Saturday, 22 April 2023

मनुष्य के मनोभावों को व्यक्त करती “इस बार तुम्हारे शहर में” की कविताएँ डॉ.शैलेश मरजी कदम

 मनुष्य के मनोभावों को व्यक्त करती “इस बार तुम्हारे शहर में” की कविताएँ

डॉ.शैलेश मरजी कदम , सहायक प्रोफेसर , मराठी विभाग ,  साहित्य विद्यापीठ ,

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा – 442001 ,

मो-9423643576,  ईमेंल-kadamshailesh05@gmail.com


डॉ.  मनीष कुमार मिश्रा जी द्वारा लिखित और 2018 में शब्दसृष्टी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह “इस बार तुम्हारे शहर में” के लिए महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा दिया जाने वाला संत नामदेव काव्य पुरस्कार वर्ष 2020-2021 इस कवितासंग्रह को मुंबई में सम्मानपूर्वक दिया गया । इस कवितासंग्रह में कुल 60 कविताएँ हैं  और अंतिम कविता का शीर्षक ही “इस बार तुम्हारे शहर में”  है । कविता संग्रह की 60 कविताओं से गुजरने के बाद कोई भी संवेदनशील व्यक्ती प्रेम की अनुभूती लेता है । प्रेम को जीता है। प्रेम को समजता है। प्रेम की अवधारणा को गहराई में जाकर अपने भीतर उतारने की कोशिश करता है । प्रेम व्यक्ति के सुख और दुःख का किस प्रकार साक्षी हो सकता है इसका अनुभव डॉ. मनीष कुमार मिश्र की इन कविताओं में किया जा सकता है । स्त्री भले वह प्रेमिका हो या मित्र हो या पत्नी हो; अपने अस्तित्व से मनुष्य को किस प्रकार हर पल भावनात्मक रूप से जोड़ें रखती है इसका समस्त कविताएँ अनुभव कराती हैं । वास्तिवक प्रेम में दुनिया की तमाम बुराईयों से दूर रहा जा सकता हैं इसका अनुभव इस कवितासंग्रह के प्रत्येक कविता के माध्यम से पाठक को होता ही है । कविता संग्रह प्रेमी -प्रेमिका के भावात्मक, व्यवहारात्मक और मनोवैज्ञानिक रिश्तों को सहज, सरल और सामान्य जीवन की भाषा में आधुनिक जीवन के प्रतीकों, बिंबों के साथ रखती है । प्रेम के साथ जीवन जीने का अनुभव क्या होता है और प्रेम के बगैर जीवन जीने का अनुभव क्या होता है यह वास्तविक रूप में इस कवितासंग्रह के प्रत्येक कविता में दिखाई देता है । कविने प्रेम में आनेवाले प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभवों को अपनी कविता में कैद किया है । कविने “तृषिता” कविता में रूठना और मनाने का जो वर्णन किया है वह जीवन में संवाद कितना जरुरी है यह दर्शता है । प्रेमिका के रूठने के बाद की चंचल मनोदशा और मनाने के बाद का सुखकारक आनंद इस कविता में व्यक्त हुआ है । जैसे- 

“मैंने कहा- 

तुम जब भी रूठती हो 

मैं मना हि लेता हूँ 

चाहे जैसे भी  । ” ( पृष्ठ संख्या -21)

“सवालों से बंधी” कविता में कवि बताता है कि जो प्रेम निश्चल, पूर्ण समर्पण का होता है वह तुटने के बाद भी बार-बार याद आता है । इसलिये कवि लिखता है कि,  

“अब जब भी 

वैसा ही विश्वास खोजता हूँ तो 

वह लड़की बहुत याद आती है 

मुद्दतों बाद , आज भी ... ।”( पृष्ठ संख्या -25)


“तुम्हारे ही पास” कविता के माध्यम से मनुष्य का जीवन एक यात्रा और यह यात्रा निरंतर चलती रहती हैं यह बताने का प्रयास किया गया है । कविने प्रेमिका से बार-बार दूर जाने और पुन: पुन: उसके पास लौंटने के बहाने से दोनों के बीच के भावात्मक आकर्षण को बताने के साथ प्रेमिका प्यार की उष्मा में किस तरफ पिघलती है यह भी बताया है । जैसे -

“और वही वादा कि 

अब कभी नही जाऊंगा

यह जानते हुए भी कि 

जाऊंगा 

और यह भी मानते हुए कि

 मना लूंगा तुम्हे फिर से

 तुम्हारी नाराजगी के बाद 

अपनी वापसी के साथ

 लेकिन 

ये तुम्हारी नाराजगी भी 

ठहरती कहाँ है 

चली जाती है 

दरसल पिघल जाती है

 प्यार की उष्मा में 

और बह जाता है 

सब क्लेश और क्रोध ।” (पृष्ठ संख्या -29-30) 

“कि तुम जरूर रहना” कविता में कवि ने किसी के न रहने पर खासकर स्त्री के न होने पर जीवन में जो रिक्तता आती है उसे हु-ब-हु व्यक्त किया है । अकेलेपन में उसकी यादे ही जीवन का सहारा बनती है । अपने प्रिय के बगैर भी सकारात्मक जीवन कैसे जीना है यह इस कविता में इस प्रकार व्यक्त किया है । जैसे-  “अपने अंदर ही

 कुछ तोडना, कुछ जोडना 

डूबती हुई शाम को दूर तक अकेले ही टहलना

मेंरी यादों के साथ 

कभी कोई कविता करना ।

चाय के प्यालों में वक्त को उडेलते रहना 

जितना हो सके,  सिगरेट और शराब कम पीना

 मैं नहीं रहूंगी पर तुम रहना ।”  (पृष्ठ संख्या -34)

इस कविता के माध्यम से प्रेमिका आपने प्रेमी को मेंरे बिगर भी तुम्हे जीना है, खुशहाल जीना है, कभी हमने जो चाय के साथ जो वक्त गुजारा था वैसा ही वक्त गुजरना । गम में रहने पर भी सिगारेट और शराब पीकर जीवन बरबाद नहीं करना है । आगे कवि लिखता है कि, 

“और देखना

 मेंरे ना रहने पर भी

 जब तक तुम रहोगे 

तो रहेगी 

मेंरे न होने पर भी होने कि निशानी

 इसीलिए कहती हूँ

 कि तुम जरूर रहना ।”  (पृष्ठ- 35) 

यहाँ कवि कहना चाहता है कि किसी भी मनुष्य के प्रेम के दिनों की निशानियाँ एक के न होने पर भी दूसरे को जीवन जीने के लिए प्रेरणादायी होती है । केवल वह प्रेम नैतीक और मनोभावात्मक  होना अनिवार्य है ।  

“तुम आ रही हो तो” कविता के माध्यम से कवि ने प्रेमिका के एक अंतराल के बाद आने से प्रेमी के मन में जो उत्साह, आनंद निर्माण होता है उसे अती सूक्ष्मता से पकडने की पूर्ण कोशिश इस कविता में की है । प्रेमिका के एक अंतराल के बाद आने से प्रेमी की दुनिया किस तरह बदलती है इसका जीवंत दर्शन है यह कविता । प्रेमिका के आने से किस प्रकार से प्रेमी के मन में एक सकारात्मक ऊर्जा  का निर्माण होता है इसका एक जिवंत उदाहरण है यह कविता । प्रेमिका के दूर रहने से प्रेमी को जैसे हर्ष उल्हास से भरे दिवाली, बैसाखी और होली भी बेरंगी लगती है । कवि लिखते है कि ,

“अब जब तुम आ रही हो तो देखो

दिवाली भी आ रही है 

बैसाखी और होली भी  

वो सब जो मानों 

तुम्हारे इंतजार में 

कहीं रूठ के चले गये थे । ” (पृष्ठ संख्या - 42) 

 इस कविता संग्रह “चुड़ैल” कविता किसी भी दो व्यक्तियों के प्रेमभरे रिश्तों को बखूबी  बयाँ करती है । वैसे चुड़ैल तो एक नकारात्मक शब्द है लेकिन कोई जब प्रेम में चुड़ैल कहता है तो उसका अर्थ बदल जाता है । वास्तविक रूप में कवि चुडेल शब्द के माध्यम से प्रेमी का को सुंदर कहना चाहता है । उनके बीच के रिश्तों को बताना चाहता है की एक के बगैर दूसरा कैसे रह ही  नहीं  सकता दोनों की प्रत्येक सांस जैसे एक दूसरे के लिए ही निकलती हो । कवि को प्रेमिका का खयाल भी जादू जैसा लगता है । कवि ने लिखा है कि,  “और इनसब के साथ

 करता हूँ  तुम्हें चुड़ैल भी  

क्योंकि एक जादू सा 

असर करता है 

तुम्हारा खयाल भी ।” (पृष्ठ संख्या- 46)

“जब कोई किसी को याद करता है”  इस कविता के माध्यम से जब कोई अपने प्रिय को याद करता है तो तब उसके याद का दायरा कितना विशाल होता है इसका अतिउत्तम उदाहरण है यह कविता । याद करने के बहाने से मनुष्य अपने प्रिय  के  लिये उत्पन्न मनोभावात्मक संवेदनाओं के माध्यम से सबकुछ बयाँ करता है । कोई अपनों को किस हाद तक याद करता है इसका बेहद और उत्कृष्ट नमुना है यह कविता । कवि ने लिखा है 

“अगर सच में ऐसा होता तो 

अब तक सारे तारे टूटकर 

जमीन पर आ गए होते 

आखिर इतना तो याद

 मैंने तुम्हें किया ही है ।” (पृष्ठ संख्या-50)

“तुन मिलती तो बताता” इस कविता संग्रह की एक लंबी कविता है और कवि ने प्रेमिका के सौंदर्य का अप्रतिम वर्णन इस कविता में किया है । सौंदर्य की उच्चतम परिभाषा गढ़ी है । प्रियतम से दूर होने की पीड़ा क्या होती है और उस पीड़ा को झेलना कितना मुश्किल होता है आदि बातों को कल्पनाविस्तार के माध्यम से वास्तविकता के धरातल पर व्यक्त किया है ।  प्रियतम की एक मुलाकात और एक बात कितनी कींमती होती है इसके अनेक उदाहरण जनमानस के प्रतीको और बीम्बों के साथ इस कविता में व्यक्त किया गये है । जैसे-  “कोई भी रंग  

कोई भी तस्वीर 

तेरे मुकाबले में 

टिक ही नहीं पाते  ।” (पृष्ठ संख्या- 54) 

“मोबाईल” नामक छोटीशी कविता प्रेमी के अपनी प्रेमिका के प्रति लगाव, बेहद प्यार और मोहब्बत के भाव को व्यक्त करती है । प्रेमिका को उसके अनुपस्थिति में प्रेमी के मन में प्रेमिका किस प्रकार हमेंशा बनी रहती है इसका सुंदर वर्णन है यह कविता ।

 जैसे-  “तुम्हारे बारे में सोचते हुए

 आदतन, बार-बार 

मोबाईल को जेब से निकाल कर 

देख लिया करता था 

यह सोच करके कि

कहीं युम्हारा कोई ‘काल’ मैं ‘मिस’ ना कर दूँ ।  (पृष्ठ संख्या- 61)

 “वो मोसम”  कविता प्यार के रिश्तों को गंभीरता से व्यक्त करती है । प्यार कोई जबरदस्ती की भावना नहीं है न ही वह कोई अनुबंध है। न ही कोई लेन- देन का सौदा । प्रेम इन सब से परे किसी परिभाषा में न बैठने वाली एक भावना है । प्रेम क्या है ? यह समझने के परे है । कवि कविता जब प्रेमिका से कहता है कि इतने दिनों बाद आ रहा हूँ क्या लाऊ तुम्हारे लिये तब प्रेमिका जो जवाब देती है वह प्रेम की सभी परिभाषा से अलग जवाब लगता है । जैसे-  

“इतने दिनों बाद आ रहा हूँ 

बोलो 

तुम्हारे लिए क्या लाऊं ? 

 उसने कहा 

 वो मौसम

 जो हमारा हो

 हमारे लिए हो 

और हमारे साथ रहे 

हमेशा  ।” (पृष्ठ संख्या- 65) 

“कैमरा” कविता के माध्यम से जीवन एक की वास्तविक सच्चाई को कवि ने उद्घाटित किया है । हम अपनों के साथ जो समय बीताते है उसे किसी भी कींमत पर दूबारा नहीं जिया जा सकता । “कैमरा”  में उस आनंदमय क्षणों  को कैद कर सकते है, बार-बार  कैमरा में देख सकते है किंतु उस आनंदमय क्षणों  को पुन: दोबारा जी नहीं सकते । जैसे कवि ने  लिखा है  

“ लेकिन

 हम भूल गये थे कि कैमरा

 यादों को कैद कर सकता है 

लौटा नहीं सकता ।” (पृष्ठ संख्या- 67)  

“विजिटिंग कार्ड्स” कविता महानगरीय जीवन की विवशता को व्यक्त करती है।  महानगरो में मनुष्य के बीच के मानवी रिश्तों के खत्म होते अनुभव को इस कविता में बखुबी विश्लेषित किया है । 

जैसे-  “सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स में से 

एक भी ऐसा न मिला 

जिससे मिल आता बिना किसी काम 

बस ऐसे ही ।” (पृष्ठ संख्या- 71)

 दुनिया प्रेम करने वालों को पागल कहती है । प्रेम में पागल होना एक मनोदशा है । प्रेम में पागल होने का मतलब ये होता है कि प्रेमी- प्रेमिका का के लिए और प्रेमिका-प्रेमी के लिए अपने जी जान से ज्यादा चाहती है । अपने खून के रिश्तोदारों को भूल जाती है । उसके सामने प्रेम केवल एक रिश्ता होता है “उसने कहा” कविता में प्रेम में पागल बनने की मनोदशा का वास्तविक वर्णन मिलता है । जैसे- 

“मै तुम्हे पागल समजता हूँ 

दरअसल तुम हो पागल 

मेंरे प्यार में पागल हो 

और मै जितना समझता हूँ 

उससे कंही अधिक पागल हो ।” (पृष्ठ  संख्या- 84)

“तुम जितना झुठलाती हो”  कविता में कवि ने प्रेम में झूठ बोलने के अर्थ को परिभाषित किया है । प्रेम में दिया गया हर सवाल का झूठा जवाब सच्चा होता है । झूठ बोलना संवाद प्रक्रिया को आगे ले जाने की क्रिया है । प्रेम का रिश्ता विश्वास पर टिका होता है । इसकी पुष्ठि में कवि लिखता है कि   “दरअसल 

प्यार और विश्वास में 

सवाल जरुरी नहीं होते 

और न ही उनके जवाब ।” (पृष्ठ संख्या- 95)  

कवि वाराणसी के बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में अपने अनुसंधान के दौरान रहे है और उन्हीं दिनों के अनुभव को व्यक्त करती “बनारस के घाट” “लंकेटिंग” और “मणिकर्णिका” यह तीनों इस कविता संग्रह की बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविताएँ  हैं । “बनारस के घाट” में कवि घाट के नैसर्गिक स्वभाव को व्यक्त करते हुए मनुष्य स्वभाव के साथ उसे जोडणे का प्रयास करते है । जैसे- “ ये बनारस के घाट 

चेतना के द्वार हैं 

 हम सभी के लिए 

हम सबके हैं ।” (पृष्ठ संख्या- 98) 

“लंकेटिंग” कविता का बनारस हिन्दू विश्विद्यालय और उसके बाहर का लंका भौगोलिक क्षेत्र आपने आप में कितना चहल-पहल करने वाला क्षेत्र है यह बताती है । हजारों  घटना को एक साथ अंजाम देने वाले लंका का वर्णन कवि ने अद्भुत रूप से किया है । लंका में ज्ञान-अज्ञान, राजनीत, षडयंत्र और इससे परे कई विषय है जो केवल वहा जाकर अनुभव करने होंगे इसीलिये कवि लिखते है कि,  

“लंकेटिंग 

ज्ञान का नहीं 

अनुभूति का विषय है 

तो आइये कभी लंका- बी.एच. यू.

और खुद को 

समृद्ध होने का अवसर दे ।” (पृष्ठ संख्या-102) 

“मणिकर्णिका”  इस कविता संग्रह की बहुत महत्वपूर्ण कविता है । जीवन जीना और मृत्यू के बाद मोक्ष प्राप्त करने की यात्रा इस कविता के केंद्र में है । मृत्यू भी एक उत्सव है उसकी उत्सवता में जीवनयापन साधन भी मौजूद है ।  दर्शन, धर्म और अध्यात्म पर सूक्ष्मता से प्रकाश डालती या कविता मनुष्य के जीवन चक्र को व्यक्त करने के साथ मनुष्य के भिन्नभिन्न मनोभाव और व्यापारों को व्यक्त करती दिखाई देती है ।

“यह पीला स्वेटर” इस कविता संग्रह की लंबी कविता है । स्वेटर के माध्यम से अपने प्रियजनों द्वारा दि गयी वस्तू उनके अनुपस्थिति में  उनके उपस्थिति का अहसास करती है और यह अहसास आनंददायक होता है । दरसल कवि स्वेटर के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करता है । आपने प्रिय के अनुपस्थिति में भी संवाद कायम रखता है । जैसे-  “लेकिन न जाने क्यों 

इसके जैसा 

या कि  

बेहतर इससे 

अब तक मिला ही नहीं ।” (पृष्ठ संख्या-110)

“औरत” कविता स्त्री के अनेक मनोभावों को व्यक्त करती है ।  परिवार और  समाज के बीच होकर भी औरत अकेलापन महसूस करती है । उसका दर्द, घुटन और अकेलापन केवल उसे ही निभाना होता है । जैसे – 

“समझ रहा हूँ कि

ऐसा बहुत कुछ है  

जिनका सामना 

तुम अकेले ही कर रही हो ।

चेहरा अलग हो सकता है लेकिन 

तकलीफें एक सी हैं 

घुटन, दर्द और एकाकीपन  

सब एक सा तो है ।” (पृष्ठ संख्या-116)

 

 “लड्डू” कविता के माध्यम से कवि ने माँ के प्रति प्रेम और स्नेह का भाव व्यक्त किया है । माँ का प्रेम दुनिया में सबसे अलग और जिसे किसी भी परिभाषा में नहीं बाँध सकते ऐसा होता है यह बताया गया है ।  जैसे- 

“लड्डू तो माँ है

 बचपन है 

मासूम दिनों की याद है

 रिश्तों की मिठास है ।” (पृष्ठ संख्या-117)

“इस बार तुम्हारे शहर में” इस कविता संग्रह की आखरी और सबसे लंबी कविता है । एक प्रेमी या प्रेमिका एक दूसरे से प्यार करते हुए एक शहर में अपने प्यार को पालते-पोसते है और इसी क्रम में शहर के हर गली-मोहल्ले से गुजरते है । हर मौसम में शहर के हर कोने में अपना अस्तित्व बनाते है । प्रेमिका जिस शहर में रहती है वो शहर की हर बात दोनों को एक आनंद और रोमांच का अनुभव कराती है । दोनों को शहर का हर मौसम प्यारा लगता है । कवि ने प्रेमिका के शहर में होने और न होने के अंतर को बहुत बखुबी व्यक्त किया है । शहर में अपनों का होना मन को कितना भाता है उसके साथ का हर पल कितना प्यारा लगता है । पर उसके न होने से सब कुछ वीराना और बेहद दुखद अनुभव होता है । जैसे-  

“इस बार तुम्हारे शहर में 

जब तुम न मिली तो  

रुसवाई मिली 

महीना यह भी तो मई का ही था 

पर तुम्हारे साथ वाली वो

 बेमौसम बारिश न मिली ।” (पृष्ठ संख्या-127)

 


स्वामी विवेकानंद : आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के पितामह । डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

 स्वामी विवेकानंद : आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के पितामह  । 

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 

हिन्दी विभाग 

के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण पश्चिम – महाराष्ट्र 

manishmuntazir@gmail.com


डॉ. मनीषा पाटील 

अँग्रेजी विभाग 

गुरुनानक कॉलेज 

GTB नगर, मुंबई

manisha@gncasc.org

 



                    स्वामी विवेकानंद जी का जन्म मकर संक्रांति 12 जनवरी सन 1863 में कोलकाता के सिमला पाली,गौर मोहन मुखर्जी लेन, के एक संपन्न परिवार में सुबह 6.33 पर हुआ । आप अपने माता-पिता की छठवीं संतान थे।  आप के दो अन्य भाई महेन्द्रनाथ और भूपेन्द्र्नाथ थे । आप तीनों भाई आजीवन अविवाहित रहे । मात्र 39 साल की उम्र में स्वामी विवेकानंद ने जो ख्याति अर्जित की वो दुर्लभ है । भारत के सबसे प्रभावशाली शिक्षाविद् और आध्यात्मिक विचारक के रूप में स्वामी जी हमेशा के लिए अमर हो चुके हैं । उनके निडर एवं साहसी व्यक्तित्व  के लिए कई लोग उन्हें एक आइकन / एक आदर्श के रूप में मानते हैं । युवाओं के लिए उनके सकारात्मक उपदेश, सामाजिक समस्याओं के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण और वेदांत दर्शन पर अनगिनत व्याख्यान और प्रवचन हमेशा ही उनके व्यक्तित्व को एक प्रकाश पुंज के रूप में पूरी दुनियाँ को आकर्षित करता रहेगा । विवेकानंद का व्यक्तित्व  ज्ञान और विचार की व्यापकता और गहराई के लिए हमेशा ही उल्लेखनीय रहेगा । सामाजिक-आर्थिक और नैतिक संरचना में व्याप्त बुराइयों के प्रति संवेदनशीलता, अद्वैत तप और समाज सेवा को लेकर उनकी दृष्टि बेहद स्पष्ट थी ।  

                स्वामी जी के दादा दुर्गा चंद्र दत्त बड़े जमींदार और धनी व्यक्ति थे । आप ने बाद में संन्यास ले लिया था । विश्वनाथ दत्त आप के इकलौते पुत्र थे । स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में वकील/अटॉर्नी  थे । आप की माँ भुवनेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं । माँ के व्यक्तित्व की व्यापक छाप विवेकानंद पर पड़ी । आप के पिता कम उम्र में ही सब कुछ त्याग कर संन्यासी हो गए थे, जिसका प्रभाव भी स्वामी जी के ऊपर हुआ । बचपन से ही आप साधू-संतों को ध्यान से सुनते और जो कुछ उनके पास होता , उसे खुले दिल से दान कर देते । आप का वास्तविक नाम नरेन्द्र्नाथ दत्त था । रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बनने के उपरांत आप स्वामी विवेकानंद के रूप में जाने गए । आप की स्मरण शक्ति विलक्षण थी । अपने मित्रों के बीच बड़े लोकप्रिय और सदैव उनका आप नेतृत्व करते । गाय, बंदर और पक्षियों से आप को विशेष लगाव था । आप पाक कला में भी निपुण थे । आप को घुड़सवारी, तैराकी, कुश्ती, मुक्केबाज़ी और शास्त्रीय संगीत से विशेष लगाव था । आप को संगीत की शिक्षा देने वालों में उस्ताद बेनी गुप्ता और अहमद खान का नाम लिया जाता है । स्वामी जी बंगाली गीत नहीं गाते थे, लेकिन परमहंस जी के लिए आप ने बंगाली गीत सीखे । आप ने जो पहला बंगाली गीत सीखा वह था – “मन चलो निजी निकेतन” 

                       सन 1877 में आप के पिता सपरिवार रायपुर आ गए । यहीं रहते हुए स्वामी जी नें हिन्दी सीखी । क्या ईश्वर है ? यह प्रश्न भी आप के मन में पहली बार यहीं रहते हुए आया । सन 1879 में आप पुनः परिवार के साथ कोलकाता आ गए । कई लोग यह मानते हैं कि रायपुर ही स्वामी जी की”आध्यात्मिक जन्मभूमि” रही ।  स्कूल की शिक्षा पूरी करके आप ने प्रेसीडेंसी कॉलेज और स्काटिश मिशनरी कालेज में शिक्षा का क्रम जारी रखा । आप के प्राचार्य डॉ. हेस्टी ( Hastie) आप से प्रभावित थे । आप बचपन से ही ध्यान लगाते थे । कहते हैं कि बचपन में ध्यान की अवस्था में एक सर्प आप के पास आ गया लेकिन आप को इस बात का भान ही नहीं हुआ । सन 1881 में आप ने फ़ाईन आर्ट्स की परीक्षा पास की और सन 1884 में आप स्नातक हुए । स्नातक होने के बाद आप ने मेट्रोपोलिटेंट इंस्टीट्यूट (वर्तमान विद्यासागर कालेज ) से कानून की पढ़ाई शुरू की । लेकिन आप अंतिम परीक्षा में शामिल न हो सके । आप के पिता की मृत्यु सन 1884 में हुई । 

                    स्वामी जी  की आश्चर्यजनक याददाश्त के कारण उन्हें कुछ लोग ‘श्रुतिधरा’ भी कहते थे । ब्रह्म समाज का भी आप के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा । आप ब्रह्म समाज के सदस्य भी रहे । ब्रह्म समाज से जुड़ने के बाद नरेन्द्र को ब्रह्म समाज के प्रमुख महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर से मिलने का मौका मिला और अपनी आदत के अनुसार उनसे पूछा कि “क्या उन्होंने ईश्वर को देखा हैं?”, तब देवेन्द्रनाथजी ने उनके प्रश्न का उत्तर देने की बजाय उनसे कहा कि “बेटे, तुम्हारी नज़र एक योगी की हैं”, और इसके बाद भी उनकी ईश्वर की खोज जारी रही । आप अपने चिंतन में “प्रमाण” को प्रमुख मानते थे । आप केशव चंद्र सेन से भी कुछ दार्शनिक प्रश्नों को लेकर मिले किन्तु यहाँ भी आप को समाधान नहीं मिला । 

                  नवंबर 1880 में आप पहली बार रामकृष्ण परमहंस जी से मिले । पिता की मृत्यु के बाद तो आप दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस जी से मिलने कई बार गए । यहीं पर काली माता से उन्होने आर्थिक तंगी दूर करने की बजाय विवेक और वैराग्य मांगा ।  पिता की मृत्यु के बाद आर्थिक तंगी दूर करने के लिए आप ने कुछ समय के लिए मेट्रोपोलिटेंट इंस्टीट्यूट में शिक्षक के रूप में भी कार्य किया ।  सन 1885 में रामकृष्ण जी को गले का कैंसर हो गया तो वे कोलकाता चले आए । यहाँ रहते हुए स्वामी विवेकानंद ने गुरु की बहुत सेवा की । 16 अगस्त सन 1886 में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु तक तो आप उनके सबसे प्रिय शिष्यों में अपनी जगह बना चुके थे । कोई गुरु अपने शिष्य के लिए महान वचनों को कहे यह हमेशा ही महत्वपूर्ण होता है । रामकृष्ण परमहंस विवेकानंद को महानताओं का प्रतीक मानते थे । वे उन्हें सोलह पंखुड़ियों वाला कमल नहीं अपितु सहस्रदल कमल के रूप में संबोधित करते थे । अद्वैत वेदांत की शिक्षा आप को अपने गुरु से ही मिली । 

              स्वतंत्रता और समानता जैसे सिद्धान्त जो कि फ्रांसीसी राज्य क्रांति के नींव में थे, उनसे भी आप प्रभावित रहे । संस्कृत और अँग्रेजी भाषा के आप बड़े ज्ञाता थे । पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और लोकतांत्रिक पद्धतियों की भी उन्हें गहरी समझ थी । शेले के सर्वात्मवाद और वर्ड्सवर्थ के दार्शनिक मान्यताओं के आप प्रशंसक थे ।अपने गुरु की मृत्यु के पश्चात् वे स्वयं और रामकृष्ण परमहंस के अन्य शिष्यों ने सब कुछ त्याग करके, मठवासी बनने की शपथ ली और वे सभी बरंगोर में निवास करने लगे जो कि किराये पर लिया गया स्थान था । सन1887 में नरेंद्रनाथ सहित रामकृष्ण के पंद्रह शिष्यों ने मठवासी होने की प्रतिज्ञा ली। और वहीं से नरेंद्र,  स्वामी विवेकानंद बने । ‘विवेकानंद’ शब्द का अर्थ है - ज्ञान की अनुभूति का आनंद ।  ये सभी पंद्रह शिष्य उत्तरी कलकत्ता के बारानगर में एक साथ रहते थे, जिसे रामकृष्ण मठ के नाम से जाना जाता था । वे सभी योग और ध्यान का अभ्यास करते थे। 

                    गुरु की मृत्यु के बाद स्वामी जी ने पाँच वर्षों तक पूरे देश का भ्रमण किया । इन यात्राओं के बीच उन्होने संस्कृत और भारतीय धर्म शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । सन 1888 में आप ने अपनी यात्रा काशी से शुरू की । यहाँ वे भूदेव मुखोपाध्याय और  बाबू परम दास से मिले । इसके बाद वे अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृंदावन, हाथरस और ऋषिकेश गए । हाथरस में ही आप स्टेशन मास्टर शरत चंद्र गुप्ता से मिले जो आगे चलकर आप के शिष्य बने । 1888 से 1890 के बीच बैद्यनाथ, इलाहाबाद, गाजीपुर, नैनीताल, अल्मोड़ा, श्रीनगर, देहरादून, हरिद्वार और हिमालय के अनेक स्थलों की आप ने यात्रा पूरी की । अपनी यात्रा के अंत में सन 1891 के आस-पास आप दिल्ली आए । यहाँ से अलवर, जयपुर, अजमेर, माउंट आबू और फिर आप महाराष्ट्र आए । महाराष्ट्र के अहमदाबाद और लिम्बडी की यात्रा आप ने की । यहीं आप की मुलाक़ात ठाकोरे जी से हुई जिनसे मिलकर आप को पश्चिम में वेदांत की शिक्षा देने का ख़्याल आया । आगे की यात्रा में आप जूनागढ़, पोरबंदर, कच्छ, द्वारका और बड़ोदा होते हुए पुणे और महाबलेश्वर आए । सन 1892 में आप मध्यप्रदेश के खंडवा और इंदौर में रहे । दिसंबर 1892 में आप कन्याकुमारी के एक मंदिर में आए । यहीं उनकी बाल गंगाधर तिलक से भी मुलाक़ात हुई । भारत के अंतिम छोर की आखिरी चट्टान पर बैठकर आप ने अपने भविष्य की राह सुनिश्चित की । यह जगह आज “विवेकानंद शिला” के नाम से जानी जाती है ।   

                 गुजरात और मद्रास के अपने गुरु भाइयों एवं शिष्यों के माध्यम से आप को शिकागो में आयोजित होनेवाली धर्म संसद के बारे में पता चला । पहले उन्हे यहाँ जाने में संकोच हो रहा था, लेकिन एक दिन स्वप्न में उन्हें गुरु का आदेश प्राप्त हुआ जिसके बाद वो शिकागो जाने के लिए तैयार हुए । 31 मई 1893 में आप अमेरिका के शिकागो में आयोजित सर्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने गए । सिंगापुर, हाँगकाँग और टोकियो होते हुए वे अमेरिका पहुंचे । अमेरिका पहुँचने पर उन्हें पता चला कि सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्हें इस आशय का पत्र देना होगा कि वे अपने धर्म के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में आए हुए हैं । स्वामी जी ने ऐसा कोई पत्र किसी से लिया नहीं था । उन्हें लगा कि अमेरिका आने का उनका प्रयोजन अधूरा रह जाएगा । अपनी चिंता से उन्होने उस अमेरिकी प्रोफेसर J.H.Wright को अवगत कराया जिनसे उनकी ट्रेन में मुलाक़ात हुई थी । प्रोफ़ेसर साहब आप के व्यक्तित्व से प्रभावित थे अतः उन्होने सम्मेलन के अध्यक्ष को “Letter of Introduction” लिखा । 

                     लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं हुई । सूचना मिली कि कतिपय कारणों से सम्मेलन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया है । स्वामी जी के पास न तो अधिक धन राशि बची थी ना ही वहाँ रहने का कोई ठिकाना था । ऐसे में कुछ लोग जो स्वामी जी की सादगी और विचारों से प्रभावित थे उन्होने स्वामी जी को अपने घर में शरण दी । आखिर धर्म संसद के आयोजन का समय आ गया । स्वामी जी ने 11 सितंबर 1893 को वहाँ अपना ऐतिहासिक व्याख्यान दिया । 11 मिनट के आप के व्याख्यान के बाद तो पूरा अमेरिका आप का मुरीद हो चुका था ।  स्वामी विवेकानंद जी को वहाँ की प्रेस ने “Cyclonic Monk from India” का नाम दिया था । द न्यूयार्क हरोल्ड ने स्वामी जी के विषय में लिखा कि,” Vivekananda was undoubtedly the greatest figure in the parliament of Religion; after hearing him we feel how foolish it is to send missionaries to this learned Nation.” अमेरिका के अख़बार आप की प्रशंसा से पट गए ।  धर्म संसद में 11 बार आप के व्याख्यान अलग-अलग प्रसंगों पर हुए । 27 सितंबर 1893 को धर्म संसद का कार्यक्रम समाप्त हुआ । उन्होंने ऐसी ही कई जगहों, घरों, कॉलेजों में अपने व्याख्यान दिए । अमेरिका से आप पेरिस होते हुए इंगलैंड गए । आप के तमाम व्याख्यानों को श्रीमान J.J. Goodwin ने लिपिबद्ध किया । वहाँ से 1895 में भारत लौटने  पर  आप का शाही स्वागत हुआ । कोलकाता में हज़ारों की भीड़ आप को देखने के लिए उतावली दिखी । अमेरिका में दिये आप के व्याख्यानों का संग्रह “ Lectures from Colombo to Almora” शीर्षक से प्रकाशित हुआ । देश-विदेश के कई लोग आप से प्रभावित होकर आप के शिष्य बने । ऐसे ही प्रमुख नामों में सिस्टर निवेदिता भी थी । जिन प्रमुख लोगों से आप की मुलाक़ात हुई उनमें प्रोफ़ेसर मैक्स मूलर, पॉल ड्युसेन, ए. स्टर्डी, श्रीमान सेवियर एवं मिस मार्गरेट प्रमुख थीं । 

                सन 1897 में आप ने कोलकाता के बैलूर में “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की । सन 1898 में आप दुबारा पश्चिम की यात्रा पर गए । इसी बीच आप ने सैनफ्रांसिस्को में “शांति आश्रम” की स्थापना की । यहीं से वापस भारत लौटने पर 04 जुलाई सन 1902 को आप का देहांत हो गया । स्वामी जी ने कुछ व्याख्यान हिन्दी में भी दिये थे जो कि उपलब्ध नहीं हैं । आप का सम्पूर्ण साहित्य अँग्रेजी में 08 खण्डों में “Complete Works of Swami Vivekananda” शीर्षक से प्रकाशित है । इनमें आप के लिखे पत्र और कुछ कवितायें भी शामिल हैं । आप की पहली पुस्तक “कर्मयोग” सन 1896 में न्युयार्क से, “राजयोग” इंगलैंड से और “भक्तियोग” मद्रास से प्रकाशित हुई थी । इन पुस्तकों के प्रकाशन के बाद डॉ. आर.सी. मजूमदार और श्री आर.जी.प्रधान जैसे विद्वानों ने आप को “आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद का पितामह” घोषित किया । 

                      अपने मौलिक चिंतन और सेवा कार्य के प्रति जुनून के कारण सभी में विशेष रूप से लोकप्रिय भी थे । उन्होंने गरीबों और दलितों की सेवा पर जोर दिया एवं इसे बड़ा पवित्र कार्य माना । एक दार्शनिक उपदेशक और समाज सुधारक  के रूप में स्वामी विवेकानंद ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया । मानवता का उत्थान उनके जीवन का परम लक्ष्य था । उन्होने  विचारों की गतिशीलता पर जोर दिया तथा मानव जीवन की उत्कृष्टता के लिए शरीर और आत्मा की पवित्रता की बात की । शिक्षा संबंधी अपने विचारों को लेकर वो स्पष्ट रूप से कहते थे कि अधिकांश देशों में औपचारिक स्कूली शिक्षा पर जोर दिया जाता है न कि श्रेष्ठ मानव-निर्माण संबंधी गतिविधियों पर । परिणाम यह है कि इतनी शिक्षा के बाद भी अराजकता का कोई अंत नहीं है । स्वामी जी यह समझ चुके थे कि मानव मात्र की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है । स्वामी जी कहते थे कि,” I am s Socialist not because I think it is a perfect system, but because half-a-loaf is better than no bread.” गरीबों के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए वे समाज के बड़े वर्ग को हमेशा चेताते रहे । 

                    वे साफ़ मानते थे कि धन का आधिक्य मूलभूत मानवीय मूल्यों पर हावी नहीं होना चाहिए। विवेकानंद जैसा द्रष्टा ही बहुत पहले ही इस मानवीय पीड़ा के कारण को समझ सकता था और उसका प्रचार कर सकता था । शिक्षा का दर्शन मानव जाति के कल्याण और उद्धार के लिए है यह सीख विवेकानंद से ही मिलती है । आप कर्म के बिना ज्ञान को निरर्थक मानते थे । अद्वैत वेदान्त को व्यावहारिक बनाने पर आप ने विशेष ज़ोर दिया । वेद, वेदान्त, गुरु की शिक्षा और अपने मौलिक चिंतन को उन्होने अपने विचारों की धुरी बनाई । विवेकानंद जी ने कभी उस ईश्वर की चर्चा नहीं की जो मृत्यु के बाद सुख प्रदान करे । उन्होने अपने वेदान्त के सिद्धान्त को सार्वभौमिक माना । वे भक्ति, ज्ञान और कर्म के समन्वय में विश्वास करते थे । वे वेदान्त को प्रतिदिन की पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की कुंजी के रूप में देखते थे । धर्म के प्रति आप का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और बुद्धिवादी रहा । आप ने सांप्रदायिकता का खुल के विरोध किया । हिन्दू धर्म की मानवतावादी व्याख्या प्रस्तुत करने में आप पूरी तरह सफल रहे । 

               आप ने राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक एवं धार्मिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया । गुलाम भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाने में विवेकानंद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । वे भारत के राष्ट्रवाद का प्रधान तत्व धर्म को मानते थे । वे हमारी आध्यात्मिकता की तुलना हमारे जीवन रक्त से करते हैं । भारत के कल्याण को अपना कल्याण माननेवाले वे एक कद्दावर विचारक थे । वे चिंतन और कार्य की स्वतंत्रता के परम हिमायती थे । समाज में किसी भी प्रकार के भेदभाव और शोषण का आप ने खुलकर विरोध किया । आप ने अधिकारों की जगह कर्तव्य को हमेशा ही प्रमुखता दी । आप सार्वभौमिकता और विश्व बंधुत्व के सबसे बड़े हिमायती रहे । छुआछूत, स्त्री अधिकार, बाल विवाह का विरोध एवं दलित उत्थान जैसे विषयों को लेकर आप जीवन भर सक्रिय रहे । स्वामी जी शुद्ध भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक थे । आप शिक्षा पाठ्यक्रमों में धर्मग्रंथों को इस उद्देश्य से सम्मिलित करवाना चाहते थे कि इससे धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास को व्यापक रूप से नियंत्रित किया जा सकेगा । स्वामी जी कहते हैं कि, “Soul is a circle whose circumstances is nowhere (limitless), but whose center is in somebody. Death is but a change of center. God is a circle whose circumference is nowhere and whose center everywhere. When we can get out of the limited center of body, we shall realize God, our true self.”  

        वास्तव में, शिक्षा का उनका दर्शन उपनिषदों, गीता, अद्वैत वेदांत एवं  भागवत के शाश्वत सत्य पर आधारित है । विवेकानंद के लिए, "शिक्षा पूर्णता की अभिव्यक्ति है।“ उनकी दृष्टि में शिक्षा जीवन का स्वरूप है ।  विवेकानंद ऐसे उच्च नैतिक आदर्श की तलाश करते हैं जैसे कि - सार्वभौमिक प्रेम, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच सभी बाधाओं को पार करते हुए उन्हें एक सूत्र में जोड़ सके । वे एक ऐसे आधार को तलाशते हैं जो एक दुनिया के गठन को बढ़ावा देता है । इसे हम  “अस्तित्व की आध्यात्मिक एकता” के रूप में भी समझ सकते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं है कि, दुनिया का एकीकरण करने में  इस तरह की शिक्षा की तत्काल आवश्यकता है । 

            19वीं शताब्दी के निर्णायक काल में भारत के शिक्षित लोग अधिकतर थे जो पश्चिम की संस्कृति से प्रभावित थे । इनके अंदर आत्मगौरव के लिए कोई सूत्र नहीं था । लेकिन विवेकानन्द की दृष्टि में शिक्षा जड़ विचार नहीं अपितु एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से जीवन के आंतरिक मूल्यों का निर्माण किया जा सकता है।  पश्चिम की सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति से ऊपर उठकर उन्होने सोचने की एक नई दृष्टि दी । उनके विचार में सच्ची शिक्षा निहित है जो आधुनिक विज्ञान के साथ वेदांत का सम्मिश्रण या संलयन करती हुई दिखाई पड़ती है। पुनरुत्थानवादी भारत के अग्रदूत के रूप में उनके पास अपनी मौलिक सोच थी जिसके केंद्र में मनुष्यता थी । मानवता के सार्वभौमिक शिक्षक, विवेकानंद ने पूर्व और पश्चिम दोनों की समस्याओं को गहराई से महसूस किया। उनके द्वारा निर्धारित समाधान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों थे। एक मनुष्य के रूप में अपने व्यक्ति को पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासों से मुक्त करना विवेकानंद अनिवार्य मानते थे । शिक्षा की अपनी अवधारणा में विवेकानंद का वेदांतिक दृष्टिकोण का बहुत अधिक योगदान है ।

           भारत में शिक्षा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए स्वामी जी मनोविज्ञान, योग और अद्वैत के विचार के उपयोग पर बल देते हुए दिखाई पड़ते हैं । वे धर्म को माध्यम और योग को उचित तरीका मानते हैं । विवेकानंद स्पष्ट रूप से मानते थे कि शिक्षा पेशे के लिए नहीं अपितु जीवन के लिए होनी चाहिए । जीवन के लिए शिक्षा आवश्यक रूप से  व्यापक होनी चाहिए। यह  एक निरंतर जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है । आदर्श शिक्षा का अर्थ केवल सूचना एकत्र करना नहीं है। विवेकानंद ने परिभाषित किया है कि शिक्षा - "मनुष्य में पहले से ही पूर्णता की अभिव्यक्ति" के रूप में और धर्म - "मनुष्य में पहले से ही दिव्यता की अभिव्यक्ति" के रूप में । इस तरह सच्ची शिक्षा और सच्चा धर्म लगभग विनिमेय शब्द हैं । विवेकानंद की भारत के नवनिर्माण की योजना में गरीबी, बेरोजगारी को दूर करना और जनता को शिक्षित करना महत्वपूर्ण है  ताकि उनकी खोई हुई वैयक्तिकता हो बहाल किया जा सके । आज हम विवेकानंद के विचारों से पूरी तरह मेल खाते हुए पूरे भारत में अनेकों को देखते हैं । विवेकानंद के मानव-निर्माण के विचारों के मूल उद्देश्यों का समर्थन करते हुए आज कई विचारक उनके गुणगान गाते नहीं थकते । स्वामी जी चाहते थे कि सारी शिक्षा की नींव आध्यात्मिकता के मूल आधार पर रखी जाए।

             एक राष्ट्र या समाज के जीवन को बनाए रखने और एकीकृत करने के साथ-साथ पूरा करने के लिए,जिस समग्र मानवीय चिंतन की जरूरत थी वो स्वामी विवेकानंद के विचारों में स्पष्ट होती है ।  एक राष्ट्र के जीवन में संस्कृति इस अर्थ में व्यापक और एकीकृत है कि समाज जो कुछ भी करता है  इसके लिए  प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसकी “संस्कृति की अभिव्यक्ति” को ही जिम्मेदार माना जा सकता है। हालांकि विभिन्न संस्थानों, रीति-रिवाजों और शिष्टाचार के साथ-साथ विचार पैटर्न भी अपनी संस्कृति को व्यक्त करने में मदद करता है, संस्कृति ऐसी कोई चीज नहीं है किसी एक या एक से अधिक के संदर्भ में  व्यक्त होती रहे । इसे तो अति व्यापक रूप से पहचाना और परिभाषित किया जाना चाहिए ।  किसी संस्कृति को समझना, उसे जीना और उसमें विकसित होना एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा है। इसमें भाग लिए बिना एक संस्कृति की सराहना करना काफी कठिन है।  उन्होने स्पष्ट रूप से कहा है – 

       “ National union in India must be the gathering up of the scattered spiritual forces. A nation in India must be the union of those whose hearts beat to the same spiritual tune.”                 

           भारतीय संस्कृति  के हिंदू विचारकों में यह विवेकानंद थे जिन्होंने सार को समझने की कोशिश की और भीतर से भारतीय संस्कृति का अर्थ भी । उनके पास ऐसे व्यक्ति के करीब रहने का दुर्लभ विशेषाधिकार था जो भारतीय आध्यात्मिकता का एक जीवित अवतार माने जाते हैं ।  एक साधु के रूप में भारत की लंबाई और चौड़ाई में उनकी व्यापक यात्राएँ, भारतीय स्रोत साहित्य की उनकी गहन समझ, और उनका व्यक्तिगत बोध इसके उच्चतम मूल्यों ने उन्हें संस्कृति के  अर्थ को गहराई से समझने में मदद की । हिंदू धर्म की सबसे रचनात्मक तरीके से व्याख्या करने की उनकी क्षमता से कहीं अधिक उनकी सफलता भारत को उसकी आध्यात्मिक नींद से जगाने में, उसका मार्गदर्शन करने में निहित है । विवेकानंद अधिकांश अन्य महान और रचनात्मक लोगों की तरह अपनी अंतर्दृष्टि के लिए अधिक जाने जाते हैं । विवेकानंद ने भारतीय जीवन के लगभग सभी पहलुओं को छुआ है और उन्हें उनके सही परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश की। स्वामी जी के शब्दों में – 

“When the blood is strong and pure, no disease germs can live in the body. Our life blood is spirituality. if it flows clear, if it flows strong and pure and vigorous, everything is right; political, social, any other material defects, even the poverty of the land will all be cured if that blood is pure. For if the disease-germ is thrown out, nothing will be able to enter into the blood.” 

            स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों और भाषणों से बहुत से युवाओं को समाज-सेवा और चरित्र-निर्माण की प्रेरणा मिली । स्वामी विवेकानंद ने अपना जीवन समर्पित कर दिया युवाओं को समाज-सेवा के महत्व को पढ़ाने और मार्गदर्शन करने में । स्वामी विवेकानंद अपने पूरे जीवनकाल में युवाओं के लिए एक शक्तिशाली प्रेरणा थे ।  स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 1984 में, भारत सरकार ने इसकी औपचारिक घोषणा की । स्वामी जी  समझते थे कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन के लिए भारी ऊर्जा की आवश्यकता होती है और हमेशा रहेगी । इसलिए उन्होंने युवाओं से आह्वान किया कि वे न केवल अपनी मानसिक ऊर्जा  का निर्माण करें, बल्कि शरीर से भी ताकतवर बनें । वे  चाहते थे कि युवाओं में अदम्य इच्छाशक्ति और महासागर पीने की ताकत हो । वह युवाओं को शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से तैयार करना चाहते थे । 

            स्वामी विवेकानंद के इतिहास के काम को हमेशा भारत के इतिहास में बड़े योगदान के रूप में याद किया जाता है। वह एक भारतीय हिंदू भिक्षु जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदू धर्म के विश्वासों और मान्यताओं को फैलाने में लगा दिया ।  जिनके लिए धार्मिक होने का अर्थ है  जीवन व्यतीत करना एक तरीका जिससे हम अपनी उच्च प्रकृति, सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता को अपने विचारों में प्रकट करते हैं । इस लक्ष्य की ओर ले जाने वाले सभी आवेग, विचार और कार्य स्वाभाविक रूप से उदात्त, सामंजस्यपूर्ण और सच्चे अर्थों में  नैतिक हैं। स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट मानना था कि हमें तकनीकी शिक्षा और अन्य सभी चीजों की आवश्यकता है, जो उद्योगों का विकास कर सकें । वे ऐसे विकास की बात करते  हैं जो संतुलित राष्ट्र के साथ हमें पश्चिम की गतिशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जोड़ने का काम करे ।                        

            इस तरह के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक मिशनरी भावना की आवश्यकता है। हमें अपनी विकास सोच विकसित करना है। हमें क्षमताओं और अधिकारों की दिशा में हमारे कमोडिटी केंद्रित दृष्टिकोण को स्थानांतरित करना होगा। विकास की वास्तविक भावना के लिए हमें अंतर्ज्ञान के आधार पर एक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस संबंध में मेरा अंतर्ज्ञान यह कह रहा है कि संस्थानों का संरचनात्मक परिवर्तन आवश्यक है। वास्तविकता के वर्तमान चरण में, लिबर्टी और मानव भावना की स्वतंत्रता विचारों के बहुत ही रोचक ध्रुवीकरण को बनाती है। हमें एक समाज या संस्थागत प्रणाली की आवश्यकता है जहां सभी के लिए अपनी क्षमताओं को अनुकूलित करने के अवसर हो सकते हैं। नीतियां जो सामाजिक रूप से उपयोगी और उत्पादक हैं और किसी भी विखंडन से परे हैं। हमें एक इंटरेक्टिव संस्थान की जरूरत है जो जीवन के शिखर को छूता है। स्वामी जी इसी के लिए एक अध्यात्म केन्द्रित शिक्षा की बात करते हैं । 

           संपूर्ण शैक्षिक कार्यक्रम को इस प्रकार नियोजित किया जाना चाहिए कि यह युवाओं को देश की भौतिक प्रगति में योगदान देने के लिए तैयार करे लेकिन  भारत की आध्यात्मिक विरासत के सर्वोच्च मूल्य को बनाए रखना हम सब की ज़िम्मेदारी है । भारत की सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान संस्था -- इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंसेज, बेंगलूरू (आई आई एस सी) की स्थापना के पीछे विवेकानंद की प्रेरणा थी । सन 1893 में, जापान के योकोहामा से कनाडा के वैंकूवर तक पानी के जहाज पर स्वामी जी यात्रा कर रहे थे । यहीं एक भारतीय उद्योगपति से भारतीय समाज के कायाकल्प को लेकर उनकी चर्चा हुई। इस घटना के करीब पांच वर्षों बाद नवंबर 1898 में जमशेदजी टाटा ने स्वामी विवेकानंद को पत्र लिखकर यह स्मरण करवाया कि  जहाज यात्रा की उनकी चर्चा अब सार्थक होगी ।  टाटा ने स्वामी जी के विचारों से प्रभावित होकर भारतीय विद्यार्थियों के लिए एक विज्ञान शोध संस्था बनाने का निश्चय कर लिया था । 2 लाख स्टर्लिंग पाउंड की राशि इस कार्य के लिए टाटा ने प्रदान की थी। इस तरह  आई आई एस सी के निर्माण की कहानी बनी ।

                 विवेकानंद एक सच्चे वेदांतवादी थे। वे एक व्यावहारिक संत थे, गतिशील विश्व प्रेरक और मानव प्रेमी, जो मानव जाति को किसी भी चीज़ से अधिक प्यार करता है। वह  एक उत्साही अध्ययनकर्ता थे । दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित अनेकों  विषयों की उन्हें गहरी जानकारी थी । विवेकानंद को वेदों, उपनिषदों सहित हिंदू शास्त्रों में भी रुचि थी। भगवद गीता, महाभारत और पुराण उनकी प्रिय पुस्तकों में थी । 

                  विवेकानंद ने अपनी यात्राओं के माध्यम से वर्षों तक वेदांतिक शास्त्रों और दर्शन का प्रचार किया । विवेकानंद एक प्रखर विद्वान, प्रख्यात वेदांतवादी, दार्शनिक और ब्रह्मचारी थे। वे भारतीय अध्यात्म के अमृत में डूबे हुए थे। विवेकानंद ईश्वर को सर्वोच्च शक्ति के रूप में वर्णित करते हैं। वह सर्वशक्तिमान,  और सर्वज्ञ है । मनुष्य ईश्वर का अवतार है, ईश्वर मनुष्य में प्रकट होता है। वह आगे कहते हैं कि आत्मा दिव्य और अमर है । इसलिए पूर्ण आत्मा (ब्रह्मा) और व्यक्तिगत आत्मा  के बीच कोई अंतर नहीं है। विवेकानंद वेदांतिक दर्शन से बहुत प्रभावित थे। उनका मानना था कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्माता (भगवान) के साथ एकता प्राप्त करना है। स्वामी जी का धर्म के प्रति व्यापक दृष्टिकोण था। उनका धर्म प्रकृति में सार्वभौमिक है । उनके लिए मनुष्य की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। दूसरे शब्दों में  मानवता की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। उनके अनुसार वास्तविक सुख न तो शरीर में है न मन में, बल्कि जीवन की स्वतंत्रता में। इस प्रकार जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का प्रेरक है ब्रह्मांड, स्वतंत्रता लक्ष्य है। एक अखंड राष्ट्र के रूप में  भारत का स्वरूप बहुवचनात्मक है । बाह्य विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में कुछ आंतरिक मूल तत्व हैं जो इसकी अखंडता के लिए कवच के समान हैं । भारतीयता जैसी अवधारनाएं इन्हीं प्रांजल तत्वों की खोह में सुरक्षित रहती हैं । पूरे विश्व में इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं है । ये तत्व ही प्रकाश के वे अंतःकेंद्र हैं जो पवित्र,निर्मल विचारों और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये साहित्य और संस्कृति के माध्यम से सच्चा बयान प्रस्तुत करते हैं । एक राष्ट्र के रूप में हमें ऊर्जावान, प्रज्ञावान और अग्रगामी बनाते हैं । यह भी सिखाते हैं कि दृष्टि के विस्तार में हम एक हैं ।

                स्वामी जी के अनुसार हमें अपनीय मानवीय उदारता को और  विस्तार देना होगा,ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे ।  निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है । स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंश चिंतनीय है । विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक,पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है । समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है । जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है । वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं । जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है । भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है । सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा । अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा । खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा । सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा । 


              शिक्षा का विवेकानंद दर्शन उनके सामान्य दर्शन की एक शाखा है। उनका मानना था कि मनुष्य जन्म के समय पूर्ण होता है। अतः शिक्षा पहले से हीआदमी में पूर्णता की अभिव्यक्ति है । पूर्णता मनुष्य में पहले से ही निहित है और शिक्षा उसी की अभिव्यक्ति है। सभी पूर्णता प्राप्त करने के हकदार हैं। स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन वेदांतिक दर्शन का प्रतिबिंब है। उनके अनुसार मनुष्य के आन्तरिक विकास का सर्वोत्तम साधन शिक्षा है। वे कहते थे कि शिक्षा और सभी प्रशिक्षण का अंतिम उद्देश्य मनुष्य बनाना होना चाहिए। स्वामी जी के अनुसार भारत को एक महान राष्ट्र बनने के लिए केवल एक ही काम करने की आवश्यकता है, और वह है – समन्वय । वे कहते थे कि – 

जब तक जीना, तब तक सीखना,अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। 

हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए ध्यान रखें कि आप क्या सोचते हैं।

यह कभी मत कहों कि 'मैं नहीं कर सकता', क्योंकि आप अनंत हैं। 

जब तक तुम अपने आप में विश्वास नहीं करोगे, तब तक भगवान में विश्वास नहीं कर सकते ।  

उठो, जागों और तब तक मत रुको जब तक अपना लक्ष्य प्राप्त ना कर सको । 

हम जितना बाहर आते हैं और जितना दूसरों का भला करते हैं, हमारा दिल उतना ही शुध्द होता हैं और उसमे उतना ही भगवान का निवास होगा । 

जब एक सोच दिमाग में आती हैं तो वह मानसिक और शारीरिक स्थिति में तब्दील हो जाती हैं । 

संसार एक बहुत बड़ी व्यायामशाला हैं जहाँ हम खुद को शक्तिशाली बनाने आते हैं । 

सच हजारो तरीके से कहा जा सकता हैं तब भी उसका हर एक रूप सच ही हैं । 

जिस वक्त मुझे यह महसूस हुआ कि भगवान शरीर रूपी मंदिर में रहते हैं, उस पल से मैं हर एक व्यक्ति के सामने खड़े हो कर उनकी पूजा करता हूँ । उस पल से मैं सारी बंदिशों से मुक्त हो गया ।  सभी चीज़ें जो बांधती हैं वो खत्म हो गई, और मैं स्वतंत्र हो गया । 

बाहरी स्वभाव आतंरिक स्वभाव का बड़ा रूप हैं । 

जैसे अलग-अलग धाराएँ अलग-अलग जगह से आती हैं पर सभी एक सागर में मिल जाती हैं, उसी तरह भिन्न- भिन्न विचारों के लोग भले सही हो या गलत सभी भगवान के पास जाते हैं । 


                इस तरह हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानंद का जीवन उनका देखा हुआ एक उदात्त स्वप्न है । उनके विचार और कार्य एक तरह से उनके जीवन के अनुवाद जैसा है । उनका एक-एक शब्द एक नए भारत के इंतजार में गढ़ा हुआ सा है । वे चाहते थे कि सबकुछ छोडने के बाद भी हमारे अंदर करुणा, सहिष्णुता और प्रेम बचा रहे । फकीरी राह पर वे एक जुनून के साथ निकले थे । स्वामी विवेकानंद के शब्दों में हमारी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना की जड़े हैं । उनकी संवेदना का संबंध मानवीय करुणा और जन जागरण से है । स्वामी विवेकानंद  मनुष्यता की एक शाश्वत उम्मीद बनकर हमेशा अपनी प्रासंगिकता बनाए रखेंगे ।स्वामी जी  हमारी शाश्वत सनातन परंपरा का पुनर्पाठ करने वाले पुरोधा हैं । आवश्यकता इस बात की है कि उनके मूल स्वरूप पर पड़े आवरण को हटाकर अपनी परंपरा,संस्कृति एवं आध्यात्मिक उदात्तता के आलोक में उन्हें देखा और समझा जाय । 




संदर्भ ग्रंथ : 


1. विवेकानंद : व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास, प्रभात प्रकाशन,नई दिल्ली, 2017

2. शिक्षा, स्वामी विवेकानंद, तृतीय संस्करण श्री रामकृष्ण आश्रम नागपुर, मध्यप्रदेश, जनवरी 1956 ' वाणी मंदिर, जयपुर. 

3. कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 44, नई दिल्लीः प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 1999. 

4. द कंपलीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, खंड 3, कोलकाताः अद्वैत आश्रम, 1989. 

5. सुमित सरकार, आधुनिक भारत (1885-1947), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993.

6. योद्धा सन्यासी विवेकानंद, वसंत पोतदार, प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण, 2012

7. क्षेमेन्द्र और उनका समाज : डॉ. मोती चन्द्र, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 1984 में प्रकाशित । 

8. भाषा और समाज – रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2008 में प्रकाशित । 

9. Swami Vivekananda a Biography of His Vision and Ideas, Edited by Virender Grover, Deep & Deep Publication, New Delhi, 1998. 

10. Swami Vivekananda, edited by M.H. Syed, Himalaya books pvt. Ltd., New Delhi, 2011. 

11. Merina Islam & Desh Raj Sirswal (2013) Philosophy of Swami Vivekananda, CPPIS, Pehowa. 

12. Singh, Sheojee (2013) Man-Making Education: The Essence of a Value Based Society, Milestone Education Review, Year 04, No.1, April 2013. 

13. Bharathi, K.S. (1998), Encyclopedia of eminent thinkers: the political thought of Vivekananda, New Delhi: Concept Publishing Company. 

14. Mukherji, Mani Shankar (2011), The Monk as Man: The Unknown Life of Swami Vivekananda.

15. Chattopadhyay, Raja Gopal (1999), Swami Vivekananda in India: A Corrective Biography, Motilal Banarsidass Publication.

16. IDENTIFICATION OF COMMONNESS AMONG LETTER SETS OF VARIOUS LANGUAGES AND NUMERIC SYSTEMS FROM SANSKRIT. K.S.Vishwanath. Assistant Professor, Department of Aerospace Engineering, IIAEM, Jain University, Bangalore-562112. ISSN: 2320-5407 Int. J. Adv. Res. 6(11), 1060-1068. 

17. Postcolonial Indian Literature Towards a critical framework – Satish C. Aikant, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2018. 

18. Literature and Infinity – Franson Manjali, Indian Institute of Advanced Study, Shimla, first published 2001.  

19. King Serfoji II of Thanjavur and European Music by Professor Indira Viswanathan Peterson, Mount Holyoke College, U.S.A, Journal of the Music Academy of Madras, Dec 2013. 


20. https://www.vifindia.org/article/hindi/2020/september/22/bharat-ke-svatantrata-senaaniyon-par-swami-vivekananda-ka-prabhaav 

21. https://isha.sadhguru.org/in/hi/wisdom/article/swami-vivekananda-ek-krantikari-sanyaasi

22. https://www.exoticindiaart.com/book/details/swami-vivekananda-his-character-and-teachings-nzi855/

23. https://www.hindisamay.com/content/11722/1

24. https://shubhamsirohi.com/swami-vivekanand-biography-in-hindi/

25. https://www.drishtiias.com/hindi/blog/swami-vivekananda-and-scientific-transformation-of-the-nation

26. https://www.bbc.com/hindi/india-41228101


स्वामी विवेकानन्द का उत्तराखण्ड आगमन डॉ. कवलजीत कौर

 स्वामी विवेकानन्द का उत्तराखण्ड आगमन

डॉ. कवलजीत कौर

समाजशास्त्र विभाग

राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चम्पावत, उत्तराखण्ड



‘वसुधैव कुटुम्बकम्’की संकल्पना ने पूरे विश्व को एक श्रंृख्ला में निबद्ध करने का प्रयास किया है। सम्पूर्ण विश्व में शायह ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने स्वामी विवेकानन्द का नाम नहीं सुना हो। आधुनिक भारत में इनका उल्लेख युवा पुरूष के रूप में किया जाता है। स्वामी विवेकानन्द का लक्ष्य समाजसेवा, जनशिक्षा, धार्मिक पुनरूत्थान और समाज में जागरूकता लाना, मानव की सेवा आदि था। जनचिंतन उत्थान के प्रति चिन्तन, जन शिक्षण का प्रसार, वास्तविक समाजवाद की अवधारणा, सामाजिक एकता, जन-जागरण की आवश्यकता तथा कर्मशीलता सम्बन्धी विचारों ने जन मन को प्रभावित किया है और इनमें आज भी जनसाधारण को अभिप्रेरित करने का अनुपम सामर्थ्य है। स्वामी विवेकानन्द वह ज्योतिपुंज है जिन्होंने भारत की आधी शताब्दी को ज्योतित किया और एक युगपुरूष के रूप में संतृप्त मानवता के कल्याण में लगे रहे। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सम्पूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय है। स्वामी विवेकानन्द में वे सभी गुण समाहित थे जो उन्हें महान से महानतम बनाते गये, जो उन्हें नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द के रूप में अभिनन्दित कर सके।


स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने विचारों के प्रचार एवं प्रसार करने के लिए कई देश-विदेश की यात्राऐं की। इन्ही यात्राओं के दौरान वे उत्तराखण्ड आए। स्वामी विवेकानन्द का उत्तराखण्ड की धरती से खास लगाव था। हिमालय की गोद में बसे देवभूमि की खूबियां ही कुछ ऐसी है जहां महान विभूतियों ने तपस्या की और आत्मज्ञान हासिल किया। दुनिया के लिए प्रेरणास्त्रोत महान संत स्वामी विवेकानन्द अपने जीवन के अन्तिम समय उत्तराखण्ड के लोहाघाट स्थित अद्वैत आश्रम में बिताना चाहते थे। देवभूमि में पाँच बार आध्यात्मिक यात्रा कर चुके युग पुरूष की उत्तराखण्ड में कई स्मृतियाँ जुड़ी है।


पहली यात्रा- वर्ष 1888 में नरेन्द्र के रूप में हिमालय क्षेत्र की पहली यात्रा शिष्य शरदचन्द गुप्त (बाद में सदानन्द) के साथ की थी। शरदचन्द हाथरस (उत्तर प्रदेश) में स्टेशन मास्टर थे। ऋषिकेश में कुछ समय रहने के बाद वापस लौट गए थे।

दूसरी यात्रा- स्वामी विवेकानन्द ने अपनी दूसरी यात्रा अपने गुरू भाई स्वामी अखण्डानन्द के साथ की थी। जुलाई 1890 में स्वामी विवेकानन्द रेल से काठगोदाम पहुंचे जहां से पहले वह सरोवर नगर नैनीताल पैदल गए। नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द रामप्रसन्न भट्टाचार्य के घर पर छः दिन तक रहे। इसके बाद वह अल्मोड़ा की राह पर चल पड़े। अल्मोड़ा के रास्ते में तीसरे दिन वे काकड़ीघाट पहंुचे। काकड़ीघाट अल्मोड़ा से 28 किमी की दूरी पर स्थित है। यह कोसी और सील नदियों के संगम पर स्थित छोटी सी घाटी में बसा हुआ है। इसे संत सोमवरी गिरी महाराज और हैड़ाखान बाबा की साधना स्थली भी माना जाता है। माना जाता है कि स्वामी विवेकानन्द को भी यही आत्मज्ञान की अनुभूति हुई थी।


आत्मसाक्षात्कार के बाद स्वामी विवेकाननद अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। अल्मोड़ा से तीन किलोमीटर पहले करबला के पास भूख प्यास के कारण स्वामी विवेकानन्द अर्ध बेहोशी की हालत में गिर पड़े। तभी पास में एक छोटी सी झोपड़ी में रहने वाले एक मुस्लिम फकीर जुल्फिकार अली की नजर स्वामी विवेकानन्द पर पड़ी। वह विवेकानन्द के लिए ककड़ी लेकर आया। स्वामी विवेकानन्द के आग्रह पर उसने उनके मुँह में ककड़ी का टुकड़ा डालकर उनकी जान बचाई। सात सालांे बाद 1897 में अपनी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान जुल्फिकार अली को गले लगाकर स्वामी विवेकानन्द ने यह बात सभी को बताई। आज उस स्थान पर स्वामी विवेकानन्द मेमोरियल रैस्ट हॉल स्थित है। यहाँ आज भी जुल्फिकार अली के वंशज रहते है।


अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानन्द रघुनाथ मंदिर के सामने खजांची मुहल्ले में एक मकान में रहे। यह मकान लाला बद्री साह ठुलघरिया का था। लाला बद्री साह ठुलघरिया ने स्वामी विवेकानन्द का बड़े मन से स्वागत किया। अल्मोड़ा की अपनी इस प्रथम यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने कसारदेवी की एक गुफा में तप भी किया। वर्तमान में यहां शासक मठ स्थित है। अल्मोड़ा पहुँचकर स्वामी विवेकानन्द को अपनी बहन की आत्महत्या की खबर तार से मिली जिसके बाद वे अल्मोड़ा से निकल पड़े और एकांतवास के लिए बद्रिकाश्रम की यात्रा पर चल दिए। स्वामी विवेकानन्द सोमेश्वर की घाटी से पैदल पहले कर्णप्रयाग पहुँचे। उन दिनों केदारबद्री के रास्ते पर दुर्भिक्ष के प्रकोप के कारण सरकार ने रास्ता बंद किया हुआ था। स्वामी विवेकानन्द रूद्रप्रयाग की ओर मुड़ गए। यहां स्वामी विवेकानन्द ने ध्यान किया। काठगोदाम से रूद्रप्रयाग तक की 280 मील की यह यात्रा स्वामी विवेकानन्द ने एक माह में तय की थी। एक माह रूद्रप्रयाग रहने के बाद स्वामी विवेकानन्द टिहरी चले गए। यहां उनकी मुलाकात टिहरी के दीवान रघुनाथ भट्टाचार्य से हुई। रघुनाथ भट्टाचार्य इस मुलाकात के बाद हमेशा के लिए स्वामी विवेकानन्द के भक्त हो गए।


अपने गुरूभाई अखण्डानन्द के अस्वस्थ होने के कारण स्वामी विवेकानन्द को देहरादून आए। अक्टूबर 1890 में स्वामी विवेकानन्द देहरादून बाए। यहां उन्होंने सिविल सर्जन मैकलारेन से अखण्डानन्द का इलाज करवाया। इसके बाद अखण्डानन्द के साथ स्वामी विवेकानन्द ऋषिकेश गए। ऋषिकेश में वे चंदेश्वर नामक शिवमंदिर के पास पर्णकुटीर में रहे। स्वामी विवेकानन्द की पहली उत्तराखण्ड यात्रा का यह अन्तिम पड़ाव था। विश्वख्याति पाने के बाद 6 मई 1897 के स्वामी विवेकानन्द कलकत्ता से अल्मोड़ा के लिए निकले। 9 मई को स्वामी विवेकानन्द काठगोदाम पहुँचे जहां गुडविन और अन्य शिष्यों ने स्वामी विवेकानन्द का स्वागत किया। 11 मई को स्वामी विवेकानन्द का अल्मोड़ा में भव्य स्वागत हुआ। लाला बद्रीसाह के प्रयासों से स्वामी विवेकानन्द के लिए स्वागत सभा मंडल का आयोजन हुआ जिसमें पण्डित ज्वालादत्त जोशी ने हिन्दी में, पण्डित हरीराम पांडे ने बद्रीशाह की ओर से अंग्रेजी में और एक अन्य पण्डित ने संस्कृत में अभिनंदन पत्र पढ़कर सुनाया।


तीसरी यात्रा- अपनी तीसरी यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा पहंुचे तो अल्मोड़ा में उनका भव्य स्वागत हुआ था। इस यात्रा में उन्होंने अपना अधिकांश समय दउलधार में बिताया। अल्मोड़ा-ताकुला-बागेश्वर मार्ग पर 75 किमी की दूरी पर स्थित दउलधार में अल्मोड़ा के चिरंजीलाल साह का उद्यान था। सुन्दर तालाब के साथ लगे दो बड़े भवनों वाला यह स्थान वर्तमान में खंडहर हो चुका है। स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता के विषय में अनेक लोगों को पत्र लिखकर बताया है। स्वामी शुद्धानन्द, मेरी हेल्बायस्टर, भगिनी निवेदिता आदि को लिखे अपने प़त्रों में स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता का वर्णन किया है। इस दौरान अल्मोड़ा नगर में स्वामी विवेकानन्द के तीन व्याख्यान हुए। पहला हिन्दी में जिला स्कूल (वर्तमान में जी.आई.सी.) में, दूसरा इंग्लिश क्लब में और तीसरी चार सौ प्रबुद्ध लोगों की सभा में।


स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने संबोधन में कहा था, ‘यह हमारे पूर्वजों के स्वप्न का प्रदेश है। भारत जननी श्री पार्वती की जन्म भूमि है। यह वह पवित्र स्थान है जहां भारत का प्रत्येक सच्चा धर्मपिपासु व्यक्ति अपने जीवन का अन्तिम काल बिताने का इच्छुक रहता है। यह वही भूमि है जहां निवास करने की कल्पना में अपने बाल्याकाल से ही कर रहा हूँ। मेरे मन में इस समय हिमालय में एक केन्द्र स्थापित करने का विचार है और संभवतः मैं आप लोगों को भलीभांति यह समझाने में समर्थ हुआ हूँ कि क्यों मैने अन्य स्थानों की तुलना में इसी स्थान को सार्वभौमिक धर्मशिक्षा के एक प्रधान केन्द्र के रूप में चुना है। इन पहाड़ों के साथ्र हमारी जाति की श्रेष्ठतम स्मृतियाँ जुड़ी हुई है। यदि धार्मिक भारत के इतिहास से हिमालय को निकाल दिया जाए तो उसका अत्यल्प ही बचा रहेगा, अतएव यहां एक केन्द्र अवश्य चाहिए। यह केन्द्र केवल कर्म प्रधान ही नहीं होगा बल्कि यही निस्तब्धता, ध्यान तथा शांति की प्रधानता होगी। मुझे आशा है कि एक न एक दिन मैं इसे स्थापित कर सकूँगा।’नवम्बर 1897 में स्वामी विवेकानन्द ने आठ दिवसीय देहरादून की यात्रा की। उत्तराखण्ड की इस यात्रा का अन्तिम स्थल देहरादून ही था। स्वामी विवेकानन्द के आह्नान पर उनकी पश्चिमी देशों में रहने वाली शिष्याऐं भारत आई। मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द की बहुउद्देशीय यात्रा प्रारम्भ हुई।


चौथी यात्रा- स्वामी विवेकानन्द की चौथी उत्तराखण्ड यात्रा के समय उनके साथ गुरूभाई स्वामी तुरीयानन्द और स्वामी निरंजनानन्द, उनके शिष्य स्वामी सदानन्द और स्वरूपानन्द थे। स्वामी विवेकानन्द की पश्चिमी देशों से आई शिष्याओं में ओलीबुल, मैकलाउड, मूलर, भगिनी निवेदिता और पैटरसन शामिल थी। 13 मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द अपनी टोली के साथ काठगोदाम पहुँचे। डोली और घोड़े में बैठकर स्वामी विवेकानन्द और उनके साथी नैनीताल पहुँचे। नैनीताल में उनका स्वागत राजस्थान में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने किया। नैनीताल में वे तीन दिनों तक रहे।


नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द की भेंट खेतड़ी की दो नर्तकियों से हुई। नर्तकियों से मिलने पर बहुत से लोगों ने स्वामी विवेकानन्द की आलोचना भी की। इस यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के थामसन हाउस में रूके। अल्मोड़ा में एस.जे.के. परिसर के निकट स्थित ऐतिहासिक ओकले हाउस  परिसर में देवदार के पेड़ के नीचे 1898 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने आयरलैंड की मार्गेट एलिजाबेथ को दीक्षा दी थी और उन्हें सिस्टर निवेदिता नाम दिया। कहा जाता है कि इस यात्रा से पहले तक भगिनी निवेदिता अपना पूरा जीवन सेवा में देने की बात को लेकर निश्चित नहीं थी। अल्मोड़ा में ही भगिनी निवेदिता ने तय किया कि अब वे अपना पूरा जीवन सेवा में व्यतीत करेंगी।


25 मई से 28 मई तक तीन दिन स्वामी विवेकानन्द ने सैयादेवी के शिखर पर तपस्या में व्यतीत किये और 30 मई को एक सप्ताह के लिए किसी और जगह चले गए। इस दौरान टायफायड के कारण गुडविन की मृत्यु हो गयी। गुडविन स्वामी विवेकानन्द के आशुलिपि, लेखक और समर्पित भक्त थे। गुडविन की मृत्यु का समाचार सुनकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा, ‘अब मेरे जनता में भाषण के दिन समाप्त हो गये है, मेरा दाहिना हाथ चला गया है।’ 


पांचवी यात्रा- 1916 ई. में स्वामी विवेकानन्द जी के शिष्यों स्वामी तुरियानन्द और स्वामी शिवानन्द ने अल्मोड़ा में ब्राइट एंड कार्नर पर एक केन्द्र की स्थापना कराई जो आज रामकृष्ण कुटीर के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में रामकृष्ण कुटीर में एक पुस्तकालय जोकि तुरियानन्द पुस्तकालय के नाम से प्रसिद्ध है ज्ञानवर्धक किताबों से सजज्जित है। रामकृष्ण कुटीर में 2020 ई. में स्वामी विवेकानन्द जी की मृर्ति की स्थापना भी कर दी गयी है। 


स्वामी विवेकानन्द ने सेवियर को बंगाल से छपने वाले ’प्रबुद्ध भारत’का संपादन सौपा। अब इसे अल्मोड़ा से छापने का आग्रह किया। इस तरह यह स्वामी विवेकानन्द का अन्तिम अल्मोड़ा प्रवास था। इस प्रवास में स्वामी विवेकानन्द 23 दिन तक अल्मोड़ा रहे थे। 1896 ़के लन्दन प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द के मन में हिमालय में एक मठ स्थापना के संबंध में हेल बहनों को एक पत्र लिखा। इसी वर्ष इस संबंध में एक पत्र स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के लाला बद्रीसाह को भी लिखते है, जब स्वामी विवेकानन्द ने इस संबंध में सेवियर दम्पत्ति बात की तो वे उत्साहित होकर इसका हिस्सा बनने को तैयार हो गए।


सार्वजनिक मंच पर मठ की स्थापना की बात स्वामी विवेकानन्द ने 1897 की यात्रा के दौरान भी कह दी थी। 1898 में जब स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा से कश्मीर की यात्रा पर चले तो सेवियर ने मठ के लिए भूमि खोजना शुरू करा दिया। अन्त में उन्हें अल्मोड़ा से 70 किमी दूर लोहाघाट से 10 किमी दूर माईपट नाम का स्थान मिला। यह अवकाश प्राप्त जनरल मि. मैकग्रेगर का चाय बागान था। उसने मठ बनाने के लिए जमीन बेचने पर हामी भी दी। इसका नाम बाद में मायावती हुआ। 


स्वामी विवेकानन्द का हिमालय मठ का स्वप्न 19 मार्च 1899 को पूरा हुआ। 26 दिसम्बर 1900 को स्वामी विवेकानन्द मायावती के लिए निकले। 29 दिसम्बर को वे काठगोदाम पहुँच गए। 3 जनवरी 1901 को अनेक बाधाओं के बाद स्वामी विवेकानन्द सीधा मायावती पहुँच गए। स्वामी विवेकानन्द के मायावती पहुँचने से पहले कर्मठ सेवियर की मृत्यु हो चुकी थी। उनकी पत्नी श्रीमती सेवियर ने अपना अधिकांश समय मायावती में ही बिताया। स्वामी विवेकानन्द 3 जनवरी से 18 जनवरी 1901 तक मायावती में रहे। स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से पत्रिका प्रबुद्ध के लिए तीन लेख लिखे। पन्द्रह दिन के अपने मायावती प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक दिन और शाम आध्यात्मिक चर्चा करते। 18 जनवरी 1901 को स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से विदाई ली।


स्वामी विवेकानन्द ने देशवासियों को आत्म-सम्मान, शान्ति, निर्भयता व मानव गौरव की प्रेरणा दी। वेदांत का प्रचार, प्रेम, विश्वबन्धुत्व पद बल दिया। समाज सेवा को प्रथम कार्य माना। उनकी इन शिक्षाओं व कार्यों के कारण भारत निरन्तर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है। वर्तमान में जो कुछ समस्याएँ व बाधाऐं है उनको दूर करने में उनके चिन्तन से लगातार प्रेरणा मिलती है। आज युवा शक्ति, ज्ञान शक्ति को इस युग में स्वामी विवेकानन्द हमारे बीच अपने ओजस्वी विचारों के कारण बने हुए है।


संदर्भ ग्रन्थ-


1. प्रताप सिंह, आधुनिक भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास, रिसर्च पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, जयपुर, 1997

2. सुमित सरकार, आधुनिक भारत (1885-1947), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993, पृ0 91

3. अमरेश्वर अवस्थी एवं रामकुमार अवस्थी, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तन, रिसर्च पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2004, पृ. 123

4. योगेश कुमार शर्मा, भारतीय राजनीतिक चिन्तक, कनिष्का पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 2001, पृ. 23


आधुनिक युग में विवेकानंद के योगदान की प्रासंगिकता

 ज्योति शर्मा 

सहायक प्रोफेसर 

चंडीगढ़ विश्वविद्यालय, पंजाब 

ईमेल:jems.sandy@gmail.com


आधुनिक युग में विवेकानंद के योगदान की प्रासंगिकता

विवेकानंद सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक संस्था है। अपने भौतिक अस्तित्व के वर्षों के बाद, वह युवाओं का आदर्श रूप हर दिल में रहते है। विवेकानंद वह सांस है जिस से हर जीवित सभ्यता का दिल धड़कता हैं- यह 21वीं सदी, 22वीं सदी, 23वीं सदी आदि हो सकती है। हमने एक नई शताब्दी में प्रवेश किया, जिस को बरसों पहले के समय से बिलकुल ही अलग अंदाज़ में देखा और पाया जा सकता है। चाहे वो फिर हमारे जीवन जीने के तरीकों में आमूल-चूल परिवर्तन करता है; एक क्रांति भरता है, दुनिया को समझने, जीवन को महसूस करने और अपने भविष्य की कल्पना करने के तरीके सिखाता है। विवेकानंद के आदर्श ही सभी अंधकार को दूर करने का एकमात्र हथियार हैं। इसीलिए उनकी धर्म की नई समझ, मनुष्य के प्रति नई दृष्टि, नैतिकता और नैतिकता के नए सिद्धांत, पूर्व-पश्चिम की अवधारणा, भारत में योगदान, हिंदू धर्म में योगदान, शिक्षण आज भी हमें प्रबुद्ध करने में प्रासंगिक हैं।

       स्वामी विवेकानंद 19वीं सदी के संत रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्य और रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के संस्थापक थे। 19वीं शताब्दी का उन्हें वेदांत और योग के भारतीय दर्शन को "पश्चिमी" दुनिया में, मुख्य रूप से अमेरिका और यूरोप में सिक्का जमाने वालों में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता है और हिंदू धर्म को एक प्रमुख विश्व धर्म की स्थिति में लाने के लिए उन्हें अंतर-जागरूकता बढ़ाने का श्रेय भी दिया जाता है। उन्हें आधुनिक भारत में हिंदू धर्म के पुनरुत्थान में एक 'प्रमुख शक्ति' माना जाता है। वह शायद अपने प्रेरक भाषण के लिए जाने जाते हैं जो शुरू हुआ: "अमेरिका की बहनों और भाइयों, के सम्बोधन से " जिसके माध्यम से उन्होंने 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में हिंदू धर्म की शुरुआत की। अपनी सभ्यता और संस्कृति को सुदृढ़ करने में एक जनूनी जज्बे की पहल की

       विश्व संस्कृति की बात करें तो विवेकानद के योगदान को बुले नि भुलाया जा सकता। विश्व संस्कृति में स्वामी विवेकानंद के योगदान का एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करते हुए, प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार ए एल बाशम ने कहा कि "आने वाली शताब्दियों में, उन्हें आधुनिक दुनिया के प्रमुख निर्माताओं में से एक के रूप में याद किया जाएगा ..."। विवेकानंद का सम्बन्ध धर्म की नई समझ, मनुष्य का नया दृष्टिकोण, नैतिकता का नये सिद्धांत, पूर्व और पश्चिम के बीच की कड़ी, भरता की सभ्यता और संस्कृति, हिन्दू धर्म के संरक्षण के धारक के रूप में, युवाओं के आदर्श और शैक्षणिक स्तर में शिक्षा के नये आयामों के दृष्टिकोण देने के रूप में रहा|

       आधुनिक संसार में स्वामी विवेकानंद के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक धर्म की उनकी व्याख्या पारलौकिक वास्तविकता के सार्वभौमिक अनुभव के रूप में है, जो सभी मानवता के लिए सामान्य है। विवेकानंद ने यह दिखाकर आधुनिक विज्ञान की चुनौती का सामना किया कि धर्म उतना ही वैज्ञानिक है जितना स्वयं विज्ञान; धर्म 'चेतना का विज्ञान' है। उन्होंने ने कल्पना की- "इस प्रकार, धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। यह सार्वभौमिक अवधारणा धर्म को अंधविश्वासों, हठधर्मिता, पुरोहित शिल्प और असहिष्णुता की पकड़ से मुक्त करती है, और धर्म को सर्वोच्च और महानतम खोज बनाती है - सर्वोच्च स्वतंत्रता, सर्वोच्च ज्ञान, परम आनंद की खोज। विवेकानंद की 'आत्मा की संभावित दिव्यता' की अवधारणा मनुष्य की एक नई, उन्नत अवधारणा देती है। वर्तमान युग मानवतावाद का युग है जो मानता है कि मनुष्य को सभी गतिविधियों और सोच का मुख्य सरोकार और केंद्र होना चाहिए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से मनुष्य ने बहुत समृद्धि और शक्ति प्राप्त की है, और संचार के आधुनिक तरीकों ने मानव समाज को एक 'वैश्विक गांव' में बदल दिया है। लेकिन मनुष्य का पतन भी तेजी से हो रहा है, जैसा कि आधुनिक समाज में टूटे घरों, अनैतिकता, हिंसा, अपराध आदि में भारी वृद्धि से देखा गया है। विवेकानंद की आत्मा की संभावित दिव्यता की अवधारणा इस गिरावट को रोकती है, मानवीय रिश्तों को दिव्य बनाती है और जीवन को सार्थक और जीने लायक बनाती है। स्वामीजी ने 'आध्यात्मिक मानवतावाद' की नींव रखी है। व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन दोनों में प्रचलित नैतिकता ज्यादातर डर पर आधारित है - सार्वजनिक उपहास का डर, भगवान की सजा का डर, कर्म का डर, पुलिस का डर इत्यादि। विवेकानंद ने नैतिकता का एक नया सिद्धांत दिया है जो आत्मा की आंतरिक शुद्धता और एकता पर आधारित है। हमें शुद्ध होना चाहिए क्योंकि पवित्रता ही हमारा वास्तविक स्वभाव है, हमारा सच्चा दिव्य स्व या आत्मा है। इसी तरह, हमें अपने पड़ोसियों से प्रेम करना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए क्योंकि हम सभी परम आत्मा में एक हैं जिन्हें परमात्मन या ब्रह्म कहा जाता है। स्वामी विवेकानंद का एक और महान योगदान भारतीय और पश्चिमी के बीच एक कड़ी का निर्माण करना था। उन्होंने इसे हिंदू शास्त्रों और दर्शन की व्याख्या करके किया और पश्चिमी लोगों के लिए हिंदू जीवन शैली और संस्थान एक ऐसे मुहावरे में जिसे वे समझ सकें। उन्होंने पश्चिमी लोगों को यह एहसास कराया कि उन्हें अपनी भलाई के लिए भारतीय आध्यात्मिकता से बहुत कुछ सीखना होगा। उन्होंने दिखाया कि अपनी गरीबी और पिछड़ेपन के बावजूद, विश्व संस्कृति को बनाने में भारत का बहुत बड़ा योगदान है। इस तरह उन्होंने शेष विश्व से भारत के सांस्कृतिक अलगाव को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

       विवेकानंद पश्चिम में भारत के पहले महान सांस्कृतिक राजदूत थे। दूसरी ओर, उनकी प्राचीन हिंदू शास्त्रों, दर्शन, संस्थानों आदि की व्याख्या ने भारतीयों के मन को पश्चिमी संस्कृति के दो सर्वोत्तम तत्वों, विज्ञान और प्रौद्योगिकी और मानवतावाद को स्वीकार करने और व्यावहारिक जीवन में लागू करने के लिए तैयार किया। स्वामीजी ने भारतीयों को पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी में महारत हासिल करने के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से विकसित होने की शिक्षा दी है। भारतीयों को पश्चिमी मानवतावाद विशेष रूप से व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजिक समानता और महिलाओं के लिए न्याय और महिलाओं के सम्मान के विचारों को भारतीय लोकाचार के अनुकूल बनाना भी सिखाया है।

       अपनी असंख्य भाषाई, जातीय, ऐतिहासिक और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद, भारत में अनादि काल से सांस्कृतिक एकता की प्रबल भावना रही है। हालाँकि, यह स्वामी विवेकानंद थे जिन्होंने इस संस्कृति की सच्ची नींव का खुलासा किया और इस प्रकार एक राष्ट्र के रूप में एकता की भावना को स्पष्ट रूप से परिभाषित और मजबूत किया। उन्होंने ने भारतीयों को अपने देश की महान आध्यात्मिक विरासत की उचित समझ दी और इस प्रकार उन्हें अपने अतीत पर गर्व हुआ। यानी भारतीयों को पश्चिमी संस्कृति की कमियों और इन कमियों को दूर करने के लिए भारत के योगदान की आवश्यकता की ओर इशारा किया। इस प्रकार स्वामी जी ने भारत को एक वैश्विक मिशन वाला राष्ट्र बना दिया। एकता की भावना, अतीत पर गर्व, मिशन की भावना - ये वे कारक थे जिन्होंने भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन को वास्तविक शक्ति और उद्देश्य दिया। 

       स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखा: "अतीत में निहित, भारत की प्रतिष्ठा में गर्व से भरे, विवेकानंद अभी तक जीवन की समस्याओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में आधुनिक थे, और भारत के अतीत और उसके वर्तमान के बीच एक प्रकार का सेतु थे ........... ... वह निराश और निराश हिंदू मन के लिए एक टॉनिक के रूप में आए और इसे आत्मनिर्भरता और अतीत में कुछ जड़ें दीं। 

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने लिखा: “विवेकानन्द ने पूर्व और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित किया। और इसीलिए वह महान हैं। हमारे देशवासियों ने उनकी शिक्षाओं से अभूतपूर्व आत्म-सम्मान, आत्मनिर्भरता और आत्म-विश्वास प्राप्त किया है।”

       यह स्वामी विवेकानंद ही थे जिन्होंने हिंदुत्व को समग्र रूप से एक स्पष्ट पहचान, एक विशिष्ट रूपरेखा प्रदान की। विवेकानन्द के आने से पहले हिंदू धर्म कई अलग-अलग संप्रदायों का एक ढीला संघ था। वह हिंदू धर्म के सामान्य आधारों और सभी संप्रदायों के सामान्य आधार के बारे में बोलने वाले पहले धार्मिक नेता थे। वह पहले व्यक्ति थे, जैसा कि उनके गुरु श्री रामकृष्ण द्वारा निर्देशित किया गया था, सभी हिंदू सिद्धांतों और सभी हिंदू दार्शनिकों और संप्रदायों के विचारों को वास्तविकता के एक समग्र दृष्टिकोण और हिंदू धर्म के रूप में जाने जाने वाले जीवन के विभिन्न पहलुओं के रूप में स्वीकार किया। उनके आने से पूर्व हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में बहुत झगड़ा और होड़ था। इसी तरह, विभिन्न प्रणालियों और दर्शन के स्कूलों के नायक अपने विचारों को ही सही और मान्य होने का दावा कर रहे थे। श्री रामकृष्ण के सद्भाव (समन्वय) के सिद्धांत को लागू करके स्वामीजी ने विविधता में एकता के सिद्धांत के आधार पर हिंदू धर्म का समग्र एकीकरण किया। इस क्षेत्र में विवेकानन्द की भूमिका के बारे में बोलते हुए, प्रसिद्ध इतिहासकार और राजनयिक, केएम पणिकर ने लिखा: “यह नए शंकराचार्य को हिंदू विचारधारा के एकीकरणकर्ता होने का दावा किया जा सकता है। स्वामीजी द्वारा प्रदान की गई एक अन्य महत्वपूर्ण सेवा हिंदू धर्म की रक्षा में आवाज उठाना था। वास्तव में, यह उनके द्वारा पश्चिम में किए गए मुख्य प्रकार के कार्यों में से एक था। 19वीं शताब्दी के अंत में, सामान्य रूप से भारत, और विशेष रूप से हिंदू धर्म, पश्चिमी भौतिकवादी जीवन, पश्चिमी मुक्त समाज के विचारों और ईसाइयों की धर्मांतरण गतिविधियों से गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा। विवेकानंद ने हिंदू संस्कृति में पश्चिमी संस्कृति के सर्वोत्तम तत्वों को एकीकृत करके इन चुनौतियों का सामना किया। हिंदू धर्म में विवेकानंद का एक बड़ा योगदान मठवाद का कायाकल्प और आधुनिकीकरण है। इस नए मठवासी आदर्श में, जिसका पालन रामकृष्ण आदेश में किया जाता है, त्याग और ईश्वर प्राप्ति के प्राचीन सिद्धांतों को मनुष्य में ईश्वर की सेवा के साथ जोड़ा जाता है। विवेकानंद ने समाज सेवा को दैवीय सेवा का दर्जा दिया। विवेकानंद ने आधुनिक विचारों के संदर्भ में केवल प्राचीन हिंदू शास्त्रों और दार्शनिक विचारों की व्याख्या नहीं की। उन्होंने अपने स्वयं के पारलौकिक अनुभवों और भविष्य की दृष्टि के आधार पर कई रोशन करने वाली मूल अवधारणाएँ भी जोड़ीं। 

       अपनी पुस्तक राज योग में, विवेकानंद अलौकिक पर पारंपरिक विचारों की खोज करते हैं और विश्वास करते हैं कि राज योग का अभ्यास 'दूसरे के विचारों को पढ़ना', 'प्रकृति की सभी शक्तियों को नियंत्रित करना', 'लगभग सभी जानकार' बनने जैसी मानसिक शक्तियां प्रदान कर सकता है। , 'बिना सांस लिए जीना', 'दूसरों के शरीर को नियंत्रित करना' और उत्तोलन। वह कुंडलिनी और आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्रों जैसी पारंपरिक पूर्वी आध्यात्मिक अवधारणाओं की भी व्याख्या करता है। विवेकानंद ने स्वीकार या अस्वीकार करने का अपना निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह से परीक्षण करने की वकालत की "बिना उचित किसी चीज को फेंक देना एक स्पष्टवादी और वैज्ञानिक दिमाग का संकेत नहीं है।" वे पुस्तक की प्रस्तावना में आगे कहते हैं कि व्यक्ति को अभ्यास करना चाहिए और स्वयं के लिए इन बातों का सत्यापन करना चाहिए, और अंधविश्वास नहीं होना चाहिए। “मुझे जो थोड़ा-बहुत पता है, वह मैं आपको बता दूँगा। जहाँ तक मैं इसका कारण बता सकता हूँ, मैं ऐसा करूँगा, लेकिन जहाँ तक मैं नहीं जानता, मैं बस आपको वही बताऊँगा जो किताबें कहती हैं। आंख मूंदकर विश्वास करना गलत है। तुम्हें अपने विवेक और निर्णय का प्रयोग करना चाहिए; तुम्हें अभ्यास करना चाहिए, और देखना चाहिए कि ये चीजें होती हैं या नहीं। जिस प्रकार आप किसी अन्य विज्ञान को चुनते हैं, ठीक उसी तरह आपको इस विज्ञान को अध्ययन के लिए लेना चाहिए। 

       विश्व धर्म संसद, शिकागो (1893) में पढ़े गए अपने पत्र में, विवेकानंद ने भौतिकी के अंतिम लक्ष्य के बारे में भी संकेत दिया: "विज्ञान और कुछ नहीं बल्कि एकता की खोज है। जैसे ही विज्ञान पूर्ण एकता पर पहुँचेगा, वह आगे बढ़ने से रुक जाएगा, क्योंकि वह लक्ष्य तक पहुँच जाएगा। इस प्रकार रसायन विज्ञान तब आगे नहीं बढ़ सका जब वह एक ऐसे तत्व की खोज करेगा जिससे अन्य सभी बनाए जा सकते हैं। भौतिकी रुक जाएगी जब यह एक ऊर्जा की खोज में अपनी सेवाओं को पूरा करने में सक्षम होगी, जिसकी अन्य सभी अभिव्यक्तियाँ हैं।” "लंबे समय में सभी विज्ञान इस निष्कर्ष पर आने के लिए बाध्य हैं। आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्ति है, न कि सृजन।

       स्वामी विवेकानंद की मुख्य शिक्षाओं की बात करें तो उन्होंने कहा, मेरा आदर्श, वास्तव में, कुछ शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, और वह है: मानव जाति को उनकी दिव्यता का प्रचार करना और जीवन के हर आंदोलन में इसे कैसे प्रकट करना है। शिक्षा मनुष्य में पहले से ही पूर्णता की अभिव्यक्ति है। हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो सके। जब तक लाखों लोग भूख और अज्ञानता में रहते हैं, तब तक मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूं, जो उनके खर्च पर शिक्षित होने के बाद भी उन पर जरा भी ध्यान नहीं देता। आप जो कुछ भी सोचते हैं, वह आप हो जाएंगे। यदि तुम अपने को कमजोर सोचते हो, तो तुम कमजोर हो जाओगे; यदि आप अपने आप को शक्तिशाली समझते हैं, तो आप शक्तिशाली होंगे। यदि आपको अपने सभी तैंतीस करोड़ पौराणिक देवताओं में विश्वास है, और फिर भी स्वयं पर विश्वास नहीं है, तो आपके लिए कोई उद्धार नहीं है। अपने आप पर विश्वास रखो, और उस विश्वास पर खड़े रहो और मजबूत बनो; हमें यही चाहिए। ताकत, ताकत यह है कि हम इस जीवन में इतना कुछ चाहते हैं, क्योंकि हम जिसे पाप और दुख कहते हैं, उसका एक ही कारण है, और वह है हमारी कमजोरी। दुर्बलता के साथ अज्ञान आता है और अज्ञान के साथ दुख आता है। पवित्रता, धैर्य और दृढ़ता सफलता के लिए तीन आवश्यक चीजें हैं, और सबसे बढ़कर, प्रेम। धर्म मनुष्य में पहले से मौजूद दिव्यता की अभिव्यक्ति है। अपने आप को सिखाओ, हर किसी को उसका वास्तविक स्वरूप सिखाओ, सोई हुई आत्मा को बुलाओ और देखो कि यह कैसे होता है सभी पूजाओं का सार यही है - शुद्ध रहना और दूसरों का भला करना। यह केवल प्रेम और प्रेम है जिसका मैं प्रचार करता हूं, और मैं अपने शिक्षण को ब्रह्मांड की आत्मा की समानता और सर्वव्यापीता के महान वेदांतिक सत्य पर आधारित करता हूं।

       विवेकानंद की दार्शनिक शिक्षाओं, शिक्षा पर उनके विचारों और विचारों पर एक स्पष्ट विश्लेषण और चर्चा से यह पाया जाता है कि उनके दर्शन में आधुनिक भारतीय शिक्षा के घटक शामिल हैं और शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर उनके आदर्शों और विचारों को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शामिल करने की आवश्यकता है। सार्वभौमिक भाईचारे और धार्मिक सहिष्णुता की अवधारणाओं का वर्तमान परिदृश्य में सार्वभौमिक मूल्य है। वेदांतिक आध्यात्मिक, नैतिक और नैतिक शिक्षा और शिक्षा की पश्चिमी भौतिक अवधारणा को मिलाने का उनका प्रयास हमारे आधुनिक भारतीय समाज के लिए बच्चे की अव्यक्त क्षमताओं के समग्र प्रगतिशील विकास के लिए अधिक प्रासंगिक है। स्व-शिक्षा और मानव-निर्माण शिक्षा और चरित्र और राष्ट्र-निर्माण के लिए शिक्षा की उनकी अवधारणा समावेशी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली के संस्थापक आधार के लिए एक सार रूप है। इसके अलावा, उन्होंने समाज में कमजोर वर्गों के लोगों के लिए महिलाओं की शिक्षा और शिक्षा पर भी अधिक जोर दिया जो नैतिक रूप से उन्नत और भौतिक रूप से समृद्ध समतावादी समाज बनाने के लिए आधुनिक समाज के लिए काफी प्रशंसनीय और स्वीकार्य है। संतुलित पाठ्यचर्या के लिए सही प्रावधान के माध्यम से छात्रों के निहित गुणों के आध्यात्मिक और भौतिक विकास में योगदान देता है, जो पहले से ही बच्चों में अव्यक्त रूप में मौजूद है, यह भी शिक्षार्थी केंद्रित शिक्षा का मूल सिद्धांत है। जिस पर विवेकानंद ने बल दिया| इस में कोई दो राय नहीं है की युवाओं के आदर्श विवेकानन्द न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में अपने आदर्शों के अमूल्य योगदान से आज भी प्रासंगिक हैं।


संदर्भित पुस्तकें: 

1. योद्धा सन्यासी विवेकानंद, वसंत पोतदार, प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण, 2012

2. विवेकानंद की आत्मकथा, (मुख्यबांध और सम्पादन)शंकर, (अनुवाद) सुशील गुप्ता, प्रभात प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2012

3. मैं विवेकानंद बोल रहा हूँ, स.गिरिराज शरण, प्रभात प्रकाशन,प्रथम संस्करण, 2012

4. भारत जागो!विश्व जगाओ!, (अनुवादक) अरुण बाला, अमर ज्योति प्रिंटिंग प्रैस, होशियारपुर, जालन्धर

5. National Regeneration The Vision of Swami Vivekananda and The Mission of Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), Vijaya Bharatham Pathippagam, Compiler-Editor-K.Suryanarayana Rao, Madhava Mudhra Publisher, Chennai, Second Edition, 2012

6. Advaita Ashrama (1983), Reminiscences of Swami Vivekananda (3rd ed.), Calcutta, India: Advaita Ashrama, pp. 430, (Collected articles on Swami Vivekananda, reprinted in 1994) 

7. Gambhirananda, Swami (1983) [1957], History of the Ramakrishna Math and Mission (3rd ed.), Calcutta, India: Advaita Ashrama, 


युगपुरुष स्‍वामी विवेकानंद डॉ० चमन लाल बंगा

 युगपुरुष स्‍वामी विवेकानंद


डॉ० चमन लाल बंगा

सह-आचार्य

शिक्षा विभाग

हिमाचल प्रदेश विश्‍वविद्यालय

ज्ञानपथ समरहिल शिमला

profchamanlalabanga@gmail.com


स्‍वामी विवेकानंद भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्‍परा के एक युगान्‍तरकारी महान विभूति हैं। इन्‍होंने भारत के अध्‍यात्‍म ज्ञान, इतिहास एवं परम्‍परा का दिव्‍य प्रकाश सारे संसार में फैलाया और मानवीय गुणों से अलंकृत विश्‍व बंधुत्‍व की भावना का सशक्‍त आधार प्रदान किया। स्‍वामी विवेकानंद जी का वेदांत वाणी में अभिव्‍यक्‍त यह आह्वान कर्मपथपर लक्ष्‍य प्राप्ति का प्रशस्‍त मार्ग है-

उतिष्‍ठत! जाग्रत!! प्राप्‍यवरान्निबोधत!!!

अर्थात् उठो जागो और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्‍य ना प्राप्‍त हो जाए 

– स्‍वामी विवेकानंद 

किसी भी राष्‍ट्र के अभ्‍युदय के लिए उसके पास एक आदर्श होना आवश्‍यक है। असल में वह आदर्श है निर्गुण ब्रह्मा। लेकिन क्‍योंकि हम सब लोग किसी निराकार आदर्श से प्ररेणा नहीं प्राप्‍त कर सकते, इसीलिए हमें साकार आदर्श चाहिए। विवेकानंद को श्री रामकृष्‍ण के व्‍यक्तित्‍व के रूप वह स्‍वरूप मिला। किसी भी महापुरुष को अगर जाननाहो तो उनकेद्वारा लिखित या मुख द्वारा नि: सृत वाणियों को आत्‍मसात कर लेना चाहिए। पूरे विश्‍व के लिए गुरु और शिष्‍य का लाजवाब उदाहरण श्री रामकृष्‍ण परमहंस तथा स्‍वामी विवेकानंद जी का है। विवेकानंद भारतीय चेतना के मंदिर के शिखर है तो उनकी नींव का पत्‍थर उनके गुरु श्री रामकृष्‍ण परमहंस जी हैं। इस जहान में जब-जब स्‍वामी विवेकानंद को याद किया जाता है तब-तब श्री रामकृष्‍ण परमहंस भी याद किए जाते हैं।

आधुनिक भारत के आदर्श पुरुष के रूप में स्‍वामी विवेकानन्‍द जी 

स्‍वामी विवेकानन्‍द जी भारत व विश्‍व में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। स्‍वामी विवेकानन्‍द ने भारतवासियों को बताया कि राष्‍ट्र सर्वोपरि है तथा स्‍वदेश प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है। बचपन की प्रारम्भिक अवस्‍था में नरेन्‍द्र नाथ बड़े चुलबुले और उत्‍पाती थे किन्‍तु आ‍ध्‍यात्मिक बातों के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। इन्‍हीं गुणों के चलते नरेन्‍द्र नाथ का एक परम ओजस्‍वी नवयुवक के रूप में विकास हुआ।1

स्‍वामी विवेकानन्‍द विगत वर्षों में एक सन्‍यासी हैं जो दरिद्र, अस्‍पृश्‍य, अशिक्षित एवं रोगी बंधुओं के वेदना से दुखी होकर हिन्‍दू समाज का आह्वान करते हैं कि इनकी समस्‍याएं कौन दूर करेगा? इनकी इस स्थिति के लिए कौन जिम्‍मेदार है? स्‍वामी विवेकानन्‍द ने हिन्‍दू समाज की सुप्‍त भावनाओं को जगाया। उन्‍होंने कहा, ‘‘मत भूल कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, अपढ़, चमार, मेहतर सब तेरे रक्‍त-मांस के हैं, वे तेरे भाई हैं। बोल! अज्ञानी भारतवासी सभी मेरे भाई है। सभी ईश्‍वर के रूप हैं, समझ ले, दरिद्र जो तेरे दरवाजे पर आया है नारायण का स्‍वरूप है, बीमार-नारायण है, भूखा-नारायण है। सभी ईश्‍वर के ही रूप हैं। स्‍वामी विवेकानन्‍द ने हिन्‍दू समाज की दु:खपूर्ण स्थिति देखकर लाखों युवकों को मातृभूमि के सेवा हेतु आगे आने के लिए आह्वान किया। हजारों युवक आगे आए तथा इनकी सहायता से उन्‍होंने दीन-दुखियों की सेवा तथा शिक्षा के लिए रामकृष्‍ण मिशन की स्‍थापना की।2

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये स्‍वामी विवेकानन्‍द ही थे, जिन्‍होंने अद्वैत दर्शन के श्रेष्‍ठत्‍व की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह अनुभूति समाविष्‍ट है, जिसमें सब एक हैं, जो एकमेवाद्धितीय है; पर साथ-साथ उन्‍होंने हिन्‍दू धर्म में यह सिद्धान्‍त भी संयोजित किया कि द्वैत, विशिष्‍टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्‍तर हैं, जिसमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्‍य है। यह एक और भी महान तथा अधिक सरल, इस सिद्धांत का अंग है कि अनेक और एक, विभिन्‍न्‍ समयों पर विभिन्‍न समयों पर विभिन्‍न वृतियों में मन के द्वारा देखे जाने वाला एक ही तत्‍व है; अथवा जैसा कि रामकृष्‍ण ने उसी सत्‍य को इस प्रकार व्‍यक्‍त किया है, ‘‘ईश्‍वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्‍वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार, दोनों ही समाविष्‍ट हैं।’’ यही-वह वस्‍तु है, जो हमारे गुरुदेव के जीवन को सर्वोच्‍च महत्‍व प्रदान करती है, क्‍योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं, भूत और भविष्‍य के भी संगम-बिंदु बन जाते हैं। स्‍वामी विवेकानन्‍द की यही अनुभूति है, जिसने उन्‍हें उस कर्म का महान उपदेष्‍टा सिद्ध किया, जो ज्ञान-भक्ति से अलग नहीं, वरन उन्‍हें अभिव्‍यक्‍त करने वाला है।3

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने मातृभूमि की महिमा का गान पुण्‍य भूमि के रूप में किया है। स्‍वामी जी ने कहा है, ‘‘यदि इस पृथ्‍वी पर कोई ऐसा देश है, जिसे हम मंगलमयी पुण्‍यभूमि कह सकते हैं, यदि कोई ऐसा स्‍थान है जहां पृथ्‍वी के समस्‍त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना ही पड़ता है, जहां भगवान की ओर उन्‍मुख होने के प्रत्‍यन में संलग्‍न रहने वाले जीवमात्र को अन्‍तत: आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है, जहां मानव जाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और यदि ऐसा कोई देश है जहां आध्‍यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्‍मान्‍वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है।’’ यह वह समय था जब स्‍वामी जी भारतीय अध्‍यात्‍म की धूम दुनिया में फेराकर आ रहे थे। जनता स्‍वामी जी की चरण रज को लेने के लिए लालायित थे तो स्‍वामी जी मातृभूमि की।4

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने अध्‍यात्‍म, धर्म एवं संस्‍कृति के आधार ग्रन्‍थ वेद तथा वेदान्‍त दर्शन का अपना गहन अध्‍ययन अपने साधनामय अनुभव से व्‍यवहार सिद्ध किया तथा भारतवर्ष का व्‍यापक भ्रमण करके उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्तिम चरण के दुर्दशाग्रस्‍त भारत के चित्र को अपनी आंखों से देखा।

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने भारत का सर्वांगीण दर्शन, विवेचन एवं विश्‍लेषण किया है। उनके अनुसार ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मा’-जगत में सब कुछ ब्रह्मा है, की सांस्‍कृतिक अवधारणा का स्रोत वेदप्रणीत भारत का अध्‍यात्‍म एवं धर्म है। भारत का मेरुदण्‍ड धर्म है। उन्‍होंने कहा, ‘‘हे आधुनिक हिन्‍दुओं! तुम अपने को और प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपने सच्‍चे स्‍वरूप की शिक्षा दो और घोरतम निद्रा में पड़ी हुई जीवात्‍मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्‍हारी जीवात्‍मा प्रबुद्ध होकर सक्रिय हो उठेगी, तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे। तभी तुम में साधुता और पवित्रता आएगी।

हम सब लोग मनुष्‍य अवश्‍य हैं, किन्‍तु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियां हैं; कोई काले हैं और कोई गोरे-किन्‍तु सभी मनुष्‍य हैं, सभी एक मनुष्‍य जाति के अनतर्गत हैं। हम लोगों को चेहरा भी कई प्रकार का है। दो मनुष्‍यों का मुँह ठीक एक तरह का हम नहीं देख सकते, तथापि हम सब लोग मनुष्‍य हैं। मनुष्‍य रूपी सामान्‍य तत्‍व कहां है? मैंने जिस किसी काले या गोरे स्‍त्री या पुरुष को देखा, उन सबमें मुँह पर सामान्‍य रूप से मनुष्‍यत्‍व का एक अमूर्त भाव है, मैं उसे पकड़ या इन्द्रियगोचर भले ही न कर सकूं, फिर भी मैं निश्‍चयपूर्वक जानता हूं कि वह है। विश्‍व धर्म के सम्‍बन्‍ध में भी यही बात है, जो ईश्‍वर रूप से पृथ्‍वी के सभी धर्मों में विद्यमान है। यह अनन्‍त काल से वर्तमान है, और अनन्‍त काल तक रहेगा।

मयि सर्वामिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।

अर्थात ‘‘मैं इस जगत में प्राणियों के भीतर सूत्र की भान्ति वर्तमान हूं।’’5

जाति के साथ अनुष्‍ठानों पर स्‍वामी विवेकानन्‍द कहते हैं कि ‘‘जाति निरंतर बदल रही है, अनुष्‍ठान निरन्‍तर बदल रहे हैं, यही दिशा विधियों की है। यह केवल सार है, सिद्धान्‍त है, जो नहीं बदलता। हमें अपने धर्म का अध्‍ययन वेदों में करना है, वेदों को छोड़कर अन्‍य सब ग्रन्‍थों में परिवर्तन अनिवार्य है। वेदों की प्रामाणिकता सदा के लिए है; उनके अतिरिक्‍त हमारे दूसरे ग्रन्‍थों की प्रामाणिकता केवल विशिष्‍ट समय के लिए है। हमें सामाजिक सुधारों की आवश्‍यकता है। समय-समय पर महान पुरुष प्रगति के नये विचारों का विकास करते हैं और राजा उन्‍हें कानून का समर्थन देते हैं। पुराने समय में भारत में समाज-सुधार इसी प्रकार किये गये हैं और वर्तमान समय में ऐसे प्रगतिशील सुधार करने के लिए हमें पहले एक ऐसी अधिकारीसता का निर्माण करना होगा। इसलिए, उन आदर्श सुधारों पर, जो कभी व्‍यावहारिक नहीं होंगे, अपनी शक्ति व्‍यर्थ नष्‍ट करने के स्‍थान पर, यह अच्‍छा होगा कि हम इस समस्‍या की जड़ तक पहुंचे और एक व्‍यवस्‍थापिका संस्‍था का निर्माण करें; तात्‍पर्य यह कि लोगों को शिक्षित करें, जिससे कि वे स्‍वयं अपनी समस्‍यओं का समाधान करने में समर्थ हो सके।6

प्रत्‍येक मनुष्‍य का कर्तव्‍य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्‍न करे। दूसरों को ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा, जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है। किसी समाज के सब स्‍त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न ही एक ही योग्‍यता के और न एक ही शक्ति के। अतएव, उनमें से प्रत्‍येक का आदर्श भी भिन्‍न-भिन्‍न होना चाहिए; और इन आदर्शों में भी एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं। अपने आदर्श को प्राप्‍त करने के लिए प्रत्‍येक को जितना हो सके, यत्‍न करने दो। फिर यह भी ठीक नहीं कि मैं तुम्‍हारे अथवा तुम मेरे आदर्श द्वारा जांजे जाओ। सेब के पेड़ की तुलना ओक से नहीं होनी चाहिए और न ओक की सेब से। बहुत्‍व में एकत्‍व की सृष्टि का विधान है। प्रत्‍येक स्‍त्री-पुरुष में व्‍यक्तिगत रूप से कितना भी भेद क्‍यों न हो, उन सबकी पृष्‍ठभूमि में एकत्‍व विद्यमान है।7

भारत खंडहरों में ढेर हुई पड़ी एक विशाल इमारत के सदृश है। पहले देखने पर आशा की कोई किरण नहीं मिलती। वह एक विगतऔर भग्‍ना वशिष्‍ट राष्‍ट्र है। पर थोड़ा और रूको, रूककर देखो, जान पड़ेगा कि इनके परे कुछ और भी है। सत्‍य यह है कि वह तत्‍व, वह आदर्श, मनुष्‍य जिसकी बाह्य व्‍यंजना मात्र है, जब तक कुण्ठित अथवा नष्‍ट-भ्रष्‍ट नहीं हो जाता, जब तक मनुष्‍य भी निर्जीव नहीं होता, तब तक उसके लिए आशा भी अस्‍त नहीं होती। यदि तुम्‍हारे कोट को कोई बीसों बार चुरा ले, तो क्‍या उससे तुम्‍हारा अस्तित्‍व भी शेष हो जायेगा? तुम नवीन कोट बनवा लोगे-कोट तुम्‍हारा अनिवार्य अंग नहीं। सारांश यह कि यदि किसी धनी व्‍यक्ति की चोरी हो जाय, तो उसकी जीवन शक्ति का अंत नहीं हो जाता, उसे मृत्‍यु नहीं कहा जा सकता। मनुष्‍य तो जीता ही रहेगा। ये तमाम वि‍भीषकाएं, ये सारे दैन्‍य-दारिद्रय और दु:ख विशेष महत्‍व के नहीं-भारत-पुरुष अभी भी जीवित है, और इसलिए आशा है।8

स्‍वामी विवेकानन्‍द ने ब्रुकलिन एथिकल एसोसिएशन के तत्‍वावधान में लोग आइलैंड हिस्‍टोरिकल सोसाइटी के हाल में बहुसंख्‍यक श्रोताओं के सम्‍मुख 21 फरवरी, 1895 ई० में ‘‘संसार को भारत की देन’’ भाषण में कहा ‘‘जहां सबसे पहले आचार शास्‍त्र, कला, विज्ञान और साहित्‍य का उदय हुआ और जिसके पुत्रों की सत्‍यप्रियता और जिसकी पुत्रियों की पवित्रता की प्रशंसा सभी यात्रियों ने की है।’’ यही बात विज्ञानों के संबंध में भी सत्‍य है। भारत ने पुरातन काल में सबसे पहले वैज्ञानिक चिकित्‍सक उत्‍पन्‍न किये थे। दर्शन में तो, जैसा कि महान जर्मन दार्शनिक शापेन हॉवर ने स्‍वीकार किया है, हम अब भी दूसरे राष्‍ट्रों से बहुत ऊंचे हैं। संगीत में भारत ने संसार को सात प्रधान स्‍वरों और उनके मापनक्रम सहित अपनी वह अंकन पद्धति प्रदान की है, जिसका आनन्‍द हम ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पहले से ले रहे थे, जब कि वह यूरोप में केवल ग्‍यारहवीं शताब्‍दी में पहुंची। भाषा-विज्ञान में अब हमारी संस्‍कृत भाषा सभी लोगों द्वारा इस समस्‍त यूरोपीय भाषाओं की आधार स्‍वीकार की जाती है, जो वास्‍तव में अनर्गलित संस्‍कृत के अपभ्रंशों के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं है। साहित्‍य में हमारे महाकाव्‍य तथा कविताएं और नाटक किसी भी भाषा की ऐसी सर्वोच्‍च रचनाओं के समकक्ष है। जर्मनी के महानतम कवि ने शकुंतला के सार का उल्‍लेख करते हुए कहा है कि यह ‘स्‍वर्ग और धरा का सम्मिलन है’।9

धर्म महासभा में विवेकानन्‍द जी ने अपने उद्बोधन में कहा था, हे अमेरिकावासी बहनों और भाइयों! आज आप लोगों ने हम लोगों की जैसी आंतरिक और सादर अभ्‍यर्थना की है, उसके उतर-दान के लिए मैं दंडायमान हुआ हूं और इससे आज मेरा हृदय आनंद से उच्‍छ्वसित हो उठा है। पृथ्‍वी पर सबसे प्राचीनतम सन्‍यासी समाज की तरफ से मैं आप लोगों को धन्‍यवाद ज्ञापित करता हूं। सर्वधर्म के उद्भव स्‍वरूप जो सनातन हिंदू धर्म है, उसका प्रतिनिधि होकर आज मैं आप लोगों को धन्‍यवाद देता हूं और क्‍या कहूं-पृथ्‍वी की विभिन्‍न हिन्‍दू जाति और विभिन्‍न हिंदू-संप्रदायों के कोटि-कोटि हिंदू नर-नारियों की तरफ से आज मैं आप लोगों को हृदय से धन्‍यवाद देता हूं।10

स्‍वामी जी ने जन-जन का आह्वान करते हुए उन्‍हें भारतीय संस्‍कृति के गौरव की शक्ति बताया और उन्‍हें राष्‍ट्र के पुनर्निर्माण में भागीदारी करने का सन्‍देश दिया। स्‍वामी विवेकानन्‍द को अब अपनावह संकल्‍प पूर्ण करना था, जो उन पर गुरुकृपा के रूप में था अर्थात् गुरुदेव के स्‍मृतिचिन्‍ह भस्‍मावशेष को सम्‍मान प्रदान करना। उन्‍होंने इसकी रूपरेखा तैयार कर ली थी। इसी उद्देश्‍य की पूर्ति हेतु उन्‍होंने ‘रामकृष्‍ण मिशन’ की स्‍थापना की और इसका संविधान बनाया।11

मनुष्‍य पहले यह जान ले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्‍धता से परे हो सकता है। यदि संसार में यह दुराग्रह, यह कट्टरता न होती, तो अब तक यह बहुत उन्‍नति कर लेता। यह सोचना भूल है कि धर्मान्‍धता द्वारा मानव-जाति की उन्‍नति हो सकती है? बल्कि उलटे, यह तो हमें पीछे हटाने वाली शक्ति है, जिससे घृणा और क्रोध उत्‍पन्‍न होकर मनुष्‍य एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने लगते है और सहानुभूति शून्‍य हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे पास है अथवा जो कुछ हमारे पास नहीं है, वह एक कौड़ी मूल्‍य का भी नहीं।12

इस प्रकार सारांश यह है कि संसार की सहायता करने से हम वास्‍तव में स्‍वयं अपना ही कल्‍याण करते हैं। विवेकानन्‍द ने हिन्‍दू समाज को संकट काल में उसका आत्‍म गौरव लौटाया। विवेकानन्‍द समाज की दलित और कालबाहर हो चुकी परमपराओं को समाप्‍त कर देनेके समर्थक थे। वे हिन्‍दू समाज में ऊंच-नीच के भेद को समाप्‍त करना चाहते थे जिसके कारण हिन्‍दू समाज निर्बल हो रहा था। स्‍वामी विवेकानन्‍द ने केवल एक वाक्‍य कहा ‘‘गुलाम का कोई धर्म नहीं होता है। जाओ अपनी मां को पहले स्‍वतन्‍त्र करो।’’

स्‍वामी जी कहते थे, ‘‘हमारे पूर्वजों ने महान कार्य किया है हमें और भी महान कार्य करना है।’’

स्‍वामी विवेकानन्‍द प्रतयेक रूप में प्राचीन और आधुनिक भारत के सेतु थे। प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रूप से उन्‍होंने आधुनिक भारत को अपनी विलक्षण क्षमताओं से अत्‍यधिक प्रभावित किया है।

सन्‍दर्भ ग्रंथ सूची

1. स्‍वामी ब्रह्मस्‍थानन्‍द (2007), विवेकानन्‍द राष्‍ट्र को आह्वान, भारतीय साहित्‍य संग्रह, प्रकाशक-रामकृष्‍ण मठ, नेहरूनगर, कानपुर, उ०प्र०, पृ० 2-3

2. आचार्य विवेकानन्‍द तिवारी (2022), सामाजिक समरसता और संत समाज, लुमिनस बुक्‍स इंडिया, वाराणसी (उ०प्र०), पृ० 132

3. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2021), प्रथम खंड, अद्वैतआश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14

4. चेत राम गर्ग (2013), इतिहास दिवाकर, राष्‍ट्र प्रणेता युग द्रष्‍टा, त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका, ठाकुर जगदेव चंद स्‍मृति शोध संस्‍थान, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश, पृ० 29

5. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2016), तृतीय खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 145

6. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2017), चतुर्थ खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 245

7. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2016), तृतीय खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 15

8. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2019), दशम खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 3-5

9. विवेकानन्‍द साहित्‍य (2019), दशम खंड, अद्वैत आश्रम (प्रकाशन विभाग), डिही एण्‍टाली रोड, कोलकाता-14, पृ० 183

10. शंकर एवं सुशील गुप्‍ता (2009), विवेकानन्‍द की आत्‍मकथा, प्रभात पेपर बैक्‍स, नई दिल्‍ली-110002, पृ० 133

11. एम०आई० राजस्‍वी (2019), विश्‍वगुरु विवेकानन्‍द, प्रकाश बुक्‍स इण्डिया प्राईवेट लिमिटेड, नई दिल्‍ली, पृ० 162-163

12. डॉ० विद्या चन्‍द ठाकुर (2013), इतिहास दिवाकर, त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका, ठाकुर जगदेव चंद स्‍मृति शोध संस्‍थान, गांव नेरी, हमीरपुर, हि०प्र०, पृ० 7


युगपुरुष कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद

 युगपुरुष कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद


डॉ. सत्यवती चौबे 

अध्यक्ष, हिन्दी विभाग

विल्सन कॉलेज, मुंबई   


  युगपुरुष स्वामी विवेकानंद एक ओजस्वी महापुरुष थे। वे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने सर्वोच्च सत्य का ज्ञान प्राप्त किया था। वे देश के तमाम राष्ट्र भक्तों से भिन्न एक सर्वश्रेष्ठ देशभक्त थे। वे दैवीय शक्ति से अनुप्राणित एक अद्भुत वक्ता थे। वे नितांत भिन्न प्रकार के समाज सुधारक थे। इसके साथ ही अलौकिक सद्गुणों से युक्त तीन भाषाओं मसलन; संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी कविताओं के प्रणेता थे तथा सुरीली कंठ से समृद्ध थे।


आधुनिक युग के विश्वव्यापी विघटनशील परिवेश में हिंदू धर्म को एक ऐसे चट्टान की आवश्यकता थी, जहाँ वह लंगर डाल सके, हिंदू समाज को ऐसे मुखरित स्वर की आवश्यकता थी, जिसमें वह स्वयं को पहचान सके। ऐसे में स्वामी विवेकानंद समग्र हिंदू धर्म ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय सभ्यता, संस्कृति को एक वरदान के रूप में मिले, जिनसे शीर्ष के देशभक्त, राजनेता, योगी, तपस्वी से लेकर साधारण जनता सांगोपांग रूप से प्रभावित हुई। भारत सरकार ने भी यह महसूस किया कि स्वामी जी ने अपने सिद्धांतों और आदर्शों के लिए जीवन जिया, उनको फलीभूत करने के लिए मरणांतक कार्य करते रहे। वे समस्त विश्व को अपने वशीभूत कर चुके हैं और वे भारत के तमाम नवयुवकों-नवयुवतियों के लिए महत्त्वपूर्ण प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु सन 1984 में भारत सरकार ने देश में प्रति वर्ष 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का आदेश दिया। सरकार का यह निर्णय वाकई प्रशंसनीय है क्योंकि इस देश को स्वामी विवेकानंद जैसे महान विभूतियों की नितांत आवश्यकता है, स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गए कर्तव्य पथ पर चलने की आवश्यकता है। 


स्वामी जी यह मानते थे कि कर्मयोग का तत्व समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि कर्तव्य क्या है? किसी कार्य के करने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि यह मेरा कर्तव्य है, तभी उस कार्य के साथ न्याय होगा। स्वामी जी के अनुसार कर्तव्य को परिभाषित कर सकना नितांत असंभव है। कर्तव्य एक आत्मनिष्ठ पक्ष है। जिस कर्म द्वारा हम ईश्वरीय तत्व से जुड़ते हैं, उन्नतशील होते हैं वह शुभ कार्य है और वही हमारा कर्तव्य है लेकिन जिस कर्म से हम नीचे गिरते हैं, पशुवत बनते हैं वह अशुभ कार्य है वह कार्य हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता है। सभी युगों में समस्त संप्रदायों और देशों के मनुष्य द्वारा मान्य यदि कर्तव्य का कोई एक सार्वभौमिक भाव रहा है तो वह है 'परोपकार: पुण्याय पापाय प्रयोजनम' अर्थात परोपकार ही पुण्य है एवं दूसरे को दु:ख पहुंचाना ही पाप है। स्वामी जी उन्नति का एक मात्र उपाय कर्तव्य को मानते हैं कि पहले हम वह कर्तव्य करें, जो हमारे हाथ में है और शनै: शनै शक्ति संचित करते हुए क्रमश: हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। स्वामी जी ने सभी के लिए ध्यानयोग, राजयोग, कर्मयोग  का मूल मंत्र दिया।


स्वामी विवेकानंद जी ने चरित्र की शुद्धता को स्त्री के साथ-साथ पुरुषों के लिए भी नितांत अनिवार्य माना। उनकी दृष्टि में पवित्रता ही स्त्री और पुरुष का प्रथम धर्म है। प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियों को माता-बहन या पुत्री के समान देखना चाहिए और प्रत्येक स्त्री को अपनी चारित्रिक शुद्धता, पवित्रता को बनाए रखते हुए आचरण करना चाहिए। उनके अनुसार इस संसार में मातृपद ही सर्वश्रेष्ठ पद है क्योंकि मातृपद से ही नि:स्वार्थता की महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। केवल भगवत प्रेम ही माता के प्रेम से उच्च है।


निस्वार्थ भाव रखकर ही हमें कर्मयोग के मार्ग पर अग्रसरित होना चाहिए। स्वामी जी के अनुसार कर्मयोग के रहस्य का ज्ञान मुक्ति लाभ और स्वाधीनता के लिए आवश्यक है। सूर्य, चंद्रमा पृथ्वी समेत सभी ग्रह-नक्षत्र, पदार्थ निरंतर स्वाधीनता पाने के लिए प्रयासरत हैं। कर्मयोग, निरंतर अनासक्त होकर या आसक्ति त्यागकर कर्म करने पर बल देता है, जीवन के समस्त दुख-क्लेश संसार के अपरिहार्य व्यापार हैं। क्लेश, आसक्ति से ही उत्पन्न होता है कर्म से नहीं। स्वामी जी का कहना है कि 'मैं' और 'मेरा' अर्थात स्वार्थपरता की भावना ही समस्त क्लेश की जड़ है। स्वार्थपरता का प्रत्येक कार्य और विचार हमें किसी न किसी वस्तु का आसक्त बना देता है, हम उसके दास बन जाते हैं। 'मैं', 'मेरा' या स्वार्थपरता का भाव जितना अधिक होगा, आसक्ति भी उतनी ही गहरी होगी, दासत्व का भाव भी उतना ही बढ़ता जाएगा। परिणामस्वरूप, जीवन में क्लेश, दुख भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। अतएव कर्मयोग कहता है कि स्वार्थपरता के अंकुर बढ़ने की प्रवृत्ति को नष्ट कर देना चाहिए और इसे रोके रखने की क्षमता रखनी चाहिए, मन की स्वार्थपरता को वीथियों में नहीं जाने देना चाहिए। स्वामी जी एक उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पानी में रहते हुए पद्मपत्र को पानी स्पर्श नहीं कर सकता और न ही उसे भिगो सकता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहिए। इसी को वैराग्य कहते हैं, इसी को कर्मयोग की नींव 'अनासक्ति' कहते हैं। इस अनासक्ति के बिना किसी भी तरह की योग साधना नहीं हो सकती क्योंकि अनासक्ति ही समस्त योग साधना की नींव है।

स्वामी विवेकानंद ने निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देते हुए इस तथ्य को पुष्टि प्रदान की है कि "इस विशाल भभकती भट्ठी में जिसमें कर्तव्य रूपी अग्नि सभी को झुलसाती रहती है, तुम अमृत के इस प्याले का पान करो और प्रसन्न रहो। हम सब केवल उस प्रभु की इच्छा का पालन कर रहे हैं और किसी प्रकार के पुरस्कार अथवा दंड से हमारा कोई संबंध नहीं।"1  


स्वामी जी ने इस संदर्भ में विस्तार से समझाया है कि यदि हम पुरस्कार के लिए इच्छुक हैं तो हमें दंड को भी स्वीकार करना होगा। दंड से छुटकारा पाने के लिए पुरस्कार पाने की भावना का त्याग करना होगा। दुखों से, क्लेश से मुक्त होने का यही उपाय है कि सुख की भावना का त्याग किया जाए। जीवन में जो कुछ भी किया जाए उसके लिए कभी किसी प्रकार की प्रशंसा या पुरस्कार की आशा न रखा जाए। मनुष्य की फितरत ऐसी हो गई है कि वह चंद रुपए चंदा में दान करके भी अखबार के माध्यम से नाम, यश पाना चाहता है। थोड़ा सा सत्कर्म करके प्रशंसा या पुरस्कार की आशा रखने लगता है जबकि विश्व के अनगिनत महापुरुष सत्कर्म करते हुए अज्ञात ही चले गए। प्रत्येक देश में सैकड़ों हजारों ऐसे महापुरुष हुए जो चुपचाप अपना काम करते हुए, शांति से अपना जीवन व्यतीत करते हुए इस संसार से चले गए। सर्वश्रेष्ठ महापुरुष अपने ज्ञान से किसी प्रकार की यश प्राप्ति की कामना नहीं करते। वे संसार की भलाई के लिए बिना कुछ दावा किए, अपने विचार छोड़ कर चले जाते हैं। वे अपने नाम से कोई संप्रदाय या धर्मप्रणाली नहीं स्थापित करते हैं। ऐसे महापुरुष सच्चे कर्मयोगी होते हैं। 


अतएव कर्मयोग, स्वार्थपरता और सत्कर्म द्वारा मुक्ति लाभ करने का एक धर्म और नीतिशास्त्र है। कर्मयोगी को किसी प्रकार के सिद्धांत में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं होती। उसे अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए संसार का भला करना चाहिए, दूसरों की सहायता करनी चाहिए, हम संसार का उपकार करके भी अपना ही भला कर रहे हैं। कार्य करने से हमारा सर्वोच्च उद्देश्य परोपकार, संसार का कल्याण ही होना चाहिए। वाणी मधुर होनी चाहिए क्योंकि शब्द शक्ति, कर्म के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 


स्वामी विवेकानंद ने अपने अनेक अनेक व्याख्यानों में कर्मयोग, शब्द शक्ति, कर्तव्य  परायणता को विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से व्याख्यायित किया है। उनकी दृष्टि में कर्म एक विज्ञान है। कर्मविज्ञान के अनेक पहलुओं में एक है विचार और शब्द के संबंध को जानना और यह ज्ञान प्राप्त करना कि शब्द शक्ति से क्या अर्जित किया जा सकता है। प्रत्येक धर्म, शब्द शक्ति की महत्ता को स्वीकारता है। किसी धर्म ने यह भी माना है कि समस्त सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। ईश्वर के संकल्प का वाह्य आकार ‘शब्द’ है और चूँकि ईश्वर ने सृष्टि रचना के पहले संकल्प एवं इच्छा की थी, इसलिए सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। शब्द के उच्च दार्शनिक एवं धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही जीवन में शब्द प्रतीकों का अहम स्थान है। उदाहरणस्वरूप बिलख बिलख कर रोने वाली स्त्री सांत्वना भरे शब्द सुनकर शांत हो जाती है, मुस्कुरा देती है। इसी तरह कोई किसी को अपशब्द कह दे, तो सामने वाला व्यक्ति उसे मारने के लिए हाथ उठा लेता है। यह सबकुछ शब्द शक्ति के कारण ही होता है। इसलिए उच्च दर्शन के साथ-साथ हमारे साधारण जीवन में शब्द शक्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अतः शब्द शक्ति के संबंध में विशेष विचार और अनुसंधान न करते हुए भी हम रात-दिन इस शब्द शक्ति का उपयोग करते हैं। इस शक्ति के स्वरूप को जानना तथा इसका उत्तम रूप से उपयोग करना भी कर्मयोग का अंग है। शब्द शक्ति का हमारे कर्म पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक सच्चा कर्मयोगी शब्द शक्ति की ताकत को बहुत बेहतरीन तरीके से समझा है।

 

कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के विश्व धर्म महासभा में 20 सितंबर, 1893 में ‘धर्म : भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं’ विषय पर व्याख्यान दिया था। इसमें उन्होंने इस बात पर बल दिया था कि भारत की आवश्यकता कोई धर्म विशेष नहीं, अपितु रोटी है। उनका यह व्याख्यान कर्म, धर्म, कर्तव्य के साथ ही उनकी शब्द शक्ति, उनके कहन की प्रभावशाली शैली को भी व्याख्यायित करता है। उदाहरणस्वरूप, "ईसाइयों को सत्य आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए और मुझे विश्वास है कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे। आप ईसाई लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने के निमित्त अपने धर्म-प्रचारकों को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो सहस्त्रों और लाखों हिंदू क्षुधा से पीड़ित होकर मर गए; पर आप ईसाइयों ने उनके लिए कुछ नहीं किया। आप लोग सारे हिंदुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व का प्रधान अभाव धर्म नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है जलते हुए हिंदुस्तान के लाखों दुखार्त्त भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं। वे हमसे रोटी माँगते हैं, और हम उन्हें देते हैं पत्थर! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना उनका अपमान करना है, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना है। भारतवर्ष में यदि कोई पुरोहित द्रव्य प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे। मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाइयों के निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह समझ गया हूँ कि मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई धर्मावलंबियों से, और विशेषकर उन्हीं के देश में, सहायता प्राप्त करना कितना कठिन है।"2


स्वामी जी का यह व्याख्यान दर्शाता है कि कर्म में ही धर्म निहित है। भूख से व्याकुल अवस्था में मरते हुए समुदाय के लिए किसी भी धर्मोपदेश या दर्शनोपदेश से अधिक महत्त्वपूर्ण है उन्हें भूख से मरने से बचाना, उन्हें रोटी खिलाना और ऐसा करना ही उनका प्रधान कर्म है और उनके इस कर्म में ही उनका धर्म सन्निहित है। 

स्वामी जी निरंतर कर्मयोगी बने रहने की प्रेरणा देते हुए भगवान बुद्ध का दृष्टांत देते हैं। उनका मानना था कि महात्मा बुद्ध ने कर्मयोग की शिक्षाओं को कार्यरूप में परिणित किया था। उन्होंने पूर्ण साधना की थी। महात्मा बुद्ध के अलावा संसार में जितने भी पैगंबर आए, उनकी नि:स्वार्थ कर्म प्रवृति के पीछे कोई न कोई वाह्य उद्देश्य अवश्य था। इन पैगंबरों की दो श्रेणियाँ  थीं। एक वर्ग स्वयं को संसार में अवतीर्ण ईश्वर का अवतार मानता था, तो दूसरा वर्ग स्वयं को ईश्वर का दूत मानता था। वे अपनी आध्यात्मिक बातों से जनमानस को प्रभावित करके बहिर्जगत से पुरस्कार की आशा रखते थे। परंतु एकमात्र महात्मा बुद्ध ऐसे थे जिन्होंने कहा था- "मैं ईश्वर के बारे में तुम्हारे मत-मतान्तरों को जानने की परवाह नहीं करता। आत्मा के बारे में विभिन्न सूक्ष्म मतों पर बहस करने से क्या लाभ? भला करो और भले बनो। बस, यही तुम्हें निर्वाण की ओर अथवा जो कुछ भी सत्य है, उसकी ओर ले जाएगा”।3    


  स्वामी जी का मानना था कि महात्मा बुद्ध का दर्शन जितना उन्नत था, उतनी ही व्यापक उनमें सहानुभूति की भावना थी। सर्वश्रेष्ठ दर्शन का प्रचार-प्रसार करते हुए भी इन महान दार्शनिक के मन में संसार के क्षुद्रतम प्राणी के प्रति अत्यंत गहरी सहानुभूति थी। इसलिए वास्तव में वे ही संसार के आदर्श कर्मयोगी हैं क्योंकि उन्होंने पूर्णरूपेण हेतुशून्य होकर कर्म किया है। हृदय और मस्तिष्क के पूर्ण सामंजस्य के वे सर्वोत्कृष्ट दृष्टांत हैं।

 

स्वामी विवेकानंद जी, भगवान बुद्ध के दृष्टांत के माध्यम से कर्मयोग पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि इस संसार में सिर्फ वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य कर सकता है जो पूरी तरह से नि:स्वार्थी हो, जिसके मन में किसी प्रकार के धन-दौलत, यश-कीर्ति या अन्य किसी वस्तु के प्रति कोई लालसा न हो, इच्छा न हो। ऐसा करने में सक्षम और समर्थ होने वाला व्यक्ति स्वयं बुद्ध बन जाएगा और उसके अंतर्मन में एक ऐसी शक्ति प्रकट होगी जो संसार की अवस्था को पूरी तरह से बदल सकती है और यही व्यक्ति कर्मयोग के चरम आदर्श का प्रतीक बन सकता है।

 

स्वामी जी गीता के श्लोक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को सोदाहरण समझाया है कि मनुष्य का कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए मनुष्य को फल पाने के उद्देश्य से कर्म नहीं करना चाहिए। उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूँ। उन्होंने यह भी बताया है कि कर्मयोग का अर्थ है कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना। कर्मानुष्ठान की विधि भली-भांति समझ कर ही व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ कार्य कर सकता है और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है, अपनी आत्मा को जाग्रत कर सकता है। 


अंततोगत्वा, निष्कर्ष के रूप में शत-प्रतिशत यह द्रष्टव्य है कि स्वामी विवेकानंद युगचेता, युगद्रष्टा और महान युगपुरुष थे और महान कर्मयोगी के रूप में उन्होंने आजीवन नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने के लिए समस्त विश्व को उद्बुद्ध किया, संपूर्ण संसार को कर्मयोगी बनने की ओर अग्रसरित किया, प्रोत्साहित किया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को बताया कि कर्मयोग के माध्यम से कैसे इस संसार की तस्वीर बदल सकती है, हमारे कर्मों का हमारे चरित्र पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है, कर्म और कर्तव्य में क्या अंतर है और हम किस प्रकार नि:स्वार्थ भाव, अनासक्त भावना से संसार का भला करते हुए अपना उद्धार कर सकते हैं। कर्म करते हुए हमारे मन में किसी के प्रति किसी तरह का दुराग्रह नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुराग्रही व्यक्ति मूर्ख और सहानुभूतिशून्य होता है। दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। हम जितने अधिक प्रेम संपन्न होंगे, हमारा कार्य उतना ही अधिक उत्तम होगा। जीवन के किसी भी अवस्था में, कर्मफल में बिना आसक्ति रखे हुए यदि उचित रूप से कर्तव्य किया जाए, तो उससे हमें आत्मा की पूर्णता का सर्वोच्च अनुभव प्राप्त होता है, आत्म संतुष्टि होती है। हमें चाहिए कि हम निरंतर कार्य करते रहें, जो कुछ भी हमारा कर्तव्य है उसे करते रहें, अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में सदैव डटे रहें, जुड़े-भिड़े रहें, इसी में हमारे जीवन की सार्थकता और पूर्णता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस बात की आवश्यकता और अधिक बलवती हो चुकी है कि स्वामी विवेकानंद द्वारा विवेचित कर्मयोग को समग्र भारतवासियों द्वारा आत्मसात किया जाय, इसे देश के हर गाँव गाँव, शहर शहर में विभिन्न जनसंचार माध्यमों के जरिये अधिक से अधिक संख्या पहुंचाया जाय, देशवासियों को उनके विचारों से अवगत कराया जाय क्योंकि स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गये कर्मयोग के मार्ग पर चलकर भारत पुनः विश्व गुरु बन सकता है, सर्वश्रेष्ठ देश बन सकता है।     


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संदर्भ ग्रंथ: 

1. विवेकानंद साहित्य, भाग 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 2000, पृष्ठ-78

2. विवेकानंद साहित्य, भाग 1, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2000, पृष्ठ 22

3. विवेकानंद साहित्य, भाग 1, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 2000, पृष्ठ 89