बोध कथा-४ : मासूम सवाल
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रोहन आज सुबह से अपने पिताजी से जिद कर रहा था क़ि उसे आइसक्रीम खानी है. रोज-रोज क़ी जिद पिताजी को पसंद नहीं आई और गुस्से में उन्होंने एक झापड़ रोहन को लगा दिया.पिताजी के इस व्यवहार से मासूम रोहन अंदर तक काँप गया.वह चुप-चाप रोता हुआ अपने कमरे में दाखिल हो गया.रोते-रोते उसे कब नीद आ गयी ,यह वह खुद भी ना समझ पाया.
इधर पिताजी को भी अपना व्यवहार कुछ अधिक ही कड़क लगा.रोहन अभी सिर्फ ५ साल का मासूम बच्चा है.मुझे उसे प्यार से समझाना चाहिए था.उस पर हाँथ उठा कर मैंने अच्छा नहीं किया. इसी तरह के विचारों में खोये हुए रोहन के पिताजी भी अपनी आराम कुर्सी पर सो गए.अचानक जब आँख खुली तो देखा कि दिन ढल चुका था. रोहन भी सब भूल कर घर के सामने दुसरे बच्चों के साथ खेल रहा था. उसकी मासूम सूरत पर नजर पड़ी तो पिताजी को अपना वह झापड़ याद आ गया,जो आइसक्रीम क़ी जिद्द क़ी वजह से उन्होंने रोहन के गाल पर लगाया था.रोहन तो सब भूल गया था पर पिताजी का मन अंदर ही अंदर कचोट रहा था.
वे उठकर अपने कमरे में गए और बटुवे में से २० रुपये निकाल कर ले आये.उन्होंने धीरे से रोहन को अपने पास बुलाया.उसे पैसे देते हुए बोले ,''जाओ आइसक्रीम खरीद लो .'' पिताजी क़ी बात सुनकर रोहन का चेहरा खिल गया.और पैसे ले कर वह दुकान क़ी तरफ दौड़ पड़ा.दुकान पर जा कर उसने दुकानदार को पैसे देते हुए कहा,'' अंकल,आइसक्रीम देना .'' दुकानदार ने पैसे ले कर आइसक्रीम दे दी. रोहन आइसक्रीम लेते हुए बोला ,''कितना पैसा बचा ?'' उसकी बात पर दुकानदार बोला,''कुछ नहीं बचा .२० रुपए क़ी ही आइसक्रीम है. इससे कम वाली नहीं है .''
दुकानदार क़ी बात सुनकर रोहन हतप्रभ सा खड़ा रहा.उसे समझ नहीं आ रहा था क़ी वह क्या करे.उसे इस तरह देख कर दुकानदार बोला,''क्या हुआ ? आइसक्रीम चाहिए क़ी नहीं ?'' इस प्रश्न से रोहन क़ी एकाग्रता भंग हुई.उसने कहा,''आइसक्रीम तो चाहिए ,लेकिन-------और--पैसे -------'' दुकानदार कुछ समझ नहीं पा रहा था. उसने झल्लाते हुए कहा,''वाह,नवाब साहब को आइसक्रीम भी चाहिए और पैसे भी.'' यह सुनकर रोहन बोला,'' अगर मैं पूरे पैसे क़ी आइसक्रीम ले लूँगा तो आप को टिप देने के लिए मेरे पास एक भी पैसे नहीं बचेंगे.मेरे पास इतने ही पैसे हैं.अगर आप थोड़ी सस्ती आइसक्रीम देते ,तो मै आप को टिप भी दे पाता .लेकिन------.''
मासूम रोहन क़ी बातें सुनकर दुकान दार क़ी आँखें भर आयीं.और उसने आइसक्रीम रोहन क़ी तरफ बढ़ाते हुए कहा,''बेटा,तुम आइसक्रीम ले लो.मैं भूल गया था,यह १५ रूपए क़ी ही है.क्या मैं बाक़ी के ५ रुपए टिप रेख लूं ?'' रोहन क़ी खुशी का ठिकाना ना रहा. उसने हाँ में सर को हिलाया और आइसक्रीम को लेकर घर क़ी तरफ बेतहाशा दौड़ गया. दुकानदार के चेहरे पर हंसी और आँखों में आंसू थे.पास ही खड़े एक फ़कीर ने शांति के साथ यह सब देखा .अचानक ही उसके मुह से ये शब्द निकल पड़े------
'' उसका अंदाज सबसे जुदा होता है,
मासूम खयालों में खुदा होता है.''
(i do not have any copy right on this picture.i have got this as a e mail .)
Tuesday 16 March 2010
आखें मींच के सो के उठना ,
आखें मींच के सो के उठना ,
उठते ही वो चेहरा ढूढ़ना ;
दिन में उसकी यादों से यारी ,
रातों को आखों में वारी ;
---
सोचों में अब भी वो रहती ,
सपनों में अब भी वो दिखती ;
उसकी झलक को आखें तरसी ,
दिल में मेरे अब भी वो बसती ;
---
राह न दिखती चाह की कोई ,
आभास नहीं है आस ना कोई ;
पागल मन उन्मुक्त सा खोजे ;
डोर न मिलती प्यार की कोई ;
---
खोजूं मै निगाहें वही ,
जानू केवल बाहें वही ;
अँधियारा कितना भी फैले ,
चाहूँ मै आभासें वही /
---
आखें मींच के सो के उठना ,
उठते ही वो चेहरा ढूढ़ना ;
दिन में उसकी यादों से यारी ,
रातों को आखों में वारी ;
Monday 15 March 2010
जो तू न स्वीकार कर सकी वो तेरा अतीत हूँ , 5
अवधरण हूँ ,आवरण हूँ ,
अतिक्रमण हूँ ,अनुकरण हूँ ;
जिसे तू ना सँवार सकी ,
वो तेरा आचरण हूँ /
----
अनिमेष हूँ , अवधेश हूँ ,
अभिषेक हूँ ,अवशेष हूँ ;
जिसे ना तू सहेज सकी ,
वो तेरा अधिवेश हूँ /
अतिक्रमण हूँ ,अनुकरण हूँ ;
जिसे तू ना सँवार सकी ,
वो तेरा आचरण हूँ /
----
अनिमेष हूँ , अवधेश हूँ ,
अभिषेक हूँ ,अवशेष हूँ ;
जिसे ना तू सहेज सकी ,
वो तेरा अधिवेश हूँ /
---
---
अमान्य हूँ ,अवमान्य हूँ ,
अरीति हूँ ,अप्रीति हूँ ,
जो तू ना स्वीकार कर सकी ,
वो तेरा अतीत हूँ /
जब दिल का मसला होता है.
निर्णय लेना कठिन बहुत है ,
जब दिल का मसला होता है.
हर हालत में चुपके-चुपके,
छिप कर रोना पड़ता है .
जब दिल का मसला होता है.
हर हालत में चुपके-चुपके,
छिप कर रोना पड़ता है .
Sunday 14 March 2010
मैं भी चुप था,वो भी चुप थी ,
मैं भी चुप था,वो भी चुप थी ,
फिर हो गई कैसे ,बात न जानू .
इधर लगन थी,उधर अगन थी,
लग गई कैसे आग ना जानू .
ना जाने कितने फूलों पर,
बन भवरा मैं ,मंडराया हूँ .
पर क्यों ना मिटी,
ये प्यास ना जानू .
जिस मालिक के हम सब बच्चे,
है राम वही ,रहमान वही.
फिर आपस में खून -खराबा ,
क्यों हो बैठा मै ना जानू .
हिन्दू-मुस्लिम सिख इसाई ,
ये सब हैं भाई-भाई .
फिर झगड़ा मंदिर -मस्जिद का,
कैसे हुआ ,ये मैं ना जानू .
फिर हो गई कैसे ,बात न जानू .
इधर लगन थी,उधर अगन थी,
लग गई कैसे आग ना जानू .
ना जाने कितने फूलों पर,
बन भवरा मैं ,मंडराया हूँ .
पर क्यों ना मिटी,
ये प्यास ना जानू .
जिस मालिक के हम सब बच्चे,
है राम वही ,रहमान वही.
फिर आपस में खून -खराबा ,
क्यों हो बैठा मै ना जानू .
हिन्दू-मुस्लिम सिख इसाई ,
ये सब हैं भाई-भाई .
फिर झगड़ा मंदिर -मस्जिद का,
कैसे हुआ ,ये मैं ना जानू .
बोध कथा-3: तेरा जलना ,मेरा सुलगना
बोध कथा-3: तेरा जलना ,मेरा सुलगना
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एक रात जब शमा जल रही थी ,तो अचानक उसका ध्यान पिघलते हुए मोम पे गया.उस मोम को देख एक मासूम सा सवाल शमा के मन में उठा.उसने पिघलते हुए मोम से कहा-''हे सखे, मैं तो जल ही रही हूँ,ताकि अँधेरे को कुछ समय तक दूर रख सकूँ.जब सुबह होगी तो मेरा काम खत्म हो जायेगा.लेकिन तुम इसतरह पिघल क्यों रहे हो ?तुम क्यों पिघलना चाहते हो ?
शमा क़ी बात सुन कर मोम कुछ पल खामोश रहा,फिर धीरे से बोला-''हे शुभे,हमारा साथ विधाता ने सुनिश्चित किया है.लेकिन ये हमारी नियति है क़ी जब सारी दुनिया के लोग प्रेम के आलिंगन में मस्त रहते हैं,तो उसी समय तुम अँधेरे से लड़ने के लिए स्वयम जलती रहती हो.ऐसे में मैं एकदम निसहाय बस तुम्हे जलता हुआ देखते रहता हूँ. हे प्रिये, तेरे जलने पर मेरा पिघलना तो सहज है.तुझे इस बात पर आश्चर्य क्यों है ?''
मोम क़ी बातें सुनकर शमा खामोश रही.लेकिन उसकी ख़ामोशी के शब्दों को मोम समझ रहा था.अचानक ही ये पंक्तियाँ मोम के मुख से फूट पडीं --
''मेरा अर्पण और समर्पण, सब कुछ तेरे नाम प्रिये
श्वाश -श्वाश तेरी अभिलषा ,तू जीवन क़ी प्राण प्रिये.
मन -मंदिर का ठाकुर तू है,जीवन भर का साथी तू है
अपना सब-कुछ तुझे मानकर,तेरा दिवाना बना प्रिये .''
(इस तस्वीर पर मेरा कोई कापी राइट नहीं है.ना ही किसी तरह का कोई अधिकार.इस तस्वीर को आप निम्नलिखित लिंक द्वारा प्राप्त कर सकते हैं.)
www.turbosquid.com/.../Index.cfm/ID/247458
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एक रात जब शमा जल रही थी ,तो अचानक उसका ध्यान पिघलते हुए मोम पे गया.उस मोम को देख एक मासूम सा सवाल शमा के मन में उठा.उसने पिघलते हुए मोम से कहा-''हे सखे, मैं तो जल ही रही हूँ,ताकि अँधेरे को कुछ समय तक दूर रख सकूँ.जब सुबह होगी तो मेरा काम खत्म हो जायेगा.लेकिन तुम इसतरह पिघल क्यों रहे हो ?तुम क्यों पिघलना चाहते हो ?
शमा क़ी बात सुन कर मोम कुछ पल खामोश रहा,फिर धीरे से बोला-''हे शुभे,हमारा साथ विधाता ने सुनिश्चित किया है.लेकिन ये हमारी नियति है क़ी जब सारी दुनिया के लोग प्रेम के आलिंगन में मस्त रहते हैं,तो उसी समय तुम अँधेरे से लड़ने के लिए स्वयम जलती रहती हो.ऐसे में मैं एकदम निसहाय बस तुम्हे जलता हुआ देखते रहता हूँ. हे प्रिये, तेरे जलने पर मेरा पिघलना तो सहज है.तुझे इस बात पर आश्चर्य क्यों है ?''
मोम क़ी बातें सुनकर शमा खामोश रही.लेकिन उसकी ख़ामोशी के शब्दों को मोम समझ रहा था.अचानक ही ये पंक्तियाँ मोम के मुख से फूट पडीं --
''मेरा अर्पण और समर्पण, सब कुछ तेरे नाम प्रिये
श्वाश -श्वाश तेरी अभिलषा ,तू जीवन क़ी प्राण प्रिये.
मन -मंदिर का ठाकुर तू है,जीवन भर का साथी तू है
अपना सब-कुछ तुझे मानकर,तेरा दिवाना बना प्रिये .''
(इस तस्वीर पर मेरा कोई कापी राइट नहीं है.ना ही किसी तरह का कोई अधिकार.इस तस्वीर को आप निम्नलिखित लिंक द्वारा प्राप्त कर सकते हैं.)
www.turbosquid.com/.../Index.cfm/ID/247458
Saturday 13 March 2010
सिर्फ तर्क करे क्या हासिल हो ,
सिर्फ तर्क करे क्या हासिल हो ,
भावों में आत्मीयता शामिल हो ;
हितों के घर्षण से कब कौन बचा है ,
क्यूँ न अपनो का थोडा आकर्षण हो /
झूठे आडम्बर से क्या मिला है
थोड़ी मोहब्बत, थोडा त्याग,
थोड़ी जरूरत ,थोडा परमार्थ ,
क्यूँ न ये अपना जीवन दर्शन हो ,
सिर्फ तर्क करे क्या हासिल हो ,
भावों में आत्मीयता शामिल हो /
भावों में आत्मीयता शामिल हो ;
हितों के घर्षण से कब कौन बचा है ,
क्यूँ न अपनो का थोडा आकर्षण हो /
झूठे आडम्बर से क्या मिला है
थोड़ी मोहब्बत, थोडा त्याग,
थोड़ी जरूरत ,थोडा परमार्थ ,
क्यूँ न ये अपना जीवन दर्शन हो ,
सिर्फ तर्क करे क्या हासिल हो ,
भावों में आत्मीयता शामिल हो /
जो कहनी थी ,वही मैं बात,यारों भूल जाता हूँ .
जो कहनी थी ,वही मैं बात,यारों भूल जाता हूँ .
किसी क़ी झील सी आँखों में, जब भी डूब जाता हूँ .
नहीं मैं आसमाँ का हूँ,कोई तारा मगर सुन लो
किसी के प्यार के खातिर,मैं अक्सर टूट जाता हूँ .
शिकायत सब से है लेकिन,किसी से कह नहीं सकता
बहुत गुस्सा जो आता है,तो खुद से रूठ जाता हूँ .
किसी क़ी राह का कांटा,कभी मैं बन नहीं सकता
इसी कारण से मफिल में,अकेला छूट जाता हूँ .
मासूम से सपनों क़ी मिट्टी,का घड़ा हूँ मैं,
नफरत क़ी बातों से,हमेशा फूट जाता हूँ .
किसी क़ी झील सी आँखों में, जब भी डूब जाता हूँ .
नहीं मैं आसमाँ का हूँ,कोई तारा मगर सुन लो
किसी के प्यार के खातिर,मैं अक्सर टूट जाता हूँ .
शिकायत सब से है लेकिन,किसी से कह नहीं सकता
बहुत गुस्सा जो आता है,तो खुद से रूठ जाता हूँ .
किसी क़ी राह का कांटा,कभी मैं बन नहीं सकता
इसी कारण से मफिल में,अकेला छूट जाता हूँ .
मासूम से सपनों क़ी मिट्टी,का घड़ा हूँ मैं,
नफरत क़ी बातों से,हमेशा फूट जाता हूँ .
Friday 12 March 2010
विचलित इच्छाएं है ,
विचलित इच्छाएं है ,
समर्पित वासनाएं हैं ;
मन थमता नहीं सिर्फ आशाओं पे ,
संभालती समस्याएँ हैं ;
जीवन में अब चाव नहीं है ,
तकलीफों से छावं नहीं है ,
अपने आंसूं पे रोना कैसा ,
दिल के जख्मो में रिसाव नहीं है /
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मोह का बंधन लगता प्यारा ,
माया ने हम सबको पाला ,
कब तक अंगुली पकड़ चलेगा राही,
अब तो पकड़ ले परमार्थ की डाली /
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हास्य-व्यंग कवि -सुनील पाठक ''सांवरा''
हास्य-व्यंग कवि -सुनील पाठक ''सांवरा''
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आज-कल आप यह चेहरा अक्सर टी.वी.में देखते होंगे. हास्य-व्यंग कवि के रूप में सुनील आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं. टी.वी. के ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेन्ज से सुनील ने अपनी कामयाबी क़ि जो इबारत लिखनी शुरू क़ि वो बदस्तुर जारी है.
मैंने सुनील से एक दिन पूछा क़ि भाई आप तो इलाहाबाद के पाठक हो तो फिर,सांवरा नाम क्यों रखा ? इसका जवाब भी सुनील ने मजाकिया अंदाज में दिया .उन्होंने कहा क़ि -''जब से इलाहबाद के आई.जी. पांडा अपने आप को राधा मानने लगे ,तब से मैं भी सांवरा (कृष्ण ) हो गया हूँ .
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आज-कल आप यह चेहरा अक्सर टी.वी.में देखते होंगे. हास्य-व्यंग कवि के रूप में सुनील आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं. टी.वी. के ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेन्ज से सुनील ने अपनी कामयाबी क़ि जो इबारत लिखनी शुरू क़ि वो बदस्तुर जारी है.
मैंने सुनील से एक दिन पूछा क़ि भाई आप तो इलाहाबाद के पाठक हो तो फिर,सांवरा नाम क्यों रखा ? इसका जवाब भी सुनील ने मजाकिया अंदाज में दिया .उन्होंने कहा क़ि -''जब से इलाहबाद के आई.जी. पांडा अपने आप को राधा मानने लगे ,तब से मैं भी सांवरा (कृष्ण ) हो गया हूँ .
Thursday 11 March 2010
द्वैत कहूँ अद्वैत कहूँ ,
द्वैत कहूँ अद्वैत कहूँ ,
द्वैत कहूँ अद्वैत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
दिल में बसता धड़कन में रमता ,
मन का साथी आखों से रिसता ;
पुजित तू है संचित तू है ,
कितनो को आवांछित तू है ,
काम बड़े तो लांछित तू है ;
द्वैत कहूँ अद्वैत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
भावों का सरताज रहा तू ;
सपनों का अधिराज रहा तू ;
दिल के धोखो को क्यूँ हम जोड़े ;
दर्दों का स्वराज रहा तू /
द्वैत कहूँ अद्वैत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
खुशियों की राहें तकलीफों के पग ,
महके मन मंदिर दहके तन ,
सुंदर बातें पथरीले छन ;
कब पाए तुम कब खोये हम ;
द्वैत कहूँ अद्वैत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
या प्यार तुझे अनिकेत कहूँ ,
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