Friday 16 August 2013

हिंदी आत्मकथा साहित्य : एक परिचय


                         
                                                     

                      हिंदी साहित्य की गद्य विधाओं में जीवनी साहित्य की अपनी एक परंपरा है । यद्यपि हमारे यहाँ भारतीय परंपरा में व्यक्तिगत बातों को लिखना अनुचित माना जाता रहा । एक तरफ जहां राम-कृष्ण जैसे उच्च आदर्शों की स्थापना की परंपरा हो वहाँ अपने जीवन और कार्यों की चर्चा जीवनी या आत्मकथा के माध्यम से करना शायद भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं रहा होगा । हम देखते हैं कि हमारे कई रचनाकारों,कवियों इत्यादि का जीवन वृत्त नहीं मिलता। उनके संदर्भ में तो बस क़यास लगाए जाते हैं या फ़िर प्रचलित क्विदंतियों से कुछ तथ्य जोड़े-घटाए जाते हैं ।
                   जीवन में शाश्वत मूल्यों और आदर्श की स्थितियों को धर्म और दर्शन दोनों स्तरों पे महत्वपूर्ण माना गया । भारत धर्म और दर्शन की धरती रही है,इसलिए यहाँ इन्हें महत्व मिलना ही था । लेकिन हिंदी साहित्य में आधुनिक युग की शुरुआत के साथ-साथ जीवन के प्रति वैज्ञानिक,तार्किक और यथार्थवादी दृष्टिकोण अधिक व्यापक रूप से मुखर होने लगा। साथ ही साथ पूरी दुनियाँ में साहित्य की जो विधाएँ प्रचलन में थीं उनका बड़े पैमाने पे अनुसरण किया जाने लगा । इसतरह कई नई विधाओं को प्रस्फुटित होने का अवसर हर जगह मिला । हिंदी मे हाईकु लिखे जाने लगे तो जापानी में दोहे । जीवनी साहित्य के मुख्य रूप से दो प्रकार माने गए हैं । आत्मकथा और पर कथा । अँग्रेजी भाषा में इनके लिए क्रमशः दो शब्द हैं – Autobiography और Biography Autobiography को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि - An account of a person's life written or otherwise recorded by that person.
             ओमप्रकाश कश्यप जी अपने आलेखदलित साहित्य : आत्मकथाओं से आगे जहाँ और भी हैं”( http://www.srijangatha.com/) में लिखते हैं कि,“आत्मकथा व्यक्ति के जीवनानुभव और भोगे हुए सत्य का लेखा होता है। साथ ही उसमें कुछ ऐसा अंतरंग भी होता है, जो उस साहित्यकार के सामाजिक जीवन के दौरान सामने आने से छूट जाता है, किंतु साहित्यकार के जीवन, व्यक्तित्व, उसकी परिस्थितियों और जटिल मानसिक स्थितियों को समझने के लिए उसका विश्लेषण अत्यावश्यक होता है। किंतु उनके प्रस्तुतीकरण के समय यह भी संभव है कि साहित्यकार के भीतर व्यक्तिगत मुद्दों और सामाजिक मुद्दों के बीच प्राथमिकता को लेकर द्वंद्व छिड़ जाए। उस समय यदि ईमानदारी और उचित तालमेल के साथ काम न लिया जाए तो आत्मकथा एकपक्षीय बन सकती है। इसीलिए आत्मकथा लेखन को बड़ी चुनौती माना गया है। हालाँकि आत्मकथा के सार्वजनिक महत्त्व को बनाए रखने के लिए दलित लेखक उन्हीं मुद्दों पर अधिक ज़ोर देता है, जो सार्वजनिक महत्त्व के हों, जिनसे उसके पूरे समाज की वेदना ध्वनित होती हो। यहाँ वही प्रश्न दुबारा खड़ा हो जाता है कि यदि सार्वजनिक सत्य को ही रचना की कसौटी माना जाए तो उसके लिए आत्मकथा पर ही निर्भरता क्यों? विशेषकर तब जब दूसरी विधाओं में सामाजिक मुद्दों की गहराई में जाने की अधिक छूट की संभावना हो? इससे आत्मकथा की मर्यादा क्षीण नहीं होती। कभी-कभी व्यक्तिगत प्रसंगों को आत्मकथा में लाना इसलिए आवश्यक हो जाता है, ताकि उसके माध्यम से लेखक के व्यक्तित्व की अनजानी पर्तें खुल सकें, जिनके बिना उसकी रचनात्मकता को समझना असंभव-सा हो।’’
                     हिंदी में आत्मकथा अधिक नहीं लिखे गए हैं। बनरसीदास जैन लिखित “अर्द्ध कथा’’ हिंदी की पहली आत्मकथा मानी जाती है । इसका प्रकाशन वर्ष सन 1641 है । यह आत्मकथा पद्य में लिखी गयी है जिसमें बड़े ही तटस्थ भाव से अपने गुण और दोषों को बनारसीदास जी ने स्वीकार किया है । मध्यकाल में लिखे किसी अन्य आत्मकथा का जिक्र सामान्य रूप से नहीं मिलता,लेकिन आधुनिक काल में यह विधा काफी  आगे बढ़ी और कई लोगों ने अपनी आत्मकथाएं लिखी ।
                   जिन रचनाकारों की आत्मकथाएं हिंदी साहित्य में काफ़ी चर्चित रही हैं,उनकी में से कुछ चुने हुए लेखकों की एक सूची यहाँ दे रहा हूँ । बहुत संभव है कि इस सूची में कई महत्वपूर्ण नाम छूट भी गए हों लेकिन ऐसा मैंने जान-बूझ के नहीं किया । इसे मेरे अध्ययन की सीमा या मेरा अज्ञान ही समझा जाये । इसके पीछे किसी तरह की कोई रणनीति या विद्वेष का भाव किसी के प्रति मेरे मन में नहीं है । वैसे भी शोध आलेखों की अपनी सीमा होती है । एक शोध आलेख में मैं सभी के नाम गिना सकूँ ये मेरे लिए मुश्किल है । फ़िर भी जिनकी जानकारी मुझे मिल सकी,वो यहाँ इस टेबल के माध्यम से आप लोगों के साथ साझा कर रहा हूँ ।

लेखक का नाम
आत्मकथा का शीर्षक
प्रकाशन वर्ष
स्वामी दयानंद
जीवन चरित्र
संवत वि. 1917
सत्यानंद अग्निहोत्री
मुझ में देव जीवन का विकास
1910 ई .
भाई परमानंद
 आप बीती
1921 ई .
रामविलास शुक्ल
मैं क्रांतिकारी कैसे बना
1933 ई .
भवानी दयाल संन्यासी
प्रवासी की कहानी
1939 ई .
डॉ श्यामसुंदरदास
मेरी आत्म कहानी
1941 ई .
राहुल सांकृत्यायन
मेरी जीवन यात्रा
1946 ई .
डॉ राजेंद्र प्रसाद
आत्म कथा
1947 ई .
वियोगी हरि
मेरा जीवन प्रवाह
1948 ई.
सेठ गोविंददास
आत्मनिरीक्षण
1958 ई .
पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र
 अपनी खबर
1960 ई .
आ. चतुरसेन शास्त्री
मेरी आत्म कहानी
1963 ई .
हरिवंशराय बच्चन
क्या भूलूँ क्या याद करूँ
नीड़ का निर्माण फिर
बसेरे से दूर
दशद्वार से सोपान तक
1969 ई .
1970 ई.
1978 ई.
1985 ई.
                    
                 इनके अतिरिक्त वृंदावनलाल वर्मा, डॉ रामविलास शर्मा, बलराज साहनी, शिवपूजन सहाय, हंसराज रहबर,यशपाल जैन,कन्हैयालाल मिश्र, फणीश्वरनाथ रेणु, अमृतलाल नागर,रामदरश मिश्र,डॉ नगेन्द्र जैसे हिंदी लेखकों की आत्मकथाएं काफी चर्चित रहीं । रवीन्द्र कालिया की “गालिब छुटी शराब” की भी काफी चर्चा हुई ।  हिंदी में अन्य भाषाओं से अनूदित होकर कई आत्मकथाएं छपीं हैं । इनमें अमृता प्रीतम की आत्मकथा “रसीदी टिकट” काफी सराही गयी ।
                 हिंदी में महिला लेखिकाओं द्वारा भी आत्मकथा लेखन की एक परंपरा बन गयी है । काल क्रम की दृष्टि से हिंदी की कुछ प्रमुख महिला लेखिकाओं द्वारा लिखित आत्मकथा की एक सूची अपनी अध्ययन सीमा के अंतर्गत देने की कोशिश कर रहा हूँ । वैसे  सुधा सिंह जी का एक आलेख “राससुन्दरी दासी के बहाने स्त्री आत्मकथा पर चर्चा” नामक शीर्षक से  http://www.deshkaal.com पे पढ़ने को मिला । वो लिखती हैं कि,“राससुन्दरी दासी की आत्मकथा 'मेरा जीवन' नाम से सन् 1876 में पहली बार छपकर आई। जब वे साठ बरस की थीं तो इसका पहला भाग लिखा था। 88 वर्ष की उम्र में राससुन्दरी देवी ने इसका दूसरा भाग लिखा जिस  समय राससुन्दरी देवी यह कथा लिख रही थीं, वह उस समय 88 वर्ष की बूढ़ी विधवा और नाती-पोतों वाली स्त्री के लिए भगवत् भजन का बतलाया गया है। इससे भी बड़ी चीज कि परंपरित समाजों में स्त्री जैसा जीवन व्यतीत करती है, उसमें केवल दूसरों द्वारा चुनी हुई परिस्थितियों में जीवन का चुनाव होता है। उस पर टिप्पणी करना या उसका मूल्यांकन करना स्त्री के लिए लगभग प्रतिबंधित होता है। स्त्री अभिव्यक्ति के लिए ऐसे दमनात्मक माहौल में राससुन्दरी देवी का अपनी आत्मकथा लिखना कम महत्तवपूर्ण बात नहीं है। यह आत्मकथा कई दृष्टियों से महत्तवपूर्ण है। सबसे बड़ा आकर्षण तो यही है कि यह एक स्त्री द्वारा लिखी गई आत्मकथा है। स्त्री का लेखन पुरुषों के लिए न सिर्फ़ जिज्ञासा और कौतूहल का विषय होता है वरन् भय और चुनौती का भी। इसी भाव के साथ वे स्त्री के आत्मकथात्मक लेखन की तरफ प्रवृत्ता होते हैं। प्रशंसा और स्वीकार के साथ नहीं; क्योंकि स्त्री का अपने बारे में बोलना केवल अपने बारे में नहीं होता बल्कि वह पूरे समाजिक परिवेश पर भी टिप्पणी होता है। समाज को बदलने की इच्छा स्त्री-लेखन का अण्डरटोन होती है। इस कारण स्त्री की आत्मकथा चाहे जितना ही परंपरित कलेवर में परंपरित भाव को अभिव्यक्त करनेवाल क्यों न हो, वह परिस्थितियों का स्वीकार नहीं हो सकता; वह परिस्थितियों की आलोचना ही होगा ।’’
                  हाल ही में यह जानकारी पत्रिकाओं और इन्टरनेट के माध्यम से सामने आयी है कि हिंदी की पहली महिला आत्मकथा लेखिका “स्फुरना देवी’’रही हैं और उनकी आत्मकथा का शीर्षक है “अबलाओं का इंसाफ ”। इसका प्रकाशन वर्ष 1927 ई. है । यह दावा किया है डॉ नामवर सिंह जी के निर्देशन में शोध कार्य कर रही नैया जी ने । http://mohallalive.comके अनुसार “नैया जेएनयू से आरंभिक स्त्री कथा-साहित्य और हिंदी नवजागरण (1877-1930) विषय पर पीएचडी कर रही हैं। हिंदी की प्रथम दलित स्त्री रचना छोट के चोर (1915) लेखिका श्रीमती मोहिनी चमारिन तथा आधुनिक हिंदी की प्रथम मौलिक उपन्यास लेखिका श्रीमती तेजरानी दीक्षित के प्रथम उपन्यास (1928) को प्रकाश में लाने का श्रेय नैया को जाता है। स्त्री कथा-साहित्य के गंभीर अध्यता के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली नैया की अनेक शोधपरक रचनाएं आलोचना, इंडिया टुडे, पुस्तक-वार्ता, आजकल, जनसत्ता, तहलका, वसुधा, हरिगंधा आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।”लेकिन इस संदर्भ में कोई अधिक जानकारी मुझे प्राप्त नहीं हो पायी है ।


लेखिका का नाम    
आत्मकथा का शीर्षक
      प्रकाशन वर्ष
प्रतिभा अग्रवाल
दस्तक जिंदगी की
मोड़ जिंदगी का

1990 ई.
1996 ई.
कुसुम अंसल
जो कहा नहीं गया
1996 ई.
कृष्णा अग्निहोत्री
लगता नहीं है दिल मेरा
1997 ई.
पद्मा सचदेव
बूँद बावड़ी
1999 ई.
शीला झुनझुनवाला
कुछ कही कुछ अनकही
2000 ई.
मैत्रेयी पुष्पा
 कस्तूरी कुण्डल बसे
2002 ई.
       
          उपर्युक्त महिला लेखिकाओं की आत्मकथाएं चर्चा के केंद्र में रहीं । हम जानते हैं की आजकल हिंदी साहित्य कतिपय विमर्शों के माध्यम से आगे बढ़ रहा है । स्त्री,दलित और आदिवासी विमर्श अधिक मुखर हैं । हिंदी के दलित लेखकों द्वारा भी कई आत्मकथाएं प्रकाशित हुई हैं । मोहन नैमिश राय की आत्मकथा “अपने –अपने पिंजरे”दो भागों में क्रमश 1995 ई. और 2000 ई . में प्रकाशित हुई । ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा “जूठन” ने भी लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा ।   
        इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी में आत्मकथा लेखन की एक अच्छी और समृद्ध परंपरा आधुनिक काल से शुरू हुई है । विभिन्न विमर्शों के माध्यम से इसमें लगातार वृद्धि भी हो रही है । बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में यह विधा गद्य की उतनी ही लोकप्रिय विधा बने जितनी की कहानी या उपन्यास वर्तमान में है ।
                                               डॉ मनीषकुमार मिश्रा
                                                     असोसिएट – IIAS शिमला


रिक्त स्थानों की पूर्ति


                    










                        

                         हिंदी के प्रश्न पत्र में
                         “रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिये”- वाला प्रश्न
                         बड़ा आसान लगता था
                         उत्तर    
                         या तो मालूम रहता या फ़िर
                         ताक-झाक के पता कर लेता
                         सर जी की नजरें बचा के
                         किसी से पूछ भी लेता
                         और रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाती
                         लेकिन आज
                         ज़िंदगी की परीक्षाओं के बीच
                         लगातार महसूस कर रहा हूँ कि –
                         ज़िंदगी में जो रिक्तता बन रही है
                         उसकी पूर्ति
                         सबसे कठिन,जटिल और रहस्यमय है
                         इन रिक्त स्थानों में
                         यादों का अपना संसार है
                         जो भरमाता है
                         लुभाता है,सताता है
                         और सुकून भी देता है
                       इनसे भागता भी हूँ और
                       इनके पास ही लौटता भी हूँ
                       इनहि में रचता और बसता भी हूँ
                       फ़िर चाहता यह भी हूँ कि
                       इन रिक्तताओं में
                       पूर्ति का कोई नया प्रपंच भी गढ़ूँ
                       लेकिन कुछ समझ नहीं पता
                       किसी अँधेरे कुएं में
                       उतरती सीलन भरी सीढ़ियों की तरह
                       बस उतारते जाता हूँ
                       अपने जीवन से
                       एक-एक दिन का लिबाज़
                       पूर्ति की इच्छाओं के बीच
                       और अधिक रिक्त हो जाता हूँ ।
                        
                        

                    

Sunday 11 August 2013

उसे जब देखता हूँ


                     







                     
                     



                      
                     उसे जब देखता हूँ
                     तो बस देखता ही रह जाता हूँ
                     उसमें देखता हूँ
                     अपनी आत्मा और शरीर का विस्तार
                     अपने सपनों का सारा आकाश
                     साकार से निराकार तक की
                     कर लेता हूँ सम्पूर्ण यात्रा
                     बुझा लेता हूँ
                     आँखों की प्यास
                     और जगा लेता हूँ
                     अपनी साँसों में आस
                     कभी लिख तो नहीं पाया मैं
                     सौंदर्य की कोई परिभाषा लेकिन
                     तुम से मिल के समझ गया हूँ कि
                     ऐसी कोई परिभाषा
                     तुम्हारे बिना अधूरी ही रहेगी
                     मानो सुंदरता को भी पूर्ण होने के लिए
                     तुम्हारी ज़रूरत है
                     तुम जब भी पूछती हो कि –
                     “ मैं कैसी लगती हूँ ?”
                   मैं मानता हूँ कि
                   तुम्हें उस सौंदर्य की तलाश होती है
                   जो बसती है मेरी आँखों में
                   सिर्फ़ तुम्हारे लिए
                   वो समर्पण का भाव
                   जिसकी हक़दार
                   सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम रही हो
                   खींच के देखती हो
                   उस रिश्ते की गाँठ को
                   जिसका नाम है – विश्वास
                   इसलिए उसके सवाल के जवाब में
                   हमेशा कहता हूँ –
                   सुंदर, बहुत ही सुंदर
                   और यह सुन
                   मुस्कुरा देता है
                   तुम्हारा पूरा शरीर
                   तुम्हारा मन
                   और मुझे लगता है
                   मैंने तुम्हारे अंदर
                   ख़ुद को
                   थोड़ा और सार्थक कर लिया
                   क्योंकि तुम्हारा प्यार
                    मेरी सार्थकता है ।
                             -------------- Dr. Manish Kumar Mishra  

साँप पे कुछ संकलित कवितायें

साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?
             ----------  अज्ञेय

फुंकरण कर, रे समय के साँप
कुंडली मत मार, अपने-आप।

सूर्य की किरणों झरी सी
यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
फुलाती है धरा के फूल!

इस सुनहली दृष्टि से हर बार
कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार!

मैं करूँ वरदान सा अभिशाप
फुंकरण कर, रे समय के साँप !

क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप।

किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर।
कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव
प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव

चल कि बलि पर हो विजय की माप।
फंकुरण कर, रे समय के साँप।।
                  ---------माखनलाल चतुर्वेदी

(1)

हम एक लम्बा साँप हैं
जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता।
मैं-न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं)
दुम भी नहीं हूँ

' न मैं हूँ दाँत जहरीले।
मैं-कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा
एक बेकस जीव हूँ।
ब गल से गु जरे चले तुम जा रहे जो,
सिर झुकाये, पीठ पर गट्ठर सँभाले

गोद में बच्ची लिये
उस हाथ से देते सहारा किसी बूढ़े या कि रोगी को-
पलक पर लादे हुए बोझा जुगों की हार का-
तुम्हें भी कैसे कहूँ तुम सृष्टि के सिरताज हो?

तुम भी जीव हो बेबस।
एक अदना अंग मेरे पास से हो कर सरकती
एक जीती कुलबुलाती लीक का
जो असल में समानान्तर दूसरा

एक लम्बा साँप है।
झर चुकीं कितनी न जाने केंचुलें-
झाडिय़ाँ कितनी कँटीली पार कर के बार-बार,
सूख कर फिर-फिर

मिलीं हम को जिंदगी की नयी किस्तें
किसी टुटपुँजिये
सूम जीवन-देवता के हाथ।
तुम्हारे भी साथ, निश्चय ही

हुआ होगा यही। तुम भी जो रहे हो
किसी कंजूस मरघिल्ले बँधे रातिब पर!

(2)

दो साँप चले जाते हैं।
बँध गयी है लीक दोनों की।
यह हमारा साँप-हम जा रहे हैं
उस ओर, जिस में सुना है

सब लोग अपने हैं;
वह तुम्हारा साँप-
तुम भी जा रहे हो, सोचते निश्चय, कि वह तो देश है जिस में
सत्य होते सभी सपने हैं।
यह हमारा साँप-

इस पर हम निछावर हैं।
जा रहे हैं छोड़ कर अपना सभी कुछ
छोड़ कर मिट्टी तलक अपने पसीने-ख़ून से सींची
किन्तु फिर भी आस बाँधे

वहाँ पर हम को निराई भी नहीं करनी पड़ेगी,
फल रहा होगा चमन अपना
अमन में आशियाँ लेंगे।
वह तुम्हारा साँप-

उस को तुम समर्पित हो।
लुट गया सब कुछ तुम्हारा
छिन गयी वह भूमि जिस को
अगम जंगल से तुम्हारे पूर्वजों ने ख़ून दे-दे कर उबारा था

किन्तु तुम तो मानते हो, गया जो कुछ जाय-
वहाँ पर तो हो गया अपना सवाया पावना!

(3)

यह हमारा साँप जो फुंकारता है,
और वह फुंकार मेरी नहीं होती
किन्तु फिर भी हम न जाने क्यों
मान लेते हैं कि जो फुंकारता है, वह

घिनौना हो, हमारा साँप है।
वह तुम्हारा साँप-तुम्हें दीक्षा मिली है
सब घृण्य हैं फूत्कार हिंसा के
किन्तु जब वह उगलता है भा फ जहरीली,

तुम्हें रोमांच होता है-
तुम्हारा साँप जो ठहरा!

(4)

उस अमावस रात में-घुप कन्दराओं में
जहाँ फौलादी अँधेरा तना रहता है
खड़ी दीवार-सा आड़ कर के
नीति की, आचार, निष्ठा की

तर्जनी की वर्जना से
और सत्ता के असुर के नेवते आयी
बल-लिप्सा नंगी नाचती है :
उस समय दीवार के इस पार जब छाया हुआ होगा

सुनसान सन्नाटा उस समय सहसा पलट कर
साँप डस लेंगे निगल जाएँगे-
तुम्हें वह, तुम जिसे अपना साँप कहते हो
हमें यह, जो हमारा ही साँप है!

(5)

रुको, देखूँ मैं तुम्हारी आँख,
पहचानूँ कि उन में जो चमकती है-
या चमकनी चाहिए क्योंकि शायद
इस समय वह मुसीबत की राख से ढँक कर

बहुत मन्दी सुलगती हो-
तड़पती इनसानियत की लौ-
रुको, पहचानूँ कि क्या वह भिन्न है बिलकुल
उस हठीली धुकधुकी से
 
जनम से ही जिसे मैं दिल से लगाये हूँ?
रुको, तुम भी करो ऊँचा सीस, मेरी ओर
मुँह फेरो-करो आँखें चार झिझक को
छोड़ मेरी आँख में देखो,
नहीं जलती क्या वहाँ भी जोत-

काँपती हो, टिमटिमाती हो, शरीर छोड़ती हो,
धुएँ में घुट रही हो-
जीत वैसी ही जिसे तुम ने
सदा अपने हृदय में जलती हुई पाया-

किसी महती शक्ति ने अपनी धधकती महज्ज्वाला से छुला कर
जिसे देहों की मशालों में
जलाया!

(6)

रुकूँ मैं भी! क्यों तुम्हें तुम कहूँ?
अपने को अलग मानूँ? साँप दो हैं
हम नहीं। और फिर
मनुजता के पतन की इसी अवस्था में भी

साँप दोनों हैं पतित दोनों
तभी दोनों एक!

(7)

केंचुलें हैं, केंचुले हैं, झाड़ दो!
छल-मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो!
साँप के विष-दाँत तोड़ उखाड़ दो!
आजकल का चलन है-सब जन्तुओं की खाल पहने हैं-
गले गीदड़-लोमड़ी की,

बाघ की है खाल काँधों पर
दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
हाथ में थैला मगर की खाल का
और पैरों में-जगमगाती साँप की केंचुल

बनी है श्री चरण का सैंडल
किन्तु भीतर कहीं भेड़-बकरी,
बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अन्दर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है

सनातन मानव-खरा इनसान-
क्षण भर रुको तो उस को जगा लें!
नहीं है यह धर्म, ये तो पैतरे हैं उन दरिन्दों के
रूढि़ के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ा कर

जो विचारों पर झपट्टा मारते हैं-
बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें!
साथ आओ-गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो यह मकर

की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुले हैं केंचुले हैं झाड़ दो!
              -----------------समानांतर साँप / अज्ञेय




एक साँप, धीरे से जा बैठा दिल मे...
बोला, जगह नही है आस्तीन के बिल मे....
कहने लगा, मैं अब संत हो चुका हूँ...
सारा ज़हेर अपना, कबका खो चुका हूँ....
मैने बोला, साँप हो कहाँ सुधरोगे....
जब भी उगलोगे, ज़हेर ही उगलोगे....
वो बोला, साप हूँ तभी तो जी रहा हूँ...
बड़ी देर से, तुम्हारे दिल का ज़हेर पी रहा हूँ....
देखो मेरा रंग जो हरा था, अब नीला है...
अरे आदमी...तुम्हारा ज़हेर तो मेरे ज़हेर से भी ज़हरीला है....
                        -------http://dilkikalam-dileep.blogspot.in/2010/04/blog-post_16.html
                             दिलीप /