Saturday, 29 April 2023

Postcolonialism - Dr Manisha Patil

 Postcolonialism

Colonialism

The entire history of the civilized world is in a sense the history of colonization. Colonization means the dominance of a strong nation over a weaker one. Colonialism happens when a strong nation sees that its material interest and affluence require that it expand outside its borders. Colonialism is the acquisition of the colonialist, by brute force, of extra markets, extra resources of raw material and manpower from the colonies. Since the ancient times wars are being fought to conquer lands and people. The conquerors have written the history praising their individual valor and cultural superiority and condemned the conquered as savages in need of control. While constructing this false textual discourse the conquerors have ignored their own atrocities against the larger humanity. For instance, the great ancient civilizations like Greeks, Romans, and Egyptians had open slavery. During the Middle Ages, crusades were fought in the name of religion but undoubtedly their main cause was material gain. In the modern era, we saw the full-fledged European colonization of the world which by the 1930s covered almost 84.6 per cent of total land surface. However what marks off modern European colonization from the earlier colonizations is not just its geographical sweep but more than that its rationalist mode. In modern colonization, power changed its style – in place of the earlier ‘bandit mode’ which was more violent but nonetheless transparent in its self-interest, greed and rapacity, the new rationalist mode ‘was pioneered by rationalists, modernists and liberals who argued that imperialism was really the messianic harbinger of civilization to the uncivilized world.’1 The white European male colonialist, while plundering the natives and territories of the colonies, fully convinced himself that he stands on high moral grounds. His basic assumptions in defense of his actions were:

The colonized are savages in need of education and rehabilitation 

The culture of the colonized is not up to the standard of the colonizer, and it’s the moral duty of the colonizer to do something about polishing it. 

The colonized nation is unable to manage and run itself properly, and thus it needs the wisdom and expertise of the colonizer. 

The colonized nation embraces a set of religious beliefs incongruent and incompatible with those of the colonizer, and consequently, it is God’s given duty of the colonizer to bring those stray people to the right path. 

The colonized people pose dangerous threat to themselves and to the civilized world if left alone; and thus, it is in the interest of the civilized world to bring those people under control. 

The white European male systematically developed a colonial discourse which cuts across all the disciplines – science, mathematics, history, geography, literature, anthropology etc. – to develop an imperial mind set. He constructed his ‘self’ as a rationalist human (the famous quote of Descartes goes: ‘I think therefore I am’) capable of taking up new challenges, solving nature’s mysteries and on the account of his superior knowledge and cognitive faculties destined to rule the entire world. Then he developed an imperial ideology which worked at various levels. First of all, he attempted to degrade and then systematically wipe out the local languages and impose the language of colonizer. Then he degraded the local cultures including local religion, literature and even race. Then came mapping the territory – acquiring total knowledge of the landscape (including its people) and using that knowledge to control the territory. Unlike the earlier conquerors, say Alexander the Great who set out to win the world without knowing it, modern European conquerors first acquired the knowledge of their colonies and only then ventured to capture actual political power. Finally, they brought about textual reinforcement of the territorial possession by writing about the colonized land and people justifying their subjugation as mutually beneficial to both colonizer and colonized. In other words, the white Europeans adventurously penetrated into the so-called underdeveloped countries in Africa and Asia and new worlds of America and Australia, dominated the land and subjugated the natives, imposing their will at large on them. They eroded the natives’ cultures and languages, plundered the natives’ wealth and established their orders based on settlers’ supremacy.

Dr Manisha Patil 

Thursday, 27 April 2023

कहीं तो हो तुम काव्य संग्रह की समीक्षा


 

लौट के आना कविता संग्रह की भूमिका

 डॉ. हर्षा त्रिवेदी को उनके काव्य संग्रह लौट के आना के लिए बहुत सारी बधाई । आप की फुटकर कविताओं को पढ़ने का मौका पत्र पत्रिकाओं एवं सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार मिलता रहा है लेकिन कविताओं का पूरा संग्रह पढ़ना किसी दावतनामे से कम नहीं। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि परिष्कार और परिमार्जन की एक लंबी यात्रा कवयित्री के रूप में आप पहले ही पूरी कर चुकी हैं अतः अपनी ही रचनाधर्मिता को संवेदना के धरातल पर अग्रगामी बनाने का यह नया और महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। एक ऐसा पड़ाव जहां से आप अपनी एक नई सृजनात्मक यात्रा शुरू करें, पूरे विश्वास, लगन और सकारात्मक ऊर्जा के साथ । हमारे साहित्यिक पुरखों की जो थाती हमें मिली है उसमें अपने विनम्र प्रयासों का एक पुष्प अर्पित करने जैसा शुभ भाव । 


लौट के आना कविता संग्रह की कविताओं में बिम्बों, प्रतीकों, यूटोपिया और चित्रात्मकता की कोई कमी नहीं है।

भाषा का सहज,सरल और सपाट भाव हमें इन कविताओं के अर्थ बोध की रोमांचक यात्रा कराने में सहायक सिद्ध होता है। यहां किसी वाद विशेष की चौहद्दी नहीं है अतः कवयित्री के सभी राग विराग बड़े खुले और चटक रंगों की तरह निखर कर हमारे सामने आते हैं। ये कविताएं मन के भावों के इंद्रधनुष जैसे हैं । संकीर्णताओं का दहन एवं मानवीय मूल्यों का वहन करती हुई कवयित्री किसी कुशल रंगरेज की भांति अपने भावों को शब्दों के माध्यम से कुशलता एवं निपुणता के साथ साकार करती हैं। उनके कैनवास पर सबसे चटकीले रंग प्रेम और करुणा के हैं । बिना किसी लाग लगाव के आप लिखती हैं कि -


अभी भी 

मन करता है कि

लौटूँ तुम्हारे पास 

और छलकी हुई 

तुम्हारी आँखों को 

अपने ओठों से पी लूँ । 



समीचीन परिस्थितियों का सूक्ष्म आंकलन करते हुए साधारण सी दिखनेवाली बात को भी आप असाधारण तरीके से शब्दबद्ध करती नज़र आती हैं। आक्रोश, आडंबर और अनावश्यक नुक्ताचीनी की जगह सौम्यता, सरलता, प्रतिबद्धता और संकल्पशीलता को आप अधिक महत्व देती हुई दिखाई पड़ती हैं। इतिहास के बियाबान में भी आप खोए हुए रिश्तों का रेशम तलाश कर मौन संवाद की संभावनाओं को साकार करती हैं। 


इतिहास के बियावान से 

तरह-तरह की 

आवाज़ें आती हैं 

और जब 

लौटती हूँ उनकी तरफ़ तो 

घास के तिनके 

किसी खोये हुए रिश्ते के 

रेशम की तरह लगते हैं 

उम्मीदें जगाते हैं 

पत्थरों के निशान 

बंदिशें तोड़ देते हैं 

फ़िर 

इनसब की उपस्थिति में 

सृष्टि के ताप से 

मौन संवाद करती हूँ ।


ये कविताएं मानवीय सपनों का मानो कोई शामियाना हों। प्रकृति, पर्यावरण, पशु, पक्षी, खेती किसानी, गांव, शहर और संसद के गलियारे तक की पूरी यात्रा आप इन कविताओं के माध्यम से कर सकते हैं। हाइकु जैसी विधा को अपनाकर आप ने अपनी आकाशधर्मी एवं प्रयोगवादी सोच का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। हिंदी में हाइकु लिखने वाले लोग बहुत कम हैं । उस कमी को आप की नई साहित्यिक आमद से बल मिलेगा । आप के हाइकु जीवनानुभव में पगे हुए हैं। उदाहरण देखें -


बड़े आदमी

ताड़ के पेड़ जैसे

तने रहते ।


आतंकवाद

कृत्रिम आपदा है

इससे बचो।



उम्मीद की नई उर्वरा भूमि के रूप में मैं आप की कविताओं की लेकर आशान्वित एवं हर्षित हूं । आप की कविताओं को पढ़ते हुए यह यकीन हुआ कि कविता न केवल भाषा में आदमी होने की तमीज है बल्कि आदमी को आदमी बनाए रखने की जद्दोजहद का जीवंत दस्तावेज भी है। इसी बात को कवि कमलेश मिश्र कविता में दर्ज करते हुए लिखते हैं कि -

माना कि आखों में रोशनी नहीं

पर रोशनी का संकल्प तो है

हम भी रोशनीवाली

कोई नई व्यवस्था बनाएंगे

कुछ नहीं तो

कैनवस पर ही सूरज उगायेंगे।

एक बार पुनः डॉ. हर्षा त्रिवेदी को इस काव्य संग्रह के लिए हृदय से बधाई । मुझे पूरा विश्वास है कि आप अपनी काव्य यात्रा की निरंतरता को बरकरार रखते हुए, इन कविताओं तक पाठकों को बार बार लौट के आने के लिए प्रेरित करती रहेंगी ।




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Monday, 24 April 2023

राजस्थानी सिनेमा का इतिहास

 राजस्थानी सिनेमा का इतिहास ।

 मित्रों

सादर प्रणाम,

      आप को सूचित करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि "राजस्थानी सिनेमा का इतिहास ।" इस शीर्षक के साथ एक ISBN पुस्तक प्रकाशित करने की योजना है। इस पुस्तक हेतु आप अपने आलेख भेज सकते हैं ।  पुस्तक प्रकाशन की जिम्मेदारी Authors Press, New Delhi ने ली है। 

प्रकाशन का खर्च SEWA संस्था, कल्याण द्वारा वहन किया जाएगा अतः किसी तरह की सहयोग राशि किसी को नहीं देनी है।

         आप से अनुरोध है कि  राजस्थानी सिनेमा, राजस्थान के किसी फिल्म विशेष, उसके वैचारिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य इत्यादि से संबंधित अपना मौलिक एवं अप्रकाशित आलेख यूनिकोड मंगल में फॉन्ट साइज़ 12 में भेजने की कृपा करें। आप अपने आलेख की word file भेजें न कि PDF. आलेख 30 मई 2023 तक manishmuntazir@gmail.com  इस ईमेल आईडी पर प्रेषित कर दीजिए । 

      

आलेख लिखने के लिए कुछ  उप विषय :

राजस्थानी सिनेमा का इतिहास

राजस्थानी सिनेमा का प्रदेय

राजस्थानी सिनेमा के नायक 

राजस्थानी सिनेमा की नायिकाएं

राजस्थानी सिनेमा में स्त्री चित्रण

राजस्थानी सिनेमा में गीत संगीत

राजस्थानी सिनेमा बनाम राजस्थानी संस्कृति

राजस्थानी सिनेमा का भाषाई स्वरूप

राजस्थानी सिनेमा और फिल्म प्रबंधन

राजस्थानी सिनेमा का आर्थिक ढांचा

राजस्थानी सिनेमा और कालबेलिया नृत्य

राजस्थानी सिनेमा में चित्रित ग्रामीण जीवन

राजस्थानी सिनेमा में चित्रित शहरी जीवन

राजस्थानी सिनेमा में चित्रित आदिवासी समाज

राजस्थानी सिनेमा और धार्मिक फिल्में

राजस्थानी सिनेमा और रंगबोध

राजस्थानी सिनेमा का सामाजिक प्रदेय

राजस्थानी सिनेमा और सरकारी प्रोत्साहन

राजस्थानी सिनेमा बनाम क्षेत्रीय अस्मिता 

राजस्थानी सिनेमा से जुड़े अकादमिक कार्य

राजस्थानी सिनेमा संबंधी साहित्य

राजस्थानी सिनेमा का व्यवसायिक स्वरूप 

राजस्थानी सिनेमा पर हिंदी फिल्मों का प्रभाव

राजस्थानी सिनेमा के फिल्म निर्देशक

राजस्थानी सिनेमा पर बाजार का प्रभाव

राजस्थानी सिनेमा और तकनीक 

राजस्थानी सिनेमा से जुड़े मुख्य आयोजन

राजस्थानी सिनेमा और OTT 

राजस्थानी सिनेमा से जुड़े ब्लॉग एवम वेब साइट

राजस्थानी सिनेमा और लोक कलाएं

राजस्थानी सिनेमा का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप

राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़ी राजस्थानी फिल्में

पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी राजस्थानी फिल्में

( इन उप विषयों के अतिरिक्त भी आप राजस्थानी सिनेमा के किसी पक्ष को लेकर अपना आलेख भेज सकते हैं)

इस संदर्भ में जो साथी कुछ और जानना चाहते हों उनसे अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत रूप से मैसेज या फोन करें ताकि समूह के अन्य सदस्यों को परेशानी न हो ।


धन्यवाद ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा

डॉ हर्षा त्रिवेदी 

Mobile number

9082556682

8090100900


Email

manishmuntazir@gmail.com

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Sunday, 23 April 2023

लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है" डॉ. अनन्त द्विवेदी

  "लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है"

                                                                                   डॉ.  अनन्त द्विवेदी



                                                                                    के. जे सोमैया महाविद्यालय,

                                                                                    विद्याविहार, मुंबई–77


21 वीं सदी के दूसरे दशक का अंतिम दौर, हिंदी कविता में एक नए कवि की आमद , एक ज़रूरी आमद। आखिर ऐसी आमदें ज़रूरी क्यों हो जाती हैं, कि कविता इतिहास ना हो जाये।  बीते सालों में मनीष के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 2018 में ' इस बार तुम्हारे शहर में ', और 'अक्टूबर उस साल' 2019 में। एक सर्जनशील के लिए बीतते जाने के बाद, बीते हुए में लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है। कविताओं का सृजन अनिवार्य क्यों हो जाता है किसी के लिए? पहले से ही इस सवाल का जवाब, जाने कितने काव्यशास्त्रियों ने दिया है। अपने-अपने आग्रह हैं, पर इन संग्रहों की कविताओं को पढ़ते हुए साफ तौर पर यह भाँपा जा सकता है कि यह अपनी घुटन से पार पाने की जद्दोजहद है, मुक्ति की कोशिश है। यह अपनी तरह का मोक्ष है, यशलाभ और अर्थलाभ से परे का जगत तलाशती कविताएँ हैं। संवेदनाएं हजारों साल से चली आ रही हैं, वही, बार-बार अपने को दुहराती हुई। उनमें नयापन कवि का अपना निजी होता है, भाषा की तरफ से भी और संवेदना के उस पक्ष की तरफ से भी कि, जिसे जिया गया हो। ऐसी संवेदना और अभिव्यक्ति का स्वागत करने को जी चाहता है, जो बेहद आत्मीय और अपनी लगती है। अनुभूति बेहद गहन और अभिव्यक्ति बेहद सहज है। कविता के इस घटाटोप में स्वागत है, ' मनीष '। हिंदी कविता की एक लंबी परंपरा है। ना अच्छे कवियों की कमी रही, ना अच्छी कविता की कमी रही , पर कुछ नया आता रहना चाहिए। समय के साथ ताल से ताल मिला कर चलने में आसानी होती है , समय-संदर्भों को समझने में आसानी होती है।

 कविता में सबसे पहले खुद की और फिर समाज की खंगाल होती है। इन कविताओं में जीवन को पलट-पलट कर देखने की जद्दोजहद है। क्या कविता से किसी को जाना जा सकता है, तो उत्तर है- हां। कविता जब अंतरंग होती है, तब अतीत में खुद की खोज की कोशिश है, कविता जो जीने से छूट गया है, उसे जीने की कोशिश है - फिर-फिर, बार-बार। इन कविता-संग्रहों की कविताएं जिंदगी में खुद को ढूंढने की, खोजने की कविताएं हैं। हालांकि 'लौटना' जीवन व्याकरण की सबसे कठिन क्रिया है। और हाँ, समय-साक्षी होने की भी। कविता में इतनी पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए कि सारे अर्थ, सारा वजूद उन पंक्तियों में ही पैठा हो जिसे हम साफ-साफ देख सकें। इन संग्रहों की कविताएं पारदर्शी कवि के पारदर्शी जगत को पारदर्शिता से सामने रखती हैं। रिश्तो की एक गजब कशिश है इन कविताओं में। प्रेम है , ' विशुद्ध और विकाररहित ', रिश्ते हैं - अपनी रेशमी रूमानियत और प्रगाढ़ आस्थाओं के साथ। कविता लिखे जाने का सबसे बड़ा कारण क्या होता है? दरअसल कविता में कवि खुद से संघर्षरत होता है। उसका संघर्ष कभी व्यक्तिगत होता है और कभी समाजगत। हालांकि व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता, सब कुछ समाज का ही है। दरअसल हम समाज का होकर ही जी सकते हैं, कोई और रास्ता बनता ही नहीं है। कुतर्क चाहे जितने भी कर लिए जाएं, पर सच यही है।

कविताएं बेहद जीवंत हैं और इनमें अपनी तरह का तनाव है, जिंदगी की छोटी-छोटी मासूमियतें हैं। यह कविताएं रिश्तों से भी रूबरू होती हैं, और अपने माहौल  की भी बातें करती हैं। इन कविताओं में रिश्ते अपनी तरह से परिभाषित होते हैं। रिश्तो में प्रेम है, बेहद आत्मीय और साथ ही अपरिभाषित भी। कविता में यह जरूरी भी है। यह संवेदना और यह अभिव्यक्ति, बहुत सारी कविताओं में है। लगातार बनावटी और संवेदनहीन होते जा रहे रिश्तो की साफगोई से शिकायत भी है। नई सदी में  चीजें  जिस तरह से बदली हैं  और उन्होंने  लोगों के जीने और सोचने को बदला है,  उस संदर्भ में  रिश्तो के बीच,  परस्पर संवेदनाओं के बंध कमज़ोर हुए हैं,  एक रिक्ति पैदा हुई है,  जिसे  अभिव्यक्त करने में  यह कविता  बड़ी समर्थ है। इस माहौल में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच बढ़ते फासले और अजनबी होते एहसास इस  शब्द चित्र में ढल गए हैं -

      एक शाम / इच्छा हुई कि / किसी से मिल आते हैं /  किसी के यहाँ हो आते हैं / लेकिन किसके? /  टेबल पर रखे /

      सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स में से / एक भी ऐसा ना मिला / जिससे मिल आता / बिना किसी काम / बस ऐसे ही /

        सिर्फ मिलने के लिए / ऐसा कोई नहीं मिला।                              (विज़िटिंग कार्ड्स)1

इस अफ़सोस का पूरा वहन इस कविता में उपस्थित है। सन 1991 के बाद भारत में बहुत सारे क्रांतिकारी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बदलाव हुए। बदलावों का यह पल्लव आने वाले दस-पन्द्रह सालों में बड़े पेड़ में तब्दील हो गया और इसके साथ देश में भाव-भावना के स्तर पर बड़े गंभीर परिवर्तन हुए। जो इन परिवर्तनों के गवाह हैं, वो जानते हैं कि उनका नीतिशास्त्र अब मर चुका है। इस संवेदना को कवि ने 'जूते' कविता में अभिव्यक्ति दी है। व्यक्ति की संवेदना और फिर अपने समय की संवेदना को महसूस करना और व्यक्ति और व्यक्ति तथा व्यक्ति और नियति के संबंधों को इतनी सूक्ष्म दृष्टि से मूल्याँकित करना कि जो कौंध बनकर चमक जाए और लगे कि यह कौंध हमारे भीतर ही कहीं है -

                   घिसे हुए 

                          जूते 

                   और 

                   घिसा हुआ आदमी 

                   बस एक दिन

                  'रिप्लेस' कर दिया जाता है 

                   क्योंकि 

                            घिसते रहना 

                   अब किस्मत नहीं चमकाती ।                                                 (जूते)2

मूल्यों को अपनी तरह से परिभाषित करने का, एक नई नजर से देखने का प्रयास है, ' जूते '।  बहुत सारी कविताएं खुद की बुद-बुदाहट और बड़-बड़ाहट भी हैं, जिनमें विचार है और अपना दर्शन है, जो समकालीन जीवन से कुछ नया लेकर आया है। कुल मिलाकर मनुष्य हजारों साल से कविता के संसर्ग में है। मूल भावनाएं वही हैं, परिवेश बार-बार बदलता है और कविता को नए संदर्भ देता है, नई भाषा देता है और नए अर्थ से भर देता है। मनीष के साथ भी ऐसा ही है मूल भावनाएं वही हैं, बदलते परिवेश में कविता को नए संदर्भ दिए हैं, नई भाषा दी है और नए अर्थ भी ।

जीवन और दर्जे की परीक्षा में एक बड़ा फर्क है, दर्जा पास करने के लिए पहले एक निर्धारित पाठ्यक्रम से होकर गुजरना पड़ता है और फिर परीक्षा होती है। जीवन में पाठ्यक्रम निश्चित नहीं होता और परीक्षा भी पहले होती है। समकालीन जीवन में ' रिक्त स्थानों की पूर्ति ' का जो संकट उपस्थित है, उसको अभिव्यक्ति देती यह कविता - कि प्रश्नपत्र में " रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए " वाला प्रश्न बड़ा आसान लगता था, उत्तर या तो मालूम रहता या फिर ताक-झाँक से पता कर लेता, गुरुजी की नजरें बचा, किसी से पूछ भी लेता और रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाती। पर अब, जब बात ज़िंदगी की है - 

                    लेकिन आज 

                    जिंदगी की परीक्षाओं के बीच 

                    लगातार महसूस कर रहा हूँ कि - 

                    जिंदगी में जो रिक्तता बन रही है 

                    उसकी पूर्ति 

                    सबसे कठिन, जटिल और रहस्यमय है।

                                                                                             ( रिक्त स्थानों की पूर्ति )3

इन संग्रहों की कविताओं में समय की खरोंचों की सहलाहट भी बार बार मिलती है। दरअसल विचार और दर्शन की पुष्टि के लिए अतीतोन्मुखी होना जरूरी होता है। अतीत के गर्भ में भविष्य के लिए बहुत कुछ छुपा होता है, जिसमें महत्वपूर्ण जो कुछ भी है वह बार-बार स्मृति पटल पर आता है। सबके साथ यही होता है पर यह कवि होता है जो उन खरोंचों से विचार और दर्शन की परतें निकाल कर कविता की शक्ल में अंजाम दे पाता है। यह खरोचें मनीष की कविताओं में जगह-जगह मिलती हैं । आज के समय में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो पहचान है, वह पहले से कितनी जटिल हो चुकी है कि जानने और मानने - दोनों के लिए मायने भी अलग-अलग हैं। यह व्यक्ति के भीतर की जटिलता है जो उसे सरल नहीं रहने देती -

                   तुम्हें / जितना जाना / उतना ही उदास हुआ /

                   लेकिन / तुम्हें जानने / 

                   और /

                   तुम्हें मानने के / व्याकरण / अलग हैं।                               ( तुम्हें मानने के)4

 इन कविताओं में संवेदना बिल्कुल निजी बनकर उभरी है या हम कह सकते हैं की नजरों से अलग हटकर उन्होंने अपने माहौल को महसूस किया और उसे कविता में शब्द दिए कविताओं को एक संभावना बनाने की कोशिश है उनकी, और वह संभावना पूरे मानवी इतिहास और वर्तमान से प्रेरित हो, भविष्य की संभावना है - 

              क्या ऐसा होगा कि / आदमी और शब्दों की / किसी जोरदार बहस में /

              शामिल हों कुछ /  मेरी भी / कविताओं के शब्द ।

              मुट्ठियाँ जहाँ /  बंध गई हो / शोषण के खिलाफ / वहाँ रुँधे गले को /

              वाणी देते हुए / उपस्थित हों /  मेरी भी / कविताओं के शब्द ।

              विचारों के / विस्तार की / भावी योजनाओं में /  मानवता के पक्षधर बनकर /

              उपस्थित रहे / मेरी भी /  कविताओं के शब्द ।

                                                                                        (कविताओं के शब्द)5

मानवीय संवेदनाओं से परिचित होने के लिए और पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करने के लिए कवि को विमर्शों की दरकार नहीं है। स्त्री, धरा की बेहद संवेदनशील शक्तिरूपा है।  विमर्शों के इस दौर में, विमर्श से परे हटकर, उसका मूल्यांकन, उसकी शक्ति का मूल्यांकन, उसकी शक्ति संभावना का घोष, बिना विमर्श की परिभाषा में शामिल हुए भी कितना सार्थक है -

              तुम / औरत होकर भी / नहीं नहीं /

              तुम औरत हो / और / होकर औरत ही /

              तुम कर सकती हो / वह सब / जिनके होने से ही /

              होने का कुछ अर्थ है / अन्यथा / जो भी है /

              सब का सब / व्यर्थ है।                                              (तुम जो सुलझाती हो)6

साहित्याकाश में उपस्थित बहस-मुबाहिसों की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता का ज़रूरी सवाल भी अपने तरीके से हल हुआ है इन कविताओं में। बात करने और कहने के लिए झण्डे और बैनर की अपेक्षा नहीं है, मानवीय होना या मनुष्य होकर इन सवालों से दो-चार होना कवि को कहीं ज्यादा जरूरी लगता है - 

                अप्रासंगिक होना / उनके हिस्से की / सबसे बड़ी त्रासदी है /

                तकलीफ और विपन्नता / से क्षत-विक्षत / उनकी उत्सुक आंखें /

                दरअसल / यातना की भाषा में लिखा /

                चुप्पी का महाकाव्य है /

                आज के इन तथाकथित विमर्शों में / शायद / इनकी झलक हो । 

                                                                                     (गंभीर चिंताओं की परिधि)7

अपने समय की बौद्धिक सरणियों से इस तरह गुजरना दुस्साहस है, और एक कवि को इस दुस्साहस के लिए हमेशा तैयार भी रहना चाहिए यही उसके होने की सार्थकता है। खुद से एकालाप करती कविताओं के साथ-साथ, अपने समय से संवाद करती, सवाल जवाब करती ऐसी कविताएँ इन संग्रहों में काफी हैं, संख्या की दृष्टि से नहीं बल्कि सार्थकता की दृष्टि से। कहन और बनाव में सशक्त, पूरी विनम्रता और धीरता से बात करती हुई, अपने पिछले और साथ चल रहे को तौलती हुई।

कवियों और लेखकों का कुछ जगहों से भावनात्मक और रचनात्मक जुड़ाव काफी अहम होता है। मनीष की कविताओं में पूर्वी उत्तर प्रदेश, खासतौर पर बनारस और अयोध्या इसी तरह से आए हैं। बनारस पर आधारित 'मणिकर्णिका', ' लंकेटिंग ', ' बनारस के घाट ' आदि कविताएँ हैं, जिनमें पूरा बनारस धड़कता दिखाई देता है। रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजें हैं, और वहाँ का परिवेश, जो इन जगहों को जीवंत बनाता है। कवि की सूक्ष्म दृष्टि से इनके बेजोड़ शब्दचित्र निर्मित हुए हैं। ' लंकेटिंग'  बनारस के लंका मोहल्ले में होने वाली सुबह शाम की तफरी को दिया गया स्थानीय लोगों का नाम है। और इस तफरी को वहाँ का परिवेश तो जीवंत करता ही है, बाकी जो है वह - 

                   छात्रों प्राध्यापकों / की राजनीति / यहां परवान चढ़ती है /

                   इश्कबाज / चायबाज और / सिगरेटबाजों के दम पर /

                   यह लंका रात भर / गुलजार रहती है। 

                   ----------------–----------------

                   यह लंका / और यहाँ की लंकेटिंग / मीटिंग, चैटिंग, सेटिंग /

                   और जब कुछ ना हो तो / महाबकैती /

                   सिंहद्वार पर धरना-प्रदर्शन / फिर पी.ए.सी. रामनगर / 

                   और पुलिस ही पुलिस ।                                                               (लंकेटिंग)8

ऐसे ही बनारस के प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का यह दृश्य और मणिकर्णिका से जुड़ी यह संवेदना - 

                   यह मणिकर्णिका / बनारस को / महा श्मशान बनाती है /

                   मोक्ष देती मृत आत्माओं को / 

                   तो पूरे बनारस के / पंडे-पुरोहितों को आश्वस्त भी करती / 

                   जीवन पर्यंत / जीविकोपार्जन की / निश्चिंतता के प्रति भी।          (मणिकर्णिका)9


इन संग्रहों की कविताओं में प्रेम और रिश्तों की रेशमी गर्माहट भी है। प्रेम की अन्तरंगता बड़ी मधुर है। उसमें परिणय-भाव है, उन्मुक्तता है, डूबने की चाह है और कुछ है जो बड़ा मधुर है - 

                  मैंने कहा - / तुम जब भी रूठती हो / 

                  मैं मना ही लेता हूँ / चाहे जैसे भी ।

                  वह बोली - / तुम मना नहीं लेते /

                  मैं ही मान जाती हूँ / चाहे जैसे भी ।                                            (तृषिता)10

ऐसे ही ना जाने कितनी कविताएँ इसी  तपिश से सीझी हुई हैं - 'तुम्हें मानने के' , ' तुम्हारे ही पास ', 'चाय का कप ', ' मोबाईल ', ' वो मौसम ', ' आजकल ये पहाड़ी रास्ते ', ' तुम मिलती तो बताता ', 'आज मेरे अंदर रुकी हुई एक नदी' , ' ज़िक्र तेरा आ गया तो ', ' प्यार में ', ' बहुत कठिन होता है ' आदि।

मनीष की कविताओं में प्रेम की एक नई रवानी महसूस करने को मिल जाती है प्रेम की कैशोर्य बीहड़ता और विनम्र, सधी हुई वयस्कता इन कविताओं की शक्ति है -

                  अब लड़ रहा हूँ / अपने आप से / एक लड़ाई जिसमें /

                  हार निश्चित है मेरी क्योंकि / प्रेम में / जीत जाना  -  कलंक है। / 

                  समय ने / तुम्हारे सामने / शायद इसलिए ही / खड़ा कर दिया था /

                  ताकि / सीख सकूँ /  मैं भी प्रेम। 

                                                                                                 (मैं नहीं चाहता था)11

मनीष की कई कविताओं में माँ और ममता की विषय बने है। ' माँ ', ' यह पीला स्वेटर ', ' माँ ! तो वो तुम ही थी ', ' लड्डू' जैसी कई कविताओं में जीवनदात्री और पुत्र के एकालाप की गहन अनुभूति देखने को मिलती है। ' माँ ' शब्द पूरी तरलता के साथ उनकी कविताओं में उपस्थित है -

                 माँ ! / तो वो तुम ही थी / जो दरअसल नहीं थी /

                 पर थी शामिल / मुझमें और / मेरी तमाम संभावनाओं में / 

                 जटिलताओं, विपदाओं के बीच / आशा की एक किरण / 

                 मेरी जीत और हार के बीच / 

                 जीत पर तिलक लगाते / हार पर दुर्बलताओं को दुलराते।

                                                                                              (माँ ! तो वो तुम ही थी)12

ईश्वर जब रिश्तों पर पूर्णविराम लगाता है तो जो खालीपन पैदा होता है, वो फिर आजीवन रिक्त ही रहता है। माँ का जाना, क्या होता है -

               मैं जब उठा तो / माँ रोज़ की तरह चाय नहीं लायी थी /

               ना ही वह / पूजाघर में थी /

              वह पड़ी थी / निष्प्राण !! / एकदम शांत /

              जैसे लीन हो / किसी तपस्या में । /

              लेकिन माँ को / तपस्या की क्या ज़रूरत पड़ी ? /

              वो तो खुद ही / एक तपस्या थी ।                                                          

              -------------------------

              अब सही-गलत क़दमों पर / कोई रोकेगा-टोकेगा नहीं /

              शिकायतें / कहने - सुनने की /

              सबसे विश्वसनीय जगह / खत्म हो चुकी थी ।                                            (माँ)13

न जाने कितने कवि हर साल साहित्य-पटल पर अपने हस्ताक्षर करते हैं। अपनी संवेदनाएँ कविता की शक्ल में अंकित करते हैं। पर कुछ ही होते हैं, जिनमें लंबे समय तक रह पाने की संभावना और गुंजाइश होती है। यह दोनों कविता संग्रह आश्वस्त करते हैं कि हिंदी को जो नया मिला है, वह संचनीय भी है, और सराहनीय भी। कविताएँ बेहद आत्मीय हैं, और ऐसे रूबरू होती हैं, जैसे अंतरंगता में बातचीत हो रही हो। यह सारी कविताएं खुद की तलाश की कविताएँ हैं। और खुद से संवाद करती कविताएँ हैं। इनमें क्षणों की संवेदनाएँ भी हैं, और बरसों की सुलगती अपेक्षाएँ भी हैं। खुद से बातें करती यह कविताएँ स्व-जगत में विचरण करती कविताएँ हैं, पर हमें तो अभी कवि में और विस्तार चाहिए। भाव-जगत और अभिव्यक्ति में विस्तार चाहिए। स्व-जगत से निकलकर पर-जगत में ऐसी ही गहनता चाहिए।

' इस बार तुम्हारे शहर में ' सन 2018 में प्रकाशित हुआ और ' अक्टूबर उस साल ' सन 2019 में प्रकाशित हुआ। 2020 का इंतज़ार भी खत्म होना चाहिए। लगातार दो कविता पुस्तकें, बधाई तो बनती है। सिर्फ पुस्तकों का आना बधाई के लिए काफी नहीं है, बल्कि बधाई इस बात के लिए कि कविता में एक संतोषपूर्ण संभावना पैदा हुई है। एक संभावनापूर्ण कवि और उसके कवित्व से अब हम और उम्मीदें तो लगा ही सकते हैं।









संदर्भ

1- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 71 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

2- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 70 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

3- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

4- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 23 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

5- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 13 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

6- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 17 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

7- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 80-81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

8- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

9- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 105 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

10- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 21 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

11- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 84-85 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

12- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 114 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

13- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018



जानकी बाई ‘छप्पन छुरी’ : निशान खोजने की कोशिश डॉ. मनीष कुमार मिश्रा डॉ.उषा आलोक दुबे

 

जानकी बाई छप्पन छुरी : निशान खोजने की कोशिश   

        डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

        डॉ.उषा आलोक दुबे

            अपने जीवन के संघर्षों का रूपांतरण जिस जीवन शिल्पी मन ने गहराते और फ़ैलते हुए अंधेरे के बीच किया, उन्हें रंग और रोशनी की दुनियाँ से कोई बेदख़ल नहीं कर सकता । इनकी दास्तानें इस दुनियाँ से भुलाए नहीं भूलेंगी । ऐसी ही एक मुकम्मल दास्ताँ की तलाश में वक्त की राख़ को झाड़ते हुए, हम पहुंचे छप्पन छुरी की मज़ार पर । छप्पन छुरी अर्थात मशहूर--मारूफ़ गायिका जानकी बाई इलाहाबादी ।  

          

            जानकी बाई मूलतः बनारस की रहने वाली थी । आप के पिता श्रीमान शिव बालक एक पहलवान थे और उनकी मिठाई- पूरी की छोटी-मोटी दुकान भी थी । संभवतः उनका आवास और दुकान बनरा पुल के पास वरुना पुल वाले मोहल्ले में था । कचौड़ी सब्ज़ी, दही जलेबी बनरसियों का आज भी प्रिय नाश्ता है । इसलिए मिठाई के साथ पूरी / कचौड़ी और सब्ज़ी बेचने की परंपरा वहाँ पुरानी है । बनारस अपने अखाड़ों और पहलवानों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है । स्वामीनाथ अखाड़ा, अखाड़ा राम सिंह, बड़ा गणेश, गया सेठ, कर्ण घंटा और अखाड़ा जम्गू सेठ यहाँ के वो अखाड़े हैं जहां आज भी नियमित अभ्यास होता है । पहलवान महंत स्वामीनाथ, राम मूर्ति पहलवान, बांके लाल पहलवान, मनोहर पहलवान, बाबूल पहलवान, सुमेर पहलवान, चिक्कन पहलवान, झारकंडेय राय और भईया लाल यहाँ के जाने-माने पहलवान थे। ढाक, सखी, काला जंग और मुल्तानी दांव बनारसी पहलवानों की खासियत थी । इन पहलवानों को बनारस के सेठ, साहुकार और बड़े पंडे पुरोहित अपनी आवश्यकता अनुसार काम भी देते रहते थे । इन्हीं पहलवानों में एक रहे होंगे श्रीमान शिव बालक पहलवान ।

 

          जानकी बाई की माता का नाम मनकी या मानकी था । जो एक कुशल गृहणी और मिठाइयों को बनाने में निपुण कारीगर थीं । मनकी / मानकी ने अपनी बेटी की गायन कला को समझा और उसे बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत रहीं । जानकी बाई के जन्म की तारीख़ को लेकर कई विवाद हैं । वैसे इनका जन्म सन 1880 के आस-पास माना लिया जाता है । जानकी साँवले रंग की थी । जानकी से बड़ी उसकी तीन बहनें और एक छोटा भाई भी था । जो बिखरी हुई थोड़ी बहुत जानकारी जानकी बाई के परिवार के विषय में मिलती है उसके हिसाब से जानकी की तीनों बहनें किसी महामारी में काल के गाल में समा चुकीं थीं । जानकी और उसका भाई बाबा महादेव की कृपा से बच गए थे । इनके परिवार में एक और स्त्री थी लक्ष्मी, जो कि जानकी की सौतेली माँ थी । लक्ष्मी से शिव बालक पहलवान ने विवाह नहीं किया था । वह कोई दुखियारी थी जिसे शिव बालक पहलवान ने अपने घर में शरण दी थी । उनके बीच का संबंध एक तरह से आपसी समझ का संबंध था ।

 

           मनकी / मानकी अपनी बेटी और बेटे के साथ बनारस छोड़कर इलाहाबाद में चौधराइन नसीबन के कोठे पर कैसे पहुंची यह कई कहानियों से घिरा हुआ प्रश्न है । उनकी भी थोड़ी पड़ताल ज़रूरी है । एक मत यह है कि जानकी बचपन से ही सुरीले गले की मलिका थी । मंदिरों में उसे भजन गाते सुन लोग मंत्र मुग्ध हो जाते थे । बेटी की इस ख़ूबी को पहचानकर  माँ मनकी / मानकी ने उसे स्थानीय शास्त्रीय संगीत के उस्तादों से शिक्षा ग्रहण करने का भी अवसर उपलब्ध कराया । जानकी इतनी निपुण हो गई कि मात्र बारह साल की आयु में उसने एक संगीत प्रतियोगिता में बनारस के बड़े नामी गायक पंडित रघुनंदन दुबे को परास्त कर दिया । इसके लिए  रानी बनारस के द्वारा उसे सम्मानित भी किया गया । लेकिन पंडित रघुनंदन दुबे इस अपमान से इतने आहत हुए कि उन्होने एक दिन मौका देखकर चाकू से जानकी पर हमला कर दिया । उन्होने चाकू से जानकी के चेहरे और शरीर पर कई घाव किए । घायल जानकी का रानी बनारस की मदद से मिशन अस्पताल में करीब छ साल इलाज़ चला और अंततः वह बच गई । जानकी के शरीर पर चाकू के कुल छप्पन निशान बने थे इसलिए आगे चलकर जानकी बाई को छप्पन छुरी भी कहा गया ।

 

             जानकी बाई से जुड़ी यह कहानी व्यक्तिगत तौर पर हमें भ्रामक अधिक लगती है । इसके कुछ कारण निम्नलिखित हैं

 

      बनारस की संगीत परंपरा या इसके उस्तादों का इतिहास जिस रूप में भी उपलब्ध है, वह अपनी संगीत परंपरा और नामचीन साधकों के प्रति काफी जानकारी उपलब्ध कर देता है । ख़ासकर 1835 के बाद की काफी जानकारी फुटकर रूप में उपलब्ध है ।  लेकिन कहीं भी हमें नामचीन गायक पंडित रघुनंदन दुबे का उल्लेख नहीं मिला । इतना ही नहीं अपितु किसी नामचीन गायक द्वारा बारह साल की बच्ची को चाकू मारकर बदला लेने की भी कोई चर्चा नहीं है । इसलिए इस बात पर विश्वास नहीं होता । अली मोहम्मद, अकबर अली, कामता प्रसाद मिश्र, शिव नारायण, गुरु नारायण, ज्वाला प्रसाद मिश्र, शिवदास जी, दरगाही मिश्र, मथुरा जी मिश्र, बड़े रामदास जी, पंडित जगदीप मिश्र, प्रयाग जी और दाऊ जी जैसे नामचीन संगीत साधकों के बीच किसी गायक पंडित रघुनंदन दुबे का कोई जिक्र नहीं मिलता ।  

 

    अगर महारानी बनारस किसी बच्ची का स्वयं सम्मान कर रही हैं तो बनारस में किसकी इतनी हिम्मत थी कि वह उसी सम्मान के बदले उस बच्ची पर जानलेवा हमला करे ? बनारस में काशी नरेश का क्या सम्मान रहा है ? जो इस बात को जानते हैं वे कभी इस हमले वाली बात पर विश्वास नहीं कर पायेंगे । महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह  सन 1835 से 1889 तक काशी के नरेश रहे। आप स्वयं साहित्य, संगीत और कला के बड़े संरक्षक थे ।

 

   अगर उस बच्ची के प्रति महारानी बनारस का इतना लगाव था कि वे छ सालों तक उसका इलाज़ करा सकती हैं तो क्या उस नामचीन गायक पंडित रघुनंदन दुबे को उन्होने सजा नहीं दी होगी ? इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती ।

 

   यह कहानी कहीं से भी उन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि नहीं तैयार कर पा रही है जिसके कारण मनकी / मानकी को बनारस छोड़कर इलाहाबाद आना पड़ा और एक चौधराइन के कोठे पर आश्रय लेना पड़ा ।

 

        इस पूरी कहानी में कुछ बातें सूत्र रूप में बड़ी महत्वपूर्ण हैं । जैसे कि जानकी का बचपन से ही संगीत गायन में निपुण होना, रानी बनारस की उसपर कृपा होना एवं जानकी पर चाकू से जानलेवा हमला होना । इस हमले के संदर्भ में जो दूसरी कहानी है वह यह कि मिठाई की दुकान पर आने वाले एक सिपाही द्वारा लक्ष्मी और जानकी से दिल्लगी की बातें करना । उसका नियमित रूप से दुकान पर आना और लक्ष्मी से प्रेमालाप करना । अंततः वह लक्ष्मी को अपने जाल में फसाने में भी कामयाब हो जाता है । किसी दिन जानकी उन्हें आपत्तीजनक हालत में देख जब शोर मचाना चाहती है तो वह सिपाही जानकी पर चाकू से हमला कर देता है । बहुत संभव है कि वह जानकी को ही अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता हो और उसके चिल्लाने पर चाकू से हमला कर देता है । चूंकि रानी बनारस जानकी की गायन प्रतिभा से परिचित थीं, अतः जब उनसे उपचार की मदद मांगी गई हो, तो उन्होने इसकी व्यवस्था करा दी हो । घर मेँ सौतन आने से परिवार मेँ कलह लाज़मी था । मनकी / मानकी द्वारा इलाहाबाद आने के पीछे भी इसी तरह का पारिवारिक कलह मूल कारण रहा होगा । किसी प्रेमी द्वारा एक तरफा प्रेम में जानकी से आहत होकर भी उसपर हमले की कहानी कही जाती है ।  

 

     सन 2018 मेँ प्रकाशित ‘Requiem in Raga Janki’ नामक अपनी किताब मेँ नीलम सरन गौर इस उपर्युक्त कहानी को ही कुछ और बदलाओं के साथ प्रस्तुत करती हैं । नीलम जी ने बड़े कलात्मक तरीके से बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है । वो ये दिखाती हैं कि लक्ष्मी जानकी पर हमले और उसके बाद की पारिवारिक मनःस्थिति के बीच घुटन महसूस करती है और एक दिन बिना किसी को कुछ बताए कहीं चली जाती है । उसके जाने के बाद शिव बालक पहलवान उसकी खूब तलाश करते हैं लेकिन उसे कहीं न पाकर एक दिन वो भी घर छोड़ कहीं चले जाते हैं । अब मनकी / मानकी अपने बच्चों के साथ अकेली रह जाती है । उसके संपर्क मेँ चेतगंज मेँ रहनेवाली एक महिला पार्वती आती है । पार्वती मनकी / मानकी  का विश्वास जीतकर उसे परिवार सहित इलाहाबाद लाकर चौधराइन नसीबन के कोठे पर बेच देती है । वह धोखे से मनकी के सारे गहने और पैसे भी अपने साथ ले जाती है । इस तरह लाचार, बेबस और ठगी हुई मनकी / मानकी अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए देह व्यापार करने के लिए विवश हो जाती है । इलाहाबाद के उस कोठे से मनकी / मानकी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू होता है ।

 

         मनकी / मानकी अपनी बेटी को इस घृणित काम से दूर रखते हुए उसे अच्छे उस्तादों से संगीत की शिक्षा दिलाना शुरू करती है । हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अँग्रेजी की शिक्षा जानकी को दी जाती है । जानकी को गायन की शिक्षा लखनऊ के उस्ताद हस्सू खाँ ने दी । बताते हैं कि मनकी बाई को उस समय हस्सू खाँ पर प्रति माह एक मोटी रकम खर्च करनी पड़ती थी । कुछ किताबों में यह रकम दो हजार प्रतिमाह बताई गई है ।  हस्सू खाँ के दादा उस्ताद नत्थन पीरबख्श को ग्वालियर घराने का जन्मदाता कहा जाता है। उस्ताद नत्थन पीरबख्श को दो पुत्र थे- कादिर बख्श और पीर बख्श । जनाब कादिर बख्श को ग्वालियर के राजा दौलत राव जी ने अपने राज्य में नियुक्त कर लेते हैं जनाब कादिर बख्श के तीन पुत्र थे जिनके नाम इस प्रकार हैं- हद्दू खाँ, हस्सू खाँ और नत्थू खाँ। तीनों भाई मशहूर ख्याल गाने वाले और ग्वालियर राज्य के दरबारी उस्ताद थे हस्सू खाँ के पुत्र का नाम गुले इमाम खाँ था । गुले इमाम खाँ के पुत्र मेंहदी हुसैन खाँ थे

  

        जानकी बाई को सारंगी श्रीमान घसीटे एवं तबला रहिमुद्दीन ने सिखाया । अपने साँवले रंग और चेहरे के दागों को लेकर वह जब भी असहज होती तो उनके उस्ताद हस्सू खाँ उनकी हिम्मत बंधाते और उनका खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लाते । हस्सू खाँ के माध्यम से ही जानकी बाई रीवाँ नरेश के यहाँ गद्दी पूजन समारोह में संगीत की प्रस्तुति देने जाती हैं । वे पर्दे के पीछे से अपना गीत प्रस्तुत करती हैं । उनके गीत से सब मंत्रमुग्ध हो जाते हैं लेकिन राजा साहब उन्हें पर्दे से निकलकर गाने के लिए कहते हैं । इसपर जानकी बाई बड़ी विनम्रता से राजा साहब से कहती हैं कि संगीतकार के लिए सूरत नहीं सीरत महत्वपूर्ण है । राजा साहब उनसे बहुत प्रभावित होते हैं और ढेरों इनाम देकर उन्हें सम्मानित करते हैं । मौसिकी से उनकी बेपनाह मोहब्बत अब रंग लाने लगी थी ।

 

        यहाँ से दरबारों में गायन का जो सिलसिला शुरू होता है वो जानकी बाई को सफलता के शिखर पर पहुंचा देता है । कोई उन्हें बुलबुल कहता तो कोई कहता कि उनके कंठ स्वर में मिसरी की डलिया घुली हुई है । उनकी आवाज की तरावट और मिठास अद्भुद थी । ईमन और भैरवी राग पर उनको महारत हासिल थी । जानकी बाई को रागदारी मेँ महारत हासिल थी । ठुमरी और दादरा दोनों ही गायकी की शैलियों मेँ वे बेजोड़ थीं । इसके साथ ही वे पूरबी, चैती, कजरी, बन्नी-बन्ना, सोहर, फ़ाग, होरी और गारी गाने मेँ निपुण थीं । वे अपनी नज़्में ख़ुद लिखती । मशहूर शायर और इलाहाबाद मेँ जज के रूप मेँ कार्यरत रहे ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी से उन्होने गज़लों की बारीकियाँ सीखी । कहते हैं कि तवायफ़ जब शायरी भी करे तो वह दोधारी तलवार हो जाती है । जानकी बाई छप्पन छुरी सिर्फ़ चाकू के छप्पन निशानों के कारण नहीं कहलाती होंगी बल्कि अपनी आवाज़ की तरावट, उसकी मिठास, चुभते हुए कलामों के साथ अपनी ख़ास तरह की गायकी के कारण भी उन्हें यह नाम मिला होगा ।

 

             जिन दरबारों की जानकी बाई चहेती बनी उनमें भरतपुर दरबार हैदराबाद, नेपाल के राणा, दरभंगा रियासत, जौनपुर इत्यादि शामिल हैं । लाहौर से रंगून और कश्मीर से हैदराबाद तक अनेकों रियासतों , नवाबों, उमराओं और जमीदारों के यहाँ जानकी बाई सम्मान के साथ बुलाई जाती थी । उनपर इनाम-इकराम की बारिश होती । कलकत्ता के सेठ बाबू ओंकार मल भी उन्हें सम्मान से आमंत्रित करते । इसी का परिणाम रहा कि जल्द ही जानकी बाई इलाहाबाद के सबसे धनी लोगों में गिनी जाने लगीं । उनके नाम से इलाहाबाद में एक दर्जन से अधिक कोठियाँ थीं । नवाबगंज परगना के पास बहुत सारी जमीन भी उन्होने अपने नाम लिखा ली थी । मुंशी सय्यद गुलाम अब्बास उनकी इन तमाम प्रापर्टी की देखरेख और किराया वसूलने के साथ-साथ कोर्ट कचहरी के मामले भी देखते ।  

 

           जानकी बाई मंदिरों या धार्मिक स्थलों पर प्रस्तुति देने का पैसा नहीं लेती थी । गरीब और बेसहारा लोगों की मदद भी खुले दिल से करती । जरूरतमंद लड़कियों के विवाह में आर्थिक सहायता देती । रामबाग स्टेशन के आस-पास उन्होने एक मुसाफ़िर खाना भी बनवाया था । ये इलाहाबाद मेँ चौक घंटा के पास रहते हुए बाद मेँ प्रयागराज आ गईं थीं । सन 1911 के आस-पास इलाहाबाद के ही जार्ज़ टाऊन मेँ आयोजित एक संगीत के मुक़ाबले मेँ जानकी बाई ने गौहर जान को कड़ी टक्कर दी थी । मलका--तरन्नुम, शान--कलकत्ता, निहायत मशहूर--मारूफ़ गायिका गौहर जान, जानकी बाई से उम्र में पाँच से दस साल बड़ी रही होंगी ।

 

           गौहर जान का जन्म 26 जून 1873 . में वर्तमान उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ था । दोनों के एक साथ कई बड़े आयोजनों में गायन प्रस्तुति देने के संदर्भ मिलते हैं । दिसम्बर सन 1911 में जब जॉर्ज पंचम भारत आए थे तो उनके स्वागत में गौहर और जानकी बाई ने संगीत की यादगार प्रस्तुति दी थी । उन्होने यह जलसा ताज़पोशी का मुबारक हो, मुबारक होनामक गीत प्रस्तुत किया था । इनकी प्रस्तुति से प्रसन्न होकर जॉर्ज पंचम ने दोनों को सोने की सौ-सौ गिन्नियाँ भेंट की थी । बताते हैं कि इलाहाबाद के अतरसुइया (पुलिस लाईन) के जिस चबूतरे पर बैठकर जानकी बाई भजन गायीं वो चबूतरा चाँदी के सिक्कों से पट गया था । कुल चौदह हजार सत्तर रुपए जमा हुए थे जिसे जानकी बाई ने इलाहाबाद के ही किसी ख़ानक़ाह में दान दे दिया था ।

 

           अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें सशस्त्र पुलिस की सुरक्षा दे रक्खी थी । उनके पास दो नाली बंदूक का लाइसेंस भी था । वे पालकी से चलती और दूर की यात्रा बग्घी या ट्रेन से करती । मोतीलाल नेहरू, तेज़बहादुर सप्रू, तेज़नारायण मुल्ला, न्यायमूर्ति कन्हैयालाल, सुरेंद्रनाथ सेन, मुंशी ईश्वर शरण, लाला रामदयाल, हृदयनाथ कुंजरू और अमरनाथ झा जैसे संभ्रांत जानकी बाई के क़द्रदानों मेँ शामिल थे । मोतीलाल नेहरू सन 1919 और 1920 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे । इलाहाबाद से निकलने वाले दी लीडर्सनाम के अखबार के बोर्ड के आप पहले चेयरमैन बने फिर 1919 में एक नया अखबार दी इंडिपेंडेंटशुरू किया था । तेज बहादुर सप्रू बडे कानूनविद एवं उर्दू - फ़ारसी के बड़े विद्वान् थे ।

 

         अपने जिन गीतों की गायकी के लिए जानकी बाई जानी गईं उनमें नहीं भूले रे तुम्हारी सुरतिया रामा, नदी नारे न जाओ श्याम पइयाँ परूँ, गुलनारों मेँ राधा प्यारी बसे, समधी देखो बांका निराला है रे, तोरी बोलिया सुनै कोतवाल तूती बोलै ले, तू ही बाटू जग मेँ जवान सांवर गोरिया, बाबू दारोगा कौने करनवा धरला पियवा मोर, रंग महल के दस दरवाजे, ये मतवारे नैनवा जुल्म करें, मजा ले लो रसिया नई झूलनी का, सइयाँ निकस गए मैं ना लड़ी थी, यार बोली ना बोलो चले जाएंगे, आओ आओ नगरिया हमारे, मोरा हीरा हे राम हेराय गये, एक काफ़िर पर तबियत आ गई, कन्हैया ने मारी रंग पिचकारी, अब न बजाओ कान्हा बंसिया, चोलिया मस्की जाये, हथवा लगत कुम्हलाईल हो रामा जूही की कलियां, तो के लेके निकस जेबे इत्यादि ।

 

        सन 1931 के आस-पास जानकी बाई की नज़मों का संकलन दीवान--जानकी नाम से प्रकाशित हुआ । कुछ जगहों पर यह इलाहाबाद के ही इसरार करीमी प्रेस द्वारा प्रकाशित बताया गया है। मेरे हिसाब से यह असरार करीमी प्रेस’, इलाहाबाद होना चाहिए । यह प्रेस इलाहाबाद के जॉनसन गंज में है । पता है 143, जॉनसन गंज, इलाहाबाद 211003 । यहीं से अकबर इलाहाबादी की भी कुछ छपी हुई किताबों के संदर्भ मिलते हैं । जैसे कि Akbar Ilahabadi, Kulliyat, Vol. III, Allahabad, Asrar-e Karimi Press, 1940.”  

 

        ग्रामोफोन जिसे फोनोग्राफ अथवा रिकॉर्ड प्लेयर भी कहा जाता है भारत में नेटिवरिकार्डिंग सन 1902 में शुरू करता है । ग्रामोंफोन अँड टाईप राइटर लिमिटेड के लिए रिकार्डिंग जानकी बाई ने मार्च सन 1907 मेँ दिल्ली से शुरू किया । उन्हें 20 टाईटल के लिए उस समय मात्र 250 रुपये दिये गए । जिसकी कुल 2408 डिस्क बिकी । नवंबर 1908 में कलकत्ता में उनकी रिकार्डिंग हुई और इस बार 24 टाईटल के लिए उन्हें 900 रुपये दिये गए । नवंबर 1909 में उनकी रिकार्डिंग दिल्ली में हुई और इस बार उन्हें 22 टाईटल के लिए उन्हें 1700 रुपये दिये गए । दिसंबर 1910 में दिल्ली में रिकार्डिंग की गई और 22 टाईटल्स के लिए 1800 रूपए उन्हें मिले । सन 1911 में कलकत्ता में ‘The Pathephone & Cinema Company’ में कुल 60 से 70 टाईटल्स की रिकार्डिंग के लिए जानकी बाई को 5000 रूपए मिले । अब उन्हें ग्रामोफोन सेलेब्रेटी और रिकार्डिंग क्वीन के नाम से पहचाना जाने लगा था । मफ़िलों में गायन प्रस्तुति के लिए 1915-1920 आते आते जानकी बाई दो हजार से कम की राशि स्वीकार नहीं करती थी ।

 

          हम देखते हैं कि मात्र चार सालों में जानकी बाई 250 रुपए से 5000 रुपए का मेहनताना पाने लगी थीं । अलग-अलग कंपनियों के लिए उन्होने 1931-32 तक रिकार्डिंग की । इसतरह उनके सैकड़ों टाईटल्स रिकार्ड हुए लेकिन दुर्भाग्य की वे सब सुरक्षित नहीं रक्खे जा सके । रिकार्डिंग खत्म होते समय वे मैं जानकी बाई इलाहाबादी जरूर कहती । यह उस समय की एक परंपरा थी । इससे यह पता लगाना आसान होता कि संबंधित रिकार्डिंग किसकी है । कई कव्वालियों की रिकार्डिंग में भी यही चीज देखेने को मिलती है । कई गुमनाम क़व्वाली के फनकारों की जानकारी ही इसी परंपरा के बदौलत मिल पाई ।  इलाहाबाद में रिकार्डिंग की सुविधा सन 1916 के बाद हो गई थी । वार्षिक तौर पर कई रिकार्डिंग कंपनियाँ जानकी बाई से अनुबंध करना चाह रहीं थी, जिसके लिए उन्हें मोटी रकम का लुभावना प्रस्ताव भी दिया गया । लेकिन जानकी बाई ने ऐसा कोई अनुबंध किसी कंपनी के साथ नहीं किया ।

 

         जानकी बाई ने इलाहाबाद के ही वकील अब्दुल हक से निकाह किया और इस्लाम कबूल कर किया । अब्दुल हक पहले से विवाहित थे और उनके बच्चे भी थे । उनका आवास मेहदौरी में कहीं था । लेकिन जानकी बाई का इनके साथ रिश्ता बड़ा तनावपूर्ण रहा । अंततः रिश्ता टूट गया । अपनी कोई संतान न होने के कारण जानकी बाई ने अबुल अजीज नामक एक बच्चे को गोद भी लिया था । यह लड़का बुरी संगत में पड़कर गांजे और भांग का नसेड़ी हो गया था । जानकी बाई को लगा कि शायद विवाह हो जाने और अच्छी जीवन संगिनी मिलने से यह सुधर जाये । इसी बात को ध्यान में रखते हुए वे अबुल अजीज की शादी चौदह वर्षीय चाँदनी नामक लड़की से बड़ी धूम धाम से कराती हैं । लेकिन इसका कोई असर उस लड़के पर नहीं पड़ता ।

 

          इस रिश्ते से भी जानकी बाई को निराश ही हांथ लगी । अंततः उन्होने पति और गोद लिए नसेड़ी बेटे से पूरी तरह रिश्ता तोड़ लिया था । बहू चाँदनी की इनके रहते ही किसी बीमारी से मृत्यु हो चुकी थी । जीवन के अंतिम दिनों मेँ रिश्तों की चोट से आहत जानकी बाई ने एक ट्रस्ट बनाकर अपनी सारी संपत्ति ट्रस्ट के हवाले कर दी । यह ट्रस्ट जरूरतमंद लड़कियों की शादी कराने, तालीम के लिए आर्थिक सहायता देना, वैद्यकीय जरूरतें पूरी करने जैसे अनेकों समाजोपयोगी कार्यों में मदद देता था । जानकी बाई की मृत्यु इलाहाबाद मेँ ही 18 मई सन 1934 मेँ हुई । माफ़िलों की शान मानी जाने वाली जानकी बाई के अंतिम समय में अपना कहलाने वाला कोई उनके पास नहीं था ।

 

        जानकी बाई को इलाहाबाद के आदर्श नगर स्थित काला डांडा कब्रिस्तान मेँ सुपुर्दे ख़ाक किया गया । यहाँ छप्पन छुरी की मज़ार आज भी है । इस मज़ार के निचाट सूनेपन में भी हमें लगा कि कोई चुप्पियों का राग छेड़े हुए है । पास में फूली हुई दो-चार सरसों मानों सारंगी और ढोलक पर साथ दे रहीं हों । हम वहाँ से चलने को हुए तो जैसे हवा ने कानों में कहा इन्हें याद रखना, किसी पुराने वादे की तरह ।’’

 

 

 

 

सौजन्य https://thelistacademy.com/item/janki-bai-allahabad/

 

 

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 संदर्भ सूची :

 

1.  संगीत रस परंपरा और विचार संपादक ओम प्रकाश चौरसिया । वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2001

2.  ये कोठेवालियाँ अमृतलाल नागर । लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद । संस्करण 2008

3.  बनारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) – डॉ. ज्योति सिन्हा, भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला ।  प्रथम संस्करण वर्ष 2019 ।

4.  कोठागोई प्रभात रंजन । वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली । संस्करण 2015

5.  महफ़िल गजेन्द्र नारायण सिंह । बिहार ग्रंथ अकादमी पटना । संस्करण 2002

6.  Requiem in Raga Janki - Neelam Saran Gour, Penguin Viking, 2018

7.  My Name Is Gauhar Jaan: The life and Times of a Musician – Vikram Sampath, Rupa Publications India, January 2010.

8.  The Record News: The Journal of the Society of Indian Record Collectors, Vol. 14, April 1994.