Sunday, 23 April 2023

बेगम अख़्तर : जिसे आप गिनते थे आशना

 

        
बेगम अख़्तर
: जिसे आप गिनते थे आशना

                                    डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

                                    डॉ.उषा आलोक दुबे

 

 

 

                  ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल गायकी की वह मदभरी मख़मली आवाज साधारण तरीके से असाधारण थी । कशिश, कसक, खनक, सोज, साज़, शरारत, शिकायत और मोहब्बत के दर्द में डूबी वह आवाज़ बिब्बी से अख़्तरी बाई फैज़ाबादी, फिर बेग़म इश्तिय़ाक अहमद अब्बासी से होते हुए अंततः मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर के रूप में मशहूर और मारुफ़ हुई । बेगम अख़्तर की ज़िंदगी में दुख

अनचाहे मेहमान की तरह हमेशा रहे और आगे चलकर उनकी मखमली आवाज़ का हिस्सा बन गए । बेगम अख़्तर को ग़ज़ल, दादरा और ठुमरी ने वो मुकाम दिया, जहां पहुंचना किसी भी व्यक्ति के लिए किसी सुंदर सपने से कम नहीं होता है । उनके जैसा ग़ज़ल-सरा कोई दूसरा न हुआ । कौन सा सुर किस गज़ल के मिजाज़ की तर्जुमानी में बेहतर होगा, इसकी बारीक समझ  बेगम अख़्तर को थी । उनकी गायकी जहां एक ओर  शोखी भरी थी, वहीं दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता की गहराइयां भी थी। आवाज में गज़ब की लोच की क्षमता के कारण उनकी गाईं ठुमरियां,गज़लें,टप्पा और दादरा बेजोड़ हैं। उनकी गायकी उनके जीवन का एक तरह से अनुवाद है । उनकी आवाज़ में एक लिपटी हुई ख़ुशबू है जो उनके चाहने वालों को आज भी दीवाना बना देती है। रागों के रंगीन धागों से सधी, बेहद साफ लेकिन ख़ुमारी भरी आवाज और शुद्ध उर्दू उच्चारण रखने वाली बेगम अख्तर हिंदुस्तानी संगीत के लिए कोहिनूर हीरे की तरह थीं ।

 

                  शब्दों के साफ़ एवं सही उच्चारण के साथ ही ग़ज़ल गायकी की तैरती हुई आवाज़ में यह भी ध्यान रखा जाता है कि सासों का उतार-चढ़ाव ठीक हो ग़ज़ल-सार की सांस का लंबा होना भी बेहद जरूरी है। गायक को यह ध्यान रखना पड़ता है कि शब्द ही उसकी जड़ें हैं । उसके एहसास का जायका सुनने वालों को तभी मिलेगा जब आवाज़ में भावों की संगदिली हो । ग़ज़ल की सांगीतिक प्रस्तुति में इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि आलाप व तान का प्रयोग एकदम सधे तरीके से हो इसे उसी तरह समझना होता है, जैसे कोई सच्ची मोहब्बत को समझता है । आसान और सीधे सरल शब्दों में ग़ज़ल पढ़ने वालों को अधिक पसंद किया जाता है क्योंकि जन सामान्य उससे आसानी से जुड़ जाता है । यहाँ बोल,आलाप के माध्यम से  ही बंदिशों का विस्तार किया जाता है,जिससे श्रोता को रसात्मक अनुभूति   होती है। ख़याल गायकी में एक ही शब्द को बार-बार अलग ढंग से उच्चारित करते हुए अपनी निपुणता और तान पर अपनी पकड़ को गायक प्रदर्शित करते हैं। ग़ज़ल की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह है कि जिंदगी के सारे रंगों को स्वर,लय और ताल के माध्यम से प्रदर्शित करने का यह आज भी सबसे सशक्त माध्यम है ग़ज़ल में जिंदगी का पसरा हुआ सुकून है । कहते हैं कि स्वर और संगीत जिसे जितना मिलता है वह उतना ही फ़रिश्ता होते जाता है क्योंकि इनकी साधना में खुद को जितना मिटाया जाय उतना ही सुकून मिलता है । ऐसी साधना के लिए अधिक से अधिक तनहा होना पड़ता है । ऐसी साधन के लिए ही छोटी बिब्बी तैयार हो रही थी । तहजीब, तरन्नुम और अदब के सितारों वाला आँचल उसे लुभा रहा था ।

 

              

                फ़ैज़ाबाद के भदरसा गाँव में जन्मी थी अख़्तरी बाई । अख़्तरी बाई के पिता असगर हुसैन पेशे से सिविल जज एवं शायर थे । असगर हुसैन को पेशेवर तवायफ़ मुश्तरी बाई से इश्क हुआ फ़िर पहले से विवाहित असगर साहब ने अपनी दूसरी बेगम के रूप में मुश्तरी बाई से निकाह किया । 07 अक्टूबर सन 1914 को मुश्तरी बाई ने दो जुड़वा बेटियों अख़्तर और अनवरी को जन्म दिया । जिन्हें प्यार से बिब्बी और ज़ोहरा बुलाया जाता था। इन दोनों लड़कियों के होते ही असगर साहब और मुश्तरी के रिश्तों में कड़वाहट फैलने लगी थी । आगे चलकर असगर साहब ने मुश्तरी से रिश्ता तोड़ते हुए ज़ोहरा और बिब्बी को अपनी बेटी मनाने से भी इंकार कर दिया । चार साल की बिब्बी और ज़ोहरा ने कोई विषाक्त मिठाई खा ली जिससे ज़ोहरा की मौत हो गई । अब छोटी बिब्बी और मुश्तरी ही एक दूसरे का सहारा थे । मुश्तरी बाई के भाई ने छोटी बिब्बी को संगीत की तालीम दिलाने के लिए अपनी बहन को राजी किया । अंततः मुश्तरी बाई ने अपनी बेटी बिब्बी को गायकी के क्षेत्र में निपुण बनाने का निर्णय लिया । स्वयं बिब्बी भी इसमें रुचि रखती थी । 1920 के आस-पास फ़ैज़ाबाद छूटने के बाद माँ बेटी पहले गया फ़िर कलकत्ता आकर रहने लगे थे ।

 

                गया आने के साथ ही बिब्बी की मौसकी का लंबा सफ़र शुरू हुआ । उस उम्र में बिब्बी तवायफ़ चंद्राबाई की गायकी की दीवानी थीं और उनके जैसा ही गाना चाहती थी । चंदाबाई एक नौटंकी कंपनी में काम करती थी । उस जमाने में पटना के नामी सारंगी वादक उस्ताद इमदाद ख़ान, पटियाला घराने के अता मोहम्मद ख़ान,  किराना घराने के अब्दुल वाहिद ख़ान, उस्ताद रमज़ान खाँ, उस्ताद बरकत अली, उस्ताद गुलाम मोहम्मद खाँ और उस्ताद झंडे ख़ान जैसे नामी-गिरामी उस्तादों के मार्गदर्शन में उनकी मौसकी का सफ़र पूरा हुआ । जैसे-जैसे रियाज़ बढ़ा उनकी गायकी की सुर्ख़ी एक ख़ास साँचे में ढलने लगी ।  ये इन उस्तादों की नैमत थी कि अख़्तरी बाई की गायकी में ग्वालियर घराने की मशहूर जादुई तानें, किराना घराने की बढ़त का अंदाज , पटियाला घराने की रूमानियत और पूरबिया गायकी अंग की खुशबू और सुबह की अजान सी पाक नूरानियत बसी थी । अपनी आवाज़ से शब्दों को छानकर उन्हें एक ख़ास तेवर से भर देना, कोई अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी से सीखे । उनकी आवाज़ हमारे भीतर की बंज़र जमीं पर मुसलसल गिरती बारिश की तरह थी । मोहर्रम के समय अखतरी फ़ैज़ाबाद आती थीं और मर्सिया एवं सोज़ गाते-गाते प्रसिद्ध हुई । मोहर्रम पर फ़ैज़ाबाद में मर्सिया गाने की परंपरा अखतरी को अपनी माँ मुश्तरी से मिला था ।वह सिया मुसलमान थीं ।  रीड़गंज स्थित इनके मकान को 2014 में बेगम अख़्तर की जन्म शताब्दी पर फ़ैज़ाबाद नगरपालिका ने “बेगम अख़्तर मार्ग” कर के उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि दी ।

                  

                               सन 1934 में बिहार ज़बरदस्त भूकंप से काँप गया था । जान-माल का बड़ा नुकसान हुआ । संकट में घिरे बिहार के आपदा प्रभावित लोगों की मदद के लिए एक संगीत समारोह कलकत्ता में आयोजित किया गया, जिसमें अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी को गायन प्रस्तुति के लिए बुलाया गया । इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में स्वयं सरोजनी नायडू उपस्थित थीं । आप अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी की गायकी से बड़ी प्रभावित हुईं और उपहार रूप में उन्हें खद्दर की साड़ी भेंट की । इसके बाद पारसी थिएटर में काम की संभावनाओं के लिए वे कलकत्ता में ही रही । कोरीथियन कंपनी के माध्यम से अखतरी को यह मौका मिला भी । उस समय 700 रुपये उनका मासिक वेतन निर्धारित था । यह वह जमाना था जब सोना 16 रुपये तोला था । इसी थिएटर में नई दुल्हन नामक पहले नाटक में अखतरी बाई ने अभिनय किया । यह नाटक हिट रहा और पूरे एक साल तक चला । यह कंपनी 1936 में जब लखनऊ आयी थी तो हैदराबाद के निजाम के आमंत्रण पर उन्होने 15 दिन की छुट्टी मांगी जिसे कंपनी ने देने से मना कर किया ।  इस बात से नाराज़ होकर अखतरी ने अपना इस्तीफ़ा ही दे दिया । 

 

                             सन1933-34 से अखतरी बाई थियेटर और रईसों, रियासतों के यहाँ प्रस्तुतियाँ देने लगी थी । रामपुर, ओरझा, अयोध्या और हैदराबाद जैसी रियासतों में आप की प्रस्तुतियाँ हुईं ।अयोध्या में महाराज प्रताप नारायण सिंह ददुआ महाराज एवं जगदंबिका प्रताप नारायण सिंह के समय में अखतरीअपनी सांगीतिक प्रस्तुतियाँ  देती रहीं । 1938 में लखनऊ के हजरतगंज में “अखतरी मंजिल” नामक कोठा तैयार हो चुका था । बड़े साहब यानी मुश्तरी बाई की देख रेख में रईस, जज, मुंसिफ़ और व्यापारी लोगों का यहाँ आना शुरू हो गया । रामपुर के नवाब रजा अली खाँ, संगीतकार मदन मोहन, शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व, शायर जिगर मुरदाबादी से अखतरी बाई के बड़े खास रिश्ते थे ।  वैसे इन रिश्तों की कोई गवाही नहीं मिल सकती । मेरा मानना है कि इन किस्सों की हकीकत खोजने से कहीं अधिक जरूरी है कि इन किस्सों से जो दृष्टि मिलती है वो हमारे बड़े काम की हो सकती है । 1938-45 के बीच अखतरी बाई द्वारा कुछ खड़ी महफ़िलों में गाने का भी जिक्र मिलता है ।

                        सन 1925-1930 के आस-पास मेगाफ़ोन रिकॉर्ड कंपनी ने अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी का पहला रिकॉर्ड बनाया गया । उनकी पहली रिकार्डिंग संभवतः “वो आसरा-ए-दामने” था । यह सिलसिला लगातार आगे बढ़ा और उनकी ग़ज़लों, ठुमरी, दादरा आदि के कई ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स बाजार में जारी किये गए । अख़्तरी बाई के कई रिकॉर्ड की मांग इतनी थी कि मेगाफोन कंपनी को कोलकाता में रिकॉर्ड प्रेसिंग प्लांट बनवाना पड़ा । तीस के दशक में अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी ने कई हिंदी फ़िल्मों में भी काम किया । उनका फ़िल्मी सफ़र ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी के माध्यम से शुरू हुआ । इसी कंपनी में जहाँआरा कज्जन जैसी मशहूर नायिकाएँ भी काम करती थीं । बोलती फिल्मों के शुरुआती दिनों में जहाँआरा बड़ी नायिका थीं । इस कंपनी के मालिक रायबहादुर करनानी थे । उन्होने जिन फ़िल्मों में काम किया वे हैं -  एक दिन का बादशाह ( 1933), अमीना (1934), ‘मुमताज़ बेगम (1934), ‘जवानी का नशा (1935), ‘नसीब का चक्कर (1935) इत्यादि । आश्चर्य इस बात का कि इन सभी फ़िल्मों में उन पर फ़िल्माये गये सभी गाने अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी ने स्वयं गाए । अपनी फ़िल्म रोटी(1942) के लिए महबूब ख़ान ने उनसे कुल 06 गज़लें रिकार्ड कराई लेकिन इनमें से 04 गीत रिकार्ड प्रोड्यूसर – डायरेक्टर के झगड़े या किसी अन्य कारण के चलते डिलीट कर दिए गए । फ़िल्म रोटी के लिए उन्हें 25000 रुपये मिले थे । रूप कुमारी (1934) , अनारबाला (1939), नल दमयंती(1933) ,  नाचरंग,  दाना-पानी (1953) और एहसान (1954) नामक फ़िल्मों में भी आप ने गीत गाये । अपनी अंतिम फ़िल्म के रूप में उन्होंने सत्यजीत रे की “जलसाघर” (1958) के लिए  एक शास्त्रीय गायिका की भूमिका निभाई । सन 1945 में पन्नाबाई नामक फ़िल्म में भी अख्तरी के दो गीत शामिल हुए ।  

                     रसूलनबाई, हीराबाई बड़ोदकर, लक्ष्मीबाई बड़ोदकर, सिद्धेश्वरी देवी, बड़ी मोतीबाई, असगरी बेगम, वहीदनबाई एवं बड़ी मैना बाई जैसी गायिकाओं को सुनते हुए गायकी के न जाने कितने दिलकश नजारे उनकी आँखों में नाच रहे थे । वे अपने विश्वास के कंधों पर खड़ी हुई और न जाने कितनी रंगीन शामों का शामियाना उनकी जादूई आवाज़ में  डूबे रहे । उनकी आवाज़ की रवानी में अंदर का दर्द रिहा होता था, पिघलती हुई शामें ज़िंदगी की आग को मीठे,तीखे और सुर्ख रंग के शोलों में तब्दील होते देखती । वे गुमशुदा मौसम अब तो किस्से कहानी बनकर रह गए हैं। ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी, सावनी और बारहमासा में विधा के अनुरूप चयन अखतरी बाई की ख़ासियत थी । पुनः रागागमन में उनका कोई जबाब नहीं था । पुकार लेते हुए वो स्वरों को घसीटती नहीं थी अपितु पूरा स्वर लगाती । काफ़ी, खमाज, भैरवी, पीलू, देश और पहाड़ी राग में उनकी रुचि थी । राग तिलंग उन्हें अधिक प्रिय था ।  उनकी आवाज़ की जब पत्ती लगती तो वह सुनना अद्भुद होता । बिस्मिल्ला खाँ कहते थे – पत्ती सुनने में बेसुरी लगती है । मगर जब अखतरी गाती है तो सुरीली हो जाती है । वो ग़ज़ल भी ठुमरी की शैली में गाती थीं । खटके, मुर्की, तलफ़्फुज़, अदायगी सबकुछ ठुमरी के अनुकूल । सारंगी पर नवाज़ गुलाम साविर और तबले पर मुन्ने खाँ की संगत पर उन्हें भरोसा था । मझले कद और गौर वर्ण की अखतरी मंच पर हमेशा आत्म विश्वास से भरी दिखती । चाय-पान की शौकीन अखतरी हज कर चुकी थी । वे मिलनसार और मृदुभाषी थी । ठुमरी और दादरे में पुरब और पंजाब अंग के तालमेल की नई शैली के सृजन का श्रेय अख़्तरी बाई फैज़ाबादी को ही है ।

                         अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी जिन गज़लों को गाती थीं उनका चयन बड़ी सूझ बूझ और अपनी रुचि के अनुसार करती थीं । उन्होंने ग़ज़ल के वही शेर चुने जिनमें उदासी,टूटन,बेचैनी और द्वंद है। उनकी आवाज़ की नैमत जिन गज़लों को मिली उनकी खूबसूरती में चार चाँद लग गए । मिर्जा गालिब, दाग़ देहलवी, फैज अहमद फैज, मिर्जा सौदा, आतिश, मोमिन खां मोमिन, इब्राहीम जौक़, दाग, मीर तकी मीर, ख्वाजा मीर दर्द, अमीर मिनाई ,जिगर मुरादाबादी, कैफी आजमी, सरदार अहमद खां याने बहज़ाद लखनवी, सुदर्शन फाकिर, शकील बदायूंनी, शमीम जयपुरी और हफीज़ होशियारपुरी जैसे नामचीन शायरों की कई गज़लों को आप की आवाज ने आम लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय बनाते हुए उन्हें मकबूलियत दी । ग़ज़ल के अलावा, दादरा, ठुमरी व अन्य रागों व गायन में भी बेगम अख्तरी को महारत हासिल थी। बेगम अख़्तर के पसंदीदा रागों में  राग जोगिया, राग शुद्ध कल्याण, राग देश, राग मिश्र काफ़ी, राग शिवरंजनी, राग भैरवी, राग कोमल असावरी  का नाम लिया जा सकता है । वैसे राग तिलंग उन्हें अधिक प्रिय था ।

 

                    अगर बेग़म की दो सबसे मशहूर गज़लें हैं, तो वो हैं शकील की लिखी ये दोनों गजलें । इसके अतिरिक्त बेगम की गयी जो गज़लें मशहूर हुई हैं उनमें  ‘वो जो हममें तुममें क़रार था, तुम्हें याद हो के न याद हो’,‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’,‘मेरे हमनफस,’मेरे हमनवा,’मुझे दोस्त बन के दगा न दे’,'कभी तकदीर का मातम कभी दुनिया का गिला’,’मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गम पे रोना आया', जैसी कई दिल को छू लेने वाली गज़लों के नाम लिए जा सकते हैं । बेगम अख्तर ने ग़ज़ल गायकी को जो प्रतिष्ठा एवं प्रवाह दिया उसी परंपरा को कई अन्य गायकों ने आगे बढ़ाया। ऐसे गायकों में  मेहंदी हसन, नूरजहां, सुरैया, रफी, महेंद्र कपूर ,गुलाम अली, जगजीत सिंह,पंकज उदास,तल अजीज,भुपेंद्र सिंह एवं मुन्नी बेगम जैसे कई गायकों  के नाम लिए जा  सकते हैं । जब भी ग़ज़लख्वानी की बात की जाएगी तो बेगम अख्त़र का नाम सबसे पहले ज़हन में उभरेगा।

 

                    सन 1945 में अख़्तरी की उम्र 31 वर्ष की थी । उम्र के इसी पड़ाव में अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी ने काकौरी के नवाब बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से निकाह का फैसला लिया जो उनकी शायरी और संगीत के दीवाने  थे और इंग्लैंड से पढ़कर आए थे । निकाह के बाद बेगम अख़्तर क़रीब पांच साल तक गायकी से दूर पर्दानशीं होकर मतीन मंज़िल में रही । कोठे से कोठी तक का यह सफ़र अखतरी बाई के बेगम अख़्तर बनने का भी सफ़र था । यहाँ रहते हुए वे संगीत से दूर हुई , इसका परिणाम यह हुआ कि वह बीमार रहने लगीं । पैथेडीन नामक दर्द निवारक इंजेक्शन की आप आदी होने लगी । ज़र्दा, शराब और सिगरेट पीने में भी पहले जैसी आज़ादी नहीं रही । बेगम दोहरी जिंदगी में घुट रही थी । उनकी इस बीमारी का इलाज सिर्फ और सिर्फ संगीत ही था जिसे अहमद अब्बासी ने समझा और उन्हें दुबारा गायन शुरू करने की अनुमति दी । आकाशवाणी डायरेक्टर एल. के. मेहरोत्रा ने अब्बासी साहब को मनाया । इस तरह  सन 1949 में उन्होने लखनऊ रेडियो स्टेशन से अपनी गायकी का नया दौर शुरू किया । उन्होंने कुल 03 गज़लें और 01 दादरा रिकार्ड कराया । अपनी मन पसंद संगीत की दुनिया में लौटकर वो इतनी ख़ुश हुई कि उनकी आंखों आंसू निकल पड़े । सन 1951 में आप की माँ का देहांत हो गया, लेकिन गायकी के माध्यम से बेगम अख़्तर ने खुद को संभाला । आप की शिष्याओं में शांति हीरानंद, रीता गांगुली, ममता दास गुप्ता, अंजली बनर्जी और शिप्रा बोस का नाम प्रमुख है ।

                   इसके बाद तो बेगम अख़्तर रेडियो पर नियमित रुप से अपने अंतिम दिनों तक प्रस्तुतियाँ देती रहीं । बेगम अख़्तर के करीब 400 गानों के रिकॉर्ड भी बने । बेगम अख़्तर ने ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन को अपनी गायकी और संगीत से मलामाल किया था। बेगम अख्तर ने 1961 में पाकिस्तान, 1963 में अफगानिस्तानऔर 1967 में तत्कालीन सोवियत संघ में भी अपने सुरों का जादू बिखेरा। इसी समय लखनऊ के भातखंडे कालेज में Semi & Light Classical Music विभाग में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आप ने पदभार स्वीकार किया । भारत सरकार ने सन 1968 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया । 1972 में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से आप सम्मानित हुई । 1973-74 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से आप सम्मानित हुई ।  सन 1975 में पद्म विभूषण (मरणोपरांत) सम्मान से सम्मानित किया । 1960-70 का दशक उनके उत्कर्ष का चरम था ।                

                   गुजरात के अहमदाबाद में अपने आख़िरी संगीत समारोह में बेगम अख़्तर को लगा कि वह उतना अच्छा नहीं गा रहीं थीं, जितना वह चाहती थीं। अच्छा गाने की कोशिश में उन्होंने अपनी लय को ऊंचा कर दिया। उस दिन उनकी तबीयत वैसे ही ठीक नहीं थी और उस पर दर्शकों की मांग की वजह से उन्होंने गाने पर ज़्यादा ही ज़ोर लगा दिया, जिसकी वजह से वह बीमार पड़ गईं और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा।  26 अक्टूबर 1974 को आप को तीसरी बार दिल का दौरा पड़ा । 30 अक्टूबर सन 1974 को बेगम अख़्तर का इंतक़ाल हो गया। आप को पहला दिल का दौरा 1967 में  और दूसरा जुलाई 1974 में पड़ा था । लखनऊ के ठाकुरगंज के करीब पसंद बाग में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया। उनकी मां मुश्तरी बाई की कब्र भी उनके बगल में ही थी।

 

                       30 मार्च 1975 को लखनऊ में आप की याद में याद-ए-अख़्तर का आयोजन हुआ । कल्याणी कला केंद्र 1985 से आप की स्मृति में कार्यक्रम आयोजित करता रहा है ।  सन 1993 में कला संस्कृति लच्छू महाराज कथक अकादमी द्वारा लखनऊ में संगीत संध्या का आयोजन किया गया ।  सन 1994 में बेगम की 80वीं  जयंती पर कालधर्मी संस्था की ओर से जश्ने अख़्तर का आयोजन किया गया । डाक विभाग द्वारा 02 दिसंबर 1994 को तत्कालीन संचार राज्य मंत्री सुखराम के हाथों बेगम अख़्तर पर डाक टिकट जारी हुआ ।  इसी तरह “बेगम अख़्तर मेमोरियल कल्चरल सोसायटी” द्वारा बेगम की स्मृति में  कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं । बेगम अख़्तर की 100वीं जयंती पर तमाम सरकारी संस्थानों द्वारा कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया । गूगल ने  07 अक्टूबर 2017 को बेगम अख़्तर के 103 वें जन्मदिन पर एक डूडल समर्पित किया । ये सब बातें साफ बताती हैं कि बेगम को भुलाया नहीं जा सकता । आज़ भी बेगम अख़्तर की पुरकशिश आवाज़, उसकी पाकीज़गी ज़िंदगी की ख़्वाहिशों से वापस जोड़ देती हैं । वे एक कुशल शिल्पकार की तरह अपनी आवाज़ की झंकार से हमारे दर्द को एक सुकून, एक राहत देती हैं ।

 

 

                               

 

                                 

 

            

       

 

 

 संदर्भ सूची :

 

 

1.  अख़्तरी : सोज़ और साज़ का अफ़साना – संपादक यतीन्द्र मिश्र, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, पेपर बैक द्वितीय संस्करण- 2022

2.  बेगम अख़्तर व उपशास्त्रीय संगीत – डॉ. सुधा सहगल एवं डॉ. मुक्ता, राधा पब्लिकेशन्स नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007

3.  नारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) – डॉ. ज्योति सिन्हा, भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र, शिमला ।  प्रथम संस्करण वर्ष 2019 ।

4.  हफ़िल गजेन्द्र नारायण सिंह । बिहार ग्रंथ अकादमी पटना । संस्करण 2002

5.  https://www.bbc.com/hindi/india-37661820

6.  https://www.ichowk.in/society/begum-akhtar-birthday-remembering-eminent-begum-akhtar-ghazal-song-and-indian-classical-singer-begum-akhtar-life-story/story/1/18546.html

7.  https://m.thelallantop.com/article/news-detail/625d2a3033907fa4843d368a

8.  https://amitkumarsachin.com/begum-akhtar-biography-in-hindi/

9.  http://podcast.hindyugm.com/2009/01/beghum-akhtar-mallika-e-ghazal-anita.html

10. https://delhibulletin.in/kalams-of-poets-who-became-immortal-by-getting-the-voice-of-begum/

11. https://hindivivek.org/27230

 

 

 

 

डॉ. दिनेश जाधव का तीसरा ग़ज़ल संग्रह सितारों का कारवां

 गजलों की नई आमद - सितारों का कारवां 


डॉ. दिनेश जाधव का तीसरा ग़ज़ल संग्रह  सितारों का कारवां


आर के पब्लिकेशन मुंबई द्वारा इस वर्ष प्रकाशित होकर आ गया है । डॉक्टर दिनेश जाधव का यह तीसरा ग़ज़ल संग्रह  मुख्य रूप से प्रेम की पीर से संबंधित गजलों अशआर और कुछ कविताओं का संग्रह है । इस संग्रह की रचनाओं से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि कवि अपने जीवन में प्रेम से जुड़ी संवेदनाएं को बहुत गहराई से महसूस करता है । प्रेम की संवेदनाएं कभी एकांगी नहीं होती । दो लोगों का प्रेम उदात्त मानवीय मूल्यों की झांकी होती है जिसके  आधार पर ही इस जीवन का क्रम चलता है । 


डॉ दिनेश जाधव की गजलों से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि हिंदी में गजलों को लेकर जो नए प्रयोग हो रहे हैं उन प्रयोगों के साथ अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में कहीं कोई कमी डॉ दिनेश जाधव ने नहीं छोड़ी है । प्रेम की पीर का यह कवि नई हिंदी कविता में गजलों को लेकर जिस तरह से प्रयोग लगातार कर रहा है उससे एक चीज महसूस होती है वह यह कि हमारे जीवन में जिस तरह से बाजार हावी हो रहा है, जिस तरह से मानवीय संबंधों में प्रेम और उससे जुड़ी हुई संवेदना को लेकर बदलाव हो रहे हैं, उनको बड़ी आसानी से रेखांकित किया जा सकता है ।


जाधव जी की गजलें सहज सरल और सपाट भाषा में लिखी हुई गजलें हैं । कोई भी हिंदी प्रेमी उन्हें आसानी से समझ सकता है । किताब में उर्दू के शब्द जो कि सामान्य चलन में नहीं है , उनके अर्थ भी दिए हुए हैं जिससे पाठकों को उनके अर्थ  समझने में किसी तरह की कोई दुविधा नहीं होती । कवि दिनेश जाधव जिस तरह की गजलें लिख रहे हैं वह अपने आप में प्रयोग धर्मिता का अनूठा उदाहरण है । 


दिनेश जाधव जी मूल रूप से बॉटनी के प्रोफेसर हैं ।  अपनी गजलों के माध्यम से वे जब मन के अंदर गड़े हुए प्रेम के भाव से उद्वेलित होते हैं और उस भाव को कागजों पर उतारते हैं, तो यह साफ दिखाई देता है कि यह एक सच्चे और सरल हृदय की अपनी आकांक्षाएं, अपने सपने  और सुख और दुख का सहज बयान है । एक तरह से यह एक मन का दूसरे सुधी मन से संवाद है जो पाठकों के साथ वे करते हुए दिखाई पड़ते हैं । प्रेमी  अपनी प्रेमिका को याद करता है , उसके साथ बिताए हुए सपनों को याद करता है, उसके द्वारा किए हुए वादों को याद करता है और उन वादों उन सपनों का टूटना बिखरना इस तरह से सृजनात्मक कार्यों द्वारा सभी के हृदय  को जोड़ देता है । 


 प्रेम कभी एकांगी नहीं होता है । वह अपने साथ अपने पूरे समाज को जोड़ देता है । आज हम और आप जिस समय, जिस काल में रह रहे हैं , उसमें यह बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम अपनी संवेदनाओं को बचा कर रखें क्योंकि यह संवेदनाएं ही हमें मनुष्य बनाती हैं। यह संवेदना ही हैं जो हमारी थाती बनकर आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास, अपनी संस्कृति से परिचित कराती है ।  


इस संग्रह में जो कविताएं हैं वह भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं। कुछ कविताएं प्रकृति प्रेम को लेकर हैं ।  जैसा कि मैंने कहा कि जाधव जी बॉटनी के प्रोफेसर हैं तो प्रकृति को लेकर भी उनकी चिंताएं इन कविताओं के माध्यम से मुकर होती हैं।कई गजलों में, कई बड़े शायरों द्वारा कही गई वह बातें जो कि हम अधिकांश रूप से जीवन में कोट करते हैं , उन कथनों को लेकर एक लंबी कविता लिखी गई है।  ऐसा लगता है कि जैसे अपने पुरखे पुरनिया की कही हुई बातों को नए संदर्भों में उदाहरणों के साथ जोड़कर,  समाज के अंदर फिर से उन्हें रोपने का काम, कवि करता है । 


इन कविताओं की प्रासंगिकता के प्रश्न के संदर्भ में मैं यही कहना चाहूंगा कि यह समाज को और अधिक उदार और अधिक सरल बनाने की जद्दोजहद से जुड़ी हुई कविताएं दिखाई पड़ती है । सितारों का कारवां दरअसल प्रेम की पीर का एक ऐसा शामियाना है जिसके अंदर सारे भाव , सारी संवेदनाएं हमको दिखाई पड़ जाती है ।  इस कारवां में सुख भी हैं, दुख भी है ,अच्छाई भी है और बुराई भी है । एक दम जीवन की रवानी की तरह ।  कहीं-कहीं आक्रोश है लेकिन अधिकांश जगहों पर बीते हुए कल को स्वीकार करके आगे बढ़ने की प्रेरणा भी है । इन गजलों में एक महत्वपूर्ण बात जो कि रेखांकित करने जैसी है वह यह है कि इन तमाम गजलों को पढ़ते हुए बहुत सारी ऐसी पंक्तियां हैं जो एकदम से  आपको चमत्कृत कर देती हैं । उनमें एक तरह का नयापन है । 

अपनी हिसाब ग़ज़ल में वह यह बात स्पष्ट करते हैं कि उनके पास हर सवाल का जवाब है । वे प्रेमिका के कहे हुए हर शब्दों का हिसाब रखते हैं लेकिन वह जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव के बाद ऊंचे हौसलों का ख्वाब रखते हैं । जमाना कितना भी बदलें लेकिन वह चंद  दोस्तों को हमेशा अपने खिलाफ रहते हैं । तन्हाई हर कहीं अदब से चली आती है मगर महफ़िल में जाकर महफिल को आबाद रखने की जो एक सामाजिक नियति है उस नियति का पालन ग़ज़लकार खुद करते रहते हैं । रिश्तो से कभी  निकले नहीं है लेकिन दुश्मनों के हिसाब किताब वे बेहिसाब रखते हैं ।इसी तरह अपनी ग़ज़ल में वे लिखते हैं कि उनके होने पर ही किसी को ऐतराज रहा और उनकी आंखों में हमेशा इंतजार रहा ।  जीवन के प्रति, प्रेम के प्रति उनका अपना एक सकारात्मक दृष्टिकोण है जो इस कविता के माध्यम से दिखाई पड़ता है । 


ठीक इसी तरह दुनिया नामक अपनी ग़ज़ल में कहते हैं कि काश दुनिया उनकी हैरानी समझ पाती । उनका जो गुस्सा है , उनका जो दर्द है, उसके पीछे की परेशानी समझ पाती ।आंखें जो हमेशा लोगों से मिलने पर मुस्कुराती है, उन आंखों की वीरानी भी कोई समझ पाता । उनकी उदासी को भी, उनकी नादानी को भी कोई समझ पाता । एक टुकड़ा जमीन का लाश को मयस्सर हो काश , यह दुनिया इस कहानी को समझ पाती । कहने का अर्थ कि अपनी तमाम परेशानियों को बताते हुए भी अंतिम शेर में वह एकदम मानवता की उदात्त भावना को स्पष्ट करते हैं कि जीवन के अंत में होना वही है जो ईश्वर ने सबकी नियति में लिख रखा है और उसके लिए जो अंतिम आवश्यकता है वह हर व्यक्ति की पूरी हो ऐसी कवि की कामना है । ठीक इसी तरह अपने रहस्य नामक ग़ज़ल में वे कहते हैं कि यादों के पल में जीवन समाया है एक बीज में दर्द समाया है । मोहब्बत खुदा की नेमत है और इसी में संसार समाया है । इस तरह प्रेम और मोहब्बत के व्यापक स्वरूप को अपनी गजलों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं । इश्क नामक अपनी ग़ज़ल में वह कहते हैं की बरसी होंगी यह घटा बनके कहीं ठंडी हवाएं चुपके से यह कह जाती हैं , चांदनी देखो पाव समेट रही है पीली रोशनी आसमां पर बह जाती है । इन तरह के शब्दों में, इन तरह के कथनों के माध्यम से वे अपने मनोभावों को अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करते हैं । 


उनकी एक ग़ज़ल है जिसका नाम है साथ और उसमें वह पहली ही शेर में कहते हैं बुरे वक्त में साथ देता नहीं कोई अच्छा वक्त पास आने देता नहीं कोई । तो यह जो दुनिया की दुविधा है उसका जो यह दोहरा चरित्र है कहीं न कहीं उस चरित्र को सामने लाने का प्रयास व इससे शेर के माध्यम से करते हैं ।  इस तरह से तेरी याद में नामक अपनी ग़ज़ल में वह पहले ही शेर में कहते हैं कभी जी भर आता है मेरा तेरी याद में कभी जी उचट जाता है तेरी याद में । मतलब उसी प्रेम  की दास्तान में मन भी लगता है और उन्हीं दास्तानो से मन उचट  भी जाता है , तो यह उन रिश्तो की अपनी वेदना है, व्यथा है जो अक्सर हर शायर महसूस करता रहा है।


  भारत के गौरवशाली इतिहास को भी वे अपनी कविताओं के माध्यम से याद करते हैं । भारत मां को भी लेकर उनकी एक बड़ी महत्वपूर्ण कविता इस संग्रह में है जिसमें वह भारत मां की व्याख्या करते हैं । वृक्षों की करुण गाथा के माध्यम से वे वृक्षों के महत्व को प्रतिपादित करते हैं । सड़क और जिंदगी यह एक तुलनात्मक कविता है जिसमें वह जिंदगी की तुलना सड़क से करते हैं कि कैसे सीधी चिकनी सपाट सड़कों पर जिंदगी भली मासूम सी लगती है डरी सहमी सी लगती है ।  जिंदगी का कुछ नहीं बिगड़ रहा लेकिन उस जिंदगी को जीते हुए जीवन कितना कठिन होता है उसकी तरफ इशारा करते हैं । प्रकृति की सुनो यह एक तरह से शीर्षक ही आदेशात्मक है लेकिन यह समसामयिक संदर्भों में पर्यावरण को लेकर उनकी चिंताओं को बहुत गंभीरता से व्यक्त करता है । पर्यावरण और प्रकृति को लेकर ही उनकी एक और महत्वपूर्ण कविता है औरत और प्रकृति ।  जहां पर पहली पंक्ति में कहते हैं कि जब भी तुम्हें देखता हूं एक अजब सा ख्याल आता है

 कि ईश्वर ने पहले तुम्हें रचा या प्रकृति को 

 कहीं न कहीं नारी की जो गरिमा है और प्रकृति का जो स्वरूप है दोनों को लेकर एक महत्वपूर्ण कविता इस कविता को माना जा सकता है ।


इस तरह से हम देखते हैं कि अपनी तमाम गजलों और कविताओं के माध्यम से व्यक्तिगत प्रेम संबंध , उसके सुख-दुख, उसके सपने इत्यादि के साथ-साथ पूरे मानवीय समाज का जो वैश्विक स्वरूप है उसकी जो वर्तमान में चिंताएं हैं चाहे वह प्रकृति को लेकर हो पर्यावरण को लेकर हों ,उन तमाम पहलुओं पर विस्तार से अपनी कलम डॉक्टर दिनेश जाधव चलाते हैं ।

मैं डॉक्टर दिनेश जाधव को उनकी इस तीसरी गजल संग्रह के लिए हार्दिक बधाई देता हूं । आर के पब्लिकेशन मुंबई को बधाई देता हूं कि जिन्होंने बड़े सुंदर कलेवर के साथ, बड़े सुंदर आवरण के साथ इस पुस्तक को प्रकाशित किया है । शीघ्र ही अमेज़न पर यह संग्रह उपलब्ध होगा ऑनलाइन और पाठक दिल खोलकर इस संग्रह का स्वागत करेंगे । इस पर अपनी आलोचनाएं , समीक्षाएं प्रस्तुत करेंगे । जिससे कवि का मनोबल बढ़ेगा और हमें विश्वास है कि आने वाले दिनों में जीवन, प्रकृति, समाज, प्रेम इत्यादि को लेकर हम डॉक्टर दिनेश जाधव जी के मन की स्थितियों का आकलन उनकी नई रचनाओं के माध्यम से कर सकेंगे।


डॉ मनीष कुमार मिश्रा 

हिंदी व्याख्याता 

के एम अग्रवाल महाविद्यालय 

कल्याण पश्चिम 

महाराष्ट्र

Saturday, 22 April 2023

मनुष्य के मनोभावों को व्यक्त करती “इस बार तुम्हारे शहर में” की कविताएँ डॉ.शैलेश मरजी कदम

 मनुष्य के मनोभावों को व्यक्त करती “इस बार तुम्हारे शहर में” की कविताएँ

डॉ.शैलेश मरजी कदम , सहायक प्रोफेसर , मराठी विभाग ,  साहित्य विद्यापीठ ,

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा – 442001 ,

मो-9423643576,  ईमेंल-kadamshailesh05@gmail.com


डॉ.  मनीष कुमार मिश्रा जी द्वारा लिखित और 2018 में शब्दसृष्टी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह “इस बार तुम्हारे शहर में” के लिए महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा दिया जाने वाला संत नामदेव काव्य पुरस्कार वर्ष 2020-2021 इस कवितासंग्रह को मुंबई में सम्मानपूर्वक दिया गया । इस कवितासंग्रह में कुल 60 कविताएँ हैं  और अंतिम कविता का शीर्षक ही “इस बार तुम्हारे शहर में”  है । कविता संग्रह की 60 कविताओं से गुजरने के बाद कोई भी संवेदनशील व्यक्ती प्रेम की अनुभूती लेता है । प्रेम को जीता है। प्रेम को समजता है। प्रेम की अवधारणा को गहराई में जाकर अपने भीतर उतारने की कोशिश करता है । प्रेम व्यक्ति के सुख और दुःख का किस प्रकार साक्षी हो सकता है इसका अनुभव डॉ. मनीष कुमार मिश्र की इन कविताओं में किया जा सकता है । स्त्री भले वह प्रेमिका हो या मित्र हो या पत्नी हो; अपने अस्तित्व से मनुष्य को किस प्रकार हर पल भावनात्मक रूप से जोड़ें रखती है इसका समस्त कविताएँ अनुभव कराती हैं । वास्तिवक प्रेम में दुनिया की तमाम बुराईयों से दूर रहा जा सकता हैं इसका अनुभव इस कवितासंग्रह के प्रत्येक कविता के माध्यम से पाठक को होता ही है । कविता संग्रह प्रेमी -प्रेमिका के भावात्मक, व्यवहारात्मक और मनोवैज्ञानिक रिश्तों को सहज, सरल और सामान्य जीवन की भाषा में आधुनिक जीवन के प्रतीकों, बिंबों के साथ रखती है । प्रेम के साथ जीवन जीने का अनुभव क्या होता है और प्रेम के बगैर जीवन जीने का अनुभव क्या होता है यह वास्तविक रूप में इस कवितासंग्रह के प्रत्येक कविता में दिखाई देता है । कविने प्रेम में आनेवाले प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभवों को अपनी कविता में कैद किया है । कविने “तृषिता” कविता में रूठना और मनाने का जो वर्णन किया है वह जीवन में संवाद कितना जरुरी है यह दर्शता है । प्रेमिका के रूठने के बाद की चंचल मनोदशा और मनाने के बाद का सुखकारक आनंद इस कविता में व्यक्त हुआ है । जैसे- 

“मैंने कहा- 

तुम जब भी रूठती हो 

मैं मना हि लेता हूँ 

चाहे जैसे भी  । ” ( पृष्ठ संख्या -21)

“सवालों से बंधी” कविता में कवि बताता है कि जो प्रेम निश्चल, पूर्ण समर्पण का होता है वह तुटने के बाद भी बार-बार याद आता है । इसलिये कवि लिखता है कि,  

“अब जब भी 

वैसा ही विश्वास खोजता हूँ तो 

वह लड़की बहुत याद आती है 

मुद्दतों बाद , आज भी ... ।”( पृष्ठ संख्या -25)


“तुम्हारे ही पास” कविता के माध्यम से मनुष्य का जीवन एक यात्रा और यह यात्रा निरंतर चलती रहती हैं यह बताने का प्रयास किया गया है । कविने प्रेमिका से बार-बार दूर जाने और पुन: पुन: उसके पास लौंटने के बहाने से दोनों के बीच के भावात्मक आकर्षण को बताने के साथ प्रेमिका प्यार की उष्मा में किस तरफ पिघलती है यह भी बताया है । जैसे -

“और वही वादा कि 

अब कभी नही जाऊंगा

यह जानते हुए भी कि 

जाऊंगा 

और यह भी मानते हुए कि

 मना लूंगा तुम्हे फिर से

 तुम्हारी नाराजगी के बाद 

अपनी वापसी के साथ

 लेकिन 

ये तुम्हारी नाराजगी भी 

ठहरती कहाँ है 

चली जाती है 

दरसल पिघल जाती है

 प्यार की उष्मा में 

और बह जाता है 

सब क्लेश और क्रोध ।” (पृष्ठ संख्या -29-30) 

“कि तुम जरूर रहना” कविता में कवि ने किसी के न रहने पर खासकर स्त्री के न होने पर जीवन में जो रिक्तता आती है उसे हु-ब-हु व्यक्त किया है । अकेलेपन में उसकी यादे ही जीवन का सहारा बनती है । अपने प्रिय के बगैर भी सकारात्मक जीवन कैसे जीना है यह इस कविता में इस प्रकार व्यक्त किया है । जैसे-  “अपने अंदर ही

 कुछ तोडना, कुछ जोडना 

डूबती हुई शाम को दूर तक अकेले ही टहलना

मेंरी यादों के साथ 

कभी कोई कविता करना ।

चाय के प्यालों में वक्त को उडेलते रहना 

जितना हो सके,  सिगरेट और शराब कम पीना

 मैं नहीं रहूंगी पर तुम रहना ।”  (पृष्ठ संख्या -34)

इस कविता के माध्यम से प्रेमिका आपने प्रेमी को मेंरे बिगर भी तुम्हे जीना है, खुशहाल जीना है, कभी हमने जो चाय के साथ जो वक्त गुजारा था वैसा ही वक्त गुजरना । गम में रहने पर भी सिगारेट और शराब पीकर जीवन बरबाद नहीं करना है । आगे कवि लिखता है कि, 

“और देखना

 मेंरे ना रहने पर भी

 जब तक तुम रहोगे 

तो रहेगी 

मेंरे न होने पर भी होने कि निशानी

 इसीलिए कहती हूँ

 कि तुम जरूर रहना ।”  (पृष्ठ- 35) 

यहाँ कवि कहना चाहता है कि किसी भी मनुष्य के प्रेम के दिनों की निशानियाँ एक के न होने पर भी दूसरे को जीवन जीने के लिए प्रेरणादायी होती है । केवल वह प्रेम नैतीक और मनोभावात्मक  होना अनिवार्य है ।  

“तुम आ रही हो तो” कविता के माध्यम से कवि ने प्रेमिका के एक अंतराल के बाद आने से प्रेमी के मन में जो उत्साह, आनंद निर्माण होता है उसे अती सूक्ष्मता से पकडने की पूर्ण कोशिश इस कविता में की है । प्रेमिका के एक अंतराल के बाद आने से प्रेमी की दुनिया किस तरह बदलती है इसका जीवंत दर्शन है यह कविता । प्रेमिका के आने से किस प्रकार से प्रेमी के मन में एक सकारात्मक ऊर्जा  का निर्माण होता है इसका एक जिवंत उदाहरण है यह कविता । प्रेमिका के दूर रहने से प्रेमी को जैसे हर्ष उल्हास से भरे दिवाली, बैसाखी और होली भी बेरंगी लगती है । कवि लिखते है कि ,

“अब जब तुम आ रही हो तो देखो

दिवाली भी आ रही है 

बैसाखी और होली भी  

वो सब जो मानों 

तुम्हारे इंतजार में 

कहीं रूठ के चले गये थे । ” (पृष्ठ संख्या - 42) 

 इस कविता संग्रह “चुड़ैल” कविता किसी भी दो व्यक्तियों के प्रेमभरे रिश्तों को बखूबी  बयाँ करती है । वैसे चुड़ैल तो एक नकारात्मक शब्द है लेकिन कोई जब प्रेम में चुड़ैल कहता है तो उसका अर्थ बदल जाता है । वास्तविक रूप में कवि चुडेल शब्द के माध्यम से प्रेमी का को सुंदर कहना चाहता है । उनके बीच के रिश्तों को बताना चाहता है की एक के बगैर दूसरा कैसे रह ही  नहीं  सकता दोनों की प्रत्येक सांस जैसे एक दूसरे के लिए ही निकलती हो । कवि को प्रेमिका का खयाल भी जादू जैसा लगता है । कवि ने लिखा है कि,  “और इनसब के साथ

 करता हूँ  तुम्हें चुड़ैल भी  

क्योंकि एक जादू सा 

असर करता है 

तुम्हारा खयाल भी ।” (पृष्ठ संख्या- 46)

“जब कोई किसी को याद करता है”  इस कविता के माध्यम से जब कोई अपने प्रिय को याद करता है तो तब उसके याद का दायरा कितना विशाल होता है इसका अतिउत्तम उदाहरण है यह कविता । याद करने के बहाने से मनुष्य अपने प्रिय  के  लिये उत्पन्न मनोभावात्मक संवेदनाओं के माध्यम से सबकुछ बयाँ करता है । कोई अपनों को किस हाद तक याद करता है इसका बेहद और उत्कृष्ट नमुना है यह कविता । कवि ने लिखा है 

“अगर सच में ऐसा होता तो 

अब तक सारे तारे टूटकर 

जमीन पर आ गए होते 

आखिर इतना तो याद

 मैंने तुम्हें किया ही है ।” (पृष्ठ संख्या-50)

“तुन मिलती तो बताता” इस कविता संग्रह की एक लंबी कविता है और कवि ने प्रेमिका के सौंदर्य का अप्रतिम वर्णन इस कविता में किया है । सौंदर्य की उच्चतम परिभाषा गढ़ी है । प्रियतम से दूर होने की पीड़ा क्या होती है और उस पीड़ा को झेलना कितना मुश्किल होता है आदि बातों को कल्पनाविस्तार के माध्यम से वास्तविकता के धरातल पर व्यक्त किया है ।  प्रियतम की एक मुलाकात और एक बात कितनी कींमती होती है इसके अनेक उदाहरण जनमानस के प्रतीको और बीम्बों के साथ इस कविता में व्यक्त किया गये है । जैसे-  “कोई भी रंग  

कोई भी तस्वीर 

तेरे मुकाबले में 

टिक ही नहीं पाते  ।” (पृष्ठ संख्या- 54) 

“मोबाईल” नामक छोटीशी कविता प्रेमी के अपनी प्रेमिका के प्रति लगाव, बेहद प्यार और मोहब्बत के भाव को व्यक्त करती है । प्रेमिका को उसके अनुपस्थिति में प्रेमी के मन में प्रेमिका किस प्रकार हमेंशा बनी रहती है इसका सुंदर वर्णन है यह कविता ।

 जैसे-  “तुम्हारे बारे में सोचते हुए

 आदतन, बार-बार 

मोबाईल को जेब से निकाल कर 

देख लिया करता था 

यह सोच करके कि

कहीं युम्हारा कोई ‘काल’ मैं ‘मिस’ ना कर दूँ ।  (पृष्ठ संख्या- 61)

 “वो मोसम”  कविता प्यार के रिश्तों को गंभीरता से व्यक्त करती है । प्यार कोई जबरदस्ती की भावना नहीं है न ही वह कोई अनुबंध है। न ही कोई लेन- देन का सौदा । प्रेम इन सब से परे किसी परिभाषा में न बैठने वाली एक भावना है । प्रेम क्या है ? यह समझने के परे है । कवि कविता जब प्रेमिका से कहता है कि इतने दिनों बाद आ रहा हूँ क्या लाऊ तुम्हारे लिये तब प्रेमिका जो जवाब देती है वह प्रेम की सभी परिभाषा से अलग जवाब लगता है । जैसे-  

“इतने दिनों बाद आ रहा हूँ 

बोलो 

तुम्हारे लिए क्या लाऊं ? 

 उसने कहा 

 वो मौसम

 जो हमारा हो

 हमारे लिए हो 

और हमारे साथ रहे 

हमेशा  ।” (पृष्ठ संख्या- 65) 

“कैमरा” कविता के माध्यम से जीवन एक की वास्तविक सच्चाई को कवि ने उद्घाटित किया है । हम अपनों के साथ जो समय बीताते है उसे किसी भी कींमत पर दूबारा नहीं जिया जा सकता । “कैमरा”  में उस आनंदमय क्षणों  को कैद कर सकते है, बार-बार  कैमरा में देख सकते है किंतु उस आनंदमय क्षणों  को पुन: दोबारा जी नहीं सकते । जैसे कवि ने  लिखा है  

“ लेकिन

 हम भूल गये थे कि कैमरा

 यादों को कैद कर सकता है 

लौटा नहीं सकता ।” (पृष्ठ संख्या- 67)  

“विजिटिंग कार्ड्स” कविता महानगरीय जीवन की विवशता को व्यक्त करती है।  महानगरो में मनुष्य के बीच के मानवी रिश्तों के खत्म होते अनुभव को इस कविता में बखुबी विश्लेषित किया है । 

जैसे-  “सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स में से 

एक भी ऐसा न मिला 

जिससे मिल आता बिना किसी काम 

बस ऐसे ही ।” (पृष्ठ संख्या- 71)

 दुनिया प्रेम करने वालों को पागल कहती है । प्रेम में पागल होना एक मनोदशा है । प्रेम में पागल होने का मतलब ये होता है कि प्रेमी- प्रेमिका का के लिए और प्रेमिका-प्रेमी के लिए अपने जी जान से ज्यादा चाहती है । अपने खून के रिश्तोदारों को भूल जाती है । उसके सामने प्रेम केवल एक रिश्ता होता है “उसने कहा” कविता में प्रेम में पागल बनने की मनोदशा का वास्तविक वर्णन मिलता है । जैसे- 

“मै तुम्हे पागल समजता हूँ 

दरअसल तुम हो पागल 

मेंरे प्यार में पागल हो 

और मै जितना समझता हूँ 

उससे कंही अधिक पागल हो ।” (पृष्ठ  संख्या- 84)

“तुम जितना झुठलाती हो”  कविता में कवि ने प्रेम में झूठ बोलने के अर्थ को परिभाषित किया है । प्रेम में दिया गया हर सवाल का झूठा जवाब सच्चा होता है । झूठ बोलना संवाद प्रक्रिया को आगे ले जाने की क्रिया है । प्रेम का रिश्ता विश्वास पर टिका होता है । इसकी पुष्ठि में कवि लिखता है कि   “दरअसल 

प्यार और विश्वास में 

सवाल जरुरी नहीं होते 

और न ही उनके जवाब ।” (पृष्ठ संख्या- 95)  

कवि वाराणसी के बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में अपने अनुसंधान के दौरान रहे है और उन्हीं दिनों के अनुभव को व्यक्त करती “बनारस के घाट” “लंकेटिंग” और “मणिकर्णिका” यह तीनों इस कविता संग्रह की बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविताएँ  हैं । “बनारस के घाट” में कवि घाट के नैसर्गिक स्वभाव को व्यक्त करते हुए मनुष्य स्वभाव के साथ उसे जोडणे का प्रयास करते है । जैसे- “ ये बनारस के घाट 

चेतना के द्वार हैं 

 हम सभी के लिए 

हम सबके हैं ।” (पृष्ठ संख्या- 98) 

“लंकेटिंग” कविता का बनारस हिन्दू विश्विद्यालय और उसके बाहर का लंका भौगोलिक क्षेत्र आपने आप में कितना चहल-पहल करने वाला क्षेत्र है यह बताती है । हजारों  घटना को एक साथ अंजाम देने वाले लंका का वर्णन कवि ने अद्भुत रूप से किया है । लंका में ज्ञान-अज्ञान, राजनीत, षडयंत्र और इससे परे कई विषय है जो केवल वहा जाकर अनुभव करने होंगे इसीलिये कवि लिखते है कि,  

“लंकेटिंग 

ज्ञान का नहीं 

अनुभूति का विषय है 

तो आइये कभी लंका- बी.एच. यू.

और खुद को 

समृद्ध होने का अवसर दे ।” (पृष्ठ संख्या-102) 

“मणिकर्णिका”  इस कविता संग्रह की बहुत महत्वपूर्ण कविता है । जीवन जीना और मृत्यू के बाद मोक्ष प्राप्त करने की यात्रा इस कविता के केंद्र में है । मृत्यू भी एक उत्सव है उसकी उत्सवता में जीवनयापन साधन भी मौजूद है ।  दर्शन, धर्म और अध्यात्म पर सूक्ष्मता से प्रकाश डालती या कविता मनुष्य के जीवन चक्र को व्यक्त करने के साथ मनुष्य के भिन्नभिन्न मनोभाव और व्यापारों को व्यक्त करती दिखाई देती है ।

“यह पीला स्वेटर” इस कविता संग्रह की लंबी कविता है । स्वेटर के माध्यम से अपने प्रियजनों द्वारा दि गयी वस्तू उनके अनुपस्थिति में  उनके उपस्थिति का अहसास करती है और यह अहसास आनंददायक होता है । दरसल कवि स्वेटर के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करता है । आपने प्रिय के अनुपस्थिति में भी संवाद कायम रखता है । जैसे-  “लेकिन न जाने क्यों 

इसके जैसा 

या कि  

बेहतर इससे 

अब तक मिला ही नहीं ।” (पृष्ठ संख्या-110)

“औरत” कविता स्त्री के अनेक मनोभावों को व्यक्त करती है ।  परिवार और  समाज के बीच होकर भी औरत अकेलापन महसूस करती है । उसका दर्द, घुटन और अकेलापन केवल उसे ही निभाना होता है । जैसे – 

“समझ रहा हूँ कि

ऐसा बहुत कुछ है  

जिनका सामना 

तुम अकेले ही कर रही हो ।

चेहरा अलग हो सकता है लेकिन 

तकलीफें एक सी हैं 

घुटन, दर्द और एकाकीपन  

सब एक सा तो है ।” (पृष्ठ संख्या-116)

 

 “लड्डू” कविता के माध्यम से कवि ने माँ के प्रति प्रेम और स्नेह का भाव व्यक्त किया है । माँ का प्रेम दुनिया में सबसे अलग और जिसे किसी भी परिभाषा में नहीं बाँध सकते ऐसा होता है यह बताया गया है ।  जैसे- 

“लड्डू तो माँ है

 बचपन है 

मासूम दिनों की याद है

 रिश्तों की मिठास है ।” (पृष्ठ संख्या-117)

“इस बार तुम्हारे शहर में” इस कविता संग्रह की आखरी और सबसे लंबी कविता है । एक प्रेमी या प्रेमिका एक दूसरे से प्यार करते हुए एक शहर में अपने प्यार को पालते-पोसते है और इसी क्रम में शहर के हर गली-मोहल्ले से गुजरते है । हर मौसम में शहर के हर कोने में अपना अस्तित्व बनाते है । प्रेमिका जिस शहर में रहती है वो शहर की हर बात दोनों को एक आनंद और रोमांच का अनुभव कराती है । दोनों को शहर का हर मौसम प्यारा लगता है । कवि ने प्रेमिका के शहर में होने और न होने के अंतर को बहुत बखुबी व्यक्त किया है । शहर में अपनों का होना मन को कितना भाता है उसके साथ का हर पल कितना प्यारा लगता है । पर उसके न होने से सब कुछ वीराना और बेहद दुखद अनुभव होता है । जैसे-  

“इस बार तुम्हारे शहर में 

जब तुम न मिली तो  

रुसवाई मिली 

महीना यह भी तो मई का ही था 

पर तुम्हारे साथ वाली वो

 बेमौसम बारिश न मिली ।” (पृष्ठ संख्या-127)

 


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