फरिश्तों का नसीब कहाँ की इन्सान का गुन पाए ;
फरिश्तों का नसीब कहाँ की इन्सान का गुन पाए ;
इन्सान खुदा की चाहत है ,वो फरिस्ता क्यूँ बन जाए ;
आसमान सजदा करता है जमीं की धुल का हरदम ,
बिखरे कितना भी, अपनी पहचान कहाँ से वो पाए ?
जो सिर्फ़ अपनी ही कहते हैं ,वो प्यार का जज्बा क्या जाने ,
इश्क नही उनके बस का जो जान संजोते रहते हैं ;
चाँद की किस्मत फूटी है ,पपीहे को ना सुन पाए ;
पथरीली मिटटी क्या जाने ,फूलों की खुसबू किसको कहते हैं /
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