Saturday 1 May 2010

हम ने इन्हें किया सम्मानित

विजय पंडित कल्याण के ''अभिमान ''

      

Friday 30 April 2010

बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,

बिस्तर की सलवटें तलाशती हैं ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती हैं ,
नीद में बाहें भीचना चाहती है बदन कोई ,
अधखुली आखें अधजगा सा मन ढूढता बगल में कोई ;
सुबह जल्द अब भी जग जाता हूँ मै ,
दिल चाहता है मचल के लग जाये सिने से कोई ;
मै याद नहीं करता खुश हूँ अपनी रातों से ,
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
उजलाती भोर की किरणों में कुछ पिघले पलों की खुसबू चली आती है ,
तड़पती धड़कने अपनी प्यास को सिने में दबा जाती है ;
अनजाने ही हाथ बड़ते हैं हाथों में भरने को वो गुदाज बदन ,
कानो को याद आती है तेरे ओठों की नमी और चूड़ी की खन खन ;
मै याद नहीं करता करवट बदल सो जाता हूँ ,
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं
;
मेरे ओठों को उन ओठों का उतावलापन याद आती है ,
चेहरे पे उन उफनती सांसों की दहक अब भी कौंध जाती है ;
चाय पिने से पहले अक्सर तेरे मुंह की मिठास भर आती है मुंह में ,
भर आता है तेरे बदन का नमक तन मन में ;
चुमते बदन के भावों से तड़प उठता है कण कण ,
मुंह खुल जाता है पिने को तेरा पुरजोर बदन ;
पर मै खुश हूँ अपनी राहों में ,
याद नहीं करता पर बसता है तू ही अब भी निगाहों में ;
बहुदा चाय बनाते मेरी बाहें भर लेती है बाहों में खुद को ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
दीवाल जहाँ तू सट के खड़ी होती थी ;
जहाँ मेरे चुमते वक़्त तेरी पीठ रही होती थी ;
सुनी सुनी सी तेरी राह तकती है ,
बिस्तर का कोना जहाँ तू बैठती और मै सहेजता बदन तेरा ,
रूठा रहता है ,सलवटों से सजा रहता है ,
सुना दर्पण ढूढता है वो हंसी चेहरा बड़ी हसरत से ,
सुना आँगन भी राह तकता है अब भी बड़ी गैरत से ;
बिस्तर की सलवटें तलाशती है ,
मै याद नहीं करता मेरी साँसे पुकारती हैं ;
   

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध /amerkant

अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध :-




अपने समय के समाज को अमरकांत ने बड़ी ही गहराई के साथ अपने कथा साहित्य में चित्रित किया है। युग विशेष की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यथार्थ की ठोस भूमि पर चित्रित करना कोई आसान काम नहीं है। समय परिवर्तनशील है। युगीन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहती। युग बदलने के साथ-साथ किसी समाज विशेष की परिस्थितियाँ भी बदल जाती है। इसलिए जिस रचनाकार के पास संवेदनाओं को गहराई से समझने और उसे विश्लेषित करने की समझ नहीं होगी, उसका साहित्य कभी भी कालजयी नहीं हो सकता। अमरकांत का कथा साहित्य अपने समय की वास्तविक तस्वीर पेश करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।



विद्वानों के बीच अमरकांत की रचनाओं को उसकी विश्वसनियता और गहरी संवेदनशीलता के कारण ही सराहा गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत का रचना संसार महान रचनाकारों के रचना संसारों जैसा विश्वसनीय है। उस विश्वसनीयता का कारण है स्थितियों का अचूक चित्रण जिससे व्यंग्य और मार्मिकता का जन्म होता है।``1 आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आदमी कितना आत्मकेन्द्रित, संवेदनाहीन, मतलबी और स्वयं की इच्छाओं तक सिकुड़कर रह गया है, इसे अमरकांत के कथासाहित्य से आसानी से समझा जा सकता है।
                                                                                                                              


अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया है। पर ऐसा नहीं है कि उच्चवर्ग को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने साहित्य नहीं रचा। यह अवश्य है कि जितने विस्तार और गहराई के साथ अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज को चित्रित किया है उतनी गहराई और विस्तार उच्चवर्ग को लेकर उनके साहित्य में नहीं मिलता। 'आकाश पक्षी` जैसा उपन्यास इसी उच्च वर्गीय समाज की मानसिकता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। ठीक इसी तरह सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और संपन्न लोगों की मानसिकता और व्यवहार को केन्द्र में रखकर अमरकांत ने कई कहानियाँ लिखी हैं। पलाश के फूल, दोस्त का गम, आमंत्रण, जन्मकुण्डली और श्वान गाथा जैसी कितनी ही कहानियाँ हैं जहाँ समाज के उच्च वर्ग की मानसिकता तथा विचार और व्यवहार के अंतर को अमरकांत ने चित्रित किया है। साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा कि जब हम यह कहते हैं कि अमरकांत मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की विसंगतियों, अभावों और शोषण को चित्रित चित्रित करने वले कथाकार हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि शोषक और शोषित इन दोनों की स्थितियों का चित्रण किये बिना कोई कथाकार शोषण की तस्वीर किस तरह प्रस्तुत कर सकता है। इसलिए यह कहना सही नहीं लगता कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सिर्फ और सिर्फ निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज का चित्रण किया।



वास्तविकता यह है कि अमरकांत ने उच्चवर्ग की अपेक्षा मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण अपने साहित्य में अधिक किया है। साथ ही साथ उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शोषण सिर्फ उच्चवर्ग द्वारा निम्नवर्ग या संपन्न द्वारा विपन्न का ही नहीं अपितु एक विपन्न भी अपने जैसे दूसरे व्यक्ति का शोषण करने में बिलकुल नहीं हिचकता। अमरकांत ने 'मूस` जैसी कहानी के माध्यम से यह दिखाया कि पुरूषप्रधान भारतीय समाज में 'मूस` जैसे पुरूष भी हैं जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने भारतिय समाज के कई ऐसे भद्दे और नग्न यथार्थ को सामने लाया जो परंपरा और संस्कृति तथा आदर्शो के नाम पर हमेशा ही समाज में दबाये जाते रहे है। जिस घर में ससुर खुद अपनी बेटी की उम्रवाली बहू का शीलभंग करना चाहे और उसका मनोबल उसकी ही धर्मपत्नी बढ़ाये तो ऐसे घर की बहू कौन सी परंपरा और संस्कृति के भरोसे अपने आप को सुरक्षित समझ सकती है और कैसे?



स्पष्ट है कि अमरकांत के विचारों का दायरा संकुचित नहीं है अपितु संकुचित मानसिकता के साथ उनके कथा साहित्य पर विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। साथ ही साथ अमरकांत के संबंध में बात करते अथवा लिखते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अमरकांत की लेखनी लगातार साहित्य रचने का कार्य कर रही है। पिछले 50-60 वर्षों से अमरकांत का लेखन कार्य सतत जारी है। इसलिए किसी समीक्षक या विद्वान ने आज से 25-30 वर्ष पूर्व उनके रचना संसार के संबंध में जो कुछ कहा या समझा वह अमरकांत के तब तक के उपलबध साहित्य के आधार पर था। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को लेकर उस पर नयी समीक्षा दृष्टि प्रस्तुत की जाय।



अमरकांत का कथा साहित्य बड़ा व्यापक और लगातार अपनी वृद्धि कर रहा है। 'सुरंग` और 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यासों में अमरकांत की बदली हुई विचारधारा का स्पष्ट संकेत हमें मिलता है। सन 1977 में 'अमरकांत वर्ष 01` नामक पुस्तक का प्रकाशन अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के उद्देश्य से हुआ। इस संबंध में रवीन्द्र कालिया ने लिखा भी कि, ''अमरकांत का नये सिरे से मूल्यांकन करने के पीछे हमारा एक प्रयोेजन रहा है। वास्तव में नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिक लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि 'अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी` परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डों से संभव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तत्कालीन लेखकों-समीक्षकों की महत्वाकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``2 अब विचारणीय यह है कि सन् 1977 तक उपलब्ध और लिखे गये अमरकांत के साहित्य के आधार पर जो कुछ बातें सामने आयी वे 2007 तक के अमरकांत के रचे गये साहित्य के आधार पर कहीं-कहीं खटकने लगी है।



उदाहरण के तौर पर 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास के प्रकाशन के बाद कुछ समीक्षक अमरकांत को महाकाव्यात्मक गरिमा वाले उपन्यासकारों की श्रेणी में गिनने लगे है। वेद प्रकाश जी अपने लेख 'स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार` में प्रश्न करते हैं कि, ''.....व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे गुक की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``3 इसलिए अब जब हमारे सामने अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध का प्रश्न उठेगा तो हमें नि:संकोच यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अमरकांत ने अपने समय को उसकी पूरी परिधि में न केवल चित्रित किया है अपितु समाज के सामने कुछ ऐसे प्रश्न भी खडे किये हैं जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती हैं।



समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य में युग बोध के संदर्भ में हम यही कह सकते है कि पिछले 50-60 वर्षो को तोडा है और विचारों तथा संवेदनाओं के नए स्वरूप को हमारे सामने लाया है। इससे स्पष्ट है कि अमरकांत अपने युग के सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील दृष्टि और आस्था के साथ लगातार चित्रित कर रहे है। यह बात निम्नलिखित बिंदुओं के विवेचन से और अधिक स्पष्ट हो जायेगी।
     

निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,

निकलती नहीं खुसबू तेरी सांसों की मन से ,

खिलती नहीं आखें बिना तेरे तन के ;

डूबा रहता हूँ सपनों में मिलन की घड़ियों का ;

पर तू मिलता नहीं कभी बिना उलझाव और अनबन के ;

कभी तो कहा कर प्यार बिना अहसान के ;

कभी तो मान अपना अधूरापन बिना मेरी प्यास के ;

खुद का मान तुझे मेरी मोहब्बत से प्यारा है ;

ऐ जिंदगी मैंने किसपे अपनी मोहब्बत को वारा है /

Thursday 29 April 2010

मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,

मोहब्बत की जुदाई में भी एक सुकूँ है दिले दिलदार से पूंछो ,

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मोहब्बत की तड़पन में छुपा इक जुनूं है किसी आफताब से पूँछों ;

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चाहते तमन्ना में उम्र गुजर जाये भी तो कम है ,

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इन्तजारे इश्क भी एक खुदाई है अपने प्यार से पूँछों /

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बबूल के पेड़ से छावं का कयास है ;

बबूल के पेड़ से छावं का कयास है ;
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मोहब्बत की यादों से निज़ात की आस है ;
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उनसे मिलने को बेकरार दिल तो है ,
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कौनसा रंग पहनायुं जनाजे इश्क को रंग की तलाश है /
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Tuesday 27 April 2010

अचानक एक दिन तुने मोहब्बत से इंकार कर दिया ,

अचानक एक दिन तुने मोहब्बत से इंकार कर दिया ,
प्यार की राह में मेरी मोहब्बत को गुनाहगार कर दिया ;
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दौड़ के मिलते थे जों भरे भावों के साथ ,
मुफलिसी की आहट पे पहचानने से इंकार कर दिया /
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अरमानो की दुनिया सजा लिपट जाते थे जों देख कर मुझको तनहा ,
बदले मौसम में मेरी तड़प से खुद को बेपरवाह कर लिया /
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HINDI NOVEL -काले उजले दिन BY AMERKANT

काले उजले दिन :-


163 पृष्ठों के इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 2003 से 'राजकमल प्रकाशन` द्वारा हुआ। इस उपन्यास पर अपनी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कमलाप्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि, 'काले उजले दिन` आत्मकथात्मक कहानी है। उसका नायक खुद अपने विकास को दुहराता है। वह विमाता की ईर्ष्या और पिता की विमाता द्वारा संचालित कुटिलता के बीच में पलता है। वह देखता है कि विमाता का पुत्र अशोक सम्पन्नता में जीता है और वह दीनता में। प्यार का अभाव उसकी कुण्ठा बनती है। वह अपने पारिवारिक ममताहीन जीवन से छूटना चाहता है और इसी क्रम मंे उसे क्रान्तिकारी वासुदेव सिंह अच्छे लगे। बाद में मामा के घर की याद आई, विवाह में स्त्री से प्यार की आकांक्षा की - पर सब कुछ परम्परा के भीतर होने से औपचारिक बना रहा। सामन्ती आचार में जिंदगी पिसती रही। नायक प्यार के लिए तड़पता रहा, कान्ति पत्नी ने उसे आदर श्रद्धा और यहाँ तक कि जिन्दगी का उत्सर्ग उसके लिये किया, पर उसमें प्यार की क्षमता नहीं थी। प्यार मिला समानधर्मी रजनी में। अत: पत्नी कांति और प्रेयसी रजनी। नामक के कान्ति और रजीनक े बीच व्यक्तित्व का अनुभवाधीन सहज विकास होता रहा। मानसिक धरातल में ही नहीं, संघर्ष यथार्थ की जमीन में झेला गया।30

कमलाप्रसाद जी का उपर्युक्त मंतव्य इस उपन्यास के संदर्भ में एकदम सटीक है। हमारे समाज में जो परिवर्तन होते हैं, जो असंगतियाँ रह जाती हैं, वे किसी न किसी रूप में समाज के हर व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। सामाजिक मान्यताओं और आदर्शों के बीच यथार्थ की जमीन अलग होती है। इस भूमि पर संघर्षरत व्यक्ति अपनी इच्छओं के अनुरूप चाह कर भी नहीं जी पाता। ऐसे में वह सही-गलत की परिभाषा को अपने तरीके से व्याख्यायित करने का प्रयत्न करता है। किन्तु व्यक्ति और समाज के बीच संघर्ष निरंतर होते हुए भी 'व्यक्ति` की उम्र समाज की तुलना में बहुत कम होती है। अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से व्यक्ति, समाज और परिवर्तन के त्रिकोण में निहित द्वंद्व की वेदना को बड़े ही कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास की समस्या किसी काल विशेष की न होकर शाश्वत रूप में व्यक्ति और समाज के बीच होने वाले संघर्ष की समस्या है।

हम अपने जीवनम ें जो भी पाते है, जो भी अनुभव करते हैं, उन्हीं से हमारा व्यक्तित्व लगता है। फिर यही व्यक्तित्व समाज में अपनी सशक्तता के आधार उन मूल्यों को उखाड फेकना चहता है जो उसके अपने अनुभव से समाज के लिए घातक हैं। पर व्यक्ति-व्यक्ति का अपना अलग दायरा होता हैं। यही अलगाव अलग सोच को भी जन्म देता है। अत: समाज इन अलग सोच से होनेवाले खतरों को टालने के लिए कुछ सामाजिक नियम बनाता है। इन नियमों की अवहेलना समाज में हटकर करना मुश्किल है। पर इनके बीच छटपटाहट हर व्यक्ति के हंदर होती है। पुन: इन्ही का संयुक्त प्रयास ही मान्य परम्पराओं को तोड़कर नई परम्परा बनाते हैं। पर हर नई के साथ हमेशा संघर्ष की एक नई स्थिति बनी रहती है।

समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत का उपन्यास काले उजले दिन वास्तव में व्यक्ति के जीवन चक्र में निहित दुख और सुख के क्षणों के प्रतिफल में निर्मित उसके व्यक्तित्व की पड़ताल का अनुपम प्रयोग है। जीवन का पूरा दर्शन कई खंडों में बिखरे व्यक्तिगत अनुभवों का निचोड़ होता है। ऐसे में किसे के द्वारा किया हुआ कोई कार्य सही है या गलत? इसका निर्णय करना बहुत मुश्किल होता है। अमरकांत निश्चित तौर पर इस उपन्यास के माध्यम से जिन प्रश्नों को उठाने का प्रयत्न करते हैं, वे इस बात को झुठला देते हैं कि अमरकांत छोटे दायरे के लेखक हैं।

आकाश पक्षी / A NOVEL BY HINDI WRITER AMERKANT

आकाश पक्षी :-


राजकमल प्रकाशन द्वारा ही इस उपन्यास का प्रथम संस्करण 2003 में प्रकाशित हुआ। 219 पृष्ठों का यह उपन्यास अमरकांत की एम महत्वपूर्ण कृति है।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यक उपन्यास हेमा (हेमवती) नामक लड़की की कहानी है। जो एक बड़े रियासत से 'बड़े सरकार` की बेटी है। पर देश आजाद होने के साथ ही साथ काँग्रेस ने रियासतों का राज खत्म कर दिया। इसका प्रभाव हेमा के परिवार पर भी हुआ। वे अपनी रियासत छोड़कर लखनऊ की अपनी कोठी में रहने के लिए आ जाते हैं। पर हेमा के पिताजी की आदतों के कारण जल्द ही उनकी माली हालत बहुत ही बुरी हो जाती है। हेमा के पिताजी को अपने बड़े भाई 'राजा साहब` से बड़ी उम्मीदें थी, जो कि रियासत खत्म होने के बाद दिल्ली रहने चले गये थे। शुरू में राजा साहब ने हेमा के पिताजी को भरोसा दिलाया था कि घर खर्च के लिए पैसे भेजते रहेंगे। पर बाद में उन्होंने पैसे भेजने बंद कर दिये। हेमा के पिताजी ठेके का काम करना चाहते थे, पर उनकी आदतों ने जल्द ही उन्हें कंगाल बना दिया।

इसी बीच हेमा को पड़ोस मंे रहनेवाले 'रवि` से प्यार हो जाता है। रवि उसे पढ़ाने उसके घर पर आता था। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहने लगे थे। पर हेमा की माँ को यह पसंद नहीं आता। अपने उँचे कुल-खानदान और रियासती दिनों की शानो-शौकत के आगे वे रवि को अपने बेटी के लायक नहीं समझती थीं। रवि के पिता इंजीनियर थे। वे रवि और हेमा की शादी का प्रस्ताव हेमा के पिता के सामने रखते हैं। पर हेमा के पिता इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। साथ ही साथ वे इंजीनियर साहब के मकान छोड़कर चले जाने की हिदायत भी दे देते हैं।

इंजीनियर साहब ऐसा ही करते हैं। रवि के चले जाने के बाद हेमा उदास हरने लगी। पर हेमा पर उसके घरवालों को बिलकुल भी तरस नहीं आया। उन्होंने कुँअर युवराज सिंह नाम एक पैंतालिस वर्ष के साथ हेमा का विवाह करने का निश्चय कर लिया। कँुअर साहब भी किसी पुरानी रियासत के मालिक रह चुके थे। उम्र में हेमा से बहुत बड़े थे। हेमा उन्हें बिलकुल पसंद नहीं करती थी, पर माँ-बाप और अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह मजबूर थी। और अंतत: वह अपने माँ-बाप और परिवार के लिए खुद की बलि देने के लिए तैयार हो जाती हैं।

इस तरह अपना शरीर वह कुँअर साहब को समर्पित कर देती है। कुँअर साहब से उसकी शादी हो जाती है। परिवार का झूठा अहंकार और सम्मान बच जाता है। कुँअर साहब से रिश्ता जुड़ जाने के कारण हेमा के परिवार को भी आर्थिक सहायता मिल जाती है। हेमा के माँ-बाप चाहते भी यही थे।

अमरकांत का यह उपन्यास भारतीय सामंतवाद की हताशा, निराशा, कुंठा और उनके झूठ अहम के बीच पिसनेवाली एक निर्दोष लड़की हेमा की बड़ी ही मार्मिक कहानी है। होने वाले सामाजिक परिवर्तन को अपने झूठे अहम के दम पर कोई कब तक दबा सकता है। और इसकी कीमत क्या वह अपने ही बच्चों की खुशियों में आग लगा कर करेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर यह उपन्यास बखुबी देता है।

हेमा बदलती हुई परिस्थितियों को समझ रही थी। वह समय के साथ बदलना भी चाहती है, पर उसके माँ-बाप ऐसा नहीं चाहते। खुद हेमा के शब्दों में, ''यह कहना गलत होगा कि हम लोगों के पतन का दायित्व कांग्रेस या देश की स्वतन्त्रता को है, जैसा कि बड़े सरकार कहा करते थे। मैं अब अच्छी तरह समझ गयी थी कि यह धारणा अत्याधिक गलत है। हम लोगों में जो गिरावट आ गयी है वह केवल हमारी ही वजह से। हम न मालूम कितने वर्षो से इस देश के शरीर पर फोड़े की तरह विद्यमान थे जिसको काटकर निकाल फेंकने में ही सारे देश की तरक्की हो सकती थी। परंतु अफसोस की बात तो यह थी कि रियासतें खत्म हो जाने पर भी बहुत से राजा-महाराजा अपनी खोखली उँचाई से नीचे उतरकर जनता में मिलते-जुलते नहीं थे।``29

अमरकांत ने इस उपन्यास के लिए जो कथानक चुना वह सचमुच बड़ा ही संवेदनशील है। रवि और हेमा के प्रेम के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में हो रहे बहुत बड़े परिवर्तन को रेखांकित करने का प्रयास किया है। कहा जा सकता है कि एक सजग रचनाकार के तौर पर अमरकांत ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज में घटित हो रही एक पूरी की पूरी परिवर्तन श्रृंखला को बड़े ही सुंदर तरीके से उपन्यास में पिरोया।
    

सूखा पत्ता /HINDI WRITER AMERKANTS FAMOUS NOVEL

सूखा पत्ता :-


सन 1984 में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 202 पृष्ठों का यह उपन्यास खूब चर्चित हुआ। इस उपन्यास की कहानी अमरकांत के एक मित्र की कहानी है। इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा का खुलासा करते हुए अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''यह मेरे एक मित्र की कहानी है। बीते दिनों के संस्करणों से भी युक्त उनकी मोटी डायरी पढ़ने के बाद यह उपन्यास लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई, जो शीघ्र ही इतनी तीव्र हो गयी कि मेरे दिमाग में स्वत: ही एक खाका उभरता गया और कुछ ही महीनों में मैने इसे लिख लिया।``22

अमरकांत की उपर्युक्त बात से स्पष्ट है कि यह उपन्यास अमरकांत ने मात्र पैसों के लिए नहीं लिखा। साथ ही साथ इसे लिखने में उनकी पूरी एनर्जी भी लगी। यह बात इसलिए स्पष्ट कर रहा हूँ क्योंकि अमरकांत यह कह चुके हैं कि उन्होंने अधिकतर उपन्यास आर्थिक अभाव में दूसरों के आग्रह पर सप्रयास लिखा है। 'सूखा पत्ता` अमरकांत के ऐसे उपन्यासों से अलग है। अत: इसकी प्रतिष्ठा भी उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में अलग रही।

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार जी अमरकांत के इस उपन्यास को शरत के श्रीकांत से प्रेरित मानते हैं। इस उपन्यास पर अपनी लंबी प्रतिक्रिया देते हुए वे लिखते हैं कि, ''उपन्यास की दृष्टि से 'सूखा पत्ता` सबल रचना है। अमरकांत का यह पहला उपन्यास मैंने पढ़ा और इस रचना के लिए मैं उन्हें बधाई देना चाहता हूँ। यों 'सूखा पत्ता` भी निर्दोष रचना नहीं है। कच्चापन उसमें भी स्पष्ट झलकता है। प्रेरणा-स्त्रोत स्पष्टत: शरत बाबू का 'श्रीकांत` है। उपन्यास का किशोर नायक, कृष्ण कुमार दसवीं जमात में पढ़ते हुए क्रांतिकारी दल की स्थापना करता है और साहस संचय की इच्छा से अपने साथी दीनेश्वर के साथ सरदियों की एक रात गंगा तट पर श्मशान में बिताता है। इस अंश की पूरी प्रेरणा शरत बाबू के 'श्रीकांत` के इंद्रनाथ से ली गई प्रतीत होती है, यद्यपि लेखक ने इस सब में भी मौलिक प्रतीत होने का भरसक प्रयत्न किया है।``23

इस तरह इस उपन्यास को सबल रचना मानते हुए भी विद्यालंकार जी इसके कच्चेपन की चर्चा करना नहीं भूलते। वैसे उपन्यास के पहले अंश को लेकर कही गयी उनकी यह बात सही भी लगती है। अपने वास्तविक जीवन में भी अमरकांत का बचपन ऐसी ही कुछ सच्ची घटनाओंे से युक्त रहा। बचपन में अमरकांत का परिचय जब अपने मोहल्ले के स्थानीय क्रांतिकारियों व उनके क्रांतिकारी साहित्य से हुआ तो कुछ स्थानीय क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने राजनीतिक वतर्कता दिखायी थी। पर उनकी वह सतर्कता हास्यास्पद की कही जायेगी। ऐसी ही कुछ घटनाओं को थोड़े परिवर्तन के साथ अमरकांत ने अपने इस उपन्यास 'सूखा पत्ता` में चित्रित किया है। उपन्यास में यह दिखाया गया है कि किस तरह चीनी और बोरे चुकारक युवकोें का एक दल उसे महान क्रांतिकारी घटना मानता है।

चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी इस उपन्यास की एक और कमजोरी का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि, '' 'सूखा पत्ता` की एक कमजोरी यह भी है कि उपन्यास का नायक कृष्ण कुमार उर्मिला से प्रेम के संबंध में बहुत बड़ी दुर्बलता दिखाता है। मेरी राय में उसे माँ-बाप के विरूद्ध और समाज की जातपातीय व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह करना चाहिए था। ........क्रांति का बार-बार नाम लेने वाले अमरकांत जातपात तोड़ने तक से जैसे घबराते हैं। आखिर वह कोई जीवन चरित्र तो लिख नहीं रहे थे।``24

चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी की यह बात हमें भी खटकती है। 'मूस`, 'हत्यारे`, 'दोपहर का भोजन` और 'जिंदगी और जोंक` जैसी सशक्त कहानियों का लिखने वाला लेखक उपन्यासों में इतना संकोच क्यों करता है? यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती। ''फिर भी 'सूखा पत्ता` एक शक्तिशाली रचना है। लिखने का ढंग, कहानी का उत्थान और शैली - तीनों प्रथम श्रेणी के हैं और यह इस उपन्यास की बहुत बड़ी विशेषता है।``25

लेकिन इस उपन्यास में ही समलिंगी प्रेम के वर्णन का सहारा अमरकांत के एक नए स्वरूप को हमारे सामने रखता हैं। राजेन्द्र किशोर जी तो अमरकांत को 'निराला` की टक्कर का संयमित साहस रखनेवाला उपन्यासकार मानते हैं। इस उपन्यास की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि, ''कथा के प्रथम खण्ड में नायक के मित्र तथा आदर्श मनमोहन के चरित्र को बड़े प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। इस चरित्र की कल्पना का साहर और इसकी इतनी प्रभावशाली रचना बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके संबंध के सारे विवरण औपन्यासिक होते हुए भी अपनी प्रामाणिकता से हमंे प्रभावित करते हैं। यह न केवल 'साहसिक` है, बल्कि यह नायक से समलिंगी प्रेम भी करता हैै। इसके चरित्र के इस पक्ष को उभारने के लिए लेखक ने वातावरण का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है और सबसे बड़ी बात यह है कि लेखक इसके वर्णन में स्वयं पतित नहीं हुआ। निराला के बाद शायद ऐसा संयमित साहस अमरकान्त ने ही किया है।``26

परमानंद श्रीवास्तव जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, ''अमरकांत के इस उपन्यास में कृष्णकुमार के चरिये इसकी कैशोर मानसिक विकृतियों और किसी हद तक इसी के ब्याज से उपरिपक्व राष्ट्रीय मानस की कमजोरियों का आकलन प्रस्तुत किय है। सम्भव है इस सजग आत्म-विश्लेषण से कृष्णकुमार की 'गति` बदले - पर ऐसा कोई सुधारवादी आग्रह लेखक के उद्देश्य पर हावी नहीं है और यह शुभ है।``27

'सूखा पत्ता` उपन्यास के संदर्भ में यह जान लेना भी आवश्यक है कि अमरकांत ने इसे 1956 में ही लिख लिया था। और इसका एकाध संस्करण 1959 में छप भी गया था। पर इसका सही मूल्यांकन 1984 में ही निकाला। इसके बाद ही इसका व्यापक डिस्ट्रीब्युशन हुआ और समीक्षकों तक यह उपन्यास पहुँच पाया। स्वयं अमरकांत इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''सन 1959 में 'सूखा पत्ता` का पहला संस्करण हुआ था। उसी समय कई पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा छपी, बहुत से लेखकों ने इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाएँ भी दी। पर्याप्त स्वागत हुआ था इस उपन्यास का। लेकिन लिस प्रकाशक ने इसे छापा था, उसकी बिक्री व्यवस्था ठीक नहीं थी। फिर भी, 1969 में दूसरा संस्करण छपा, 1984 में राजकमल प्रकाशन ने पेपर बैंक में भी इसे छाप दिया। ..... अपने उपन्यासों में 'सूखा पत्ता` को ही मैं विशिष्ट मानता हूँ, कहानियाँ जरूर कुछ ऐसी हैं जो इससे हटकर हैं और उन्हें कुछ लोग 'सूखा पत्ता` से अधिक प्रौढ़ एवम् सशक्त भी कह सकते हैं।``28

इस तरह स्पष्ट है कि अपने उपन्यासों में अमरकांत 'सूखा पत्ता` को विशिष्ट मानते हैं। समीक्षकों ने इस पर पर्याप्त समीक्षाएँ भी लिखी। हम कह सकतें हैं कि अमरकांत द्वारा लिखा गया यह उपन्यास ही सही मायनों में उपन्यासकार के रूप में उन्हें हिंदी साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करता है।

सुखजीवी / AMERKANTS HINDI NOVEL

सुखजीवी :-


228 पृष्ठों का यह उपन्यास 'संभावना प्रकाशन` हापुड़ से 1982 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास भी रोमान्टिक ऐटीट्याूड को ही व्यक्त करता है। यह उपन्यास दीपक नामक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसके संदर्भ में उपन्यास का ही यह वाक्यांश सही लगता है कि, ''दुनिया में ऐसे किस्म के भी व्यक्ति हैं, जिनमें बुद्धि और मौलिकता नहीं होती, जो हर संभावनाओं से हीन होते हैं, जो मन से सर्वथा कमजोर होते हैं, परन्तु उनके मन के भीतर एक ऐसी स्वार्थ परकता, दुष्टता और हीनता होती है, जिसको वे अपनी बातों अस्वीकार करने की चेष्टा करते हुए मालूम होते हैं।``19

उपन्यास के नायक दीपक का यही हाल है। वह अपनी सीधी-सादी पत्नी से बात-बात में झूठ बोलता। उसके घर देर पहुँचने पर जब पत्नी अहल्या कारण पूछती तो वह यह बताता कि उसका एक्सीडेन्ट हो गया था। इसी तरह के झूठ वह हर बात में कहता। ''अहल्या को चिन्तित, दुखित और रोते देखकर उसे सदा यह सन्तोष होता था कि वह एक ऐसी स्त्री का पति है जो उसको अपनी समस्त शक्ति से प्यार करती है और उसके लिए कोई भी कुरबानी कर सकती हैं। वह यह अपना अधिकार समझता था कि अहल्या जैसी पतिव्रता स्त्री उसके कष्ट और मजबूरी की बात सुनकर अपना समस्त अभिमान, शिकवा-शिकायत और तकलीफ भूल जाय। और चूंकि अहल्या ऐसी ही करती थी इसलिये वह अपने दु:ख, पीड़ा और लाचारी की बात करके पत्नी को निरस्त्र करने में सदा सफल होता था।``20

पत्नी के इसी स्वभाव का फायदा उठाकर दीपक पड़ोस में रहनेवाली लड़की रेखा से झूठा प्रेम करने लगता है। वास्तव में उसकी दिलचस्पी सिर्फ रेखा की जवान देह में ही थी। रेखा भी उसके प्रेम जाल में आसानी से फँस जाती है। वह रेखा को यह बताकर सहानुभूति हाँसिल करता है कि वह अपनी पत्नी अहल्या से दुखी है। अहल्या के अंदर कोई गुण नहीं है। वह अपने जीवन में प्रेम के लिए तरस गया है। रेखा दीपक की इन बातों में फँस गयी। उसने अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर दिया। दीपक ने उसके शरीर से पूरा सूख उठाया। जैसे चाहा वैसे प्रेम किया। पर जब रेखा ने दीपक को पूरी तरह अधिकार के साथ पाना चाहा तो वह डर गया।

इधर जब धीरे-धीरे अहल्या को दीपक और रेखा के संबंधों के बारे में पता चल जाबा है तो दीपक डर के अहल्या के पैरों पर गिर पड़ता है। उसे समझाते हुए दीपक कहता है कि, ''मैं अपनी गलती मान लेता हूँ। मैंने तुम्हारे साथ धोखा किया। आज मेरी आँखे खुल गई हैं। मैं उस आवारा लड़की से बहुत दिनों से पिंड छुडाना चाहता था, लेकिन वह मेरे पीछे पड गई है। जानती हो, बुरी औरतें किस तरह मर्दो को फंसा लेती हैं? मुझमें बहुत-सी कमजोरियाँ हैं, लेकिन कम-से-कम यह कमजोरी मुझमें नहीं थी। मैं पराई औरतों से कोसों दूर रहता था। फिर यह लड़की आई। यह जान-बूझकर मेरे पास आती, मुझसे छेड़ा-खानी करती, आंखों से कटाक्ष करती। ..... यह लडकी तो यूनिवर्सिटी की बहुत चालू लड़की है। इसका काम ही है। एक मर्द को फांसना, फिर उसको छोड़कर दूसरे मर्द को पकड़ना। तुमने आज बचा लिया, अहल्या, तुमसे और बच्चों से बढ़कर मेरे लिए कोई नहीं। भगवान का शुक्र है कि तुम्हारी-जैसी स्त्री मुझको मिली.... मैं तुम्हारी और बच्चों की कसम खाता हूँ कि मैं आगे से उस आवारा लड़की से कोई मतलब नहीं रखूंगा।``21

इस तरह वह अहल्या को मनाता है। कुछ दिनों तक उसका खयाल भी रखता है। पर वह यह नहीं चाहता था कि रेखा के जवान शरीर का सुख उससे छूट जाये। अत: वह एक दिन रेखा से मिलता है। पर रेखा उसकी वह बातें चुपके से सुन चुकी रहती है जो वह अहल्या से रेखा के संबंध में कहता है। रेखा उसे झिड़क देती है। दीपक को रेखा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता। वह मन ही मन उसे कोसता है। दीपक फिर यह निर्णय लेता है कि वह अपनी पत्नी और बच्चों का खयाल रखेगा और कानून की पड़ाई करेगा व वकील बन कर देश की सेवा करेगा।

दीपक के इस संकल्प के साथ उपन्यास खत्म हो जाता है। लेकिन दीपक जैसे लोगों के संकल्प कभी भी बदल सकते हैं। अपने सुख और आराम के लिए दीपक हर स्तर पर गिरने के लिए तैयार रहता था। हर बात में वह अपने सुख और लाभ का हिसाब लगाता था। उसका सारा आदर्श, सारी नैतिकता उसके अपने शरीर सुख तक केन्द्रित रहती है। वह सही मायनों में 'सुखजीवी` था। इस तरह उपन्यास के कथानक के आधार पर इस शीर्षक एकदम उचित प्रतीत होता है।
      

दीवार और आंगन /amerkants novel deevar aur aangn

दीवार और आंगन :-


253 पृष्ठों का यह उपन्यास मई 1969 में अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। यही उपन्यास बादम ें 'बीच की दीवार` सामक शीर्षक से भी प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के केन्द्र में दीप्ति है। जिसकी उम्र संग्रह वर्ष की है। अशोक को लेकर उसमें शारीरिक वासना जागृत होती है। पूरे उपन्यास में प्रेम, वासना और अंत में विवाह के रूप में इसकी परिणति ही दिखायी पड़ता है।

''दिवार और आंगन में रचनाकार की निगाह दिप्ति में हैं किशोर वत्तियाँ दीप्ति और अशोक को पास ला कर शारीरिक भोग की आकांक्षा पैदा करती हैं। अशोक की आकांक्षा दीप्ति से कुंती की ओर चली जाती है। मनफूल और दीप्ति की निकटता मंे दीप्ति का अहं तुष्ट होता है। मनफूल उसकी प्रशंसा करता है। उसमें नई ग्रंथि बनती है, देश में नाम कमाने की। वह भी संगीत और पहलवानी में मनफूल केवल दीप्ति का शरीर सुख चाहता है और इसी के लिए जाल रचता है। यह सम्बन्ध भी टूट जाता है। सम्बन्धों के टूटने से दीप्ति निराश होती है किन्तु अब वह प्रेम की परिभाषा को शरीर सुख से हटाकर मन तक ले जाती है। मोहन और दीप्ति का संबंध अंतर्जातीय प्रेम विवाह तक पहुँचता है। इस तरह दीप्ति की उन्मादी भावनाएँ प्रेम के विचारवान क्षेत्र में परिणति प्राप्त करती हैं।17

अमरकांत द्वारा लिखा गया यह उपन्यास 'रोमान्टिक ऐटीट्याूड` को अधिक व्यक्त करता है। अमरकांत के इस उपन्यास के पात्र प्रेम, घृणा, करूणा और शारीरिक वासना में जब लिप्त रहते है तब भी उनके विचारों में आदर्श के प्रति एक सजग भाव बना रहता है। यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक अपने पात्रों से जो चाहता है वही करवाने का प्रयास करता है। फिर चाहे इसके लिए कहानी या उपन्यास के मूल कथानक और शिल्प में घटित परिवर्तन अविस्वशनीक ही क्यों न हो जाये। इस संदर्भ में हम अमरकांत के दूसरे उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोह` का उदाहरण ले सकते हैं। एक स्त्री जो जवान है वह अपने ससुर की बुरी नीयत ताड़ कर घर से निकल जाती है। सारा जीवन वह बाहर दूसरों के यहाँ काम करके जैसे-तैसे बिता देती है। पर उसके चरित्र पर कभी कोई दाग नहीं लग पाता। आश्चर्य होता है कि 'मूत` जैसी कहानी लिखनेवाले अमरकांत उपन्यास के कथानक में इतने सीमित कैसे हो जाते हैं? उपन्यासों में अमरकांेत अपनी वस्तुवादी स्थिति को छो़ड़ते रूक जाते हैं। इसी संदर्भ में कमला प्रसाद पाण्डेय जी लिखते हैं कि, ''......तँय है कि परिस्थितियाँ एक सुसंगठित वस्तु की तरह उनके अंदर प्रवेश करती हैं और रचनात्मक संदर्भ के साथ बाहर आ जाती है। भीतर जाने और बाहर आने के क्रम में पूरी आत्मीय तटस्थता निभाने की संभावनायें उनमें हैं लेकिन संभावनाओं का उपयोग कहीं कहीं नही कर पाते। असमर्थता के कारण उपन्यासों में कई जगह कथात्मक विराम लगने लगता है।``18

इन सब के बावजूद अमरकांत के उपन्यासों में पात्रों का संघर्ष, संघर्ष की मौलिकता, सामाजिक परिवेश का गहरा विवेचन, और उपन्यास लेखन की प्रक्रिया में अपनी बौद्धिक उपस्थिति अमरकांत बखूबी दर्ज करते है। 'दीवार और आंगन` रोमान्टिक ऐटीट्याूड में लिखा गया एक सफल उपन्यास हैं। यह उपन्यास किसी बड़े प्रकाशक के द्वारा प्रकाशित नहीं हुआ था। अत: प्रारंभ में इसके डिस्ट्रीब्युशन में भी समस्या आयी। इस बात को स्वयं अमरकांत भी स्वीकार करते हैं।

कँटीली राह के फूल ,amerkants novel

कँटीली राह के फूल :-


यह उपन्यास राजकमल प्रकाशन द्वारा दिसम्बर 1963 में प्रकाशित हुआ। लगभग 150 पृष्ठों के इस उपन्यास में अनूप नामक युवक का मधु औ कामिनी नामक दो स्त्रियों को लेकर प्रेम संघर्ष चित्रित है। दोनों स्त्रियों के स्वभाव में बहुत अंतर है। एक के लिए जीवन भोग, विलास और मस्ती का नाम है तो दूसरी प्रेम को भोग से कहीं ऊँचा मानती है।

कमला प्रसाद पाण्डेय जी इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि, '' 'कँटीली राह के फूल` के अनुप के सामने मधु और कामिनी लगभग आसपास ही आती है। अनूप शर्मीला खिलाडी, पढ़ने में शिथिल, प्यार करने के मामले में झिझकने वाला किन्तु दूसरों से ईर्ष्यालु के रूप में प्रकट होता है। यह एक स्थिति है जहाँ इसे रूढ़िवादी व्यक्तिवादी व्यवस्था ने मनुष्य को पैदा किया है। अनूप में सबसे बड़ी कमजोरी है शर्म के कारण, सोच और अभिव्यक्ति का फर्क। वह जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता। शब्द उसका साथ नही देते। वह झूठ नही बोलता, क्योंकि अभिव्यक्ति के एक स्तर में लाने का ही काम यह उपन्यास करता है। उसके सामने मधु है जिसके लिए जिंदगी मस्ती, रोमांस, शान-शौकत तथा शरीर भोग है। अनूप उसके साथ घूमता है, उसे खुली किताब के रूप में एकान्त में देखता है पर उसके दिमाग में कामिनी का गंभीर समझदार सम्मानपूर्ण चेहरा है, जिसमें प्रेम भीतरी तह से निकलता है। वासना उसका हल्का संस्पर्श है। वह अनूप से प्यार करती है और अनूप भी उसे प्यार करता है। अनूप को शब्द धोखा देते हैं और अधिकार जताने में उसका स्वभाव आडे आता है। मधु और कामिनी के बीच अनूप का विकास कथा का कार्यक्रम है।``16

'कँटीली राह के फूल` उपन्यास के संबंध में कमला प्रसाद जी का उपर्युक्त विवेचन एकदम सटीक है। इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने उस व्यक्ति की मानसिक दशाओं का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है जो अपने सोचे हुए को कभी भी वास्तविक जीवन में करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। अनूप के विचारों एवम् व्यवहार से यही बात सामने आती है। उसका अपना मानसिक द्वंद्व ही उसे परेशान किया रहता है।

अमरकांत एक सलग और जागरूक लेखक माने जाते है। कथा कहने का उनका अपना तरीका है। वे एक भारतीय व्यक्ति की भावनाओं, संस्कारों, भावुकता और संकोच से अच्छी तरह परचित हैं। समाज का पिछड़ापन, अंधविश्वास, पाखंड और अन्य सामाजिक बुराईयाँ उन्हें सालती हैं। पर इन सब से परेशान होकर वे कोई आदर्श स्थित की कल्पना के साथ समाधान खोजने का प्रयास नहीं करते। बल्कि यथार्थ की ठोस जीवन पर ही उनका व्यवहारिक हल अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।

उनकी यही विशेषता उनके इस उपन्यास 'कँटीली राह के फूूल` में दिखायी पड़ती हैं।
      

अमरकांत का उपन्यास - ग्राम सेविका ,amerkants novel gramsevika

अमरकांत का उपन्यास - ग्राम सेविका 
'ग्राम सेविका` उपन्यास का प्रथम संस्करण अप्रैल 1962, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के संदर्भ में अमरकांत ने लिखा है कि, ''कुछ ग्राम सेविकाओं से इन्टरव्यू के आधार पर लिखे गये इस उपन्यास का आकार शुरू में काफी छोटा था। इसी रूप में यह 'नयी हवा नयी रोशनी` के नाम से उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग के साप्ताहिक पत्र 'ग्राम्या` में धारावाहिक रूप में छपा था।``13


कमला प्रसाद पाण्डेय जी ने अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में लिखा है, '' 'ग्राम सेविका` में कथा स्त्री की ओर से आरंभ होती है। दमयन्ती को अपनी किशोरावस्था में अतुल से मोह हुआ जिसे दोनों ने प्यार कहा। रूढ़िवादी मजबूरियों के कारण मोह भंग हुआ, विवाह न हो सका, दमयन्ती ग्रामसेविका बनी। बद के जीवन में उसे एक बार मोह से निवृत्त हो चुकने का लाभ मिला; अतुल से छूटने कि शिक्षा ने उसके जीवन को साहस, समझ और प्रेम की व्याख्या दी। अंतत: वह गांव के जीवन में सामाजिक रूपान्तरण का कार्य करती बीच से अपनी भाँति मोह के कीचड़ से हरचरण को निकाल लाई। दोनों का विवाह हो गया।``14

'ग्राम सेविका` उपन्यास की यही वस्तु कथा है। जिसे अमरकांत ने लगभग 186 पृष्ठों में लिखा है। इस उपन्यास में ''अमरकांत का समाजवादी आधार गाँधीवादी आधार से पराजित दिखाई देता है।``15 अमरकांत के इस उपन्यास को पढ़ते हुए प्रेमचंद के 'सेवासदन` की याद आ जाती है। हालांकि सेवासदन के रचनात्मक स्तर पर 'ग्रामसेविका` की बराबरी नहीं हो सकती पर 'सुधारवाद` का स्वर दोनों ही उपन्यासों में एक सा प्रतीत होता है।

'सेवासदन` प्रेमचंद का पहला उपन्यास है तो 'ग्राम सेविका` अमरकांत के शुरूआती उपन्यासों में से एक है। 'सेवासदन` की मुख्य समस्या 'वेश्या-जीवन में सुधार` का हल प्रेमचंद सेवासदन की स्थापना में ढूँढते हैं। वास्तविक धरातल पर यह उपाय किसी काम का नहीं है। जबकि 'ग्रामसेविका` उपन्यास में समाधान प्रस्तुत करने की अपनी तरफ से कोई आदर्शवादी चेष्टा अमरकांत नहीं करतें। उनकी पात्र 'दमयन्ती` अपने संघर्ष को उतना ही सहज-सरल तरीके से लड़ती है जितना कि उन परिस्थितियों में घिरी कोई भी स्त्री लड़ सकती है। निश्चित तौर पर उनकी नायिका ग्रामसेविका बनकर आदर्श की नई स्थितियों को छूती है। पर उसमें असंभव जैसी कोई बात नहीं दिखती।

अत: अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यह उपन्यास यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत एक सुंदर कृति है। इस उपन्यास के माध्यम से अपने समय, परिवेश, समाज और सामाजिक परिवर्तनों को अमरकांत ने बखूबी प्रस्तुत किया है। 'दमयन्ती` का जवीन संघर्ष उसके जैसी हजारों स्त्रियों के जीवन संघर्ष का आईना है।
    

अमरकांत के उपन्यास /amerkant and novels

 अमरकांत के उपन्यास :

अमरकांत ने कहानियों के अतिरिक्त कई उपन्यास भी लिखे। एक उपन्यासकार के रूप में अमरकांत को उतनी प्रतिष्ठा नहीं मिली जितना की एक कहानीकार के रूप में। अब इसका कारण तय कर पाना बड़ा मुश्किल है। कहानियों के संदर्भ में एक ही लेखक को अच्छा और उपन्यासों के संदर्भ में उसे बुरा कह देना तर्कसंगत नहीं लगता। फिर भी कारणों की पड़ताल आवश्यक है। अत: जब मैंने अमरकांत से साक्षात्कार के दौरान यह प्रश्न किया कि आखिर उनकी कहानियों की तुलना में उनके उपन्यास मशहून क्यों नही हुए तो अमरकांत ने स्वयं कहा कि, ''उपन्यास 'सूखा पत्ता` छोड दे तो, बाकी सभी उपन्यास जल्दी जल्दी में लिखे। उन्हे लिखने में पूरी एनर्जी नहीं लगी। पूरी एनर्जी कहानियों में लगी। उपन्यास पैसों के लिए लिखे। जीवन से संघर्ष के निचोड़ के तौर पर कोई उपन्यास नहीं लिखा। पहले तो लोग स्वीकार ही नहीं करते थे उपन्यासकार के रूप में। लेकिन अब काफी चर्चा हो रही है। एक कारण उपन्यासों के चर्चित न होने का यह रहा कि कुछ हमनें खुद प्रकाशित की। उनका डिस्ट्रीब्युशन नहीं हो पाया। वैसे भी उपन्यासों की समीक्षा दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई है। चर्चा हो रही है। यह कोई टेम्पररी फेज नही है। चर्चाएँ होती रहती हैं। आगे भी होंगी.....।``12


अमरकांत का यह विश्वास सम् सामायिक परिस्थितियों में सही भी लगता है। इधर अमरकांत के उपन्यासों की भी चर्चाएँ हो रही हैं। 'इन्ही हथियारों से` जैसे उपन्यास इसका प्रमाण हैं। उपन्यासकार के रूप में अमरकांत की जाँच पडताल के लिए यह आवश्यक है कि हम उनके उपन्यासों का गहन अध्ययन करें। यहाँ पर हम अमरकांत के सभी उपन्यासों का संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे। उन उपन्यासों का भी जो किसी पत्रिका विशेष में 'उपहार अंक` के रूप में प्रकाशित हुए। लहरें  उनका ऐसा ही एक उपन्यास है। यह अभी तक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुआ है। किंतु कादम्बिनी पत्रिका के उपहार अंक (अक्टूबर 2005) में यह प्रकाशित हो चुका है। हाल ही में बया नामक पत्रिका में उनका एक और उपन्यास -बिदा क़ी रात   भी प्रकाशित हो चुकी है .

इस तरह अमरकांत के अब तक प्रकाशित कुल ११  उपन्यासों क़ी जानकारी हमारे पास है . 
  

अमरकांत क़ी नवीनतम कहानियाँ

अमरकांत क़ी नवीनतम कहानियाँ 

 'जाँच और बच्चे` अमरकांत का नवीनत कहानी संग्रह। इसका प्रथम संस्करण 2005 में अमर कृतित्व प्रकाशन की तरफ से प्रकाशित हुआ। 93 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 11 कहानियाँ संग्रहित की गयी हैं। इन्हीं में से कुछ कहानियों की हम संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे


एक निर्णायक पत्र :
'एक निर्णायक पत्र` कुमार विनय नाम आदर्शवादी मास्टर के प्रेम भावनाओं के आस-पास बुनी हुई कहानी है। व्यवस्था के भ्रष्टाचार को चुनौती देने के लिए नौकरी न करते हुए स्वावलम्बन का मार्ग अपनाना और अनिश्चित एवम् अव्यवस्थित जीवन के कारण नारी से दूर रहना; यही उसका दृढ़ निश्चय था।



लेकिन 'नीति` को ट्याूशन पढ़ाते हुए और बाद में उसके प्री-मेडिकल परीक्षा में सफल हो जाने के बाद विनय का नारी से दूर रहने का दृढ़ निश्चय टूट गया। 'नीति` भी उनके प्रेम को स्वीकार कर लेती है। पर जल्द ही वह पढ़ाई करने लखनऊ चली जाती है और कतिपय कारणों से विनय को पत्र लिखना भूल जाती है।



उसके इस व्यवहार से विनय के मन में कई प्रश्न उठते हैं। उसे लगता है कि नीति उसके उपकार को भूल गयी। वह उसके प्रेम को भी भुलाकर शहर में मजे कर रही है। अंतत: परेशान होकर विनय लखनऊ आता है और एक होटल में रूककर 'नीति` से मिलने का प्रयत्न करता है।



नीति से मिलने पर वह उसे अपने साथ होटल लाता है। बातों ही बातों में वह नीति को फटकारते हुए उसे चोट पहुँचाने वाली कई बातें कहता है। वह उसकी इज्जत-आबरू चौपट करने के इरादे से उसे पूरी तरह निर्वस्त्र कर देता है। नीति रोती जाती है और अपनी इज्जत-आबरू, प्राण सब कुछ सहर्ष गुरू-दक्षिणा के रूप में विनय को देने की बात करती है। इससे विनय शर्मिन्दा होता है। उसे लेकर वह कॉलेज जाता है। इससे नीति को जो हुआ वह सब भूलने और बाद में पत्र लिखने का वादा करके वहाँ से लौट आता है।



कई दिनों के इंतजार के बाद नीति को विनय का एक पत्र मिलता है। उस पत्र में नीति की तारीफ के साथ उसके शरीर की भी तारीफ लिखी थी। वह पत्र पढ़कर नीति चुपचाप खड़ी हो जाती है। पत्र उसके हाँथों से छूटकर रद्दी की टोकरी में जा गिरा।



अमरकांत की यह कहानी यहीं पर खत्म हो जाती है। पर पाठक के मन में यह सवाल बना रह जाता है कि उस पत्र के आधार पर नीति क्या निर्णय ले?



 हार :-



'हार` कहानी आदर्श और व्यवहार के बीच फँसे वकील बृहबिहारी बाबू की कहानी है। अंकिता उनकी पाँचवी लड़की है, जिसकी शादी की चिंता अब हमेशा उन्हें सताती रहती है। यही सब कारण है कि वे हमेशा चिढे-चिढे रहते। हर किसी से छोटी सी बात पर बहस करने के लिए तैयार हो जाते।



बार रूम में सरकारी वकील निर्मल बाबू से अक्सर ही उनकी गरम-गरम बहस होती रहती। वे प्राय: हर मुद्दे की बहस में निर्मल बाबू को परास्तर कर देते। एक दिन ऐसे ही बहस के दौरान दहेज की बात को लेकर दोनों में बहस होने लगी। निर्मल बाबू ने कहा कि इस प्रथा का कड़ाई से उन्मूलन करना चाहिए। इस पर बृजबिहारी बाबू ने उनकी बातों को पाखण्ड भरा बतोते हुए कहा कि यही निर्मल बाबू अपने लड़के की शादी में चुपके से लाखों रूपये रहेज लेंगे।



इस पर निर्मल बाबू ने अपने लड़के और बृजबिहारी बाबू की बेटी अंकिता की शादी बिना लेन-देन के करना कबूल कर लेते हैं। शादी के दिन बृजबिहारी बाबू अपनी खुशी से लड़की वालों का फर्ज निभाते हुए कुछ मिठाई और खाने-पीने का इंतजाम करते हैं। पर निर्मल बाबू यह भी नहीं चाहते थे। निर्मल बाबू के इस व्यवहार को देखकर बृजबिहारी बाबू की आँखे डबडबा जाती हैं। वे हमेशा बहस में निर्मल बाबू को हरा देते थे, पर आज वे निर्मल बाबू के व्यवहार के आगे हार जाते हैं। पर इस हार में जीत से अधिक खुशी थी।



 जॉच और बच्चे :-



'जाँच और बच्चे` इस संग्रह की अंतिम कहानी है। इस कहानी के केन्द्र चनरी के पति के मृत्यु की जाँच पड़ताल है। जाननी भी सिर्फ इतना है कि मौत बिमारी से हुई या भूख से?



जाँच अधिकारी पूरे दल-बल के साथ चनरी के घर पहुँचते हैं। चनरी उन्हें बताती है कि सूखे के दिनों मेंं उन्हें कोई काम नहीं देता। वे माँग कर अपना गुजारा कर रहे थे। लेकिन इधर कोई उन्हें कुछ नहीं देता था। इस कारण चनरी का पति एक बाटी का टुकड़ा पेट पर पानी पीकर लेटा हुआ था। रात भर उसे पेट मे दर्द रहा और उल्टी भी हुई। गाँव के डॉक्टर को देने के लिए फीस के 20 रूपये भी नहीं थे चनरी के पास। और इस तरह उसके आदमी की मौत हो गई।



अब उसके लिए यह बताना बड़ा मुश्किल था कि मौर भूख से हुई या बिमारी से? जाँच अधिकारी भी अपना काम खत्म कर जाने को हुए। उन्होंने गाँव के कुछ बच्चों को बातें करते हुए सुना। उन्होंने क्या बातें की इसका जिक्र कहानी में नहीं है। पर जाँच अधिकारी घर आकर पत्नी को अपने मोटे होने की बात बताते हुए कम खाना परोसने के लिए कहते हैं।



अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है कि, ''अमरकांत की कहानियाँ द्वन्द्वात्मक दृष्टि से परस्पर विरोधी स्थितियों का समहार कर पाने की शक्ति से रचित हैं। इसी अर्थ में वे 'कफन` की परम्परा में हैं। यह दृष्टि और शक्ति अमरकांत की अधिकांश कहानियों में सुलभ हैं।``11 डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी की उपर्युक्त बात एकदम सही है। अमरकांत की कहानियों का अध्ययन करके इसे आसानी से समझा भी जा सकता है।



अमरकांत मोह भंग की स्थिति के रचनाकार हैं। आजादी के बाद इस देश की प्रधान स्थिति मोहभंग की ही रही है। देश की इस मोहभंग स्थिति की सबसे बड़ी विडम्बना यही थी कि यह दिखती कुछ और थी, और होती कुछ और। जो दिखायी पड़ता वह पहचानने में अलग दिखायी पड़ता। तर्कहीनता की सारी स्थितियों समाज के उपस्थित थी। इन परिस्थितियों मंे अपनी रचनाओं के माध्यम से पात्रों को नैतिक बोध के बिन्दु पर ले जाना रचनाकार की जिम्मेदारी भी है और बहुत बड़ी शक्ति थी।



अमरकांत अपनी इस जिम्मेदारी से अवगत थे। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ हमारे चर्चा के केन्द्र में रहीं। इसमें कोई आशंका नहीं रह जाती कि अमरकांत आम आदमी की प्रतिबद्धता से जुड़े हुए बेजोड़ रचनाकार हैं। 


     

अमरकांत क़ी कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ

अमरकांत क़ी कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ
 मकान :-




'मकान` कहानी मनोहर नामक व्यक्ति की नये मकान को लेने की परेशानी के साथ शुरू होती है। वह शहर के एक पुराने मकान में कई सालों से रह रहा था। पर आर्थिक परेशानियों के चलते अब उसे और उसकी पत्नी को यह लगने लगा था कि इस मकान में ही कोई दोष है। अत: उन्हें किराये पर ही कोई दूसरा मकान ले लेना चाहिए। दूसरे मकानों का किराया उसके बजट में नहीं है अत: वह नया मकान दिलवाने में लेखक की मदद चाहता है।



वह यह भी लेखक को बताता है कि वह एक ज्योतिषी से मिलाहै और उन्होंने भी भूत-प्रेत के साये की बात कहकर मकान बदलने की ही सलाह दी है। लेखक मनोहर को आस्वाशन देकर वापस भेज देतें है। पर वे खुद नहीं समझ पाते कि इस बारे में वे क्या करें।



आदमी अपनी परेशानियों के किस तरह सोचने का दायरा बढ़ाकर भी गलत ही सोचना है, इसे मनोहर के माध्यम से समझा जा सकता है।



 हंगामा :-



'हंगामा` लीला का वह नाम था जो मोहल्ले वालों ने उसे दिया था। लीला मोहल्ले के घरों में जाकर कुछ न कुछ माँगने के लिए बदनाम हो गयी थी। इसलिए लोगों ने उनका नाम ही 'हंगामा` रख दिया था।



लीला की उम्र चालिस की थी। उनके जीवन का सबसे बड़ा अभाव यहीं था कि उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। डॉक्टरों ने भी उन्हें निराश ही किया। लीली जी की अजीब मानसिक स्थिति थी। वे सब के यहाँ जाती। किसी के घर कोई नयी था अच्छी बात होती तो वे उससे नाराज हो जाती। कई दिनों तक उनसे बात ही न करती। पर कुछ ही दिनों में सब भूल कर फिर आना-जाना शुरू कर देती।



इधर बच्चे न होने से वो बहुत चुपचाप सी रहती थीं। इसी बीच उनके घर के बाहर एक कुतिया ने कुछ बच्चे दिये। लीला अब उनकी सुरक्षा में ही लगी रहती। क्या मजाल था कि कोई उन्हें छू भी दे। लीला मामूली सी बात पर 'हंगामा` खड़ा कर देती।



 कुहासा :-



'कुहासा` 1980 के दशक में लिखी गयी अमरकांत की प्रमुख कहानियों में से एक है। इस कहानी में उन्होंने झींगुर नाम सतरह वर्ष के बच्चे के जीवन संघर्ष को चित्रित किया है। एक ऐसा संघर्ष जो झीगुर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता है।



झींगुर के पिता घर की दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण बेटे को घर से शहर भगा देता हैं। शहर आकर झींगुर रोजही पर मेहनत करने लगता है। पर जी-तोड मेहनत करने के बाद भी उसे सिर्फ दो वक्त खाने भर का ही पैसा मिल पाता। कभी- कभी तो वह भी नसीब न होता। ऐसे में उसे पानी पी कर ही गुजारा करना पड़ता।



ठंडी के दिनों में सरकार की तरफ से उसे एक कंबल मिला था। पर एक दलाल 25 रूपये देकर वह भी ले लेता है। पैसों से वह दो वक्त भरपेट खाना खाता है। पर ठंडी बहुत बढ़ गयी थी। सर्द रात में उसका रहने का कोई ठिकाना नहीं था। पहनने-बिछाने के कपड़े नहीं थे। वह ठंड की एक रात में सर घुटनों में डाले बैठा हुआ था। रात को वह एक तरफ लुढ़क गया। सुबह जब जमादार आया तो उसने उसे मरा हुआ पाया। उसकी लाश लावारिश पायी गयी थी। कुछ देर बाद उसे पास्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। सरकार के लिए यह पता लगाना बहुत जरूरी था कि झींगुर की मौत स्वाभाविक थी या किसी ने उसको जहर-वहर तो नहीं दिया।



उसकी मृत्यु पर कुहासे की चादर थी। कुहासा व्यवस्था, गरीबी और ठंड का? अब इनमें से मृत्यु का जिम्मेदार किसे माना जा सकता था? अमरकांत पाठक के लिए यह प्रश्न छोड़ देते हैं।



 पहलवानी :-



'पहलवानी` कहानी ऐसे लोगों को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है जो यह नहीं समझ पाते कि वे कितने महान हैं? अपने आगे उन्हें सभी फीके लगते हैं। पर यथार्थ की जमीन पर बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें झुकना ही पड़ता है। पर इस हेतु भी वो अपनी गौरवगाथा को खुद बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं और बदले में सामने वाले से कुछ हथियाने को ही अपनी पहलवानी की जीत मानते हैं।



लेखक के घर ऐसे ही एक व्यक्ति आ पहुँचते हैं। वे अपने आप को बहुत बड़ा साहित्यकार और लेखक के भाई का मित्र बताते हैं। वे सभी साहित्यकारों को जानते हैं। 150 से अधिक उपन्यास लिख चुके हैं। सरकारी नौकरी को तुच्छ मानते हैं। बड़े-बड़े अधिकारी तो उनसे अनुरोध करते हैं पर वे किसी से भी मिलने नहीं जाते। बड़े भाई का काफी इंतजार करने बाद जब वे नहीं आते तो लेखक महोदय आने का आशय स्पष्ट करते हुए 50 रूपये उधार माँगते हैं जिसे लेखक देकर उन्हें विदा करते हैं।



 लोक परलोक :-



'लोक परलोक` कहानी के केन्द्र में व्यक्ति का अपना स्वार्थ और इस स्वार्थ सिद्धी के लिए दूसरों का शोषण करने की बात है। आदमी इसके लिए कुछ आदर्शवादी तर्क भी सामने प्रस्तुत कर देता है।



कहानी के लेखक के घर एक दिन उनके पुराने मित्र दिनेश किसी साथी के साथ पहुँचे। बात-चीत में पता चला कि वे पिछले कई सालों से चुनाव लड़ते और हारते आये हैं। पर देश और जाति के कल्याण के लिए अभी भविष्य में चुनाव जीतने की इच्छा बरकरार है।



अपने इस महान उद्देश्य के लिए वे 'अकबर` नाम अपने नौकर को बहला फुसलाकर 'बालचन्द आर्य` बना देते हैं। वे अपने देश और जाति का गौरव इसी तरह बढ़ाने में विश्वास रखते हैं। यही उनके जीवन का सिद्धांत भी है। बालचन्द्र आर्य बाद में अधिक तनख्वाह न मिलने के कारण उनके यहाँ से काम छोड़ देता है। उसे दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। पर जब उनकी मृत्यु हो जाती है तो यही महोदय पूरे विधि विधान से उसकी अंत्येष्टी करवा देते हैं। इस तरह वे उसके लोक और परलोक दोनों को सँवारने की बात करते हैं।



अंत में चलते समय आने वाले चुनाव में लेखक से अनुरोध करते हैं कि वे देश व जाति की भलाई के लिए उन्हें जितायें।



चाँद :-



'चाँद` कहानी उस व्यक्ति की तरक्की की कहानी है जो इस अवसरवादी समाज में चापलूसी, झूठ और संंबंधों को सीढ़ी के रूप में इस्तमाल करता है। और उसे एकाएक इस बात का आश्चर्य भी होता है कि वह एक साधारण व्यक्ति से शहर का मह>वपूर्ण व्यक्ति कैसे बन जाता है?



इसी सवाल का जवाब जानने के लिए वह अपने मित्र प्रमोद से मिलता है। प्रमोद बातों ही बातों में उसे चाँद कहता है तो वह इसका अभिप्राय समझ नहीं पाता। इस पर प्रमोद उसे समझाता है कि अब शहर के बड़े-बड़े लोगों के साथ उसका उठना बैठना है। अफसरों की बीबियों की वह चापलूसी करता है। प्रमोद इसे बुरा नहीं मानता पर उसके अनुसार यह साहित्य का रास्ता नहीं था। प्रमोद फिर कहता है कि साधारण लोग प्रभावशाली लोगों के दफ्तरों के छोटे-छोटे कर्मचारी हैं। तुम उनके मालिकों के साथ घूमते फिरते हो इसलिए ये तुम्हें भी बड़ा आदमी समझते हैं और तुम्हारा सम्मान करते हैं। उनके लिए तुम चाँद ही हो गए हो।



प्रमोद की बातें सुनकर उनके मित्र गुस्से से फूल जाते हैं और सभी बातों को झूठा कहकर शांत हो जाते हैं।



 एक धनी व्यक्ति का बयान :-



'एक धनी व्यक्ति का बयान` विमल नाम एक युवक के जीवन संघर्ष की कहानी है। जिसकी बुद्धि धैर्य, प्यार व समझदारी से पोषित है। वह परिणाम की परवाह किए बिना अपने काम में लगा रहता है, इसीलिए वह जीवन में सफल भी होता है।



विमल ने जैसे ही इंटर पास किया, तो उसके पिताजी ने उसकी जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया। उसे मजबूरी में शहर आकर रहना पड़ा। शहर में वह एक-दो ट्याूशन करने लगा था। जो पैसे मिलते उनसे किसी तरह दो वक्त का खर्चा निकल पाता था।



इसी बीच शहर के एक बूढ़े उपेक्षित रईस से विमल का मेल जोल बढ़ता है। विमल चोरी-छुपे उन्हें सिगरेट के पैकेट लाकर दे देता था। वे सज्जन रईस तो थे पर पारिवारिक उपेक्षा के शिकार थे। उन्हें जब विमल ने अपनी परेशानी बतायी तो उन्होंने विमल की सिफारिश करा के ज्यूनियर क्लर्क की नौकरी दिला दी।



लेकिन ऑफिस के लोग भी विमल को परेशान किया करते थे। फिर विमल ने रामदत्त सिंह से जान-पहचान बनायी, जो कि कार्यालय परिषद के महामंत्री भी थे। इससे धीरे-धीरे विमल का ऑफिस में काम करना सहज हो गया। रामदत्त जी ने विमल के नाम बोरियों (गेहँू की) फटका लगाते रहे। और लाभ स्वरूप विमल बीस हजार के मालिक बन गए थे। जब विमल को यह पता चला तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। क्योंकि उसे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। इस तरह विमल अपने धैर्य, प्रेम व समझदारी से धनी बनता है।



 बीच की जमीन :-



'बीच की जमीन` सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी को रेखांकित करने वाली कहानी है। यहाँ बीच की जमीन से तात्पर्य हमारे अपने भारत देश से है। लेखक के अनुसार ''हमारे देश की कल्पना एदा एक ऐसी बीच की जमीन के रूप में की जाती रही है, सिमें विभिन्न वर्ग और समुदाय के लोग सम्मानपूर्वक मिल-जुलकर रहें। हमारे इतिहास में, हमरी संस्कृति में और हमारे वर्तमान हिन्दुस्तान में वह बीच की जमीन अब भी बची है।``10



कहानी की शुरूआत दंगों के बाद शहर की हालत पे विस्तार से चर्चा के साथ होता है। शांति प्रयासों के लिए सभाएँ व जुलूस निकाले जा रहे थे। कुछ लोग इन प्रयासों से खुश थे तो कुछ लोग नाराज हो रहे थे। इन्हीं प्रयासों के चलते मोहल्ले के नौजवान एडवोकेट श्री नईम के घर पर सभा बुलायी गयी।



इस सभा में ही वे अपने भाषण में अपने कुछ अनुभव बताते हैं। वे दंगों के दौरान एक बूढ़े व्यक्ति से मिले थे जिसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था। उसकी जावन बेटी बिमार थी। उसकी मदद करते हुए उन्होंने कभी भी यह नहीं जानना चाहा कि उसकी जाति क्या है? हाँ, वह था 'बीच की जमीन` का ही।


मनोबल :-



'मनोबल` कहानी के माध्यम से अमरकांत ने समाज के सुविधासंपन्न लोगों के मनोविज्ञान का सुंदर चित्रण प्रस्तुत करते हुए समाज के अभावग्रस्त लोगों द्वारा कुछ भी कर जाने की मजबूरी को दिखलाया है।



ट्रेन यार्ड से जब प्लेटफार्म पर आती है तो सब यात्री उसमें सवार होने लगते हैं। किंतु एसी सेकण्ड क्लास का एक डिब्बा बंद रहता है। इस डिब्बे के यात्री खूब शोर मचाते हैं, पर अंत में दरवाजे को तोड़ने का निर्णय लिया जाता है। लेकिन दो- चार प्रहार के बाद ही वह दरवाजा अपने आप अंदर से ही खुल जाता है। दरवाजा खुलने पर किसी की हिम्मत नहीं होती कि वह अंदर जाकर देखे कि कौन है? हिम्मत करके एक पुलिसवाला अंदर जाता है। उसे गठरीनुमा एक चीज दिखायी पड़ती है। सबको आशंका होती है कि उसमें विस्फोटक है। उसे खोलकर देखने की हिम्मत किसी की नहीं होती।



अत: इस समस्या को हल करने के लिए पुलिसवाला एक गरीब भिखारी लड़के को लालच देकर बुला लाता है। वह उसे गठरी लाने को कहता हैंै। लड़का आराम से डिब्बे में घुस जाता है और गठरी को बाहर लेकर चला आता है। पुलिसवाले के कहने पर वह उसे खोल भी देता है। उस गठरी में मजे का सत्तू, प्याज, मिर्च और पुड़िया नमक रहता है। गठरी खुल जाने पर सब इत्मिनान की साँस लेते हैं।



उस गरी लड़के को वही गठरी ईनाम के तौर पर दे दी जाती है। यात्रियों में एक नेता जी भी रहते हैं। वे पुलिसवाले की प्रशंसा करते हैं और उन्हें मिलने की लिए वक्त देते हैं। सारे यात्री डिब्बे में बैठ जाते हैं और ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोड़ने लगती है।

      

अमरकांत क़ी कहानी -मुलाकात

 अमरकांत क़ी कहानी -मुलाकात :-


'मुलाकात` कहानी में अमरकांत ने कुसुमाकर नामक साहित्यकार के माध्यम से लेखकों - साहित्यकारों की दयनीय स्थिती और इसका उनके व्यवहार पर होनेवाले प्रभाव का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।

साहित्यकार कुसुमाकर से मिलने प्रथमेश सिन्हा उनके घर जाते हैं। बातों ही बातों में वे कुसुमाकर को यह बताते हैं कि उन्होंने  अपने कॉलेज के फंक्शन में 'मिरजई` नाम कहानी पर नाटक रखवाया था। 'मिरजई` कुसुमाकर की लिखी कहानी थी।

यह सुनकर कुसुमाकर पहले यह पता लगाने का प्रयत्न करते हैं कि उस नाटक के लिए टिकट कितने का रखा गया था। फिर वे प्रथमेश से रायल्टी की बात करते हैं। जब अपनी असमर्थता प्रथमेश उन लेखक महोदय के सामने रखते हैं तो वे दो-पाँच रूपये पर आ जाते हैं। वे कहते हैं कि रायल्टी लेना उनका अधिकार है और वे इसी सिद्धांत पर कायम रहना चाहते हैं। फिर भले ही उन्हें एक ही रूपया क्यों न मिले।

लेखक की इस तरह की बातें सुनकर प्रथमेश संकोच करते हुए भी दस रूपये निकालकर लेखक को देते हैं और जाने के लिए अनुमती मांगने लगते है। लेखक लापरवाही से नोट जेब के हवाले करते हैं और प्रथमेश को याद दिलाते हैं कि उनकी किताबों के लिए कोई आर्डर हो सके तो वे प्रयास करें।

यहीं पर कहानी समाप्त हो जाती है। लेखक का इतना असहज व्यवहार जीवन यापन की कठिन सच्चाई और लेखकों की हालत को हमारे सामने प्रस्तुत कर देती है।
        

Monday 26 April 2010

तुम तो बिना मोहब्बत मिलने की बात कहते हो /

मैखाने से बिना पिए निकलने की बात कहते हो ;
मंदिर में बिन भावों के जाने की बात कहते हो ;
उफनती नदी में तिनके का सहारा छोड़ भी दूँ ;
तुम तो बिना मोहब्बत मिलने की बात कहते हो /
  

Sunday 25 April 2010

अमरकांत क़ी कहानी कलाप्रेमी

  अमरकांत क़ी कहानी कलाप्रेमी :-
      कलाप्रेमी  कहानी सुमेर और सुबोध नाम दो व्यक्तियों के आपसी संवाद के आस-पास घूमती है। दोनों ही कलाकार हैं। सुमेर कुछ अधिक यथार्थवादी है। वह अवसर का लाभ उठाने में विश्वास रखता है। जब कि सुबोध अवसर विहीन स्थितियों में - गुस्से से भरा हुआ था। लोगों के व्यवहार का दोहरापन उसे सालता था। सुमेर जब उससे मिलने उसके घर आता है तो वह बड़े नाटकीय ढंग़ से अपने मन की सारी बात बता देता है। सुमेर को उसकी बातें अच्छी नहीं लगती। वह यह सोचता है कि जब सारी दुनियाँ अवसरवादी बनी हुई है तो आदर्शो की बातें करनेवाला एक कमजोर व्यक्ति ही माना जायेगा।
      मेरे मिसेज रंजन की मदद से प्रादेशिक कला संघ का सदस्य बन गया था। वह पहली मीटिंग में भाग लेने आया था। पूरी प्रक्रिया उबाऊ और हंगामे भरी थी। जो प्रस्ताव पास होनेवाले थे वे पास ना हो सके। मीटिंग में आकर सुमेर ने कुछ नए दोस्त बनाये। कई लोगों से उसे लुभावने आस्वाश्न दिये। इन सभी के बीच वह वापस ट्रेन पकड़कर घर की तरफ लौट पड़ा। उसे यह समझ आ गया था कि वह दुनियाँ के साथ चल रहा हैं।
 
 

अमरकांत क़ी कहानी -मौत का नगर

अमरकांत क़ी कहानी -मौत का नगर :-
      'मौत का नगर` सांप्रदायिक दंगों में जलते हुए एक शहर की कहानी है। राम इसी शहर में रहता है। कर्फ्यू की वजह से वह कई दिनों से घर में ही था। बाहर हालात भी इस तर के नहीं थे कि कोई अपने घर से निकलने की हिम्मत करे। लेकिन बिना कुछ कमाये घर नहीं चलाया जा सकता था। जान का डर तो था पर अपनों को भूखा भी तो नहीं रखा जा सकता था। इत: राम जिस दुकान पर काम करता था वहाँ जाने के लिए घर से बाहर निकलता है।
      पूरे शहर का माहौल उसे बदला-बदला नजर आ रहा था। सड़कंे सुनसान थी। कुछ लोगों को साथ लेकर वह अपनी दुकान की तरफ बढ़ता जा रहा था। हर आदमी एक दूसरे को आशंका भरी दृष्टि से देख रहा था। राम की हालत तब और खराब हो जाती है जब वह यह देखता है कि वह जिस रिक्शे में बैठा है उसमें पहले से ही एक व्यक्ति है और वह एक मुसलमान है। राम डर जाता है, पर वह यह देखकर संतुष्ट होता है कि दूसरा व्यक्ति भी डरा हुआ है।
      राम किसी तरह अपनी तँय जगह पहुँच जाता है। पर यह सोचकर उसे वापस डर लगने लगता है कि उसे शाम को वापस भी लौटना।
    

अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2

अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2
      अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 2 में '1960 का दशक`, '1980 का दशक` और '1990 का दशक` के शीर्षक से तीन दशकों में लिखी कुल 43 कहानियाँ संग्रहित की गयी हैं। इस खण्ड के शुरूआत में 'आप क्यों लिखते हैं?` नाम से अमरकांत का एक लेख भी है। इस लेख के माध्यम से वे इस प्रश्न का खुद से जवाब माँगने से नजर आते हैं कि आखिर वे लिखते क्यों है? इस प्रश्न के उत्तर में तरह-तरह के विार उनके मन में आते हैं। अंत में आखिर वे इसी नतीजे पर पहुँचते है कि, ''समय परिवर्तनशील है। वह अपने अंदर अनेक विरोधाभासों, अंतर्द्वंद्वों, संघर्षो और संभावनाओं को लिए आगे बढ़ रहा है। जो रचनाकार इस समय की प्रगतिशील सच्चाइयों को पहचानता है, वही उसे शब्दों में उतार सकता है, जिससे उसकी कृतियाँ उस समय की पहचान बन जाती है। यह काम बहुत कठिन है, शायद उतना ही कठिन, जितना तलवार की धार पर चलता।``9
      अमरकांत इस तलवार की धार पर चलने का साहस रखते हैंै। यह उनकी कहानियों से स्पष्ट है। 1960 से 1990 तक के समय में उनके द्वारा लिखी गई कुछ कहानियों का हम यहाँ परिचय प्राप्त करेंगे।
 

उज़्बेकी कोक समसा / समोसा

 यह है कोक समसा/ समोसा। इसमें हरी सब्जी भरी होती है और इसे तंदूर में सेकते हैं। मसाला और मिर्च बिलकुल नहीं होता, इसलिए मैंने शेंगदाने और मिर...