Saturday, 4 January 2020

कवि मनीष : हिंदी कविता के कैनवास का नया रंगरेज़ ।


      
                डॉ. गजेन्द्र भारद्वाज
हिंदी सहायक प्राचार्य

                  काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ साल 2019 में प्रकाशित मनीष मिश्रा जी के कृतित्व का वह इतिहास है जो उनके उत्तरोत्तर मँझते हुए लेखन और उनकी कविताओं के भाव गांभीर्य की विकास यात्रा को न केवल संकलित कविताओं के शीर्षक अपितु उनकी भाव संपदा की तन्मयता की गाथा सुनाता है। आज अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से जो भी कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं उनमें से अधिकां को पढ़कर ऐसा लगता है मानो उन्हें एक ढाँचा निर्मित करके सायास लिखा गया है ऐसी कविताओं के लेखन के बीच से ऐसी कविता जो अनायास बन जाए इस संग्रह में दिखाई दी हैं जिन्हें पढ़कर यह लगता है कि आज भी कविता शब्दों और भावनाओं के परे जाकर हमारी चैतन्यता से जुड़ी है। मनीष इस संग्रह और इसमें संकलित कविताओं के प्रस्तुतिकरण के लिए बधाई के पात्र हैं जिनका प्रयास इतने कम समय में भी परिपक्वता की ओर अग्रसर दिखाई पड़ रहा है।
               इस संग्रह में कुल 56 कविताएँ संकलित हैं जिनमें पहली कविता ‘आत्मीयता’ से लेकर संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हू’ तक की विभिन्न कविताओं में कवि की जिस वैचारिक चिंतनशीलता को महसूस किया जा सकता है उसको संप्रेषित करने के लिए यदि स्वयं कि शब्दों का प्रयोग किया जाए तो एक अन्य ग्रंथ लिखा जा सकता है। फिर भी संग्रह में संग्रहित कविताओं के आलोक में यदि कवि के ही शब्दों में यदि कवि की चिंतनधारा को समझने का प्रयास किया जाए तो उसके लिए इस संग्रह   की विभिन्न कविताओं के शीर्षकों को संयोजित करने पर कवि की विचार संपदा का थोड़ा परिचय मिल सकता है। यथा ‘जब कोई याद किसी को कारता है/बहुत कठिन होता है/  उसके संकल्पों का संगीत / पिछलती चेतना और तापमान से / अनजाने अपराधों की पीड़ा / गंभीर चिंताओं की परिधि / दो आँखों में अटकी / मैं नहीं चाहता था / इतिहास मेरे साथ / पिछली ऋतुओं की वह साथी / जैसे कि तुम / तुम से प्रेम / जाहिर था कि / लंबे अंतराल के बाद / आगत की अगवानी में / स्थगित संवेदनाएँ / बचाना चाहता हूँ।’ उपरोक्त कविताओं की परोक्ष गहनता की ओर संकेत करता है। जिसके कई गहरे अर्थ निकलकर सामने आते हैं जैसे केवल कविताओं के शीर्षकों को मिलाकर ही कवि के उस भाव का पता चलता है जिसमें वह अपनी मीठी यादों से जुड़े किसी भी अविस्मरणीय प्रसंग को इतिहास बनते देखना नहीं चाहता। कवि मानता है कि उसका मन किसी याद को चिरजीवित रखना चाहता है, उस प्रेम और प्रेम से जुड़ी वे सभी संवेदनाएँ जो उसने वर्तमान व्यतताओं के कारण स्थगित कर रखी हैं उन्हें बचाते हुए अपने भीतर के उस राग तत्व को सदा बनाए रखना चाहता है जिसके कारण इस सृष्टि में और स्वयं उसके जीवन में सृजन की प्रक्रिया निरंतर चल रही है।


            हिन्दी कविता में फैण्टेसी के महारथी गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं में जो अप्रस्तुत का प्रस्तुत उनकी कविताओं के अंतस में छिपा दिखाई देता है, उसी परोक्ष की प्रत्यक्षता  मनीष मिश्र के इस संग्रह की कविताओं में भी परिलक्षित होती है। इनकी कविता सरल होते हुए भी एकाधिक बार पढ़े जाने की मांग करती है। इन कविताओं को पहली बार पढ़ने से लगता है कि यह एक प्रेमी के द्वारा अपनी प्रेमिका के लिए उद्भाषित होते उद्गार हैं पर ध्यान देकर दोबारा पढ़ने पर लगता है कि ये कवि की एक भावना का दूसरे भाव से आत्म संवाद है, चिंतन करते हुए तीसरी बार पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये तो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसने वाले एक नादान बालक की अपने भीतर बसने वाले समझदार व्यक्ति से बातचीत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस संग्रह की कविताएँ जितनी बार पढ़ी जाएँ उतनी बार नया और आह्लादकारी अर्थ देती हुई मन को रोमांचित करती हैं।
                 मुझे मनीष जी की कविताओं में उनका वही शालीन, सौम्य और शांत व्यक्तित्व दिखाई देता है जो उनको नितांत सरल और आत्मीय बना देता है। इस संग्रह की कविताओं को एक बार पढ़ने के बाद बरबस ही दोबारा अध्ययन करते हुए पढ़ने की इच्छा हुई। अध्ययन के दौरान इन कविताओं से जो आनंद प्राप्त हुआ उससे पढ़कर कवि की वह सूक्ष्म दृष्टि पता चलती है जो आज के व्यस्ततम जीवन में भी मन की ओझल प्रतीत होने वाली गतिविधियों को भी देख लेती है। जब कवि कहता है कि ‘सुनन में/थोड़ा अजीब लग सकता है/लेकिन/सच कह रहा हूँ/यदि आप/धोखा देना पसंद करते हैं/या यह/आपकी फितरत में शामिल है/तो आप/मुझे अपना/निशाना बना सकते हैं/यकीन मानिए/मैं/आपको/निराष नहीं करूँगा/सहयोग करूँगा।’ इसी से मिलती जुलती एक अन्य कविता ‘जैसे कि तुम’ भी है जिसमें धोखे के एक अन्य प्रकार से पाठकों को रूबरू कराया गया है। इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ पाठकों को एक मजबूत भावनात्मक बंधन में बाँधने की क्षमता रखती है । जब कवि कहते हैं कि ‘ऐसा बहुत कुछ था/जो चाहा/पर मिला नहीं/वैसे ही/जैसे कि तुम।’ पाठक इन पंक्तियों के साथ कवि के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर लेता है और फिर कवि लिखता है ‘धोखा/बड़ा आम सा/किस्सा है लेकिन/मेरे हिस्से में/किसके बदले में/दे गई तुम।’
                   यह कविता स्वयं में व्यष्टि से समष्टि और वैयक्तिकता से सामाजिकता का वह पूरा ऐतिहासिक लेखा जोखा प्रस्तुत कर देती है ।  जिसमें समाज की उस विचारधारा पर व्यंग्य की चोट की गई है जिसे अनगिनत कवियों ने प्रस्तुत करने के लिए वर्षों साधना करते हुए अनेक ग्रंथ रच डाले हैं , पर फिर भी खुलकर उस बात पर चोट नहीं कर पाए । जिसके सम्मोहन में आकर हम इस नश्वर देह और अस्थायी संबंधों को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानकर मोहपाष में बँधे हुए जीवन व्यतीत करते चले जा रहे हैं। इस भवसागर के प्रपंच में फँसे मानव को जीवन दर्शन का कठिन फलसफा बताते हुए कवि संकेत भी करता है कि ‘‘शिक्षित होने की/करने की/पूरी यात्रा/धोखे के अतिरिक्त/कुछ भी नहीं।/मित्रता, शत्रुता।/लाभ-हानि/पुण्य-पाप/मोक्ष और अमरता/सिर्फ और सिर्फ/धोखाधड़ी है।’’ वह लिखता है ‘‘आत्मीय संबंधो का/भ्रमजाल/धोखे के/सबसे घातक/हथियारों में से एक हैं।’’
                         इस कविता में अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो तीखी धार पाठक को महसूस होती है, उसे स्वयं अज्ञेय ने भी महसूस किया था । जिसे उन्होंने अपनी एक कविता में बताते हुए लिखा था कि ‘‘साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं/हर में रहना भी तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ उत्तर दोगे/फिर कैसे सीखा डसना/विष कहाँ से पाया।’’ अज्ञेय द्वारा प्रयुक्त ‘डसना’ और कवि मनीष मिश्र द्वारा प्रयुक्त ‘धारदार हथियार’ दोनों ही उस धोखे की ओर संकेत करते हैं। जिसका अनुभव पाठक को अपने जीवन के प्रारंभ से ही हो जाता है। यही कारण अज्ञेय और मनीष मिश्र जी में साम्य के रूप में उभरकर आता है। इतना ही नहीं कवि इस कविता में सांकेतिक रूप से इस समस्या का एक हल भी प्रस्तुत करता है ।  जिसको समझने के लिए इस कविता को पूरा पढ़े बिना मन नहीं मानता। इस हल को ढूँढने की जिज्ञासा पाठक को कविता पूरी पढ़ने के लिए बाध्य करती है। पाठक की यह बाध्यता कवि की उस परिपक्वता को इंगित करती है जो उसने इस अल्पवय में अपने लेखन की अवस्था में ही प्राप्त कर ली है।
                  मनीष मिश्र जी के ‘अक्टूबर उस साल’ की कविताओं को पढ़कर लगता है कि वे जानते हैं कि पाठक को अपनी भावनाओं के ज्वार में किस प्रकार ओतप्रोत करना है। जिसके कारण वे पाठकों को कविता दर कविता अपने साथ बहाए लिए जाते हैं। संग्रह की दूसरी ही कविता ‘जब कोई किसी को याद करता है’ भी एक ऐसी प्रस्तुति है जो प्रत्येक पाठक को उसकी गहरी संवेदनाओं के पा में बाँधकर पाठक को अपने इतिहास की एक मानसयात्रा के लिए बाध्य कर देती है। पाठक कविता के शीर्षक मात्र से अपने जीवन के सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति को अनायास ही याद कर बैठता है ।  फिर आगे की कविता पाठक और पाठक के प्रिय के साथ पढ़ी जाती है। अपने प्रिय के साथ मानसयात्रा के दौरान पाठक स्वयं को और अपने प्रिय को यह याद दिलाने का प्रयास करता है कि उसने अपने प्रिय को अपने हृदय की गहराइयों में एक विषिष्ट स्थान दिया है। वह शीर्षक में लिखी मान्यता को झुठलाना चाहता है और कह उठता है कि ‘‘अगर सच में/ ऐसा होता तो/अब तक/सारे तारे टूटकर/जमीन पर आ गए होते/आखिर/इतना तो याद/मैंने/तुम्हें किया ही है।’’ इस संग्रह की कविता ‘रक्तचाप’ भी अपने प्रिय की याद करने और उसके साथ बिताये नितांत निजी और ऐसे अनुभूतिपूर्ण क्षणों से मिली गरमाहट की बात करता है जिससे आज भी पाठक भूल नहीं पाया है। मनीष जी की यह कविता भी उनकी अन्य कविताओं की तरह इतनी छोटी तो है किंतु गहरी भी इतनी है कि पाठक अपने प्रिय के सानिध्य को कविता की चंद पंक्तियों को एक साँस में पढ़ तो जाता है पर एक क्षण में पढ़ ली गई इन लाइनों के बाद बाहर निकलने वाली साँस वर्षों के इतिहास को प्रत्यक्ष कर जाती है। एक बात और है जो मनीष जी की कवितओं को विषेष बनाती है वह यह कि पाठक मनीष जी की कविताओं को स्वयं के जीवन में निभाई जिस भूमिका की भावभूमि में पढ़ता है वे उसे उसी के अनुरूप झँकृत कर देती हैं। यदि पाठक एक बार प्रेमी की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी प्रेमिका की निकटता का अहसास होता है। यदि पाठक एक पुत्र की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी माँ के ममत्व की गरमाहट भरी निकटता महसूस होती है, यदि मित्र की तरह पढ़ता है तो उसे एक अन्यतम मित्र की निकटता का आभास होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी बात को इंगित करके लिखा था कि ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैंसी।’ मनीष मिश्र जी की कविताएँ भी पाठक को बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी और प्रत्येक बार पाठक को एक नये रस का आस्वादन प्राप्त होगा ऐसा मेरा मानना है।
तुम्हारी एक मुस्कान के लिए’ कविता भी कुछ ऐसी ही तासीर की कविता है जिसमें पाठक देकाल के बंधनों से परे जाकर जीवन के प्रत्येक क्षण में अपने प्रिय के साथ बिताए पलों को उसी ताजगी से याद करता है, जिस ताजगी से वे घटित हुए थे। इस कविता में जब कवि कहता है कि ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए/जनवरी में भी/हुई झमाझम बारि/और अक्टूबर में ही/खेला गया फाग।’ तब वह वर्तमान में होते हुए भी अपने प्रिय के साथ समययात्रा करता हुआ सूक्ष्म समायांतराल में एक पुनर्जीवन को जी लेता है। मनीष जी की कविताएँ पाठक की संवेदनाओं को भी संबोधित करती हैं। ‘जब तुम साथ होती हो’ में ऐसा ही संबोधन सुनाई पड़ता है मानो व्यक्ति अपनी आशा को संबोधित करते हुए कह रहा हो कि ‘तुम जब साथ होती हो/तो होता है वह सब/कुछ जिसके होने से/खुद के होने का/एहसास बढ़ जाता है।’ इस कविता का पहला भाव नायक द्वारा नायिका के प्रति उद्गार के रूप में सामने आता है पर एक अन्य अर्थ में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी आशा के होने के महत्व का वर्णन करते हुए कह रहा है कि आशा के कारण ही कवि का अस्तित्व और पहचान है।
              



वह साल, वह अक्टूबर’ कविता इस संग्रह की मुख्य कविता प्रतीत होती है । जिसके इर्दगिर्द इस संग्रह का तानाबाना रचा गया लगता है। इस कविता में कवि ने अपने और प्रिय के व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। जब वह कहता है कि ‘इस/साल का/यह अक्टूबर/याद रहेगा/साल दर साल/यादों का/एक सिलसिला बनकर।’ तो इन पंक्तियों में कवि की नितांत व्यक्तिगत किंतु महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों की एक श्रृंखला ध्वनित होती दिखाई देती है। ‘बहुत कठिन होता है’, ‘अवसाद’, ‘कच्चे से इष्क में’, ‘विफलता के स्वप्न’ ‘भाषा के लिबास में’, ‘इतिहास मेरे साथ’, ‘पिछली ऋतुओं की वह साथी’ आदि इसी श्रेणी की कविताएँ है। इन कविताओं में बीते जीवन की जो सुखद अनुभूतियों की गूँज है उसी का इतिहास इस संग्रह में दिखाई देता है जिसके कारण इस संग्रह का शीर्षक ‘अक्टूबर उस साल’ बहुत उपर्युक्त प्रतीत होता है। इस संग्रह की कविता ‘जीवन यात्रा’ की निम्न पंक्तियाँ इसी तथ्य का साक्ष्य भी देती हैं ‘ऐसी यात्राएँ ही/जीवन हैं/जीवन ऐसी ही/यात्राओं का नाम है।’ एक अन्य कविता ‘चाँदनी पीते हुए’ में भी कवि प्रिय के अनुराग को व्यक्त करते हुए न जाने कितनी ही बिसरी बातें याद कर जाता है वह कहता है ’याद आता है/मुझे वह साल/जिसमें मिटी थी/दृगों की/चिर-प्यास।’ इस कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों को पढ़ते ही पाठक की अपनी बीती अनुरक्ति की यादें ताजा हो जाती हैं उसकी आँखों के झरने में एक-एक करके अनगिनत मीठे लम्हे भीग जाते हैं। इस कविता में जब कवि लिखता है कि ‘यह/तुम्हारे भरोसे/और/मेरे बढ़ते अधिकारों की/एक सहज/यात्रा थी।’ तब तक पाठक इस कविता के शब्दों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और कवि के शब्दों के अनुरूप अपने बीते जीवन को एक बार फिर से अपने भावदेष में जीने लगता है और तब कवि पाठक की अनुभूतियों को कुरेदता हुआ उन बातों की तह तक पहुँच जाता है जिसमें कवि और पाठक एक-दूसरे से अपनी अंतरंग बातें साझा करते हैं कवि लिखता है ‘तुम्हारे बालों में/घूमती/मेरी उंगलियाँ/निकल जाती/सम्मोहन की/किसी लंबी यात्रा पर।’ कवि की इस कविता के साथ पाठक अपने मन की गइराइयों में छुपे उस अनुराग की तान छेड़ देता है जिसके कारण उसे प्रेम का उदात्त आभास हुआ है। इस भाव को शब्द देते हुए कवि लिखता है ‘जहाँ से तुम/मेरी सर्जनात्मक शक्ति की/आराध्या बन/रिसती रहोगी/मिलती रहोगी/उसी लालिमा/और आत्मीयता के साथ।’ कवि की कविता इन शब्दांे के साथ पूरी हो जाती है किंतु इस तरह की कविताओं के पाठ से पाठक के हृदय में जो स्पंदन शुरु हो जाता है वह पाठक को न केवल पूरी कविता को दोबारा पढ़ने के लिए विवष करता है बल्कि वह पाठक को प्रेरित करता है कि इसी प्रकार उसके मन की उन सभी बातों को इस संग्रह की अन्य कविताओं में ढूँढे जिनको पाठक ने स्वयं से भी साझा नहीं किया है। पाठक उत्प्रेरित होता है और इस संग्रह की अन्य कविताओं में अपने निजी क्षणों की तलाष करता है।
                          हर व्यक्ति के जीवन में कोई ऐसा प्रिय व्यक्ति अवष्य होता है जिसके प्रति उसका व्यवहार एक अतिरिक्त सावधानी या सुरक्षा के चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि उस प्रिय व्यक्ति के कुछ निजी पलों का हमसे अतिक्रमण हो जाता है। ‘मुझे आदत थी’ कविता की पंक्तियाँ ‘मुझे आदत थी/तुम्हें रोकने की/टोकने की/बताने और/समझाने की।’ ऐसे ही प्रिय व्यक्ति के प्रति पाठक द्वारा किए गए अतिक्रमण की क्षमायाचना करती है तथा प्रायष्चित स्वरूप पाठक को ‘अब/जब नहीं हो तुम/तो इन आदतों को/बदल देना चाहता हूँ/ताकि/षामिल हो सकूँ/तुम्हारे साथ/हर जगह/तुम्हारी आदत बनकर।’ के माध्यम से समाधान करने का प्रयास करती है जिससे उसके मन की टीस समाप्त हो सके। ‘कब होता है प्रेम’, ‘रंग-ए-इष्क में’ कविता की निम्न पंक्तियाँ भी पाठक को अपने रंग मंे रंगने में सफल हो जाती है ‘जहाँ बार-बार/लौटकर जाना चाहूँ/वह प्यार वाली/ऐसी कोई गली लगती।’
                    इस संग्रह में कुछ अन्य कविताएँ जैसे ‘चुप्पी की पनाह में’, ‘कुछ उदास परंपराएँ’, ‘इन फकीर निगाहों के मुकद्दर में’, ‘प्रतीक्षा की स्थापत्य कला’, ‘पिघलती चेतना और तापमान से’, ‘गंभीर चिंताओं की परिधि’ आदि पाठक को अपने स्वप्नलोक से वापस लाकर यथार्थ का आभास कराती हैं और बताती हैं कि वह जिस भावभूमि में था वह उसको नास्टेल्जिया मात्र है पर ‘दो आँखों मंे अटकी’ जैसी कविता पाठक को आष्वस्त भी करती है कि उसके मन की गइराइयों में जो निष्छल और निर्मल प्रेम छुपा है वही उसकी अनमोल निधि है जो उसे उसके संबंधों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है। जब कवि लिखता है ‘यकीन मानों/मेरे पास/और कुछ भी नहीं/मेरे कुछ होने की/अब तक कि/पूरी प्रक्रिया में।’
                 एक अन्य कविता ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ भी उस सामाजिक एकता की ओर संकेत करती है जिसकी मजबूती से आज हम अपनी जी जाति को विनाष की ओर ढकेल रहे हैं। कवि लिखता है ‘हम/आसमान की/ओर बढ़ तो रहे हैं/पर अपनी/जड़ों का हवन कर रहे हैं।’ मेरे विचार से कवि मनीष की यह कविता इनके इस संग्रह की सबसे सषक्त कविता है जो तीखे शब्दों में हमारे समाज के यथार्थ और सामाजिक संबंधों की वर्तमान स्थिति की दयनीयता को स्पष्ट रूप से न केवल सामने रखती है बल्कि पाठक को सोचने यह सोचने के लिए विवष करती है कि क्या मनुष्य जाति के विकास का लक्ष्य यही था जो कवि मनीष जी ने लिख दिया है। पाठक कवि से सहमत भी होता है तथा सृष्टि और समाज मंे अपनी भूमिका की समीक्षा पर मनन भी करता है। इस कविता के अंतिम पद की पंक्तियाँ ‘भगौड़े/भाग रहे हैं विदे, दे को लूटकर/हमारे रहनुमा हैं कि/भाषण भजन कर रहे हैं।’ कवि को दुष्यंत कुमार जैसे उन शीर्ष कवियों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती हैं जो हमारे समाज की बुराइयों को अपनी कलम की तलवार से काटने के लिए किये जाने वाले युद्धघोष की प्रथम पंक्ति में रहते हुए यह कहते हैं कि ‘हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोषिष है कि यह सूरत बदलनी चाहिए। ‘दौर-ए-निजाम’ कविता की ये पंक्तियाँ ‘विष्व के सबसे बड़े/सियासी लोकतंत्र में/आवाम की कोई भी मजबूरी/सिर्फ एक मौका है।’ अनायास ही हिंदी के हस्ताक्षर गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ की याद दिला देती हैं।
                 कवि मनीष की कविताओं में यथा स्थान बिम्ब, प्रतीक एवं मिथकों को प्रयोग भी किया गया है जो युवा कवि होने पर भी अपने कार्य में दक्षता को दर्षाता है। इसी कविता में उनका यह लिखना कि ‘रावण के पक्ष में/खुद को/खड़ा करके/ये हर साल/किसका दहन कर रहे हैं?’ मनीष जी की कविता मंे इसी कलात्मकता की ओर संकेत करता है। इस संग्रह में मनीष जी की अनुभूतियों का सबसे सषक्त रूप उनकी ‘माँ’ कविता में उभरकर सामने आता है। शायद यह कविता इस संग्रह की सबसे लंबी कविता भी है। हो भी क्यों न, व्यक्ति के समस्त जीवन की एकमात्र संभावना इस कविता के शीर्षक में छिपी हुई है। यदि इस कविता की भाव संपदा की व्याख्या की गई तो शायद अन्य किसी कविता के लिए अवकाष ही न मिले। कवि मनीष जी द्वारा अपनी माँ को समर्पित यह कविता उनके सहज, सरल और शांत व्यक्तित्व के निर्माण कर कहानी कहती है। इस कविता के तुरंत बाद की कविता में अपने पर हावी हो जाने के द्वंद्व में पददलित की हुई इच्छाओं का जैसा संक्षिप्त और सटीक प्रस्तुतिकरण कवि ने किया है उससे ‘तुम से प्रेम’ कविता कवि की प्रस्तुति का अंदाज ही बदल देती है। जो कवि अभी तक सरल शब्दों में अपनी बात रखता जा रहा था इस कविता से उसके शब्द अचानक अत्यंत गंभीर और गहरे अर्थों वाले दार्षनिक हो जाते हैं जिससे ऐसा लगता है मानो कवि वर्षों की काव्य साधना की चिर समाधि का अनुभव साथ लिए हुए धीरे-धीरे अपना पद्यकोष खोल रहा है।
                     इस संग्रह में इस कविता से आगे की लगभग समस्त कविताएँ तीक्ष्ण कटाक्ष और पैनी दृष्टि के साथ एक ऐसे विद्वान पाठक का आग्रह करती हैं जिन्हें पढ़ने वाले के पास अपना स्वयं के अनुभव का एक इतिहास हो। ‘तुमने कहा’ कविता की पंक्तियाँ ‘मैं वही हूँ/जिसे तुमने/अपनी सुविधा समझा/बिना किसी/दुविधा के।’ बताती हैं कि केवल दान करना ही प्रेम की इति नहीं होती, प्रतिदान का भी प्रेम के व्यापक संसार में बहुत गहरा महत्व है। प्रतिदान के अभाव में प्रेम के दूषित भाव का भी जन्म हो सकता है जिसके कारण प्रेम के दीर्घायु होने में संषय उत्पन्न हो जाता है। ‘लंबे अंतराल के बाद’ कविता की ये पंक्तियाँ इसी की ओर संकेत करती हैं ‘सालते दुःख से/आजि़्ाज आकर/वह मौन संधि/ग़्ौरवाजि़्ाब मानकर/मैंने तोड़ दी’। इस कविता में मनीष जी ने अत्याधुनिक और तकनीकी युग में जीवन को यथार्थ की कसौटी पर परखते हुए जीने वाले आज के युग के लोगों के उस तनाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो प्रतिदान के अभाव में उत्पन्न हो जाता है। इस अभाव को दूर करने का प्रयास संग्रह की अगली कविता ‘कुछ कहो तुम भी’ की निम्न प्रारंभिक पंक्तियों में ही दिखाई दे जाता है ‘यूँ खामोषी भरा/मुझसे/इंतकाम न लो/तुम/ऐसा भी नहीं कि/तुम्हें/किसी बात का/कोई/मलाल न हो/दूरियाँ कब नहीं थीं/हमारे बीच?/लेकिन/ये तनाव/ये कष्मकष न थी’ मनीष जी के इस संग्रह में प्रेम का जो रूप दिखाई देता है वह एक के बाद एक आने वाली कविताओं में व्यक्तिगत से समष्टिगत विस्तार तो पाता ही है उसमें आलंबन का तिरोभाव भी होता चला जाता है। ‘जैसे होती है’ कविता की निम्न पंक्तियाँ एक प्रेमी में दूसरे प्रेमी के इसी विलय की ओर संकेत करती हैं ‘जैसे होती है/मंदिर/में आरती/सागर/में लहरें/आँखों/में रोषनी/फूल/में खुषबू/षरीर/में ऊष्मा/षराब/में नषा/और किसी मकान/में घर/वैसे ही/क्यों रहती हो?/मेरी हर साँस/में तुम।’ मनीष जी की यह कविता कबीर के उस दोहे की बरबस ही याद दिला देती है जिसमें उन्होंने भी आलंबन के तिरोभाव का उल्लेख किया है। कबीर कहते हैं ‘जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाय, प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।’ प्रेम के विस्तार में स्वयं का विलय कर देने का यह भाव कबीर और मनीष जी के भाव में नितांत समानता दर्षाता है।
                         प्रेम ओर समर्पण’ कविता प्रथमदृष्टया इस संग्रह के प्रतिकूल दिखाई देने पर भी इस संग्रह के लिए निहायत ही अनुकूल है पर इस कविता को इस संग्रह में जो स्थान दिया गया है वह अनुकूल जान नहीं पड़ता। इस कविता को इस संग्रह की कविताओं ‘अवसाद’ और ‘मतवाला करुणामय पावस’ के बीच कहीं होना चाहिए था। इसी तरह ‘आगत की अगवानी में’, ‘स्थगित संवेदनाएँ’, ‘जो लौटकर आ गया’ इस संग्रह की ऐसी कविताएँ हैं जिनकी गहराई को समझने के लिए वांछित परिपक्वता अभी मुझमें नहीं है ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हूँ’ को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि लेखक ने इस संग्रह की अंतिम कविता के रूप में इसको बहुत पहले ही लिख लिया होगा क्योंकि यह कविता हर लिहाज़्ा से संग्रह की अंतिम कविता के रूप मंे ही फिट बैठती है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने बीते हुए नितांत व्यक्तिगत और सुखदायी वैचारिक जगत् मंे विचरण करता है उससे पाठक को यह समाधान हो जाता है कि उसके प्रेम के ये ही निजी क्षण उसकी ऐसी अक्षय निधि हैं जो उसके अकेलेपन को भावों के परिवार से भर देती हैं और पाठक विवष हो जाता है कि यदि उसे अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे इन सुखद स्मृतियों को बचाना ही होगा। ऐसे निष्चय के साथ यह अंतिम कविता पाठक को अपने इस निर्णय पर अटल होने के लिए प्रेरित करती हैं जिसमें कवि कहता है ‘मैं/बचाना चाहता हूँ/दरकता हुआ/टूटता हुआ/वह सब/जो बचा सकूँगा/किसी भी कीमत पर’ कवि ने बचाने वाली इस संपत्ति के कोष में जिस टूटते हुए मन, भरोसे की ऊष्मा, आँखों में बसे सपने की बात की है उनके लिए पाठक को लगता है कि ये तो स्वयं पाठक के मन में उठने वाले विचार हैं। इस प्रकार कवि मनीष की यह कविता भी पाठक के साथ तारतम्य स्थापित कर लेती है।
                            इस अंतिम कविता को पढ़ने के बाद इस बात की तसल्ली होती है कि अपने दूसरे ही संग्रह की कविताओं में कवि मनीष ने पाठक की रुचि के अनुरूप ऐसी कविताओं की रचना की है जो पहली कविता से लेकर अंतिम कविता तक पाठक को बाँधे रखने में सफल होती है। यद्यपि इन कविताओं में ध्यानस्थ पाठक की चेतना भंग नहीं होती तथापि कुछ कविताओं का स्थान यदि इधर-उधर कर दिया जाता तो मेरे जैसे अल्पज्ञ किंतु भावुक पाठक को और भी अधिक आनंद आता। फिर भी कम शब्दों में रची हुई छोटी छोटी कविताएँ होने के बावजूद कवि ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस प्रकार से की है उसका रसास्वादन करते हुए साहित्य के बड़े-बड़े कवियों का अनायास स्मरण हो जाना कवि की कवितओं की सफलता और काव्य चेतना की गहराई की ओर संकेत करता है। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह कवि केवल लिखने लिए ही कविताएँ नहीं लिखता बल्कि इसकी सूक्ष्म चैतन्य दृष्टि आज के आपाधापी भरे समय में भी मनुष्य को विश्राम देकर स्वयं के बारे में विचार करने के लिए बाध्य करती है। डाॅ. मनीष मिश्रा जी को उनके काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की छोटी, सुंदर और गहरी कविताओं की रचना के लिए बहुत बधाई।


डॉ गजेन्द्र भारद्वाज,
 हिंदी
सहायक प्राचार्य
सी.एम.बी. कालेज डेवढ़
(ललित नारायण मिथिला विष्वविद्यालय
दरभंगा का अंगीभूत महाविद्यालय)
घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार
ईमेल- हंददन9483/हउंपसण्बवउ
संपर्क- 7898227839

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Thursday, 2 January 2020

मनीष : भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि ।

मनीष : भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि ।

वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनली दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।


युवा कवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। ‘तुम्हारे ही पास’, ‘तृषिता’, ‘कही अनकही’, ‘चांदनी पीते हुए’, ‘गांठा की गठरी’,‘बचना चाहता हूँ’ इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधों के प्रति ‘दूरी की छटपटाहट’ तथा ‘निकटता के अनछुएपन’ को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। ‘मैं नहीं चाहता था’ में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि, ‘कि तुम जरूर रजना’ में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। ‘अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं’,‘चाय का कप’ में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। ‘कही-अनकही’ में व्यिंतव की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढबंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।
आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर ल्ोना, कवि मनीष में ‘मौन प्रार्थना के साथ’ निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक आलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है। जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने ‘रिक्त स्थानों की पूर्ति’ जैसी रचनाएं भी हैं।
मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विश्ोषकर पंत जी काव्य जैसी (सरल भौहों में था आकाश, हास में श्ौशव का संसार...)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि ‘जीवनराग’ जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो अभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव ‘सवालों में बंधी’, ‘प्यार के किस्सों’ तथा ‘जीवन यात्रा’ में भावनात्मक पदचिन्ह छोड़ता चला जाता है।
अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे ‘कैमरा’ से याद ‘पेन’ द्वारा नवीनता तथा ‘विजिटिंग कार्ड’ द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।
आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु ‘हे देवभूमि’ व ‘वह गीली चिड़िया’ में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। ‘अक्टूबर उस साल में’ कई कविताएं जैसे ‘मतवाल करुणामय पावस’, ‘बसंत का खाब कबीला’ में प्रकृति वर्णन व आयागमत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। ‘भूली-भूली जनश्रुतियों ने’ में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।
अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे ‘जब कोई किसी को याद करता है’, ‘जीवन के तीस बसंत’, ‘तुम मिलती तो बताता’, ‘यह पीला स्वेटर’, ‘कच्चे से इश्क’ आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निभरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-हीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे ‘हे मेरी तुम’ रचना में हुई है।
इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। ‘आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी’, ‘विकलता के स्वप्न’,‘कृतघ्न यातना’ में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।
मानवीय संबंधों की अनुभूती चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, ‘मुझे आदत थी’ व ‘उस साल अक्टूबर’ जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ल्ो जाती है।
कवि कलाकार होता है यह रंगरेज पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या? लगता है जैसे ‘इस बार तेरे शहर में’, ‘बनारस के घाट’ देख ही आएं क्या? ‘लंकेटिंग’ फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए? बहरहाल ‘अयोध्या’ ओर ‘मणिकर्णिका’ जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।
हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्ष्ोत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। ‘मैंने कुछ गालियाँ सीखी है’ में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथ्ोष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई तमीज हाशिए पर लटक रही है।
वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथ्ो हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। ‘आत्मीयता’ में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्धाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाजारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वनज के घ्ोरे में आ गया है - ‘स्थगित संवेदनाएं’ में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट ‘वो संतरा’ जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।
बाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विश्ोषकर ‘अक्टूबर उस साल’ संग्रह तथा कविता ‘वह साल वह अक्टूबर’ में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहाँ यह भावों के साथ आंदोलित होता है।
स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। ‘बहुत कठिन होता है’ में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।
परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को ल्ोकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। ‘कुछ उदास परम्पराएं’ में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है ल्ोकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा ल्ोना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।
सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उध्ोड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद-विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। ‘इतिहास मेरे साथ’ कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उद््घाटित किया गया है। ‘गंभीर चिंताओं की परिधि में’ कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं।
‘अक्टूबर उस साल’ की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में ‘यूंतो संकीर्णताओं को’ (वहन कर रहा हूं), ‘दौर-ए-निजाम’ जैसी कविताएं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।
सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाजार ने व्यक्ति की इच्छाओं, वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुर्कों का सृजनात्मक रूप् उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताजगी रचना संग्रह की आकर्षक विश्ोषता है। अलक्षित, संश्र्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताजगी बरकरार रखती है।

कृतिका पांडेय
शोध छात्रा
गोरखपुर विश्वविद्यालय ।

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मनीष : अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता के कवि



वर्तमान कविता जटिल जगत की यथार्थता तथा मानव की अनुभूतिजन्य आवश्यकता के मध्य संघर्ष कर रही है। त्रासदीपूर्ण विडंबना के दौर में अपने जीवन और साहित्य को लहूलुहान कर रहा है। ऐसे में कुछ कविताएं मूल्यों की रक्षा के लिए संजीवनली दे रही है तथा संबंधों को सहज बनाने का प्रयास कर रही है। वर्तमान युग के भाव बोध को समझने और रंजीत करने की क्षमता जिन कवियों में नजर आती है उनमें से एक युवा कवि मनीष हैं।
हाल ही में उनकी दो रचनाएं ‘इस बार तेरे शहर में (2018)’ और ‘अक्टूबर उस साल (2019)’ प्रकाशित हुई हैं। दोनों रचना संग्रह भाव प्रवणता, विषय वैविध्य तथा प्रस्तुति योजना और शब्द शक्ति की दृष्टि से प्रशंसनीय हैं। इनमें जटिल यथार्थ को समेटने की शक्ति भी दिखाई पड़ती है।
‘कविताओं के शब्द’ कविता में कविता की भाषा के संवर्धन के महत्त्व व कवि की इस संदर्भ में दृष्टि स्पष्ट है। कवि काव्य की भाषा की उपयोगिता तथा संवेदनशीलता से भलीभांति परिचित है। स्त्री-पुरुष के यांत्रिक समानता के स्थान पर यथोचित समता व व्यक्तिनिष्ठता को महत्त्व दे कर स्त्रीत्व को पढ़ा गया है। ‘दुबली-पतली और उजली-सी लड़की’ ‘उसका मन’ ‘उसके संकल्पों का संगीत’ तुम जो सुलझाती हो’ यह निर्मला पुतुल के पठन के आग्रह को पूरा करने का प्रयास नजर आता है कि (तन के भूगोल से परे, स्त्री के मन की गाँठे खोल कर, पढ़ा है कभी तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..)।
युवाकवि मनीष की दोनों रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता तथा उसके उलझे सूत्रों को स्पर्श किया गया है। प्रेम और आकर्षण के कार्यव्यापार में उद्दीपन व प्रतिकर्षण के पहलू प्रकाशित होते हैं। ‘तुम्हारे ही पास’, ‘तृषिता’, ‘कही अनकही’, ‘चांॅदनी पीते हुए’, ‘गांठा की गठरी’,‘बचना चाहता हूँ’ इत्यादि में प्रेम के प्रति जैविक व सामाजिक अंतर को उद्दात्ततापूर्वक परोसा गया है। संबंधों के प्रति ‘दूरी की छटपटाहट’ तथा ‘निकटता के अनछुएपन’ को आत्मीयतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। ‘मैं नहीं चाहता था’ में प्रेम के कलंकित विजय व गौरवपूर्ण पराजय को व्यंजित किया गया है। कई स्थानों पर प्रेम श्रद्धा के स्तर छूता प्रतीत होता है। अस्तित्व की क्षणिकता व जीवन की नश्वरता में भावों व अनुभूति की शाश्वतता को कवि, ‘कि तुम जरूर रजना’ में उकेरने का सार्थक प्रयास करता है। ‘अनगिनत मेरी प्रार्थनाएं’,‘चाय का कप’ में कवि संबंधों की बुनियाद व उसके कोमलता व कांतता को प्रतिष्ठित करता है। ‘कही-अनकही’ में व्यिंतव की भिन्नता के बावजूद स्नेहशक्ति से दृढबंधित मनुष्य की विनम्र अपेक्षा झलकती है।
आधुनिक जीवन की जटिलताओं में प्रमुख है एक साथ कई भूमिकाओं को निभाना या उसमें अनुकूलतम उपलब्धि प्राप्त कर ल्ोना, कवि मनीष में ‘मौन प्रार्थना के साथ’ निष्पक्षतापूर्वक इसे समेटने और पाठकों में सहृदयता भर देने की प्रखर क्षमता है। सामाजिक आलोचनापरकता तथा व्यक्ति का इसमें उलझाव चिन्तनीय है। जो रचना संग्रह में कई बार उभर कर सामने आता है। आधुनिक जीवन का अजनबीपन, विसंगति बोध व रिक्त हृदय के त्रास में कवि ने ‘रिक्त स्थानों की पूर्ति’ जैसी रचनाएं भी हैं।
मनीष जी की कई रचनाओं में स्त्री सौंदर्यबोध व प्रेमदृष्टि छायावादी प्रतीत होती है विश्ोषकर पंत जी काव्य जैसी (सरल भौहों में था आकाश, हास में श्ौशव का संसार...)। स्निग्ध कोमल गात वर्णन व भावप्रवणता का स्तर मात्रात्मक दृष्टि से निःसन्देह कम होते हुए भी समान है परंतु ध्यातव्य है कि ‘जीवनराग’ जैसी कुछेक कविताओं को छोड़ दे तो अभिजात्यता की जगह मानक भाषा ही मिलती है। यह श्रद्धामूलक झुकाव ‘सवालों में बंधी’, ‘प्यार के किस्सों’ तथा ‘जीवन यात्रा’ में भावनात्मक पदचिन्ह छोड़ता चला जाता है।
अच्छा बिस्तर नींद की गारंटी नहीं है न ही धन सुख का है। कवि कई दैनिक जीवन की वस्तुओं जैसे ‘कैमरा’ से याद ‘पेन’ द्वारा नवीनता तथा ‘विजिटिंग कार्ड’ द्वारा मतलबी संबंधों पर व्यंग्य करते हैं।
आधुनिक साहित्य पर्यावरण चिंताओं व सतर्कतावों से भरा चिंतन बन गया है परन्तु ‘हे देवभूमि’ व ‘वह गीली चिड़िया’ में पर्यावरण भावभूमि पर समांगीकरण का प्रयास करता है। ‘अक्टूबर उस साल में’ कई कविताएं जैसे ‘मतवाल करुणामय पावस’, ‘बसंत का खाब कबीला’ में प्रकृति वर्णन व आयागमत विविधता की दृष्टि से श्रेष्ठ है। ‘भूली-भूली जनश्रुतियों ने’ में भी प्रकृति के प्रतीक बंद प्रतीत नहीं होते हैं।
अधिकांश कवियों के आरंभिक संग्रहों में स्वच्छंद भाववमन अधिक प्रदर्शित होता है परन्तु मनीष जी के संग्रह इससे भिन्न हैं जहाँ सहज भावनाओं का उच्छलन है। बावजूद इसके इसमें भाषाई साफगोई, तार्किकता व अनुभूति की विशिष्टता साहित्यिक संस्कारों से युक्त बना देती है जैसे ‘जब कोई किसी को याद करता है’, ‘जीवन के तीस बसंत’, ‘तुम मिलती तो बताता’, ‘यह पीला स्वेटर’, ‘कच्चे से इश्क’ आदि। प्रेम में अस्तित्व की अंतर्निभरता जो विलय तक पहुंचती है कहीं-हीं अचानक प्रखर हो उठती है जैसे ‘हे मेरी तुम’ रचना में हुई है।
इन काव्य संग्रहों में अन्तर्जगत की सिक्तता, मरुता और ग्रंथियाँ लंबे प्रवास पर निकल चुकी प्रतीत होती है। ‘आज मेरे अंदर की रुकी हुई नदी’, ‘विकलता के स्वप्न’,‘कृतघ्न यातना’ में कवि के उद्वेलन व संघर्ष के ताने-बाने बनते बिगड़ते गतिमान है।
मानवीय संबंधों की अनुभूती चेतना कई कविताओं में सहजता पूर्वक प्रवाहित होती गई है जो पाठकों के लिए कथ्य व कथन के अंतराल की नगण्यता के कारण अतिग्राह्य है, ‘मुझे आदत थी’ व ‘उस साल अक्टूबर’ जैसी कविताएं इस दिशा में आगे ल्ो जाती है।
कवि कलाकार होता है यह रंगरेज पाठकों के हृदय पृष्ठ पर शब्द तूलिका से मर्मस्पर्शी चित्र बनाता है। मनीष जी जैसा कवि हो और विषय बनारस जैसा शहर हो तो बस कहना ही क्या? लगता है जैसे ‘इस बार तेरे शहर में’, ‘बनारस के घाट’ देख ही आएं क्या? ‘लंकेटिंग’ फीलिंग भला कविताओं में कहाँ तक समाए? बहरहाल ‘अयोध्या’ ओर ‘मणिकर्णिका’ जैसी कविताएं पाठकों में जीवनमूल्यों के प्रति यह गहरी समझ विकसित करती है की जीवन नश्वर है और परंपरा का प्रवाह शाश्वत है।
हिन्दी प्रदेश में भाषाई क्ष्ोत्रवाद की स्थिति विचित्र है यह एक साथ जोड़ती व बाँटती है। ‘मैंने कुछ गालियाँ सीखी है’ में रचनाकार ने पाठकों को इस स्थिति में डाल दिया है जहाँ वह यथ्ोष्ट की तलाश में बेचैन हो उठता है। भाषाई तमीज हाशिए पर लटक रही है।
वर्तमान काव्य प्रवृत्तियों में प्रमुख है उत्तर छायावाद जहाँ मानव जीवन में असंगति बढ़ी है तथा गुंथ्ो हुए यथार्थ को पकड़ने की सतर्कता काव्य में भी विद्यमान है। ‘आत्मीयता’ में स्थिर मान्यताओं से जुड़ा धोखा उद्धाटित होता है। कवि मनीष ने स्थितप्रज्ञ हो इस चुनौती को स्वीकार किया है। भावना व संवेदना भी बाजारवाद से बच नहीं सकी है तथा यह भी समय व वनज के घ्ोरे में आ गया है - ‘स्थगित संवेदनाएं’ में कवि ने त्रासद मानवीय स्थिति को व्यंजित किया है। कवि हृदय की आत्मीयता व प्रेम रिश्तों की गरमाहट ‘वो संतरा’ जैसी कविताओं में दिखाई देती हैं जहाँ आत्मपरकता तथा अभिव्यंजनात्मकता दोनों ही प्रखर हैं।
बाह्य व आंतरिक स्थिति लगातर सुसंगत होने तथा एकात्मकता का आनंद उठाने के बारे में कविताओं विश्ोषकर ‘अक्टूबर उस साल’ संग्रह तथा कविता ‘वह साल वह अक्टूबर’ में उत्कृष्ट स्तर को प्राप्त करती है। जो शब्द चयन में सटीकता, संगीतात्मकता तथा वातावरण की गतिशीलता पाठकों को आकर्षित करती है। ऋतु सौंदर्य व मौसमी बहार साहित्य के लिए लम्बे समय से कच्चा माल रहा है परन्तु यहाँ यह भावों के साथ आंदोलित होता है।
स्त्री-पुरुष प्रेम व्यापार इन रचना संग्रहों में पाठकों को अधिक संस्कारित करता है तथा प्रतिशोध आधारित त्रुटि की संभावना को कम करता है। ‘बहुत कठिन होता है’ में कवि प्रेम के यथार्थ बिम्ब को प्रस्तुत करता है जहाँ एकान्तिक ठहराव मिलता है।
परिवर्तन ही शाश्वत है, हर पीढ़ी अपने संक्रमण तथा उसकी पीड़ा को ल्ोकर सजग, उत्सुक पर शिकायती रही है। ‘कुछ उदास परम्पराएं’ में परम्पराओं से विचलन तथा नई व्यवस्था के साथ सामंजस्य की कमी दिखाई पड़ती है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक मान्य माध्यम है ल्ोकिन इसमें भाषाई आवरण में अपने मंतव्य छिपा ल्ोना तथा कलात्मकता का दुरूपयोग भी नया नहीं है। भाषा कई बार विनम्रतापूर्वक अन्याय को पोषित करती है तथा उस पर प्रश्न नहीं खड़ा करती परंतु कवि भाषा के लिबास में अभिव्यक्ति की सुगमता तथा खतरे से भिज्ञ है जैसे (दरख्तों को, कुल्हाड़ी के नाखूनों पर भरोसा है)।
सभ्यता के इतिहास में अन्याय आधारित प्रथाओं को उद्दात प्रभाव प्रदान किया गया है, इसके परतों को उध्ोड़ना साहित्य का कर्तव्य है। कवि मनीष कई कविताओं में इस दिशा में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं। वर्जनाओं व सीमाओं की लकीर पर गुणा-गणित करने के बजाए इसके औचित्य पर तार्किक विचार करते हैं। साहित्य में सत्य की पड़ताल की दीर्घ परंपरा रही है, कवि मनीष ने दर्शन के वैचारिक वाद-विवाद की जगह अनुभूतिजन्य सत्य को अधिक समीचीन माना है। ‘इतिहास मेरे साथ’ कविता में सत्य के प्रति समझौता हो जाने की संभावना को उद््घाटित किया गया है। ‘गंभीर चिंताओं की परिधि में’ कवि ने वैयक्तिक चेतना को साध्य माना है। वे मनुष्य और समाज को प्रयोग शाला बना देने के पक्षधर नही हैं।
‘अक्टूबर उस साल’ की कुछ रचनाएं भविष्य में नारा बन जाने की संभावनाओं से युक्त हैं। समाज की लंबी कुलबुलाहट के बाद दबी चेतना को जैसे ही अभिव्यक्ति मिलती है वह समाज द्वारा हाथों-हाथ ली जाती है। ऐसा दुष्यंत कुमार की रचनाओं में सिद्ध भी हो चुका है। कवि मनीष जी की रचनाओं में ‘यूंतो संकीर्णताओं को’ (वहन कर रहा हूं), ‘दौर-ए-निजाम’ जैसी कविताएं वर्तमान विडम्बनापूर्ण सामाजिक स्थिति पर सटीकता से जनता का पक्ष रखती हैं तथा बाजार व सत्ता के कुचक्र में निस्सहाय व्यक्ति के सामग्री या दर्शक बन जाने की अभिशप्तता को उचित रूप में रखती हैं।
सिद्ध बहुरूपिये भूमण्डलीय बाजार ने व्यक्ति की इच्छाओं, वासनाओं व सुगमताओं को अधिक कठोरतापूर्वक परिभाषित कर लिया है, तंत्र द्वारा अव्यवस्था के प्रति व्यक्ति की सहनशीलता की सीमा को बढ़ा दिया गया है। तंत्र की जटिलता व अन्यायपरकता को समझते हुए भी व्यक्ति अभिशप्त है। इन संग्रहों में न्यूनतम शब्दों में अनुभव व चिंतन सहजतापूर्वक व्यक्त हुआ है। उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग लोक प्रचलन के अनुपात में ही प्रयोग किया गया है। अर्थों के स्तर पर पर लय व तुर्कों का सृजनात्मक रूप् उभर कर सामने आया है। बहुअर्थी प्रतीक और उपमानों की ताजगी रचना संग्रह की आकर्षक विश्ोषता है। अलक्षित, संश्र्लिष्ट व गतिशील बिम्बों का प्रयोग हुआ है जो सामग्री की ताजगी बरकरार रखती है।

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