Tuesday 16 April 2013

अपने ही क़िस्से में, अपना ही लतीफ़ा हूँ ।




मैं आजकल, कुछ  ऐसी प्रक्रिया का हिस्सा हूँ 

कि अपने ही क़िस्से में, अपना ही लतीफ़ा हूँ । 


शोर बहुत है लेकिन



शोर बहुत है लेकिन , मेरा चिल्लाना भी ज़रूरी है

शामिल सब में हूँ ,  यह दिखाना भी ज़रूरी है ।  







Sunday 14 April 2013

मेरे हिस्से में सिर्फ़, इल्ज़ाम रखते हो



मेरे हिस्से में सिर्फ़, इल्ज़ाम रखते हो 

किस्सा-ए-मोहबत्त यूं तमाम करते हो  


                                 मनीष "मुंतज़िर ''



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हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है / जाँ निसार अख़्तर




हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है

अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है

अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है।

तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है/ तलअत इरफ़ानी


बदन उसका अगर चेहरा नहीं है,
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है

दरख्तों पर वही पत्ते हैं बाकी,
के जिनका धूप से रिश्ता नहीं है

वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने,
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है

सभी चेहरे मकम्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है

वही रफ़्तार है तलअत हवा की
मगर बादल का वह टुकडा नहीं है