Thursday 2 January 2020

मनीष : भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि ।

मनीष : भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि ।

वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनली दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।


युवा कवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। ‘तुम्हारे ही पास’, ‘तृषिता’, ‘कही अनकही’, ‘चांदनी पीते हुए’, ‘गांठा की गठरी’,‘बचना चाहता हूँ’ इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधों के प्रति ‘दूरी की छटपटाहट’ तथा ‘निकटता के अनछुएपन’ को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। ‘मैं नहीं चाहता था’ में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि, ‘कि तुम जरूर रजना’ में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। ‘अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं’,‘चाय का कप’ में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। ‘कही-अनकही’ में व्यिंतव की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढबंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।
आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर ल्ोना, कवि मनीष में ‘मौन प्रार्थना के साथ’ निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक आलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है। जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने ‘रिक्त स्थानों की पूर्ति’ जैसी रचनाएं भी हैं।
मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विश्ोषकर पंत जी काव्य जैसी (सरल भौहों में था आकाश, हास में श्ौशव का संसार...)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि ‘जीवनराग’ जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो अभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव ‘सवालों में बंधी’, ‘प्यार के किस्सों’ तथा ‘जीवन यात्रा’ में भावनात्मक पदचिन्ह छोड़ता चला जाता है।
अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे ‘कैमरा’ से याद ‘पेन’ द्वारा नवीनता तथा ‘विजिटिंग कार्ड’ द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।
आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु ‘हे देवभूमि’ व ‘वह गीली चिड़िया’ में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। ‘अक्टूबर उस साल में’ कई कविताएं जैसे ‘मतवाल करुणामय पावस’, ‘बसंत का खाब कबीला’ में प्रकृति वर्णन व आयागमत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। ‘भूली-भूली जनश्रुतियों ने’ में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।
अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे ‘जब कोई किसी को याद करता है’, ‘जीवन के तीस बसंत’, ‘तुम मिलती तो बताता’, ‘यह पीला स्वेटर’, ‘कच्चे से इश्क’ आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निभरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-हीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे ‘हे मेरी तुम’ रचना में हुई है।
इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। ‘आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी’, ‘विकलता के स्वप्न’,‘कृतघ्न यातना’ में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।
मानवीय संबंधों की अनुभूती चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, ‘मुझे आदत थी’ व ‘उस साल अक्टूबर’ जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ल्ो जाती है।
कवि कलाकार होता है यह रंगरेज पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या? लगता है जैसे ‘इस बार तेरे शहर में’, ‘बनारस के घाट’ देख ही आएं क्या? ‘लंकेटिंग’ फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए? बहरहाल ‘अयोध्या’ ओर ‘मणिकर्णिका’ जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।
हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्ष्ोत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। ‘मैंने कुछ गालियाँ सीखी है’ में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथ्ोष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई तमीज हाशिए पर लटक रही है।
वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथ्ो हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। ‘आत्मीयता’ में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्धाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाजारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वनज के घ्ोरे में आ गया है - ‘स्थगित संवेदनाएं’ में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट ‘वो संतरा’ जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।
बाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विश्ोषकर ‘अक्टूबर उस साल’ संग्रह तथा कविता ‘वह साल वह अक्टूबर’ में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहाँ यह भावों के साथ आंदोलित होता है।
स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। ‘बहुत कठिन होता है’ में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।
परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को ल्ोकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। ‘कुछ उदास परम्पराएं’ में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है ल्ोकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा ल्ोना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।
सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उध्ोड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद-विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। ‘इतिहास मेरे साथ’ कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उद््घाटित किया गया है। ‘गंभीर चिंताओं की परिधि में’ कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं।
‘अक्टूबर उस साल’ की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में ‘यूंतो संकीर्णताओं को’ (वहन कर रहा हूं), ‘दौर-ए-निजाम’ जैसी कविताएं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।
सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाजार ने व्यक्ति की इच्छाओं, वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुर्कों का सृजनात्मक रूप् उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताजगी रचना संग्रह की आकर्षक विश्ोषता है। अलक्षित, संश्र्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताजगी बरकरार रखती है।

कृतिका पांडेय
शोध छात्रा
गोरखपुर विश्वविद्यालय ।

मनीष : अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि



वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनली दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।
हाल ही में उनकी दो रचनाएं ‘इस बार तेरे शहर में (2018)’ और ‘अक्टूबर उस साल (2019)’ प्रकाशित हुई हैं। दोनों रचना संग्रह भाव प्रवणता, विषय वैविध्य तथा प्रस्तुति योजना और शब्द शक्ति की दृष्टि से प्रशंसनीय हैं। इनमें जटिल यथार्थ को समेटने की शक्ति भी दिखाई पड़ती है।
‘कविताओं के शब्द’ कविता में कविता की भाषा के संवर्धन के महत्त्व व कवि की इस संदर्भ में दृष्टि स्पष्ट है। कवि काव्य की भाषा की उपयोगिता तथा संवेदनशीलता से भलीभांति परिचित है। स्त्री-पुरुष के यांत्रिक समानता के स्थान पर यथोचित समता व व्यक्तिनिष्ठता को महत्त्व दे कर स्त्रीत्व को पढ़ा गया है। ‘दुबली-पतली और उजली-सी लड़की’ ‘उसका मन’ ‘उसके संकल्पों का संगीत’ तुम जो सुलझाती हो’ यह निर्मला पुतुल के पठन के आग्रह को पूरा करने का प्रयास नजर आता है कि (तन के भूगोल से परे, स्त्री के मन की गाँठे खोल कर, पढ़ा है कभी तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..)।
युवाकवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। ‘तुम्हारे ही पास’, ‘तृषिता’, ‘कही अनकही’, ‘चांॅदनी पीते हुए’, ‘गांठा की गठरी’,‘बचना चाहता हूँ’ इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधों के प्रति ‘दूरी की छटपटाहट’ तथा ‘निकटता के अनछुएपन’ को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। ‘मैं नहीं चाहता था’ में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि, ‘कि तुम जरूर रजना’ में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। ‘अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं’,‘चाय का कप’ में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। ‘कही-अनकही’ में व्यिंतव की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढबंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।
आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर ल्ोना, कवि मनीष में ‘मौन प्रार्थना के साथ’ निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक आलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है। जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने ‘रिक्त स्थानों की पूर्ति’ जैसी रचनाएं भी हैं।
मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विश्ोषकर पंत जी काव्य जैसी (सरल भौहों में था आकाश, हास में श्ौशव का संसार...)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि ‘जीवनराग’ जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो अभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव ‘सवालों में बंधी’, ‘प्यार के किस्सों’ तथा ‘जीवन यात्रा’ में भावनात्मक पदचिन्ह छोड़ता चला जाता है।
अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे ‘कैमरा’ से याद ‘पेन’ द्वारा नवीनता तथा ‘विजिटिंग कार्ड’ द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।
आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु ‘हे देवभूमि’ व ‘वह गीली चिड़िया’ में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। ‘अक्टूबर उस साल में’ कई कविताएं जैसे ‘मतवाल करुणामय पावस’, ‘बसंत का खाब कबीला’ में प्रकृति वर्णन व आयागमत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। ‘भूली-भूली जनश्रुतियों ने’ में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।
अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे ‘जब कोई किसी को याद करता है’, ‘जीवन के तीस बसंत’, ‘तुम मिलती तो बताता’, ‘यह पीला स्वेटर’, ‘कच्चे से इश्क’ आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निभरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-हीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे ‘हे मेरी तुम’ रचना में हुई है।
इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। ‘आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी’, ‘विकलता के स्वप्न’,‘कृतघ्न यातना’ में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।
मानवीय संबंधों की अनुभूती चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, ‘मुझे आदत थी’ व ‘उस साल अक्टूबर’ जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ल्ो जाती है।
कवि कलाकार होता है यह रंगरेज पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या? लगता है जैसे ‘इस बार तेरे शहर में’, ‘बनारस के घाट’ देख ही आएं क्या? ‘लंकेटिंग’ फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए? बहरहाल ‘अयोध्या’ ओर ‘मणिकर्णिका’ जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।
हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्ष्ोत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। ‘मैंने कुछ गालियाँ सीखी है’ में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथ्ोष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई तमीज हाशिए पर लटक रही है।
वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथ्ो हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। ‘आत्मीयता’ में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्धाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाजारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वनज के घ्ोरे में आ गया है - ‘स्थगित संवेदनाएं’ में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट ‘वो संतरा’ जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।
बाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विश्ोषकर ‘अक्टूबर उस साल’ संग्रह तथा कविता ‘वह साल वह अक्टूबर’ में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहाँ यह भावों के साथ आंदोलित होता है।
स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। ‘बहुत कठिन होता है’ में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।
परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को ल्ोकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। ‘कुछ उदास परम्पराएं’ में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है ल्ोकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा ल्ोना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।
सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उध्ोड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद-विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। ‘इतिहास मेरे साथ’ कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उद््घाटित किया गया है। ‘गंभीर चिंताओं की परिधि में’ कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं।
‘अक्टूबर उस साल’ की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में ‘यूंतो संकीर्णताओं को’ (वहन कर रहा हूं), ‘दौर-ए-निजाम’ जैसी कविताएं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।
सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाजार ने व्यक्ति की इच्छाओं, वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुर्कों का सृजनात्मक रूप् उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताजगी रचना संग्रह की आकर्षक विश्ोषता है। अलक्षित, संश्र्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताजगी बरकरार रखती है।

Thursday 26 December 2019

“October Us Saal” touches the heart and soul of its readers - Kakoli Kalita



                                Collection of poems “October Us Saal’ / अक्टूबर उस साल   By Assistant Prof. Dr. ManishKumar C. Mishra, at K.M. Agrawal College, Kalyan (W), Mumbai since 2010. He was accolade consecutively for two years as Research Awardee by University Grants Commission (UGC) He is also associated with Indian Institute of Advanced Studies (IIAS), Shimla as an Associate.  His insightful work in the field of Hindi Literature if I and his passion towards it has been nationally and internationally acclaimed. This book is published in year 2019 by shabdshrishti, New Delhi. ISBN is 978-81-88077-79-3
     
                           Total 56 poems are written in this book. 19 poems in the book ventures into different aspects of human emotions and the use of the metaphor “October” has been played at various occasions in it. Each poem has a different aspect to it and he ventures out with subtle outpouring tenderly without bringing any anguish in it. The lyrical note has been maintained all through .To summarize it is excellence at par. When we go through it, there is a sojourn journey from the fear of being cheated to tender emotions for his mother, who keeps her on a high pedestal.  The outcry and aghast faced by the characters are notable and one cannot go without appreciating it.
                               Critically if one goes to analyse it he presents it in such an ecstatic way it reminds of the great American poet Robert Frost famous lines “Miles to go before I sleep”. The juxtaposition of human emotion with the gross reality of life is brought to the core. The illicit treatment in every outpouring is so dynamic that no one even think of leaving it behind his back. The utter curiosity is maintained all through from flora and fauna to basic human habits encapsulating our tradition. He captures the mood of his readers by the simple nuances which are quite praiseworthy.
                          
Any literature be it English, Assamese, Bengali or Hindi literature have a unique place. Dr. Mishra have fully justified in his book undoubtby the interplay of human emotions using various situations and digressions. Culmination of different aspects is a hard task on part of the poet, but he has fully justified it with dexterity. Language has no barriers when there is a spontaneous outflow of human emotions. His love, anguish, lust, greed, anger, sadistic thoughts are all manifested in a single outpouring. The euphoric feeling towards humanity and its emotions not only are so vibrant that it’s beyond one’s comprehension.
                                 The word that has been played with throughout is so vibrant that it any laymen can easily capture it without any complexity. The thirst for craving for more through this simple yet profound meaning collection touches the heart and soul of its readers. The rhythm is maintained throughout until the end. I am in sheer love for all of them and would recommend highly to the readers. There are no lapses behind it and the beauty of the poems is beyond any further words to ponder.  Lastly the book is a superb creation of the poet and he has justified it to the core.

                              Book is available for online purchase on given below links. 
https://www.amazon.in/October-Us-Saal-Maneesh-Mishra/dp/B07QWH3D7W




Kakoli Kalita
Lecturer- UDOYAN
Gauhati, Assam



                                                                                 

                                                                 
                                                                                                                                              
                                                                                                                                                               
                                                                                
  



                                                                           

Monday 16 December 2019

कवि मनीष : नई संभावनाओं का पुंज । - श्रीमती रीना सिंह

कवि मनीष :  नई संभावनाओं का पुंज ।

                          श्रीमती रीना सिंह
                           सहायक प्राध्यापिका
                           हिन्दी विभाग
                           आर के तलरेजा महाविद्यालय
                            उल्हासनगर, महाराष्ट्र ।

मनीष के दो कविता संग्रह आ चुके हैं । वर्ष 2018 में प्रथम कविता संग्रह , अक्टूबर उस साल और 2019 में इस बार तुम्हारे शहर में । इन्हीं दो कविता संग्रहों के आधार पर मैं मनीष की कविताओं के संदर्भ में अपनी राय इस आलेख के माध्यम से प्रस्तुत करूंगी ।
 ‘जब कोई किसी को याद करता है’ कविता  में कवि अपनी प्रियतमा के वियोग में विह्वल है । उसने सुन रखा है कि किसी को याद करने पर आसमान से एक तारा टूट जाता है लेकिन अब इस बात पर उसे बिल्कुल भी यकीन नहीं है क्योंकि विरह में अपनी प्रेयसी को जितना याद उसने किया है अब तक तो सारे तारे टूटकर जमीन पर आ जाने चाहिए -

अगर सच में                                                                  ऐसा होता तो                                                               
अब तक                                                                     
सारे तारे टूटकर                                                              जमीन पर आ गए होते                                                    आखिर                                                                        इतना तो याद                                                                मैंने                                                                              तुम्हे किया ही है ।

‘रक्तचाप’ कविता में कवि अपने बढ़े रक्तचाप को नियंत्रित करना चाहता है  लेकिन प्रेमिका की यादें उसकी हर गहरी और लंबी साँसों में घुसकर उसके रक्तचाप को और बढ़ा देती है । प्रेमिका की यादें रक्तचाप को नियंत्रित करने का हर प्रयास असफल कर देती हैं । ‘ जब तुम्हें लिखता हूँ  ’ काव्य में कवि प्रेयसी को पत्र लिखते समय अपने भावों को वयक्त करता है  ।
कवि अपने सारे भावों को चुने हुए शब्दों में बड़ी जतन से लिखता है । बसंत के मौसम में होली के रंगों से प्रियतमा को सराबोर करके लिखता है । कवि को अपने प्रियतमा को पाने की जो आस है उसकी प्यास को वह उसे दिल खोलकर लिखता है । अपनी भावनाओं को व्यक्त करते समय कवि के मन में कोई सांसारिक भय नहीं होता । वह अपने प्रेम को सारे बंधन तोड़कर प्रकट करता है –

जब तुम्हें लिखता हूँ                                             
तो दिल खोलकर लिखता हूँ                                              न जाने कितने सारे                                                          बंधन तोड़कर लिखता हूँ ।

कवि अपने सारे गम भुलाकर या कह सकते हैं छिपाकर प्रेयसी को अपनी खुशी लिखता है क्योंकि वह उसे हमेशा खुश देखना चाहता है -

आँख की नमी को                                                          तेरी कमी लिखता हूँ ।

‘वो संतरा’ काव्य निश्छल प्रेम की एक गहन अभिव्यक्ति है । इस काव्य में कवि ने त्याग की भावना को सर्वोपरि बताया है । अपने हिस्से के संतरे को कागज में लपेटकर सबकी निगाहों से छिपाकर कवि की प्रेयसी चुपचाप उसे थमा देती है । यह  पहली बार नहीं है इसी तरह बहुत बार उसने अपने हिस्से का बचाकर कवि को दिया है । जितने समर्पण से प्रेयसी सब कुछ देती रही उतना ही समर्पित होकर प्रेम में पगा हुआ वह सबकुछ लेता रहा –

और मैं भी                                                                     चुपचाप लेता रहा                                                            तुम्हारे हिस्से से                                                              बचा हुआ                                                                         वह
सबकुछ जो                                                                  प्रेम से /  प्रेम में                                                              पगा रहता ।

जब भी कवि की मुलाकात उसकी प्रेयसी से होती है वह उसे जीवन की जटिलताओं और प्रपंचों से दूर अत्यंत सहज और संवेदनशील नजर आती है और जाते – जाते कुछ यादें और नए किस्से जोड़कर अपने प्रेम को और दृढ़ बना जाती है –

हर बार                                                                                                 
अपने हिस्से से बचाकर                                                                                                                 
 कुछ देकर ।                                                                   कुछ स्मृतियाँ                                                                 छोड़कर                                                                       कुछ नए किस्से जोड़कर ।

प्रेयसी जब भी कवि से मिलती है , वह उसके भीतर एक विश्वास , सौभाग्य और उसके जीवन को एक उष्मीय उर्जा तथा संकल्प से भर देती है । कवि कहता है यह सारी अनुभूतियाँ उस संतरे से भी मिल जाती है जिसे उसकी प्रेयसी चुपचाप सबकी नजरों से बचाकर दे देती है ।
एक और प्रेम से सराबोर कविता ‘जब थाम लेता हूँ’ में कवि अपनी प्रेमिका की समीपता में सब कुछ भलाकर उसे अपना हृदय सौंप देता है । अपनी प्रेयसी के नर्म हाथों को जब वह अपने हाथों में ले लेता है तब छल , कपट आदि बुराइयों से भरी इस दुनिया को छोड़कर वह उसमें एकात्म हो जाता है -

तो                                                                               छोड़ देता हूं                                                                   वहाँ का                                                                        सब कुछ                                                                       जिसे                                                                           दुनियाँ कहते हैं ।

‘बहुत कठिन होता है’ काव्य में कवि कहना चाहता है कि चलाचली की बेला में प्रेयसी को ‘गुड बॉय’ कहना अर्थात अलविदा कहना बड़ा ही कठिन होता है । कवि ऐसे अवसरों को निभाने में अक्सर असफल हो जाता है । इसलिए वह याद करता करता है कि किस तरह उसकी प्रेयसी सर्दियों की खिली हुई धूप की तरह आई थी और अपनी सम्पूर्ण गरिमा तथा ताप के साथ उस गुलाबी ठंड में कवि के हृदय पर छा गई थी । अपनी प्रेयसी के चेहरे की चमक और साँसों की खुश्बू का वर्णन करते हुए कवि कहता है -
तुम्हारे                                                                           चेहरे की चमक उतर                                                     
 आयी थी                                                                    मेरी आँखों में                                                                तुम्हारी                                                                        कच्ची सौंफ और जाफरान सी खूश्बू                                  बस गई थी                                                                 
 मेरी साँसों में ।

प्रेयमी के चेहरे को पढ़कर कवि का आत्मविश्वास और बढ़ने लगता है । जब कभी साथ चलते - चलते वह अपनी गर्म गोरी हथेली में कवि का हाथ थाम लेती है तो दूर पहाड़ी के मंदिर में जल रही दीये की लौ कवि को और अधिक प्रांजल और प्रखर लगने लगती है । अर्थात ईश्वर पर कवि का विश्वास और बढ़ जाता है ।
इन सबके बीच जाती हुई अपनी प्रेयसी को ‘गुड बाय’ कहना कवि को बड़ा ही कठिन जान पड़ता है । वह चाहता है कि अपनी प्रेयसी  से वह कह दे कि अचानक से तुम फिर मेरे पास आ जाना जैसे इन पहाड़ों पर कोई मौसम अचानक आ जाता है ।
कवि इस काव्य के माध्यम से कहना चाहता है कि ‘ गुड बाय ’ कहना ऐसा लगता है जैसे कोई अपने साथी से हमेशा के लिए विदा ले रहा हो । इसलिए जाते समय वह गुड बाय नहीं कह पाता । वह चाहता है कि जाता हुआ व्यक्ति पहाड़ों के मौसम की तरह अचानक आ जाए क्योंकि प्रिय व्यक्ति के अचानक आ जाने से उस क्षण की खुशी कई गुना अधिक बढ़ जाती है ।
अतः कहा जा सकता है ‘ अक्टूबर इस साल ’ काव्य संग्रह में कवि ने बड़े ही सरल और सहज शब्दों में अपने भावों को अभिव्यक्त किया है । कवि  ने कविता के वाक्य विन्यास को आरोपित सजावट से मुक्त कर सहज वाक्य विन्यास से बद्ध किया है । अपने भावों को व्यक्त करने के लिए कवि ने रचनात्मक शैली का प्रयोग किया है । प्रेम की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए कवि ने नवीन उपमानों का प्रयोग किया है जिससे काव्य की रोचकता में विविथ आयाम जुड़ गए हैं ।

संदर्भ ग्रंथ :
1. अक्टूबर उस साल - मनीष, शब्दसृष्टि नई दिल्ली, 2018
2. इस बार तुम्हारे शहर में - मनीष, शब्दसृष्टि नई दिल्ली 2019

Sunday 15 December 2019

कवि मनीष : व्यक्तित्व और कृतित्व । - डॉ शमा


कवि मनीष : व्यक्तित्व और कृतित्व ।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा का जन्म 09 फ़रवरी सन1981 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के पूरा गंभीर शाह (सुलेमपुर ) नामक गांव में हुआ । आप के पिता श्री छोटेलाल मिश्रा जी कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र के महंत कमलदास हिंदी हाई स्कूल में प्राथमिक विभाग में शिक्षक की नौकरी करते थे । आप की माता श्रीमती अद्यावती देवी एक गृहणी थी । आप का बचपन मां के साथ ही बीता । गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में आप की शिक्षा प्रारंभ हुई लेकिन जल्द ही आप अपनी माता व बड़े भाई राजेश के साथ कल्याण महाराष्ट्र पिता के पास आ गए । यहीं से विधिवत कक्षा एक में आप का प्रवेश सन 1986 में महंत कमलदास हिंदी हाई स्कूल, कल्याण पश्चिम में हुआ ।


इस् तरह विधिवत आप की शिक्षा प्रारंभ हुई । पिता जी इसी विद्यालय में शिक्षक थे अतः हमेशा अनुशासन में रहने की हिदायत मिलती रहती ।
आप ने सन 1996 में यहीं से प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल की परीक्षा पास की । आगे की पढ़ाई के लिए आप ने कल्याण पश्चिम में ही स्थिति बिर्ला महाविद्यालय में कला संकाय में प्रवेश लिया । आप प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल पास हुए थे अतः विज्ञान और वाणिज्य संकाय में भी आसानी से प्रवेश ले सकते थे, लेकिन अपनी रुचि के अनुरूप आप ने कला संकाय में ही प्रवेश लिया । इसी महाविद्यालय से आप ने सन 1998 में उच्च माध्यमिक और सन 2001 में बी. ए. की परीक्षा पास की । आप ने बी. ए. में हिंदी साहित्य और प्रयोजनमूलक अंग्रेजी को मुख्य विषय के रूप में चुना था ।
इसी महाविद्यालय से सन 2003 में आप ने हिंदी साहित्य में एम.ए. की परीक्षा पास की । पूरे मुंबई विद्यापीठ में हिंदी में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने के कारण आप को मुंबई विद्यापीठ की तरफ़ से प्रतिष्ठित श्याम सुंदर गुप्ता स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया ।
एम.ए करने के बाद आप ने कल्याण के ही लक्ष्मण देवराम सोनावने महाविद्यालय में क्लाक आवर पर स्नातक की कक्षा में अध्यापन कार्य प्रारंभ कर दिया । यहां अध्यापन कार्य करते हुए आप ने सेवा सदन अध्यापक महाविद्यालय, उल्हासनगर से बी. एड. की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की ।
फ़िर वर्ष 2006 में आप ने बिर्ला महाविद्यालय कल्याण से हिंदी विभाग के शोध केंद्र के पीएच.डी. छात्र के रूप में पुनः प्रवेश लिया । डॉ रामजी तिवारी के शोध निर्देशन में आप ने " कथाकार अमरकांत : संवेदना और शिल्प ।" इस विषय पर अपना शोध कार्य प्रारंभ किया । मई 2009 में आप को विद्या
वाचस्पति ( PhD) की पदवी प्राप्त हुई ।
आप ने वर्ष 2007 तक लक्ष्मण देव राम सोनावने महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया । इसके बाद आप ने कल्याण के ही के.एम. अग्रवाल कनिष्ठ महाविद्यालय में हिंदी अध्यापन का कार्य प्रारंभ किया । यहां कार्य करते हुए ही 14 सितंबर 2010 को आप ने इसी संस्था के वरिष्ठ महाविद्यालय के हिंदी सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्य शुरू किया । हिंदी दिवस के दिन विधिवत वरिष्ठ महाविद्यालय के हिंदी विभाग में नौकरी आप ने शुरू की ।
के. एम.अग्रवाल महाविद्यालय में अध्यापन कार्य प्रारंभ करने के साथ ही आप शोध कार्यों एवं राष्ट्रीय अंतर राष्ट्रीय परिसंवादों के आयोजन में सक्रिय हुए । इसी कड़ी में सन 2011 में आप ने हिंदी ब्लॉगिंग पर एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया । इसी तरह वेब मीडिया और वैकल्पिक पत्रकारिता जैसे विषयों पर आप ने अंतरराष्ट्रीय परिसंवादों का सफल आयोजन किया । आप ने खुद कई अंतरविषयी शोध कार्य को सफतापूर्वक पूर्ण किए । मुंबई विद्यापीठ से आप ने दो लघु शोध प्रबंध पूर्ण किए । जो कि भारत में किशोर लड़कियों की तस्करी और मराठी कवि प्रशांत मोरे से संबंधित था । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत हिंदी ब्लागिंग पर एक लघु शोध प्रबंध आप ने पूर्ण किया । जनवरी 2014 से जनवरी 2016 तक आप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की प्रतिष्ठित योजना UGC रिसर्च अवॉर्डी के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में रहे और वेब मीडिया से संबंधित अपना शोध कार्य पूर्ण किया । आप भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र शिमला में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के UGC IUC असोसिएट भी रहे और वहां भी महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी प्रस्तुति देते रहे । ICSSR - IMPRESS की पहली सूची में ही आप का मालेगांव फिल्मों से जुड़ा हुआ शोध प्रस्ताव स्वीकृत हुआ । मालेगांव की फिल्मों पर हिंदी में किया जानेवाला संभवतः यह पहला शोध कार्य था ।
मनीष जी की वर्ष 2019 तक 14 से अधिक संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं । अमरकांत को पढ़ते हुए पुस्तक वर्ष 2014 में प्रकाशित हुई । यह पुस्तक मूल रूप से अमरकांत पर हुए आप के पीएचडी शोध प्रबंध का ही पुस्ताकाकार प्रकाशन था । आप का पहला काव्य संग्रह सन 2018 में अक्टूबर उस साल शीर्षक से प्रकाशित हुआ । दूसरा काव्य संग्रह इस बार तुम्हारे शहर में शीर्षक से सन 2019 में प्रकाशित हुआ । आप का तीसरा काव्य संग्रह अमलतास के गालों पर शीर्षक से प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है । संभवतः यह संग्रह सन 2020 में बाजार में आ जाएगा । इस तरह इन तीनों संग्रह के माध्यम से मनीष जी की लगभग 200 कविताएं पाठकों के लिए उपलब्ध रहेंगी । मनीष जी की कुछ कहानियां भी समय समय पर पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं । संभव है कि भविष्य में इन कहानियों का भी कोई संग्रह हमें पढ़ने को मिले ।
मनीष जी ने साक्षात्कार के दौरान अपनी आगामी योजनाओं की चर्चा करते हुए बताया कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर और क्षेत्रीय सिनेमा पर दो पुस्तकों के संपादन कार्य में लगे हुए हैं । अपने बाबू जी ( पिताजी के चाचा जी ) के शोध प्रबंध "अमेठी और अमेठी राजवंश के कवि," को भी आप प्रकाशित करवाना चाहते हैं ।
व्यक्तिगत शोध कार्यों में आप कव्वाली और गोपनीय समूह भाषा के समाजशास्त्र को लेकर कार्य करने की सोच रहे हैं । मराठी फिल्मों पर भी आप कार्य करने के इच्छुक हैं । मनीष जी जिस तरह के विषयों का चयन करते हैं, उनमें एक नयापन होता है । एक कवि, कहानीकार और शोध अध्येता के रूप में आप अपनी छवि निर्मित करने में सफल रहे हैं । आप के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आप गंभीर से गंभीर परिस्थिति में भी बड़े सहज भाव से उसका सामना करते हैं और उन विकट परिस्थितियों से निकल लेने का मार्ग खोज लेते हैं । आप अपनी मित्रता के लिए भी जाने जाते हैं । देश का शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहां आप का कोई मित्र न हो । खुद आप की दुश्मनी किसी से नहीं । सब को अपना बनाकर रखना, सब को यथोचित आदर भाव देना, संकट में अपने मित्रों के साथ खड़ा रहना, स्वयं का नुक़सान कर के भी दूसरों के कार्य पूर्ण करना, किसी के प्रति कड़े या अपशब्दों का प्रयोग न करना एवं सकारात्मक विचारों के साथ आगे बढ़ना आप के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है ।
अपने इन्हीं गुणों के कारण आप सभी को अपना बना लेते हैं । आप का स्पष्ट मानना है कि," अगर हम किसी से अच्छे संबंध नहीं रख सकते हैं तो संबंधों को बिगाड़ने से भी क्या लाभ ? उन्हें न्यूट्रल ही छोड़ देना चाहिए ताकि बदली हुई परिस्थितियों में फ़िर एक दूसरे को आवाज़ देने की गुंजाइश बनी रहे । वैसे भी रिश्ते नाते बहुत नाज़ुक होते हैं । जिस आमकेंद्रियता के युग में हम जी रहे हैं यहां व्यक्ति का अहम और दंभ चरम पर है ।"
मनीष जी ने 05 सितंबर 2017 की सुबह अचानक अपनी मां को खो दिया । मनीष जी के अनुसार वह उनके अब तक के जीवन का सबसे कठिन समय था । मां से जुड़ी उनकी कविताओं को पढ़कर उनकी मां के प्रति उनकी भावनाओं को आसानी से समझा जा सकता है । लेकिन उन्होंने अपने आप को संभाला और अपनी साहित्य सेवा जारी रखी । मनीष जी के अनुसार हमें जीवन में निरंतरता बनाए रखनी चाहिए । नए संकल्पों और दृढ़ विश्वास के साथ आगे बढ़ना चाहिए ।
डॉ. शमा
सहायक प्राध्यापिका
एस एस डी कन्या महाविद्यालय
बुलंदशहर
उत्तर प्रदेश ।




कविता के इस घटाटोप में स्वागत है, ' मनीष '।

 "लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है"
                                                                                    अनन्त द्विवेदी
                                                                                    साकेत कॉलेज, कल्याण पूर्व

21 वीं सदी के दूसरे दशक का अंतिम दौर, हिंदी कविता में एक नए कवि की आमद , एक ज़रूरी आमद। आखिर ऐसी आमदें ज़रूरी क्यों हो जाती हैं, कि कविता इतिहास ना हो जाये।  बीते साल में मनीष के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 2018 में ' इस बार तुम्हारे शहर में ', और 'अक्टूबर उस साल' 2019 में। एक सर्जनशील के लिए बीतते जाने के बाद, बीते हुए में लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है। कविताओं का सृजन अनिवार्य क्यों हो जाता है किसी के लिए? पहले से ही इस सवाल का जवाब, जाने कितने काव्य शास्त्रियों ने दिया है। अपने-अपने आग्रह हैं, पर इन संग्रहों की कविताओं को पढ़ते हुए साफ तौर पर यह भाँपा जा सकता है
कि यह अपनी घुटन से पार पाने की जद्दोजहद है, मुक्ति की कोशिश है। यह अपनी तरह का मोक्ष है, यशलाभ और अर्थलाभ से परे का जगत तलाशती कविताएँ हैं। संवेदनाएं हजारों साल से चली आ रही हैं। वही, बार-बार अपने को दुहराती हुई। उनमें नयापन कवि का अपना निजी होता है, भाषा की तरफ से भी और संवेदना के उस पक्ष की तरफ से भी कि, जिसे जिया गया हो। ऐसी संवेदना और अभिव्यक्ति का स्वागत करने को जी चाहता है, जो बेहद आत्मीय और अपनी लगती है। अनुभूति बेहद गहन और अभिव्यक्ति बेहद सहज है। कविता के इस घटाटोप में स्वागत है, ' मनीष '। हिंदी कविता की एक लंबी परंपरा है। ना अच्छे कवियों की कमी रही, ना अच्छी कविता की कमी रही , पर कुछ नया आता रहना चाहिए। समय के साथ ताल से ताल मिला कर चलने में आसानी होती है , समय-संदर्भों को समझने में आसानी होती है।

 कविता में सबसे पहले खुद की और फिर समाज की खंगाल होती है। इन कविताओं में जीवन को पलट-पलट कर देखने की जद्दोजहद है। क्या कविता से किसी को जाना जा सकता है, तो उत्तर है- हां। कविता जब अंतरंग होती है, तब अतीत में खुद की खोज की कोशिश है, कविता जो जीने से छूट गया है उसे जीने की कोशिश है फिर-फिर, बार-बार। इन कविता-संग्रहों की कविताएं जिंदगी में खुद को ढूंढने की, खोजने की कविताएं हैं, हालांकि 'लौटना' जीवन व्याकरण की सबसे कठिन क्रिया है। और हाँ, समय-साक्षी होने की भी। कविता में इतनी पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए कि सारे अर्थ, सारा वजूद उन पंक्तियों में ही पैठा हो जिसे हम साफ-साफ देख सकें। इन संग्रहों की कविताएं पारदर्शी कवि के पारदर्शी जगत को पारदर्शिता से सामने रखती हैं। रिश्तो की एक गजब कशिश है इन कविताओं में। प्रेम है , ' विशुद्ध और विकाररहित ', रिश्ते हैं - अपनी रेशमी रूमानियत और प्रगाढ़ आस्थाओं के साथ। कविता लिखे जाने का सबसे बड़ा कारण क्या होता है? दरअसल कविता में कवि खुद से संघर्षरत होता है। उसका संघर्ष कभी व्यक्तिगत होता है और कभी समाजगत। हालांकि व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता, सब कुछ समाज का ही है। दरअसल हम समाज का होकर ही जी सकते हैं, कोई और रास्ता बनता ही नहीं है। कुतर्क चाहे जितने भी कर लिए जाएं, पर सच यही है।
कविताएं बेहद जीवंत हैं और इनमें अपनी तरह का तनाव है, जिंदगी की छोटी-छोटी मासूमियतें हैं। यह कविताएं रिश्तों से भी रूबरू होती हैं, और अपने माहौल  की भी बातें करती हैं। इन कविताओं में रिश्ते अपनी तरह से परिभाषित होते हैं। रिश्तो में प्रेम है, बेहद आत्मीय और साथ ही अपरिभाषित भी। कविता में यह जरूरी भी है। यह संवेदना और यह अभिव्यक्ति, बहुत सारी कविताओं में है। लगातार बनावटी और संवेदनहीन होते जा रहे रिश्तो की साफगोई से शिकायत भी है। नई सदी में  चीजें  जिस तरह से बदली हैं  और उन्होंने  लोगों के जीने और सोचने को बदला है  उस संदर्भ में  रिश्तो के बीच,  परस्पर संवेदनाओं के बंध कमज़ोर हुए हैं,  एक रिक्ति पैदा हुई है  जिसे  अभिव्यक्त करने में  यह कविता  बड़ी समर्थ है इस माहौल में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच बढ़ते फासले और अजनबी होते एहसास इस  शब्द चित्र में ढल गए हैं -
      एक शाम / इच्छा हुई कि / किसी से मिल आते हैं /  किसी के यहाँ हो आते हैं / लेकिन किसके? /  टेबल पर रखे /
      सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स में से / एक भी ऐसा ना मिला / जिससे मिल आता / बिना किसी काम / बस ऐसे ही /
        सिर्फ मिलने के लिए / ऐसा कोई नहीं मिला।                              (विज़िटिंग कार्ड्स)1
इस अफ़सोस का पूरा वहन इस कविता में उपस्थित है। सन 1991 के बाद भारत में बहुत सारे क्रांतिकारी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बदलाव हुए। बदलावों का यह पल्लव आने वाले दस-पन्द्रह सालों में बड़े पेड़ में तब्दील हो गया और इसके साथ देश में भाव-भावना के स्तर पर बड़े गंभीर परिवर्तन हुए। जो इन परिवर्तनों के गवाह हैं, वो जानते हैं कि उनका नीतिशास्त्र अब मर चुका है। इस संवेदना को कवि ने 'जूते' कविता में अभिव्यक्ति दी है। व्यक्ति की संवेदना और फिर अपने समय की संवेदना को महसूस करना और व्यक्ति और व्यक्ति तथा व्यक्ति और नियति के संबंधों को इतनी सूक्ष्म दृष्टि से मूल्याँकित करना कि जो कौंध बनकर चमक जाए और लगे कि यह कौंध हमारे भीतर ही कहीं है -
                   घिसे हुए 
                          जूते 
                   और 
                   घिसा हुआ आदमी 
                   बस एक दिन
                  'रिप्लेस' कर दिया जाता है 
                   क्योंकि 
                            घिसते रहना 
                   अब किस्मत नहीं चमकाती ।                                                 (जूते)2
मूल्यों को अपनी तरह से परिभाषित करने का, एक नई नजर से देखने का प्रयास है, ' जूते '।  बहुत सारी कविताएं खुद की बुद-बुदाहट और बड़-बड़ाहट भी हैं, जिनमें विचार है और अपना दर्शन है, जो समकालीन जीवन से कुछ नया लेकर आया है। कुल मिलाकर मनुष्य हजारों साल से कविता के संसर्ग में है। मूल भावनाएं वही हैं, परिवेश बार-बार बदलता है और कविता को नए संदर्भ देता है, नई भाषा देता है और नए अर्थ से भर देता है। मनीष के साथ भी ऐसा ही है मूल भावनाएं वही हैं, बदलते परिवेश में कविता को नए संदर्भ दिए हैं, नई भाषा दी है और नए अर्थ भी ।
जीवन और दर्जे की परीक्षा में एक बड़ा फर्क है, दर्जा पास करने के लिए पहले एक निर्धारित पाठ्यक्रम से होकर गुजरना पड़ता है और फिर परीक्षा होती है। जीवन में पाठ्यक्रम निश्चित नहीं होता और परीक्षा भी पहले होती है। समकालीन जीवन में ' रिक्त स्थानों की पूर्ति ' का जो संकट उपस्थित है, उसको अभिव्यक्ति देती यह कविता - कि प्रश्नपत्र में " रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए " वाला प्रश्न बड़ा आसान लगता था, उत्तर या तो मालूम रहता या फिर ताक-झाँक से पता कर लेता, गुरुजी की नजरें बचा, किसी से पूछ भी लेता और रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाती। पर अब, जब बात ज़िंदगी की है - 
                    लेकिन आज 
                    जिंदगी की परीक्षाओं के बीच 
                    लगातार महसूस कर रहा हूँ कि - 
                    जिंदगी में जो रिक्तता बन रही है 
                    उसकी पूर्ति 
                    सबसे कठिन, जटिल और रहस्यमय है।
                                                                                             ( रिक्त स्थानों की पूर्ति )3
इन संग्रहों की कविताओं में समय की खरोंचों की सहलाहट भी बार बार मिलती है। दरअसल विचार और दर्शन की पुष्टि के लिए अतीतोन्मुखी होना जरूरी होता है। अतीत के गर्भ में भविष्य के लिए बहुत कुछ छुपा होता है, जिसमें महत्वपूर्ण जो कुछ भी है वह बार-बार स्मृति पटल पर आता है। सबके साथ यही होता है पर यह कवि होता है जो उन खरोंचों से विचार और दर्शन की परतें निकाल कर कविता की शक्ल में अंजाम दे पाता है। यह खरोचें मनीष की कविताओं में जगह-जगह मिलती हैं । आज के समय में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो पहचान है, वह पहले से कितनी जटिल हो चुकी है कि जानने और मानने - दोनों के लिए मायने भी अलग-अलग हैं। यह व्यक्ति के भीतर की जटिलता है जो उसे सरल नहीं रहने देती -
                   तुम्हें / जितना जाना / उतना ही उदास हुआ /
                   लेकिन / तुम्हें जानने / 
                   और /
                   तुम्हें मानने के / व्याकरण / अलग हैं।                               ( तुम्हें मानने के)4
 इन कविताओं में संवेदना बिल्कुल निजी बनकर उभरी है या हम कह सकते हैं की नजरों से अलग हटकर उन्होंने अपने माहौल को महसूस किया और उसे कविता में शब्द दिए कविताओं को एक संभावना बनाने की कोशिश है उनकी, और वह संभावना पूरे मानवी इतिहास और वर्तमान से प्रेरित हो, भविष्य की संभावना है - 
              क्या ऐसा होगा कि / आदमी और शब्दों की / किसी जोरदार बहस में /
              शामिल हों कुछ /  मेरी भी / कविताओं के शब्द ।
              मुट्ठियाँ जहाँ /  बंध गई हो / शोषण के खिलाफ / वहाँ रुँधे गले को /
              वाणी देते हुए / उपस्थित हों /  मेरी भी / कविताओं के शब्द ।
              विचारों के / विस्तार की / भावी योजनाओं में /  मानवता के पक्षधर बनकर /
              उपस्थित रहे / मेरी भी /  कविताओं के शब्द ।
                                                                                        (कविताओं के शब्द)5
मानवीय संवेदनाओं से परिचित होने के लिए और पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करने के लिए कवि को विमर्शों की दरकार नहीं है। स्त्री, धरा की बेहद संवेदनशील शक्तिरूपा है।  विमर्शों के इस दौर में, विमर्श से परे हटकर, उसका मूल्यांकन, उसकी शक्ति का मूल्यांकन, उसकी शक्ति संभावना का घोष, बिना विमर्श की परिभाषा में शामिल हुए भी कितना सार्थक है -
              तुम / औरत होकर भी / नहीं नहीं /
              तुम औरत हो / और / होकर औरत ही /
              तुम कर सकती हो / वह सब / जिनके होने से ही /
              होने का कुछ अर्थ है / अन्यथा / जो भी है /
              सब का सब / व्यर्थ है।                                              (तुम जो सुलझाती हो)6
साहित्याकाश में उपस्थित बहस-मुबाहिसों की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता का ज़रूरी सवाल भी अपने तरीके से हल हुआ है इन कविताओं में। बात करने और कहने के लिए झण्डे और बैनर की अपेक्षा नहीं है, मानवीय होना या मनुष्य होकर इन सवालों से दो-चार होना कवि को कहीं ज्यादा जरूरी लगता है - 
                अप्रासंगिक होना / उनके हिस्से की / सबसे बड़ी त्रासदी है /
                तकलीफ और विपन्नता / से क्षत-विक्षत / उनकी उत्सुक आंखें /
                दरअसल / यातना की भाषा में लिखा /
                चुप्पी का महाकाव्य है /
                आज के इन तथाकथित विमर्शों में / शायद / इनकी झलक हो । 
                                                                                     (गंभीर चिंताओं की परिधि)7
अपने समय की बौद्धिक सरणियों से इस तरह गुजरना दुस्साहस है, और एक कवि को इस दुस्साहस के लिए हमेशा तैयार भी रहना चाहिए यही उसके होने की सार्थकता है। खुद से एकालाप करती कविताओं के साथ-साथ, अपने समय से संवाद करती, सवाल जवाब करती ऐसी कविताएँ इन संग्रहों में काफी हैं, संख्या की दृष्टि से नहीं बल्कि सार्थकता की दृष्टि से। कहन और बनाव में सशक्त, पूरी विनम्रता और धीरता से बात करती हुई, अपने पिछले और साथ चल रहे को तौलती हुई।
कवियों और लेखकों का कुछ जगहों से भावनात्मक और रचनात्मक जुड़ाव काफी अहम होता है। मनीष की कविताओं में पूर्वी उत्तर प्रदेश, खासतौर पर बनारस और अयोध्या इसी तरह से आए हैं। बनारस पर आधारित 'मणिकर्णिका', ' लंकेटिंग ', ' बनारस के घाट ' आदि कविताएँ हैं, जिनमें पूरा बनारस धड़कता दिखाई देता है। रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजें हैं, और वहाँ का परिवेश, जो इन जगहों को जीवंत बनाता है। कवि की सूक्ष्म दृष्टि से इनके बेजोड़ शब्दचित्र निर्मित हुए हैं। ' लंकेटिंग'  बनारस के लंका मोहल्ले में होने वाली सुबह शाम की तफरी को दिया गया स्थानीय लोगों का नाम है। और इस तफरी को वहाँ का परिवेश तो जीवंत करता ही है, बाकी जो है वह - 
                   छात्रों प्राध्यापकों / की राजनीति / यहां परवान चढ़ती है /
                   इश्कबाज / चायबाज और / सिगरेटबाजों के दम पर /
                   यह लंका रात भर / गुलजार रहती है। 
                   ----------------–----------------
                   यह लंका / और यहाँ की लंकेटिंग / मीटिंग, चैटिंग, सेटिंग /
                   और जब कुछ ना हो तो / महाबकैती /
                   सिंहद्वार पर धरना-प्रदर्शन / फिर पी.ए.सी. रामनगर / 
                   और पुलिस ही पुलिस ।                                                               (लंकेटिंग)8
ऐसे ही बनारस के प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का यह दृश्य और मणिकर्णिका से जुड़ी यह संवेदना - 
                   यह मणिकर्णिका / बनारस को / महा श्मशान बनाती है /
                   मोक्ष देती मृत आत्माओं को / 
                   तो पूरे बनारस के / पंडे-पुरोहितों को आश्वस्त भी करती / 
                   जीवन पर्यंत / जीविकोपार्जन की / निश्चिंतता के प्रति भी।          (मणिकर्णिका)9

इन संग्रहों की कविताओं में प्रेम और रिश्तों की रेशमी गर्माहट भी है। प्रेम की अन्तरंगता बड़ी मधुर है। उसमें परिणय-भाव है, उन्मुक्तता है, डूबने की चाह है और कुछ है जो बड़ा मधुर है - 
                  मैंने कहा - / तुम जब भी रूठती हो / 
                  मैं मना ही लेता हूँ / चाहे जैसे भी ।
                  वह बोली - / तुम मना नहीं लेते /
                  मैं ही मान जाती हूँ / चाहे जैसे भी ।                                            (तृषिता)10
ऐसे ही ना जाने कितनी कविताएँ इसी  तपिश से सीझी हुई हैं - 'तुम्हें मानने के' , ' तुम्हारे ही पास ', 'चाय का कप ', ' मोबाईल ', ' वो मौसम ', ' आजकल ये पहाड़ी रास्ते ', ' तुम मिलती तो बताता ', 'आज मेरे अंदर रुकी हुई एक नदी' , ' ज़िक्र तेरा आ गया तो ', ' प्यार में ', ' बहुत कठिन होता है ' आदि।
मनीष की कविताओं में प्रेम की एक नई रवानी महसूस करने को मिल जाती है प्रेम की कैशोर्य बीहड़ता और विनम्र, सधी हुई वयस्कता इन कविताओं की शक्ति है -
                  अब लड़ रहा हूँ / अपने आप से / एक लड़ाई जिसमें /
                  हार निश्चित है मेरी क्योंकि / प्रेम में / जीत जाना  -  कलंक है। / 
                  समय ने / तुम्हारे सामने / शायद इसलिए ही / खड़ा कर दिया था /
                  ताकि / सीख सकूँ /  मैं भी प्रेम। 
                                                                                                 (मैं नहीं चाहता था)11
मनीष की कई कविताओं में माँ और ममता की विषय बने है। ' माँ ', ' यह पीला स्वेटर ', ' माँ ! तो वो तुम ही थी ', ' लड्डू' जैसी कई कविताओं में जीवनदात्री और पुत्र के एकालाप की गहन अनुभूति देखने को मिलती है। ' माँ ' शब्द पूरी तरलता के साथ उनकी कविताओं में उपस्थित है -
                 माँ ! / तो वो तुम ही थी / जो दरअसल नहीं थी /
                 पर थी शामिल / मुझमें और / मेरी तमाम संभावनाओं में / 
                 जटिलताओं, विपदाओं के बीच / आशा की एक किरण / 
                 मेरी जीत और हार के बीच / 
                 जीत पर तिलक लगाते / हार पर दुर्बलताओं को दुलराते।
                                                                                              (माँ ! तो वो तुम ही थी)12
ईश्वर जब रिश्तों पर पूर्णविराम लगाता है तो जो खालीपन पैदा होता है, वो फिर आजीवन रिक्त ही रहता है। माँ का जाना, क्या होता है -
               मैं जब उठा तो / माँ रोज़ की तरह चाय नहीं लायी थी /
               ना ही वह / पूजाघर में थी /
              वह पड़ी थी / निष्प्राण !! / एकदम शांत /
              जैसे लीन हो / किसी तपस्या में । /
              लेकिन माँ को / तपस्या की क्या ज़रूरत पड़ी ? /
              वो तो खुद ही / एक तपस्या थी ।                                                          
              -------------------------
              अब सही-गलत क़दमों पर / कोई रोकेगा-टोकेगा नहीं /
              शिकायतें / कहने - सुनने की /
              सबसे विश्वसनीय जगह / खत्म हो चुकी थी ।                                            (माँ)13
न जाने कितने कवि हर साल साहित्य-पटल पर अपने हस्ताक्षर करते हैं। अपनी संवेदनाएँ कविता की शक्ल में अंकित करते हैं। पर कुछ ही होते हैं, जिनमें लंबे समय तक रह पाने की संभावना और गुंजाइश होती है। यह दोनों कविता संग्रह आश्वस्त करते हैं कि हिंदी को जो नया मिला है, वह संचनीय भी है, और सराहनीय भी। कविताएँ बेहद आत्मीय हैं, और ऐसे रूबरू होती हैं, जैसे अंतरंगता में बातचीत हो रही हो।यह सारी कविताएं खुद की तलाश की कविताएँ हैं। और खुद से संवाद करती कविताएँ हैं। इनमें क्षणों की संवेदनाएँ भी हैं, और बरसों की सुलगती अपेक्षाएँ भी हैं। खुद से बातें करती यह कविताएँ स्व-जगत में विचरण करती कविताएँ हैं, पर हमें तो अभी कवि में और विस्तार चाहिए। भाव-जगत और अभिव्यक्ति में विस्तार चाहिए। स्व-जगत से निकलकर पर-जगत में ऐसी ही गहनता चाहिए।
' इस बार तुम्हारे शहर में ' सन 2018 में प्रकाशित हुआ और ' अक्टूबर उस साल ' सन 2019 में प्रकाशित हुआ। लगातार दो कविता पुस्तकें, बधाई तो बनती है। सिर्फ पुस्तकों का आना बधाई के लिए काफी नहीं है। बल्कि बधाई इस बात के लिए कि कविता में एक संतोषपूर्ण संभावना पैदा हुई है। 








संदर्भ
1- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 71 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
2- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 70 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
3- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
4- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 23 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
5- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 13 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
6- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 17 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
7- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 80-81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
8- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
9- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 105 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
10- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 21 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
11- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 84-85 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
12- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 114 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018
13- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

प्रेम और संवेदना के जैविक कवि : मनीष


प्रेम और संवेदना के जैविक कवि : मनीष
डॉ. चमन लाल शर्मा
प्रोफेसर 'हिन्‍दी'
शासकीय कला एवं विज्ञान स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय, रतलाम
(विक्रम विश्‍वविद्यालय, उज्‍जैन) मध्‍य प्रदेश
मो. 9826768561
E-mail- clsharma.rtm@gmail.com
 

            आजकल कविता में जो कुछ लिखा जा रहा है वह सब समकालीन है, यह पूरी तरह सच नहीं है। दरअसल समकालीनता एक रचना दृष्टि है, जहां कवि अपने समय का आकलन करता है, अपने अनुभव, अपने चिंतन और अपनी दृष्टि से वह कविता में जीवन का नया विन्यास गढ़ता है। कवि होने के अपने खतरे भी हैं, अपनी चुनौतियां भी हैं, क्योंकि कई बार कविता में  वैयक्तिकता हावी हो जाने की संभावना बनी रहती है। यकीनन कविता का आशय या उद्देश्य इतना भर नहीं है कि समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा है या जैसा दिखाई दे रहा है उसे ज्यों का त्यों लिखकर प्रस्तुत कर दिया जाय, इससे कविता के खत्म होने का खतरा बढ़ जाता है। एक कविता पाठक को कई अर्थ देती है। कविता एक वैचारिक फलक के साथ-साथ एक कला रूप भी है, इसलिए कविता में भाषा, भाव और शैली का एक संतुलन भी जरूरी है। इधर नई पीढ़ी के  जो रचनाकार कविता लेखन में सक्रिय हैं उनमें मनीष मिश्र का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, उनकी कविताओं में वैचारिकता की सपाट बयानी की मजबूरी नहीं है, नाही चिल्लाकर अपनी बात को दूर तक फैलाने की जुगत है। मनीष संवेदनाओं की शक्ल में कविता के माध्यम से पाठकों से सीधे संवाद करते हुए दिखाई देते हैं। छप्‍पन कविताओं वाले उनके पहले काव्य संग्रह 'अक्टूबर उस साल' की पहली कविता 'आत्मीयता' में वे सीधे पाठक से बात कर रहे हैं - 'क्षमा की शक्ति / और / विवेक का आराधन / यह अनुभव की / साधना से / संचित / शक्तिपीठ है / आत्मीयता से भरे / आत्मीय मित्रो /
सवागत है / आपका /'   
                जिन पाठकों ने मनीष की कविताओं को ठीक से पढ़ा होगा उनको मालूम होगा कि मनीष की कविताएं कला की सीमाओं से परे जाकर भी पाठक के मन को झकझोरती हैं और मन के अंदर एक उत्प्रेरण  के भाव को जन्म देती हैं। मनीष की कविताओं का अलहदापन  संवेदना, भाव, विचार, दर्शन एवं भाषा के स्तर पर ही नहीं है बल्कि उनकी शैली में भी नवीनता है। बिंबों और प्रतीकों से कैसे यथार्थ को लिबास पहनाकर वे अपनी कविता रचते हैं, यह वस्तुतः मनीष की अपनी शैली है-  'जब तुम्हें लिखता हूँ / तो जतन से लिखता हूँ / हर शब्द को चखकर लिखता हूँ / जब तुम्हें लिखता हूँ / तो बसंत लिखता हूँ / होली के रंग में / तुम्हें रंग कर लिखता हूँ / 'जब तुम्हें देखता हूँ' कविता की इन पंक्तियों में मनीष न केवल गहरी संवेदना को कविता के केन्‍द्र में रखते हैं बल्कि कविता को शब्‍दों की जुगाली से मुक्‍त कर जीवनानुभव से भी जोड़ते हैं। आजकल जीवन के रिश्तों में भी बाजारवाद हावी होता दिखाई दे रहा है। फलतः मनुष्य के बीच सम्बन्धों की ऊष्मा भाप बनकर खत्म होती जा रही है। मनीष की कविताएं रिश्तों के उधड़ने-बुनने की कविताएं हैं। मनुष्य के दोहरे चरित्र को उजागर करती उनकी कविताएं सच को मरते नहीं देखना चाहतीं। मनीष कभी नितान्त निजी अनुभवों की कविताई करते प्रतीत होते हैं तो कभी कठोर व्यंग्य से सामाजिक यथार्थ को उघाड़ते हुए दिखाई देते हैं। जीवन की आपाधापी के बीच मनुष्य अपने मन के भीतर कहीं कमजोर भी है, भविष्य को लेकर चिंतित भी है, घबराया हुआ भी है और रिश्तों को निभाने की उसके अंदर  अकुलआहट भी है, पर आधुनिक जीवन शैली को अपनाने की होड़ में और आगे बढ़ने के दबाव के कारण उसे रिश्ते दरकते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में मनीष रिश्तों की गरमाहट को महसूस करते हुए कहते हैं - 'जीवन की जटिलताओं / और प्रपंचों से दूर / अपनी सहजता / और संवेदना के साथ / तुम जब भी मिलती हो / भर देती हो / तृप्ति का भाव / तुम जब भी मिलती हो / तो मिलता है / विश्वास / सौभाग्य / और / जीवन के लिए / ऊष्मा, ऊर्जा और संकल्प भी /'
            
युवा कवि मनीष न किसी वाद के  चौखट्टे में फिट बैठने के लिए लिखते हैं, और ना ही किसी विचारधारा के साथ सामंजस्य बैठाने की उठापटक के लिए कविताई करते हैं, बल्कि वे आत्म चेतना के स्तर पर पाठक को टहलाते  हुए वहां ले जाना चाहते हैं, जहां सीखने और टकराने दोनों की जरूरत है। वस्‍तुत: तिमिर के शिकंजे में रमणीयतम लावण्य है मनीष की कविताई। स्त्री-पुरुष के संबंधों के व्याकरण से उनकी कविताएं जीवन के मायनों को तलाशती हुई दिखाई देती हैं -   'और तुम / वन लताओं सी / कुम्‍हलाती / अपनी दिव्य आभा के साथ / घुलती हो चंद्रमा में / ज्योति के कलश में / आरती की गूंज में / और देती हो मुझे / नक्षत्रों के लबादे में / अनुराग का व्याकरण /  आचरण के शुभ रंग / तथा / त्याग के / आत्मीय प्रतीक चिन्ह /'  'प्रतीक्षा की स्थापत्य कला' कविता में मनीष जीवन में अनुराग के व्याकरण को अनिवार्य मानते हैं। अनुराग के बिना जीवन लगभग व्‍यर्थ है। संभावनाओं के कवि मनीष अपने पहले कविता संग्रह 'अक्टूबर उस साल' में अनुभूति,  जीवनानुभूति और कलात्मक अनुभूति का बेहद जरूरी संयोजन कर अपनी उत्पाद्य प्रतिभा का परिचय दे देते हैं। कवि और कविता के लिए महत्वपूर्ण है अनुभव, जिसे सामाजिक व्यवहार से अर्जित किया जा सकता है। यह अनुभव ही काव्य में संवेदना बनकर पाठक तक पहुंचता है। 'गंभीर चिंताओं की परिधि' कविता में युवा कवि मनीष आज के तथाकथित विमर्शों पर प्रासंगिक टिप्पणी करते हैं - 'अप्रासंगिक होना / उसके हिस्से की / सबसे बड़ी त्रासदी है / तकलीफ और विपन्नता / से क्षत-विक्षत / उसकी उत्सुक आंखें / दरअसल / यातना की भाषा में लिखा / चुप्पी का महाकाव्य है /'    दरअसल यह भाड़े पर या उधार ली हुई संवेदना नहीं है, बल्कि अनुभव से अर्जित की हुई है। 'यूं तो संकीर्णताओं को' कविता में कवि एक और जहां अपनी परम्‍परा और संस्‍कृति की जड़ों से उखड़े लोगों की मज़म्मत करते हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय राजनीति के चरित्र को बेनकाब करने में युवा कवि ने जरा भी संकोच नहीं किया है, बल्कि तल्ख लहजे में सियासतदानों की असलियत को बड़ी बेवाकी से पाठकों के सामने रखने की ईमानदार कोशिश की है, और नेताओं के भाषणों से सम्मोहित जनता की यथास्थिति वादी सोच पर चिंता प्रकट की है। दरअसल मनीष की कविता छीजती मनुष्‍यता के बीच आशा का एक सुन्‍दर विहान है। सामाजिक सन्‍दर्भों को तलाशती मनीष की कविता मेहनतकशों और मजदूरों के पक्ष में खड़ी हुई दिखाई देती है। कार्पोरेट कल्‍चर में जहां मजदूरों की चिंता करने वाला कोई नहीं है, ऐसी स्थिति में मनीष पक्षधरता के साथ मजदूरों के सवालों को उठाते हैं - 'उन मजदूरों के / हिस्से में / क्यों कुछ भी नहीं /   जो मेहनत से / एक धरा और गगन कर रहे हैं /'
            कविता को सफल बनाने के लिए कवि का ईमानदार होना अत्यंत आवश्यक है। वह विषय स्थिति को स्पष्ट करने के लिए अपनी निजी अनुभूतियों का इस्तेमाल करता है। मनीष की कविताओं से गुजरते हुए यह आभास सहज ही हो जाता है। जब सामयिक सामाजिक परिस्थितियां जीवन में इतनी अधिक प्रभावी हो जाएं कि समय का एक पल भी भारी लगने लगे, कविताएं वहीं से आकार लेना शुरू करती हैं। कवि की आवश्यकता समय और समाज को वहीं से अधिक महसूस होने लगती है। मां पर लिखी कविता में मनीष मां के उस शाश्वत रूप के दर्शन कराते हैं जो हर पाठक को अपना सा लगता है। दरअसल कविता की खासियत ही यह है कि वह कवि की होती हुई भी सबकी हो। हर पाठक को वह अपनी ही रचना लगे।  नई पीढ़ी के कवियों में मनीष अलग विशेषता बनाए हुए हैं। उनकी कविता सकारात्मक मूल्यों के साथ ही मनुष्य को समग्रता में आत्मसात कर चलती है। उनकी कविताओं में जहां एक ओर सकारात्मक हस्तक्षेप का स्वर है, वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों की संवेदना भी है, जिससे पाठक के ज्ञान के क्षितिज का विस्तार होता है। मैं बहुत प्रामाणिकता के साथ कह सकता हूं कि मनीष की कविताएं इंसानियत की रक्षा के लिए एक संवेदनशील धरातल तैयार करती हैं, जिसमें प्राकृतिक उपादानों को भी वे शामिल करते हैं -  'प्रेम से अभिभूत / ममता से भरी / वह गीली चिड़िया / शीशम की टहनियों के बीच / उस घोंसले तक /  पहुंचती है / जहां / प्रतीक्षा में है / एक बच्चा / मां के लिए / भूख / अन्न के लिए / और प्राण / जीवन के लिए /'
             मनीष की कविताओं में  वायवीय भावों, विचारों एवं कल्पनाओं का कौतूहल नहीं है, बल्कि वे जीवन के टूटे- विखरे पलों को भी आत्मीय बनाकर कविता में अपनी विनम्र उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। उनके यहां निषेधवादियों की तरह सब चीजों का नकार नहीं है, बल्कि वे सृजनात्मक बीजों की तलाश कर अपने परिवेश के उहा-पोह को भी सहजता के साथ मानवीय संदर्भों से जोड़ देते हैं। वह भरोसे की ऊष्मा और संबंधों के ताप से हर हाल में मनुष्य होने की संभावनाओं को बचाना चाहते हैं - 'मैं / बचाना चाहता हूं / दरकता हुआ / टूटता हुआ / वह सब / जो बचा सकूंगा /  किसी भी कीमत पर /'
             इस संकलन की अधिकांश कविताएं मानवीय रिश्तों, स्त्री-पुरुष के संबंधों और प्रेम पूर्ण संवेदनाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। कविता के बारे में कोई भी संतुलित निर्णय तभी दिया जा सकता है जब हम भाषा, कथ्य और संदर्भ को एक साथ प्रस्तुत करें। भाषा के तत्वों द्वारा ही हम कविता में उपस्थित कवि के अनुभव की सही व्याख्या कर सकते हैं। आजकल की कविताओं की एक सीमा यह भी है कि अक्सर पुराने अनुभवों को दोहराकर सुविधाजनक ढंग से कविता बना ली जाती है। इससे नया अर्थलोक पैदा होने की संभावनाएं भी कम हो जाती हैं।  मनीष की कविताओं की भाषा में नया रंग भरता है। कविता में भाषा के अभिनव प्रयोग का अर्थ यह नहीं है कि बिल्कुल अलग दिखाई देने वाली भाषा का उपयोग किया जाए या जबरदस्ती शब्द ठूंसकर नवीनता का बोध कराया जाए। दरअसल कोई एक शब्द भी कविता को नए भावान्‍वेषण की ओर ले जा सकता है, बशर्ते कवि को उस शब्द के परिप्रेक्ष्य का भान हो और वह उसे सर्जनात्मक रूप देने मे समर्थ हो।  मनीष के इस पहले कविता संग्रह में भाषा बोध के स्तर को बनाए रखने में समर्थ दिखाई देती है।
            2019 में प्रकाशित मनीष का दूसरा कविता संग्रह 'इस बार तेरे शहर में' में कुल साठ  कविताएं हैं,  और इसकी भूमिका हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र जी ने लिखी है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएं प्रेम की द्वन्‍द्वात्मक संवेदनाओं के बीच उभरी हैं, लेकिन कवि की युवा वाणी यहां कविता की सोद्देश्‍यता पर स्पष्ट अभिमत प्रस्तुत करती है -  मुठ्ठियां जहां / बंध दी गई हों   /  शोषण के खिलाफ / वहां रूंधे गले को / वाणी देते हुए / उपस्थित हों /  मेरी भी / कविताओं के शब्द /' मनीष का कवि हृदय युगों से चली आ रही पुरुष की सामंतवादी सोच पर सवाल खड़े करता है, तथा स्त्री को रचना का प्रेरणा स्रोत,  सूर्य की ऊष्मा,  ऊर्जा का उद्गम, जीवन का हर्ष और उल्लास का निर्द्वंद सर्जक मानता है -  'तुम औरत हो / और / और होकर औरत ही / तुम कर सकती हो / वह सब / जिनके होने से ही /  होने का कुछ अर्थ है / अन्यथा / जो भी है / सब का सब / व्यर्थ है/'  छद्म राष्ट्रवाद पर प्रहार करते हुए कवि मनीष कविता में व्यंग्य को नए स्तर पर ले जाते हुए कहते हैं -  'यहां अब देश नहीं / प्रादेशिकता महत्वपूर्ण होने लगी है / प्रादेशिक भाषा में / गाली देने से ही / हम अपने सम्मान की / रक्षा कर पाते हैं / पराये नहीं / अपने समझे जाते हैं / '
            बिगड़ते पर्यावरण की चिंता भी उनकी रचना के मूल में है।  हम अपने आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं? इसकी बानगी देखनी हो तो दिल्ली के बच्चों से पूछें।  किस्तों में मरते हमारे पर्यावरण को बचाने के लिए मनीष कोई बड़ा दर्शन या कोई बड़ा बोझिल तर्क प्रस्‍तुत नहीं करते, बल्कि बहुत ही सादी लिबास की कविता में सीधे दिल को छू लेने वाली बात कह देते हैं - 'इतने दिनों बाद आ रहा हूं / बोलो / तुम्हारे लिए क्या लाऊं? /  उसने कहा / वो मौसम / जो हमारा हो / हमारे लिए हो / और हमारे साथ रहे / हमेशा /'
            मनीष दरअसल परिवेश में बिखरी हुई प्राकृतिक एवं सामाजिक शक्तियों को जगाने में विश्वास करते हैं। इनकी कविताएं वास्‍तव में मानवीय संवेदनाओं की गहनतम अभिव्यक्ति हैं,  तुकबाजी़ और नारेबाजी से मुक्त।  इनकी कविताएं संवेदना से ही रसग्रहण करती हैं। तभी तो  मनीष की चयन दृष्टि अभीष्ट को ग्रहण कर त्याज्य को छोड़ना चाहती हैं - 'नाखूनों को / काटते हुए/  सोचने लगा कि / अनावश्यक और अनचाही / हर बात के लिए / मेरे पास / एक नेल कटर / क्यों नहीं है? /'  वर्तमान जिंदगी में बनावटीपन ज्यादा है। दिखावे की संस्कृति ने व्यक्ति को बहुरूपिया बना दिया है। उसके जीवन में न तो सहजता है और ना सरलता। इसलिए मनीष संबंधों के अनुबंधों से, जन्म-जन्म के वादों से और रीति-नीति के धागों से रिश्तों का ताना-बाना बुनते हुए दिखाई देते हैं। इनकी कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक, वैश्विक एवं धार्मिक जीवन के कटु यथार्थ भी हैं।  जन आकांक्षाओं के कवि मनीष की भाषा ढंकी-छुपी राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों को उघाड़ कर रख देने में जरा भी संकोच नहीं करती है। इससे मनीष की चेतना की व्यापकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं के ऊपर जहां भी खरोच आती है वहीं मनीष मुखर हो जाते हैं - 'राम / तुम्हारा धर्म-दर्शन / संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता में / अपराध हो गया / हे राम ! / हे राम ! ! / अयोध्या / मानो शेष हों / अवशेष सिर्फ / पर यह नि:शेष नहीं/'          मनीष की कविताओं में आस्था, विश्वास एवं आत्म संबल का विस्तार है। श्यामा, वसंता और कस्तूरिका की इस देवभूमि में वे प्रकृति के साथ जीवन का राग गाते हैं। पहाड़ी चिड़ियों, फूलों और पेड़ों को देखना उन्हें ईश्वर को देखने जैसे लगता है। कवि मनीष का अनुभव परिपक्व और दृष्टि संपन्न है। वे अपने परिवेश के प्रति गंभीर और संवेदनशील हैं। परिवेश और प्राकृतिक सौंदर्य इनकी कविताओं को अलग ही पहचान दिलाता है -  'देवदार और  पाम / के यह घने जंगल / मानो लंगर हों / स्वच्छन्ता उत्सुकता और / आकाश धर्मिता के / व्यास रावी चिनाव / सतलुज और कालिंदी के कल कल से / इठलाती बलखाती / सजती और संवरती देवभूमि / सौंदर्य की / विश्राम स्थली है /'         प्रेम का हर एक स्‍तर मूल्यवान होता है। प्रेम का आकर्षण अंतस् चेतना को अनुराग की ऊष्मा से भर देता है - 'उसी का होकर / उसी में खोकर / उसी के साथ / जी लूंगा तब तक / जब तक कि / वह देती रहेगी अपने प्रेम और स्नेह का जल / अपनेपन की / उष्मा के साथ /'  इसी तरह एक अन्य कविता 'उसे जब देखता हूं'  में कवि कहता है - 'उसे जब देखता हूं / तो बस देखता ही रह जाता हूं / उसमें देखता हूं / अपनी आत्मा का विस्तार / अपने सपनों का / सारा आकाश /'
            कंटेंट और भाषा की अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद मनीष की कविताएं अच्छेपन और इंसानियत का एहसास कराती हैं। 'इस बार तेरे शहर में' ऐसा लघु काव्य संग्रह है, जिसकी लगभग सभी कविताएं पठनीय हैं। इन कविताओं में गुंथे गए भाव धीरे-धीरे शब्दों के जरिए पाठक के अंदर उतरते जाते हैं। मनीष वस्तुतः संवेदनाओं के ऐसे जैविक कवि हैं जिनमें मिलावट का नकार और मौलिकता का स्वीकार है। चाहे भाषा के स्तर पर हो या भाव के स्तर पर अथवा कथन की शैली के स्तर पर 'इस बार तेरे शहर में' में संकलित उनकी सभी कविताएं आश्‍वस्‍त करती हैं। इसी संग्रह की 'झरोखा' कविता की इन पंक्तियों के साथ आपको मनीष की काव्य यात्रा पर चलने का निमंत्रण देता हूं - 'कभी / वक्त मिले तो / पढ़ना / झांकना / इन कविताओं को / यह यकीनन / लौटायेंगी / तुम्हारे चेहरे की / वो गुलाबी मुस्कान / मुझे यकीन है /