Wednesday, 3 May 2023

तुम्हें शायद याद हो

 02. तुम्हें शायद याद हो ।


  तुम्हें शायद याद हो 

  नवंबर की वो मुलाकातें

  न खत्म होने वाली बातें 

  मेरे आग्रह पर

  तुम्हारे मीठे गीत 

   पुरानी बातों पर

   तुम्हारा रूठना

   मेरा मानना 

   तुम्हारे आसूं, तुम्हारी मुस्कान 

   उन सर्दियों में

   मेरी कशिश

   तुम्हारी तपिश 

   और ढेर सारे अचार के साथ

   तुम्हारे पसंदीदा 

   वो आलू के पराठे 

   तुम्हारी जानलेवा 

   नमकीन मुस्कान के साथ।

        डॉ मनीष कुमार मिश्रा 



 


  


Tuesday, 2 May 2023

विलक्षणा साहित्यिक मंच, रोहतक द्वारा आयोजित "विलक्षणा अखिल भारतीय कहानी एवं कविता प्रतियोगिता 2023

 *विलक्षणा साहित्यिक मंच, रोहतक द्वारा आयोजित "विलक्षणा अखिल भारतीय कहानी एवं कविता प्रतियोगिता 2023*" में आपकी रचनाएं आमन्त्रित की जाती हैं।


 विजेताओं को निम्न राशि के नकद पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान किये जायेंगे-


*कहानी प्रतियोगिता*


1- प्रथम पुरस्कार रुपए 2100/-

(विलक्षणा साहित्य रत्न सम्मान)


2- द्वितीय पुरस्कार रुपए 1100/-

(विलक्षणा साहित्य भूषण सम्मान)


3- तृतीय पुरस्कार रुपए 500/- 

(विलक्षणा साहित्य श्री सम्मान)


*पांच सांत्वना पुरस्कार* 


प्रत्येक रुपये 200/-

(विलक्षणा साहित्य सेवी सम्मान)


*कविता प्रतियोगिता* 


1- प्रथम पुरस्कार रुपए 2100/- 

(पंडित जगन्नाथ कवि शिरोमणि सम्मान)


2- द्वितीय पुरस्कार रुपये 1100/-

(विलक्षणा काव्य रत्न सम्मान)


3- तृतीय पुरस्कार 500/-

(विलक्षणा काव्य भूषण सम्मान)


  *पांच सांत्वना पुरस्कार* 


प्रत्येक रुपये 200/-

(विलक्षणा काव्य श्री सम्मान)


 *रचना प्रेषित करने के नियम निम्न प्रकार हैं* 


1- कहानी/कविता हिंदी भाषा में A-4 साइज पेपर पर शुद्ध रूप से कोकिला, मंगल अथवा कृतिदेव के 14 फॉन्ट साइज़ में टंकित होनी चाहिए।


 2-  कहानी (विषयमुक्त) अधिकतम 2500 शब्दों की हो।


3- कविता (विषय मुक्त) अधिकतम 20 पंक्तियों की हो। 


4- *अंतिम तिथि 31 मई 2023 के पश्चात प्राप्त रचनाओं को स्वीकार नहीं किया जाएगा।*


6- रचना के साथ स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित व अप्रसारित होने का प्रमाण पत्र आवश्यक रूप से संलग्न करना होगा।


7- रचना पर कहीं भी अपना नाम, पता, मोबाइल नम्बर अंकित नहीं करें।


8- मौलिकता के प्रमाण-पत्र के साथ ही कहानी/कविता का शीर्षक, अपना नाम, पता, मोबाइल नम्बर ज़रूर अंकित करें।


9- *सहभागिता शुल्क एक विधा के लिए 250 व दोनों विधाओं(कहानी एवं कविता) के लिए रुपये 400/- ।*


10- सहभागिता शुल्क प्राप्त होने के पश्चात ही आपको विलक्षणा अखिल भारतीय कहानी/कविता प्रतियोगिता 2023 में शामिल होने का अवसर दिया जाएगा। किसी भी परिस्थिति में शुल्क लौटाया नहीं जाएगा।


11- आप अपनी रचनाओं की हार्ड कॉपी आवश्यक रूप से *कोरियर/पंजीकृत डाक* के माध्यम से ही भेजें।


12- *इस प्रतियोगिता का परिणाम जून 2023 के अंतिम सप्ताह तक घोषित किया जाएगा। एक भव्य कार्यक्रम में इस प्रतियोगिता के विजेताओं को नकद राशि, स्मृति चिन्ह व प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित किया जाएगा तथा विजेताओं को स्वंय उपस्थित होकर यह सम्मान ग्रहण करना होगा अन्यथा चयन रद्द माना जाएगा। सभी प्रतिभागियों को प्रतिभागिता/सहभागिता का ई प्रमाण पत्र प्रदान किया जाएगा।* 


13- बाहर से आने वाले विजेताओं/प्रतिभागियों को अपने खर्चे से ही आना व जाना होगा तथा रहने की व्यवस्था स्वयं करनी होगी । 


14- *कार्यक्रम की सूचना 1 महीने पहले दी जाएगी तथा कार्यक्रम में दोपहर के भोजन की व्यवस्था संस्था की ओर से की जाएगी ।*


 15- *रचनाएं प्रेषित करने का पता-*


       डॉ विकास शर्मा C/o लक्ष्मी इलेक्ट्रिकल्स,

नजदीक केडीएम स्कूल एवं साईं मंदिर,

फ्रेंड्स कॉलोनी, सोहना - 122103

मोबाइल - 9996737200



 *रचनाएं हार्ड कॉपी में ही कोरियर या रजिस्टर्ड डाक से प्रेषित करें ।*


*रचनाएं  दिनांक 31 मई 2023 शाम 5.00 बजे तक दिये गए पते पर  प्राप्त हो जानी चाहिए।*


*सहभागिता शुल्क संस्था के खाते में जमा करें तथा स्क्रीन शॉट या रसीद की फोटो कॉपी रचना के साथ संलग्न करें।* 


*बैंक विवरण*

विलक्षणा एक सार्थक पहल समिति

खाता संख्या- 211101001641

Ifsc- ICIC0002111

Bank- ICICI

Branch- CHARKHI DADRI


*शुल्क जमा करवाकर उसका स्क्रीन शॉट या रसीद का फोटो 9996737200 पर व्हाट्सएप भी करें।* 


*निर्णायक मंडल का निर्णय अंतिम होगा।*



किसी भी जानकारी के लिए *9996737200* पर सम्पर्क करें।


         *डॉ विकास शर्मा*

        *संस्थापक-अध्यक्ष*

*विलक्षणा साहित्यिक मंच, रोहतक*


https://chat.whatsapp.com/Hx9LGbFENrL1BbsHzuopvD

केंद्रीय हिंदी संस्थान : ‘भारतीय भाषा परिसंवाद-हिंदी और तेलुगु’

 

केंद्रीय हिंदी संस्थान : ‘भारतीय भाषा परिसंवाद-हिंदी और तेलुगु’ https://telanganasamachar.online/seminar-on-indian-language-symposium-hindi-and-telugu-at-central-hindi-institute/विषयक गोष्ठी में इन बुद्धिजीवियों ने दिया यह संदेश

ग़ालिब

 #ताज_छीन_कर_क़लम_थमा_दिया


गुहर अज़ रायते-शाहाने-अजम बर चीदन्द

ब एवज़ ख़ामए-गंजीना-फ़िशानम् दादन्द

अफ़सर अज़ तारके-तुर्काने-पशंगी बुर्दन्द

ब सुख़न नासिअए-फ़र्रे-कियानम् दादन्द

गौहर अज़ ताज गुसिस्तन्द व ब दानिश बस्तन्द

हर्चे बुर्दन्द ब पैदा ब निहानम् दादन्द

~ग़ालिब


گہر از رایت شاھان عجم بر چیدند

بعوض خامہء گنجینہ فشانم دادند

افسر از تارک ترکان پشنگی بردند

بہ سخن ناصیہء فر کیانم دادند

گوھر از تاج گسستند و بدانش بستند

ھرچہ بردند بہ پیدا بہ نہانم دادند

~غالب


The pearl has been taken away from the royal standard of Persia and in exchange a pearl-strewing pen was given to me. The crown has been torn away from the head of the Turks of Pashang, and the flaming-Glory of the Kais was transformed, in me, into poetry!

The pearl was taken away from the crown and was set in wisdom: what they outwardly took away, was given to me in secret.

[ translated by Ralph Russell]

SPICMACAY is organizing its 8th International Convention

 Namaste 🙏 from SPICMACAY 🙂


SPICMACAY is organizing its 8th International Convention -

Dates : *29th May to 4th June*

Venue : *VNIT Nagpur*


*1200 Students* from 250 educational institutes across India will participate in this Residential Immersive experience and come in close interaction with the *greatest Gurus of Indian Classical Arts, Music, Dance, Folk, Crafts, Yoga* and more


We are Inviting your esteemed Institute to take this opportunity to send selected students from your institute for this 7-day experience which is completely free of cost. 


We are hosting an *Virtual Orientation for Principals, Faculty members & Educationists* on - 


*Thursday 6th April*

*Morning 10am to 11am*


*Zoom Link* - https://bit.ly/smlivezoom


We request you or any other concerned Faculty member from your Institute to join this orientation to learn more about this Convention. 


Please reply to this message confirming your presence. 


Link for registering as a participating institute( PI) for the convention : https://bit.ly/sminternationalconvention2023


If you are not able to join but are interested to know more, please reply to this message. 🙂 We will be happy to share more information. 


Thank you & Regards,

SPICMACAY


Also sharing here : 

1) Formal Invitation Letter for your Institute

2) Video Teaser of the Convention

3) Poster of the Convention

Morning Quotes

 : Waking up this morning, I smile. 24 brand new hours are before me. I vow to live fully in each moment….Good Morning 🌹

: A happy person is happy, not because everything is right in his life. He is happy because his attitude towards everything in his life is right….Good Morning 🌹🌹🌹

: Two things define you: 

1. Your patience when you have nothing. 

2. Your attitude when you have everything.

..Good Morning 🌹🌹🌹

: Most obstacles melt away when we make up our minds to walk boldly through them….Good Morning 🌹🌹🌹

: The difference between winning and losing is most often not quitting….

🌹🌹Good Morning 🌹🌹

: Courage is grace under pressure…🌹🌹Good Morning 🌹🌹:

 Never give up on a dream because of the time it will take to accomplish. The time will pass anyway….

🌹🌹Good Morning 🌹🌹

: Develop success from failures. Discouragement and failure are two of the surest stepping stones to success.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: Now that your eyes are open, make the sun jealous with your burning passion to start the day. Make the sun jealous or stay in bed.

🌹🌹Good Morning 🌹🌹:

 Nobody can go back and start a new beginning, but anyone can start today and make a new ending

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: The morning is good because we remember that no matter what went wrong the previous days, we just got a perfect opportunity to rewrite history and do better

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: "If life were predictable it would cease to be life, and be without flavor."

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: The day will be what you make it, so rise, like the sun, and burn

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹:

 Success is not final; failure is not fatal: It is the courage to continue that counts.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

 Do not go where the path may lead, go instead where there is no path and leave a trail.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: Being defeated is often a temporary condition. Giving up is what makes it permanent

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹:

 Never let the fear of striking out keep you from playing the game.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: It’s Sunday, therefore I am 100% motivated to do nothing today

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹:

 In one minute you can change your attitude, and in that minute you can change your entire day.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: An obstacle is often an unrecognized opportunity.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

 The line between failure and success is so fine... that we are often on the line and do not know it.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

 There was never a night or a problem that could defeat sunrise or hope.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: The importance of good people in our life is just like the importance of heartbeats. It's not visible but silently supports our life. 

🌹🌹Good Morning 🌹🌹

: “Be thankful for problems. If they were less difficult, someone with less ability might have your job.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: Be not afraid of going slowly, Be afraid only of standing still.🌹🌹Good Morning 🌹🌹

: People will have you, rate you, shake you, and break you. But how strong you stand is what makes you.

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: Even the smallest of thoughts have the potential to become the biggest of successes. All you have to do is get up and get going. 

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

: “It is a serious thing – just to be alive – on this fresh morning – in this broken world.”

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

 Every morning you have two choices: Continue to sleep with your dreams, or wake up and chase them

🌹🌹 Good Morning 🌹🌹

दया प्रकाश सिन्हा के जन्मदिन पर डॉ हर्षा त्रिवेदी का महत्वपूर्ण आलेख

  मंच के पुजारी : दया प्रकाश सिन्हा 

- डॉ.हर्षा त्रिवेदी 

    विवेकानन्द इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज

     नई दिल्ली 




             आज 2 मई, प्रसिद्ध नाटककार और पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार दया प्रकाश सिन्हा जी का जन्मदिन है। दया प्रकाश जी के साहित्य पर मेरा यह शोध आलेख प्रस्तुत है ।

         आदरणीय दया प्रकाश सिन्हा जी को जन्मदिन की अनंत शुभ कामनाएं।


हिन्दी साहित्य का अपना समृद्ध इतिहास है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में नाटक का महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः नाटक एक कला है। संगीत, नृत्य, चित्रांकन, रंगाकन के समान ही एक कला होते हुए भी नाट्य-कला इन कलाओं से भिन्न है। नाटक एक द्वि-आयामी कला विधा है। जो कला के साथ साहित्य भी है। कुछ नाटक ऐसे होते हैं, जो साहित्य की दृष्टि से तो श्रेष्ठ होते हैं, किन्तु रंगमंच पर उनकी प्रस्तुतियाँ असफल सिद्ध होती हैं। साथ ही कुछ नाटक ऐसे होते हैं, जो रंगमंच पर तो अत्यन्त सफल सिद्ध होते हैं, किन्तु उनमें साहित्यगत मूल्यों का नितान्त अभाव होता है। अतः नाटक की सफलता के लिए साहित्यगत मूल्यों के साथ-साथ मंचसिद्ध होना भी अनिवार्य है।  

दया प्रकाश सिन्हा हिन्दी के वर्तमान नाटककारों में एकमात्र ऐसे नाटककार हैं, जो निर्देशक के रूप में भी रंगमंच से संबंद्ध हैं। वे प्रकाशन के पूर्व, अपने नाटकों को स्वयं निर्देशित करके, मंचसिद्ध करते हैं। यही तथ्य उनको अन्य नाटककारों से अलग पहचान देता है।

दयाप्रकाश सिन्हा नाम के इस युवा कला-साधक का जन्म पश्चिमी उŸार प्रदेश के एटा ज़िले के कासगंज कस्बे में 2 मई, 1935 को हुआ। पिता श्री अयोध्यानाथ सिन्हा सरकारी सेवा में थे, और माता का नाम श्रीमती स्नेहलता। बचपन से ही सिन्हा जी की नाटक एवं रंगमंच में विशेष रूचि रही है। उनके नाटकों में इतिहास चक्र, ओह अमेरिका, कथा एक कंस की, सीढ़ियाँ, इतिहास, अपने-अपने दाँव, रक्त अभिषेक (प्रकाशित) एवं मन के भँवर, मेरे भाई : मेरे दोस्त, सादर आपका, सांझ-सवेरा, पंचतंत्र लघुनाटक (बाल-नाटक), हास्य एकांकी संग्रह, दुश्मन (प्रकाशनाधीन) आदि प्रमुख है।

सत्य-असत्य, हिंसा-अहिंसा, राजनीतिक कूचक्र, पीढी-अन्तराल आदि अनेक ऐसे प्रश्न है, जिनसे हम जूझ रहे हैं। यह हमारी ‘विशेषता‘ है या ‘विवशता‘ ? इन प्रश्नों को दयाप्रकाश जी ने अपनी समर्थ लेखन-शक्ति द्वारा रूपायित किया है। इनके नाटकों में वर्तमान घटनाक्रम को इस तरह पिरोया गया है कि पाठक के मस्तिष्क में परिस्थितियाँ जीवन्त हो उठती हैं।

सिन्हा जी समाज-इतिहास-राजनीति को दूरदर्शी यन्त्र से देखते हैं। इनके नाटकों में शाश्वत नैतिक मूल्य और समकालीन भौतिक मूल्यों के संघर्ष को रूपायित किया गया है। संरचना के स्तर पर भी दयाप्रकाश सिन्हा के नाटकों का अध्ययन महŸवपूर्ण है। रंगमंच की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए सिन्हा जी ने ऐसे नाटक लिखे जो केवल एक ही दृश्यबन्ध पर मंचस्थ हो सके। 

समकालीन विसंगत परिवेश में उलझे और परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँसकर टूटते हुए मनुष्य को वे कभी ऐतिहासिक पौराणिक संदर्भों के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं तो कभी सामाजिक विसंगतियों से सीधा साक्षात्कार भी कराते हैं। कभी व्यक्ति के अन्तर्मन और उसके स्वार्थी चरित्र को दृश्यत्व देते हैं तो कभी उनकी दृष्टि पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण से उत्पन्न असहज स्थितियों और उनके परिणामों से उत्पन्न खीझ और व्याकुलता के साथ-साथ पीढ़ियों की वैचारिक टकराहटों और हताशा पर भी केन्द्रित हुयी है। सिन्हा जी ने अपने नाटकों द्वारा व्यापक जीवन-स्थिति एवं शाश्वत जीवन मूल्यों को उद्घाटित किया है। वे वास्तव में जीवन की आस्था के नाटककार हैं। 

बाजारीकरण के इस दौर में मनुष्य की भाव संवेदनाओं में व्यापक परिवर्तन आए है। वैचारिक धारणाएँ बदली हैं। इस बदलाव के समय में साहित्य के माध्यम से सुषुप्त संवेदनाओं को पुनर्जाग्रत करने एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना में सिन्हा जी के नाटकों का विशिष्ट योगदान है।

सिन्हा जी का जीवनयापन कभी किसी लेखन पर आधारित नहीं रहा। इसलिए लिखना कभी भी उनकी विवशता नहीं रहा। यह उनकी व्यक्तिगत साधना है। उन्होंने जो भी लिखा, अपनी अन्तःप्रेरणा से लिखा उन्होंने अपने को स्थापित करने के उद्देश्य से कभी नहीं लिखा।

उनका ‘इतिहास-चक्र‘ एक युद्ध विरोधी नाटक है। यह नाटक उन कारणों का अध्ययन करता है, जिनके कारण समय-समय पर युद्ध होते रहते है। पुरातन एवं आधुनिक सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के उस अमानवीय तन्त्र को इसमें रूपायित किया गया है, जिसमें जकड़ा हुआ आम आदमी भूख, अभाव, बेरोजगारी, शोषण और वंचनाओं की मार झेलता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है। ‘ओह ! अमेरिका‘ नाटक विरोध करता है उन तमाम विवेकहीन भारतीयों का जिनके आचरण, व्यवहार एवं दिलो-दिमाग आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए हैं। नाटक में बताया गया है कि पश्चिम के मूल्यों, व्यवहार एवं संस्कृति की सार्थकता जाने बिना केवल फैशन के वशीभूत होकर उसका अन्धानुकरण नहीं किया जाना चाहिए। 

‘कथा एक कंस की‘ नाटक में कंस को गुण-दोषों सहित एक मानव के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। कंस और रावण जैसे पात्रों को हमेशा विलेन रूप में चित्रित किया गया है य किन्तु सच तो यह है कि कोई भी व्यक्ति न तो शत-प्रतिशत बुरा होता है न ही शत-प्रतिशत अच्छा। आवश्यकता है तो केवल एक नई दृष्टि की जो मानव को पूर्ण रूप में देखे।

इसी प्रकार ‘सीढ़ियाँ‘ नाटक में मुगलकालीन इतिहास के माध्यम से आज के सामाजिक-राजनीतिक समकालीन परिवेश, मूल्यहीनता, संवेदनशून्यता, एवं विकृतियों को प्रकाश में लाने की चेष्टा की गई है तो ‘इतिहास‘ नाटक में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से शुरू हुए ‘इतिहास‘ और गाँधी जी द्वारा देश के विभाजन की स्वीकृति तक के 90 वर्षों के घटनाक्रम को बड़ी कुशलता से स्थान दिया गया है। ‘अपने-अपने दांव‘ एक पारिवारिक सिचुएशनल कॉमेडी है तो साथ ही ‘रक्त अभिषेक‘ नाटक अहिंसा के आधे-अधूरे ज्ञान पर कुठाराघात करता है। 

सिन्हा जी के नाटक न केवल सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिदृश्य को लेकर लिखे गए बल्कि एक-एक कृति एक-एक प्रतिक्रिया है। साहित्यकार अपने आस-पास के परिवेश और परिस्थितियों से प्रभावित होकर साहित्य सृजन में प्रवृŸा होता है। सिन्हा जी ने भी अपने जीवनानुभवों एवं तत्कालीन परिस्थितियों से प्रेरित होकर अपने नाट्य ग्रन्थों की रचना की है।

सिन्हा जी के नाटक थियेटर के लिए ही हैं। शायद इसलिए कलाकार उन्हें मंच के पुजारी की संज्ञा देते हैं। सिन्हा जी के अनुसार- ‘‘रंगमंच अपने आप में एक लोकतांत्रिक कला है। उसे अपने साथ एक विशाल जनसमूह को लेकर चलना पड़ता है।‘‘ स्पष्ट है कि सिन्हा जी सामाजिक क्रिया की समग्रता एवं विशिष्टता पर बल देते हैं। इसलिए श्री सिन्हा व्यक्ति से ऊपर उठकर संस्था बन जाते हैं, जो अनेक कलाकारों को प्रेरणा एवं प्रोत्साहन भी देते रहते हैं।

सिन्हा जी की रचनाओं के विश्लेषण से यह लगता है कि उनका अपना एक मौलिक चिन्तन है जो कि व्यापक एवं संवेदनात्मक है।

सिन्हा जी ने न केवल राजनीतिक कूचक्र, सामाजिक विसंगतियाँ, संवेदनशून्यता, भ्रष्टाचरण, अहिंसा, युद्ध, साम्प्रदायिकता, भारत-विभाजन जैसे महŸवपूर्ण विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है बल्कि उनके निराकरण पर भी दृष्टि रखी है। उनके नाटक दुष्यन्त की इन पंक्तियों को सार्थक सिद्ध करते प्रतीत होते हैं। 

‘‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं 

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।‘‘

 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची -

1. इतिहास-चक्र - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

2. ओह अमेरिका - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली। 

3. कथा एक कंस की - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

4. सीढ़ियाँ - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

5. इतिहास - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।

6. अपने-अपने दांव - गंगा डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली।

7. रक्त-अभिषेक - सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली।

8. समीक्षायन - रवीन्द्रनाथ बहोरे, संजय प्रकाशन, नई दिल्ली।

9. दयाप्रकाश सिन्हा : नाट्य रचनाधर्मिता - प्रो. ए. अच्युतन, परमेश्वरी प्रकाशन, नई दिल्ली।


डॉ.हर्षा त्रिवेदी 

सहायक आचार्य

विवेकानन्द इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज

नई दिल्ली।

Malegaon film Management


 

अलंकार सिद्धांत


 

रीति सिद्धांत और संप्रदाय


 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल


 

National Education Policy


 

Saturday, 29 April 2023

Postcolonialism - Dr Manisha Patil

 Postcolonialism

Colonialism

The entire history of the civilized world is in a sense the history of colonization. Colonization means the dominance of a strong nation over a weaker one. Colonialism happens when a strong nation sees that its material interest and affluence require that it expand outside its borders. Colonialism is the acquisition of the colonialist, by brute force, of extra markets, extra resources of raw material and manpower from the colonies. Since the ancient times wars are being fought to conquer lands and people. The conquerors have written the history praising their individual valor and cultural superiority and condemned the conquered as savages in need of control. While constructing this false textual discourse the conquerors have ignored their own atrocities against the larger humanity. For instance, the great ancient civilizations like Greeks, Romans, and Egyptians had open slavery. During the Middle Ages, crusades were fought in the name of religion but undoubtedly their main cause was material gain. In the modern era, we saw the full-fledged European colonization of the world which by the 1930s covered almost 84.6 per cent of total land surface. However what marks off modern European colonization from the earlier colonizations is not just its geographical sweep but more than that its rationalist mode. In modern colonization, power changed its style – in place of the earlier ‘bandit mode’ which was more violent but nonetheless transparent in its self-interest, greed and rapacity, the new rationalist mode ‘was pioneered by rationalists, modernists and liberals who argued that imperialism was really the messianic harbinger of civilization to the uncivilized world.’1 The white European male colonialist, while plundering the natives and territories of the colonies, fully convinced himself that he stands on high moral grounds. His basic assumptions in defense of his actions were:

The colonized are savages in need of education and rehabilitation 

The culture of the colonized is not up to the standard of the colonizer, and it’s the moral duty of the colonizer to do something about polishing it. 

The colonized nation is unable to manage and run itself properly, and thus it needs the wisdom and expertise of the colonizer. 

The colonized nation embraces a set of religious beliefs incongruent and incompatible with those of the colonizer, and consequently, it is God’s given duty of the colonizer to bring those stray people to the right path. 

The colonized people pose dangerous threat to themselves and to the civilized world if left alone; and thus, it is in the interest of the civilized world to bring those people under control. 

The white European male systematically developed a colonial discourse which cuts across all the disciplines – science, mathematics, history, geography, literature, anthropology etc. – to develop an imperial mind set. He constructed his ‘self’ as a rationalist human (the famous quote of Descartes goes: ‘I think therefore I am’) capable of taking up new challenges, solving nature’s mysteries and on the account of his superior knowledge and cognitive faculties destined to rule the entire world. Then he developed an imperial ideology which worked at various levels. First of all, he attempted to degrade and then systematically wipe out the local languages and impose the language of colonizer. Then he degraded the local cultures including local religion, literature and even race. Then came mapping the territory – acquiring total knowledge of the landscape (including its people) and using that knowledge to control the territory. Unlike the earlier conquerors, say Alexander the Great who set out to win the world without knowing it, modern European conquerors first acquired the knowledge of their colonies and only then ventured to capture actual political power. Finally, they brought about textual reinforcement of the territorial possession by writing about the colonized land and people justifying their subjugation as mutually beneficial to both colonizer and colonized. In other words, the white Europeans adventurously penetrated into the so-called underdeveloped countries in Africa and Asia and new worlds of America and Australia, dominated the land and subjugated the natives, imposing their will at large on them. They eroded the natives’ cultures and languages, plundered the natives’ wealth and established their orders based on settlers’ supremacy.

Dr Manisha Patil 

Thursday, 27 April 2023

कहीं तो हो तुम काव्य संग्रह की समीक्षा


 

लौट के आना कविता संग्रह की भूमिका

 डॉ. हर्षा त्रिवेदी को उनके काव्य संग्रह लौट के आना के लिए बहुत सारी बधाई । आप की फुटकर कविताओं को पढ़ने का मौका पत्र पत्रिकाओं एवं सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार मिलता रहा है लेकिन कविताओं का पूरा संग्रह पढ़ना किसी दावतनामे से कम नहीं। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि परिष्कार और परिमार्जन की एक लंबी यात्रा कवयित्री के रूप में आप पहले ही पूरी कर चुकी हैं अतः अपनी ही रचनाधर्मिता को संवेदना के धरातल पर अग्रगामी बनाने का यह नया और महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। एक ऐसा पड़ाव जहां से आप अपनी एक नई सृजनात्मक यात्रा शुरू करें, पूरे विश्वास, लगन और सकारात्मक ऊर्जा के साथ । हमारे साहित्यिक पुरखों की जो थाती हमें मिली है उसमें अपने विनम्र प्रयासों का एक पुष्प अर्पित करने जैसा शुभ भाव । 


लौट के आना कविता संग्रह की कविताओं में बिम्बों, प्रतीकों, यूटोपिया और चित्रात्मकता की कोई कमी नहीं है।

भाषा का सहज,सरल और सपाट भाव हमें इन कविताओं के अर्थ बोध की रोमांचक यात्रा कराने में सहायक सिद्ध होता है। यहां किसी वाद विशेष की चौहद्दी नहीं है अतः कवयित्री के सभी राग विराग बड़े खुले और चटक रंगों की तरह निखर कर हमारे सामने आते हैं। ये कविताएं मन के भावों के इंद्रधनुष जैसे हैं । संकीर्णताओं का दहन एवं मानवीय मूल्यों का वहन करती हुई कवयित्री किसी कुशल रंगरेज की भांति अपने भावों को शब्दों के माध्यम से कुशलता एवं निपुणता के साथ साकार करती हैं। उनके कैनवास पर सबसे चटकीले रंग प्रेम और करुणा के हैं । बिना किसी लाग लगाव के आप लिखती हैं कि -


अभी भी 

मन करता है कि

लौटूँ तुम्हारे पास 

और छलकी हुई 

तुम्हारी आँखों को 

अपने ओठों से पी लूँ । 



समीचीन परिस्थितियों का सूक्ष्म आंकलन करते हुए साधारण सी दिखनेवाली बात को भी आप असाधारण तरीके से शब्दबद्ध करती नज़र आती हैं। आक्रोश, आडंबर और अनावश्यक नुक्ताचीनी की जगह सौम्यता, सरलता, प्रतिबद्धता और संकल्पशीलता को आप अधिक महत्व देती हुई दिखाई पड़ती हैं। इतिहास के बियाबान में भी आप खोए हुए रिश्तों का रेशम तलाश कर मौन संवाद की संभावनाओं को साकार करती हैं। 


इतिहास के बियावान से 

तरह-तरह की 

आवाज़ें आती हैं 

और जब 

लौटती हूँ उनकी तरफ़ तो 

घास के तिनके 

किसी खोये हुए रिश्ते के 

रेशम की तरह लगते हैं 

उम्मीदें जगाते हैं 

पत्थरों के निशान 

बंदिशें तोड़ देते हैं 

फ़िर 

इनसब की उपस्थिति में 

सृष्टि के ताप से 

मौन संवाद करती हूँ ।


ये कविताएं मानवीय सपनों का मानो कोई शामियाना हों। प्रकृति, पर्यावरण, पशु, पक्षी, खेती किसानी, गांव, शहर और संसद के गलियारे तक की पूरी यात्रा आप इन कविताओं के माध्यम से कर सकते हैं। हाइकु जैसी विधा को अपनाकर आप ने अपनी आकाशधर्मी एवं प्रयोगवादी सोच का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। हिंदी में हाइकु लिखने वाले लोग बहुत कम हैं । उस कमी को आप की नई साहित्यिक आमद से बल मिलेगा । आप के हाइकु जीवनानुभव में पगे हुए हैं। उदाहरण देखें -


बड़े आदमी

ताड़ के पेड़ जैसे

तने रहते ।


आतंकवाद

कृत्रिम आपदा है

इससे बचो।



उम्मीद की नई उर्वरा भूमि के रूप में मैं आप की कविताओं की लेकर आशान्वित एवं हर्षित हूं । आप की कविताओं को पढ़ते हुए यह यकीन हुआ कि कविता न केवल भाषा में आदमी होने की तमीज है बल्कि आदमी को आदमी बनाए रखने की जद्दोजहद का जीवंत दस्तावेज भी है। इसी बात को कवि कमलेश मिश्र कविता में दर्ज करते हुए लिखते हैं कि -

माना कि आखों में रोशनी नहीं

पर रोशनी का संकल्प तो है

हम भी रोशनीवाली

कोई नई व्यवस्था बनाएंगे

कुछ नहीं तो

कैनवस पर ही सूरज उगायेंगे।

एक बार पुनः डॉ. हर्षा त्रिवेदी को इस काव्य संग्रह के लिए हृदय से बधाई । मुझे पूरा विश्वास है कि आप अपनी काव्य यात्रा की निरंतरता को बरकरार रखते हुए, इन कविताओं तक पाठकों को बार बार लौट के आने के लिए प्रेरित करती रहेंगी ।




Monday, 24 April 2023

राजस्थानी सिनेमा का इतिहास

 राजस्थानी सिनेमा का इतिहास ।

 मित्रों

सादर प्रणाम,

      आप को सूचित करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि "राजस्थानी सिनेमा का इतिहास ।" इस शीर्षक के साथ एक ISBN पुस्तक प्रकाशित करने की योजना है। इस पुस्तक हेतु आप अपने आलेख भेज सकते हैं ।  पुस्तक प्रकाशन की जिम्मेदारी Authors Press, New Delhi ने ली है। 

प्रकाशन का खर्च SEWA संस्था, कल्याण द्वारा वहन किया जाएगा अतः किसी तरह की सहयोग राशि किसी को नहीं देनी है।

         आप से अनुरोध है कि  राजस्थानी सिनेमा, राजस्थान के किसी फिल्म विशेष, उसके वैचारिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य इत्यादि से संबंधित अपना मौलिक एवं अप्रकाशित आलेख यूनिकोड मंगल में फॉन्ट साइज़ 12 में भेजने की कृपा करें। आप अपने आलेख की word file भेजें न कि PDF. आलेख 30 मई 2023 तक manishmuntazir@gmail.com  इस ईमेल आईडी पर प्रेषित कर दीजिए । 

      

आलेख लिखने के लिए कुछ  उप विषय :

राजस्थानी सिनेमा का इतिहास

राजस्थानी सिनेमा का प्रदेय

राजस्थानी सिनेमा के नायक 

राजस्थानी सिनेमा की नायिकाएं

राजस्थानी सिनेमा में स्त्री चित्रण

राजस्थानी सिनेमा में गीत संगीत

राजस्थानी सिनेमा बनाम राजस्थानी संस्कृति

राजस्थानी सिनेमा का भाषाई स्वरूप

राजस्थानी सिनेमा और फिल्म प्रबंधन

राजस्थानी सिनेमा का आर्थिक ढांचा

राजस्थानी सिनेमा और कालबेलिया नृत्य

राजस्थानी सिनेमा में चित्रित ग्रामीण जीवन

राजस्थानी सिनेमा में चित्रित शहरी जीवन

राजस्थानी सिनेमा में चित्रित आदिवासी समाज

राजस्थानी सिनेमा और धार्मिक फिल्में

राजस्थानी सिनेमा और रंगबोध

राजस्थानी सिनेमा का सामाजिक प्रदेय

राजस्थानी सिनेमा और सरकारी प्रोत्साहन

राजस्थानी सिनेमा बनाम क्षेत्रीय अस्मिता 

राजस्थानी सिनेमा से जुड़े अकादमिक कार्य

राजस्थानी सिनेमा संबंधी साहित्य

राजस्थानी सिनेमा का व्यवसायिक स्वरूप 

राजस्थानी सिनेमा पर हिंदी फिल्मों का प्रभाव

राजस्थानी सिनेमा के फिल्म निर्देशक

राजस्थानी सिनेमा पर बाजार का प्रभाव

राजस्थानी सिनेमा और तकनीक 

राजस्थानी सिनेमा से जुड़े मुख्य आयोजन

राजस्थानी सिनेमा और OTT 

राजस्थानी सिनेमा से जुड़े ब्लॉग एवम वेब साइट

राजस्थानी सिनेमा और लोक कलाएं

राजस्थानी सिनेमा का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप

राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़ी राजस्थानी फिल्में

पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी राजस्थानी फिल्में

( इन उप विषयों के अतिरिक्त भी आप राजस्थानी सिनेमा के किसी पक्ष को लेकर अपना आलेख भेज सकते हैं)

इस संदर्भ में जो साथी कुछ और जानना चाहते हों उनसे अनुरोध है कि वे व्यक्तिगत रूप से मैसेज या फोन करें ताकि समूह के अन्य सदस्यों को परेशानी न हो ।


धन्यवाद ।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा

डॉ हर्षा त्रिवेदी 

Mobile number

9082556682

8090100900


Email

manishmuntazir@gmail.com

Sunday, 23 April 2023

लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है" डॉ. अनन्त द्विवेदी

  "लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है"

                                                                                   डॉ.  अनन्त द्विवेदी



                                                                                    के. जे सोमैया महाविद्यालय,

                                                                                    विद्याविहार, मुंबई–77


21 वीं सदी के दूसरे दशक का अंतिम दौर, हिंदी कविता में एक नए कवि की आमद , एक ज़रूरी आमद। आखिर ऐसी आमदें ज़रूरी क्यों हो जाती हैं, कि कविता इतिहास ना हो जाये।  बीते सालों में मनीष के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 2018 में ' इस बार तुम्हारे शहर में ', और 'अक्टूबर उस साल' 2019 में। एक सर्जनशील के लिए बीतते जाने के बाद, बीते हुए में लौटने की क्रिया जीवन व्याकरण की सबसे जटिल क्रिया है। कविताओं का सृजन अनिवार्य क्यों हो जाता है किसी के लिए? पहले से ही इस सवाल का जवाब, जाने कितने काव्यशास्त्रियों ने दिया है। अपने-अपने आग्रह हैं, पर इन संग्रहों की कविताओं को पढ़ते हुए साफ तौर पर यह भाँपा जा सकता है कि यह अपनी घुटन से पार पाने की जद्दोजहद है, मुक्ति की कोशिश है। यह अपनी तरह का मोक्ष है, यशलाभ और अर्थलाभ से परे का जगत तलाशती कविताएँ हैं। संवेदनाएं हजारों साल से चली आ रही हैं, वही, बार-बार अपने को दुहराती हुई। उनमें नयापन कवि का अपना निजी होता है, भाषा की तरफ से भी और संवेदना के उस पक्ष की तरफ से भी कि, जिसे जिया गया हो। ऐसी संवेदना और अभिव्यक्ति का स्वागत करने को जी चाहता है, जो बेहद आत्मीय और अपनी लगती है। अनुभूति बेहद गहन और अभिव्यक्ति बेहद सहज है। कविता के इस घटाटोप में स्वागत है, ' मनीष '। हिंदी कविता की एक लंबी परंपरा है। ना अच्छे कवियों की कमी रही, ना अच्छी कविता की कमी रही , पर कुछ नया आता रहना चाहिए। समय के साथ ताल से ताल मिला कर चलने में आसानी होती है , समय-संदर्भों को समझने में आसानी होती है।

 कविता में सबसे पहले खुद की और फिर समाज की खंगाल होती है। इन कविताओं में जीवन को पलट-पलट कर देखने की जद्दोजहद है। क्या कविता से किसी को जाना जा सकता है, तो उत्तर है- हां। कविता जब अंतरंग होती है, तब अतीत में खुद की खोज की कोशिश है, कविता जो जीने से छूट गया है, उसे जीने की कोशिश है - फिर-फिर, बार-बार। इन कविता-संग्रहों की कविताएं जिंदगी में खुद को ढूंढने की, खोजने की कविताएं हैं। हालांकि 'लौटना' जीवन व्याकरण की सबसे कठिन क्रिया है। और हाँ, समय-साक्षी होने की भी। कविता में इतनी पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए कि सारे अर्थ, सारा वजूद उन पंक्तियों में ही पैठा हो जिसे हम साफ-साफ देख सकें। इन संग्रहों की कविताएं पारदर्शी कवि के पारदर्शी जगत को पारदर्शिता से सामने रखती हैं। रिश्तो की एक गजब कशिश है इन कविताओं में। प्रेम है , ' विशुद्ध और विकाररहित ', रिश्ते हैं - अपनी रेशमी रूमानियत और प्रगाढ़ आस्थाओं के साथ। कविता लिखे जाने का सबसे बड़ा कारण क्या होता है? दरअसल कविता में कवि खुद से संघर्षरत होता है। उसका संघर्ष कभी व्यक्तिगत होता है और कभी समाजगत। हालांकि व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता, सब कुछ समाज का ही है। दरअसल हम समाज का होकर ही जी सकते हैं, कोई और रास्ता बनता ही नहीं है। कुतर्क चाहे जितने भी कर लिए जाएं, पर सच यही है।

कविताएं बेहद जीवंत हैं और इनमें अपनी तरह का तनाव है, जिंदगी की छोटी-छोटी मासूमियतें हैं। यह कविताएं रिश्तों से भी रूबरू होती हैं, और अपने माहौल  की भी बातें करती हैं। इन कविताओं में रिश्ते अपनी तरह से परिभाषित होते हैं। रिश्तो में प्रेम है, बेहद आत्मीय और साथ ही अपरिभाषित भी। कविता में यह जरूरी भी है। यह संवेदना और यह अभिव्यक्ति, बहुत सारी कविताओं में है। लगातार बनावटी और संवेदनहीन होते जा रहे रिश्तो की साफगोई से शिकायत भी है। नई सदी में  चीजें  जिस तरह से बदली हैं  और उन्होंने  लोगों के जीने और सोचने को बदला है,  उस संदर्भ में  रिश्तो के बीच,  परस्पर संवेदनाओं के बंध कमज़ोर हुए हैं,  एक रिक्ति पैदा हुई है,  जिसे  अभिव्यक्त करने में  यह कविता  बड़ी समर्थ है। इस माहौल में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच बढ़ते फासले और अजनबी होते एहसास इस  शब्द चित्र में ढल गए हैं -

      एक शाम / इच्छा हुई कि / किसी से मिल आते हैं /  किसी के यहाँ हो आते हैं / लेकिन किसके? /  टेबल पर रखे /

      सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स में से / एक भी ऐसा ना मिला / जिससे मिल आता / बिना किसी काम / बस ऐसे ही /

        सिर्फ मिलने के लिए / ऐसा कोई नहीं मिला।                              (विज़िटिंग कार्ड्स)1

इस अफ़सोस का पूरा वहन इस कविता में उपस्थित है। सन 1991 के बाद भारत में बहुत सारे क्रांतिकारी आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बदलाव हुए। बदलावों का यह पल्लव आने वाले दस-पन्द्रह सालों में बड़े पेड़ में तब्दील हो गया और इसके साथ देश में भाव-भावना के स्तर पर बड़े गंभीर परिवर्तन हुए। जो इन परिवर्तनों के गवाह हैं, वो जानते हैं कि उनका नीतिशास्त्र अब मर चुका है। इस संवेदना को कवि ने 'जूते' कविता में अभिव्यक्ति दी है। व्यक्ति की संवेदना और फिर अपने समय की संवेदना को महसूस करना और व्यक्ति और व्यक्ति तथा व्यक्ति और नियति के संबंधों को इतनी सूक्ष्म दृष्टि से मूल्याँकित करना कि जो कौंध बनकर चमक जाए और लगे कि यह कौंध हमारे भीतर ही कहीं है -

                   घिसे हुए 

                          जूते 

                   और 

                   घिसा हुआ आदमी 

                   बस एक दिन

                  'रिप्लेस' कर दिया जाता है 

                   क्योंकि 

                            घिसते रहना 

                   अब किस्मत नहीं चमकाती ।                                                 (जूते)2

मूल्यों को अपनी तरह से परिभाषित करने का, एक नई नजर से देखने का प्रयास है, ' जूते '।  बहुत सारी कविताएं खुद की बुद-बुदाहट और बड़-बड़ाहट भी हैं, जिनमें विचार है और अपना दर्शन है, जो समकालीन जीवन से कुछ नया लेकर आया है। कुल मिलाकर मनुष्य हजारों साल से कविता के संसर्ग में है। मूल भावनाएं वही हैं, परिवेश बार-बार बदलता है और कविता को नए संदर्भ देता है, नई भाषा देता है और नए अर्थ से भर देता है। मनीष के साथ भी ऐसा ही है मूल भावनाएं वही हैं, बदलते परिवेश में कविता को नए संदर्भ दिए हैं, नई भाषा दी है और नए अर्थ भी ।

जीवन और दर्जे की परीक्षा में एक बड़ा फर्क है, दर्जा पास करने के लिए पहले एक निर्धारित पाठ्यक्रम से होकर गुजरना पड़ता है और फिर परीक्षा होती है। जीवन में पाठ्यक्रम निश्चित नहीं होता और परीक्षा भी पहले होती है। समकालीन जीवन में ' रिक्त स्थानों की पूर्ति ' का जो संकट उपस्थित है, उसको अभिव्यक्ति देती यह कविता - कि प्रश्नपत्र में " रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए " वाला प्रश्न बड़ा आसान लगता था, उत्तर या तो मालूम रहता या फिर ताक-झाँक से पता कर लेता, गुरुजी की नजरें बचा, किसी से पूछ भी लेता और रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाती। पर अब, जब बात ज़िंदगी की है - 

                    लेकिन आज 

                    जिंदगी की परीक्षाओं के बीच 

                    लगातार महसूस कर रहा हूँ कि - 

                    जिंदगी में जो रिक्तता बन रही है 

                    उसकी पूर्ति 

                    सबसे कठिन, जटिल और रहस्यमय है।

                                                                                             ( रिक्त स्थानों की पूर्ति )3

इन संग्रहों की कविताओं में समय की खरोंचों की सहलाहट भी बार बार मिलती है। दरअसल विचार और दर्शन की पुष्टि के लिए अतीतोन्मुखी होना जरूरी होता है। अतीत के गर्भ में भविष्य के लिए बहुत कुछ छुपा होता है, जिसमें महत्वपूर्ण जो कुछ भी है वह बार-बार स्मृति पटल पर आता है। सबके साथ यही होता है पर यह कवि होता है जो उन खरोंचों से विचार और दर्शन की परतें निकाल कर कविता की शक्ल में अंजाम दे पाता है। यह खरोचें मनीष की कविताओं में जगह-जगह मिलती हैं । आज के समय में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच की जो पहचान है, वह पहले से कितनी जटिल हो चुकी है कि जानने और मानने - दोनों के लिए मायने भी अलग-अलग हैं। यह व्यक्ति के भीतर की जटिलता है जो उसे सरल नहीं रहने देती -

                   तुम्हें / जितना जाना / उतना ही उदास हुआ /

                   लेकिन / तुम्हें जानने / 

                   और /

                   तुम्हें मानने के / व्याकरण / अलग हैं।                               ( तुम्हें मानने के)4

 इन कविताओं में संवेदना बिल्कुल निजी बनकर उभरी है या हम कह सकते हैं की नजरों से अलग हटकर उन्होंने अपने माहौल को महसूस किया और उसे कविता में शब्द दिए कविताओं को एक संभावना बनाने की कोशिश है उनकी, और वह संभावना पूरे मानवी इतिहास और वर्तमान से प्रेरित हो, भविष्य की संभावना है - 

              क्या ऐसा होगा कि / आदमी और शब्दों की / किसी जोरदार बहस में /

              शामिल हों कुछ /  मेरी भी / कविताओं के शब्द ।

              मुट्ठियाँ जहाँ /  बंध गई हो / शोषण के खिलाफ / वहाँ रुँधे गले को /

              वाणी देते हुए / उपस्थित हों /  मेरी भी / कविताओं के शब्द ।

              विचारों के / विस्तार की / भावी योजनाओं में /  मानवता के पक्षधर बनकर /

              उपस्थित रहे / मेरी भी /  कविताओं के शब्द ।

                                                                                        (कविताओं के शब्द)5

मानवीय संवेदनाओं से परिचित होने के लिए और पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करने के लिए कवि को विमर्शों की दरकार नहीं है। स्त्री, धरा की बेहद संवेदनशील शक्तिरूपा है।  विमर्शों के इस दौर में, विमर्श से परे हटकर, उसका मूल्यांकन, उसकी शक्ति का मूल्यांकन, उसकी शक्ति संभावना का घोष, बिना विमर्श की परिभाषा में शामिल हुए भी कितना सार्थक है -

              तुम / औरत होकर भी / नहीं नहीं /

              तुम औरत हो / और / होकर औरत ही /

              तुम कर सकती हो / वह सब / जिनके होने से ही /

              होने का कुछ अर्थ है / अन्यथा / जो भी है /

              सब का सब / व्यर्थ है।                                              (तुम जो सुलझाती हो)6

साहित्याकाश में उपस्थित बहस-मुबाहिसों की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता का ज़रूरी सवाल भी अपने तरीके से हल हुआ है इन कविताओं में। बात करने और कहने के लिए झण्डे और बैनर की अपेक्षा नहीं है, मानवीय होना या मनुष्य होकर इन सवालों से दो-चार होना कवि को कहीं ज्यादा जरूरी लगता है - 

                अप्रासंगिक होना / उनके हिस्से की / सबसे बड़ी त्रासदी है /

                तकलीफ और विपन्नता / से क्षत-विक्षत / उनकी उत्सुक आंखें /

                दरअसल / यातना की भाषा में लिखा /

                चुप्पी का महाकाव्य है /

                आज के इन तथाकथित विमर्शों में / शायद / इनकी झलक हो । 

                                                                                     (गंभीर चिंताओं की परिधि)7

अपने समय की बौद्धिक सरणियों से इस तरह गुजरना दुस्साहस है, और एक कवि को इस दुस्साहस के लिए हमेशा तैयार भी रहना चाहिए यही उसके होने की सार्थकता है। खुद से एकालाप करती कविताओं के साथ-साथ, अपने समय से संवाद करती, सवाल जवाब करती ऐसी कविताएँ इन संग्रहों में काफी हैं, संख्या की दृष्टि से नहीं बल्कि सार्थकता की दृष्टि से। कहन और बनाव में सशक्त, पूरी विनम्रता और धीरता से बात करती हुई, अपने पिछले और साथ चल रहे को तौलती हुई।

कवियों और लेखकों का कुछ जगहों से भावनात्मक और रचनात्मक जुड़ाव काफी अहम होता है। मनीष की कविताओं में पूर्वी उत्तर प्रदेश, खासतौर पर बनारस और अयोध्या इसी तरह से आए हैं। बनारस पर आधारित 'मणिकर्णिका', ' लंकेटिंग ', ' बनारस के घाट ' आदि कविताएँ हैं, जिनमें पूरा बनारस धड़कता दिखाई देता है। रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजें हैं, और वहाँ का परिवेश, जो इन जगहों को जीवंत बनाता है। कवि की सूक्ष्म दृष्टि से इनके बेजोड़ शब्दचित्र निर्मित हुए हैं। ' लंकेटिंग'  बनारस के लंका मोहल्ले में होने वाली सुबह शाम की तफरी को दिया गया स्थानीय लोगों का नाम है। और इस तफरी को वहाँ का परिवेश तो जीवंत करता ही है, बाकी जो है वह - 

                   छात्रों प्राध्यापकों / की राजनीति / यहां परवान चढ़ती है /

                   इश्कबाज / चायबाज और / सिगरेटबाजों के दम पर /

                   यह लंका रात भर / गुलजार रहती है। 

                   ----------------–----------------

                   यह लंका / और यहाँ की लंकेटिंग / मीटिंग, चैटिंग, सेटिंग /

                   और जब कुछ ना हो तो / महाबकैती /

                   सिंहद्वार पर धरना-प्रदर्शन / फिर पी.ए.सी. रामनगर / 

                   और पुलिस ही पुलिस ।                                                               (लंकेटिंग)8

ऐसे ही बनारस के प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का यह दृश्य और मणिकर्णिका से जुड़ी यह संवेदना - 

                   यह मणिकर्णिका / बनारस को / महा श्मशान बनाती है /

                   मोक्ष देती मृत आत्माओं को / 

                   तो पूरे बनारस के / पंडे-पुरोहितों को आश्वस्त भी करती / 

                   जीवन पर्यंत / जीविकोपार्जन की / निश्चिंतता के प्रति भी।          (मणिकर्णिका)9


इन संग्रहों की कविताओं में प्रेम और रिश्तों की रेशमी गर्माहट भी है। प्रेम की अन्तरंगता बड़ी मधुर है। उसमें परिणय-भाव है, उन्मुक्तता है, डूबने की चाह है और कुछ है जो बड़ा मधुर है - 

                  मैंने कहा - / तुम जब भी रूठती हो / 

                  मैं मना ही लेता हूँ / चाहे जैसे भी ।

                  वह बोली - / तुम मना नहीं लेते /

                  मैं ही मान जाती हूँ / चाहे जैसे भी ।                                            (तृषिता)10

ऐसे ही ना जाने कितनी कविताएँ इसी  तपिश से सीझी हुई हैं - 'तुम्हें मानने के' , ' तुम्हारे ही पास ', 'चाय का कप ', ' मोबाईल ', ' वो मौसम ', ' आजकल ये पहाड़ी रास्ते ', ' तुम मिलती तो बताता ', 'आज मेरे अंदर रुकी हुई एक नदी' , ' ज़िक्र तेरा आ गया तो ', ' प्यार में ', ' बहुत कठिन होता है ' आदि।

मनीष की कविताओं में प्रेम की एक नई रवानी महसूस करने को मिल जाती है प्रेम की कैशोर्य बीहड़ता और विनम्र, सधी हुई वयस्कता इन कविताओं की शक्ति है -

                  अब लड़ रहा हूँ / अपने आप से / एक लड़ाई जिसमें /

                  हार निश्चित है मेरी क्योंकि / प्रेम में / जीत जाना  -  कलंक है। / 

                  समय ने / तुम्हारे सामने / शायद इसलिए ही / खड़ा कर दिया था /

                  ताकि / सीख सकूँ /  मैं भी प्रेम। 

                                                                                                 (मैं नहीं चाहता था)11

मनीष की कई कविताओं में माँ और ममता की विषय बने है। ' माँ ', ' यह पीला स्वेटर ', ' माँ ! तो वो तुम ही थी ', ' लड्डू' जैसी कई कविताओं में जीवनदात्री और पुत्र के एकालाप की गहन अनुभूति देखने को मिलती है। ' माँ ' शब्द पूरी तरलता के साथ उनकी कविताओं में उपस्थित है -

                 माँ ! / तो वो तुम ही थी / जो दरअसल नहीं थी /

                 पर थी शामिल / मुझमें और / मेरी तमाम संभावनाओं में / 

                 जटिलताओं, विपदाओं के बीच / आशा की एक किरण / 

                 मेरी जीत और हार के बीच / 

                 जीत पर तिलक लगाते / हार पर दुर्बलताओं को दुलराते।

                                                                                              (माँ ! तो वो तुम ही थी)12

ईश्वर जब रिश्तों पर पूर्णविराम लगाता है तो जो खालीपन पैदा होता है, वो फिर आजीवन रिक्त ही रहता है। माँ का जाना, क्या होता है -

               मैं जब उठा तो / माँ रोज़ की तरह चाय नहीं लायी थी /

               ना ही वह / पूजाघर में थी /

              वह पड़ी थी / निष्प्राण !! / एकदम शांत /

              जैसे लीन हो / किसी तपस्या में । /

              लेकिन माँ को / तपस्या की क्या ज़रूरत पड़ी ? /

              वो तो खुद ही / एक तपस्या थी ।                                                          

              -------------------------

              अब सही-गलत क़दमों पर / कोई रोकेगा-टोकेगा नहीं /

              शिकायतें / कहने - सुनने की /

              सबसे विश्वसनीय जगह / खत्म हो चुकी थी ।                                            (माँ)13

न जाने कितने कवि हर साल साहित्य-पटल पर अपने हस्ताक्षर करते हैं। अपनी संवेदनाएँ कविता की शक्ल में अंकित करते हैं। पर कुछ ही होते हैं, जिनमें लंबे समय तक रह पाने की संभावना और गुंजाइश होती है। यह दोनों कविता संग्रह आश्वस्त करते हैं कि हिंदी को जो नया मिला है, वह संचनीय भी है, और सराहनीय भी। कविताएँ बेहद आत्मीय हैं, और ऐसे रूबरू होती हैं, जैसे अंतरंगता में बातचीत हो रही हो। यह सारी कविताएं खुद की तलाश की कविताएँ हैं। और खुद से संवाद करती कविताएँ हैं। इनमें क्षणों की संवेदनाएँ भी हैं, और बरसों की सुलगती अपेक्षाएँ भी हैं। खुद से बातें करती यह कविताएँ स्व-जगत में विचरण करती कविताएँ हैं, पर हमें तो अभी कवि में और विस्तार चाहिए। भाव-जगत और अभिव्यक्ति में विस्तार चाहिए। स्व-जगत से निकलकर पर-जगत में ऐसी ही गहनता चाहिए।

' इस बार तुम्हारे शहर में ' सन 2018 में प्रकाशित हुआ और ' अक्टूबर उस साल ' सन 2019 में प्रकाशित हुआ। 2020 का इंतज़ार भी खत्म होना चाहिए। लगातार दो कविता पुस्तकें, बधाई तो बनती है। सिर्फ पुस्तकों का आना बधाई के लिए काफी नहीं है, बल्कि बधाई इस बात के लिए कि कविता में एक संतोषपूर्ण संभावना पैदा हुई है। एक संभावनापूर्ण कवि और उसके कवित्व से अब हम और उम्मीदें तो लगा ही सकते हैं।









संदर्भ

1- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 71 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

2- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 70 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

3- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

4- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 23 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

5- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 13 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

6- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 17 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

7- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 80-81 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

8- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

9- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 105 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

10- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 21 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

11- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 84-85 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

12- इस बार तेरे शहर में , पृष्ठ 114 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018

13- अक्टूबर उस साल , पृष्ठ 101 ; शब्दसृष्टि, दिल्ली ; 2018



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