Saturday 10 January 2009

शर्म क्यों आती नही ?

सारा देश युद्ध की दहलीज पे खड़ा है ,ऐसे मे पहले से ही मोटी तनख्वा लेने वाले तेल कंपनियों के कर्मचरियों की हड़ताल देश द्रोह से कम नही है । आप को क्या लगता है ? मेरा बस चले तो इन सभी पे देश द्रोह का आरोप लगा सलाखों के पीछे डाल दूँ । लोकतान्त्रिक अधिकारों का इस तरह दुरुपयोग करने से इसकी बुनियाद हिल जायेगी । आप की क्या राय है ?

Thursday 8 January 2009

वो भी कैसे दिन थे ----------------------

वो भी कैसे दिन थे जब हम , छुप के मोहबत करते थे
अम्मा,खाला,अब्बा सब की ,हम तो नजर बचाते थे

बीच दुपहरी छत के उपर,हम चोरी चुपके आते थे
घर के बुढे नौकर से भी ,हम कितना घबराते थे

रात-रात भर आंहे भरते,किसी से कुछ ना कहते थे
नजरो-ही नजरो मे,हम कितनी ही बाते करते थे


नाम तेरा जब कोई लेता ,हम तो चुप हो जाते थे
चुप रह कर भी जाने कैसे ,सुबकुछ हम कहते थे

वो भी कैसे -------------------------------




Tuesday 6 January 2009

प्रेम डगर मे पल दो पल

प्रेम डगर मे पल दो पल ,साथ अगर तुम मेरा देते

गीत नया मफिल मे कोई,हम भी आज सुना देते

अनजानी सी राह मे कोई ,हम दोनों फ़िर जो टकराते

नजरे झुका के अपनी तुम ,फ़िर हौले से तुम जो मुस्काते

गीत नया ----------------

बीच जवानी बचपन मे , हम दोनों जो फ़िर जो जा पते

गुड्डे -गुडियों के जैसे , हम तो ब्याह रचा लेते

गीत नया ---------------------

जितना पागल हूँ मे तेरा ,उतना तुम यदि हो जाते

एक नही फ़िर सात जनम के, साथी हम हो जाते
गीत नया -------------------------








क्या है दलित साहित्य ?

मुंबई मे एक सेमिनार मे भाग लेने का अवसर मिला ,वहा चर्चा के दौरान किसी विद्वान ने यह प्रश्न उठाया की आख़िर जिस दलित साहित्य की आज इतनी चर्चा है , वह है क्या ?
इसके लिये उन्होने कुछ विकल्प भी दिये , जो की निम्नलिखित हैं ।
१- वह साहित्य जो दलितों द्वारा लिखा गया हो ?
२-वह साहित्य जो दलित के बारे मे लिखा गया हो ?
३-वह साहित्य जो दलित के बारे मे किसी दलित द्वारा ही लिखा गया हो ?
या की ''वह साहित्य जो ख़ुद दलित हो वह दलित साहित्य है । ''
विषय पर आगे चर्चा नही हो सकी । वाद-विवाद बढ़ता गया । मगर मैं परेशां हो गया । आज जब इस के बारे मे सोचता हूँ तो लगता है की हम कब तक दूसरो की भावनावो के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे ? दलित साहित्य का प्रारंभिक समय आक्रोश का रहा अतः इन दिनों आक्रोश का साहित्य सामने आया । यह स्वाभाविक भी था । सदियों के शोषण के खिलाफ पहले आक्रोश ही दिखाई पड़ेगा । लेकिन फ़िर यह आन्दोलन आज गंभीर साहित्य की ओर अग्रसर हो रहा है । अब इस आन्दोलन के द्वारा भी लोक मंगल , समन्वय और मानवता का संदेश दिया जा रहा है । केवल विरोध के साहित्य को ख़ुद इस आन्दोलन के अंदर समर्थन नही मिल रहा है । आज बहुत बड़ा हिन्दी समाज इस आन्दोलन से जुड़कर बड़ा ही सकारात्मक साहित्य सामने ला रहा है । आदिवाशी समाज की तरफ़ से भी लोकधर्मी साहित्य सामने आ रहा है ।
इन सभी सकारात्मक स्थितियों मे अनावश्यक बातो को सामने ला कर समाज के बीच अन्तर पैदा करने का प्रयास अच्छा नही है । दलित बनाम सवर्ण साहित्य की आग इस देश के लिये अच्छी नही है , यह बात हमे समझनी होगी । प्रश्न यह नही है की हम किसका समर्थन करते हैं, बल्कि प्रश्न यह है की हम ख़ुद कौन सा समाज हित का काम साहित्य के द्वारा कर रहे हैं । रहा सवाल दलित साहित्य का तो मेरा मानना है की
'' दलित साहित्य हिन्दी साहित्य के प्रमुख साहित्यिक आन्दोलनों मे से एक है । इसकी शुरुवात यद्यपि आक्रोश और विरोध के रूप मे हुई , लेकिन आज इसका लोकधर्मी स्वरूप सामने आ रहा है । दलित साहित्य स्वतंत्रत भारत के विकास की मुख्य धारा मे शोषितों के सामिल होने का इतिहास है .दलित साहित्य समानता के अधिकारों की लडाई का साहित्य है । दलित साहित्य संघर्स , संगठन और प्रगति का साहित्य है ।''

वैसे आप की इस पर क्या राय है ?

Monday 5 January 2009

हास्य कवि बनाम हास्यास्पद कवि

मैं ख़ुद हास्य व्यंग कवि के रूप मे सालों से अपनी जेब गर्म करता रहा हूँ । मंचों की जोड़ -तोड़ से अच्छी तरह परचित भी हूँ । ऐसे मे आज कल एक सवाल तथाकथित साहित्यकार अक्सर पूछ लते हैं की हम हास्य कवि हैं या हास्यास्पद कवि ?

मुझे इस सवाल पे गुस्सा नही आता .मैं बड़ी शालीनता से कहता हूँ की हम हास्यास्पद कवि हैं.आखिर इस देश मे ऐसा बचा क्या है जो हास्यास्पद ना हो ? साहित्य सरोकारों से दूर कुछ आलोचकों की सराब और रंगीन हरी -हरी नोटों का मोहताज हो गया है । किताब छापना अब पैसो वालों का शौख हो गया है .पढ़ने वाले क्या पढ़ना चाहते हैं यह किसी से छुपा नही है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया किस तरह पूँजी की गिरफ्त मे है यह हम देख ही रहे हैं । प्रिंट मीडिया के पास विज्ञापनो से जो जगह बच जाती है, वहा कुछ ख़बर देने का प्रयास करती है ।
ऐसे मे आर्थिक परेशानियों से घिरे रचनाकार भी रूपया कमाने के लिये अगर हास्यास्पद बन रहे हैं तो इसमे ग़लत क्या है ? आप ऐसा ना करके कोण सा साहित्य अकादमी का पुरस्कार अपने नाम कर ले रहें हैं ? वैसे आजकल पुरस्कार भी किसे और क्यों मिलते हैं जह भी आपलोगों से छुपा नही है । एक सत्य यह भी है की मंचो का विरोध करने वाला एक बहुत बड़ा वर्ग ख़ुद मंचो पे सक्रीय होना चाहता है । लेकिन उनकी हालत वही है की अंगूर ना मिले तो खट्टे हैं ।
मैं यह मानता हूँ की आज KAVYA मंचो की गरिमा पहले जैसी नही रह गई है, लेकिन इस का ठीकरा केवल रचनाकारों के ऊपर नही फोड़ा जा सकता । आज की तेज रफ़्तार संवेदना शून्य आत्मकेन्द्रित जीवन शैली ही मूल रूप से इसकी जिम्मेदार है । जो हो रहा है उसका दुःख हमे भी है ,लेकिन
अपनी मर्जी से हम भी कहा सफर मे हैं
रुख हवाओ का जिधर है , हम भी उधर हैं

बाकी आप क्या सोचते हैं ?

Sunday 4 January 2009

साहित्यिक सरोकार बनाम वास्तविकता

आज कल सामाजिक सरोकारों की बात करना एक फैसन हो गया है। समाचार चैनलों की बात करे तो जी न्यूज़ पे पुन्यप्रशून वाजपेयी जी अक्सर यही जुमला सुनाते रहते हैं। लेकिन वे ख़ुद इस सन्दर्भ मे क्या करते हैं ये वो ही जाने ।
कुछ दिनों पहले फणीश्वर रेणु की धर्म पत्नी लतिका रेणु की ख़बर दिखाकर एन .डी.टीव्ही । इंडिया ने भी सामाजिक सरोकारों का रोना रोया.आप को याद होगा की वर्ष २००७ का साहित्य अकादमी पुरस्कार को प्राप्त करने वाले कथाकार अमरकांत की आर्थिक स्थिति को लेकर भी काफ़ी अपील हुई और सामाजिक सरोकारों कई नाम पे कागज रंगे गये ।
आप इन बातो को कैसे देखते हैं ?

उज़्बेकी कोक समसा / समोसा

 यह है कोक समसा/ समोसा। इसमें हरी सब्जी भरी होती है और इसे तंदूर में सेकते हैं। मसाला और मिर्च बिलकुल नहीं होता, इसलिए मैंने शेंगदाने और मिर...