Tuesday, 5 July 2011

अमरकांत के साहित्य में युग बोध भाग २

 'शक्तिशाली` कहानी का नायम नरेन्द्र पड़ोसी भोलाराम से लड़ने की हिम्मत जुटा नहीं पाता। पर पत्नी की बार-बार की जानेवाली शिकायत के आगे वह अपनी कमजोरी बतलाना या जताना नहीं चाहता, इसलिए वह आदर्श और नैतिकता का आवरण लोढ़ लेता है। वह पत्नी से कहता है कि, ''....हमारी कमजोरी यह है कि हम दूसरों की असुविधा का ख्याल नहीं करते....।``37 इसी तरह जब नरेन्द्र के बच्चे की पड़ोसी ने पिटायी की तो भी वह पत्नी से कहता है कि, ''....मैं हमेशा खरी बात कहता हूँ, किसी को बुरी लगे या अच्छी, इसकी मुझे परवाह नहीं। मैं अक्सर देखता हॅँ कि सुरेन्द्र लड़कों से मार-पीट करता रहता है....।``38 नरेन्द्र अपनी कमजोरी को नैतिक आचरण शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
       'कलाप्रेमी` कहानी के माध्यम से अमरकांत ने यही बतलाने का प्रयास किया है कि इस बाजारवादी दुनिया में बाजार से जुड़ना ही प्रमुख गुण है। फिर इसके लिए जो भी करना पड़े वह करना चाहिए। जो नहीं करना वह गुमनामी में जीता और कुंठित होते रहता है। समुर वक्त के साथ चलता है इसलिए धीरे-धीरे उसकी पहचान बन रही है। जबकि सुबोध राम जैसे लोग गुमनामी में कुंठित होते रहते हैं।
       'उनका जाना और आना` आज की पढ़ी लिखी और कामयाब पीढ़ी की उस मानसिकता को दर्शाती है जो अपने माता-पिता को वह सम्मान नहीं देना चाहते जिसके वे अधिकारी हैं। क्योंकि पुरानी परंपराओं और विचारधाराओं से जुड़े मॉ-बाप आधुनिक जीवन शैली के कहीं 'फिट` ही नहीं होते। शायद इसी कारण गोपालदास अपने डॉक्टर लड़के की लड़की की शादी में उपस्थित तो रहे पर उनकी उपस्थिति पूरी शादी में कहीं अनिवार्य रूप में महसूस नहीं की गयी। ना ही उन्हें किसी में यह एहशास कराना चाहा कि उनकी उपस्थिति कितनी महत्वर्पूा है?
       'रिश्ता` कहानी जीवन के उदात्त आदर्श के स्वरूप को दिखलाती है। नईम, निरूपमा को बहुत प्यार करता है। पर उसके परिवार के एटशासानों और सामाजिक स्थिति को समझते हुए वह निरूपमा के साथ पवित्र संबंध की मर्यादा और भाव को अपनाता है। जीवन में खुद कामयाब होकर, एक आई.ए.एस. से निरूपमा की शादी भी करवाता है। नईम के माध्यम से उच्च चरित्र और आदर्शो वाले नायम का स्वरूप अमरकांत सामने लाते हैं।
       'हंगामा` कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने जीवन में बच्चों के लिए तरसती है। पर उसे मातृत्व का सुख नहीं मिल पाता है। वह अंदर ही अंदर इस सुख से वंचित होने के कारण परेशान रहती है। वह मोहल्ले की औरतों से कहती फिरती कि, ''ए बहिन जी, दो-ढाई साल हो गये श्रीवास्तवजी के साथ रहते हुए। अब हमें बच्चा न होगा क्या? कल मेडिकल कालेज जायेंगे, जितना लगेगा लगायेंगे, भले लड़का न हो, भगवान लूली-लंगडी ही दे दे....।``39 लेकिन उसके ीवन का यह अभाव बरकरार रहता है। इसी बीच उसके घर के पास एक कुतिया ने चार पिल्लों को जन्म दिया। अब वह इन कुत्ते बच्चों को ही 'राजा बेटा` कहकर उन्हें दूध पिलाती थी।  जल्द ही मोहल्ले के लावारिस गायों, गदहों और कुत्तों से उसे गहरा लगाव हो गया। स्पष्ट है कि अपने जीवन के अभाव और मातृत्व के लिए लालायित हृदय के प्रेम और स्नेह को उड़ेलने के लिए उसे इससे अच्छा बहाना नहीं मिल सकता था।
       'शाम के घिरते अँधेरे मे भटकता नौजवान` एक ऐसे नौजवान की कहानी है जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली के बदलते स्तर, महंगी होती तकनीकी उच्च शिक्षा से जूझ रहा है। पारिवारिक समस्याएँ उसे कमाने की जरूरतों की तरफ खींचती हैं तो आगे बढ़ने के लिए उसकी खुद की शिक्षा का जारी रहना भी महत्वपूर्ण है। अपने और परिवार के सपनों के बीच वह झूलता हुआ सा महसूस होता है। ऐसा कई बार होता है कि आदमी की पारिवारिक परिस्थितियाँ उसके अपने सपनों के आड़े आ जाती है। इस स्थिति की निराशा और हताशा आदमी को मोहभंग की मानसिकता में बाँध देती हैं।
       'हार` कहानी के केन्द्र में बृजबिहारी बाबू हैं। वे हमेशा गुस्से में और व्यवस्था के प्रति आक्रोशग्रस्त रहते हैं। दोस्तोऱ्यारों के बीच होनेवाली बहसों में वे बढ़कर भाग लेते और हारने के लिए किसी भी तरह तैयार न होते। लेकिन एक दिन निर्मल बाबू के साथ शादी-विवाह और दहेज को लेकर लंबी-चौड़ी बहस के बाद, जब निर्मल बाबू बिना दहेज के उनकी पुत्री से अपने पुत्र के विवाह की बात करते हैं तो उन्हें यकीन ही नहीं होता। वे कहते हैं कि, ''अब छोड़िये... इस तरह की पाखण्ड भरी बात सुनने का मैं आदी नहीं हूँ।``40 लेकिन विवाह तँय हो जाता है। विवाह पूरी सादगी के साथ बिना दहेज के संपन्न भी होता है। लेकिन, यह सब देखकर बृजबिहारी बाबू की आँखेे डबडबा जाती हैं। आज की इस स्वार्थी और दहेज लोलुप समाज में बृजबिहारी बाबू ने कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी लड़की का विवाह इस तरह हो जायेगा। आज वे निर्मल बाबू से हार गये थे। पर इस हार ने उन्हें समाज की इच्छाइयों और इसके नैतिक स्वरूप के प्रति पुन: निष्ठावान बना दिया।     
       इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य की संक्षिप्त विवेचना के बाद हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अमरकांत ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त मोहभंग, परिस्थिति गत व्यावहारिक जटिलता, आंतरिक घृणा और कुंठा, आधुनिक जीवन शैली से परंपराओं का संघर्ष, व्यक्ति अंदर निहित कायरता पर आदर्शो का आवरा और ऐसे ही कई अन्य संदर्भो के माध्यम से सामाजिक जीवन में हो रहे नैतिक पतन, संबंधों के बदलते अर्थ आधुनिक जीवन की निराशा, और कुंठाओं को बखुबी चित्रित करते है। साथ ही साथ अमरकांत के यहाँ कई ऐसे पात्र भी हैं जिनका नैतिक स्तर, ऊँचा आदर्श और जीवन संबंधी उनकी दृष्टि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी टूटने या बिखरने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है। ऐसे पात्र अपनी नैतिक और सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग हैं। इस तरह दोनों ही तरह की स्थितियाँ अमरकांत के कथा साहित्य में मिलती हैं। पर टूटते और बिखरते हुए जीवन मूल्यों से संबंधित चित्रण अधिक है।
4) संबंधों के विविध आयाम :-
       अमरकांत अपने कथा साहित्य के माध्यम से निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज की यथार्थ स्थिति का चित्रण जितनी गहराई और विस्तार के साथ करते हैं वह उनके समकालीन कथाकारों के कथासाहित्य में दिखायी नहीं पड़ता। अमरकांत ने समाज में व्याप्त वर्ग विशेष की कुंठा, मोहभंग, उसका शोषण, उसकी मनोवैज्ञानिक सोच, उसके व्यवहार की अमानवीयता और संवेदनहीनता के साथ साथ मौलिक चिंतन के बदलते परिप्रेक्ष्य में सामाजिक संबंधों के बदलते रूप को परत दर परत खोलने का प्रयास करते हैं।
       अमरकांत मनोवैज्ञानिक स्थितियों के विश्लेषण के विशेषज्ञ मालूम पड़ते हैं। उनका पूरा कथा साहित्य इस तरह के विश्लेषणों से भरा पड़ा है। समाज में जीते हुए हम किस तरह अपने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवेश से प्रभावित होते हैं यह अमरकांत के पात्रोंे की परिस्थितियों के अंकन से स्पष्ट हो जाता है। परिवेश का यह प्रभाव ही व्यक्ति विशेष की कार्यशैली, विचार और व्यवहार को संचालित करते हैं। अपनी परिस्थितियों के अनुकूल आदमी अपनी परेशानियों से निकलने के लिए अपने व्यवहारिक कर्म का सहारा लेता है। जीवन का सारा आदर्श, नैतिकता और सारे संस्कार एक तरफ से जाते है और जीवन का यथार्थ एक तरफ। ऐसे में आदमी का धैर्य, निष्ठा, प्रेम, संकल्प और चिंतन उसकी अपनी ही आत्मकेन्द्रियता, स्वार्थपरकता, भावुकता और मानसिक कमजोरियों से टकराने लगते हैं। व्यक्ति विशेष की इस मानसिक द्वंद्वात्मक स्थिति के प्रति अमरकांत पूरी सहानुभूति रखते हैं। पर इस द्वंद्व के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों के प्रति वे निर्मम ही बने रहते हैं। इस तरह व्यक्ति की समस्याओं को पूरे समाज की समस्या बनाकर प्रस्तुत करने में अमरकांत एकदम सफल दिखायी पड़ते हैं।
       अमरकांत के वैचारिक केन्द्र में समाज का निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय समाज रहा। इस समाज के मौलिक चिंतन में हो रहे परिवर्तन, व्यवस्था के प्रति इनके अंदर निहित अविश्वास, इनकी दयनियता और निरीहता के साथ-साथ इनके सामाजिक संबंधों में आ रहे नए बदलाव को भी अमरकांत अपने साहित्य के माध्यम से पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत करते हैं। ऐसे ही परिवर्तनशील संबंधों के कुछ संदर्भो की पड़ताल हम अमरकांत के कथा साहित्य के माध्यम से करेंगे।
       'ग्राम सेविका` उपन्यास के प्रधान जी दमयंती को 'बिटिया` कहकर संबोधित करते हैं, पर उसी की इज्जत-आबरू लूटने के लिए उसे काल्पनिक व्यक्ति का डर दिखाकर अपने साथ शहर ले चलने की चाल चलते हैं। उनका दृढ़ विश्वास था कि, ''....डरी स्त्री कटी पतंग की तरह बेसहारा होती है, पीछे पड़ने से वह पतंग लूटी जा सकती है। स्त्री जिसको अपना संरक्षक समझ लेती है उसको अधिकतम सीमा तक कृतज्ञ भी कर सकती है। जो चुपके-चुपके उनके साथ शहर में जायेगी वह नि:सहायावस्था में उनकी इच्छा का विरोध भी नहीं कर सकेगी।``41 इस तरह बाप-बेटी के संबंध की आड़ में प्रधान जी अपनी हवस का शिकार दमयंती को बनाने की चेष्टा करते हैं। संबंधों की सारी पवित्रता हवस की आग में झुलसती हुई दिखायी देती है।
       'आकाश पक्षी` उपन्यास के राजा साहब जात-पात का भेद करते हुए हेमा से रवि के विवाह का प्रस्ताव ठुकरा देते हैं। पर अपनी शारीरिक वासना की पूर्ति के लिए जब एक स्त्री को खाना बनानेवाली के नाम पर घर लाना चाहते हैं तो, उनकी पत्नी उसकी जाति का प्रश्न उठाती हैं। इस पर राजा साहब कहते हैं कि, ''जाति वाति क्या करेगा? फिर ग्वालों की जाति खराब थोड़े होती है?``42 राजा साहब का दोहरा चरित्र यहाँ उजागर हो जाता है। हेमा और रवि के पवित्र प्रेम संबंध को 'जाति` के नाम पर नकारने वाले राजा साहब अपने नीजि स्वार्थ के सामने उसी जाति के प्रश्न को धता बताते हैं।
       'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में सास अपनी बहू की इज्जत लूटने के लिए अपने ही पति को प्रेरित करती है। 'इन्ही हथियारों से` उपन्यास की कनेरी विवाह के बाद भी चनरा से संबंध रखती है। चनरा के बारे में जब सदाशयव्रत ने उससे पूछा तो वह कहती है कि, ''अब यह न पूछिए, ए दादा। मेरे करमजले दरिद्दर बाप ने मुझे बुढ़े पेटमैन के हाथों बेच दिया। पर इस आदमी में कुछ है नहीं। ऊपर से हमेशा खुर-खुर किए रहता है। चनरा रेलवई में मजदूर है ए बाबू साहब, बड़ा नेक है। हिम्मती है, पक्का मर्द है, मौका-बात पर जान देनेवाला मनई है। वही मेरा सबकुछ है।``43 यहाँ चनरा झूठे सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपना जीवन अपनी इच्छा से जी रही है। अपने निर्णय में वह स्पष्ट और व्यवहारिक तर्क के साथ खड़ी होती है। उसके अंदर वैसी भीरूता या कायरता नहीं दिखायी पड़ती जैसी की अमरकांत अधिकांशत: मध्यवर्गीय पात्रों में है। फिर वह चाहे 'आकाश पक्षी` के राजा साहब हो या 'सुख जीवी` उपन्यास का नायक दीपक। अमरकांत के उपन्यासों की ही तरह उनकी कहानियों में भी इसी तरह के अनेकों संदर्भ हैं।
       'पलाश के फूल` कहानी के रायसाहब का दिल भुलई किसान की जवान लड़की पर आ जाता है। उसे पाने के लिए वे पागल हो उठते हैं। भुलई को पिटवाते हैं फिर सहानुभूति दिखाते हुए उसकी मदद करते हैं। साथ ही साथ भुलई को इस बात के लिए भी राजी कर लेते हैं कि वो अपनी जवान लड़की अँजोरिया को उनके यहाँ काम कर भेज दिया करें। फिर अँजोरिया को मनाने के लिए रायसाहब उसके पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाये भी। रायसाहब के शब्दों में, ''....मैंने उसको बहुत पुचकारा और समझाया। कसमें खायीं कि मेरा प्रेम सच्चा है और उसके लिए अपनी जमीन-जायदाद, जान, सब कुछ कुर्बान कर सकता हूँ। आखिर में इतना उतावला हो गया कि नीचे झुककर उसके पैर पकड़ लिये। ....कभी-कभी पागल की तरह उसके पैर को चूमने लगता....।``44 लेकिन यही अँजोरिया विवाह के बावजूद अब रायसाहब का सथ नहीं छोड़ना चाहती थी। ससुराल से दो ही दिन में भाग आती है। रायसाहब से विनती करती है कि वे उसे कहीं भगा ले चलें। वह कहती है, ''....लोग न मालूम कैसी-कैसी बातें कहते हैं। ....कोई ठीक नहीं बोलता। मुझे काशी ले चलो, वहाँ कोई मकान ले लेना, मैं उसी में रहा करूँगी। ....मुझे रखैल रख लो, मैं कहीं नहीं जाऊँगी, तुमको छोड़कर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगेगा।``45 अँजोरिया की इस बात से रायसाहब का माथा ठनक जाता है। वे अँजोरिया के साथ कोई लंबा संबंध नहीं रखना चाहते थे। साथ ही साथ उनका प्रेम उतना निश्च्छल उतना भावात्मक नहीं था जितना की अँजोरिया का था। इसलिए अब वही अँजोरिया अब उन्हें शैतान और माया का चक्कर नजर आने लगी। और वह जग रायसाहब ने जो छोड़ी तो दुबारा वहाँ नहीं गये। रायसाहब जिसे माया का चक्कर और शैतान कहते हैं वह वास्तव में उनके मन की कायरता, डर और सामाजिक लोक-लाज की विवशता थी। प्रेम की आड़ में जो संबंध उन्होंने बनाया था वह मात्र वासना सुख के लिए था।
       'मूस` कहानी की परबतिया, खुद मुनरी से अपने पति के विवाह की बात चलाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह मुनरी के माध्यम से अपनी आर्थिक हालत को मजबूत करना चाहती थी। एक पत्नी खुद अपने परि के लिए दूसरी स्त्री लाये, यह संबंधोें की एक विचित्र और सामाजिकता के हिसाब से बड़ी नाटकीय स्थिति है। पर परबतिया के यथार्थ जीवन में यह समस्याओं का हल था। जो उसके लिए किसी भी सामाजिक आदर्श और नैतिकता से जादा महत्वपूर्ण था।
       'रिश्ता` कहानी का नईम प्रेम की आदर्श स्थिति को दिखलाते हुए निरूपमा का न केवल उचित मार्गदर्शन करता है अपितु एक आई.ए.एस. लड़के से उसका विवाह भी संपन्न कराया है। 'सप्ताहान्त` कहानी के रामसंजीवन को जब लाटरी के ईनाम की खबर उड़ती है तो कई पड़ोसी ईर्ष्यावश बधाई नहीं देते। पर दूसरे दिन जब यह पता चलता है कि ईमानवाली खबर गलत थी तो सहानुभूति व्यक्त करने यही पड़ोसी सबसे पहले मिलते हैं। ईर्ष्या और द्वेष के भाव आपसी संबंधों और व्यवहार को किस तरह प्रभावित करते हैं, इसे इस कहानी द्वारा समझा जा सकता है।
       'दुर्घटना` कहानी का राजेश सफर में ग्रामीण व्यक्ति के साथ प्रेम और भाईचारे का संबंध स्थापित करते हुए देहाती लोगों के प्रति अपने आदर्शवादी दृष्टिकोण से उस देहाती को प्रभावित करने की कोशिश करता है। जब कि सच्चाई यह थी कि ट्रेन की दुर्घटना वाली बात के बाद वह काफी डरा हुआ था और किसी ऐसे व्यक्ति से मदद की अपेक्षा रखता था जो भोला भाला, सहज और विश्वास के योग्य व्यक्ति की तलाश कर रहा था। उस ट्रेन में वह देहाती व्यक्ति ही उसे अपने स्वार्थपूर्ति के लिए सही लगा। संबंधों और आदर्शों की आड़ में लोग कैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं इसे राजेश की मनोदश से समझा जा सकता है।
       'ठंड और ऊष्मा` कहानी का नंदू अपनी पारिवारिक परेशानियों से अंदर ही अंदर घुट रहा था। उसके लगता है कि माँ उससे उतना प्यार नहीं करती जितना की छोटे भाई गोपाल से करती है। नंदू को काम करना पड़ता है और गोपाल पढ़ाई कर रहा है। नंदू पारिवारिक संबंधों में अपने प्रति व्यवहार से दुखी होता है। वह गोपाल पर पढ़ाई के नाम पर घूमने और गुलछर्रे उड़ाने का आरोप लगाता है। साथ ही साथ उसके साथ चलते हुए यह देखने के लिए जाता है कि गोपाल पढ़ने कहाँ जाता है? नंदू नई साइकिल पर काफी आगे निकल गया पर गोपाल ''उसी पुरानी खंचड़ी साइकिल पर सवार था, जिसकी टूटी सीट कपड़े से बांधी गई और चेन ढीली है।``46 लंबा और थका देनेवाला रास्ता तँय करके नंदू जब प्रिंटिंग टेक्नोलाजी के गेट पर पहुँचा तो उसे एहसास हो गया कि वह गलत था। गोपाल के प्रति उसका मन साफ हो गया। और वह गोपाल को वचन देता है कि, ''तुम्हे मैं पढ़ाऊंगा, जब तक जिंदा हूँ, तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।``47 इस तरह दो भाईयोें के बीच की आशंका और घृणा यथार्थ बोध के बाद समाप्त हो जाती है। साथ ही साथ बड़ा भाई नंदू अपने दायित्व के निर्वाह की जिम्मेदारी भी लेता है।
       अमरकांत के कथा साहित्य की उपर्युक्त विवेचन के बाद हम कह सकते हैं कि अमरकांत ने समाज में व्याप्त कुंठा, चारित्रिक पतन, आदर्श और नैतिकता का स्वांग, कायरता, लालच, वासनाग्रस्त मानसिकता के साथ साथ आदर्शवादी चरित्रों को भी अपने साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है। कई पात्र सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए नए तरह के संबंधों की रचना करते हैं, पर संबंधों के ये नए आयाम उनकी परिस्थितियों के अनुकूल और तर्कसंगत दिखायी पड़ते हैं। इस तरह अमरकांत ने विभिन्न सामाजिक संबंधों के स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए अपनी यथार्थ परक दृष्टि को सामने रखते हैं। यही उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी शक्ति है।
5) सांप्रदायिक सद्भाव :-
       भारत विविधताओं से भरा हुआ एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यहाँ कई धर्म और जाति के लोग एक साथ रहते हैं। सबको अपने धर्म के अनुसार आचरण, पूजा-पाठ और धार्मिक कार्यो की पूरी आज़ादी है। लेकिन कई बार विभिन्न धर्मानुयायियों के बीच कार्य होने लगते हैं। अपने धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक फायदे के लिए कई बार सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर स्वार्थ की रोटियाँ सेंकने का घृणित कार्य भी होता रहा।
       अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में कई जगह सांप्रदायिक सद्भाव और सांप्रदायिकता की आँच में झुलसे समाज का वर्णन करते हैं। अमरकांत के उपन्यासों में ऐसे प्रसंग न के बराबर हैं लेकिन अमरकांत की कई कहानियाँ सांप्रदायिक सद्भाव को केन्द्र में रखकर ही लिखी गई है। वैसे अमरकांत के नवीनतम वर्णन अवश्य मिलता है। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जनपद बलिया के स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। देश की आज़ादी ही बलियावासियों का एक मात्र लक्ष्य है। फिर क्या अमीर, क्या गरीब? हिंदू-मुसलीम, छोटे-बड़े, स्त्री-पुरूष सभी इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक होकर निकल पड़ते हैं। उपन्यास में न तो कोई प्रमुख नायक और नायिका है, और ना ही कोई एक मुख्य कथा। उपन्यास का नायक अगर किसी को कहा जा सकता है तो वह खुद बलिया जनपद ही है।
       उपन्यास के पात्र सीतानाथ का कहना कि, ''प्रभु ने तो हर प्राणी को अपने हाथ से बनाया है, फिर कैसा भेदभाव।.... मन की शुद्धता, मन की ऊँचाई सबसे बड़ी चीज है....।``48 सांप्रदायिक सद्भाव का ही उदाहरण है। उपन्यास का दूसरा पात्र निलेश यह समझता है कि भारत जैसे देश के लिए वही विचार सार्थक है जो देश को एकसूत्रता में पिरो सके, जो आपसी भाईचारे और सांप्रदायिक सद्भाव की भावना बढ़ाये। इसीलिए वह कहता है कि, ''....इस देश में वही विचार उपयोगी हो सकता है जो सबके दिलों को एकता के सूत्र में बाँधे। विभिन्नता में एकता की इसी चेतना से ही हिन्दुस्तान विद्यमान है, उसका अस्तित्व बना हुआ है। यहाँ गरीबी है, अस्पृश्यता है। उनके स्वार्थी और अवसरवादी हैं, गुलामी, नकलचीपन, आरामतलबी, स्वार्थ, आलस्य, अस्पृश्यता, अहंकारपूर्ण शान-शौकत, दो मुँहे, शहरीपन, अन्धविश्वास को छोडकर, हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि सभी धर्मो एवम् जातियों के लोग मजदूर, किसान, हरिजन, दलित, गरीब तथा अन्य सभी, परिश्रम, परस्पर प्यार और सहयोग, समानता, इन्सानियत, स्वावलम्बन के रास्ते पर चलकर उन्नति करें....।``49 इस तरह हम देखते है कि अमरकांत भारत जैसे राष्ट्र की उन्नति आपसी एकता, भाईचारे और समन्वय के भाव में ही देखते हैं।
       अपनी कहानियों के माध्यम से अमरकांत इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण को सामने रखा है। साथ ही साथ उन कारणों की पड़ताल करने की भी कोशिश करते हैं जो इस सांप्रदायिक सद्भाव के महौल को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार है। 'रिश्ता` कहानी का नईम, निरूपमा से बेहद प्रेम करता है। पर वह सामाजिक दायित्वों और पारिवारिक जिम्मेदारी के प्रति सजग है। वह निरूपमा से कहता है कि, ''....हमारा समाज जैसा है, वह तो तुम जानती ही हो। अगर हम कुछ फैसला करते हैं तो..... उसकी वजह से गाँव मेंु फसाद भी फैलेगा....।``50 नईम जानता है कि वह मुसलमान है और निरूपमा हिंदू। अगर वे शादी का फैसला करते है तो यह सामाजिक फसाद की वजह बन सकता है।
       'बीच की जमीन` नामक कहानी में सांप्रदायिक दंगो के बाद सौहार्द कायम करने के प्रयासों की चर्चा है। कहानी का एक पात्र कहता है कि, ''....हमारे देश की कल्पना सदा एक ऐसी बीच की जमीन के रूप में की जाती रही है, जिसमें विभिन्न वर्ग और समुदाय के लोग सम्मानपूर्वक मिल-जुलकर रहें। हमारे इतिहास में, हमारी संस्कृति में और हमारे वर्तमान हिन्दुस्तान में वह बीच की जमीन अब भी बची है। अफसोस की बात है कि हम अपनी ताकत, शान-शौकत, घमंड और स्वार्थ में उस बीच की जमीन को शुरू से ही संकुचित करने और टुकड़ों में बाँटने की कोशिश कर रहे है।.... यह सबके समझने की बात है कि जिस दिन यह बीच की जमीन खत्म हो जायेगी, उस दिन यह देश मिट जायेगा। हमारा देश कोई छोटा देश नहीं है। तब वह न लेबनान बनेगा और न यूगोस्लाविया। वह कुछ ऐसा बनेगा, जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते....।``51 स्पष्ट है कि अमरकांत इस देश में सांप्रदायिक हिंसा के पीछे देशवासियों की ही आत्मकेन्द्रियता, स्वार्थपरकता, घमंड, संकुचित मानसिकता और धन लोलुपता को ही कारण मानते है। साथ ही साथ 'सांप्रदायिक सद्भाव` रूपी इस देश की 'बीच की जमीन` को बचाने की वकालत भी करते हैं।
       'मौत का नगर` कहानी में राम नामक पात्र दंगों के बाद काम पर जाने के लिए निकलता है, पर अंदर से बहुत डरा और सहमा है। वह अपने इलाके के विरान से रास्तों पर से होकर जब गुजरता है तब सोचता है कि, ''....आजादी के बाद दोनों मोहल्लों के लोग प्रेम से रहने लगे थे। वे आपस में व्यवहार रखते थे। मुसलमान ग्वालों के यहाँ से हिन्दू लोग दूध ले आते तो और हिन्दू बनियों के यहाँ से मुसलमान उधार सामान ले आते थे। शादी-ब्याह में वे एक दूसरे के यहाँ जाते थे और एक-दूसरे की मदद करते थे। .....लेकिन अचानक यह सब खत्म हो गया था और अब लोग हत्या, भय और अफवाहों के अलावा और किसी बात पर विश्वास नहीं करते थे।``52 व्यक्ति के अंदर निहित विश्वास ही प्रेम और सौहार्द की बुनियाद होती है। दंगों के बीच यह विश्वास ही टूट जाता है। शायद यही कारण है कि दंगों की आँच में झुलसता व्यक्ति 'हत्या, भय और अफवाहों के अलावा` और किसी बात पर विश्वास नहीं करता है।
       इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य के निहित सांप्रदायिक सद्भाव से संबंधित प्रसंगो के विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते है कि अमरकांत भारत के लिए समन्वयवादी समाज की ही कल्पना करते हैं। वे इस सामंजस्य और सौहार्द को 'बीच की जमीन` कहते हैं। और इस बीच की जमीन को देश की एकता और अखण्डता के लिए अनिवार्य मानते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थो, घमंड, लालच और संकुचित मानसिकता को त्यागकर ही हम भारत देश के लिए आदर्श समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं। ऐसे ही विचारों के माध्यम से अमरकांत अखण्ड भारत देश का सपना सँजोते है।

6) फैशन और यौन संबंधों की समस्या :-
       अमरकांत के कथा साहित्य में समाज का निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग अधिक मुखरित है। इसकी समस्याओं में अपने अस्तित्व और जीवन को बचाये रखने की समस्या प्रमुख है। इसलिए फैशन और यौन संबंधों की समस्या उतनी प्रमुख नहीं है। पर ऐसा नहीं है कि अमरकांत इस तरह की समस्याओं को लेकर सजग नहीं थे। प्रेम, फैशन और यौन संबंधों की समस्या को लेकर उन्होंने पर्याप्त लिखा। पर निम्न मध्यमवर्गीय समाज और मध्यमवर्गीय समाज में व्याप्त मोहभंग, कुठा, आर्थिक परेशानियाँ, शोषण, चरित्र का दोगलापन, नैतिक पतन, संबंधों के नये रूप और यौन संबंधों की समस्या की चर्चा अमरकांत कम और संयमित रूप में करते हैं। अमरकांत के पूरे कथा साहित्य को केन्द्र में रखकर देखें तो हम पायेंगे कि अमरकांत ने फैशन और यौन संबंधों की समस्या की भी पर्याप्त चर्चा की है। लेकिन ऐसे प्रसंगों के वर्णन में उस तरह की अश्लीलता और वैयक्तिकता नहीं दिखायी पड़ती जैसी 'यथार्थ बोध` के नाम पर उस समय के अधिकांश कथाकारों के साहित्य में दिखायी पड़ती है। अमरकांत इस संबंध में बड़े संयमित दिखायी पड़ते है।
       अमरकांत के उपन्यासों के अधिकांश नायक अपनी विवाहिता पत्नी से प्रेम सुख नहीं पाते। क्योंकि वे पढ़े-लिखे, फैशन और आधुनिक जीवन शैली को अपनाने के पक्ष में हैं तो उनकी पत्नियाँ या तो पढ़ी-लिखी नहीं हैं या फिर उनके अंदर पढ़ी-लिखी आधुनिक स्त्रियों सी शोखी और अदा नहीं है। 'सुखजीव`, 'सुरंग`, 'काले उजले दिन` कुछ ऐसे ही उपन्यास हैं। 'काले उजले दिन` का नायक पत्नी के होते हुए भी ऑफिस में काम करनेवाली रजनी के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता हैै। 'सुख जीवी` उपन्यास का नायक दीपक भी पत्नी के होते हुए पड़ोस की रेखा के साथ संबंध बनाता है। जो विश्वविद्यालय में पढ़ती है और आधुनिक तरीके से फैशन के साथ रहती है। 'सुरंग` उपन्यास का नायक अपनी पत्नी को कई साल तक सिर्फ इस लिए अपने साथ नहीं रखता क्योंकि वह गवार और अनपढ़ थी। स्पष्ट है कि आधुनिकता और फैशन को आत्मसाथ न कर पाने की वजह से ही अमरकांत की अधिकांश नायिकाएँ जीवन में दुख और मानसिक प्रताड़ना को झेलती हैं।
       यह बात एक और सामाजिक यथार्थ की तरफ इशारा करती है। आज़ादी के बाद शहरों का मध्यमवर्ग तो लड़कियों को शिक्षित कराने के लिए तैयार हो गया, पर गाँवों, कस्बो में इतनी जागरूकता नहीं आयी थी। वहाँ अब भी स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। पर लड़कों को इससे वंचित नहीं किया गया। लड़के पढ़ने के लिए छोटे कस्बों और गाँवों से निकलकर शहरों में आ रहे थे। शहरों में लड़कियों की स्थिति ग्रामीण स्त्रियों की स्थिति से सर्वथा भिन्न थी यहॉ लडकियाँ फैशन से रहती, उच्च शिक्षा ग्रहण करती और देश, समाज और दुनियाँ से जुड़े किसी भी मुद्दे पर खुलकर बहस करती। अमरकांत के कथा साहित्य के नायक इसी के कायल दिखायी पड़ते हैं। इस तरह फैशन, आधुनिकता और शिक्षाविहीन पत्नी कितनी भी सेवाभावी, समर्पित और निष्ठावान क्यों न हो, वह अमरकांत के अधिकांश नायकों को नहीं भाती। उनका रागात्मक जुड़ाव उनसे नहीं हो पाता। इसलिए अंदर ही अंदर घुटते और कुंठित होते, नायक अन्य स्त्रियों से यौन संबंध स्थापित करते हैं।
       कुछ उपन्यासों में ऐसे पात्रों का जिक्र है जो अपनी वासना के वशीभूत होकर संबंधों की पवित्रता का भी लिहाज नहीं करते। 'ग्रामसेविका` उपन्यास के प्रधान जी दमयंती को 'बेटी` कहते हैं तो दूसरी तरफ उसी का शारीरिक शोषण करने के लिए तमाम तिकड़म भिड़ाते रहते हैं। 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में सास अपनी बहू की इज्जत-आबरू लूटने के लिए अपने ही पति को प्रोत्साहित करती हुई दिखायी पड़ती है। वास्तव में ऐसे चरित्र मानसिक कुंठा, घृणा और वासना ग्रस्त हैं। पवित्र संबंधों की आड़ में नारी का किस तरह मानसिक और शारीरिक शोषण होता रहा है, इसे ऐसे प्रसंगों के माध्यम से समझा जा सकता है।
       'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास की पात्र ढेला गोबर्धन से कहती है कि, ''....प्यार और शादी आप बड़े लोगों के चोचले हैं, अपनी औरतों को तो आप इज्जत से रखते नहीं, हमें क्या रखेंगे? आप चले जाइए यहाँ से और कभी न आइएगा।``53 ढेला पेशे से वेश्या है। वह अच्छी तरह समझती है कि गोबर्धन का प्रेम भावातिरेक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। साथ ही साथ वह प्यार और शादी को 'बड़े लोगों के चोचले` कहती है। पवित्र सामाजिक संबंधों के यथार्थ का घिनौना रूप वह खोलकर रख देती है।
       इसी तरह अमरकांत की कहानियों में हम पातें हैं कि 'शुभचिंता`, 'लडकी की शादी` और 'रिश्ता` जैसी कहानियों में नायक आदर्शवादी और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग दिखायी पड़ता है। उसके विचार और आचरण में एक तरह का सामंजस्य दिखायी पड़ता है। वह यौन संबंध स्थापित करने के लिए लालायित नहीं है। वह भी स्त्री के आधुनिक, फैशनपरक रूप को पसंद करता है, स्त्री के पढ़ने और आगे बढ़ने का हिमायती है। पर यह सब वह किसी पूर्वनियोजित मानसिक विचारधारा के आधार पर नहीं करता। 'शुभचिंता` कहानी का ज्ञान, सीता से कहता है कि, ''मुझे गंदी औरतों से नफरत है। मैं उन सभी औरतों को गन्दी मानता हूँ, जिनकी आदतें भद्दी होती हैंं। आखिर सलीके से रहने में क्या जाता है? साफ और अच्छा पहनिए, ओढ़िए, बाजार-हाट कर लिजिए।``54 'लड़की की शादी` कहानी का नायक भावी पत्नी के पिता के एहशानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपने प्रेम को तिलांजली देता है और उस लड़की से शादी करता है जिसके पिता ने उस पर कई एहशान किये थे। 'रिश्ता` का नईम भी ऐसा ही आदर्शवादी नायक है।
       दूसरी तरफ 'पलाश के फूल`, 'लड़की और आदर्श`, 'प्रिय मेहमान`, 'लड़का-लडकी` और 'एक निर्णायक पत्र` जैसी कहानियाँ है जहाँ नायक के विचारों और आचरण में सामंजस्य नहीं दिखायी पड़ता। यहाँ नायक स्वार्थी, भावुक, कुंठित, वासनाग्रस्त और जिम्मेदारियों के प्रति पलायनवादी दिखायी पड़ता है। फैशन, आधुनिकता और आदर्शो की बात यहाँ भी नायक कर रहा है, पर इन कहानियों के नायम उसी तरह के हैं जैसे 'सुरंग`, 'सुखजीवी` और 'काले उजले दिन` उपन्यास के नायक।
       'मूस`, 'जिंदगी और जोंक` तथा 'मकान` जैसी कहानियों के नायक इतने निरीह और मजबूर हैं कि उनके मानसिक लुच्चेपन के प्रित सहानुभूति का भाव ही पाठक के मन में आता है। 'हत्यारे` कहानी के पात्र प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों में मनुष्य के संवेदनाशून्य हृदय के प्रतीक हैं। एकदम अमानवीय स्थिति। वेश्या लड़की के साथ शारीरिक सुख भोगने के बाद जब पैसे देने की बात आती है तो कहानी के गोरा और साँवला पात्र भाग जाते हैं। पीछा करनेवाला कोई व्यक्ति जब उनके करीब आने लगता है तो वे उसके पेट में झूरा भोक देते हैं।
       इस तरह हम कह सकते हैं कि अमरकांत के अपने कथा साहित्य के माध्यम से फैशन और यौन संबंधों की समस्या का चित्रण संयमित रूप में बदलते सामाजिक परिवेश में उनकी वास्तविक स्थिति को समझकर करते हैं। ऐसे चित्रण भी सामाजिक परिवर्तनों और उन परिवर्तनों के कारण उपस्थित नयी परिस्थितियों को समझने में सहायक ही सिद्ध होते हैं।
7) नारी संबंधी दृष्टि :-
       अमरकांत के लेखन का जो दायरा था वह निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की समस्याओं के आस-पास केन्द्रित रहा है। इस समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को अमरकांत ने व्यापक विस्तार के साथ चित्रित किया है। अमरकांत के कथासाहित्य में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, उनका शोषण, आर्थिक परिस्थितियों के दबाव में स्त्री-पुरूष संबंधों का बिखराव, प्रेम संबंधों में स्त्री की स्थिति और पवित्र संबेधों की आड़ में उसके शारीरिक शोषण जैसी बातों को देखा जा सकता है।
       आज़ादी के बाद समाज का मध्यमवर्ग काफी हद तक लड़कियों को पढ़ाने और नौकरी कराने जैसी स्थितियों को स्त्रीकार कर चुका था। पर ग्रामीण समाज में ऐसी स्थितियाँ उतनी व्यापक नहीं थी, जितनी की शहरों में। साथ ही साथ आधुनिकता और फैशन की चका चौंध से स्त्रियाँ दूर ही थी। आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में भी परंपरागत सामंती मानसिकता बरकरार थी। ऐसे में एक विचित्र सामाजिक स्थिति उत्पन्न हो गई थी। पुरूष पढ़-लिखकर अपने आप को आधुनिक समझने लगे थे। वे अपने लिए शहर की पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों वाली आदर्श नायिका की इच्छा रखते थे। जबकि उनकी पारिवारिक जड़े सुदूर ग्रामीण अंचलों में परंपराओं, आदर्शो और रूढ़ियों में जकड़ी थी। अपनी जड़ों से कटकर अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीने की हिम्मत पुरूष पात्रों में नहीं थी। वे शायद यही कारण है कि ये पात्र चोरी-छुपे प्रेम का प्रपंच तो फैलाते थे पर उसे सामाजिक मान्यता दिलाने की हिम्मत नहीं रखते थे। ऐसे में स्त्रियों को मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता था। प्रेम की पवित्र भावनाएँ झूठी लगने लगती। उनकी मानसिक स्थिति एकदम निरीह व्यक्ति की तरह हो जाती। वह अंदर ही अंदर घुटती, सारी सामाजिक मान्यताओं को दोषी मानती। पर इन सबको धता बताते हुए सामाजिक विद्रोह की तरफ वह भी आगे नहीं बढ़ पाती है। विशेषकर मध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों की यही स्थिति अमरकांत के कथा साहित्य में दिखायी पड़ती है। जब कि अमरकांत के निम्नवर्गीय महिला पात्र मध्यवर्गीय महिला पात्रों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट, तर्कसंगत और व्यवहारिक प्रतीत होती हैं। अमरकांत के उपन्यासों और कहानियों में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनके आधार पर उपर्युक्त विवेचन की पुष्टि की जा सकती है।
       अमरकांत के उपन्यास 'ग्राम सेविका` की दमयंती आर्थिक परेशानियों के चलते 'ग्राम सेविका` की नौकरी करती है। पर उसके इस कदम को गाँव की स्त्रियाँ आशंका की दृष्टि से देखती है। उसके ऊपर व्यंग्य बाण चलाते। दमयंती के बारे में औरतें कहती कि, ''....बाबा रे, किस तरह चलक कर चलती है! लाज-हया धोकर पी गयी है! मर्दों मे किस तरह मटक-मटक कर बोलती है! उस दिन बिलाक के अफसर आये थे तो बेशर्म की तरह न मालूम क्या गिटपिट-गिटपिट कर रही थी। पूरी आवारा है आवारा। सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हुई भगतिन। धर्म नाशने आयी है मुंहजली।``55 ग्रामी स्त्रियों की इस तरह की बातों से स्पष्ट है कि उस समय स्त्रियों की शिक्षा से दूरी बनी थी। वे परंपरागत मान्यताओं के आधार पर ही जीवन यापन कर रही थी।
       गाँव के प्रधान दमयंती को बेटी कहकर संबोधित करते पर वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि, ''...स्त्री के दिल में कामना स्वयं नहीं जगती है, बल्कि वह जगाई जाती है। घोड़े की तरह स्त्री को भी वश में किया जाता है। जिसको घोड़े को वश में करने की कला आती है वही स्त्री को वश में कर सकता है। उसी में स्त्री खुश भी रहती है।``56 पासी टोला की सरस्वती पर प्रधान जी की नीयत खराब हुई थी। उसे पाने के लिए उन्होंने उसके पति को बुरी तरह पिटवाया। फिर उसके उपचार और हर तरह की मदद में सबसे आगे रहे। उस पर प्रधान जी ने बड़ा उपकार किया और बदले में ''एक रोज सरस्वती को अकेले में पकड़ लिया था। वह कुछ नहीं बोली थी। वह रोती हुई उनकी गोद में आ गिरी थी। उपकार बहुत बड़ी चीज है। संकट में उपकार का अस्त्र अचूक होता है।``57 इस तरह प्रधान जी जैसे पात्रों के माध्यम से अमरकांत ने मध्यमवर्गीय समाज के चारित्रिक और व्यावहारिक दोगलेपन को दिखाते हुए स्त्री के प्रति उसके दृष्टिकोण को भी व्यक्त करते हैं।
       अमरकांत के कथा साहित्य के मध्यमवर्गीय पात्रों में अधिकांश पात्र ऐसे हैं जो स्त्री के संदर्भ में एकदम आदर्शवादी और आधुनिक दिखायी पड़ते हैं। विशेष तौर पर पढ़े-लिखे युवा पात्र। 'आकाश पक्षी` उपन्यास का पात्र रवि कहता है कि, ''....जमाना तेजी से बदल रहा है। आप देख रही हैं आज औरतें अधिक से अधिक पढ़ रही है, ऊँचे-ऊँचे पदों पर काम कर रही हैं, भाषण दे रही हैं, कॉलेजऱ्यूनिवर्सिटियों में पढ़ा रही हैं। औरत-मर्द में कोई ऊँचा-नीचा थोड़े है? सभी बराबर हैं। जो काम मर्द कर सकते हैं और करते हैं, वही औरतें भी कर सकती हैं और करती हैं....।``58 यहाँ रवि के माध्यम से अमरकांत स्त्री संबंधी अपने प्रगतिशील विचारों को सामने रखते हैं। रवि आगे यह कहता है कि, ''....कुछ लोग शिक्षा का गलत अर्थ लगाकर सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे पढ़-लिख जाएँगे और अपनी योग्यता का झूठ-मूठ प्रदर्शन करेंगे, अपने समय को गलत कामों में बरबाद करेंगे। ऐसे लोग स्त्रियों और पुरूषों, दोनों में मिल जाएँगे। पर शिक्षा का यह मतलब कतई नहीं है। शिक्षा का मतलब है मेहनती बनना, दुनिया की हलचलों को जानना, उसमें हिस्सा लेना, अपने दोषों को दूर करना, पुरानी गलत बातों के खिलाफ संघर्ष करना। इसके बिना जीवन एकदम बेकार हो जाता है। अगर औरत पढ़ेगी तो निश्चित रूप से अपनी गृहस्थी को अच्छे ढंग से रखेगी, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देगी, उनको साहसी बनाएगी।``59 इस तरह के ही विचार अमरकांत के अधिकांश युवा नायकों के हैं। वे स्त्रियां को समान अवसर, शिक्षा और बराबरी का दर्जा दिये जाने की हिमायत करते हुए नजर आते हैं।
       इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य में स्त्रियों संबंधी विचार दो संदर्भो में सामने आते हैं। एक उन पात्रों द्वारा जो युवा और पढ़े-लिखे हैं तथा स्त्रियों को भी समान अवसर, शिक्षा और समाज में बराबर का दर्जा देने की बात करते हैं। दूसरी तरफ वे पात्र हैं जो स्त्रियों का सिर्फ शोषण करना चाहते हैं। 'पलाश के फूल` कहानी के रायसाहब की दृष्टि में, 'स्त्री माया है!.... उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता ओर नकर के रास्ते पर ले जाता है।``60 रायसाहब ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अँजोरिया के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद जब वह साथ रहने (रखेल के रूप में) की बात करती है तो रायसाहब को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर खतरा महशूस होने लगता है। 'मुक्ति` कहानी का मोहन कई वर्षो तक अपनी पत्नी को छोड़कर मधु के साथ संबंध बनाये रखता है। लेकिन ससुर की तरफ से मोटी रकम और जमीन का लालच मिलने के बाद वह मधु को पथ-भ्रष्ट औरत मानते हुए उससे अलग हो जाता है। 'महुआ` कहानी के अनिलेश का मानना था कि, ''....भव सागर में स्त्रियाँ मछलियाँ है और वह मछुआ! वह कहता था कि जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है, बुरे काम के लिए कोई भी स्त्री बुरी नहीं होती और परिश्रम वहीं करना चाहिए जहाँ सफलता की आशा हो। इसीलिए वह गरीब या मर्द शून्य कुटुम्बों, कमजोर पतियों की बीबियों तथा घरेलू अन्यायों से असन्तुष्ट युवतियों को ध्यान में रखकर योजनाएँ बनाता था।``61
       इस तरह स्पष्ट है कि अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों के जीवन से जुड़े हुए ऊनके पहलुओं की चर्चा अपने कथा साहित्य के माध्यम से करते हैं। उनके शोषण की कई विचित्र स्थितियों को भी सामने लाते हैं। जैसे कि 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में सास का खुद अपने पति से अपनी ही बहू की आबरू लूटने की बात करना या फिर 'मूस` कहानी की परबतिया का अपने पति के लिए ही नई जवान औरत को घर में लाना। लेकिन जहाँ तक अमरकांत के स्त्री संबंधी दृष्टिकोण की बात है तो वह प्रगतिशील ही दिखायी पड़ती है। 'सुरंग` लघु उपन्यास में अमरकांत का यही दृष्टिकोण अधिक मुखरित होता है। अमरकांत लिखते हैं कि, ''इस दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवं संपूरक हैं। उनके मेल से ही एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं सहभागिता जरूरी है परंतु आज के भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन, जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की प्राप्तियाँ वांछित अनुपात से बहुत ही कम हैं, अत: दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ में अमूमन स्त्रियों के विरूद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीडन, अन्याय तथा हिंसा है।``62
       स्पष्ट है कि अमरकांत महिलाओं के अधिकारों, सुरक्षा, न्याय, आर्थिक स्वावलंबन और स्वैच्छिक तथा मनपसंद सहभागिता की बात करते हुए 'स्त्री विमर्श` को लेकर चल रही विचारधारा में अपनी सशक्त उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं। वैसे भी स्त्री विमर्श पुरूषों के समक्ष स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक समानता हेतु किये जा रहे आंदोलन का ही नाम है। परितोष बैनर्जी इस संबंध में लिखते हैं कि, '' 'नारीवाद` एक विशिष्ट मतवाद है जो इस सिद्धांत पर आधारित है कि स्त्रियों को इस पुरूष शासित समाज में निम्न स्थान दिया गया है और पुरूषों के साथ समान अधिकार एवं प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। अन्य शब्दों में, नारीवाद उस प्रवृत्ति का द्योतक है जो लिंग पर आधारित पारम्परिक शक्ति-व्यवस्था का पुनर्विन्यास चाहती है।``63 अमरकांत का यह लघु उपन्यास 'सुरंग` नारी मन के आंदोलित स्वरूप की झलक प्रस्तुत करता है। उपन्यास की पात्र 'बच्ची देवी` शिक्षा ग्रहण करते हुए, मोहल्ले की स्त्रियों की मदद से बड़े ही सकारात्मक रूप में अपने वांछित अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ती है।
       इस तरह समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य को देखते हुए हम कह सकते हैं कि अमरकांत का नारी संबंधी दृष्टिकोण प्रगतिशील है। वे स्त्रियों को समान अवसर, शिक्षा, सुरक्षा, न्याय, स्वैच्छिक सहभागिता और उनके आर्थिक स्वावलंबन के हिमायती हैं। वे स्त्री-पुरूष को परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं मानते। वे दोनों को एक दूसरे का परस्पर सहयोगी, सहभागी एवं संपूरक मानते हैं। साथ ही साथ 'सुरंग` जैसे लघु उपन्यास के माध्यम से वे स्त्रियों के संगठित होकर अधिकारों के लिए लड़ने के भी पक्षधर दिखायी पड़ते हैं।


8) आधुनिकता बोध :-
       देश की स्वतंत्रता के साथ ही साथ देश का विभाजन हो गया। देश के बँटवारे के साथ भीषण साम्प्रदायिक दंगो ने हमारी राष्ट्रीयता की जड़े हिला दी। भुखमरी और अकाल की परिस्थितियों ने मानव मूल्यों को झकझोर दिया। देश की स्वतंत्रता के साथ देशवासियों ने बहुत से सपने सजोये थे। इन सपनों के टूटने से जो दुख, निराशा और आत्मग्लानि सामान्य जनता ने महसूस की उसे अपने कथासाहित्य के माध्यम से अमरकांत ने पाठकों के सामने लाया। अमरकांत 'नई कहानी` आंदोलन के कथाकार है। 'नयी कहानी` में जटिल जीवन यथार्थ की व्यापक स्वीकृति अभिव्यक्त हुई, इसके माध्यम से 'व्यक्ति-चेतना` को महत्व मिला। कोरी भावुकता धीरे-धीरे कहानियों से हटने लगी। इस 'नयी कहानी` के अंदर निहित नयेपन को बोध के धरातल पर 'आधुनिकता` से भी जोड़कर देखा जाता है। डॉ. रामचंद्र तिवारी इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''.... 'आधुनिकता बोध` जीवन के जटिल यथार्थ के अनेक स्तरों, भावस्थितियों, मनोदशाओं और अनुभव खंडों की एक समवेत संज्ञा है, जो गत्यात्मक और परिवर्तनशील है।``64
       यहाँ पर हमें यह भी समझना होगा कि यूरोप में द्वितीय माहयुद्ध के बाद जो एक नयी यांत्रिक सभ्यता उभरी और उसके दबाव में मूल्यों का जो बिखराव वहाँ के समाज में हुआ वह भारतीय परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न था। लेकिन इसका एक सामान्य रूप जरूर यहाँ के समाज को भी प्रभावित कर रहा था। जब हम अमरकांत के संदर्भ में 'आधुनिकता बोध` की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय आजादी के बाद लगातार बदलते सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश में सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं से जूझते जनमानस की मानसिक और व्यवहारिक स्थितियों के आकलन से है। समय के साथ समाज कहाँ तक बदल सका, नए मूल्यों को कहाँ तक आत्मसाथ कर पाया, ये तमाम बातें अमरकांत के कथासाहित्य के माध्यम से हम समझने का प्रयास करेंगे।
       अमरकांत के उपन्यास 'ग्राम सेविका` की दमयंती पढ़ी-लिखी स्त्री है। वह ग्रामसेविका के रूप मंे कार्य करते हुए गाँव की भलाई के लिए स्कूल खोलना चाहती है। पर उसे ग्रामीण लोग ताने मारते हैं। उसे गिरी हुई चरित्र की स्त्री समझते हैं। ये तमाम संदर्भ आजादी के बाद बदलाव की उस स्थिति को स्पष्ट करते हैं जहाँ सरकार पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास और शिक्षा प्रचार-प्रसार की नीति पर आगे बढ़ना चाह रही थी। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और जीवन शैली से समाज को जोड़ना चाह रही थी। पर समाज की सदियों से चली आ रही परंपराएँ, रूढियाँ और जातिगत बंधन इन सब के आड़े आ रहे थे।
       इसी तरह 'आकाश पक्षी` उपन्यास के राजा साहब आज़ादी के बाद रियासत विहीन हो जाते हैं। पर बदली हुई सामाजिक स्थिति को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें अब भी लगता है कि काँग्रेस शासन चला नहीं पायेगी और रियासत के दिन फिर लौटेंगे। हेमा की माँ को हेमा के शलवार-कमीज पहनने पर ऐतराज था। पर हेमा अपनी माँ की मानसिकता का समझती है। वह माँ के संबंध में कहती है कि, ''वे जिंदगी भर एक पिछड़ेपन की पुरानी लीक पर चलती रही। इसलिए किसी भी नयी बात को स्वीकार करना उनके लिए बहुत ही कठिन होता था। फिर पुरानी मान्यताओं को तोड़ना उस समय आसान होता है, जब हम शिक्षित हों, हमारा हृदय उन्मुक्त हो और जब हम दूसरों से मिलंे-जुलें। लेकिन जब हमारा हृदय अपनी ही सीमाओं को सब कुछ समझता हो तो किसी चीज को बदला नहीं जा सकता। अपने चारों ओर लक्ष्मण-रेखा खींचकर अपने घमंड और झूठी शान में डूबे रहना उस गड्ढे के पानी की तरह है, जिसका निकास कहीं नहीं होता और जो धीरे-धीरे सड़ता रहता है।``65
       ऐसा ही ठहराव 'सुरंग` लघु उपन्यास की पात्र बच्ची देवी के जीवन में था। लेकिन वह मोहल्ले की स्त्रियों के संपर्क में आकर लिखना-पढ़ना सीखते हुए अपने बात-व्यवहार में बदलाव लाती है। इस तरह शिक्षित और संगठित होकर बच्ची देवी बड़े ही सकारात्मक रूप सें अपने वांछित अधिकार के लिए लड़ती है।
       इसी तरह 'काले उजले दिन` का नायक अपने लिए पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों वाली पत्नी की कामना रखता है। पर उसकी पत्नी इसके विपरीत स्वभाव की होती है। यद्यपि वह अपने पति के प्रति समर्पित और सेवा-भाव करने वाली स्त्री थी, पर अपने पति के मनोनुकूल नहीं थी। इसी कारण उसका पति शादी के बाद भी रजनी की तरफ आकर्षित होता है और बाद में उससे विवाह भी कर लेता है। स्पष्ट है कि यहाँ नायक की पत्नी आधुनिक जीवन शैली को नहीं अपना पाती, इसी कारण उसे मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है।
       अमरकांत की कहानियों की बात करें तो 'कलाप्रेमी`, 'लड़का-लड़की`, 'उनका जाना और आना`, तथा 'चाँद` जैसी कई कहानियाँ हैं जहाँ आधुनिक समाज के रंग-ढंग और इसकी जीवन शैली के प्रति पात्रों में एक खास और स्पष्ट लगाव दिखायी पड़ता है। 'कलाप्रेमी` का सुमेर कामर्शियल आर्ट के महत्व को स्वीकार करते हुए मिसेज रंजन जैसे लोगों से जुड़ते हुए जीवन में आगे बढ़ रहा है। जब कि आदर्श और नैतिकता की दुहाई देनेवाला सुबोध भी अच्छा कलाकार है। पर वह आधुनिक और नए समाज की चाल में अपने को ढाल नहीं पाता, अत: वह गुमनाम है।
       'लड़का-लड़की` कहानी का चंदर तारा के सामने आदर्श, त्याग और प्रेम की बातें करता है। जब तारा उसके अनुरूप अपने को ढालते हुए पिता को भी सारी बातें बताकर विवाह के लिए उन्हें राजी करती है; तब चंदर विवाह से पीछे हटने लगता है। इस पर तारा उसे खूब जलील करती है उसकी किसी भी दया को नकार देती है। स्पष्ट है कि पढ़-लिखकर ही तारा स्थितियों को समझते हुए उस पर एक ठोस निर्णय ले पाती है। इसी तरह 'उनका जाना और आना` कहानी के गोपालदास के लड़के पढ़-लिखकर शहरों में बस गये हैं। अत: वे गाँव में आकर अपने बच्चों की शादी करने की बात को सिरे से नकार देते है। अत: जब गोपालदास जी ही विवाह में सम्मिलित होने शहर जाते हैं तो वे पूरे समारोह में अपने आप को अलग-अलग और 'अनचाहा` सा महसूस करते हैं। आधुनिक जीवन शैली और बदली हुई मानसिकता किस तरह संबंधों के नाजुक बंधन को ठेस पहुँचाती है, इसे इस कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है।
       'चाँद` कहानी के प्रदीप का मित्र अपने सामाजिक संबंधों की बदौलत ही शहर में खुद प्रतिष्ठित व्यक्ति के रूप में जाना-जाने लगा था। आधुनिक भौतिकवादी समाज में अवसरवादिता किस तरह प्रगति का एक माध्यम बन गई है, इसे इस कहानी द्वारा समझा जा सकता है। पक्षधरता कहानी की मोहिनी भी पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों की हिमायती स्त्री है। वह अनुचित बातों पर सबको झिड़कते हुए, ''यह वाहियात बात है। साथ ही साथ उसकी उपस्थिती में कोई भी औरत ऐसे कार्य नहीं कर सकती थी जो अक्सर ग्रामीण, अनपढ़ स्त्रियाँ करती है। जैसे कि, ''घर में कोई भी भदेसी भाषा नहीं बोल सकेगी। खाट पर बैठकर कोई नहीं खायेगी। सबके सामने बाल खोलकर जूँ कोई भी नहीं बिन सकेगी। बच्चे शोर नहीं मजायेंगे और नई बहू के कमरे में भीड़ नहीं लगायेंगे। दोपहर में गप्पबाजी नहीं हो सकेगी। मुहल्ले की बूढ़ी, खूसट चाचियों और दादियों को 'लिफ्ट` नहीं दी जायेगी।....।``67
       इस तरह समग्र रूप से हम कह सकते है कि अमरकांत के कथासाहित्य में कई ऐसे संदर्भ हैं जहाँ आधुनिक जीवन की सकारात्मक और नकारात्मक स्थितियाँ सामने आती हैं। समय के साथ बदलते हुए सामाजिक मूल्यों पर अमरकांत की पैनी दृष्टि सतत बनी हुई है। आधुनिक समाज की अवसरवादिता, आत्मकेन्द्रियता, भौतिकता और स्वार्थी मनोवृत्ति के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और प्रगति के अवसरों के बीच समाज की विकासशील स्थिति को भी अमरकांत चित्रित करते है। इस तरह सामाजिक बदलाव से जुड़े हर पक्ष पर विचार करते हुए अमरकांत किसी एकाकी स्वरूप को सामने लाने से बचते हैं। यह सारी स्थितियाँ अमरकांत की वैचारिक परिपक्वता को समझने में हमारी मदद करते हैं।


01
प्रेमचंद की द्वंद्वात्मक दृष्टि और अमरकांत, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ 126 अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना
02
अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना, पृष्ठ 7.
03
हिन्दी उपन्यास जनवादी परम्परा, कुंवरपाल सिंह, अजय बिसारिया, पृष्ठ 170
04
अमरकांत : रूपवाद के विरूद्ध, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ 165, अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना
05
अमरकांत के उपन्यास, कमला प्रसाद पाण्डेय, पृष्ठ 19, 'अमरकांत वर्ष एक`, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
06
ग्रामसेविका, अमरकांत, पृष्ठ 186.
07
कंटीली राह के फूल, अमरकांत, पृष्ठ 152.
08
काले उजले दिन, अमरकांत, पृष्ठ 31.
09
काले उजले दिन, अमरकांत, पृष्ठ 51.
10
काले उजले दिन, अमरकांत, पृष्ठ 162.
11
आकाश पक्षी, अमरकांत, पृष्ठ 204-205.
12
सुख जीवी, अमरकांत, पृष्ठ 227.
13
स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार, वेद प्रकाश, पृष्ठ 167,  हिंदी उपन्यास जनवादी परंपरा, कुँअरपाल सिंह, अजय बिसारिया, पृष्ठ 17.
14
स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार, वेद प्रकाश, पृष्ठ 168-169.
15
संत तुलसीदास और सोलहवॉ साल, अमरकांत, पृष्ठ 21, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
16
संत तुलसीदास और सोलहवॉ साल, अमरकांत, पृष्ठ 25.
17
शुभचिंता, अमरकांत, पृष्ठ 107-108, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
18
लड़की और आदर्श, अमरकांत, पृष्ठ 160. अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
19
मुक्ति, अमरकांत, पृष्ठ 283. अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
20
अमरकांत : रूपवाद के विरूद्ध, पृष्ठ 167. अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
21
लड़का-लडकी, अमरकांत, पृष्ठ 71. अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
22
रिश्ता, अमरकांत, पृष्ठ 207,  अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
23
एक निर्णायक पत्र, अमरकांत, पृष्ठ 16,  जाँच और बच्चे, अमरकांत.
24
जरि गइले एड़ी कपार, शेखर जोशी, पृष्ठ 41. अमरकांत - 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
25
अमरकांत : एक पक्षधर लेखक की भूमिका, पृष्ठ 152. अमरकांत - 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
26
अमरकांत एक 'अस्तित्व वादी कथाकार, राजेन्द्र यादव, पृष्ठ 190-191. अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
27
सुन्नर पांडे की पतोह, अमरकांत, पृष्ठ 13.
28
आकाश पक्षी, अमरकांत, पृष्ठ 9.
29
स्वाधीनता का जनतान्त्रिक विचार, वेद प्रकाश, पृष्ठ 166. हिन्दी उपन्यास जनवादी परम्परा, कुँवर पाल सिंह, अजय बिसारिया.
30
प्रेमचंद की द्वंद्वात्मक दृष्टि और अमरकांत, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ 121-122, अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
31
प्रेमचंद की द्वंद्वात्मक दृष्टि और अमरकांत, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ 127, अमरकांत वर्ष 1, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना.
32
निर्वासित, अमरकांत, पृष्ठ 330, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1, अमरकांत.
33
जाँच और बच्चे, अमरकांत, पृष्ठ 29, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1, अमरकांत.
34
जाँच और बच्चे, अमरकांत, पृष्ठ 90, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1, अमरकांत.
35
इन्ही हथियारों से, अमरकांत, पृष्ठ 34.
36
इन्ही हथियारों से, अमरकांत, पृष्ठ 35.
37
शक्तिशाली, अमरकांत, पृष्ठ 274-275, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
38
शक्तिशाली, अमरकांत, पृष्ठ 274-275, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
39
हंगामा, अमरकांत, पृष्ठ 147, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
40
हार, अमरकांत, पृष्ठ 50, 'जाँच और बच्चे` कहानी संग्रह.
41
ग्राम सेविका, अमरकांत, पृष्ठ 111.
42
आकाश पक्षी, अमरकांत, पृष्ठ 146.
43
इन्हीं हथियारों से, अमरकांत, पृष्ठ 128.
44
पलाश के फूल, अमरकांत, पृष्ठ 100, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1..
45
पलाश के फूल, अमरकांत, पृष्ठ 101, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1..
46
ठंंड और ऊष्मा, अमरकांत, पृष्ठ 53, 'जाँच और बच्चे` कहानी संग्रह.
47
हार, अमरकांत, पृष्ठ 58, 'जाँच और बच्चे` कहानी संग्रह.
48
इन्हीं हथियारों से, अमरकांत, पृष्ठ 82.
49
इन्हीं हथियारों से, अमरकांत, पृष्ठ 91.
50
'रिश्ता`, अमरकांत, पृष्ठ 207, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
51
बीच की जमीन, अमरकांत, पृष्ठ 313, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
52
मौत का नगर, अमरकांत, पृष्ठ 12, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
53
इन्हीं हथियारों से, अमरकांत, पृष्ठ 53.
54
शुभ चिंता, अमरकांत, पृष्ठ 109, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
55
ग्रामसेविका, अमरकांत, पृष्ठ 10.
56
ग्रामसेविका, अमरकांत, पृष्ठ 87.
57
ग्रामसेविका, अमरकांत, पृष्ठ 90.
58
आकाश पक्षी, अमरकांत, पृष्ठ 79.
59
आकाश पक्षी, अमरकांत, पृष्ठ 80.
60
पलाश के फूल, अमरकांत, पृष्ठ 97, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
61
महुआ, अमरकांत, पृष्ठ 285, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 1.
62
सुरंग, अमरकांत, पृष्ठ 119-120, कादम्बिनी पत्रिका का उपहार अंक, अक्टूबर 2005.
63
स्त्री विमर्श और साहित्य - परितोश बॅनर्जी, पृष्ठ 14, नया ज्ञानोदय, नवम्बर 2006.
64
हिंदी का गद्य साहित्य - डॉ. रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 297.
65
आकाश पक्षी, अमरकांत, पृष्ठ 34.
66
पक्षधरता, अमरकांत, पृष्ठ 125, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.
67
पक्षधरता, अमरकांत, पृष्ठ 126, अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ, खण्ड 2.

     

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