Sunday 18 August 2013

कात्यायनी की कविता - शोक गीत


09 मई 1959 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्मी कात्यायनी आज की शीर्षस्थ हिंदी कवियित्रियों में एक हैं। आप की कविताएँ मुख्य रूप से नारी विमर्श की कविताएँ हैं। आपके प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
1. सात भाइयों के बीच चम्पा - 1994
2. इस पौरूषपूर्ण समय में - 1999
3. जादू नहीं कविता - 2002
4. रात के संतरी की कविता।
5. चाहत
6. कविता की जगह।
7. आखेट।
8. कुहेर की दीवार खड़ी है।
इनके अतिरिक्त रूसी और अंग्रेजी भाषा में आपकी कविताओं का अनुवाद हुआ है। नारी प्रश्न संबंधित आपके लेखों का संग्रह `दुर्ग द्वार पर दस्तक' नाम से प्रकाशित हो चुका है। अगर आप इंटरनेट के माध्यम से कात्यायनी जी के साहित्य को पाना चाहते हैं तो   पर जाकर उनसे संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
जिस नारी विमर्श / स्त्री विमर्श और नारीवादी इत्यादी आंदोलनों की चर्चा हम सुनते रहते हैं वह पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों की राजनीतिक, सामाजिक एवम् शैक्षिक समानता का आंदोलन है। जिसकी जड़े 18वी शती के मानवतावाद और औद्योगिक क्रांति में थी। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज भी विश्व की पूरी ज़मीन का केवल 1  भाग महिलाओं के नाम है। जबकि वे दुनियाँ की आधी आबादी हैं। विश्व के काम का 60  महिलाएँ करती हैं, मगर आमदनी का केवल 10  हिस्सा उनकी निजी आमदनी मानी जाती है। आज भी निरक्षर जनता का तीन चौथाई भाग महिलाओं का है। भारत में लगभग पाँच हजार महिलाएँ प्रतिवर्ष दहेज के लिए मार दी जाती हैं। पूरे एशिया में एक लाख महिलाएँ हरवर्ष वेश्यावृत्ति में ढकेल दी जाती हैं। ऐसे समय में जीते हुए, अगर कात्यायनी जी अपनी कविताओं का मुख्य बिंदु `नारी विमर्श' को बनाती हैं, तो सही ही करती हैं।
एक साहित्यकार या रचनाकार होने के नाते हमारी यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि हम अपने वक्त की चौह ी में घिरे हुए सामान्य व्यक्ति के द्वंद्व और सपने को प्रधानता दें, न की किसी विचारधारा या विमर्श की चौह ी में अपने आप को बाँधकर, इस बंधन को ही `शाश्वत बंधन धर्म' घोषित करते हुए उन्हीं का गुणगान करते रहें।
लेकिन सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अलग-अलग विमर्शो एवम् अनुशासनों में जो लेखन हो रहा है, वह भी साहित्य का ही एक हिस्सा है। इस लेखन के कारण ही समाज और साहित्य का आपसी संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुआ है। आज के साहित्य की सबसे बड़ी चिंता तो सामाजिक और आर्थिक उ ेश्यों को लेकर चलनेवाले विभिन्न विमर्श जल्द ही अपने मार्ग से भटककर यश, प्रतिष्ठा, पुरस्कार एवम् सुविधाएँ बटोरने के साधन मात्र बन जाते हैं। ऐसे रचनाकारों की साधना, साधन के आगे भंग हो जाती है। लेकिन जहाँ तक प्रश्न कात्यायनी जी का है, तो अब तक ऐसी कोई बात दिखायी नहीं पड़ती। अपनी रचनाशीलता के लिए उन्होंने जिस धारणा को केन्द्रिय बिन्दु बनाया है, वह धारण व्यापक रूप में साहित्य की मानवीय अवधारणा की पूर्ति जरूर करती है। इसलिए `विमर्शवादी' कवयित्री मात्र कह कर उनके श्रम को नकारा नहीं जा सकता।
पाठ्यक्रम में निर्धारित उनकी कविता `शोक गीत' के संक्षिप्त विश्लेषण से यह बात और स्पष्ट हो जायेगी। `शोकगीत' मूल रूप में जीवन की विडम्बनओं, जीवन के संघर्ष, आशा-निराशा और इसके (जीवन) आस-पास के परिवेश में बढ़ रही मूल्यहीनता, अवसरवादिता, स्वार्थपरकता, दोहरे व्यक्तित्व इत्यादि की कलई खोलते हुए इस कठिन समय में जी रहे सामान्य व्यक्ति के असामान्य संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शोक जीवन भी नहीं, इस जीवन की विडंबनाओं का है। और अगर विड़बनाओं का शोक है, तो इनमें तप रहे व्यक्ति के साहस, संघर्ष और आशा-निराशा और इसके (जीवन) आस-पास के परिवेश में बढ़ रही मूल्यहीनता, अवसरवादिता, स्वार्थपरकता, दोहरे व्यक्तित्व इत्यादी की कलई खोलते हुए इस कठिन समय में जी रहे सामान्य व्यक्ति के असामान्य संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शोक जीवन ही नही, इस जीवन की विडंबनाओं का है। और अगर विड़बनाओं का शोक है, तो इनमे तप रहे व्यक्ति के साहस, संघर्ष और आसक्ती ----- के प्रति इस काव्यगीत कविता के माध्यम से एक आदर और सम्मान का भाव भी है।
कविता की शुरूआत करते हुए कात्यायनी जी लिखती हैं कि -
``बस यूँ ही गुजार दी जिंदगी
नहीं रच सके कोई `एपिक' (महाकाव्य)
न हो सके पाठकों के आँखे के तारे
न किसी आलोचक श्रेष्ठ के दुलारे
अपुन तो बस यूँ ही गुजार दी
पूरी जिंदगी''
ऊपरी तौर पर इन पंक्तियों का अर्थ यही निकलता है कि कवियित्री `एपिक' अर्थात महाकाव्य न रच पाते दुख को जता रही हैं। पाठको में प्रिय न होने का दुख जता रही हैं और साथ ही साथ किसी ``आलोचक श्रेष्ठ'' की कृपा पात्र न बन पाने के दुख को भी प्रगट कर रही हैं। लेकिन वो जो कहना चाह रही हैं मेरी समझ से वह यह है कि यदि आपको जिंदगी ``यूँ ही'' नहीं बिताती, साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त करती है, पाठकों के बीच अपने आप को लोकप्रिय बनाता है तो आपको अनिवार्यत: किसी श्रेष्ठ आलोचक की कृपा हासिल करनी होगी। उसका प्रिय होना होगा। आपको चापलूस होना होगा, अवसदवादी होना होगा और पदप्रतिष्ठा इत्यादि के लिए जीवनमूल्यों से समझौता करना होगा। और अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आप अपनी जिंदगी `यँ ही' बिता देने को अभिशप्त रहेंगे।
इन पंक्तियाँ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी आयी है कि कवियित्री `एपिक' या महाकाव्य न रच पाने के दुख को व्यक्त कर रही हैं। अब सवाल यह उठता है कि `महाकाव्य' ही न रचने का दुख उन्होंने क्यों जताया। दरअसल महाकाव्य किसी भी सुसंस्कृत समाज की सांस्कृतिक और साहित्यिक संपत्ति हैं। ये मानव जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तु करती हैं। ये प्राचीन देशों की पूर्ण विकसित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। और समांतर रूप से आधुनिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं इन महाकाव्यों में विद्यमान मूल्य, मानवीय दृष्टिकोण और इनकी निश्चल गुणवत्ता ने अभिजात्य साहित्य में इनका शाश्वत स्थान बनाये रखा है। महाकाव्यों का मुख्य उ ेश्य वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन के साथ मानवीय व्यवहार का पोषण एवम् संवर्धन है। ये संस्कृति के संगठित खजाने हैं। अब आप समझ सकते हैं कि यदि महाकाव्य लिखना है तो मानवीय मूल्यों जे समझौता नही हो सकता। मगर परेशानी यह है कि अगर आप समझौता नहीं हो सकता। अगर परेशानी यह है कि अगर आप समझौता नहीं करेंगे तो आपके रचे हुए काव्य को `महाकाव्य' की श्रेणी में रखेगा कौन? ये जो आदर्श और व्यवहार का द्वंद्व है, कवियित्री का इशारा उसी तरफ है। अपने रसात्मक एवम् कलात्मक गुणों के द्वारा कोई रचना काल बन जाये, यह आज के काव्य में संभव सा नहीं दिखता। क्योंकि इस त्रासदी भरे युग के रचना की होड़ रचना से नहीं अपने समय की विसंगतियाँ के बीच से निकलने के लिए आपको एक रचनाकार होने के नाते जो कीमत चुकानी पड़ेगी वह चुकाने के बाद आपके पास `मूल्यों' के रूप में कुछ बचेगा नहीं। और जो बचेगा वह `एपिक' या महाकाव्य नहीं हो सकता।
कविता को आगे बढ़ाते हुए कात्यायनी जी जीवन के एक दूसरे बड़े महत्त्वपूर्ण पर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते हुए लिखती हैं -
``प्यार किया एक मामूली आदमी की तरह
राशन-पानी जुटाया
सब्जियों की खरीदारी की
पूरी जिम्मेदारी के साथ।
भरपूर गुस्से के साथ
जुलूस में शामिल हुए मँहगाई के खिलाफ,
निष्ठापूर्वक गये हड़ताल पर।
नहीं बना सके एक शांत सुरूचिपूर्ण
अध्ययन कक्ष।''
यहाँ पर कात्यायनी जी आम व्यक्ति की तरह प्यार करने की बात स्वीकार कर रही हैं। लेकिन मन में सवाल यह उठ रहा है कि आम व्यक्ति का प्यार होता कैसा है? दूसरी बात यह कि वे `प्यार' की जिम्मेदारी के साथ कर रहीं है। कैसे ही जैसे भी जिम्मेदारी के साथ पाती जुटाना और सब्जी खरीदने का काम होता है। अगर आप लोगों को मामूली आदमी की तरह सब्जी खरीदने का अनुभव होगा, तो आप जानते होगे कि यह कितना कठिन काम है। मोल-भाव करना, बराबर तौलवान और जो आपने खरीदा उसकी गुणवत्ता भी अच्छी तरह --- तो जितनी सावधानी से आज का आम आदमी सब्जी खरीद रहा है, उतनी ही जिम्मेदारी से वह प्यार भी कर रहा है। वह प्रेम में भी व्यावहारिक दृष्टिकोण देख रहा है। आज प्रेम किसी के लिए तरक्की की सीढ़ी की तरह है तो किसी के लिए सामाजिक और आर्थिक सुरखा की गारंटी। आज जिस बाज़ारवादी संस्कृति में हम जी रहे हैं, वह हमें खुद बता रहा है कि हमें प्रेम को किस तरह जीना चाहिए। ``72 घंटों के भीतर एक गोली'' जैसे विज्ञापन बहुत कुछ कहते हैं। अब प्रेम एक हकीकत है। शायद कात्यायनी जी इसी ``आम आदमी वाले प्रेम'' को स्वीकार करती हैं। वैसे भी हीर-राँझा, सोनी-महिवाल और लैला-मजनू जैसा प्रेम आज के जमाने में किसी काम का नहीं रहा। जीवन की इसी विडंबना को कात्यायनी जी ने बड़े ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है।
कविता को आगे बढ़ाते हुए कात्यायनी जी लिखती हैं कि -
``जब एक उत्कृष्ट कविता
लिखने का समय था,
उसे हारे हुए समय में भी
लिख रहे थे दीवारों पर तारे।
जब लिखनी थी
अपने समय की सर्वाधिक चर्चित कहानी
लिख रहे थे हड़ताल का पर्चा
सामान्य ही रहे अंत तक।
यूँ हुए असफल।''
जब वे लिखती हैं कि जब एक उत्कृष्ट कविता लिखने का समय था, तो सवाल उठता है कि कौन सा समय उत्कृष्ट कविता को लिखने का होता है? फिर आगे वे लिखती हैं कि `` उस हारे हुए समय में भी तो पुन: प्रश्न उठता है कि समय कब, और किससे हारा हुआ था? जब तक हम इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज लेंगे, तब तक इन काव्य पंक्तियों के लालित्य को भी समझ नहीं सकेंगे। जहाँ तक मेरी अपनी सोच ओर समझ है, उसके अनुसार मुझे यह लगता है कि अगर हम यह मानते हैं कि ``कविता-भाषा में आदमी होने की तमीज हैं तो हमें यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ``कविता मानवता की मातृभाषा हैं।'' इस तरह कविता को रचनेवाला कठिन से कठिन अमानुषिक और आततायी व्यवस्था के बीच में भी मानवता और रचनात्मकता से बचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य अपनी कविता के माध्यम से करता है। स्पष्ट है कि हारे हुए समय में रची गयी कविता ही उत्कृष्ट कविता होगी। और यहाँ ``हारे हुए समय'' से अभिप्राय समय विशेष की परिस्थितियों में मानवी मूल्यों के बिखराव, विघटन और बिनाश से है। तो ऐसे समय में जीवन जी रहे व्यक्ति की आकांक्षा, व्यग्रता, उल्लास, अधूरापन, बेबसी, अवसाद और कसमसाहट को व्यक्त करने के लिए उसे अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए संवेदनशील रचनाकार कविता का सहारा लेता है। यहाँ पर वह जो कविता रच रहा है, उसमें `रचने' से ज्यादा `बचने' का भाव होता है। आवश्यकता से कहीं अधिक प्रश्न `अनिवार्यता' का होता है।
`किसी भी समाज में कविता स्वायत्त घटना नहीं होती' नामक अपने एक लेख में (सहस्त्राब्दी अंक तेरह 2003, आलोचना त्रैमासिक में प्रकाशित) कुमार अंबुज लिखते हैं कि, ``एक अच्छी ओर विश्वसनीय कविता में आवेगों, उत्तेजनाओं और ऊहापोहों का सम्मिश्रण भी संभव है। कविता कोई निर्णायक इतिहास रचे, ऐसी कामना एक अच्छा स्वप्न् है। ऐसा शताब्दीयों से होता है। इस लिहाज से समकालीन हिन्दी कविता के सामने चुनौती है। लेकिन फिर वही सवाल तो खड़ा होगा ही। यानी आप सोचते हैं कि समाज में बहुसंख्यक नागरिक लोलुप, भ्रष्ट, कायर, अवसरवादी और यथास्थितिवादी बनें रहे लेकिन कविता निर्णायक इतिहास रच दे। यदि कविता समाज की आँख है तो उसका `देखना' तब ही सार्थक और प्रतिफलित होगा जब शरीररूपी समाज के शेष अंग भी अपना काम मुस्तैदी से करें।''
तो उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हुआ कि उत्कृष्ट कविता लिखने का समय कौन सा है।? हारे हुए समय से ---- अभिप्राय है और इसी तरह अपने समय भी सर्वाधिक चर्चित कहानी लिखने का समय कौन सा है? कुल मिलाकर कवियित्री शायद यह कहना चाह रही हैं कि वे जिस कठिन परिवेश में जी रही है उसमें अच्छी रचनाधर्मिता के लिए पर्याप्त --- तो है लेकि उस अच्छी रचना के लिए अवकाश कहाँ? अवसर कहाँ है? साधन कहाँ है? समय तो बीत रहा है मँहगाई के खिलाफ जुलूस में शामिल होने में, दीवारों पर नारे लिखने में और हड़ताल के चर्चे लिखने में। किसी शांत सुरूचिपूर्ण अध्ययन कक्ष में बैठकर चिंतन-मनन के लिए न तो साधन ही हैं और नही उन साधनों को जुटाने के लिए अवकाश।
दरअसल `हड़ताल' `तारे' और `हड़ताल का पर्चा' जैसे शब्द भी मुझे प्रतीकात्मक से लग रहे हैं। ये शब्द किसी आंदोलन या क्रांति के प्रतीक न होकर राजनीतिक छलावे को अधिक अभिव्यक्त कर रहे हैं। मजदूर युनियनों और राजनीति एवम् पूँजीपतियों की साँठगॉठ से कौन परिचित नहीं है। दरअसल कविता समाज से अलग कोई स्वतंत्र या हवाई वस्तु नहीं है। अगर पिछले दो-तीन दशकों में समाज में कोई क्रांति या आंदोलन नहीं हुआ है तो उसकी अपेक्षा साहित्य में कैसे की जा सकती है। हाँ, आंदलनो का छलावा जरूर सामने आया है। जिसका शिकार यही सामान्य आदमी हुआ है जो, नारे और पर्चो में ही उलझा रहा। पर्दे के पीछे के सौदे से वे अनभिज्ञ रहे। मतलब की यहाँ भी - संघर्ष और आंदोलन के नाम पर सामान्य आदमी केवल और केवल छला गया। इसे किसी वस्तु की तरह इस्तमाल किया गया और छोड़ दिया गया वहीं जहाँ से उसे उठाया गया था। चुनावों और रैलियों में पैसे और खाने का लालच देकर ट्रकों में भर-भरकर इसी सामान्य व्यक्ति सेनारे दिलवाये जाते हैं। और `भीड़तंत्र' के छलावे में `लोकतंत्र' की नींव मजबूत करने का दावा किया जाता है। ऐसे लोग ही अंत तक सामान्य रहते हुए असफल रहते हैं। लेकिन इस छलावे के बीच भी जीवन जीने की तृषिता उनके जान जुड़ी होती है।
कविता के अंत में कवियित्री लिखिती हैं कि -
``अपनी सभी विलक्षण कारगुजारियों को
मानवता की सेवा में प्रस्तुत कर
न हो सके महान।
नहीं लिखेगा कोई गणमान्य कवि
एक शोकगीत
मेरे मरने के बाद।
यूँ होगा
एक कठिन
कहानी का

      सुखांत।''

भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का परिशोध, परिष्कार और निर्वाह करती डॉ. विद्या बिन्दु सिंह

     


डॉ. विद्या बिन्दु सिंह का जन्म 02 जुलाई सन 1945 . में उत्तर प्रदेश के जिले फैजाबाद के अंतर्गत जैतपुर, सोनावा में हुआ। आपकी माता प्राणदेवी और पिता देवनारायण सिंह जी थे। एक सामान्य और संस्कार संपन्न परिवार में जन्मी विद्या बिन्दु जी आज हिंदी साहित्य जगत के लिए एक सुपरिचित नाम हैं। शांत, सहज, सरल लेकिन साहित्य और लेखकीय जिम्मेदारियों के प्रति एकदम सजग। कविता, कहानी, निबंध, उपन्यास, संस्मरण और हाइकू तथा क्षणिकाएँ जैसी विधाओं में आपकी लेखनी सतत चल रही है। `बखरी के लोग' `अपनी जमीन', `बाघा बाबा का चौर' आपके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। `वधूमेध' `अमरवल्लरी', `कॉटों का वन' `वापस लौटे नीड़' `पल नि' और `तुमसे ही कहना है' आपके प्रमुख कविता संग्रहों में से हैं। `अंधेरे के बीच' `वे बेटियाँ' और `फूल कली' आपके प्रमुख उपन्यास हैं। आपके द्वारा लिखित नाटकों में `काकी रोना मत' और `अपना सब संसार' प्रमुख है। आपकी कुल प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 70 से अधिक है। `दिन-दिन पर्व' नामक आपकी पुस्तक समीक्षकों के बीच चर्चा का विषय बनी रही। इधर `राम काव्य' नामक आपकी कुछ पुस्तकें `बुक-ट्रस्ट ऑफ इंडिया' द्वारा प्रकाशित हुई हैं। अवधी लोक साहित्य बाल साहित्य, प्रौढ़ साहित्य, नवसाक्षर साहित्य और बाल व्याकरण से संबद्ध आपकी दर्जनों पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं।
जीवन के तमाम उतार-चढ़ावो को पूरे धैर्य, साहस संबल के साथ आत्मसाथ करते हुए आपने साहित्य सृजन के परिमल-विमल-प्रवाह को निरंतरता प्रदान की है। आप का साहित्य राष्ट्रीयता एवम् मानवियता के भावों से ओत-प्रोत है। राष्ट्रीय-सामाजिक जागरण की चेतना को ही आपने अपने कथा एवम् काव्य साहित्य का विषय बनाया। वह काव्य या साहित्य जिसके अंतर्गत  जीवन की शक्ति क्षीण होती है, उसका आपने कभी भी समर्थन नहीं किया । आप ने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के विकास को बल प्रदान किया। भारतीय परंपराएँ, तीज-त्योहार, रीति-रिवाज और धार्मिक मान्यताओं को आपने अपने साहित्य के माध्यम से सामने लाया। नारी मन की व्यथा, उसके सपने, उसकी आशाएँ और उसकी पीड़ा तथा घुटन को भी आपने विस्तारपूर्वक विवेचित किया है। अवधी लोक साहित्य पर भी आपने महत्त्वपूर्ण शोध-पूरक कार्य किया है। देश-विदेश की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं से संबद्ध हैं।
कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहते हुए, घर-परिवार की जिम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए आपने  अपनी साहित्यिक गतिविधियों को सतत जारी रखा हुआ है। दुख और अवसाद के क्षणों में भी साहित्य ही आपका संबल रहा। पति कृष्ण प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद आप अंदर से टूट चुकी थीं। चारों तरफ निराशा के बादल ही छाये थे। इन दिनों जब मैं `विद्या दीदी' से मिला तो मेरी भी आँखें भर आयीं। `हिन्दी की बिन्दी' वाली अपनी `विद्या दीदी' को पहली बार बिना सिंदूर और बिन्दी के देखना बड़ा कष्टकर रहा। लखनऊ में उनके आवास से लौटते हुए मन भारी हो गया था। मैं उनसे कुछ कह नहीं पाया था, औपचारिकता वश दुख जताने वाली तो कोई बात ही नहीं थी, वैसे भी मेरे संबंध औपचारिक नहीं होते। मुंबई वापस आकर कई बार लगा की `विद्या दीदी' से बात करूँ, पर क्या बात करूँ? यही नहीं समझ पा रहा था। वैसे भी 2-3 महीने में कभी-कबार ही तो उनसे बात होती है। उनके स्वास्थ्य, नई रचनाओं और साहित्यिक यात्राओं के संबंध में ही। इसबार तो समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या बात करूँ? फिर एक दिन अचानक मोबाईल पर `दीदी' का ही फोन आया। मन हर्ष से भर गया। दीदी ने मेरे लेखन, नौकरी, परिवार और कल्याण में रह रही अपनी छोटी बहन `अन्नू' के बारे में देर तक बात करती रहीं। फिर उन्होंने अपनी नई किताबो  ो  बारे में बताया और बोलते-बोलते भावुक होकर बोली ``अब लिखना-पढ़ना ही मेरी दवा है। इनसे ही स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।.... और न कोई तो इनका ही बड़ा सहारा भी।'' दीदी की बात एकदम सच साबित हुई। अब जब दीदी से मिलता हँू तो लगता है कि सचमुच साहित्य ने ही `विद्या दीदी' को सँभाल लिया।
`विद्या दीदी' का समग्र साहित्य सच्चाई और ईनामदारी के लिए लड़नेवाले रचनाकारों के भावबोध को अपने अंदर समेटे हुए है। पंक्ति में सबसे अंत में, हाशिये पर खड़े आम आदमी की अभिव्यक्ति को आपने हमेशा ही महत्त्वपूर्ण माना है। आज के इस बाजारवाद, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और भाई-भतीजावाद के युग में लोकतंत्र की जगह लूटतंत्र के खिलाफ खड़े होने का अदम्य साहस भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से दिखाया है। मंच पर आपको बोलते हुए सुनना एक सुखद अनुभूति होती है। `सुभद्राकुमारी चौहन स्वर्ण पदक', साहित्य महोपाध्याय सम्मान', `साहित्य श्री सम्मान', `हिन्दी की बिन्दी सम्मान', `राष्ट्रभाषा रत्न' सम्मान, `महादेवी वर्मा सम्मान',`जायसी सम्मान' और `विश्वभारती सम्मान' जैसे न जाने कितने की सम्मान के स्मृति चिन्हों से आपका घर भरा हुआ है। जो इस बात का प्रमाण है कि आपकी साहित्यिक प्रतिभा को समय-समय पर साहित्य जगत ने स्वीकार करते हुए आपकी निष्ठा, ईमानदारी और कर्मठता को नमन किया है। गढ़वाल, लखनऊ और पूणे विद्यापीठ से आपके साहित्य पर कई शोध कार्य हुए भी हैं और वर्तमान में हो भी रहे हैं। पूण विद्यापीठ से संलग्न सी.टी. बोरा महाविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. ईश्वर पवार जी ने हाल ही मुझे बताया कि उनके मार्गदर्शन में उनकी दो छात्राएँ एम.फिल का कार्य बिछा दीदी के साहित्य पर कर रही है। देशभर के कई अन्य विश्वविद्यालयों से भी आपके साहित्य पर शोध कार्य किये जाने की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से मिली है। लखनऊ और मुंबई आकाशवाणी से आपके साहित्य पर कई `लेख' भी ब्रॉडकास्ट हो चुके हैं। देश-विदेश की आपने अनेकों यात्राएँ की हैं। मॉरीशस, तूरीनामा, नार्वे, लंदन और कई खाड़ी एवम् पश्चिमी देशों में आयोजित होनेवाले साहित्यिक आयोजनों में आप सहभागी होती रही हैं।
आज की व्यवस्था में चापलूसी और जी हजूरी मानों भ्रष्ट व्यवस्था का एक अंग ही बन गया है। लेकिन `विद्या बिन्दु जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को देखकर साफ पता चलता है कि आपने न केवल पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर लिया अपितु अपनी सच्चाई और कर्मठता के दम पर कई मगरमच्छों को चारो खाने चित भी कर दिया। अभिव्यक्ति के अपने खतरे होते हैं, पर इन खतरों से आप कभी घबरायी नहीं। अपने आदर्शो, सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों के कारण जहाँ एक तरफ आपके विरोध में खेमा बना तो दूसरी तरफ आपके प्रशंसकों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही। निम्न भाव के लोगों को तो शुद्ध दलाली में ही दिलचस्पी होती है ऐसे लोगों का आपके विरोध में खडा़ होना सहज भी था। संबंधों की बत्तीसी के बीच बाहरवाला कर्कश लगता ही है। फिर भ्रष्ट आचरण और नैतिक रूप से पतित लोगों की आज के इस आत्मकेन्द्रिय युग में कोई कमी भी तो नहीं है। लेकिन पंडित विद्यानिवास मिश्र जी जैसे विद््वानों के आशीष और मार्गदर्शन ने आपको हमेशा ही ऊर्जा और संबल दिया। पंडित जी आपके प्रशंसकों में प्रमुख रहे।
आपका साहित्य सहज-सरल-सरस और मधुर है। जहाँ-जहाँ जरूरत रही वहाँ पर आपने व्यंग्य का चाबुक भी चलाया। औरतों के अस्तित्त्व और अस्मिता की लड़ाई में भी आपने अपने साहित्य के माध्यम से भरपूर योगदान दिया। आज के समय में भले ही कुछ औरतों ने अपने अधिकारों को हालिस कर लिया हो, लेकिन उनका जीवन अभी भी तमाम मुश्किलों और यातनाओं से भरा हुआ है। खेल से बाहर रखकर उन्हें खेल में हराने की प्रथा अभी तक बनी हुई है। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो औरतों को उनके उस लच्छे की तरह समझते हैं, जिसके बारे में यह विश्वास बना रहता है कि वह खुलने पर सिर्फ और सिर्फ उलझेगा। अत: उन्हें सुलझने का कभी मौका ही नहीं दिया जाता। आज भी औरतें उस आटे की तरह हैं जो आपने ही आसुओं और भावों में घुलती रहती हैं। स्त्री-विमर्श को लेकर जितना भी साहित्य लिखा जा रहा है, उसमें विद्या बिन्दुजी का साहित्य भी सहजता से शामिल किया जा सकता है। आपकी कई काव्य पुस्तकें, उपन्यास और नाटक नारी मन की वेदना और संघर्ष को ही लेकर लिखे गये हैं। अवधी लोक साहित्य में से अनेकों गीतों को खोजकर विद्या जी ने संग्रहित करने का कार्य है। इन गीतों में  नारी मन की पीड़ा को जिस तरह से चित्रित किया गया है। वह साहित्य में अनूठा है। आपके स्त्री विषयक लेखन की सबसे बड़ी विशेष्ता यह है कि आप स्त्रीवादी अति कटु और अति उग्र विमर्शो से बचते हुए उसके भारतीय परिप्रेक्ष्य को अधिक महत्त्व देती हुई दिखायी पड़ती है। यहाँ पर आप कथाकार अमरकांत की विचार शैली के बहुत करीब दिखायी पड़ती है। सड़ी-गली मान्यताओं और परंपराओं से अपने आप को काटते हुए राष्ट्रीयता की मूल चेतना से आप हमेशा जुड़ी रही है। यह आपकी प्रतिभा दृष्टि का ही परिणाम है कि आपने अपने साहित्य को एकतरफा या एकांगी नहीं बनने दिया। `विमर्शवाद' के तथाकथित चौह ी मं आपने अपनी लेखनी को संकुचित नहीं होने दिया। सहित के भाव के साथ आपने उदार रूप से उदात्त साहित्य की रचना को जो कि आपके व्यक्तित्व के सर्वथा अनुकूल भी है। हिन्दी साहित्य जगत में आप एक लोकप्रिय, ऊर्जावान, यशस्वी, तेजस्वी एवम राष्ट्रीय-सामाजिक मूल्यों को गति देनेवाली `प्रगतिशील' लेखिका मानी जाती हैं।
पूर्ण रूप से संपन्न, स्वतंत्र, उदार, संस्कारवान और विश्वबंधुत्व की भावना से भरे हुए भारतीय समाज का आपका सपना है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन और समीचीन समीकरण के ताने-बाने में समन्वय, समता, समानता और मानवता को आप प्रमुखता देती हैं। भारत वर्ष को आज जिस विश्वास, आशा, आदर्श, धैय और जीवन-दर्शन की आवश्यकता है, उसकी झलक आपके साहित्य में मिलती है। निराशा, कुंठा, दैन्य, आत्मग्लानि, हिंसा, आत्महीनता इत्यादी भाव बोधों से समाज को जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोजना रहता है जो आज के सुप्त समाज को जागृत कर सके। उसी चिंगारी की खोज हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपने अतीत, अपनी जड़ों में करना होता हैं। यही कारण है कि आप बार-बार लोक साहित्य की तरफ मुड़ती है। काम, क्रोध, मद, लोभ, और मात्सर्य जैसे विकार मानव मन को क्लुषित करते हैं। दया, प्रेम, करूणा इत्यादि भाव मानवीय गुणों का विकास करते हैं। आपके समग्र साहित्य को ध्यान से पढ़ने पर ही यह स्पष्ट होता है कि मानवीय संभावना के प्रसार के हर साहित्यिक आयाम में यज्ञ की आहुति की तरह दया और करूणा के भावों को आपने प्रेषित किया है। आप के साहित्य में भाषा परिष्कार साफ दिखायी पड़ता है। भाषा विज्ञान में दिलचस्पी रखनेवाले विद्ववान इस बात को आसानी से समझ लेंगे।
आप जहाँ व्यवस्था के नकारेपन पर चोट करती हैं, वहाँ भी तोष कम और होश अधिक दिखायी पड़ता है। आपके अभिव्यक्ति के केन्द्र और उसकी सीमा पर भी मानवीय वृत्ति ही है। ये वही वृत्तियाँ हैं जो आपके साहित्यिक सौंदर्यबोध को निखारती हैं भारत एक वैभवशाली राष्ट्र रहा है। ज्ञान-विज्ञान-कला-दर्शन-साहित्य-शिल्प लगभग सभी क्षेत्रों में हमारा कोई सानी नहीं रहा है। `मानवतावाद' और `राष्ट्रवाद' के जिस उदात्त स्वरूप को लेकर हमारे वेद-पुराण आगे बढ़ेउनका पूरी दुनिया की सभ्यता में कोई मुकाबला ही नहीं है। यह सही है कि समय के साथ-साथ कई तरह के आडंबर और शोषण धर्म के नाम पर होते रहे हैं, लेकिन हमारी अस्मिता की पहचान भी हमारे धर्म और राष्ट्र से जुड़ी है। हमें अपनी अस्मिता की अभिव्यक्ति और आत्मनिर्भरता को अपने मौलिक एवम जनउपयोगी रचना कर्म द्वारा बनाये रखना होगा। डॉ. विद्या बिन्दु सिंह जी का समग्र साहित्य उपर्युक्त बातों का ही जीवंत और ठोस प्रमाण है।
दूसरों के विचारों को यदि हम शिलाधर्मिता के रूप में स्वीकार करते रहेंगे तो हमारी मौलिकता कभी पनप ही नहीं पायेगी। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर किसी ने लिखा है कि:
``अपनी तस्वीर में अपना रंग जरूरी है।
जैसा भी हो, अपना ढंग जरूरी है।''
``जो रचेगा, वही बचेगा वाली उक्ति एकदम सही लगती है। यहाँ बचने का अभिप्राय सिर्फ व्यक्ति से संबंधित न होकर पूरी की पूरी सभ्यता, संस्कृति और मानवता की तरफ इशारा कर रही है। परिवर्तन की इच्छा और नवीनता के आग्रह में कोई बुराई नहीं है, किन्तु एक खास विचारधारा के चश्मे से अपनी हजारों-लाखें वर्षो की सभ्यता और संस्कृति को झुठलाना किसी भी तरीके से आधुनिक बोध का परिचायक नहीं हो सकता। इस बात को विद्या बिंदु जी ने अच्छी तरह समझा है। आप का साहित्य सही मायनों में राष्ट्रीय एकता, अखंडता और समप्रभुता का परिचायक है। आपके विचारों में नये और पुराने का समन्वय है। आप का विचार ठहरा हुआ नहीं अपितु गतिशील जल की तरह है। इसी संदर्भ में मैंने आपको `प्रगतिशील' लेखिका भी कहा।
गर्हित कुत्सित परंपरागत मूल्यों की वर्तमान युग में अनुपयोगिता को भी डॉ. विद्या बिन्दु सिंह ने अच्छी तरह समझा। यही कारण है कि हम उनके साहित्य को पुराणपंथी या प्राचीनता के आग्रह व मोह से युक्त नहीं समझते। सामाजिक हित की प्रतिज्ञाओं और समसामयिक साहित्यिक प्रवृत्तियों के बीच ताल-मेल कर साहित्य रचने का कार्य आप करती रही हैं। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपने लेखन कार्य किया है। सामाजिकता की झंझा और आदर्शो की संध्या के संधिकाल में राष्ट्रीय-मानवीय-चेतना को जो शंखनाद आपने किया है वह आत्मिक शुद्धता, सहिष्णुता और मानवता की साहित्यिक गाथा है। आपके काव्य में अध्यांतरिकता, आवेग दीप्ति, सहजस्फुरण, रागात्मकता, संगीतात्मकता, हार्दिकता, तीऋाता तथा कलात्मकता साफ दिखायी पड़ती है। आपका गद्य साहित्य विश्वसनीय, लोकोन्मुखी, जनचेतना, राष्ट्रधर्म, मानवीय विचारों का वाहक है।
साहित्य के जिस यथार्थ को पाने, पहचानने, जानने, मानने, पकड़ने और समझने की कोशिश लगातार होती रही है, उसी कसौटी में हम डॉ. विद्या बिन्दु सिंह के समग्र साहित्य को रख सकते हैं। व्यक्तिगत संबंधों के कारण हो सकता है मैं `कुछ' अतिशयोक्तिपूर्ण कह गया हूँ, लेकिन `बहुत कुछ' वही सत्य है जो सर्व विदित है।



वैश्विक स्तर पर आपस में जुड़ी संगणकीय शृंखला जो `पैकेट स्विचिंग' व्यवस्था के माध्यम से आपस में सूचनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, `इंटरनेट' के नाम से जानी जाती हैं। `पैकेट स्विचिंग' तंत्रीय शृंखलाओं के बीच का तंत्र है। विनटन सर्फ और राबर्ट कहन (Vinton cerf and Robert Kahad) 1973 में अपने एक शोध पत्र में पहली बार `इंटरनेट' इस शब्द का प्रयोग करते हैं। इंटरनेट की शुरूआत कब से हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन `इंटरनेट' के विकास से संबंधित धारणाएँ एवम् तकनीक का निर्माण 1946 के आप-पास हो जाता है। कई वर्षो तक वैज्ञानिक इस क्षेत्र में प्रयास करते रहे। अगस्त 1991 में वर्डवाइड वेब की शुरूआत से `इंटरनेट' के आम उपयोग से संबंधित धारणा को बल मिला। यह तो ठीक है कि आज इंटरनेट सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है, पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि इंटरनेट सीमा विहीन है। शायद इसीकारण विद्ववान इसे `Border Land' कह कर संबोधित करते हैं। आम आदमी के लिए इंटरनेट वह क्षेत्र है जहाँ पर वे आपस में संवाद, व्यापार, मनोरंजन और ज्ञान से जुड़ी सकते हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध तमाम `सोशल नेटवर्किंग साइट्स' एक ऐसी व्यवस्था सामने लाती हैं, जहाँ अपने देश, समाज और परिवार से दूर रहकर भी आप इनसे जुड़ सकते हैं। देश विशेष के लोगों एवम् उनकी संस्कृति से जुड़ने और इस संदर्भ में जानकारी प्राप्त करने का सबसे सस्ता और सुलभ मार्ग इंटरनेट का है।
दरअसल उपनिवेशवाद ने पूरी दुनियाँ में पूँजीवाद को बढ़ावा दिया। जिसके फलस्वरूप औद्योगीकरण और तकनीकी विकास की गति तेज हुई। `सुदृढ आर्थिक व्यवस्था' वह नया मापदंड था जो किसी राष्ट्र को ताकतवर बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। पूँजीवाद के सहायक के रूप में मीडिया ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की। इसमें भी इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका विशिष्ट थी। आज़ादी के बाद भारत स्वरूप सूचना और प्राद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति हुई। भारत दुनियाँ का दूसरा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र है। जनसंख्या की दृष्टि से भी भारत दुनियाँ का दूसरा सबसे बड़ा देश है। विश्व किसी भी राष्ट्र की तुलना में यहाँ भाषायी और भौगोलिक विभिन्नता धर्म, जाति और संप्रदाय के लोग यहाँ रहते हैं। इसी कारण भारत को `विविधताओं से भरा देश' कहा जाता है। यह देश लंबे समय तक अंग्रेजों का उपनिवेश रहा। इसी कारण अंग्रेजी यहाँ `इंटर कम्युनल बिजनेस' की भाषा के रूप में उभरी। इस देश में जितने लोग रहते हैं उससे कहीं अधिक देवी-देवता पूजे जाते हैं। यह देश एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की 70  आबादी गाँवों में बसती है। आज भी इस देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। जीवन यापन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से वह वंचित है। भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, अफसरशाही, अलगाववाद, आतंकवाद और मौका परस्ती की राजनीति ने इस देश का बहुत अहित किया और लगातार कर भी रही है। इन सारी परिस्थितियों के बीच हमनें सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व में नाम कमाया है। लेकिन इस क्षेत्र में करने के लिए अभी बहुत कुछ है।
एक साधारण सी बात यह है कि अभी तक हम हिंदी में संगणक कुंजीपटल तक नहीं बना पायें हैं। आज भी किसी हिंदी फॉन्ट में डी.टी.पी. गंभीर समस्या है। कारण यह है कि अंग्रेजी में डी.टी.पी. की तकनीक जितनी विस्तृत और सुलभ है, उतनी हिंदी में नहीं। यह तो सच है कि `गूगल' जैसे सर्च मशीन पर हिंदी में `खोज की सुविधा' उपलब्ध है लेकिन इसके उपयोग में कई व्यवहारिक और तकनीकी कमियाँ हैं। `आर्कुट' और अड्डा डॉट काम' जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स में भी हिंदी में संदेश भेजन की व्यवस्था है, किंतु कई बार शब्दों का सही रूप लिखना या खोजना बड़ा ही उबाऊ काम हो जाता है। हाल ही में `गूगल' ने अनुवाद को लकर नई पहल की है। गूगल की इस नई व्यवस्था के अंतर्गत आप अपनी बात अंग्रेजी में टाईप करते जाइये और उसका हिंदी में अनुवाद अपने आप होता जायेगा। यह अपने आप होता जायेगा। यह अपने आप में बहुत बड़ी पहल है, लेकिन अभी इसमें कई खामियाँ हैं। अनुवादित हिंदी वाक्य कई बार हास्यास्पद स्थितियों में सामने आते हैं। यह बात कहने में मुझे बिलकुल संकोच नहीं है कि भारत में जिस तेजी से इंटरनेट का विकास और विस्तार हुआ, उतनी तेजी हिंदी के विकास, विस्तार और इसके प्रयोग को लेकर दिखायी नहीं पड़ती। यह तो सच है कि पूरी दुनियाँ में इंटरनेट का उपयोग करने वालों में भारत का स्थान दूसरी है, लेकिन अब भी भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इंटरनेट के ज्ञान एवम् उपयोग से वंचित है। सरकार इस संदर्भ में ठोस पहल कर रही है। कई योजनाएँ अमल में ला रही है। विशेष तौर पर भाषायी प्रौद्योगिकी के विकास से संबंधित परियोजनाएँ। भारत में प्रौद्योगिकी विकास और उसके साथ इंटरनेट एवम हिन्दी की प्रगति यात्रा का संक्षिप्त परिचय हम यहाँ प्राप्त करेंगे।
भारत में प्रौद्योगिकी विकास की योजनाएँ 1980 के दशक से ही प्रारंभ हो गयीं थी। लेकिन 1997 में भारतीय जनता पार्टी ने सूचना और प्रौद्योगिकी को चुनावी मु ा बनाया। मई 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री. अटल बिहारी बाजपेयी जी ने `नेशनल आई.टी.टास्क फोर्स' गठित की। उनका स्पष्ट मानना था कि - `सूचना और प्रौद्योगिकी ही भारत का भविष्य है।' यह एक नई दृष्टि थी जो इक्कीसवीं शती की दहलीज पर खड़े भारत को नई पहचान दिला रही थी। इस दूर दृष्टि में वह शक्ति थी जो दुनियाँ के अन्य देशों के साथ भारतीय संबंधो के समीकरण को भी बदल सके। इस दूर दृष्टि में भारतीय उद्योग के मूलभूत ढाँचे को बदलने की भी ताकत थी। सन 1998 से `आई.टी.ऍक्शन प्लान' कई संशोधनों एवम् परिवर्तनों के साथ कार्यानवयन के दौर से गुजरा। वर्ष 1999 में `द न्यु टेलीकम्युनिकेशन पॉलीसी' की शुरूआत हुई। वर्ष 2000 से इलेक्ट्रॉनिक ट्रान्जेक्शन' जैसी बातें संभव हो सकीं। इसी के फलस्वरूप कोर बैंकिग की सुविधा प्रारंभ हुई। इंटरनेट बैंकिंग और मोबाईल बैंकिंग की भी सुविधा सहज हो पायी। `प्लास्टिक मनी' और `प्लास्टिक क्रेडिट' ने हमारी जीवन शैली को प्रभावित किया। `कॉल सेंटर', `बी.पी..' `आउट सोर्सिंग' और इस तरह के अनेकों अवसर इस वर्ग को मिलने युवा वर्ग को आकर्षित किया। आमदनी और रोजगार के अनेकों अवसर इस वर्ग को मिलने लगे। इस वर्ग की `क्रय शक्ति' बढ़ गयी। परिणामस्वरूप भारत के छोटे-बड़े शहरों में मॉल और मल्टीप्लेक्स जैसी बातों का नया दौर सामने आया। `ब्रेन ड्रेन' जैसी बातों पर काफी हद तक रोक लगी। वैश्वीकरण और बाज़ारवादी युग में भारत सबसे बड़े बाज़ार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुआ।
सन 1998 तक भारत में टेलीकॉम इंडस्ट्री की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय भारत में प्रति सौ व्यक्ति के बीच एक लैंडलाईन फोन उपलब्ध था। और हर एक हजार व्यक्ति के बीच दो व्यक्तिगत कंप्युटर। सन 1990 तक भारत सरकार का सभी प्रकार की संचार प्रणाली में एकाधिकार था। लेकिन धीरे-धीरे उदारीकरण की नीति अपनाते हुए इसमें बदलाव किया गया। `महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड' और `विदेश संचार निगम लिमिटेड' का गठन इसी दिशा में उठाया गया महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके बाद से ही निजी टेलीकॉम कंपनियों को लाइसेंस प्रदान किया गया। इन सारी कंपनियो ने जो बुनियादी ढाँचा विकसित किया और जिस तरह से देशभर में विस्तार की योजना को कार्यान्वित करती रही; उससे इंटरनेट के विकास की पृष्ठभूमि अपने आप बनती गयी। इन्हीं कंपनियों के सूचनातंत्र को `ट्रान्समीशन कन्ट्रोल प्रोटोकॉल / इंटरनेट प्रोटोकॉल' में बदलकर इंटरनेट का हिस्सा बनाया गया। दरअसल सन 1986-87 में ही भारत सरकार ने `कंप्युटर नेटवर्किंग स्कीम' को कुछ हिस्सों में बाँटकर कार्यान्वय की योजना बना चुकी थी।  इसी के साथ `कंप्युटर मेंटीनेन्स कॉरपोरेशन (सीएमसी) का भी गठन किया गया। सन 1987 में ही `नेशनल इनफॉरमेटिक सेंटर' के माध्यम से `वास्ट' `वेरी स्मॉल अपॅरचर टरमिनल' नामक देश का पहला सेटलाईट नेटवर्क शुरू हुआ, जिसके माध्यम से सरकारी ऐजंसियों तक `डेटा' पहुँचाना संभव हो सका। इसी के माध्यम से देश की राजधानी सभी राज्यों व देशभर के 531 मुख्यालयों से जु़़ड सकी। इसी के फलस्वरूप `ईमेल', डेटा ब्रॉडकास्टिन्ग' `इलेक्ट्रानिक डेटा इंटर चेन्ज' और आपातकालीन संचार प्रणाली जैसी सेवाएँ प्रारंभ हो सकीं। व्हीएसएनएलने `ग्लोबल पैकेट स्विचड सर्विस (जीपीएसएस) की शुरूआत की जिसकी क्षमता 64 किलो बाईट पर सेकेन्ड (केबीपीएस) थी। इसके माध्यम से कलकत्ता, मुंबई और नई दिल्ली को `हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्शन' से जोड़ा गया। व्हीएसएनएलने ही `गेटवे इलेक्ट्रानिक मेल सर्विस (जीइएमएस400) की शुरूआत की। इसी के माध्यम से आगे चलकर इलेक्ट्रानिक मेल (ईमेल) का रास्ता प्रशस्त हो पाया। डॉट नेटवर्क के माध्यम से देशभर में `पैकेट स्विच्ड सर्विस की शुरूआत हुई।
इसी तरह `द एज्युकेशन ऍन्ड रिसर्च नेटवर्क' (इआरएनइटी) की स्थापना 1986 में शिक्षा विभाग और सात सरकारी संस्थाओं की मदद से की गयी। इस परियोजना के लिए आर्थिक सहायता `यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेन्ट प्रोगाम (यूएनडीपी) के माध्यम से मिली। इस परियोजना का उ ेश्य ही था कि राष्ट्रीय स्तर पर संगणकों की एक शृंखला शैक्षणिक शोध कार्यो हेतु बनायी जाय। `एनसीएसटी' (नेशनल सेन्टर फॉर स्वाफ्टवेअर टेकनॉलजी) नामक एक निजी संस्थान ने भारत में इंटरनेट के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यह भारत में पहली संस्था थी जिसने भारत को अंतर्राष्ट्रीय इंटरनेट सेवा से जोड़ा और प्रबंधन की पूरी जिम्मेदारी ली। फरवरी 1989 से `एनसीएसटी' और `यूयूएनइटी' (यूनिक्स टू यूनिक्स नेटवर्क टेक्नॉलजी इन यूनाइटेड स्टेट्स) के बीच 9.6 केबीपीएस के माध्यम से इंटरनेट सेवा प्रारंभ हुई। सन 1995 से `एनआयसीएनइटी' ने `व्हीएसएनएल' के माध्यम से सरकारी कार्यों से जुड़े लोगों के लिए `वेब पेजेस्' की सेवा प्रारंभ की।  जून 1998 में व्हीएसएनएल ने सीमलेस सर्विसेस लि. (व्हीएसएसएल) सेवा प्रारंभ की, इसके माध्यम से वीडिओ कॉनफ्रेनसिंग जैसी बातें भारत में संभव हो पायीं।
सन 1991 में ही सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने `स्वॉफ्टवेयर टेकनॉलजी पार्कस ऑफ इंडिया (एसटीपीआय) की स्थापना की। `द कम्युनिकेशन कनवरजेन्स बिल 2000' के माध्यम से ब्रॉडकास्ट, टेलीकम्युनिकेशन और इंटरनेट के विकास की योजनाओं को गति मिली। यद्यपि इस बिल के साथ कई विवाद भी जुुड़े रहे पर अंतत: यह संसद द्वारा पारित हो गया। ईमेल एन्ड इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडिंग असोसिएशन (इआयएसपीए) के माध्यम से भी कई कंपनियां ने भारत में इंटरनेट सेवा से जुड़कर इसके विकास को नये आयाम दिये। `सीजी फैक्स सर्विस' `एच.सी.एल.' `आयएसपी डिवीजन' `सत्यम इन्फो वे', `डेटा प्रो' `विप्रो कम्युनिकेशन डिवीजन' और `जी.. कम्युनिकेशन्स कुछ ऐसी ही कंपनियाँ है। ये सभी `इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के रूप में सामने आये। इनकी सेवाओं के फलस्वरूप वर्ष 2001 के बाद इंटरनेट का उपयो करनेवालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई।
इसी तरह भाषायी प्रौद्योगिकी के विकास को लेकर भी कई कदम उठाये गये। सन 1990-91 में ही सरकार ने `टेकनॉलजी डेवलपमेंट ऑफ इंडियन लैंग्वेजेस! (टीडीआयएल) नामक परियोजना शुरू की। बाद में देश भर में 13 `रिसोर्स सेन्टर' स्थापित किए गये। जिनका काम ही है तकनीकी क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की समस्याओं को हल करना। टीडीआयएल का उ ेश्य ही है, ``डीजिटल यूनिट एण्ड नॉलेज फॉर ऑल'' इसी उ ेश्य की पूर्ति के लिए भारतीय भाषाओं में कई पोर्टलस्, लैन्गवेज प्रोसेसिंग टूल्स और ट्रान्सलेशन मेमरी टूल्स बनाये जा चुके हैं। आज हिन्दी में अनेकों पोर्टल्स, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साईट्स, -मेल भेजने और पाने की सुविधा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इतना ही नहीं हिन्दी भाषा, साहित्य, व्याकरण और अनेकों शब्दकोश इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। हिन्दी प्रिन्ट मीडिया का अधिकांश कार्य ही इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से हो रहा है। एक ही समाचार पत्र के कई संस्करण इंटरनेट की मदद से ही अलग-अलग स्थानों से सुनियोजित तरीके से निकल रहे हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि इंटरनेट पर उपलब्ध 80  से अधिक जानकारी अंग्रेजी भाषा में है, जब कि दुनियाँ की सिर्फ 8  आबादी अंग्रेजी बोलती है। इससे साबित होता है कि अन्य किसी भी भाषा में प्रौद्योगिकी का विकास उतना नहीं हुआ जितना की अंग्रेजी में। जहाँ तक प्रश्न हिन्दी का तो इस क्षेत्र में सरकारी और निजी संस्थाओं द्वारा कई प्रयास हो रहे हैं। कारण यह है कि भारत इस समय दुनियाँ के लिए सबसे बड़े बाज़ार के रूप में उभरा है। इस बाज़ार में उसी का सिक्का चलेगा जो इस बाज़ार की भाषा बोलेगा। हिंदी भारत के एक बड़े भू भाग पर बोली जाती हैं। पूरे देश की 41.6  आबादी हिन्दी ही बोलती है। अत: हिन्दी को नजर अंदाज करना अब संभव नहीं है। शायद यही कारण है कि पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अपने नागरिकों को हिन्दी सीखने की सलाह दी।
हिन्दी भाषा से संबंधित जो प्रौद्योगिकीय विकास हुए हैं और हो रहे हैं; उनमें से कुछ की चर्चा हम यहाँ करेंगे। `कन्टेन्ट क्रियेशन इन इलेक्ट्रानिक फार्म', `टैम्ड कॉरपस ऑफ हिन्दी', `हिन्दी विश्वकोश', `भारत भाषाकोश' जैसी चीजों का निर्माण हो चुका है। इनके अतिरिक्त मुंबई युनाइटेड नेशन की आर्थिक सहायता से `वर्ड नेट फार हिन्दी' परियोजना पर कार्य कर रही है। मशीनी अनुवाद के लिए यह परियोजना काफी सहायक होगी। लिनेक्स के माध्यम से हिन्दी सर्च मशीन की शुरूआत हो ही गयी है। आयआयटी कानपुरद्वार `हिन्दी बुलटेन बोर्ड सिस्टम' पर काम हो रहा है। यह बोर्ड मनपसंद विषयों पर हिन्दी में लेख लिखने, संवाद करने और उन्हें सुनियोजित तरीके से सँभालकर रखने की व्यवस्था प्रदान करेगा। इसी तरह हिन्दी में ई-मेल भेजने और प्राप्त करने की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए `मल्टी लिन्गुअल ई-मेल क्लाइन्ट' का विकास किया जा चुका है। हिन्दी और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के संदर्भ में `स्पेल चेकर्स'' विकसित किये जा चुके हैं। `लीप ऑफिस 2000' पूरी तरह भारतीय भाषाओं से संबंधित स्वाफ्टवेयर है जिसका ऑफिस 2000' पूरी तरह भारतीय भाषाओं से संबंधित स्वाफ्टवेयर है जिसका प्रयोग `विन्डोस्'' पे किया जा सकता है। `आयलिप' इंटरनेट के लिए तैयार किया गया भारतीय भाषाओं का `वर्ड प्रोसेसर' है। `अनुसारका' नामक `लैन्गवेज असेसर' की मदद से एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा में अनुवाद आसान हो गया है। `मात्रा' नामक `मशीन एडेड ट्रान्सलेशन सिस्टम' विकसित किया गया है। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद के लिए इसका उपयोग ज्यादा तर समाचार एजन्सियों द्वारा किया जाता है। सूचना और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रयोजन एजन्सियों द्वारा किया जाता है।  सूचना और प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रयोजन मूलक हिन्दी का बी..एवम् एम. .का पाठ्यक्रम बनाया जा चुका है। इसी को हम `आयटी-इनरिचड् करीकुला' के नाम से जानते हैं।
ठीक इसी तरह Computational linguistic और Language Engineering के पाठ्यक्रमों की भी ठोस योजना बनायी जा चुकी है। इतना ही नहीं www.tdil.gov.in अपितु नामक वेबसाइट पर जाकर आप हिन्दी से संबंधित कई तकनीकी सुविधाएँ मुफ्त में `डाउन लोड' कर सकते हैं। जैसे कि भारतीय भाषाओं से संबंधित कुंजीपटल एवम् फॉन्ड्स, स्पेल चेकर, आयलिप और ऐसी ही कई अन्य सुविधाएँ। www.epatra.com; www.mailjol.com; www.langoo.com; www.cdacindia.com और www.vishwahindi.com कुछ ऐसी ही वेबसाइट्स हैं जो इंटरनेट पर हिन्दी से संबंधित जानकारी एवम् तकनीक उपलब्ध कराती हैं।
समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि भारत में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति हुई है। इंटरनेट के विस्तार ने इस विकासशील राष्ट्र की प्रगति को गति प्रदान की है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं से संबंधित कई तरह की तकनीक विकसित हो रही है। इन सारी स्थितियों के बीच आवश्यकता है और अधिक सुनियोजित, व्यवस्थित और व्यवहारिक प्रौद्योगिकी के विकास की। जिससे हिन्दी में कामकाज इंटरनेट पर अत्याधिक सरलता और सहजता के साथ किया जा सके। साथ ही हिन्दी के माध्यम से इंटरनेट और इंटरनेट के माध्यम से हिन्दी और अधिक व्यापक रूप में फैले तथा राष्ट्र की प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दें। इंटरनेट और हिन्दी की यह प्रौद्योगिकीय सापेक्ष विकास यात्रा पूरे भारत वर्ष के लिए मंगलमय हो।
                               
                                     डॉ मनीष कुमार मिश्रा 


संदर्भ ग्रंथ:-
1) Language Technology Development of India Dr. Om Vikas
2) Internet (from wikipedia, the free encyclopedia)
3) Global diffusion of the Internet - Peter wolcott, seymour Goodman
4) Google search machine
5) Globlisation and the Internet : A Research Report - Rohitashya Chattopadhyay
6) Understanding Languge as Communication - T. Pandey



हिन्दी स्थिति, गति और प्रगति



मुझे आजकल यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि ``भारत पूरी दुनियाँ के लिए सिर्फ एक बाज़ार बनकर रह गया है।  दरअसल इस तरह की बात करनेवाले अधिकांश लोग यह बात बड़े दुखी मन से, मुँह विकृत करके और तमाम समसामायिक वैश्विक गतिविधियों को पतन की दिशा में अग्रसर मान कर ऐसा कहते हैं। उन्हें पता नहीं क्यो यह लगता है कि जो हो रहा है वह बहुत बुश है। धर्म और दर्शन के इस देश को बाज़ार के रूप में इस इक्कीसवी शटी में एक नई और सशक्त पहचान मिल रही है; यह कईयों के लिए दुख का विषय हो सकता है पर मेरे लिए और सशक्त पहचान मिल रही है; यह सुखात्मक अनुभूति का विषय है। क्योंकि भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के युग मं बाज़ार ही जीवन की संजीवनी है। और यदि हम इस संजीवनी का सुमेरू पर्वत हैं तो निश्चित तौर पर यह आनंद, गर्व और सुखात्मक अनुभूति की बात है। साथ ही साथ एक सच्चाई यह भी समझनी होगी कि `सिर्फ बाज़ार बन ज़ाना' कोई साधारण बात नहीं है। इस इक्कीसवी शटी में बाजार बन जाने का अर्थ है निरंतर विकास, प्रगति, संपन्नता, क्रर्यशिक्त में वृद्धी, रोजगार, शिक्षा, तकनीक, समानता, कानून, समान अवसर, प्रतियोगिता, सम्मान, जात-पात की बंधन से मुक्तता और स्वावलंबन। इसलिए बदले वैश्विक परिदृश्य में अगर कोई राष्ट्र पूरे विश्व के लिए एक बाज़ार बनकर उभर रहा है तो वह उत्पादक, उपभोक्ता और इनके बीच `लाभ के लिए होनेवाले व्यापार का सबसे बड़ा लाभार्थी भी है। इसे हमें अच्छी तरह समझना होगा। आज हम एक गुलाम उपनिवेश के रूप में बाजार नहीं बन रहे हैं अपितु दुनियाँ के सबसे बड़े स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र के बाज़ार के रूप में उभर रहे है। इसलिए डरने की आवश्यकता नहीं इसीबात की है कि इस बाजारवाद और भूमंडळीकरण की वैश्विक गति के बीच से ही हम अपनी राष्ट्रीय प्रगती को सुनिश्चित करें। और पूरी दुनियाँ के सामने एक आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श के रूप में सामने आयें।
आज भारत अगर पूरी दुनियाँ के सामने शिक्तशाली बाज़ार के रूप में उभरा है तो हिंदी भाषा भी इस बाजार की सबसे बड़ी शिक्त के रूप में सामने आयी है। क्योंकि बाज़ार में व्यापार बिना आपसी समझ के संभव नहीं है। इस `आपसी समझ' में सहजता तरलता और विश्वास पैदा करने का काम हिंदी ने किया है। इसका फायदा बाज़ार को भी हो रहा है, हिंदी को भी हो रहा है और हिंदी से जुड़े लोगो को भी। इसबात का अंदाजा इसीबात से लगाया जा सकता है कि दुनियाँ के सबसे ताकतवर राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति श्रीमान बुश ने हाल ही के दिनों में अमेरिकियों को हिंदी सीखने की सलाह दी। अगर मान लूँ कि भारत दुनियाँ का सबसे बड़ा बाज़ार है तो इस बाज़ार में हिन्दी की जयजयकार अनिवार्य है। हिंदी को जो सम्मान, जो अधिकार हमारी संविधान देना चाहता था वह कटिपत्र कारणों से व्यवहारिक धरातक पर अभी तक संभव नहीं हो पाया। पर आज का भारतीय बाज़ार इस दिशा में आशा की एक तेज किरण है। जिस तरह भारतीय बाज़ार में हिंदी का बोलबाला बढ़ रहा है, उसे देखकर अब यह लगने लगा है कि हिंदी आनेवाले दस-पन्द्रह सालों के बाद सही अर्थो में राष्ट्रभाषा और राजभाषा बन ही जायेगी।
हमारे इस महान भारत देश को लोकतांत्रिक ढाँचा जिस संविधान पर टिका हुआ है, उसी संविधान के अनुच्छेद 343, राजभाषा अधिनियम 1963 (यथा संशोधित 1967) के अनुसार बनाये गये नियम एवम् समय-समय पर जारी होनेवाले सरकारी आदेशों का अभिप्राय केवल इतना होता है कि हिन्दी को काम-काज में अंग्रेजी का स्थान लेना है। सारी विभागीय कसरत इसी उ ेश्य को केन्द्र में रखकर के की जाती है। पर यह बात विविधताओं से भरे इस देश के लिए कुछ हद तक आसान नहीं रही तो एक बहुत बड़ी हदत तक इसे आसान होने नहीं दिया गया। क्षेप्रियता की राजनीति, भाषा की राजनीति और अवसरवादिता के चूल्हे पर कई लोग अपनी रोटी सेकते रहे। जिस हिंदी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में अबतक शासकीय कार्यो में रीढ़ की हड्डी बनी नही  अपितु कईयों के लिए गले की हड्डी जरूर बनी रही। जिसे न तो निगलते बने और नही उगलते। ग ीवाले ही नहीं र ीवाले भी इस हिंदी का मूल्य कम ही आकते रहे। लेकिन उदारीकरण, बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण और निजीकरण की आँधी ने हवा का रूख मोड़ दिया है। अकेले विज्ञापन का कारोबार भारत में 10 बिलियन डालर से अधिक का हो गया है। हर वर्ष से इस क्षेत्र में 30 से 35 प्रतिशत व्यापारिक पूँजी की बढ़ोत्तरी का अनुमान लगाया जा रहा है। विज्ञापन की दुनियाँ हिन्दी को किस तरह हॉथों-हॉथ बढ़ा रही है, उपयोग में ला रही है, इस्तमाल कर रही है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। चाहे-अनचाहें आप विज्ञापन देखने के लिए मजबूर हैं, पर आपकी इस मजबूरी में हिंदी की मजबूती आपके सामने हैंं। यहाँ पर भी कुछ लोग बाजार की यह कहकर आलोचना करते है कि वह हिंदी को बढ़ावा नहीं दे रही अपितु इस्तमाल कर रही है। अब ऐसे महानुभावों को मैं कैसे समझाऊँ कि भाषा को इस्तमाल कर रही है। अब ऐसे महानुभावों को मैं कैसे समझाऊँ कि भाषा को इस्तमाल करना ही उसे बढ़ावा देने का सबसे कारगर तरीका है।
जहाँ तक बैंकिंग क्षेत्र में हिंदी के विकास की बात है तो वर्ष 2003-04 से लेकर अबतक (2007-08) की आर.बी.आय. की वार्षिक रिपोर्ट तथा दिसंबर 2007 में प्रकाशित `भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति एवम प्रगति संबंधी रिपोर्ट 2006-07 के हवाले से ज्ञात होता है कि - 1990 के दशक से ही विश्व बैंकिंग उद्योग में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। परिचालन, भूमंडलीकरण, विनियमन और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के सहारे यह क्षेत्र निरंतर प्रगति कर रहा है। गहन प्रतिस्पर्धात्मक कारोबार का दबाव भी इस क्षेत्र पर पड़ा है। पर सहज विस्तार और अधिग्रहण की नीति को अपना कर बैंकिंग क्षेत्र अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा है। सांगली बैंक का आय.सी.आय.सी. बैंक द्वारा और हल ही में सेन्चूरियन बैंक ऑफ पंजाब का एच.डी.एफ बैंकद्वारा अधिग्रहण इस बात के ही नये उदाहरण है। कृषि प्रधान भारत देश में किसानों की मानसून पर निर्भरता और इसके कारण उन्हें होनेवाली परेशानियों की समझते हुए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने आपदाग्रस्त किसानों के लिए शहर के तौर पर ऋण गारंटी योजना अमल में लाने के लिए सक्रिय हुई। जिसमें आर.आर.बी. ग्रामीण सहकारी बैंकों सहित सभी वाणिज्य बैंकों को अनिवार्यत: शामिल होना पड़ा। इसपर भी देशभर में बढ़ती किसानों की आत्महत्या ने सभी का ध्यान किसानों की समस्याओं की तरफ खींचा। नतीजतन सरकार ने तत्काल राहत प्रदान करने हेतु सभी छोटे किसानों की 50,000 तक की राशि का कर्ज माफ कर देने का निर्णय लिया। इससे साठ हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार अर्थव्यवस्था पर पड़ा, किंतु हमारी अर्थव्यवस्था इसे झेल लेगी, ऐसा विश्वास विशेषज्ञों एवम् सरकार ने दिलाया। डाटा केन्द्रों की स्थापना, केन्दीकृत प्रणाली और कोर बैंकिंग का बृहद पैमाने पर कार्यान्वयन हमें आज बैंकिंग सेक्टर में दिखायी पड़ता है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने तो करीब दस हजार शाखाएँ पूरे देश में फैला दी हैं। उसकी इसी विस्तारक नीति के फलस्वरूप हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने असम के नए जिलों अर्थात उदालगुड़ी, चिरंग और बक्सा के लिए भारतीय स्टेट रिजर्व बैंक को अग्रणी (लीड) बैंक बनाने का निर्णय लिया है। भारत में अब भी बैंकों का अधिकतर कारोबार बड़े शहरों की ओर हो रहा है। ग्रामीण अंचलो तक बैंको की सेवा उपलब्ध कराने के लिए वर्ष 2006 से यह अनिवार्य किया गया कि किसी भी बैंक की नई शाखा खोलने के लिए उसका अनुमोदन रिजर्व बैंक से लिया जाय। और रिजर्व बैंक ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी बैंक की जो नई शाखाएँ खोली जा रही है उन शाखाओं में से आधी `कम बैंकिंग सुविधायुक्त क्षेत्रों' में खोली जायें। इन सभी के बीच वर्ष 2006 के दौरान 5.5  वृद्धी के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था ऊँची वृद्धि जारी रही। भारत से 09.05  की तेज वृद्धि रही। वर्ष 2007-08 के लिए यह वृद्धि कम करके 8.5  तक ऑकी जा रही है। पर वैश्विक उत्पादन में वृद्धि की अगवाई उभर रहे एशिया ने ही की। अमेरिका मंदी का प्रभाव पूरी दुनियाँ पर है पर भारत की विकास प्रक्रिया जारी है। विकासमान एशिया में मुद्रास्फीति वर्ष 2000-2004 के 2.6  से बढ़कर वर्ष बढ़कर वर्ष 2005 में 3.6  और 2006 में 4.0  तक हो गयी है।
दिनांक 08 मार्च 2008 के टाइम्स ऑफ इंडिया के (मुंबई संस्करण) में एक लेख छपा जिसमें       के हवाले से यह बताया गया कि ``     रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जतायी गई कि आनेवाले दिनो में भारत चीन की तुलना में विकास प्रक्रिया में कहीं आगे निकल जायेगा। साथ ही साथ इस प्रगती में भारत के   की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी। इन सारी बातों की यहाँ पर चर्चा करने के पीछे दो महत्त्वपूर्ण उ ेश्य हैं। पहला यह कि भारत की मजबूत अर्थव्यवस्था को बैंकिंग की प्रगति के आधार पर हम समझ सकें और यह भी समझ ले कि भारत में बैंकिंग से जुडी सरकारी नीतियाँ सामाजिक सरोकारों, राष्ट्रीय उ ेश्यों की पूरक भी होती हैं। राष्ट्र का विकास के अंतर्गत सिर्फ आर्थिक विकास महत्त्वपूर्ण नहीं है। अपितु आर्थिक ढ़ाँचे के साथ-साथ सामाजिक, भौगोलिक एवम राजनीतिक परिस्थितियों का भाँपते हुए उन्हें भी विकासोन्मुख दिशा देनी हैं। निश्चित तौर पर    या    बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। शायद इसीकारण ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी बैंक को परिभाषित करते हुए यह परिभाषा देती है कि,      लेकिन यह परिभाषा राष्ट्रीयकृत बैंकों की राष्ट्रीयत्व प्रगति में योगदान के भिन्न पक्षों के स्वरुप को अपने में समेटने में विफल दिखायी पड़ती है। इसीकारण कभी - कभी कई विद्ववान एक मासूम सा सवाल कर बैठते हैं कि बैंको का हिन्दी के विकास से क्या लेना-देना है? मजाक के लहजे में ही सही पर कई बार राजभाषा अधिकारियों को `भार अधिकारी' कह कर भी संबोधित किया जाता है। उनकी नज़रों में राजभाषा अधिकारी एक ऐसा व्यिक्त है जो डिस्पैच से लेकर नोटिंग, ड्राफ्टिंग, ट्रांसलेटिंग और इंटरप्रेटिंग का काम या खुद ही करता है या फिर विभाग के लिपिक या अनुवादक से करवाता है। साथ ही साथ वह बैंको के मूल कार्य में किसी तरह का कोई `प्रोडक्टिव' सहयोग नहीं देता इसलिए वह भार अधिकारी है जिसे बैंको को अनावश्यक रूप से ढोना पड़ता है। जब कि सच्चाई यह है कि राजभाषा अधिकारी राष्ट्रीय विकास के आर्थिक एवम् सामाजिक सरोकारों के बीच एक सेतु का कार्य करता है। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए बैंको के राजभाषा विभागों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया भी है।
14 सितंबर 1949 में इस देश के संविधान ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिन्दी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया। 14 सितंबर 1999 को इस विभाग की स्थापना को 50 वर्ष पूरे हो गये। संसदीय राजभाषा समिति का गठन हुआ और इस विशेष अधिकार भी दिया गया। इस समिति की वजह से ही 1970 से 1980 के बीच हिंदी स्टाप संख्या में अच्छी वृद्धि हुई। राजभाषा विभागो द्वारा समय-समय पर संगोष्ठियों एवम् हिंदी से संबंधित प्रतियोगिताओ का आयोजन करके, कर्मचारियों के मन में हिंदी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने प्रयास निरंतर किया जाता रहा है। परवर्ती संदर्भो के लिए पुस्तकों का प्रकाशन एवम् उनकी सहज उपलब्धता को भी सुनिश्चित किया जाता है। पारिभाषिक शब्दावली      एवम् कार्यालयीन शब्दावली के विकास में भी राजभाषा विभाग का महत्त्वपूर्ण कार्य राजभाषा विभाग ने किया है।
राजभाषा विभाग के सामने भी हिंदी में कार्य निष्पादन को लेकर कई व्यवहारिक और तकनीकी समस्या रही है। हमारे यहाँ आज भी पत्रों के प्रारूप बड़े पैमाने पर पहले अंग्रेजी में ही बनता है, तत्पश्चात उसके हिंदी अनुवाद का कार्य किया जाता है। यह अनुवाद इतना तकनीकी और क्लिष्ट होता है कि हिंदी का सामान्य पाठक इसे कठिन मानकर अंग्रेजी में ही व्यवहार करना उचित समझता है। किसी स्थानीय समाचार पत्र के संदर्भ में मैंने पढ़ा था कि उसके मुख्य संपादक रोज अपनी संपादकीय रोज अपनी संपादकीय लिखने के पश्चात कार्यालय के बाहर सड़क किनारे बैठने वाले एक मोची के पास जाते और उसे अपनी संपादकीय इस हिदायत के साथ सुनाते कि जहाँ भी कोई शब्द या वाक्य उसके समझ में ना आये, वह वहाँ टोक दे। इस तरह वे संपादक महोदय, अपनी संपादकीय लिखने के बाद उस मोची के माध्यम से यह सुनिश्चित करते थे कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसे उनके अखबार का सामान्य पाठक सझ पा रहे है या नहीं। कहने का आशय केवल इतना है कि अनुवाद और कार्यालयीन शब्दावली के नाम पर नए शब्दों को गढ़ने से कहीं ज्यादा जरूरी यह है कि आम बोलचाल की भाषा में इस्तमाल होनेवाले शब्दों को हिंदी मे समाहित कर लिया जाय। अँग्रेजी भाषा इस तरह के व्यवहार के लिए अप्रतिम उदाहरण है। हर वर्ष इसके शब्दकोश में हजारों ऐसे ही नये शब्दों को समाहित किया जाता है। इससे भाषा अधिक संपन्न तो होती है साथ ही साथ इसका व्यवहार क्षेत्र भी अधिक विस्तारित होता है। व्याकरणिक चुनौती, तकनीकी शब्दावली की चुनौती, पर्यायमूलक शब्दों के चयन की चुनौती, अनुवाद की चुनौती, सीमित कर्मचारी संख्या और इन सबसे बढ़कर हिंदी को लेकर जो एक हीनता का भाव उच्चाधिकारियों में रहा उनसे जूझते हुए राजभाषा विभाग नि:संदेह अपने कार्य को पूरी दक्षता और समर्पण के साथ अंजाम देते रहे है।
आज हिंदी और रोजगार आपस में अच्छी तरह जुड़े हुए है। बाज़ार में इनका अपना महत्त्वपूर्ण ताना-बाना बन गया है। संचार, सूचना और प्रौद्योगिक के साथ-साथ हिंदी हर नए क्षेत्र में अपने स्वरूप को ढालती हुई अपना विकास स्वत: कर रही है। न केवल अपना विकास कर रही है, अपितु खुद से जुड़ने वालों के पालन-पोषण का माध्यम भी बन रही है। आज हिंदी न केवल भारत बल्कि दुनियाँ के कई अन्य देशों में भी बोली, समझी और पढ़ाई जाती है। रूस के 08, पश्चिमी र्जनमी के 17 और अमेरिका के 38 विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन - अध्यापन की व्यवस्था है। (भाषा पत्रिका के आंकड़ों के आधार पर) ब्रिटेन, बेल्जियम, रूमानिया, स्वीडन तथा ऐसे ही कई देशों में हिंदी अध्यापन की व्यवस्था है। जापान में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर तक हिंदी सीखने की व्यवस्था है। भारतीय आबादी वाले मॉरिशस फीजी ट्रिनिदाद, टीवागो और सूरीनामा जैसे देशों में स्कूल से लेकर कॉलेज तक हिंदी पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था है। यहाँ हिंदी भाषी लोगों का वर्चस्व है। कई पत्र-पत्रिकाएँ एवम् समाचार पत्र यहाँ से हिंदी में प्रकाशित होते हैं। रेडिओ पर कई घंटों तक के हिंदी कार्यक्रमो के प्रसारण की व्यवस्था इन देशो में है। खाड़ी के कई देशों में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई में हिंदी कार्यक्रमो के प्रसारण की व्यवस्था इन देशो में है। वास्तव में भारत राष्ट्र का विकास ये दो अलग बिंदु न होकर एक ही सिक्के के दो पहलू है। जैसे-जैसे राष्ट्र प्रगति करेगा वैसे-वैसे राष्ट्रभाषा का भी दायरा और दर्जा दोनों ही विकसित होते जायेंगे। ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक बनकर सामने आयेंगे।
पिछले 15-20 सालों की बात करें तो हम पायेंगे कि बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में हिन्दी राष्ट्र की प्रगति में कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़ी है। तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी के कई ऐसे साफ्टवेयर बनाये जा चुके हैं जिससे इंटरनेट और वेब की दुनियाँ में भी फाऊन्डेशन (पेनस्टेट), जीएनयू लिनक्स इन इंडिया, कोलेबरेटिव डेवलपमेंट ऑफ इंडियन लैंग्वेज टेकनालजी, भारतीय भाषा कनर्वटर, गेट टू होम: हिन्दी इंडियन स्क्रिप्ट्स इनपुट सिस्टम और आई राईट 32 जैसी तकनीक काफी कारगर साबित हो रही है। इन तकनीकों के कारण ही आज इंटरनेट पर हिंदी के बहुत से पोर्टल। वेबसाइट और ब्लाग्स उपलब्ध हैं। हंस, वागर्थ, तद््भव, हिंदी नेस्ट, अभिव्यक्ति, अनुभूति, सृजनगाथा, मीडिया विमर्श, हिंदी यूएसए, इबडम, इंद्रधनुष इंडिया, काव्यकोष और भारत दर्शन ऐसे ही कुछ पोर्टल और वेबसाइट हैं जिन्हें आप इंटरनेट की दुनियाँ पर कई `सोशल नेटवर्किन्ग साइट हैं। ऑर्कुट, अड्डा डॉट कॉम और आईबीबो कुछ ऐसी ही साईट्स के नाम हैं। इनपर पंजीकरण करने के बाद अपनी मनपसंद कम्युनिटी को बनाकर उससे पूरी दुनियाँ के लोगों को जोड़ सकते हैं। उनके साथ अपने - विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इन तमाम साईट्स पर संदेश भेजने और प्राप्त करने के लिए भाषा के रूप में हिंदी का विकल्प मौजूद है। हिन्दी से जुड़ी हजारों की संख्या में हिंदी की कम्युनिटीज भी हैं। हिन्दी साहित्य, हिन्दी पत्रिकाएँ, हिन्दी पप्राचार, हिन्दी के रचनाकार हिन्दी पी.एच.डी. स्टुडेंटस कम्युनिटी, चेन्नई के हिंदी भाषी, हिंदी लवर्स, हिंदी पप्राचार, हिन्दी के रचनाकार, हिन्दी सिनेमा, हिंदी कविता, हिंदी की कहानियाँ और आईआईटी में हिन्दी जैसी न जाने कितनी ही कम्युनिटीज से हजारो-लाखों लोग जुड़े हैं। वे आपस में हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और हिंदी के विकारा को लेकर घंटों संवाद करते हैं। जिस तरह इन तमाम सोशल कम्युटिंग वेबसाइट्स पर लोग अलग-अलग कम्युनिटीज के माध्यम से जुड़ रहे हैं ठीक उसी तरह से आजकल इंटरनेट पर उपलब्ध हिंदी से संबंधित कई `ब्लॉग' बने हुए हैं। ये ब्लॉग किसी खास विषय के आधार पर बनाये जाते हैं, और धीरे-धीरे इनसे पूरी दुनियाँ के लोग जुड़ते जाते हैं। अगर अज हम इंटरनेट पर उपलब्ध हिंदी के ब्लाग की बात करें तो इनकी संख्या हजारों में है। अभिव्यक्ति, अंगारे, अंतरजाल, अंतरिक्ष, अंतर्ध्वनि, अंतर्नाद, अक्षरग्राम, अनपढ़, अनुवाद, अपना कोना, आईना, आदिवासी, चिंतन, चौपाल, बेबाक, बात पते की, पलाश, भारतीय सिनेमा, नुक्कड, पहला पन्ना, शब्दयात्रा और शब्दायन ऐसे ही कुछ हिंदी `ब्लॉग' के नाम हैं। हिंदी का यह तकनीकी स्वरूप इसकी प्रगति के एक नये आयाम का प्रतीक है। इन ब्लॉग के माध्यम से इनके `ओनर' अच्छा खासा पैसा भी कमाते हैं। उदाहरण के तौर पर टेक्नोस्पॉट डॉट नेट' ब्लाग से जुड़े ओन? आशीष मोहटो एवम् मानव मिश्र ने मुझे बताया कि गूगल या इस तरह की तमाम सर्च मशीन पर लोग विज्ञापन के लिए संपर्क करते हैं। एक निर्धारित धनराशि, निर्धारित समय के लिए इन `सर्च मशीनों' को विज्ञापन दाता  दे देते हैं। फिर ये सर्च मशीनस संबंधित विज्ञापन से जुड़े ब्लॉगस पर वह विज्ञापन उपलब्ध करा देती है। अपना कमिशन काँट करके विज्ञापनदाता द्वारा दी गई राशि का बड़ा हिस्सा उन ब्लागर्स को दे दी जाती है जिनका ब्लॉग संबंधित विज्ञापन के लिए इस्तमाल किया गया हो। अब अगर किसी हिंदी पुस्तक विक्रेता, प्रकाशक, रचनाकार, वेबओनर को अपना विज्ञापन देना है तो वह हिंदी ब्लागर्स में ही किसी को चुनेगा। इस तरह हिंदी में तकनीकी प्रगति के साथ आय के नए तरीके भी सामने आ रहे है। हाल ही में हैदराबाद के गुगल ऑफिस में `गुगल ब्लागर्स' की एक मिटिंग हुई। इस मिटिंग से आये `टेक्नो स्पॉट डॉट नेट' के ओनर श्रीमान आशीष मेहतो एवम मानव मिश्र ने बताया कि सिर्फ गूगल के हिंदी ब्लागर्स की सालाना आय करोड़ों में होगी। सामान्य रूप से हर ब्लाग्स का ओनर जो महिने में 30 से 35 घंटे के लिए देखा जाता है वह 25 से 200 डालर तक कमायी कर सकता है। इसतरह स्पष्ट है कि तकनीकी विकास से हिंदी भाषा का विकास राष्ट्र का विकास और रोजगार के नए स्वरूपों का परिचायक है। कई बार हमें समाचार पत्रों एवम् मीडिया चैतलों से इसी तकनीक के गलत उपयोग का पता चलता है। पर सिक्के के दो पहलू तो होते ही हैं। यह बहुत कुछ हमपर भी निर्भर करता है कि हम किस दिशा में और कैसे आगे बढ़े।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में प्रयोजनमूलक हिंदी, कार्यालयीन शब्दावली तकनीकी शब्दावली और ऐसे ही अन्य शब्दकोशों का भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इनसे न केवल हिंदी भाषा समृद्ध हुई बल्कि हिंदी में काम-काज की कई तकनीकी समस्याओं का समाधान भी हुआ। सन 1964 में कलकत्ता के राष्ट्रीय ग्रंथालय से 2190 भारतीय भाषाओं के कोशों की सूची प्रकाशित की जा चुकी है। इस सूची में हिन्दी के प्रकाशित कोशों का जिक्र है। यह संख्या किसी भी अन्य भाषा के प्रकाशित शब्दकोशों की तुलना में अधिक हैं। यह स्थिति 1964 की रही। आज की हम बात करें तो हिंदी में प्रकाशित शब्दकोशों की अनुमानित संख्या एक हजार से भी अधिक है। जिनमें कई थिसारस, इन्साइक्लोपीडिया, पर्यायवाची शब्दकोश, मुहावरे और लोकोक्ति कोश शामिल हैं। कृषि ज्ञानकोष, मानविकी पारिभाषिक कोश, समाजशास्त्रीय विश्वकोश भौगोलिक शब्दकोश भाषा-विज्ञान कोश, हिन्दी कथा कोश, हिन्दी साहित्य कोश, प्रासंगिक कथा कोश, प्राचीन चरित्र कोश, पुराण संदर्भ कोश, और इनसे भी बढ़कर साहित्यकार विशेष के साहित्य पर आधारित कई कोश प्रकाशित हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर हरदेव बाहरी का प्रसाद साहित्य कोश। इनके अतिरिक्त हिन्दी बोलियों के कोश और हिन्दी से अन्य भाषा के कोशो की संख्या काफी है। इन सब शब्दकोशों को अगर एक करके देखा जाय तो हिंदी से संबंधि शब्दकोशो के आगे दुनियाँ की काई भाषा नहीं टिकती। इसतरह इन प्रकाशित हो रहे हिंदी के शब्दकोशों के माध्यम से हमें हिन्दी भाषा के विशाल व्याप्ति क्षेत्र और इसके प्रचार-प्रसार में हो रहे कार्यो का एक संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है।
आज विदेशी पूँजीगत निवेश भारत में बढ़ रहा है। इस मामले में इसने अबतक के सभी पूर्व रिकार्डो को तोड़ दिया। समाष्टिगत आर्थिक नातियों की स्थिति आशावादी है। विदेशी पूँजी के साथ इस देश की सभ्यता-संस्कृति-भाषा और वेश-भूषा के भी बाज़ार अपने तरीके से अपना रहा है। इसके परिणाम कितने अच्छे या बुरे होंगे यह अभी से कहना जल्दबाजी होगी। पर यह सच्चाई अवश्य है कि बाज़ार की ताकत ने इन सभी को नए तरीके और नए स्वरुप से ऑकना शुरु किया है। टीवी पर इन दिनों जीएमआर नाम एक विज्ञापन काफी आकर्षक है। विज्ञापन में दिखाया जाता है कि घर में बैठे माँ-बाप ईश्वर से इस बात की प्रार्थना कर रहे हैं कि उनके बच्चे को यू.एस.. का वीजा मिल जाय तो उसकी जिंदगी बन जायेगी। पर वह बेटा थोड़ी देर में नाचता-कूदता हुआ घर के अंदर आता है और कहता है कि मुझे वीजा नहीं मिला। दरअसल वह यह बतलाना चाहता है कि अच्छी कमाई कर सकते है। ये सारी स्थितियाँ भारत की बदलती हुई तस्वीर को समझने में हमारी मदद करती हैं। निजी क्षेत्र के साथ स्पर्धा के कारण सरकारी संस्थान, बिमा और बैंक भी सभी आधुनिक सुविधाओं को अपने ग्राहकों तक पहुँचाने के लिए अपने मूलभूत ढाँचे में आमूलचूक परिवर्तन ला रहे हैं। अब बैंक `हर मोड़ पर साथ' निभाने की बात करते हुए इसे `रिश्तों की जमापूँजी मानने लगे हैं।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी पता चलता है कि हिंदी भाषा और राष्ट्र के विकास के साथ-साथ साहित्य और समाज का संबंध भी प्रगाढ़ हो रहा है। `साहित्य और समाज की नई चुनौतियाँ' नामक अपने एक लेख में प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर लिखते हैं कि, ``साहित्य और समाज का संबंध इधर बहुत प्रगाढ़ हुआ है। हिन्दी भाषा के विकास के साथ पठन-पाठन को बहुत बढ़ावा मिल रहा है। साहित्य की स्वीकृत विधाओं के अलावां अन्य क्षेत्रों और विधाओं को लेकर जो लेखन शुरू हुआ है वह महत्त्वपूर्ण है। ... साहित्य को हम केवल कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि तक सीमित नहीं रख सकते। अलग-अलग अनुशासनों में जो लेखन सामने आया है, वह साहित्य का ही हिस्सा है और उसी का विकास भी। उदाहरण के तौर पर पेट्रोलियम संस्थाओं की पत्रिकाएँ जिस तरह के वैज्ञानिक साहित्य को सरलतम भाषा में प्रस्तुत करती है वह अत्यंत उपयोगी और सार्थक है। उसी तरह वित्तीय संस्थाएँ भी अपना काम हिंदी में करना शुरु कर चुकी हैं। यहाँ तक कि संस्कृति मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अंतर्गत विदेशो में जो काम हिंदी में शुरू हुआ है, वह बेहद सर्जनात्मक और उसपर ध्यान दिया जाना चाहिए।'' इसेक अतिरिक्त कमलेश्वरजी ने प्रवासी भारतियों के हिंदी साहित्य, आदिवासी क्षेत्र से आ रहे लोकधर्मी साहित्य के साथ-साथ दलित साहित्य को बहुमूल्य माना है। कमलेश्वर जी की बातों से स्पष्ट है कि 21 वी शती में साहित्य और समाज का संबंध प्रगाढ़ हो रहा है। इससे साहित्य और भाषा का विकास तो हो ही रहा है साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय की नई लड़ाई, नई चिंताएँ हमारे सामने आ रही हैं। स्त्री-विमर्श से संबंधि आधुनिक साहित्य में ये चिंताएँ हमे विस्तार में दिखायी पड़ती हैं। इसतरह राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास नई सामाजिक और आर्थिक लड़ाई को भी प्रमुखता दे सामने ला रहा है।
भारतीय बाजार में भाषा के रूप में सबसे बड़ी ताकत हिन्दी की ही है। हिन्दी ज्यादा से ज्यादा भारतीय उपभोक्ताओं की संवेदना से जुड़ी हुई है। बाजार इन संवेदनाओं के रास्ते से ही लाभ का मार्ग प्रशस्त करता है। भारतीय बाज़ार में लाभ कमाने का एक माध्यम हिंदी है। यह हिंदी और हिंदीवालों दोनों के लिए सुखद स्थिति है। भारतीय बाज़ार में निवेशकों का विश्वास बढ़ा है। मध्यम वर्गीय व्यक्ति भी मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से आर्थिक निवेश की स्थितियों को लेकर जागरूक हुआ है। यह बदलती हुई आम आदमी की धारणा का ही परिणाम है कि भारत का पहला सम्पूर्ण हिंदी अखबार `बिजनेस स्टैडर्ड' नाम से प्रकाशित होने लगा है। यहाँ पर भी समझनेवाली बात यह है कि अखबार हिंदी का पर नाम `बिज़नेस स्टैन्डर्ड''। अब कुछ लोग इसकी भी आलोचना कर सकते हैं पर मेरे हिसाब से यह नाम बिलकुल उपयुक्त है। क्योंकि बिज़नेस और स्टैंडर्ड जैसे शब्द अब सिर्फ अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि बाज़ार के शबद बन गये हैं। भारत के गाँव देहात का अनपढ़ किसान भी बिज़नेस का अर्थ खूब समझता है। गॉवों में गरीब किसानों की सहायतार्थ जारी किये गये किसान क्रेडिट कार्डो के दम पर किसान खुद शाहुकारी वाली भूमिका निभाने लगे। इनसे उन्हें कितना लाभ हुआ इसकी तो कोई जानकारी मेरे पास नहीं पर, उनके इस व्यवहार से उनकी `बिजनेस' में दिलचस्पी जरूर समझी जा सकती है। इलेक्ट्रानिक मीड़िया में सीएनबीसी आवाज जैसे चैनल आर्थिक मामलों को ही लेकर चल रहे हैं। उनकी टी.आर.पी. किसी भी अन्य समाचार चैनल के मुकाबले कमज़ोर नहीं है।  बाज़ार का यह विकास हिंदी के एक नये भाषायी स्वरुप को सामने ला रहा है। यह हिंदी भाषा ही है जो आम भारतीय उपभोक्ता को बाज़ार से जोड़कर उसकी प्रगति में अपना योगदान दे रही है। `बिजनेस स्टैंडर्ड' अखबार अपने विज्ञापन में कहता भी है कि, ``मैं व्यापार की गति को प्रगति देता हँू। मैं हिंदी हँू'' स्पष्ट है कि हिन्दी भारतीय आर्थिक विकास में अहम भूमिका में है। जो इसकी ताकत को नहीं समझेगा वह बाज़ार में ताकतवर नहीं बन पायेगा।
समग्र रूप में हम कह सकते है कि भारत राष्ट्र इस 21वीं शती में प्रगति के नित नये आयामों को पार कर रहा है। राष्ट्र की प्रगति के साथ-साथ आज हिंदी की व्याप्ति का क्षेत्र भी बढ़ रहा है। न केवल इसकी व्याप्ति का क्षेत्र बढ़ रहा है अपितु यह विकास की प्रक्रिया में व्यापाक स्तर पर सहभागी भी है। बाज़ार में आर्थिक मजबूती के साथ-साथ हिंदी का बोलबाला बढ़ा है। बदलते हुए आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी राष्ट्रीय प्रगति के साथ कदम ताल कर रही है। आशा एवम पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा एवम् राजभाषा के रूप में अपनी मंजिल हो पायेगी ही साथ ही साथ राष्ट्रीय विकास में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती रहेगी।

                               डॉ मनीष कुमार मिश्रा 




संदर्भ ग्रंथ :-
1.    भारतीय रिजर्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट 2003-04 आर.बी.आय.
2.    भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति एवम् प्रगति संबंधी रिपोर्ट 2006-07 आर.बी.आय.
3.    चैलेन्जज ऑफ इंडियन बैंकिंग - जाधव
4.    मनी, बैंकिंग, इंटरनेशनल ट्रेड एण्ड पब्लिक फाइनंस - डी. एम. मिथानी
5.    अन्डरस्टैंडिंग लैन्गुएज ऐज़ कम्युनिकेशन - टी. पाण्डेय
6.    भाषा और समाज - रामविलास शर्मा
7.    भूमंडलीकरण, निजीकरण व हिन्दी - डॉ. माणिक मृगेश
8.    जनसंपर्क और विज्ञापन - डॉ. निशांत सिंह
9.    राजभाषा सहायिका - अवधेश मोहन गुप्त
10.   भाषा त्रैमासिक (विश्व हिंदी सम्मेलन अंक) - के.हि.वि./75/2000
11.   बया पत्रिका - प्रथम अंक (दिल्ली)
12.   हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग - 56 वॉ अधिवेशन विवरण पुस्तिका
13.   लेंग्वेज टेकनॉलजी डेवलपमेन्ट ऑफ इंडिया - डॉ. ओम विकास
14.   ग्लोबल डिफ्युजन ऑफ द इंटरनेट - पीटर वॉलकॉट, सिमूर गुडमैन
15.   ग्लोबलाइजेशन एण्ड द इंटरनेट : अ रिसर्च रिपोर्ट - रोहिताश्व चट्टोपाध्याय