Wednesday, 28 September 2022
Monday, 26 September 2022
संत मीरा बाई पर संगोष्ठी
तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी
वैश्विक संदर्भ में संत मीरा
व्यंजना आर्ट एण्ड कल्चर सोसाइटी प्रयागराज तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय अंतर्विषयी संगोष्ठी चैतन्य प्रेम संस्थान, वृंदावन में दिनांक 7, 8 एवं 9 अक्टूबर 2022 को आयोजित कर रही है ।आप सभी से सम्बद्ध विषयों पर प्रपत्र आमंत्रित हैं—-
शेष विवरण जल्दी ही 😊
सोलहवीं शताब्दी में सामाजिक विषमताओं से विद्रोह करती मीरा का उद्भव एक कवियित्री, गायिका एवं एक संत के रूप में हुआ। राजघराने में जन्मीं एवं पली-बढ़ीं मीरा, अपनी माँ से प्राप्त प्रेरणा के कारण बचपन से ही श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व मानने लगीं थीं
जिस कीर्तिस्तंभ को वर्तमान में मीराबाई के नाम से जाना जाता है, उनका जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण था। मेवाड़ की पावन धरा पर जन्मीं मीरा के लिए तत्कालीन समाज में नवीन विचारधारा को लेकर स्थापित करना आसान न था। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं बुराइयों का तिरस्कार मीरा ने भक्तिमार्ग अपना कर दृढ़ता से किया। कृष्ण को अपने जीवन की डोर सौंप, स्वयं को कृष्ण की दासी नियुक्त कर वे लेखन, गायन, वादन एवं भक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त हो गईं।
नारी-व्यथा-अभिव्यक्ति की पर्याय मीरा ने जाति-प्रथा, मांसाहार, पारिवारिक उपेक्षा, जौहर, पराधीनता, रंगभेद, अर्थभेद एवं मानव में लघु चेतना का दृढ़ता से विरोध किया। अपने चिंतन एवं तर्कों से मीराबाई ने समाज में व्याप्त अनेकों तुच्छ प्रवृत्तियों का दृढ़ता से विरोध किया और मानव का नैसर्गिक गुण ‘मानवता’ सिखाया।
जीवन की विसंगत एवं विषमतम परिस्थितियों में भी, सत्य के साथ सम्पूर्ण सामर्थ्य एवं अविचल स्थिरता उन्हें श्रीकृष्ण की भक्ति से प्राप्त हुई, ना-ना प्रकार की यातनायें, प्रताड़नायें सहर्ष सहन करती मीरा संसार के उत्कर्ष शिखर पर महानक्षत्र के रूप में सदा के लिए विद्यमान हो गईं।
ऐसी प्रेरणास्रोत ‘मीरा’ के जीवन पर चर्चा, विश्लेषण, वर्तमान संदर्भ में उनकी दृष्टि की उपादेयता जैसे आदि विषयों पर चिंतन मंथन आवश्यक है।
संगोष्ठी में निम्न बिंदुओं पर चर्चा करने की योजना है:
1. संत मीराबाई: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
2. भक्ति आन्दोलन में मीराबाई का योगदान
3. मीरा के पदों में भाषागत वैशिष्ट्य
4. मीरा के पदों में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि
5. साहित्य में मीरा
6. मीरा के जीवन पर आधारित फिल्में
7. मीरा स्त्री-विमर्श
8. वर्तमान परिपेक्ष्य में मीरा
9. सामाजिक संदर्भ में मीराबाई
10. ललित कलाओं में मीराबाई
11. मीराबाई के पदों में संगीत
12. स्थापत्य एवं चित्रकलाओं में मीराबाई
13. ऐतिहासिक संदर्भ में मीरा बाई
14. मीरा पर हुए शोध कार्यों का विश्लेषण
15. समकालीन संत साहित्य में मीराबाई
16. सूफी संत के रूप में मीराबाई
17. वैश्विक विचारकों की दृष्टि में मीराबाई
18.ओशो की मीरा
19.एम एस सुब्बुलक्ष्मी एवं मीरा
20.लोक परंपराओं में मीरा
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भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक
भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
सहायक प्राध्यापक
के.एम.अग्रवाल
महाविद्यालय
कल्याण-पश्चिम
महाराष्ट्र
कहते हैं कि संपूर्णता में देखना ही समग्रता में देखना है ।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र का मूल्यांकन भी 1857 के बाद की निष्पत्तियों के
परिप्रेक्ष्य में होना चाहिये । अंग्रेज़ राज के भक्त होने के बावजूद स्वराज्य, संस्कृति और कौशल विकास की बात करने वाले भारतेन्दु
का समय जनजागरण की पुरानी परंपरा का एक विशेष और महत्वपूर्ण समय था । बोलचाल की
सहज और सरल भाषा में साहित्य रचते हुए समाज प्रबोधन का समय । स्वाधीनता के महत्व
को समझते हुए अंग्रेजी राज के स्वरूप को पहचानने का समय । स्वदेशी आंदोलन को
व्यापक और बड़े धरातल पर उतारने का समय । भारतीय समाज की पतनोन्मुखता पर चिंतन का
समय । हिन्दी गद्य को विकसित करते हुए अनेकानेक विधाओं में समाजोपयोगी साहित्य
रचने का समय । अपने समय की इन सारी चुनौतियों को भारतेन्दु ने न केवल स्वीकार किया
अपितु 34 साल और 04 महीने की पूरी आयु में एक कुशल संगठन कर्ता, साहित्यिक मार्गदर्शक और खुले आलोचक के रूप में अपना जीवन
समर्पित रखा ।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र एक नाम नहीं
बल्कि एक आंदोलन के रूप में जाना गया । अपने व्यक्तित्व की तमाम सीमाओं एवं
विरोधाभासों के बावजूद,
भारतेन्दु बाबू पुनर्जागरण के कद्दावर नायक के रूप में जाने गये । जनसंख्या
नियंत्रण, श्रम के महत्व,
आत्मबल , स्वदेशी का महत्व, स्त्री
शिक्षा, धार्मिक कर्मकांड और आडंबर,
तकनीक के महत्व और अपनी भाषा और संस्कृति की चिंता उनके
विचारों एवं साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है । राष्ट्रीय स्वाधीनता को
लेकर उनके उद्देश्य हमेशा से स्पष्ट रहे । हिन्दी पट्टी के परिवेश एवं आर्थिक
स्थिति को भारतेन्दु बाबू ने गहराई से समझा था । हिन्दी को नई चाल में ढालते हुए
आपने छोटे – बड़े लगभग 175 ग्रंथ लिखे । अपने श्रम एवं साहित्य साधना के
माध्यम से ही आप ने इस आधुनिक हिन्दी गद्य के परिष्कार और परिमार्जन की नई परिपाटी
शुरू की । आप हिन्दी के प्रथम समर्थ नाटककार बने । हिन्दी गद्य की अनेकों विधाओं
के लिए आप एक आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श ( Ideal, Model, Sample)
के रूप में सामने आये ।
उन्होने अपने समय और समाज
की आवश्यकताओं को समझते हुए भाषा के नए चलन या नई चाल को आंदोलित किया ।
जीवन के सामान्य अनुभव और आवश्यकताओं को गद्य के रूप में लिखने का काम
स्वयं भी कर रहे थे और अपनी मित्र मंडली को भी प्रोत्साहित कर रहे थे । आज कई
संदर्भों में उनकी अनेकों रचनाएँ बचकानी लग सकती हैं लेकिन जिस समय और परिस्थिति
में वे गद्य पल्लवन की नीव डाल रहे थे, वह यह स्पष्ट करता है कि भारतेन्दु जडताओं से नहीं जड़ों से जुड़े हुए युग
दृष्टा थे । परिनिष्ठित हिन्दी की नीव डालने वाले भारतेन्दु बाबू एक राष्ट्र
वत्सल नायक थे । उनके गद्य को “हंसमुख गद्य” लिखने वाले आलोचक भी इस
बात से इंकार नहीं कर सकते कि उनकी भाषा में देशज मिट्टी की महक है । 1873 में हिन्दी
को नई चाल में ढालने वाले भारतेन्दु बाबू के बाद आज 2022 तक 149 वर्षों का समय बीत
चुका है । लेकिन आज की हिन्दी अपने इतने बड़े सेवक को भूल नहीं सकती ।
भारतेन्दु बाबू के नाटकों के संदर्भ में
बात की जाय तो उनके द्वारा लिखे एवं अनुदित नाटक लगभग 850 पृष्ठों में छपे । उनके
नाटकों में रत्नावली(संदिग्ध), विद्या सुंदर, पाखंड विडंबन, धनंजय
विजय, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम
जोगिनी , सत्य हरिश्चंद्र , कर्पूरमंजरी
, श्री विषस्य
विषमौषधम, चंद्रावली, मुद्राराक्षस , दुर्लभ बंधु,
भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, नील
देवी, प्रेम प्रलाप, सती प्रताप, भारत जननी,इत्यादि
। डॉ. दशरथ ओझा के अनुसार “भारतेन्दु के 18 नाटकों में 10 मौलिक और 07 अनुदित
हैं । इनके अतिरिक्त ‘प्रवास’ नामक उनका एक और नाटक था जो अब अप्राप्य है ।....हिन्दी –नाट्य-मंदिरमें
विविध भाषाओं के नाटकों का वातायन बनाकर अभिनव विचार के स्वास्थ्य प्रद वायु
प्रवेश के लिए भारतेन्दु ने मार्ग खोल दिया ।“1 आदर्श, यथार्थ, स्वच्छंदता, समाज
सुधार और राष्ट्रीयता का भाव भारतेन्दु के नाटकों का केंद्र बिन्दु रहा है ।
भारतेन्दु बाबू अपने पूर्ववर्ती
नाटककारों में नेवाज़ एवं ब्रजवासीदास के नामों का उल्लेख करते हैं लेकिन इनके
नाटकों को “काव्य की भाँति”
बताते हैं । 2 अपने पिता गोपालचन्द्र उपनाम गिरिधरदास द्वारा लिखित
नाटक “नहुष” को आप विशुद्ध नाटक रीति से हिन्दी का पहला नाटक एवं राजा
लक्ष्मण सिंह के ‘शकुंतला’ नाटक
को हिन्दी का दूसरा नाटक स्वीकार करते हैं जो कि एक अनुदित नाटक था। 3 डॉ. रामविलाश शर्मा भारतेन्दु के नाटक के
क्षेत्र में अवदान को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि,”भारतेन्दु
ने अपने मौलिक एवं अनुदित नाटकों के जरिये एक साथ कई काम किये । उन्होने नाटकों के
माध्यम से नयी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया, पारसी रंगमंच का
विरोध किया और प्राचीन नाटकों का उद्धार किया । .....’’4
भारतेन्दु के नाटकों के संदर्भ में एक
बात और महत्वपूर्ण है कि अपने नाटकों को उन्होंने कई नामों से संबोधित किया जो कि संस्कृत
नाटकों के रूप हैं । जैसे कि – रूपक, व्यायोग, सट्टक, नाट्यरासक, गीति रूपक, प्रहसन, नाटिका
इत्यादि । अपने दो नाटकों को छोडकर बाकी सभी नाटकों को उन्होने संस्कृत परंपरा के
अनुसार अंकों में विभाजित किया है । दृश्यों में विभाजित दो नाटकों
में “विद्यासुंदर” एवं “प्रेमजोगिनी” नाटक हैं
। “पाखंड –विडंबन”, “धनंजय विजय” और “विषस्य
विषमौषधम” एकांकी नाटकों में गिने जाते हैं । ये इस बात का साफ प्रमाण है कि
वे औपनिवेशिक भाषा परिणाम से प्रभावित नहीं थे । पूरे समाज का चित्त जिस भाषा में
गड़ा हुआ था वे उसी को नवीन प्रयोगों के साथ आगे बढ़ा रहे थे । भाषा और साहित्य को
युगानुरूप प्रासंगिक एवं लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होने नाटकों का लेखन कार्य किया
।
नाटक की व्याख्या करते हुए भारतेन्दु
लिखते हैं कि,”काव्य के सर्व गुण
संयुक्त खेल को नाटक कहते हैं । इसका नाटक कोई महाराज (जैसा दुष्यंत) व ईश्वरांश
(जैसा श्रीराम ) वा प्रत्यक्ष परमेश्वर (जैसा श्रीकृष्ण ) होना चाहिये । रस शृंगार
वा वीर । अंक पाँच के ऊपर और दस के भीतर । आख्यान मनोहर और अत्यंत सुंदर उज्जवल
होना चाहिये । उदाहरण – शाकुंतल, वेणी संहार आदि ।’’5 लेकिन अपने आप को महा अंहकारी घोषित करने वाले
भारतेन्दु बाबू अपनी ही परिभाषा के उलट ‘विद्यासुंदर’ और ‘सत्य हरिश्चंद्र’
को नाटक लिखते हैं जब कि इनमें क्रमशः तीन और चार अंक हैं । इससे यह स्पष्ट है कि
प्राचीन रूपों का उपयोग वे करते तो हैं लेकिन अपनी आवश्यकता के अनुरूप उसमें बदलाव
से भी चूकते नहीं हैं । भारतेन्दु नाटक के कथावस्तु को यथार्थवादी बनाते हुए
नाटकों में यथार्थवाद की नींव डालते हैं । रमविलाश शर्मा लिखते हैं कि,”...हर नाटक लिखने के पीछे एक उद्देश्य है । नाटकों की कथावस्तु उनके अपने
जीवन से और उनके चारों ओर के सामाजिक जीवन से ली गयी हैं । ‘सत्य
हरिश्चंद्र’ के हरिश्चंद्र में उन्होने अपने जीवन की करुणा
उड़ेल दी है, ‘प्रेमजोगिनी’ में उन्होने अपनी परिचित काशी का चित्र खींचा । .......भारतेन्दु ने
नाटकों को देशभक्ति की भावना जगाने और चरित्र निर्माण करने का साधन बनाया, यही उनकी सफलता का रहस्य है ।“6
भारतेन्दु बाबू के नाटकों की विवेचना
के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्होने अपनी संस्कृति में रची-बसी नाट्य परंपरा
के साथ यूरोपीय नाट्य परंपरा का कुशलता पूर्वक संलयन किया । कथानक के अनुसार
उन्हें जो शैली जिस रूप में ठीक लगी,उसे आवश्यक बदलाओं के साथ उन्होने अपना लिया । डॉ दशरथ ओझा के कथनानुसार “रचना शैली में उन्होने मध्यम मार्ग पकड़ा – न तो अंग्रेजी नाटकों का अंधा
अनुकरण किया और न बांग्ला नाटकों की भांति भारतीय शैली की नितांत उपेक्षा ही की ……
तात्पर्य यह कि नाटक का गतिरोध करनेवाले सभी बंधनों से उन्होने अपने
को मुक्त रखा ।“7
संदर्भ ग्रंथ :
1.
ओझा, डॉ. दशरथ – हिन्दी नाटक उद्भव और विकास , राजपाल अँड सन्स, नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ संख्या – 172
2.
शर्मा, रामविलाश - भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ , राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली , ग्यारहवाँ संस्करण, पृष्ठ संख्या – 111
3.
वही
4.
वही
5.
वही , पृष्ठ संख्या – 112
6.
वही , पृष्ठ संख्या – 113
7.
ओझा, डॉ. दशरथ – हिन्दी नाटक उद्भव और विकास , राजपाल अँड सन्स, नई दिल्ली, संस्करण 2003, पृष्ठ संख्या – 172
8.
Sunday, 25 September 2022
भारतीय ज्ञान परंपरा और कबीर
भारतीय ज्ञान परंपरा और कबीर
मानवीय आदर्शों के लोक कवि कबीर, भारतीय जनमानस के हृदय में गड़े हुए हैं । उनकी संवेदना का संबंध मानवीय करुणा और जन जागरण से है । कबीर को इसीलिए ‘मनुष्य की आत्मा’ का कवि स्वीकार किया गया । कबीर मनुष्यता की एक शाश्वत उम्मीद बनकर हमेशा अपनी प्रासंगिकता बनाए रखेंगे । कबीर हमारी शाश्वत सनातन परंपरा का पुनर्पाठ करने वाले पुरोधा हैं । आवश्यकता इस बात की है कि उनके मूल स्वरूप पर पड़े आवरण को हटाकर अपनी परंपरा,संस्कृति एवं आध्यात्मिक उदात्तता के आलोक में उन्हें देखा और समझा जाय ।
भारतीय दर्शन, रहस्यवाद, भक्ति और समाज सुधार की कबीर की संकल्पना इसी संस्कृति की थाती रही है । कबीर का विस्तृत मानवतावादी दृष्टिकोण सनातन परंपरा का प्राणतत्व रहा है । सिद्ध संत परंपरा, निर्गुण उपासना की परंपरा,पारमार्थिक प्रेम की परंपरा प्राचीन उपनिषदों, गीता और भागवत में विस्तृत रूप से उल्लेखित है । ईशावास्योपनिषद के अंतिम चारों मंत्र अव्यक्त निराकार परमात्मा के प्रति प्रार्थनाएँ हैं , जिनमें औपनिशिदिक भक्ति का उत्कृष्ट रूप झलकता है । बुद्ध, महावीर, दयानंद और महात्मा गांधी ने अध्यात्मिकता के अनुरोध से समाज सुधार की जिस संकल्पना को प्रांजल किया, कबीर उसी परंपरा के एक आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श हैं । ‘कबीर बड़े कवि वहाँ हैं जहां वे अपने ही अंतर्जगत का वैविध्य संधान करते हैं और उसी से जीवन की विराटता सिखाते हैं ।‘
कबीर का व्यक्तित्व एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व है । उन्होने राम को गरीब के लिए सुलभ किया । जीवन के सम्पूर्ण कर्म को पूजा कहा । सर्व समावेशी भारतीय चिंतन को अग्रगामी बनाते हुए कबीर ने वैष्णव,शैव,हिन्दू,इस्लाम,ईसाई सब के तत्व को घोल कर प्रेम का ढाई आखर बना दिया । कबीर को सिर्फ असहमति एवं विद्रोह का कवि कहना, उनके विराट व्यक्तित्व को छोटा करके आँकने जैसा है । कबीर मनुष्य की आस्था, क्षमता और विश्वास को मजबूत करते हुए गौतम बुद्ध की तरह कहते हैं कि – अपना दीपक स्वयं बनों । कबीर के आत्मविश्वास का श्रोत उनकी विरल आध्यात्मिकता या भक्ति है । कबीर का मुक्तिमार्ग प्रेम की विस्तृत और विराट भाव भूमि पर टिका हुआ है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है कि – “उन्होने भारतीय ब्राम्ह्वाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठ योगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णव के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया ।’’ निराकार ईश्वर की संकल्पना के लिए कबीर ने भारतीय वेदांत का ही सिरा पकड़ा । अव्यक्त ब्रह्म की जिज्ञासा और व्यक्त सगुण ईश्वर या भगवान के सानिध्य की अभिलाषा मूल रूप से भारतीय पद्धति ही रही है ।
कबीर गुरु की सनातन परंपरा को स्वीकार करते हैं । वे तो गुरु गोविंद को एक बताते हैं । अपने सतगुरु से ही कबीर को राम नाम का मंत्र मिलता है । इसके बदले वे गुरुदक्षिणा देना चाहते हैं लेकिन यह आकांक्षा कबीर के मन में ही रह गयी । कबीर का यह पद इसकी पुष्टि करता है –
कबीर राम नाम के पटंतरे , देवे कों कछु नाहिं
क्या ले गुरु संतोषिए , हौंस रही मन मांहि । ।
कबीर के पदों में औपनिषदिक अद्वैतवाद की अनुगूँज है । कबीर इसकी घोषणा करते हुए स्वयं कहते हैं कि- आतमलीन अखंडित रामा । कहै कबीर हरि माहि समाना ।।
ठेठ भारतीय मर्यादा के अनुसार वे प्रभु को अपना पति मानते हैं और अपने को सती (पत्नी) । कबीर की कथन भंगिमा भी भारतीय परंपरा से जुड़ी हुई है । रचना शैली दोहा और पद उन्हें अपभ्रंश साहित्य से मिला । रमैनी भी पद्धड़ियाबंध का विकसित रूप है । अतः कबीर को अपनी ज्ञान परंपरा के आलोक में देखना ही उन्हें समग्रता में देखना होगा । कबीर को हमें जडताओं में नहीं अपनी जड़ों में तलाशना होगा ।
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