Sunday, 8 May 2022

युवा कहानीकारों में डॉ. मनीष कुमार मिश्रा का नाम


 











कहानी गद्य साहित्य की वह सबसे अधिक रोचक एवं लोकपप्रिय विधा है, जो पाठक के मन पर समन्वित प्रभाव उत्‍पन्‍न करने की क्षमता रखती है। कहानी को एक अर्थ में हम समाज के यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाली सबसे शानदार एवं प्रभावशाली विधा भी मान सकते हैं। समकालीन कहानिया जहाँ आमजन के अधिक नजदीक पहुची हैंवहीं वह समाज के ज्वलंत मुद्दों को अभिव्यक्त करने में भी मुखर हुई हैं। आज के कहानीकार स्वानुभूति और सहानुभूति के प्रश्न को समाप्त कर समाज के हर वर्ग के बीच पहुच रहे हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के रचनाकार आज विभिन्न सामाजिक समस्याओं को अपने रचनात्मक संसार का आधार बनाकर साहित्य सृजन कर रहे हैं। इधर युवा कहानीकारों में डॉ. मनीष कुमार मिश्रा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। उनका पहला कहानी संग्रह समृतिया रिश्‍तों के अधूरेपन के द्वन्द्व और घुटन, मध्‍यवर्गीय युवाओं के संघर्ष, सड़ी-गली जातिवादी सोच, शिक्षा व्‍यवस्‍था की जड़ को दीमक की तरह चट कर रही क्षुद्र राजनीति और खोखले आदर्श के सामाजिक विन्‍यास को बिल्‍कुल अलहदे ढंग से पाठकों के सामने रखने की कोशिश करता है। इस संग्रह की उनकी कहानियों में घटनाओं का सीमित परिवेश भी समाज के उस बड़े कैनवास को व्‍यक्‍त करता है, जिसमें मध्‍यवर्ग की संघर्षशीलता, शिक्षा व्‍यवस्‍था के अन्‍तर्विरोध, उच्‍च शिक्षित युवाओं की स्‍वेच्‍छाचारिता, मूल्‍य हीनता, महानगरीय जीवन, प्रेम की बेचैनी, स्‍मृतियों की पीड़ा, ग्राम चेतना और स्‍त्री सवालों के विविध स्‍पर्शी रंग मौजूद हैं। साधारण से कथानक को भी कहानीकार मनीष कुमार मिश्रा कल्‍पना एवं यथार्थ की अनुभूतियों से गढ़कर न केवल पठनीय और आकर्षक बना देते हैं बल्कि पाठक के मन में जिज्ञासा और कुतूहल की सृष्टि भी करते हैं।

फ़ोटो रानीउनकी एक ऐसी ही कहानी है, जहा एक ओर खोखली शान और दिखावे की प्रकृति के कारण गाव के लोग अपने बच्चों का नाम मैनेजर, वकील, कलेक्टर, तहसीलदार, या राजा रखते हैं - गाव के कुछ लड़कों का नाम डीएम, वकील, डिप्टी, मैनेजर, घिऊ, मेटई, चोम्मा, पावर हाऊस, अमेरिका, इत्यादि भी है, जो उनके मां बाप की आकांक्षाओं को प्रकट करता है । तो दूसरी ओर इस कहानी में एक ऐसी लड़की की कथा-व्‍यथा भी है, जो समाज के कुरूप, हिंसक और अतार्किक जातिगत व्‍यवस्‍था से अनजान है -लेकिन युवा होती फ़ोटो की दुनियां अलग थी। हंसती खिलखिलाती वह जहा होती वहां सर्दियों की गुनगुनी धूप खिली होती। उस धूप की नीमकशी में तितलियों का नृत्य होता। रोशनी की शहतीरों में सतरंगी इंद्रधनुष होता। कोमल भाव से अंखुआते सपनों के लिए भविष्य के,जीवन के सपने होते। वह जहा होती वहां प्राणधारा कलरव करती। उसके होने से ही पिता का साहस उमड़ता और जीवन की जटिलताओं को चुनौती देता। फ़ोटो तमाम चिंताओं से मुक्त तितलियों और धूप से खेलती।दरअसल कहानी का मकसद केवल इतना भर नहीं कि जिस फ़ोटो को उसके पिता ने इतने लाड प्‍यार से पाला है, उसे ही वह सड़ी हुई जाति व्‍यवस्‍था और समाज में अपनी मिथ्‍या लाज बचाने के लिए मौत के घाट उतार देता है, बल्कि यह कहानी इससे भी आगे जाकर एक ऐसे विमर्श को प्रस्‍तुत करती है, जिसमें बिरादरी के बाहर प्रेम की अस्‍वीकार्यता और स्‍त्री दमन का घिनौना चेहरा साफ-साफ दिखाई देता है। बिरादरी के बाहर प्रेम करने पर समाज पुरूष को तो किसी प्रकार का दण्‍ड नहीं देता, पर स्‍त्री को मौत देकर वह जिस संतुष्टि के भाव को प्रदर्षित करता है, वस्‍तुत: यही कहानीकार मनीष के लिए चिन्‍ता का सबब है- "जात बिरादरी की नाक कटाने वाली कुलक्षणी के साथ यही करना चाहिए। अच्छा हुआ, नदी किनारे फूंक के लौटें तो ही अच्छा।" प्रधान दादा बोले, "आगे से बिरादरी की कोई लड़की ऐसा घृणित काम न करे इसके लिए जो हुआ अच्छा हुआ।"

इस कहानी में श्‍यामा के रूप में एक ऐसी निर्बल असहाय और विवश स्‍त्री को दिखया गया है जो अपनी जान से भी प्‍यारी अपनी बेटी फ़ोटो की जीवन रक्षा नहीं कर पाती है। इस निर्मम समाज के सामने तब भी उसकी विवशता दिखाई देती है, जब उसके सामने ही उसकी बहन शशि को उसके पिता और भाई ने जला कर मार डाला था। पर इस कहानी संग्रह की एक दूसरी कहानी है जहराजिसमें जहरा वर्चस्‍ववादी समाज के सामने खड़े होकर न केवल उसे चुनौती देती है, बल्कि उसी समाज में वह विपन्‍न और दलित होने के बाद भी सम्‍मान हाशिल करती है- "ठाकुर बाभन साल भर उसकी खैरियत पूछते। लेकिन वह भी एकदम मजी हुई खिलाड़ी थी। इसी गाव ज़वार में उसने अपनी जवानी खपा दी थी। जिसने भी कभी उसका मान मर्दन करना चाहा उसे पूरे समाज में नंगा कर दिया। सात महीने के नवजात को अपनी पीठ से बांधे रात भर में अकेले दो तीन बियहे गेहूं की कटाई कर लेती।" 

घर में अकेली होने पर जब उसका जेठ ही उसकी आबरू के साथ खेलने की कोशिश करता है, तब वह अपनी अस्मिता बचाने के लिए यद्यपि गाव की बड़ी जाति के लोगों से आसरा तो लेती है-  "सामने सर से पांव तक पानी में भीगी जहरा खड़ी थी। उसके ओठ कांप रहे थे। आंखें आग उगल रहीं थीं। एक हांथ से बेटी को चिपकाए हुए थी और दूसरे हांथ में कसकर हंसिया पकड़े हुए थी। हांथ कांप रहा था, साड़ी, ब्लाऊज का पता नहीं सिर्फ़ पेटीकोट में वह कांप रही थी। उसे इस तरह देख दादी को बात समझने में देर नहीं लगी। वो उसे घर के अंदर ले गई। अपनी एक साड़ी दी और बेटी को अंगेठी के पास सुलाने के लिए एक कथरी। जहरा बहुत कुछ कहना चाहती थी,लेकिन दादी उसके मुंह पर हाथ रखकर बोली," कुछ मत बोल।" पर इसमें उसकी विवशता नहीं दिखाई देती, बल्कि उसकी आंखों में क्रोध और प्रतिशोध के डोरे ही दिखाई देते हैं। जहरा दरअसल घोर जातिवादी, वर्चस्‍ववादी और सामन्‍ती चेतना वाले समाज में एक ऐसी सशक्‍त नारी पात्र है, जो अपने बल पर समाज का नेतृत्‍व भी करती है और दो-दो बार परधानी का चुनाव भी जीतती है। इतना ही नहीं अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए वह गाव के बड़े ठाकुरों से भी भिड़ जाती है-"ठाकुर महेंद्र प्रताप सिंह के निकम्मे बेटे ललई सिंह ने गेहू काटते समय जहरी को पीछे से दबोच लिया था, लेकिन शेरनी की तरह झपटते हुए जहरी ललई के सीने पर चढ़ बैठी और हंसिए से उसकी नाक काट ली। चिल्लाते हुए जब ललई भागा तो जहरी हंसिया लिए उसके पीछे दौड़ी। अंत में पंचायत बैठी और ठाकुर महेंद्र सिंह ने जब माफ़ी मांगी तब मामला शांत हुआ। उस गाव जवार में बारह घर ठाकुर, सौ घर अहिर, तीन सौ घर बाभन और दो सौ घर पासी टोले में हैं। दस बीस घर बनिया और कुछ तेली, माली और नटों के घर हैं। लेकिन किसी ठाकुर की नाक काटने का यह पहला मामला था। पूरा पासी टोला डरा हुआ था, लेकिन सब जहरा के साथ खड़े थे।"  दरअसल इस कहानी में नारी मुक्ति की कामना भर नहीं है, बल्कि सामाजिक अनुशासन के अलग-अलग चौखटों में जकड़ी हुई एक ऐसी परतंत्र स्‍त्री की संघर्षशील गाथा भी है, जो चुनौतियों से भागती नहीं बल्कि निरंकुश परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्‍व को बचाए रखने में कामयाब होती है।

युवा कथाकार मनीष की कहानियों में जहा समकालीन होने की तमाम कथ्‍यगत शर्तें दिखाई देती हैं वहीं उनकी कहानियों में सामाजिक समस्याओं को प्रस्‍तुत करने का नया ढंग भी मौजूद है। दरअसल यही विशेषताए उन्हें यथार्थ के और नजदीक लाकर खड़ा करती हैं। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों में बडा भारी परिवर्तन आया है। प्रेम, विवाह, परिवार में माँ-बाप, भाई-बहन, पिता-पुत्र-पुत्री, मित्र आदि के जितने भी सुदृढ संबंध हो सकते थे, उन सबके संबंध में हमारी सोच और चिंतन प्रक्रिया में बड़ा भारी अंतर दिखायी देता है। संयुक्त परिवार की इकाइयाँ टूटकर छोटे-छोटे परिवार अस्तित्व में आ गये हैं, जिसके कारण व्यक्ति आत्मकेंन्द्रित होता चला गया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सारे मानवीय और आत्मीय रिश्ते अर्थाश्रित हो गये हैं। इस नये परिवेश ने जो नयी मूल्य-दृष्टि विकसित की, मनीष की कहानियों में उसकी चिन्‍ता साफ-साफ दिखाई देती है।

उनके इस कहानी संग्रह में स्‍त्री को केन्‍द्र में रखकर लिखी हुई उनकी तीसरी कहानी माहै इसमें एक ओर जहा कथाकार के नितान्‍त निजी एहसास हैं- "अब माँ नहीं है लेकिन मैं उससे ही घिरा रहता हूँ । इस घेरे के बाहर की दुनिया में होकर भी नहीं होता । इस दुनिया में आग्रह बहुत थे पर मेरी अपनी समस्याएँ थीं जिनसे निकल नहीं पा रहा था। धीरे धीरे यह बात भी समझ में आ गई कि जीवन की अपनी कुछ कड़ी शर्ते होती हैं, अपने विधि विधान होते हैं । हम चाहें या न चाहें, हमें उनके हिसाब से ही चलना पड़ता है।" वहीं एक ऐसी कर्मठ और जिजीविषा से भरी हुई स्‍त्री के दर्शन भी होते हैं, जो उधड़ते रिश्‍तों की तुरपाई करने के अपने कौशल से परिवार को एक धागे से बाधे रखती है - "एक तरफ़ सूखता हुआ खेत था तो दूसरी तरफ़ नमी खोते रिश्ते। खेत में पानी का यह संकट अब परिवार का पानी उतरने का भी संकट बन गया था।" संघर्षों से हार न मानने की जीवटता से भरी हुई- "माँ की जिंदगी में जितना बड़ा सच इंतज़ार था, उतना ही बड़ा सच संघर्ष भी रहा। वह लड़ना जानती थी, इसलिए शिकायत नहीं करती। वह समस्याओं से शेरनी की तरह लड़ती थी। घर-बाहर की अनगिनत लड़ाइयों को उसे लड़ते और लड़कर जीतते हुए मैंने देखा है। मुझे लगता है कि अगर उसे ऐसे संघर्ष करते हुए नहीं देखता तो उसके सपनों, उसकी उम्मीदों पर कभी खरा नहीं उतर पाता। उसके संघर्ष ने मुझे भी तपाया था। वह ममता और करुणा से भरी किसी समंदर जैसी थी। अपनी सीमाएं जानती और अक्सर चुप रहती। लेकिन झूठ और अन्याय के खिलाफ़ जब वह खड़ी हो जाती, तो उसका सामना कोई नहीं कर पाता। वैसे भी सच का सामना कठिन होता है।"

मा के इस किरदार से मनीष आश्‍वस्ति और भरोसे का एक वितान भी रचते हैं- "उधर आसमान में उषा की लाली फैल चुकी थी, जो अँधेरे की दुनिया को बौना साबित कर रही थी । मानो प्रकृति का मन फैलते उजाले में जीवन के नवोत्सव के लिए तैयार हो रहा था। किसी पुराने दरख़्त की शाख से पक्षियों की आती मधुर आवाज़ सुंकून से भरी थी।"

            मनीष की कहानियों में समकालीन युगबोध के वैचारिक सूत्र भी हैं, और जीवन-यथार्थ का कोई अंग अनछुआ भी नहीं है। सामान्य मनुष्य की जिन्दगी में जीवन जीने की विषम आर्थिक स्थितियाँ, नैतिक रूढियों और मान्यताओं का विघटन, व्यक्ति के जीवन में घर कर गयी निराशा, महानगरीय जीवन और उसकी विविधमुखी समस्याएँ, भ्रष्ट राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था के प्रति तीव्र असंतोष, प्रेम और सेक्स का नूतन भाव-बोध, खंडित पारिवारिक संबंध आदि जीवन की अनेक स्थितियों का सूक्ष्म विवरण मनीष की इन कहानियों में मिल जाता है। वो लड़कीऐसी ही कहानी है, जिसमें मध्‍यवर्गीय युवा मन के सपनों और प्रेम के अधूरेपन को बेलौस तरीके से प्रस्‍तुत किया गया है। इस कहानी में जहा कॉलेज में पढ़ते आम लड़के लड़कियों का चुहुल भरा प्रेमांकन है, वहीं जीवन की खण्डित आशाए और अभिलाषाए भी हैं। कथा का नायक स्‍वयं इस बात को कवि केदारनाथ की बनारस पर लिखी पंक्तियों के साथ स्‍वीकारता भी है- यह आधा जल में है / आधा शव में/ आधा नींद में है/ आधा शंख में / आधा मंत्र में / अगर ध्यान से देखो / तो आधा है /और आधा नहीं है ।’’ “फ़िर कहा भी तो जाता है कि ज़िंदगी में कुछ चीजें अधूरी छूट भी जानी चाहिए ताकि प्यास बनी रहे ......... ।’’ पर मनीष जीवन के खुशनुमा सफ़र के लिए प्‍यार को अनिवार्य शर्त भी मानते हैं- यह सोचकर अच्छा लगा कि गंगा ही नहीं, कुछ झीलें भीं तारती हैं। इन झीलों में प्यार बहता है, इनमें विश्वास की गहराई होती है। सहजता और सरलता ही इसकी पवित्रता होती है। समर्पण के भावों से लबरेज़ एकनिष्ठता ही इसका सौंदर्य है। और ऐसी झीलें अक्सर किसी की एक जोड़ी आँखें होती हैं। जिनका ख़याल ही ज़िंदगी के सफ़र को ख़ुशनुमा एहसास से भर देता है।’’

            मूल्यों में परिवर्तन के साथ- साथ आज नैतिकता का परंपरागत अर्थ भी बदल गया है। धर्म और ईश्वर की धारणा में भी परिवर्तन आ गया है। व्यक्ति का कोई भी कृत्य आज पाप-बोध नहीं जगाता। उसे एक जैविक प्रवृत्ति के रूप में माना जाने लगा है। युवा कथाकार मनीष ने इस नये नैतिकता-बोध को ग्रहण कर प्रेम, विवाह और यौन-संबंन्धों में एक बहुत खुली दृष्टि अपनायी है। वो पहली मुलाकातउनकी ऐसी ही कहानी है जो बनारस की बेतकल्‍लुफ चर्या का ठीक उसी तरह पाठ करती दिखाई देती है जैसा असल में वह है। भाषा संस्‍कार और बोलचाल की बनारस की अपनी परिधि है। शब्‍दों और वाक्‍यों के भी उसके अपने मायने हैं। बनारस की इस खांटी विशेषता को मनीष कुछ इस तरह व्‍यक्‍त करते हैं -सेंट्रल आफ़िस में जिसके पास आप की फाइल अटकी तो मानो अटकी। और फ़िर किसके पास नहीं अटकी ? मुझे तो लगा जैसे यहाँ निपटाने का काम कम, अटकाने का जादा होता है। आखिर दिव्य निपटान वाली परंपरा का शहर है। पानचबाऊ बाबू आप का काम तो समय पर नहीं करेगा लेकिन हरबार कोई नया ज्ञान ज़रूर दे देगा, आख़िर सर्व विद्या की राजधानी जो है।’’ पूर्वी संस्‍कृति का ख़ालिस उदाहरण है बनारस। उसके अपने तमाम विरोधाभास भी हैं, पर वहा जीवन और प्‍यार की भी अपनी खुशबू है, और इस ख़ुशबू से इस कहानी का नायक भी परिचित है- ख़ैर.....बात हो रही थी कि कैसे हम किसी की झील सी आँखों में अटक गए। सच में उन नीमकश निगाहों में बहुत गहराई थी । उन आखों को देख लगा जैसे जब ज़िंदगी खुद अपने लिए सपने तलाशती होगी तो इन्हीं आँखों में आकार झाँकती होगी। उन आँखों में मासूमियत ,कौतूहल,चंचलता और उमंग थी । पलभर को लगा जैसे वे आँखें मैं सालों से पहचानता हूँ। मेरा कोई अंजाना रिश्ता रहा हो उन आखों से। स्मृतियाँ मानस में तेजी से घूमने लगीं।’’

इस कहानी में आधुनिक होते युवाओं की हिप्‍पी संस्‍कृति और उनकी स्‍वच्‍छन्‍दता का जिक्र तो है ही - कैंटीन, बॉटनी गार्डन, चाय की टपरी। सिगरेट, बियर, चिलम और पैसे न होने पर बीड़ी भी हमारे शौख थे। हर बुराई के दरवाजे पर हमारी दस्तक थी, लेकिन हम बुरे नहीं थे। कशिका चिलम की शौखीन थी, लकिन ख़ास मौक़ों पर। वो अनोखे तरीक़े से चिलम बनाती थी।’’ साथ ही बनारस के लोक-जीवन और आध्‍यात्मिक जीवन का भी भरपूर विवरण है-  उस दिन गंगा आरती के बाद हम दोनों मणिकर्णिका घाट पर ही बैठे थे। रात के नौ बजे  होंगें। घाट पर आठ – दस चिताएँ जल रहीं थी तो कुछ को अपनी पारी का इंतजार था। कुछ परिजन डोम से “अपनी वाली लाश” जल्दी निपटाने की चिरौरी कर रहे थे। कहीं लकड़ी का मोलभाव तो कहीं मुखाग्नि का। “राम नाम सत्य है” यह आवाज कानों में पड़ते ही व्यापरियों के चेहरे पर चमक आ जाती। मृत्यु के व्यापार का यह धार्मिक प्रतिष्ठान बहुत कुछ सिखाता है। चिता के साथ शरीर जल जाता है,हमारी भौतिक इकाई समाप्त हो जाती है लेकिन शेष कुछ तो बचना चाहिए ? क्या इस तरह निःशेष होकर मरना परमात्मा या प्राकृतिक चेतना का अपमान नहीं ?’’ 

            बढ़ती बेरोजगारी विशेषकर शिक्षित बेरोजगारी ने देश में नैराश्य और अवसाद को जन्म दिया है। शिक्षा, योग्यता और प्रतिभा की दारुण अवमानना, भ्रष्ट व्यवस्था में भाई-भतीजावाद के प्रश्रय ने युवा-मानस के सपनों को तोड़ उसे घोर आर्थिक यंत्रणा में डाल दिया। सामान्य मनुष्य जिंदगी के विभिन्न मोर्चों पर अपने अस्तित्व के लिए जो भी लड़ाई लड़ रहा है, उसकी मुख्य धुरी दरअसल बाजारवादी अर्थव्यवस्था ही है। सरकारी नियमानुसारकहानी का नायक राकेश कुमार भ्रष्‍ट सिस्‍टम को कैसे बेपर्दा कर उसी के पैंतरे से अपना रास्‍ता निकालता है, यह इस कहानी में देखा जा सकता है। राकेश अपनी पत्‍नी राधिका को समझाते हुए कहता है- देखो राधिका, इस तरह की पाप की कमाई में मुझे भी दिलचस्पी नहीं है। मैं खुद नहीं चाहता ऐसे पैसे । लेक़िन क्या करूँ? ऊपर से नीचे तक पूरी श्रृंखला बनी है । सब का हिस्सा निश्चित है। बिना कहे सुने सब के पास ये पैसे हर महीने पहुँच जाते हैं। सब ले लेते हैं और जो ना ले वह सब की आँख की किरकिरी बन जाता है। अधिकारी और साथी उसे परेशान करने लगते हैं। फ़र्ज़ी मामलों में फ़साने लगते हैं। अब तुम ही कहो चुपचाप नौकरी करूँ या अकेले पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ूँ ?” मनीष की यह कहानी वस्‍तुत: भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था के खि़लाफ मनुष्य की लड़ाई में सहभागी बनकर आयी है। कहानी का नायक राकेश कुमार अपनी पत्‍नी राधिका से कहता है- आज कुछ व्यापारियों के यहाँ छापे मारे। खाद्य वस्तुओं के नमूने लिये। इन्हीं सब में देर हो गई । कई दिनों से शिकायत मिल रही थी। मावे और दूध में मिलावट की बात थी। हद है राधिका, ये व्यापारी भी ना मिठाईयों की मोटी क़ीमत लेते हैं उसके बावजूद मावे और दूध में हानिकारक यूरिया और सेन्थटिक मिलाते हैं। नैतिकता और ईमानदारी तो जैसे किस्से कहानियों की बात हो गई हो। आज जब छापा डाला तो घिघियाने लगे, लेकिन मैंने किसी की एक न सुनी। रस्तोगी तो मुझे धमकाने और परिणाम भुगतने की धमकी देने से भी पीछे नहीं हटा लेकिन मैंने किसी की नहीं सुनी । सच्चाई और धर्म की लड़ाई में जो होगा अब देखा जायेगा।” 

     संभावनाओं के कथाकार मनीष जब अपने आस-पास की राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक सभी व्यवस्थाओं को अध: पतन की ओर जाते देखते हैं तो वे अपनी कहानी नक़लधामके माध्‍यम से उनके प्रति तीव्र असंतोष और रोष प्रकट करते हैं। इस कहानी का कथानक भ्रष्ट व्यवथा से समझौता करने को कतई तैयार नहीं है, बल्कि कुछ ऐसे बुनियादी सवाल खड़े करता है कि पाठक सोचने को विवश हो जाता है। कहानी लेखन का यही अलहदापन मनीष को समकालीन कथाकारों में विशिष्‍ट बना देता है। मनीष का लेखन अपने समय की रजनीतिक गतिविधियों से बेख़बर नहीं बल्कि वह उसे कई एंगल से देखते हैं। चुनावों  की धांधलेबाजी, राजनीतिज्ञों द्वारा चुनाव में जनता का शोषण, उससे किये गये वायदे और उनका थोथापन, अपनी सहूलियत के हिसाब से लक्ष्‍यहीन युवाओं का राजनैतिक इस्‍तेमाल तो हो ही रहा है-  फ़िर इन लोगों का भी कौन सा लोकतांत्रिक चरित्र रहा है ? चुनाव आते ही इनका जातिगत स्वाभिमान जाग जाता और ये जातियों में बटकर समाजवाद, स्वराज्य और राष्ट्रीय विकास के नीले, लाल, केसरी  और हरे रंग के झंडों के नीचे दफ़न होते रहे। अपनी पार्टी और नेता के लिए खाद बनकर उनकी राजनीतिक फ़सल को लहलहाते रहे।” साथ ही शिक्षा व्‍यवस्‍था के ध्‍वस्‍तीकरण और सरकारी कार्यालयों में पनप रही अकर्मण्‍यता की कुसंस्‍कृति पर मनीष कहानी के पात्र जियावन से साफ-साफ कटाक्ष करवा देते हैं- अउ सरकारी स्कूल – कालेज में कामचोरी बा। मास्टर लोग पढ़ाई लिखाई छोड़ी के दिनभर राजनीति करत बाटेन। जे काम करई चाहत बा ओकरे खिलाफ सब एक हो जात बाटेन । आखिर तब का किहल जाई मास्टर साहब? आपई कौनों रास्ता बताओ ?’’- जियावन ने हाथ जोड़कर कहा।”

 शिक्षा देने वाले ही शिक्षा के साथ कैसी लूट खसोट कर रहे हैं नक़लधामकहानी के एक उदाहरण से समझा जा सकता है- “अरे बाभन देवता, जरूरत आप को नहीं है लेकिन संस्था को तो है। कुल दो लाख रूपिया देकर परीक्षा केंद्र का जुगाड़ बनल है। ई पइसा तो आप को देना ही पड़ेगा। समझ लीजिये अनिवार्य है। सब दे रहे हैं। हमको यही आदेश मिला है गुरु, नहीं तो ....?” – पारस ने सर खुजलाते हुए कहा।खुले आम चौरस बिछी हुई है, सभी तो मिले हुए हैं- “शांत हो जा गुरु। प्रिन्सिपल साहब श्री गुमान सिंह जी हैं। रिश्ते में हमरे फुफ़ा लगें। इनके ससुर ओम सिंह जी ही इस विद्यालय के सर्वेसर्वा हैं अब। ओम सिंह जी अरे अपने विधायक जी, उन्हीं का तो है यह नकलधाम।’’ – पारस ने कुटिलता पूर्वक अपनी बात कही।

दरअसल यह कहानी जीवन यथार्थ के कटु एवं भयावह सत्यों से जूझते रहने के कारण व्यक्ति के अस्तित्व से संबंधित प्रश्नों के समाधान हेतु हमारी चेतना को झिंझोड़ती है। इसलिए कहा जा सकता है कि इस कहानी में संवेदना के तन्‍तु भी हैं, छीजते मूल्‍यों की चिन्‍ता भी है, और मनुजता के अकुलाते प्रश्‍न भी।  

            इस संकलन की एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण कहानी है लाकडाउन यादव का बाप’, जिसमें कोरोना महामारी से उपजे कई  ऐसे अनुत्‍तरित सवाल हैं जिन्‍हें न महानगरीय जीवन समझ पाया है और न ही गाव की जमीन से उनके हल निकल पाये हैं। एक अजीव सी बेबसी लेखक महसूस करता है- “बाहर सन्नाटा है और सारा शोर सिमट कर मेरे अंदर फ़ैल चुका है। इस शोर में कुछ सूझ नहीं रहा,बस लग रहा है कि मैं भी मरने वाला हूं। अगर यह सच है तो घर में कैद क्यों हूं ? कुछ ज़रूरी काम फ़ौरन निपटा लेने होंगे, चाहे कुछ भी हो । इसके पहले कि मैं मर जाऊं ये काम तो निपटाने होंगे, लेकिन कैसे ? ..... ’’ दरअसल जिस विश्व व्यवस्था की अंधी दौड़ में हम सब शामिल थे, उसके प्रति लेखक के मन में घोर निराशा का भाव जागृत हुआ है। पत्र शैली में लिखी हुई इस कहानी में जहा वैश्विक बदलाओं की चर्चा की गयी है, वहीं लोक विश्‍वासों और लोक मान्‍यताओं में यकीन रखने वाला वह समाज भी चित्रित हुआ है, जो कोरोना को भी देवी माई के रूप में पूजने लगता है- “लोक विश्वास और आस्था की ऐसी तस्वीरें कुछ पल सोचने के लिए मज़बूर ज़रूर कर देती हैं। कोरोना का भी अंततः माई बन जाना हमारी लंबी सांस्कृतिक एवं लोक परंपरा का ही तो हिस्सा है। इसी परंपरा में हम शीतला माई, छठी माई, दुरदुरिया माई और संतोषी माता तक से परिचित हुए हैं। मुझे याद है कि माँ मुझे गोंद में लिये कई किलोमीटर पैदल झाड़ फूँक कराने ले जाती थी।’’ इस बैश्विक महामारी ने जीवन को कठोर और अधिक निष्‍ठुर बना दिया है। संकट की घड़ी में जब विवशता पूर्ण स्थितिया होती हैं तो लोक समाज अपने भीतर के भगवान याने कि अपने विश्‍वास को अपने आस-पास रच लेता है। नये कलेवर में लिखी गयी इस कहानी में कोरोना काल और उससे उपजी विडम्‍बनाओं को बखूबी दिखाया गया है।

अपनी संवेदना और चिंतन को लेखन में उतारने  के लिए कहानीकार मनीष ने कहानी के परंपरागत बधे-बधाये रूप को तोड़ा है। उनकी कहानियों में महानगरीय जीवन और उसके विरोधाभासों को प्रमुखता से उठाया गया है। ग्रामीण युवकों का शिक्षा के लिए गाँव से शहर आना, शिक्षित होकर महानगरों में ही रोजी रोटी की तलाश करने की जद्दोजहद में गाव की अपनी जमीन से कटकर शहरी सपनों के तिलिस्‍म में खो जाना, जैसे यही उनकी नियति बन गयी है। स्‍मृतियों के गहरे गह्वर से निकलकर भी वह अपने आप को नॉस्‍टेल्जिक होने से रोक नहीं पाता है। स्‍मृतियाकहानी में कथाकार स्‍मृतियों की अबूझ और अनसुलझी पीड़ाओं को कुछ इस तरह व्‍यक्‍त करते हैं -  वे आती हैं तो बहुत शोर होता है, बाहर नहीं अंदर। बहुत कुछ बार बार टूटकर बिखरता है। बहुत कुछ जुड़ता भी है। बेचैनी, घुटन,पीड़ा और सुकून का अजीब सा अनुभव । वे आती हैं तो निचोड़ लेती हैं। कभी सूखे जख्मों को कुरेद कुरेद के हरा कर देती हैं तो कभी हरे जख्मों को अपने स्पर्श मात्र से सुखा देती हैं।’’ इन पीड़ाओं का व्‍यामोह कई बार लेखक को रूला भी देता है-  मेरी हथेलियों से तो सबकुछ बिछल जाता है। न जाने क्यों इनसे ख़ून भी रिसता रहता है। बनारस में जो औघड़ अस्सी घाट पर मिला था, वह कहता था कि मेरे हांथ में मेरे सपनों का ही ख़ून लगा है। मैं सिर्फ़ साधन बन सकता हूं साध्य नहीं। वह यह भी कहता था कि मैं मनुष्य होने की सारी पीड़ाओं को भोगता रहूंगा। मैं इन पीड़ाओं का ही सम्राट बनूंगा।’’  मनुष्‍य अपने अधूरे सपनों को पूरा होते देखना चाहता है, और इसके लिए वह कल्‍पनाओं का अदृश्‍य संसार भी रच लेता है। मा के चले जाने से जैसे जीवन का संघर्ष और भी कठिन हो जाता है।  स्‍मृतियाकहानी में कथाकार जीवन को मा की परिभाषा से परिभाषित करते हैं- अम्मा के जाने के बाद घर, घर नहीं रहा । उदासी की एक और मोटी परत अंतर्मन में चढ़ गई । "अम्मा" यह शब्द भी मेरे व्यक्तिगत भाषाई प्रक्षेत्र से गायब हो गया । अम्मा की हम उम्र किसी  महिला को "अम्मा" कहने का अवसर यदा कदा मिल जाता है तो मन गीला हो जाता है । फ़िर यह गीला  मनमुझे मेरी अम्मा की स्मृतियों में गूंथ लेता है। मैं ऐसे अवसरों की ताक में रहता हूं कि किसी तरह "अम्मा" यह शब्द मेरी जबान से निकले।’’  

युवा कथाकार मनीष पारिवारिक मूल्यों को भी बड़ी सूक्ष्मता के साथ जाँचते परखते हैं। संबंधों में तनाव, टूटन, जटिलता तथा रिश्‍तों को जबरदस्ती ढोने की लाचारी उनकी कहानी संकोच में दिखाई देती है। घर परिवार में निरर्थक से हो गये वृद्ध यकायक बोझ लगने लगते हैं, लेकिन मध्‍यवर्गीय समाज के सामने उन संबंधों को ढोने के अतिरिक्‍त और कोई विकल्‍प भी नहीं है। इस कहानी में त्रिवेदी सर ऐसे ही द्वन्‍द्व में घिरे हुए दिखाई देते हैं- “मन में तो आया कि कह दू कि दादी मरने वाली हैं लेकिन अभी मरी नहीं हैं। इतनी भी क्या अग्रिम तैयारी ? वह भी मृत्यु की !!! पर यह सोचकर चुप रहा कि गाव देहात में छोटी से छोटी बात के लिए परेशान होना पड़ता है। फिर दुःख भरे माहौल में कुछ करने का उत्साह भी तो खत्म हो जाता है।’’

दरअसल त्रिवेदी सर कोई व्‍यक्ति या पात्र नहीं है, बल्कि मध्‍यवर्गीय परिवारों के में गहरी घर कर गयी एक सोच है, जो कभी उनकी लाचारी को दिखाती है, तो कभी उसके चारित्रिक कांइयांपन को दर्शाती है- “वैसे त्रिवेदी सर वापस आ गए हैंI धर्म पत्नी को गाँव छोड़कर आये हैंI इस बात को पूरा महीना हो चुका हैI त्रिवेदी सर जैसे ही उनसे दादी की बात करते, वे झुंझलाते हुए कहती –“जिन्दा हैं, आप अपने काम में ध्यान दीजियेI मैं भी अगले हप्ते आ रही हूँ, फिर कोई जिये या मरे.....I”

 मध्‍यवर्गीय मनुष्‍य का जीवन परिस्थितियों के सामने कितना बौना और असहाय हो गया है, इसकी बानगी भी इस कहानी में दिखाई देती है- “जीवन की सच्चाई, जीवन का अर्थ, जीवन की लंबाई यह सब हमारी कल्पना और सोच से परे हैI प्रकृति शरीर के अंदर कब तक चेतना को बनाए हुए है ? कब तक बनाए रहेगी ? कब धोखा दे जाएगी ? यह कोई भी नहीं जानता लेकिन इन तमाम बातों को समझने के बावजूद भी हम लगातार इनको झुठ लाते हुए माया मोह के चक्कर में फंसे रहते हैंI हमें लगता है कि चीजें वैसे ही घटित होंगी जैसे कि हम चाह रहे हैं, लेकिन ऐसा होता नहींI कई बार हमारी यही सोच इतनी हास्यास्पद और सामाजिक रुप से इतनी अमर्यादित हो जाती है कि हमें अपने ही किए किसी कार्य पर संकोच होने लगता हैI”

नयी भाषा और समृद्ध शिल्प से कहानीकार मनीष ने भाषा को जीवन के निकट लाकर सहज और स्वाभाविक रूप प्रदान किया है। इससे यक़ीनन उनके लेखन की संप्रेषण क्षमता भी बढ़ गयी है। यह कहना कतई अप्रासंगिक नहीं होगा कि मनीष संभावनाओं से भरे हुए ऐसे कथाकार हैं जो न केवल शैलियों के प्रचलित रूपबंध को तोड़ते हैं, बल्कि कथन और शिल्‍प के नूतन प्रयोगों से कहानी लेखन को आकर्षक और समृद्ध भी बनाते हैं। ग्‍यारह कहानियों के इस संकलन की सभी कहानिया मानवीय संवेदनाओं और मूल्‍यबोध के इर्द-गिर्द रिश्‍तों को समेटने की कहानिया हैं। स्‍मृतियों के बन्‍दनवार में प्रेम को ढूढ़ने की कहानिया हैं। नये बोध के साथ नयी दृष्टि और नये भाव को व्‍यक्‍त करने वाली कहानिया हैं। आस-पास के बेहद सरल से दिखने वाले कथानक या घटनाओं को भी मनीष विशिष्‍ट बना देते हैं। यही उनके लेखन की विशेषता भी है।

मैं बहुत प्रामाणिकता और दृढ़ता के साथ कह सकता हू कि इस संकलन की सभी कहानिया बेहद पठनीय, रोचक और आश्‍वस्‍त करने वाली हैं। उम्‍मीद और विश्‍वास करता हू कि युवा कथाकार डॉ. मनीष कुमार मिश्रा का यह कहानी संग्रह पाठकों को जरूर पसंद आएगा।........... स्‍वस्तिकामनाए !

   – प्रोफेसर चमन लाल शर्मा

     हिन्‍दी विभाग एवं शोध केन्‍द्र

  शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम (म.प्र.)

 

 

 

 


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