगशाला की उत्पत्ति है। दुनियाँ के कई विश्वविद्यालयों में  ` ' को ` ' कहा जाता है। और जब बात `संस्कृति' की आती है तो यह समझ लेना चाहिए की `समाज' और `संस्कृति' ये समानार्थी शब्द नहीं ह। `` '' यहाँ पर जिस `रिकार्डिंग' की बात है वह साहित्य व अन्य कलाओं के द्वारा ही संभव है। इस तरह हम कह सकते हैं कि ``साहित्य   समाज   इतिहास   दर्शन'' यह सब मिलकर ही साहित्यातिहास की आधारभूमि बनाते हैं।
कुछ विद्वानों ने जिस `इतिहास आलेखकारी' की बात की है उसमें भी संस्कृति और समाज के महत्त्व को `साहित्यइतिहास' के संदर्भ में आसानी से समझा जा सकता है।  डॉ. रमेश कुंतल मेघजी ने `इतिहासआलेखकारी' की बड़े विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने आदर्श, प्रादर्श एवम् प्रतिदर्श ( ) की विवेचना के साथ साहित्येइतिहास के व्यवहारिक एवम् वैज्ञानिक स्वरूप को विवेचित किया है ( कुंतल जी के व्याख्यान की स्मृति के आधार पर)। समग्ररूप से कहने का तात्पर्य यही है कि परंपरा को उसके बृहद रूप में स्वीकार करते हुए इतिहास दर्शन के अनेकों सिद्धांतो के बीच हर दृष्टिकोण से साहित्यातिहास लिखा जाय पर `साहित्य के इतिहास को साहित्यिक' रहने दिया जाय। निश्चित धारणाओं की जगह बुनियादी अवधारणाओं को प्रतिदर्श के रूप में स्वीकार किया जाय। इस तरह विचारों के फेनोच्छवास से अध्ययन-अध्यापन की धूमिल स्थितियों को शायद एक स्पष्ट राह मिल सके।
इन सब के अतिरिक्त साहित्यातिहास से संबंधित एक और प्रश्न अक्सर उठता है। वह प्रश्न है कि, ``हिंदी साहित्य का आरंभ कब से माना जाय?'' इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा जी के अध्ययन एवम् चिंतन को प्रणाम करने से (स्वीकार करने से) एक तथ्यगत व तर्कगत उत्तर हमें प्राप्त हो जाता है। उन्होंने `हिंदी जाति' का विवेचन `यूरोप में आधुनिक जातियों के अभ्युदय और उसके आरंभिक निर्माण काल के साहित्य के आधार पर किया। उन्होंने सिद्ध किया कि किस तरह बाजार जातियों के निर्माण में सहायक होता है। उनके अनुसार ``जाति का निर्माण सामंती अवस्था के अंतर्गत व्यापारिक पूँजीवाद के विकास के साथ होता है, अत: यह विकास विषम गति से होता है और उसकी प्रक्रिया दीर्घकालीन होती है। (जाति और साहित्य - हिंदी साहित्य का इतिहास : पुनर्लेखन की समस्याएँ, पृष्ठ नं. 28)। इसी  लेख में वे लिखते हैं कि, ``प्राचीन काल में यहाँ के एक प्रदेश में भरत जन निवास करते थे। वे अपने कर्म से ऐसे विख्यात हुए कि सारे देश को ही भारतवर्ष कहा जाने लगा।  आगे चलकर यही स्थिति हिंद और हिंदुस्तान शब्दों की हुई। ये शब्द पहले हिंदी प्रदेश के लिए, फिर सारे देश के लिए प्रयुक्त होने लगे।...''
कहने का तात्पर्य यहाँ है कि `हिंदी' शब्द काफी पुराना है। खड़ीबोली ही नहीं राजस्थानी, ब्रज, अवधी जैसी बोलियों में जो भी साहित्य लिखा गया, उसे हिंदी ही मानना चाहिए। लेकिन यहीं पर एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है। वह यह कि `देशी भाषा' या `देश्य भाषा' कही जाने वाली बोलियों को अगर हिंदी साहित्य में माना जाता है तो फिर अपभ्रंश साहित्य को इसमे शामिल किया जाय या नहीं? इस संबंध में डॉ. राम कृपाल पांडेय जी का स्पष्ट मत है कि, ``--- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश इत्यादि साहित्य की परिनिष्ठित भाषाएँ थीं जो अपने-अपने समय की देशी भाषाओं से भिन्न थीं। अत: उनमें से किसी भी लोकभाषा या देशीभाषा समझना उपयुक्त नहीं। (`हिंदी साहित्य का आरंभ कब से मानना चाहिए?')'' आगे अपनी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि, ``.... साहित्यिक भाषा से देशी भाषा नहीं उत्पन्न होती। अत: अपभ्रंश से हिंदी देश भाषा नहीं उत्पन्न होती। अत: जिस प्रकार संस्कृत एवम् प्राकृत भाषाओं का साहित्य हिंदी भाषा के साहित्य के अंतर्गत नहीं आ सकता, वैसे ही अपभ्रंश भाषा का साहित्य भी हिंदी साहित्य के अंतर्गत नहीं आ सकता।''
अपनी किताब `हिंदी भाषा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य' में डॉ. रामकिशोर शर्मा लिखते हैं कि, ``छठीं से बारहवीं शताब्दी तक देशी भाषा (संस्कृत से भिन्न सामान्य काव्य भाषा) अपभ्रंश है। ---- `यह भाषा जनता के दिन रात के व्यवहार में आने वाली बोलियों में से उपज और प्राकृत की अन्य भाषाओं की तरह थोड़ा बहुत हेर-फार के साथ साहित्यिक बन गयी (प्रो. रिचर्ड पिशल)। अपभ्रंश के व्यापक प्रचार-प्रसार होने के कारण अनेक क्षेत्रीय भेदों और उप-भेदों का होना स्वाभाविक है। रुद्रट ने देश विशेष से अपभ्रंश के अनेक भेदों की ओर संकेत किया। उद्योतन सूरि ने देशी भाषा अपभ्रंश की अठारह विभाषाओं का उदाहरण सहित उल्लेख किया है।...''
उपर्युक्त दोनों विचारों से स्पष्ट है कि अपभ्रंश साहित्य को हिंदी साहित्य में शामिल करने या न करने का प्रश्न जटिल है। इसमें वे सभी भाषा वैज्ञानिक तत्त्व मिलते हैं जो इसके पूर्व की भाषाओं में थे। साथ ही साथ इसमें वे नवीन तत्त्व भी समाहित मिलते हैं जो की नयी विकसित भाषाओं में परिलक्षित होते हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं कि अपभ्रंश भाषा नवीन आर्यभाषाओं के निर्माण के पूर्व की संक्रमणकालीन भाषा थी। यह वही धरातल था जिसमें से आर्यभाषाओं का जन्म हुआ। लेकिन यह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक नहीं है। अत: हमें अपभ्रंश का मोह छोड़कर उसे हिंदी साहित्य में शामिल करने से बचना चाहिए। वैसे इस बात को कहने का कोई ठोस तथ्यगत अधिकार मेरे पास नहीं है। लेकिन इस संदर्भ में अध्ययन और अध्यापन की अपनी व्यक्तिगत समझ के आधार पर मैं यह राय रखता हँू।
इसी तरह हिंदी साहित्यातिहास से जुड़े ऐसे कई बिंदु हैं, जिनको लेकर लगातार चर्चा होती रही है। जैसे कि आदिकाल के काल निर्धारण का प्रश्न, भक्तिकाल में भक्ति के उदय का प्रश्न, रीतिकाल के अध्यापन के औचित्य का प्रश्न, भक्तिकाल की प्रासंगिकता का प्रश्न, आधुनिकता की अवधारणा का प्रश्न, उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा का प्रश्न, हिंदी उर्दू की समस्या का प्रश्न, और ऐसे ही न जाने कितने और विषय हैं, जिन्हे लेकर हमेशा साहित्यिक चर्चा होती रहती है। और ऐसी चर्चाओं के केन्द्र में जाते हैं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनके द्वारा लिखित साहित्य का इतिहास संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती है। लेकिन एक लेख या प्रपत्र की अपनी सीमाएँ होती हैं। इसलिए इन सब विषयों पर चर्चा के लिए कुछ ठहराव जरूरी हैं।
हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की प्रक्रिया एक तरह से परिमार्जन की प्रक्रिया है। यह लेखन कार्य सही दिशा में विकासशील है। जैसे-जैसे हिन्दी साहित्य के इतिहास का परिष्कृत व विकासशील रूप सामने आता जायेगा वैसे-वैसे साहित्यातिहासकारों से नयी अपेक्षाएँ भी जुड़ती चली जायेंगी। इसलिए यह जरूरी है कि `वाद-विवाद के बीच से ही संवाद' की नयी स्थितियों पर कार्य सतत रूप से होता रहे।
मनीष कुमार मिश्र
हिंदी व्याख्याता
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,
कल्याण (.) 421301.
जिला - ठाणे, महाराष्ट्र


मानवाधिकार और आतंकवाद


प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय विधि में ये संकल्पना पूर्णत: पोषित थी कि राष्ट्र ही अंतर्राष्ट्रीय विधि के विषय हैं किन्तु कालांतर में उसमें परिवर्तन हुआ और राज्यों के अतिरिक्त, व्यक्तियों को अधिकार और कर्तव्य दिये जाने के कारण उनको भी अंतर्राष्ट्री विधि का विषय माना जाने लगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह निर्विवाद हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा उसी समय बनी रह सकती है जब व्यक्तियों की स्थिति में सुधार हो तथा उनके अधिकारों मूल स्वतंत्रताओं की अभिवृद्धी हो। इसी कारण व्यक्तियों को राज्यों द्वारा दिये गए कई अधिकारों में से एक अधिकार को `मानवाधिकार' कहते हैं।
चूँकि मानव बुद्धिमान एवं विवेकशील प्राणी है। इसीकारण इसको कुछ ऐसे मूल तथा अहरणीय अधिकार प्राप्त रहते हैं जिसे सामान्यतया मानवाधिकार कहा जाता है। चँूकि ये अधिकार उनके अस्तित्व के कारण उनसे संबंधित रहते हैं अत: वे उनमें जन्म से ही विहीत रहते हैं। इस प्रकार मानवाधिकार सभी व्यक्तियों के लिए होते हैं, चाहे उनका मूलवंश, धर्म, लिंग तथा राष्ट्रीयता कुछ भी हो। ये अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए आवश्यक हैं क्योंकि ये उनकी गरिमा एवं स्वतंत्रता के अनुरुप हैं तथा शारीरिक, भौतिक, नैतिक, सामाजिक कल्याण के लिए सहायक होते हैं।
विभिन्न राज्यों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, उनके विचार तथा उनकी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों में भिन्नता के कारण `मानवाधिकार' इस शब्द को परिभाषित करना कठिन है। लेकिन यह कहा ही जा सकता है कि मानवाधिकार का विचार मानवीय गरिमा के विचार से संबंधित है। अत: उन सभी अधिकारों को मानवाधिकार कहा जा सकता है जो मानवीय गरिमा को बनाये रखने के लिए आवश्यक है।
वियना के 1993 में मानवाधिकार सम्मेलन की घोषणा में यह कहा गया था कि सभी मानवाधिकार व्यक्ति में गरिमा और अंतर्निहित योग्यता से प्रोद्युत होते हैं और `व्यक्ति' मानवाधिकार तथा मूल स्वतंत्रताओं का केन्द्रीय विषय है। डी. डी. बसु मानवाधिकारों को उन न्यूनतम अधिकारों के रुप में परिभाषित करते हैं, जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति को, बिना किसी अन्य विचार के, मानव परिवार का सदस्य होने के फलस्वरुप राज्य या अन्य लोकप्राधिकारी के विरूद्ध धारण करना चाहिए।
मानवाधिकार अविभाज्य एवं अन्योन्याक्षित होते हैं इसलिए संक्षिप्त में भिन्न-भिन्न प्रकार के मानवाधिकार नहीं हो सकते फिर भी संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के अंतर्गत मानवाधिकार के क्षेत्र में किये गए विकास से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवाधिकारों को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा जा सकता है। अर्थात
1) सिविल एवं राजनैतिक अधिकार और
2) आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार।
जब आतंक का व्यवस्थित प्रयोग कतिपय उ ेश्यों को विशेष रुप में राजनैतिक उ ेश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है तब सामान्यतया उसको आतंकवाद कहा जाता है।
आतंकवादी कार्य एवं तरीको से राज्यों की सामाजिक एवं संवैधानिक व्यवस्था तथा राज्यक्षेत्रीय अखण्डता एवं सुरक्षा का भय बना रहता है। फिर भी, आतंकवाद की उपर्युक्त परिभाषा सार्वभौमिक नहीं हो सकती। बहुत से समय या अवसरों पर किसी राज्य की सरकार किसी कृत्य को इसलिए आतंकवादी कृत्य मान लेती है क्योंकि यह उसके हित को प्रत्यक्ष रुप से प्रभावित करने लगता है। तब उन लोगों द्वारा न्यायोचित ठहराया जाता है जो कृत्यों को कारित करते हैं। आतंकवाद या तो देशी या आंतरिक हो सकता है या अंतर्राष्ट्रीया राज्य देशी आतंकवाद को उनकी दाण्डिक विधि का उल्लंघन मानते हैं और अपनी देशीय विधि के प्रयोग करने में नहीं हिचकते हैं। यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद चाहे वह देशीय हो या अंतर्राष्ट्रीय, एक दाण्डिक अपराध है।
आतंकवाद से पीड़ित व्यक्तियों के मूलभूत मानवाधिकारों का हनन होता है। विशेष रुप से इससे प्राण के अधिकार, शारीरिक निष्ठा के अधिकार एवं वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रभावित होते हैं। आतंकवाद के प्रोत्साहन हेतु उसमें धर्म की अफीम, काम (सेक्स) की स्वतंत्रता एवं उन्मुक्तता, ईश्वर या अल्लाह के लिए समर्पित कर्म, धन की उपाजेयता एवं स्वतंत्र तथा स्वच्छंद वातावरण की खुराक आवश्यक है।
आतंकवाद के प्रचार एवं प्रसार के लिए जहाँ एक वर्ग को जोड़ना आवश्यक है, वहीं युवाओं का झुकाव एक खुली सच्चाई है। जब कोई अपना सब कुछ लगाकर कुछ प्राप्त करने के लिए अवैधात्मक हिंसात्मक अवधारणाओं द्वारा किसी राज्य या उसके कुछ भाग के संवैधानिक आधारों तथा दाण्डिक एवं व्यवहारिक को नष्ट करता है तो वही ---- आतंकवाद है।
आतंकवाद का प्रारंभ ही मानवाधिकारों पर प्रहार है। किसी आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र की जनता को प्रदत्त मानवाधिकारों का हनन न सिर्फ आतंकवादियों द्वारा ही होता है बल्कि उसे रोकने के निमित्त सुरक्षाबलों द्वारा कर दिया जाता है। पोटा (आतंकवाद निरोधक अधिनियम) एवम् एसपीएएफ (स्पेशल पॉवर आफ आर्मड फोर्सेस) को प्रदत्त किये गए अधिकार आतंकवाद के खत्में के लिए हैं किन्तु ये क्षेत्र विशेष की जनता के मानवाधिकारों को भी प्रभावित कर जाते हैं।
इस संबंध में समुचित प्रयास एवं विनियमों को पारित किया जाना आवश्यक है क्योंकि यही आतंकवाद विनाश आतंकवाद सृजन का रुप लेता है। आहत मानव न्याय चाहता है चाहे उसका तरीका कुछ भी हो, सही हो या गलत, वह सहज हो तो आतंकवादी हो जाता है।
मानवाधिकार एवं आतंकवाद एक दूसरे से आपवादिक रुप से जुड़े हैं। आतंकवाद का होना मानवाधिकारों का हनन है और समग्रता में मानवाधिकार आतंकवाद के लिए कुछ भी नहीं छोड़ता है।

                                     डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 


संदर्भ ग्रंथ:-
1) अंतर्राष्ट्रीय विधि - अग्रवाल।
2) नोट्स - प्रो. . पी. तिवारी (एच..डी. लॉ गोरखपुर युनिवर्सिटी)
3) अंतर्राष्ट्रीय विधि - डॉ. कपूर।
                                                         
      



कात्यायनी की कविता - शोक गीत


09 मई 1959 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मी कात्यायनी आज की शीर्षस्थ हिंदी कवियित्रियों में एक हैं। आप की कविताएँ मुख्य रूप से नारी विमर्श की कविताएँ हैं। आपके प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
1. सात भाइयों के बीच चम्पा - 1994
2. इस पौरूषपूर्ण समय में - 1999
3. जादू नहीं कविता - 2002
4. रात के संतरी की कविता।
5. चाहत
6. कविता की जगह।
7. आखेट।
8. कुहेर की दीवार खड़ी है।
इनके अतिरिक्त रूसी और अंग्रेजी भाषा में आपकी कविताओं का अनुवाद हुआ है। नारी प्रश्न संबंधित आपके लेखों का संग्रह `दुर्ग द्वार पर दस्तक' नाम से प्रकाशित हो चुका है। अगर आप इंटरनेट के माध्यम से कात्यायनी जी के साहित्य को पाना चाहते हैं तो   पर जाकर उनसे संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
जिस नारी विमर्श / स्त्री विमर्श और नारीवादी इत्यादी आंदोलनों की चर्चा हम सुनते रहते हैं वह पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों की राजनीतिक, सामाजिक एवम् शैक्षिक समानता का आंदोलन है। जिसकी जड़े 18वी शती के मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति में थी। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज भी विश्व की पूरी ज़मीन का केवल 1  भाग महिलाओं के नाम है। जबकि वे दुनियाँ की आधी आबादी हैं। विश्व के काम का 60  महिलाएँ करती हैं, मगर आमदनी का केवल 10  हिस्सा उनकी निजी आमदनी मानी जाती है। आज भी निरक्षर जनता का तीन चौथाई भाग महिलाओं का है। भारत में लगभग पाँच हजार महिलाएँ प्रतिवर्ष दहेज के लिए मार दी जाती हैं। पूरे एशिया में एक लाख महिलाएँ हरवर्ष वेश्यावृत्ति में ढकेल दी जाती हैं। ऐसे समय में जीते हुए, अगर कात्यायनी जी अपनी कविताओं का मुख्य बिंदु `नारी विमर्श' को बनाती हैं, तो सही ही करती हैं।
एक साहित्यकार या रचनाकार होने के नाते हमारी यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि हम अपने वक्त की चौह ी में घिरे हुए सामान्य व्यक्ति के द्वंद्व और सपने को प्रधानता दें, न की किसी विचारधारा या विमर्श की चौह ी में अपने आप को बाँधकर, इस बंधन को ही `शाश्वत बंधन धर्म' घोषित करते हुए उन्हीं का गुणगान करते रहें।
लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अलग-अलग विमर्शो एवम् अनुशासनों में जो लेखन हो रहा है, वह भी साहित्य का ही एक हिस्सा है। इस लेखन के कारण ही समाज और साहित्य का आपसी संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुआ है। आज के साहित्य की सबसे बड़ी चिंता तो सामाजिक और आर्थिक उ ेश्यों को लेकर चलनेवाले विभिन्न विमर्श जल्द ही अपने मार्ग से भटककर यश, प्रतिष्ठा, पुरस्कार एवम् सुविधाएँ बटोरने के साधन मात्र बन जाते हैं। ऐसे रचनाकारों की साधना, साधन के आगे भंग हो जाती है। लेकिन जहाँ तक प्रश्न कात्यायनी जी का है, तो अब तक ऐसी कोई बात दिखायी नहीं पड़ती। अपनी रचनाशीलता के लिए उन्होंने जिस धारणा को केन्द्रिय बिन्दु बनाया है, वह धारण व्यापक रूप में साहित्य की मानवीय अवधारणा की पूर्ति जरूर करती है। इसलिए `विमर्शवादी' कवयित्री मात्र कह कर उनके श्रम को नकारा नहीं जा सकता।
पाठ्यक्रम में निर्धारित उनकी कविता `शोक गीत' के संक्षिप्त विश्लेषण से यह बात और स्पष्ट हो जायेगी। `शोकगीत' मूल रूप में जीवन की विडम्बनओं, जीवन के संघर्ष, आशा-निराशा और इसके (जीवन) आस-पास के परिवेश में बढ़ रही मूल्यहीनता, अवसरवादिता, स्वार्थपरकता, दोहरे व्यक्तित्व इत्यादि की कलई खोलते हुए इस कठिन समय में जी रहे सामान्य व्यक्ति के असामान्य संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शोक जीवन भी नहीं, इस जीवन की विडंबनाओं का है। और अगर विड़बनाओं का शोक है, तो इनमें तप रहे व्यक्ति के साहस, संघर्ष और आशा-निराशा और इसके (जीवन) आस-पास के परिवेश में बढ़ रही मूल्यहीनता, अवसरवादिता, स्वार्थपरकता, दोहरे व्यक्तित्व इत्यादी की कलई खोलते हुए इस कठिन समय में जी रहे सामान्य व्यक्ति के असामान्य संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शोक जीवन ही नही, इस जीवन की विडंबनाओं का है। और अगर विड़बनाओं का शोक है, तो इनमे तप रहे व्यक्ति के साहस, संघर्ष और आसक्ती ----- के प्रति इस काव्यगीत कविता के माध्यम से एक आदर और सम्मान का भाव भी है।
कविता की शुरूआत करते हुए कात्यायनी जी लिखती हैं कि -
``बस यूँ ही गुजार दी जिंदगी
नहीं रच सके कोई `एपिक' (महाकाव्य)
न हो सके पाठकों के आँखे के तारे
न किसी आलोचक श्रेष्ठ के दुलारे
अपुन तो बस यूँ ही गुजार दी
पूरी जिंदगी''
ऊपरी तौर पर इन पंक्तियों का अर्थ यही निकलता है कि कवियित्री `एपिक' अर्थात महाकाव्य न रच पाते दुख को जता रही हैं। पाठको में प्रिय न होने का दुख जता रही हैं और साथ ही साथ किसी ``आलोचक श्रेष्ठ'' की कृपा पात्र न बन पाने के दुख को भी प्रगट कर रही हैं। लेकिन वो जो कहना चाह रही हैं मेरी समझ से वह यह है कि यदि आपको जिंदगी ``यूँ ही'' नहीं बिताती, साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त करती है, पाठकों के बीच अपने आप को लोकप्रिय बनाता है तो आपको अनिवार्यत: किसी श्रेष्ठ आलोचक की कृपा हासिल करनी होगी। उसका प्रिय होना होगा। आपको चापलूस होना होगा, अवसदवादी होना होगा और पदप्रतिष्ठा इत्यादि के लिए जीवनमूल्यों से समझौता करना होगा। और अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप अपनी जिंदगी `यँ ही' बिता देने को अभिशप्त रहेंगे।
इन पंक्तियाँ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी आयी है कि कवियित्री `एपिक' या महाकाव्य न रच पाने के दुख को व्यक्त कर रही हैं। अब सवाल यह उठता है कि `महाकाव्य' ही न रचने का दुख उन्होंने क्यों जताया। दरअसल महाकाव्य किसी भी सुसंस्कृत समाज की सांस्कृतिक और साहित्यिक संपत्ति हैं। ये मानव जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तु करती हैं। ये प्राचीन देशों की पूर्ण विकसित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। और समांतर रूप से आधुनिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं इन महाकाव्यों में विद्यमान मूल्य, मानवीय दृष्टिकोण और इनकी निश्चल गुणवत्ता ने अभिजात्य साहित्य में इनका शाश्वत स्थान बनाये रखा है। महाकाव्यों का मुख्य उ ेश्य वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के साथ मानवीय व्यवहार का पोषण एवम् संवर्धन है। ये संस्कृति के संगठित खजाने हैं। अब आप समझ सकते हैं कि यदि महाकाव्य लिखना है तो मानवीय मूल्यों जे समझौता नही हो सकता। मगर परेशानी यह है कि अगर आप समझौता नहीं हो सकता। अगर परेशानी यह है कि अगर आप समझौता नहीं करेंगे तो आपके रचे हुए काव्य को `महाकाव्य' की श्रेणी में रखेगा कौन? ये जो आदर्श और व्यवहार का द्वंद्व है, कवियित्री का इशारा उसी तरफ है। अपने रसात्मक एवम् कलात्मक गुणों के द्वारा कोई रचना काल बन जाये, यह आज के काव्य में संभव सा नहीं दिखता। क्योंकि इस त्रासदी भरे युग के रचना की होड़ रचना से नहीं अपने समय की विसंगतियाँ के बीच से निकलने के लिए आपको एक रचनाकार होने के नाते जो कीमत चुकानी पड़ेगी वह चुकाने के बाद आपके पास `मूल्यों' के रूप में कुछ बचेगा नहीं। और जो बचेगा वह `एपिक' या महाकाव्य नहीं हो सकता।
कविता को आगे बढ़ाते हुए कात्यायनी जी जीवन के एक दूसरे बड़े महत्त्वपूर्ण पर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते हुए लिखती हैं -
``प्यार किया एक मामूली आदमी की तरह
राशन-पानी जुटाया
सब्जियों की खरीदारी की
पूरी जिम्मेदारी के साथ।
भरपूर गुस्से के साथ
जुलूस में शामिल हुए मँहगाई के खिलाफ,
निष्ठापूर्वक गये हड़ताल पर।
नहीं बना सके एक शांत सुरूचिपूर्ण
अध्ययन कक्ष।''
यहाँ पर कात्यायनी जी आम व्यक्ति की तरह प्यार करने की बात स्वीकार कर रही हैं। लेकिन मन में सवाल यह उठ रहा है कि आम व्यक्ति का प्यार होता कैसा है? दूसरी बात यह कि वे `प्यार' की जिम्मेदारी के साथ कर रहीं है। कैसे ही जैसे भी जिम्मेदारी के साथ पाती जुटाना और सब्जी खरीदने का काम होता है। अगर आप लोगों को मामूली आदमी की तरह सब्जी खरीदने का अनुभव होगा, तो आप जानते होगे कि यह कितना कठिन काम है। मोल-भाव करना, बराबर तौलवान और जो आपने खरीदा उसकी गुणवत्ता भी अच्छी तरह --- तो जितनी सावधानी से आज का आम आदमी सब्जी खरीद रहा है, उतनी ही जिम्मेदारी से वह प्यार भी कर रहा है। वह प्रेम में भी व्यावहारिक दृष्टिकोण देख रहा है। आज प्रेम किसी के लिए तरक्की की सीढ़ी की तरह है तो किसी के लिए सामाजिक और आर्थिक सुरखा की गारंटी। आज जिस बाज़ारवादी संस्कृति में हम जी रहे हैं, वह हमें खुद बता रहा है कि हमें प्रेम को किस तरह जीना चाहिए। ``72 घंटों के भीतर एक गोली'' जैसे विज्ञापन बहुत कुछ कहते हैं। अब प्रेम एक हकीकत है। शायद कात्यायनी जी इसी ``आम आदमी वाले प्रेम'' को स्वीकार करती हैं। वैसे भी हीर-राँझा, सोनी-महिवाल और लैला-मजनू जैसा प्रेम आज के जमाने में किसी काम का नहीं रहा। जीवन की इसी विडंबना को कात्यायनी जी ने बड़े ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है।
कविता को आगे बढ़ाते हुए कात्यायनी जी लिखती हैं कि -
``जब एक उत्कृष्ट कविता
लिखने का समय था,
उसे हारे हुए समय में भी
लिख रहे थे दीवारों पर तारे।
जब लिखनी थी
अपने समय की सर्वाधिक चर्चित कहानी
लिख रहे थे हड़ताल का पर्चा
सामान्य ही रहे अंत तक।
यूँ हुए असफल।''
जब वे लिखती हैं कि जब एक उत्कृष्ट कविता लिखने का समय था, तो सवाल उठता है कि कौन सा समय उत्कृष्ट कविता को लिखने का होता है? फिर आगे वे लिखती हैं कि `` उस हारे हुए समय में भी तो पुन: प्रश्न उठता है कि समय कब, और किससे हारा हुआ था? जब तक हम इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज लेंगे, तब तक इन काव्य पंक्तियों के लालित्य को भी समझ नहीं सकेंगे। जहाँ तक मेरी अपनी सोच ओर समझ है, उसके अनुसार मुझे यह लगता है कि अगर हम यह मानते हैं कि ``कविता-भाषा में आदमी होने की तमीज हैं तो हमें यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ``कविता मानवता की मातृभाषा हैं।'' इस तरह कविता को रचनेवाला कठिन से कठिन अमानुषिक और आततायी व्यवस्था के बीच में भी मानवता और रचनात्मकता से बचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य अपनी कविता के माध्यम से करता है। स्पष्ट है कि हारे हुए समय में रची गयी कविता ही उत्कृष्ट कविता होगी। और यहाँ ``हारे हुए समय'' से अभिप्राय समय विशेष की परिस्थितियों में मानवी मूल्यों के बिखराव, विघटन और बिनाश से है। तो ऐसे समय में जीवन जी रहे व्यक्ति की आकांक्षा, व्यग्रता, उल्लास, अधूरापन, बेबसी, अवसाद और कसमसाहट को व्यक्त करने के लिए उसे अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए संवेदनशील रचनाकार कविता का सहारा लेता है। यहाँ पर वह जो कविता रच रहा है, उसमें `रचने' से ज्यादा `बचने' का भाव होता है। आवश्यकता से कहीं अधिक प्रश्न `अनिवार्यता' का होता है।
`किसी भी समाज में कविता स्वायत्त घटना नहीं होती' नामक अपने एक लेख में (सहस्त्राब्दी अंक तेरह 2003, आलोचना त्रैमासिक में प्रकाशित) कुमार अंबुज लिखते हैं कि, ``एक अच्छी ओर विश्वसनीय कविता में आवेगों, उत्तेजनाओं और ऊहापोहों का सम्मिश्रण भी संभव है। कविता कोई निर्णायक इतिहास रचे, ऐसी कामना एक अच्छा स्वप्न् है। ऐसा शताब्दीयों से होता है। इस लिहाज से समकालीन हिन्दी कविता के सामने चुनौती है। लेकिन फिर वही सवाल तो खड़ा होगा ही। यानी आप सोचते हैं कि समाज में बहुसंख्यक नागरिक लोलुप, भ्रष्ट, कायर, अवसरवादी और यथास्थितिवादी बनें रहे लेकिन कविता निर्णायक इतिहास रच दे। यदि कविता समाज की आँख है तो उसका `देखना' तब ही सार्थक और प्रतिफलित होगा जब शरीररूपी समाज के शेष अंग भी अपना काम मुस्तैदी से करें।''
तो उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हुआ कि उत्कृष्ट कविता लिखने का समय कौन सा है।? हारे हुए समय से ---- अभिप्राय है और इसी तरह अपने समय भी सर्वाधिक चर्चित कहानी लिखने का समय कौन सा है? कुल मिलाकर कवियित्री शायद यह कहना चाह रही हैं कि वे जिस कठिन परिवेश में जी रही है उसमें अच्छी रचनाधर्मिता के लिए पर्याप्त --- तो है लेकि उस अच्छी रचना के लिए अवकाश कहाँ? अवसर कहाँ है? साधन कहाँ है? समय तो बीत रहा है मँहगाई के खिलाफ जुलूस में शामिल होने में, दीवारों पर नारे लिखने में और हड़ताल के चर्चे लिखने में। किसी शांत सुरूचिपूर्ण अध्ययन कक्ष में बैठकर चिंतन-मनन के लिए न तो साधन ही हैं और नही उन साधनों को जुटाने के लिए अवकाश।
दरअसल `हड़ताल' `तारे' और `हड़ताल का पर्चा' जैसे शब्द भी मुझे प्रतीकात्मक से लग रहे हैं। ये शब्द किसी आंदोलन या क्रांति के प्रतीक न होकर राजनीतिक छलावे को अधिक अभिव्यक्त कर रहे हैं। मजदूर युनियनों और राजनीति एवम् पूँजीपतियों की साँठगॉठ से कौन परिचित नहीं है। दरअसल कविता समाज से अलग कोई स्वतंत्र या हवाई वस्तु नहीं है। अगर पिछले दो-तीन दशकों में समाज में कोई क्रांति या आंदोलन नहीं हुआ है तो उसकी अपेक्षा साहित्य में कैसे की जा सकती है। हाँ, आंदलनो का छलावा जरूर सामने आया है। जिसका शिकार यही सामान्य आदमी हुआ है जो, नारे और पर्चो में ही उलझा रहा। पर्दे के पीछे के सौदे से वे अनभिज्ञ रहे। मतलब की यहाँ भी - संघर्ष और आंदोलन के नाम पर सामान्य आदमी केवल और केवल छला गया। इसे किसी वस्तु की तरह इस्तमाल किया गया और छोड़ दिया गया वहीं जहाँ से उसे उठाया गया था। चुनावों और रैलियों में पैसे और खाने का लालच देकर ट्रकों में भर-भरकर इसी सामान्य व्यक्ति सेनारे दिलवाये जाते हैं। और `भीड़तंत्र' के छलावे में `लोकतंत्र' की नींव मजबूत करने का दावा किया जाता है। ऐसे लोग ही अंत तक सामान्य रहते हुए असफल रहते हैं। लेकिन इस छलावे के बीच भी जीवन जीने की तृषिता उनके जान जुड़ी होती है।
कविता के अंत में कवियित्री लिखिती हैं कि -
``अपनी सभी विलक्षण कारगुजारियों को
मानवता की सेवा में प्रस्तुत कर
न हो सके महान।
नहीं लिखेगा कोई गणमान्य कवि
एक शोकगीत
मेरे मरने के बाद।
यूँ होगा
एक कठिन
कहानी का

      सुखांत।''

भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का परिशोध, परिष्कार और निर्वाह करती डॉ. विद्या बिन्दु सिंह

     


डॉ. विद्या बिन्दु सिंह का जन्म 02 जुलाई सन 1945 . में उत्तर प्रदेश के जिले फैजाबाद के अंतर्गत जैतपुर, सोनावा में हुआ। आपकी माता प्राणदेवी और पिता देवनारायण सिंह जी थे। एक सामान्य और संस्कार संपन्न परिवार में जन्मी विद्या बिन्दु जी आज हिंदी साहित्य जगत के लिए एक सुपरिचित नाम हैं। शांत, सहज, सरल लेकिन साहित्य और लेखकीय जिम्मेदारियों के प्रति एकदम सजग। कविता, कहानी, निबंध, उपन्यास, संस्मरण और हाइकू तथा क्षणिकाएँ जैसी विधाओं में आपकी लेखनी सतत चल रही है। `बखरी के लोग' `अपनी जमीन', `बाघा बाबा का चौर' आपके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। `वधूमेध' `अमरवल्लरी', `कॉटों का वन' `वापस लौटे नीड़' `पल नि' और `तुमसे ही कहना है' आपके प्रमुख कविता संग्रहों में से हैं। `अंधेरे के बीच' `वे बेटियाँ' और `फूल कली' आपके प्रमुख उपन्यास हैं। आपके द्वारा लिखित नाटकों में `काकी रोना मत' और `अपना सब संसार' प्रमुख है। आपकी कुल प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 70 से अधिक है। `दिन-दिन पर्व' नामक आपकी पुस्तक समीक्षकों के बीच चर्चा का विषय बनी रही। इधर `राम काव्य' नामक आपकी कुछ पुस्तकें `बुक-ट्रस्ट ऑफ इंडिया' द्वारा प्रकाशित हुई हैं। अवधी लोक साहित्य बाल साहित्य, प्रौढ़ साहित्य, नवसाक्षर साहित्य और बाल व्याकरण से संबद्ध आपकी दर्जनों पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं।
जीवन के तमाम उतार-चढ़ावो को पूरे धैर्य, साहस संबल के साथ आत्मसाथ करते हुए आपने साहित्य सृजन के परिमल-विमल-प्रवाह को निरंतरता प्रदान की है। आप का साहित्य राष्ट्रीयता एवम् मानवियता के भावों से ओत-प्रोत है। राष्ट्रीय-सामाजिक जागरण की चेतना को ही आपने अपने कथा एवम् काव्य साहित्य का विषय बनाया। वह काव्य या साहित्य जिसके अंतर्गत  जीवन की शक्ति क्षीण होती है, उसका आपने कभी भी समर्थन नहीं किया । आप ने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के विकास को बल प्रदान किया। भारतीय परंपराएँ, तीज-त्योहार, रीति-रिवाज और धार्मिक मान्यताओं को आपने अपने साहित्य के माध्यम से सामने लाया। नारी मन की व्यथा, उसके सपने, उसकी आशाएँ और उसकी पीड़ा तथा घुटन को भी आपने विस्तारपूर्वक विवेचित किया है। अवधी लोक साहित्य पर भी आपने महत्त्वपूर्ण शोध-पूरक कार्य किया है। देश-विदेश की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध हैं।
कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहते हुए, घर-परिवार की जिम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए आपने  अपनी साहित्यिक गतिविधियों को सतत जारी रखा हुआ है। दुख और अवसाद के क्षणों में भी साहित्य ही आपका संबल रहा। पति कृष्ण प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद आप अंदर से टूट चुकी थीं। चारों तरफ निराशा के बादल ही छाये थे। इन दिनों जब मैं `विद्या दीदी' से मिला तो मेरी भी आँखें भर आयीं। `हिन्दी की बिन्दी' वाली अपनी `विद्या दीदी' को पहली बार बिना सिंदूर और बिन्दी के देखना बड़ा कष्टकर रहा। लखनऊ में उनके आवास से लौटते हुए मन भारी हो गया था। मैं उनसे कुछ कह नहीं पाया था, औपचारिकता वश दुख जताने वाली तो कोई बात ही नहीं थी, वैसे भी मेरे संबंध औपचारिक नहीं होते। मुंबई वापस आकर कई बार लगा की `विद्या दीदी' से बात करूँ, पर क्या बात करूँ? यही नहीं समझ पा रहा था। वैसे भी 2-3 महीने में कभी-कबार ही तो उनसे बात होती है। उनके स्वास्थ्य, नई रचनाओं और साहित्यिक यात्राओं के संबंध में ही। इसबार तो समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या बात करूँ? फिर एक दिन अचानक मोबाईल पर `दीदी' का ही फोन आया। मन हर्ष से भर गया। दीदी ने मेरे लेखन, नौकरी, परिवार और कल्याण में रह रही अपनी छोटी बहन `अन्नू' के बारे में देर तक बात करती रहीं। फिर उन्होंने अपनी नई किताबो  ो  बारे में बताया और बोलते-बोलते भावुक होकर बोली ``अब लिखना-पढ़ना ही मेरी दवा है। इनसे ही स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।.... और न कोई तो इनका ही बड़ा सहारा भी।'' दीदी की बात एकदम सच साबित हुई। अब जब दीदी से मिलता हँू तो लगता है कि सचमुच साहित्य ने ही `विद्या दीदी' को सँभाल लिया।
`विद्या दीदी' का समग्र साहित्य सच्चाई और ईनामदारी के लिए लड़नेवाले रचनाकारों के भावबोध को अपने अंदर समेटे हुए है। पंक्ति में सबसे अंत में, हाशिये पर खड़े आम आदमी की अभिव्यक्ति को आपने हमेशा ही महत्त्वपूर्ण माना है। आज के इस बाजारवाद, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और भाई-भतीजावाद के युग में लोकतंत्र की जगह लूटतंत्र के खिलाफ खड़े होने का अदम्य साहस भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से दिखाया है। मंच पर आपको बोलते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति होती है। `सुभद्राकुमारी चौहन स्वर्ण पदक', साहित्य महोपाध्याय सम्मान', `साहित्य श्री सम्मान', `हिन्दी की बिन्दी सम्मान', `राष्ट्रभाषा रत्न' सम्मान, `महादेवी वर्मा सम्मान',`जायसी सम्मान' और `विश्वभारती सम्मान' जैसे न जाने कितने की सम्मान के स्मृति चिन्हों से आपका घर भरा हुआ है। जो इस बात का प्रमाण है कि आपकी साहित्यिक प्रतिभा को समय-समय पर साहित्य जगत ने स्वीकार करते हुए आपकी निष्ठा, ईमानदारी और कर्मठता को नमन किया है। गढ़वाल, लखनऊ और पूणे विद्यापीठ से आपके साहित्य पर कई शोध कार्य हुए भी हैं और वर्तमान में हो भी रहे हैं। पूण विद्यापीठ से संलग्न सी.टी. बोरा महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. ईश्वर पवार जी ने हाल ही मुझे बताया कि उनके मार्गदर्शन में उनकी दो छात्राएँ एम.फिल का कार्य बिछा दीदी के साहित्य पर कर रही है। देशभर के कई अन्य विश्वविद्यालयों से भी आपके साहित्य पर शोध कार्य किये जाने की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से मिली है। लखनऊ और मुंबई आकाशवाणी से आपके साहित्य पर कई `लेख' भी ब्रॉडकास्ट हो चुके हैं। देश-विदेश की आपने अनेकों यात्राएँ की हैं। मॉरीशस, तूरीनामा, नार्वे, लंदन और कई खाड़ी एवम् पश्चिमी देशों में आयोजित होनेवाले साहित्यिक आयोजनों में आप सहभागी होती रही हैं।
आज की व्यवस्था में चापलूसी और जी हजूरी मानों भ्रष्ट व्यवस्था का एक अंग ही बन गया है। लेकिन `विद्या बिन्दु जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को देखकर साफ पता चलता है कि आपने न केवल पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर लिया अपितु अपनी सच्चाई और कर्मठता के दम पर कई मगरमच्छों को चारो खाने चित भी कर दिया। अभिव्यक्ति के अपने खतरे होते हैं, पर इन खतरों से आप कभी घबरायी नहीं। अपने आदर्शो, सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के कारण जहाँ एक तरफ आपके विरोध में खेमा बना तो दूसरी तरफ आपके प्रशंसकों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही। निम्न भाव के लोगों को तो शुद्ध दलाली में ही दिलचस्पी होती है ऐसे लोगों का आपके विरोध में खडा़ होना सहज भी था। संबंधों की बत्तीसी के बीच बाहरवाला कर्कश लगता ही है। फिर भ्रष्ट आचरण और नैतिक रूप से पतित लोगों की आज के इस आत्मकेन्द्रिय युग में कोई कमी भी तो नहीं है। लेकिन पंडित विद्यानिवास मिश्र जी जैसे विद््वानों के आशीष और मार्गदर्शन ने आपको हमेशा ही ऊर्जा और संबल दिया। पंडित जी आपके प्रशंसकों में प्रमुख रहे।
आपका साहित्य सहज-सरल-सरस और मधुर है। जहाँ-जहाँ जरूरत रही वहाँ पर आपने व्यंग्य का चाबुक भी चलाया। औरतों के अस्तित्त्व और अस्मिता की लड़ाई में भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से भरपूर योगदान दिया। आज के समय में भले ही कुछ औरतों ने अपने अधिकारों को हालिस कर लिया हो, लेकिन उनका जीवन अभी भी तमाम मुश्किलों और यातनाओं से भरा हुआ है। खेल से बाहर रखकर उन्हें खेल में हराने की प्रथा अभी तक बनी हुई है। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो औरतों को उनके उस लच्छे की तरह समझते हैं, जिसके बारे में यह विश्वास बना रहता है कि वह खुलने पर सिर्फ और सिर्फ उलझेगा। अत: उन्हें सुलझने का कभी मौका ही नहीं दिया जाता। आज भी औरतें उस आटे की तरह हैं जो आपने ही आसुओं और भावों में घुलती रहती हैं। स्त्री-विमर्श को लेकर जितना भी साहित्य लिखा जा रहा है, उसमें विद्या बिन्दुजी का साहित्य भी सहजता से शामिल किया जा सकता है। आपकी कई काव्य पुस्तकें, उपन्यास और नाटक नारी मन की वेदना और संघर्ष को ही लेकर लिखे गये हैं। अवधी लोक साहित्य में से अनेकों गीतों को खोजकर विद्या जी ने संग्रहित करने का कार्य है। इन गीतों में  नारी मन की पीड़ा को जिस तरह से चित्रित किया गया है। वह साहित्य में अनूठा है। आपके स्त्री विषयक लेखन की सबसे बड़ी विशेष्ता यह है कि आप स्त्रीवादी अति कटु और अति उग्र विमर्शो से बचते हुए उसके भारतीय परिप्रेक्ष्य को अधिक महत्त्व देती हुई दिखायी पड़ती है। यहाँ पर आप कथाकार अमरकांत की विचार शैली के बहुत करीब दिखायी पड़ती है। सड़ी-गली मान्यताओं और परंपराओं से अपने आप को काटते हुए राष्ट्रीयता की मूल चेतना से आप हमेशा जुड़ी रही है। यह आपकी प्रतिभा दृष्टि का ही परिणाम है कि आपने अपने साहित्य को एकतरफा या एकांगी नहीं बनने दिया। `विमर्शवाद' के तथाकथित चौह ी मं आपने अपनी लेखनी को संकुचित नहीं होने दिया। सहित के भाव के साथ आपने उदार रूप से उदात्त साहित्य की रचना को जो कि आपके व्यक्तित्व के सर्वथा अनुकूल भी है। हिन्दी साहित्य जगत में आप एक लोकप्रिय, ऊर्जावान, यशस्वी, तेजस्वी एवम राष्ट्रीय-सामाजिक मूल्यों को गति देनेवाली `प्रगतिशील' लेखिका मानी जाती हैं।
पूर्ण रूप से संपन्न, स्वतंत्र, उदार, संस्कारवान और विश्वबंधुत्व की भावना से भरे हुए भारतीय समाज का आपका सपना है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन और समीचीन समीकरण के ताने-बाने में समन्वय, समता, समानता और मानवता को आप प्रमुखता देती हैं। भारत वर्ष को आज जिस विश्वास, आशा, आदर्श, धैय और जीवन-दर्शन की आवश्यकता है, उसकी झलक आपके साहित्य में मिलती है। निराशा, कुंठा, दैन्य, आत्मग्लानि, हिंसा, आत्महीनता इत्यादी भाव बोधों से समाज को जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोजना रहता है जो आज के सुप्त समाज को जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोज हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपने अतीत, अपनी जड़ों में करना होता हैं। यही कारण है कि आप बार-बार लोक साहित्य की तरफ मुड़ती है। काम, क्रोध, मद, लोभ, और मात्सर्य जैसे विकार मानव मन को क्लुषित करते हैं। दया, प्रेम, करूणा इत्यादि भाव मानवीय गुणों का विकास करते हैं। आपके समग्र साहित्य को ध्यान से पढ़ने पर ही यह स्पष्ट होता है कि मानवीय संभावना के प्रसार के हर साहित्यिक आयाम में यज्ञ की आहुति की तरह दया और करूणा के भावों को आपने प्रेषित किया है। आप के साहित्य में भाषा परिष्कार साफ दिखायी पड़ता है। भाषा विज्ञान में दिलचस्पी रखनेवाले विद्ववान इस बात को आसानी से समझ लेंगे।
आप जहाँ व्यवस्था के नकारेपन पर चोट करती हैं, वहाँ भी तोष कम और होश अधिक दिखायी पड़ता है। आपके अभिव्यक्ति के केन्द्र और उसकी सीमा पर भी मानवीय वृत्ति ही है। ये वही वृत्तियाँ हैं जो आपके साहित्यिक सौंदर्यबोध को निखारती हैं भारत एक वैभवशाली राष्ट्र रहा है। ज्ञान-विज्ञान-कला-दर्शन-साहित्य-शिल्प लगभग सभी क्षेत्रों में हमारा कोई सानी नहीं रहा है। `मानवतावाद' और `राष्ट्रवाद' के जिस उदात्त स्वरूप को लेकर हमारे वेद-पुराण आगे बढ़ेउनका पूरी दुनिया की सभ्यता में कोई मुकाबला ही नहीं है। यह सही है कि समय के साथ-साथ कई तरह के आडंबर और शोषण धर्म के नाम पर होते रहे हैं, लेकिन हमारी अस्मिता की पहचान भी हमारे धर्म और राष्ट्र से जुड़ी है। हमें अपनी अस्मिता की अभिव्यक्ति और आत्मनिर्भरता को अपने मौलिक एवम जनउपयोगी रचना कर्म द्वारा बनाये रखना होगा। डॉ. विद्या बिन्दु सिंह जी का समग्र साहित्य उपर्युक्त बातों का ही जीवंत और ठोस प्रमाण है।
दूसरों के विचारों को यदि हम शिलाधर्मिता के रूप में स्वीकार करते रहेंगे तो हमारी मौलिकता कभी पनप ही नहीं पायेगी। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर किसी ने लिखा है कि:
``अपनी तस्वीर में अपना रंग जरूरी है।
जैसा भी हो, अपना ढंग जरूरी है।''
``जो रचेगा, वही बचेगा वाली उक्ति एकदम सही लगती है। यहाँ बचने का अभिप्राय सिर्फ व्यक्ति से संबंधित न होकर पूरी की पूरी सभ्यता, संस्कृति और मानवता की तरफ इशारा कर रही है। परिवर्तन की इच्छा और नवीनता के आग्रह में कोई बुराई नहीं है, किन्तु एक खास विचारधारा के चश्मे से अपनी हजारों-लाखें वर्षो की सभ्यता और संस्कृति को झुठलाना किसी भी तरीके से आधुनिक बोध का परिचायक नहीं हो सकता। इस बात को विद्या बिंदु जी ने अच्छी तरह समझा है। आप का साहित्य सही मायनों में राष्ट्रीय एकता, अखंडता और समप्रभुता का परिचायक है। आपके विचारों में नये और पुराने का समन्वय है। आप का विचार ठहरा हुआ नहीं अपितु गतिशील जल की तरह है। इसी संदर्भ में मैंने आपको `प्रगतिशील' लेखिका भी कहा।
गर्हित कुत्सित परंपरागत मूल्यों की वर्तमान युग में अनुपयोगिता को भी डॉ. विद्या बिन्दु सिंह ने अच्छी तरह समझा। यही कारण है कि हम उनके साहित्य को पुराणपंथी या प्राचीनता के आग्रह व मोह से युक्त नहीं समझते। सामाजिक हित की प्रतिज्ञाओं और समसामयिक साहित्यिक प्रवृत्तियों के बीच ताल-मेल कर साहित्य रचने का कार्य आप करती रही हैं। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपने लेखन कार्य किया है। सामाजिकता की झंझा और आदर्शो की संध्या के संधिकाल में राष्ट्रीय-मानवीय-चेतना को जो शंखनाद आपने किया है वह आत्मिक शुद्धता, सहिष्णुता और मानवता की साहित्यिक गाथा है। आपके काव्य में अध्यांतरिकता, आवेग दीप्ति, सहजस्फुरण, रागात्मकता, संगीतात्मकता, हार्दिकता, तीऋाता तथा कलात्मकता साफ दिखायी पड़ती है। आपका गद्य साहित्य विश्वसनीय, लोकोन्मुखी, जनचेतना, राष्ट्रधर्म, मानवीय विचारों का वाहक है।
साहित्य के जिस यथार्थ को पाने, पहचानने, जानने, मानने, पकड़ने और समझने की कोशिश लगातार होती रही है, उसी कसौटी में हम डॉ. विद्या बिन्दु सिंह के समग्र साहित्य को रख सकते हैं। व्यक्तिगत संबंधों के कारण हो सकता है मैं `कुछ' अतिशयोक्तिपूर्ण कह गया हूँ, लेकिन `बहुत कुछ' वही सत्य है जो सर्व विदित है।



वैश्विक स्तर पर आपस में जुड़ी संगणकीय शृंखला जो `पैकेट स्विचिंग' व्यवस्था के माध्यम से आपस में सूचनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, `इंटरनेट' के नाम से जानी जाती हैं। `पैकेट स्विचिंग' तंत्रीय शृंखलाओं के बीच का तंत्र है। विनटन सर्फ और राबर्ट कहन (Vinton cerf and Robert Kahad) 1973 में अपने एक शोध पत्र में पहली बार `इंटरनेट' इस शब्द का प्रयोग करते हैं। इंटरनेट की शुरूआत कब से हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन `इंटरनेट' के विकास से संबंधित धारणाएँ एवम् तकनीक का निर्माण 1946 के आप-पास हो जाता है। कई वर्षो तक वैज्ञानिक इस क्षेत्र में प्रयास करते रहे। अगस्त 1991 में वर्डवाइड वेब की शुरूआत से `इंटरनेट' के आम उपयोग से संबंधित धारणा को बल मिला। यह तो ठीक है कि आज इंटरनेट सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है, पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि इंटरनेट सीमा विहीन है। शायद इसीकारण विद्ववान इसे `Border Land' कह कर संबोधित करते हैं। आम आदमी के लिए इंटरनेट वह क्षेत्र है जहाँ पर वे आपस में संवाद, व्यापार, मनोरंजन और ज्ञान से जुड़ी सकते हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध तमाम `सोशल नेटवर्किंग साइट्स' एक ऐसी व्यवस्था सामने लाती हैं, जहाँ अपने देश, समाज और परिवार से दूर रहकर भी आप इनसे जुड़ सकते हैं। देश विशेष के लोगों एवम् उनकी संस्कृति से जुड़ने और इस संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने का सबसे सस्ता और सुलभ मार्ग इंटरनेट का है।
दरअसल उपनिवेशवाद ने पूरी दुनियाँ में पूँजीवाद को बढ़ावा दिया। जिसके फलस्वरूप औद्योगीकरण और तकनीकी विकास की गति तेज हुई। `सुदृढ आर्थिक व्यवस्था' वह नया मापदंड था जो किसी राष्ट्र को ताकतवर बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। पूँजीवाद के सहायक के रूप में मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की। इसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका विशिष्ट थी। आज़ादी के बाद भारत स्वरूप सूचना और प्राद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति हुई। भारत दुनियाँ का दूसरा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र है। जनसंख्या की दृष्टि से भी भारत दुनियाँ का दूसरा सबसे बड़ा देश है। विश्व किसी भी राष्ट्र की तुलना में यहाँ भाषायी और भौगोलिक विभिन्नता धर्म, जाति और संप्रदाय के लोग यहाँ रहते हैं। इसी कारण भारत को `विविधताओं से भरा देश' कहा जाता है। यह देश लंबे समय तक अंग्रेजों का उपनिवेश रहा। इसी कारण अंग्रेजी यहाँ `इंटर कम्युनल बिजनेस' की भाषा के रूप में उभरी। इस देश में जितने लोग रहते हैं उससे कहीं अधिक देवी-देवता पूजे जाते हैं। यह देश एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की 70  आबादी गाँवों में बसती है। आज भी इस देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। जीवन यापन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से वह वंचित है। भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, अफसरशाही, अलगाववाद, आतंकवाद और मौका परस्ती की राजनीति ने इस देश का बहुत अहित किया और लगातार कर भी रही है। इन सारी परिस्थितियों के बीच हमनें सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व में नाम कमाया है। लेकिन इस क्षेत्र में करने के लिए अभी बहुत कुछ है।
एक साधारण सी बात यह है कि अभी तक हम हिंदी में संगणक कुंजीपटल तक नहीं बना पायें हैं। आज भी किसी हिंदी फॉन्ट में डी.टी.पी. गंभीर समस्या है। कारण यह है कि अंग्रेजी में डी.टी.पी. की तकनीक जितनी विस्तृत और सुलभ है, उतनी हिंदी में नहीं। यह तो सच है कि `गूगल' जैसे सर्च मशीन पर हिंदी में `खोज की सुविधा' उपलब्ध है लेकिन इसके उपयोग में कई व्यवहारिक और तकनीकी कमियाँ हैं। `आर्कुट' और अड्डा डॉट काम' जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स में भी हिंदी में संदेश भेजन की व्यवस्था है, किंतु कई बार शब्दों का सही रूप लिखना या खोजना बड़ा ही उबाऊ काम हो जाता है। हाल ही में `गूगल' ने अनुवाद को लकर नई पहल की है। गूगल की इस नई व्यवस्था के अंतर्गत आप अपनी बात अंग्रेजी में टाईप करते जाइये और उसका हिंदी में अनुवाद अपने आप होता जायेगा। यह अपने आप होता जायेगा। यह अपने आप में बहुत बड़ी पहल है, लेकिन अभी इसमें कई खामियाँ हैं। अनुवादित हिंदी वाक्य कई बार हास्यास्पद स्थितियों में सामने आते हैं। यह बात कहने में मुझे बिलकुल संकोच नहीं है कि भारत में जिस तेजी से इंटरनेट का विकास और विस्तार हुआ, उतनी तेजी हिंदी के विकास, विस्तार और इसके प्रयोग को लेकर दिखायी नहीं पड़ती। यह तो सच है कि पूरी दुनियाँ में इंटरनेट का उपयोग करने वालों में भारत का स्थान दूसरी है, लेकिन अब भी भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इंटरनेट के ज्ञान एवम् उपयोग से वंचित है। सरकार इस संदर्भ में ठोस पहल कर रही है। कई योजनाएँ अमल में ला रही है। विशेष तौर पर भाषायी प्रौद्योगिकी के विकास से संबंधित परियोजनाएँ। भारत में प्रौद्योगिकी विकास और उसके साथ इंटरनेट एवम हिन्दी की प्रगति यात्रा का संक्षिप्त परिचय हम यहाँ प्राप्त करेंगे।
भारत में प्रौद्योगिकी विकास की योजनाएँ 1980 के दशक से ही प्रारंभ हो गयीं थी। लेकिन 1997 में भारतीय जनता पार्टी ने सूचना और प्रौद्योगिकी को चुनावी मु ा बनाया। मई 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री. अटल बिहारी बाजपेयी जी ने `नेशनल आई.टी.टास्क फोर्स' गठित की। उनका स्पष्ट मानना था कि - `सूचना और प्रौद्योगिकी ही भारत का भविष्य है।' यह एक नई दृष्टि थी जो इक्कीसवीं शती की दहलीज पर खड़े भारत को नई पहचान दिला रही थी। इस दूर दृष्टि में वह शक्ति थी जो दुनियाँ के अन्य देशों के साथ भारतीय संबंधो के समीकरण को भी बदल सके। इस दूर दृष्टि में भारतीय उद्योग के मूलभूत ढाँचे को बदलने की भी ताकत थी। सन 1998 से `आई.टी.ऍक्शन प्लान' कई संशोधनों एवम् परिवर्तनों के साथ कार्यानवयन के दौर से गुजरा। वर्ष 1999 में `द न्यु टेलीकम्युनिकेशन पॉलीसी' की शुरूआत हुई। वर्ष 2000 से इलेक्ट्रॉनिक ट्रान्जेक्शन' जैसी बातें संभव हो सकीं। इसी के फलस्वरूप कोर बैंकिग की सुविधा प्रारंभ हुई। इंटरनेट बैंकिंग और मोबाईल बैंकिंग की भी सुविधा सहज हो पायी। `प्लास्टिक मनी' और `प्लास्टिक क्रेडिट' ने हमारी जीवन शैली को प्रभावित किया। `कॉल सेंटर', `बी.पी..' `आउट सोर्सिंग' और इस तरह के अनेकों अवसर इस वर्ग को मिलने युवा वर्ग को आकर्षित किया। आमदनी और रोजगार के अनेकों अवसर इस वर्ग को मिलने लगे। इस वर्ग की `क्रय शक्ति' बढ़ गयी। परिणामस्वरूप भारत के छोटे-बड़े शहरों में मॉल और मल्टीप्लेक्स जैसी बातों का नया दौर सामने आया। `ब्रेन ड्रेन' जैसी बातों पर काफी हद तक रोक लगी। वैश्वीकरण और बाज़ारवादी युग में भारत सबसे बड़े बाज़ार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुआ।
सन 1998 तक भारत में टेलीकॉम इंडस्ट्री की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय भारत में प्रति सौ व्यक्ति के बीच एक लैंडलाईन फोन उपलब्ध था। और हर एक हजार व्यक्ति के बीच दो व्यक्तिगत कंप्युटर। सन 1990 तक भारत सरकार का सभी प्रकार की संचार प्रणाली में एकाधिकार था। लेकिन धीरे-धीरे उदारीकरण की नीति अपनाते हुए इसमें बदलाव किया गया। `महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड' और `विदेश संचार निगम लिमिटेड' का गठन इसी दिशा में उठाया गया महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके बाद से ही निजी टेलीकॉम कंपनियों को लाइसेंस प्रदान किया गया। इन सारी कंपनियो ने जो बुनियादी ढाँचा विकसित किया और जिस तरह से देशभर में विस्तार की योजना को कार्यान्वित करती रही; उससे इंटरनेट के विकास की पृष्ठभूमि अपने आप बनती गयी। इन्हीं कंपनियों के सूचनातंत्र को `ट्रान्समीशन कन्ट्रोल प्रोटोकॉल / इंटरनेट प्रोटोकॉल' में बदलकर इंटरनेट का हिस्सा बनाया गया। दरअसल सन 1986-87 में ही भारत सरकार ने `कंप्युटर नेटवर्किंग स्कीम' को कुछ हिस्सों में बाँटकर कार्यान्वय की योजना बना चुकी थी।  इसी के साथ `कंप्युटर मेंटीनेन्स कॉरपोरेशन (सीएमसी) का भी गठन किया गया। सन 1987 में ही `नेशनल इनफॉरमेटिक सेंटर' के माध्यम से `वास्ट' `वेरी स्मॉल अपॅरचर टरमिनल' नामक देश का पहला सेटलाईट नेटवर्क शुरू हुआ, जिसके माध्यम से सरकारी ऐजंसियों तक `डेटा' पहुँचाना संभव हो सका। इसी के माध्यम से देश की राजधानी सभी राज्यों व देशभर के 531 मुख्यालयों से जु़़ड सकी। इसी के फलस्वरूप `ईमेल', डेटा ब्रॉडकास्टिन्ग' `इलेक्ट्रानिक डेटा इंटर चेन्ज' और आपातकालीन संचार प्रणाली जैसी सेवाएँ प्रारंभ हो सकीं। व्हीएसएनएलने `ग्लोबल पैकेट स्विचड सर्विस (जीपीएसएस) की शुरूआत की जिसकी क्षमता 64 किलो बाईट पर सेकेन्ड (केबीपीएस) थी। इसके माध्यम से कलकत्ता, मुंबई और नई दिल्ली को `हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्शन' से जोड़ा गया। व्हीएसएनएलने ही `गेटवे इलेक्ट्रानिक मेल सर्विस (जीइएमएस400) की शुरूआत की। इसी के माध्यम से आगे चलकर इलेक्ट्रानिक मेल (ईमेल) का रास्ता प्रशस्त हो पाया। डॉट नेटवर्क के माध्यम से देशभर में `पैकेट स्विच्ड सर्विस की शुरूआत हुई।
इसी तरह `द एज्युकेशन ऍन्ड रिसर्च नेटवर्क' (इआरएनइटी) की स्थापना 1986 में शिक्षा विभाग और सात सरकारी संस्थाओं की मदद से की गयी। इस परियोजना के लिए आर्थिक सहायता `यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेन्ट प्रोगाम (यूएनडीपी) के माध्यम से मिली। इस परियोजना का उ ेश्य ही था कि राष्ट्रीय स्तर पर संगणकों की एक शृंखला शैक्षणिक शोध कार्यो हेतु बनायी जाय। `एनसीएसटी' (नेशनल सेन्टर फॉर स्वाफ्टवेअर टेकनॉलजी) नामक एक निजी संस्थान ने भारत में इंटरनेट के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह भारत में पहली संस्था थी जिसने भारत को अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट सेवा से जोड़ा और प्रबंधन की पूरी जिम्मेदारी ली। फरवरी 1989 से `एनसीएसटी' और `यूयूएनइटी' (यूनिक्स टू यूनिक्स नेटवर्क टेक्नॉलजी इन यूनाइटेड स्टेट्स) के बीच 9.6 केबीपीएस के माध्यम से इंटरनेट सेवा प्रारंभ हुई। सन 1995 से `एनआयसीएनइटी' ने `व्हीएसएनएल' के माध्यम से सरकारी कार्यों से जुड़े लोगों के लिए `वेब पेजेस्' की सेवा प्रारंभ की।  जून 1998 में व्हीएसएनएल ने सीमलेस सर्विसेस लि. (व्हीएसएसएल) सेवा प्रारंभ की, इसके माध्यम से वीडिओ कॉनफ्रेनसिंग जैसी बातें भारत में संभव हो पायीं।
सन 1991 में ही सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने `स्वॉफ्टवेयर टेकनॉलजी पार्कस ऑफ इंडिया (एसटीपीआय) की स्थापना की। `द कम्युनिकेशन कनवरजेन्स बिल 2000' के माध्यम से ब्रॉडकास्ट, टेलीकम्युनिकेशन और इंटरनेट के विकास की योजनाओं को गति मिली। यद्यपि इस बिल के साथ कई विवाद भी जुुड़े रहे पर अंतत: यह संसद द्वारा पारित हो गया। ईमेल एन्ड इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडिंग असोसिएशन (इआयएसपीए) के माध्यम से भी कई कंपनियां ने भारत में इंटरनेट सेवा से जुड़कर इसके विकास को नये आयाम दिये। `सीजी फैक्स सर्विस' `एच.सी.एल.' `आयएसपी डिवीजन' `सत्यम इन्फो वे', `डेटा प्रो' `विप्रो कम्युनिकेशन डिवीजन' और `जी.. कम्युनिकेशन्स कुछ ऐसी ही कंपनियाँ है। ये सभी `इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के रूप में सामने आये। इनकी सेवाओं के फलस्वरूप वर्ष 2001 के बाद इंटरनेट का उपयो करनेवालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई।
इसी तरह भाषायी प्रौद्योगिकी के विकास को लेकर भी कई कदम उठाये गये। सन 1990-91 में ही सरकार ने `टेकनॉलजी डेवलपमेंट ऑफ इंडियन लैंग्वेजेस! (टीडीआयएल) नामक परियोजना शुरू की। बाद में देश भर में 13 `रिसोर्स सेन्टर' स्थापित किए गये। जिनका काम ही है तकनीकी क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की समस्याओं को हल करना। टीडीआयएल का उ ेश्य ही है, ``डीजिटल यूनिट एण्ड नॉलेज फॉर ऑल'' इसी उ ेश्य की पूर्ति के लिए भारतीय भाषाओं में कई पोर्टलस्, लैन्गवेज प्रोसेसिंग टूल्स और ट्रान्सलेशन मेमरी टूल्स बनाये जा चुके हैं। आज हिन्दी में अनेकों पोर्टल्स, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साईट्स, -मेल भेजने और पाने की सुविधा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इतना ही नहीं हिन्दी भाषा, साहित्य, व्याकरण और अनेकों शब्दकोश इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। हिन्दी प्रिन्ट मीडिया का अधिकांश कार्य ही इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से हो रहा है। एक ही समाचार पत्र के कई संस्करण इंटरनेट की मदद से ही अलग-अलग स्थानों से सुनियोजित तरीके से निकल रहे हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि इंटरनेट पर उपलब्ध 80  से अधिक जानकारी अंग्रेजी भाषा में है, जब कि दुनियाँ की सिर्फ 8  आबादी अंग्रेजी बोलती है। इससे साबित होता है कि अन्य किसी भी भाषा में प्रौद्योगिकी का विकास उतना नहीं हुआ जितना की अंग्रेजी में। जहाँ तक प्रश्न हिन्दी का तो इस क्षेत्र में सरकारी और निजी संस्थाओं द्वारा कई प्रयास हो रहे हैं। कारण यह है कि भारत इस समय दुनियाँ के लिए सबसे बड़े बाज़ार के रूप में उभरा है। इस बाज़ार में उसी का सिक्का चलेगा जो इस बाज़ार की भाषा बोलेगा। हिंदी भारत के एक बड़े भू भाग पर बोली जाती हैं। पूरे देश की 41.6  आबादी हिन्दी ही बोलती है। अत: हिन्दी को नजर अंदाज करना अब संभव नहीं है। शायद यही कारण है कि पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अपने नागरिकों को हिन्दी सीखने की सलाह दी।
हिन्दी भाषा से संबंधित जो प्रौद्योगिकीय विकास हुए हैं और हो रहे हैं; उनमें से कुछ की चर्चा हम यहाँ करेंगे। `कन्टेन्ट क्रियेशन इन इलेक्ट्रानिक फार्म', `टैम्ड कॉरपस ऑफ हिन्दी', `हिन्दी विश्वकोश', `भारत भाषाकोश' जैसी चीजों का निर्माण हो चुका है। इनके अतिरिक्त मुंबई युनाइटेड नेशन की आर्थिक सहायता से `वर्ड नेट फार हिन्दी' परियोजना पर कार्य कर रही है। मशीनी अनुवाद के लिए यह परियोजना काफी सहायक होगी। लिनेक्स के माध्यम से हिन्दी सर्च मशीन की शुरूआत हो ही गयी है। आयआयटी कानपुरद्वार `हिन्दी बुलटेन बोर्ड सिस्टम' पर काम हो रहा है। यह बोर्ड मनपसंद विषयों पर हिन्दी में लेख लिखने, संवाद करने और उन्हें सुनियोजित तरीके से सँभालकर रखने की व्यवस्था प्रदान करेगा। इसी तरह हिन्दी में ई-मेल भेजने और प्राप्त करने की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए `मल्टी लिन्गुअल ई-मेल क्लाइन्ट' का विकास किया जा चुका है। हिन्दी और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के संदर्भ में `स्पेल चेकर्स'' विकसित किये जा चुके हैं। `लीप ऑफिस 2000' पूरी तरह भारतीय भाषाओं से संबंधित स्वाफ्टवेयर है जिसका ऑफिस 2000' पूरी तरह भारतीय भाषाओं से संबंधित स्वाफ्टवेयर है जिसका प्रयोग `विन्डोस्'' पे किया जा सकता है। `आयलिप' इंटरनेट के लिए तैयार किया गया भारतीय भाषाओं का `वर्ड प्रोसेसर' है। `अनुसारका' नामक `लैन्गवेज असेसर' की मदद से एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा में अनुवाद आसान हो गया है। `मात्रा' नामक `मशीन एडेड ट्रान्सलेशन सिस्टम' विकसित किया गया है। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद के लिए इसका उपयोग ज्यादा तर समाचार एजन्सियों द्वारा किया जाता है। सूचना और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रयोजन एजन्सियों द्वारा किया जाता है।  सूचना और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रयोजन मूलक हिन्दी का बी..एवम् एम. .का पाठ्यक्रम बनाया जा चुका है। इसी को हम `आयटी-इनरिचड् करीकुला' के नाम से जानते हैं।
ठीक इसी तरह Computational linguistic और Language Engineering के पाठ्यक्रमों की भी ठोस योजना बनायी जा चुकी है। इतना ही नहीं www.tdil.gov.in अपितु नामक वेबसाइट पर जाकर आप हिन्दी से संबंधित कई तकनीकी सुविधाएँ मुफ्त में `डाउन लोड' कर सकते हैं। जैसे कि भारतीय भाषाओं से संबंधित कुंजीपटल एवम् फॉन्ड्स, स्पेल चेकर, आयलिप और ऐसी ही कई अन्य सुविधाएँ। www.epatra.com; www.mailjol.com; www.langoo.com; www.cdacindia.com और www.vishwahindi.com कुछ ऐसी ही वेबसाइट्स हैं जो इंटरनेट पर हिन्दी से संबंधित जानकारी एवम् तकनीक उपलब्ध कराती हैं।
समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि भारत में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति हुई है। इंटरनेट के विस्तार ने इस विकासशील राष्ट्र की प्रगति को गति प्रदान की है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं से संबंधित कई तरह की तकनीक विकसित हो रही है। इन सारी स्थितियों के बीच आवश्यकता है और अधिक सुनियोजित, व्यवस्थित और व्यवहारिक प्रौद्योगिकी के विकास की। जिससे हिन्दी में कामकाज इंटरनेट पर अत्याधिक सरलता और सहजता के साथ किया जा सके। साथ ही हिन्दी के माध्यम से इंटरनेट और इंटरनेट के माध्यम से हिन्दी और अधिक व्यापक रूप में फैले तथा राष्ट्र की प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दें। इंटरनेट और हिन्दी की यह प्रौद्योगिकीय सापेक्ष विकास यात्रा पूरे भारत वर्ष के लिए मंगलमय हो।
                               
                                     डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


संदर्भ ग्रंथ:-
1) Language Technology Development of India Dr. Om Vikas
2) Internet (from wikipedia, the free encyclopedia)
3) Global diffusion of the Internet - Peter wolcott, seymour Goodman
4) Google search machine
5) Globlisation and the Internet : A Research Report - Rohitashya Chattopadhyay
6) Understanding Languge as Communication - T. Pandey