Monday 28 December 2020

डाॅ. मनीष मिश्रा विरचित काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा

डाॅ. मनीष मिश्रा विरचित काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की समीक्षा डाॅ. गजेन्द्र भारद्वाज, सहायक प्राचार्य हिंदी सी.एम.बी. काॅलेज डेवढ़, घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार ORCID iD- 0000-0002-0712-9187 काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ साल 2019 में प्रकाशित लेखक मनीष मिश्रा जी के कृतित्व का वह इतिहास है जो उनके उत्तरोत्तर मँझते हुए लेखन और उनकी कविताओं के भाव गांभीर्य की विकास यात्रा को न केवल संकलित कविताओं के शीर्षक अपितु उनकी भाव संपदा की तन्मयता की गाथा सुनाता है। आज अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से जो भी कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं उनमें से अधिकांश को पढ़कर ऐसा लगता है मानो उन्हें एक ढाँचा निर्मित करके सायास लिखा गया है ऐसी कविताओं के लेखन के बीच से ऐसी कविता जो अनायास बन जाए इस संग्रह में दिखाई दी हैं जिन्हें पढ़कर यह लगता है कि आज भी कविता शब्दों और भावनाओं के परे जाकर हमारी चैतन्यता से जुड़ी है। संग्रह के लेखक इस संग्रह और इसमें संकलित कविताओं के प्रस्तुतिकरण के लिए बधाई के पात्र हैं जिनका प्रयास इतने कम समय में भी परिपक्वता की ओर अग्रसर दिखाई पड़ रहा है। इस संग्रह में कुल 56 कविताएँ संकलित हैं जिनमें पहली कविता ‘आत्मीयता’ से लेकर संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हू’ तक की विभिन्न कविताओं में लेखक की जिस वैचारिक चिंतनशीलता को महसूस किया जा सकता है उसको संप्रेषित करने के लिए यदि स्वयं कि शब्दों का प्रयोग किया जाए तो एक अन्य ग्रंथ लिखा जा सकता है। फिर भी संग्रह में संग्रहित कविताओं के आलोक में यदि लेखक के ही शब्दों में यदि लेखक की चिंतनधारा को समझने का प्रयास किया जाए तो उसके लिए इस संग्रह की विभिन्न कविताओं के शीर्षकों को संयोजित करने पर लेखक की विचार संपदा का थोड़ा परिचय मिल सकता है। यथा ‘जब कोई याद किसी को कारता है बहुत कठिन होता है उसके संकल्पों का संगीत पिछलती चेतना और तापमान से अनजाने अपराधों की पीड़ा गंभीर चिंताओं की परिधि दो आँखों में अटकी मैं नहीं चाहता था इतिहास मेरे साथ पिछली ऋतुओं की वह साथी जैसे कि तुम तुम से प्रेम, जाहिर था कि लंबे अंतराल के बाद आगत की अगवानी में स्थगित संवेदनाएँ बचाना चाहता हूँ।’1 उपरोक्त कथन लेखक की कविताओं की परोक्ष गहनता की ओर संकेत करता है। जिसके कई गहरे अर्थ निकलकर सामने आते हैं जैसे केवल कविताओं के शीर्षकों को मिलाकर ही कवि के उस भाव का पता चलता है जिसमें वह अपनी मीठी यादों से जुड़े किसी भी अविस्मरणीय प्रसंग को इतिहास बनते देखना नहीं चाहता। कवि मानता है कि उसका मन किसी याद को चिरजीवित रखना चाहता है, उस प्रेम और प्रेम से जुड़ी वे सभी संवेदनाएँ जो उसने वर्तमान व्यतताओं के कारण स्थगित कर रखी हैं उन्हें बचाते हुए अपने भीतर के उस राग तत्व को सदा बनाए रखना चाहता है जिसके कारण इस सृष्टि में और स्वयं उसके जीवन में सृजन की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। हिन्दी कविता में फैण्टेसी के महारथी गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं में जो अप्रस्तुत का प्रस्तुत उनकी कविताओं के अंतस में छिपा दिखाई देता है उसी परोक्ष की प्रत्यक्षता डाॅ. मनीष मिश्र के इस संग्रह की कविताओं में भी परिलक्षित होती है। इनकी कविता सरल होते हुए भी एकाधिक बार पढ़े जाने की मांग करती है। इन कविताओं को पहली बार पढ़ने से लगता है कि यह एक प्रेमी के द्वारा अपनी प्रेमिका के लिए उद्भाषित होते उद्गार हैं पर ध्यान देकर दोबारा पढ़ने पर लगता है कि ये कवि की एक भावना का दूसरे भाव से आत्म संवाद है, चिंतन करते हुए तीसरी बार पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये तो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बसने वाले एक नादान बालक की अपने भीतर बसने वाले समझदार व्यक्ति से बातचीत है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस संग्रह की कविताएँ जितनी बार पढ़ी जाएँ उतनी बार नया और आह्लादकारी अर्थ देती हुई मन को रोमांचित करती हैं। मुझे मनीष जी की कविताओं में उनका वही शालीन, सौम्य और शांत व्यक्तित्व दिखाई देता है जो उनको नितांत सरल और आत्मीय बना देता है। इस संग्रह की कविताओं को एक बार पढ़ने के बाद बरबस ही दोबारा अध्ययन करते हुए पढ़ने की इच्छा हुई। अध्ययन के दौरान इन कविताओं से जो आनंद प्राप्त हुआ उससे पढ़कर कवि की वह सूक्ष्म दृष्टि पता चलती है जो आज के व्यस्ततम जीवन मंे भी मन की ओझल प्रतीत होने वाली गतिविधियों को भी देख लेती है। जब कवि कहता है कि ‘सुनन में/थोड़ा अजीब लग सकता है/लेकिन/सच कह रहा हूँ/यदि आप/धोखा देना पसंद करते हैं/या यह/आपकी फितरत में शामिल है/तो आप/मुझे अपना/निषाना बना सकते हैं/यकीन मानिए/मैं/आपको/निराश नहीं करूँगा/सहयोग करूँगा।’2 इसी से मिलती जुलती एक अन्य कविता ‘जैसे कि तुम’ भी है जिसमें धोखे के एक अन्य प्रकार से पाठकों को रूबरू कराया गया है। इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ पाठकों को एक मजबूत भावनात्मक बंधन में बाँधने की क्षमता रखती है जब कवि कहते हैं कि ‘ऐसा बहुत कुछ था/जो चाहा/पर मिला नहीं/वैसे ही/जैसे कि तुम।’3 पाठक इन पंक्तियों के साथ कवि के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर लेता है और फिर कवि लिखता है ‘धोखा/बड़ा आम सा/किस्सा है लेकिन/मेरे हिस्से में/किसके बदले में/दे गई तुम।’4 यह कविता स्वयं में व्यष्टि से समष्टि और वैयक्तिकता से सामाजिकता का वह पूरा ऐतिहासिक लेखा जोखा प्रस्तुत कर देती है जिसमें समाज की उस विचारधारा पर व्यंग्य की चोट की गई है जिसे अनगिनत कवियों ने प्रस्तुत करने के लिए वर्षों साधना करते हुए अनेक ग्रंथ रच डाले हैं पर फिर भी खुलकर उस बात पर चोट नहीं कर पाए जिसके सम्मोहन में आकर हम इस नश्वर देह और अस्थायी संबंधों को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानकर मोहपाश में बँधे हुए जीवन व्यतीत करते चले जा रहे हैं। इस भवसागर के प्रपंच में फँसे मानव को जीवनदर्शन का कठिन फलसफा बताते हुए कवि संकेत भी करता है कि ‘‘शिक्षित होने की/करने की/पूरी यात्रा/धोखे के अतिरिक्त/कुछ भी नहीं।/मित्रता, शत्रुता।/लाभ-हानि/पुण्य-पाप/मोक्ष और अमरता/सिर्फ और सिर्फ/धोखाधड़ी है।’’5 वह लिखता है ‘‘आत्मीय संबंधो का/भ्रमजाल/धोखे के/सबसे घातक/हथियारों में से एक हैं।’’6 इस कविता में अनुभूति और अभिव्यक्ति की जो तीखी धार पाठक को महसूस होती है उसे स्वयं अज्ञेय ने भी महसूस किया था जिसे उन्होंने अपनी एक कविता में बताते हुए लिखा था कि ‘‘साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना भी/तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ उत्तर दोगे?/तब कैसे सीखा डसना/विष कहाँ से पाया?’’7 अज्ञेय द्वारा प्रयुक्त ‘डसना’ और कवि मनीष मिश्र द्वारा प्रयुक्त ‘धारदार हथियार’ दोनों ही उस धोखे की ओर संकेत करते हैं। जिसका अनुभव पाठक को अपने जीवन के प्रारंभ से ही हो जाता है। यही कारण अज्ञेय और मनीष मिश्र जी में साम्य के रूप में उभरकर आता है। इतना ही नहीं कवि इस कविता में सांकेतिक रूप से इस समस्या का एक हल भी प्रस्तुत करता है जिसको समझने के लिए इस कविता को पूरा पढ़े बिना मन नहीं मानता। इस हल को ढूँढने की जिज्ञासा पाठक को कविता पूरी पढ़ने के लिए बाध्य करती है। पाठक की यह बाध्यता लेखक की उस परिपक्वता को इंगित करती है जो उसने इस अल्पवय में अपने लेखन की अवस्था में ही प्राप्त कर ली है। मनीष मिश्र जी के ‘अक्टूबर उस साल’ की कविताओं को पढ़कर लगता है कि वे जानते हैं कि पाठक को अपनी भावनाओं के ज्वार में किस प्रकार ओतप्रोत करना है। जिसके कारण वे पाठकों को कविता दर कविता अपने साथ बहाए लिए जाते हैं। संग्रह की दूसरी ही कविता ‘जब कोई किसी को याद करता है’ भी एक ऐसी प्रस्तुति है जो प्रत्येक पाठक को उसकी गहरी संवेदनाओं के पाश में बाँधकर पाठक को अपने इतिहास की एक मानसयात्रा के लिए बाध्य कर देती है। पाठक कविता के शीर्षक मात्र से अपने जीवन के सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति को अनायास ही याद कर बैठता है फिर आगे की कविता पाठक और पाठक के प्रिय के साथ पढ़ी जाती है। अपने प्रिय के साथ मानसयात्रा के दौरान पाठक स्वयं को और अपने प्रिय को यह याद दिलाने का प्रयास करता है कि उसने अपने प्रिय को अपने हृदय की गहराइयों में एक विशिष्ट स्थान दिया है। वह शीर्षक में लिखी मान्यता को झुठलाना चाहता है और कह उठता है कि ‘‘अगर सच में/ ऐसा होता तो/अब तक/सारे तारे टूटकर/जमीन पर आ गए होते/आखिर/इतना तो याद/मैंने/तुम्हें किया ही है।’’8 इस संग्रह की कविता ‘रक्तचाप’ भी अपने प्रिय की याद करने और उसके साथ बिताये नितांत निजी और ऐसे अनुभूतिपूर्ण क्षणों से मिली गरमाहट की बात करता है जिससे आज भी पाठक भूल नहीं पाया है। मनीष जी की यह कविता भी उनकी अन्य कविताओं की तरह इतनी छोटी तो है किंतु गहरी भी इतनी है कि पाठक अपने प्रिय के सानिध्य को कविता की चंद पंक्तियों को एक साँस में पढ़ तो जाता है पर एक क्षण में पढ़ ली गई इन लाइनों के बाद बाहर निकलने वाली साँस वर्षों के इतिहास को प्रत्यक्ष कर जाती है। एक बात और है जो मनीष जी की कवितओं को विशेष बनाती है वह यह कि पाठक मनीष जी की कविताओं को स्वयं के जीवन में निभाई जिस भूमिका की भावभूमि में पढ़ता है वे उसे उसी के अनुरूप झँकृत कर देती हैं। यदि पाठक एक बार प्रेमी की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी प्रेमिका की निकटता का अहसास होता है। यदि पाठक एक पुत्र की तरह इन कविताओं को पढ़ता है तो उसे अपनी माँ के ममत्व की गरमाहट भरी निकटता महसूस होती है, यदि मित्र की तरह पढ़ता है तो उसे एक अन्यतम मित्र की निकटता का आभास होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी बात को इंगित करके लिखा था कि ‘जिन्ह कैं रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।’9 डाॅ. मनीष मिश्र जी की कविताएँ भी पाठक को बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी और प्रत्येक बार पाठक को एक नये रस का आस्वादन प्राप्त होगा ऐसा मेरा मानना है। ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए’ कविता भी कुछ ऐसी ही तासीर की कविता है जिसमें पाठक देशकाल के बंधनों से परे जाकर जीवन के प्रत्येक क्षण में अपने प्रिय के साथ बिताए पलों को उसी ताजगी से याद करता है जिस ताजगी से वे घटित हुए थे। इस कविता में जब कवि कहता है कि ‘तुम्हारी एक मुस्कान के लिए/जनवरी में भी/हुई झमाझम बारिश/और अक्टूबर में ही/खेला गया फाग।’10 तब वह वर्तमान में होते हुए भी अपने प्रिय के साथ समययात्रा करता हुआ सूक्ष्मसमायांतराल में एक पुनर्जीवन को जी लेता है। मनीष जी की कविताएँ पाठक की संवेदनाओं को भी संबोधित करती हैं। ‘जब तुम साथ होती हो’ में ऐसा ही संबोधन सुनाई पड़ता है मानो व्यक्ति अपनी आषा को संबोधित करते हुए कह रहा हो कि ‘तुम जब साथ होती हो/तो होता है वह सब/कुछ जिसके होने से/खुद के होने का/एहसास बढ़ जाता है।’11 इस कविता का पहला भाव नायक द्वारा नायिका के प्रति उद्गार के रूप में सामने आता है पर एक अन्य अर्थ में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी आषा के होने के महत्व का वर्णन करते हुए कह रहा है कि आषा के कारण ही कवि का अस्तित्व और पहचान है। ‘वह साल, वह अक्टूबर’ कविता इस संग्रह की मुख्य कविता प्रतीत होती है जिसके इर्दगिर्द इस संग्रह का तानाबाना रचा गया लगता है। इस कविता में कवि ने अपने और प्रिय के व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। जब वह कहता है कि ‘इस/साल का/यह अक्टूबर/याद रहेगा/साल दर साल/यादों का/एक सिलसिला बनकर।’12 तो इन पंक्तियों में कवि की नितांत व्यक्तिगत किंतु महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों की एक श्रृंखला ध्वनित होती दिखाई देती है। ‘बहुत कठिन होता है’, ‘अवसाद’, ‘कच्चे से इश्क में’, ‘विफलता के स्वप्न’ ‘भाषा के लिबास में’, ‘इतिहास मेरे साथ’, ‘पिछली ऋतुओं की वह साथी’ आदि इसी श्रेणी की कविताएँ है। इन कविताओं में बीते जीवन की जो सुखद अनुभूतियों की गूँज है उसी का इतिहास इस संग्रह में दिखाई देता है जिसके कारण इस संग्रह का शीर्षक ‘अक्टूबर उस साल’ बहुत उपर्युक्त प्रतीत होता है। इस संग्रह की कविता ‘जीवन यात्रा’ की निम्न पंक्तियाँ इसी तथ्य का साक्ष्य भी देती हैं ‘ऐसी यात्राएँ ही/जीवन हैं/जीवन ऐसी ही/यात्राओं का नाम है।’13 एक अन्य कविता ‘चाँदनी पीते हुए’ में भी लेखक प्रिय के अनुराग को व्यक्त करते हुए न जाने कितनी ही बिसरी बातें याद कर जाता है वह कहता है ’याद आता है/मुझे वह साल/जिसमें मिटी थी/दृगों की/चिर-प्यास।’14 इस कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों को पढ़ते ही पाठक की अपनी बीती अनुरक्ति की यादें ताजा हो जाती हैं उसकी आँखों के झरने में एक-एक करके अनगिनत मीठे लम्हे भीग जाते हैं। इस कविता में जब कवि लिखता है कि ‘यह/तुम्हारे भरोसे/और/मेरे बढ़ते अधिकारों की/एक सहज/यात्रा थी।’15 तब तक पाठक इस कविता के शब्दों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है और कवि के शब्दों के अनुरूप अपने बीते जीवन को एक बार फिर से अपने भावदेश में जीने लगता है और तब कवि पाठक की अनुभूतियों को कुरेदता हुआ उन बातों की तह तक पहुँच जाता है जिसमें कवि और पाठक एक-दूसरे से अपनी अंतरंग बातें साझा करते हैं कवि लिखता है ‘तुम्हारे बालों में/घूमती/मेरी उंगलियाँ/निकल जाती/सम्मोहन की/किसी लंबी यात्रा पर।’16 कवि की इस कविता के साथ पाठक अपने मन की गइराइयों में छुपे उस अनुराग की तान छेड़ देता है जिसके कारण उसे प्रेम का उदात्त आभास हुआ है। इस भाव को शब्द देते हुए कवि लिखता है ‘जहाँ से तुम/मेरी सर्जनात्मक शक्ति की/आराध्या बन/रिसती रहोगी/मिलती रहोगी/उसी लालिमा/और आत्मीयता के साथ।’17 कवि की कविता इन शब्दों के साथ पूरी हो जाती है किंतु इस तरह की कविताओं के पाठ से पाठक के हृदय में जो स्पंदन शुरु हो जाता है वह पाठक को न केवल पूरी कविता को दोबारा पढ़ने के लिए विवश करता है बल्कि वह पाठक को प्रेरित करता है कि इसी प्रकार उसके मन की उन सभी बातों को इस संग्रह की अन्य कविताओं में ढूँढे जिनको पाठक ने स्वयं से भी साझा नहीं किया है। पाठक उत्प्रेरित होता है और इस संग्रह की अन्य कविताओं में अपने निजी क्षणों की तलाश करता है। हर व्यक्ति के जीवन में कोई ऐसा प्रिय व्यक्ति अवश्य होता है जिसके प्रति उसका व्यवहार एक अतिरिक्त सावधानी या सुरक्षा के चलते कुछ ऐसा हो जाता है कि उस प्रिय व्यक्ति के कुछ निजी पलों का हमसे अतिक्रमण हो जाता है। ‘मुझे आदत थी’ कविता की पंक्तियाँ ‘मुझे आदत थी/तुम्हें रोकने की/टोकने की/बताने और/समझाने की।’18 ऐसे ही प्रिय व्यक्ति के प्रति पाठक द्वारा किए गए अतिक्रमण की क्षमायाचना करती है तथा प्रायश्चित स्वरूप पाठक को ‘अब/जब नहीं हो तुम/तो इन आदतों को/बदल देना चाहता हूँ/ताकि/शामिल हो सकूँ/तुम्हारे साथ/हर जगह/तुम्हारी आदत बनकर।’19 के माध्यम से समाधान करने का प्रयास करती है जिससे उसके मन की टीस समाप्त हो सके। ‘कब होता है प्रेम?’, ‘रंग-ए-इश्क में’ कविता की निम्न पंक्तियाँ भी पाठक को अपने रंग में रंगने में सफल हो जाती है ‘जहाँ बार-बार/लौटकर जाना चाहूँ/वह प्यार वाली/ऐसी कोई गली लगती।’20 इस संग्रह में कुछ अन्य कविताएँ जैसे ‘चुप्पी की पनाह में’, ‘कुछ उदास परंपराएँ’, ‘इन फकीर निगाहों के मुकद्दर में’, ‘प्रतीक्षा की स्थापत्य कला’, ‘पिघलती चेतना और तापमान से’, ‘गंभीर चिंताओं की परिधि’ आदि पाठक को अपने स्वप्नलोक से वापस लाकर यथार्थ का आभास कराती हैं और बताती हैं कि वह जिस भावभूमि में था वह उसको नास्टेल्जिया मात्र है पर ‘दो आँखों में अटकी’ जैसी कविता पाठक को आश्वस्त भी करती है कि उसके मन की गहराइयों में जो निश्छल और निर्मल प्रेम छुपा है वही उसकी अनमोल निधि है जो उसे उसके संबंधों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है। जब कवि लिखता है ‘यकीन मानों/मेरे पास/और कुछ भी नहीं/मेरे कुछ होने की/अब तक कि/पूरी प्रक्रिया में।’21 एक अन्य कविता ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ भी उस सामाजिक एकता की ओर संकेत करती है जिसकी मजबूती से आज हम अपनी जी जाति को विनाश की ओर ढकेल रहे हैं। कवि लिखता है ‘हम/आसमान की/ओर बढ़ तो रहे हैं/पर अपनी/जड़ों का हवन कर रहे हैं।’22 मेरे विचार से कवि मनीष की यह कविता इनके इस संग्रह की सबसे सशक्त कविता है जो तीखे शब्दों में हमारे समाज के यथार्थ और सामाजिक संबंधों की वर्तमान स्थिति की दयनीयता को स्पष्ट रूप से न केवल सामने रखती है बल्कि पाठक को सोचने यह सोचने के लिए विवश करती है कि क्या मनुष्य जाति के विकास का लक्ष्य यही था जो कवि मनीष जी ने लिख दिया है। पाठक कवि से सहमत भी होता है तथा सृष्टि और समाज में अपनी भूमिका की समीक्षा पर मनन भी करता है। इस कविता के अंतिम पद की पंक्तियाँ ‘भगौड़े/भाग रहे हैं विदेश, देश को लूटकर/हमारे रहनुमा हैं कि/भाषण भजन कर रहे हैं।’23 कवि को दुष्यंत कुमार जैसे उन शीर्ष कवियों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती हैं जो हमारे समाज की बुराइयों को अपनी कलम की तलवार से काटने के लिए किये जाने वाले युद्धघोष की प्रथम पंक्ति में रहते हुए यह कहते हैं कि ‘हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।24 ‘इस दौर-ए-निजाम’ कविता की ये पंक्तियाँ ‘विश्व के सबसे बड़े/सियासी लोकतंत्र में/आवाम की कोई भी मजबूरी/सिर्फ एक मौका है।’25 अनायास ही हिंदी के हस्ताक्षर गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ की याद दिला देती हैं। कवि मनीष की कविताओं में यथा स्थान बिम्ब, प्रतीक एवं मिथकों को प्रयोग भी किया गया है जो युवा कवि होने पर भी अपने कार्य में दक्षता को दर्शाता है। ‘यूँ तो संकीर्णताओं को’ कविता में उनका यह लिखना कि ‘रावण के पक्ष में/खुद को/खड़ा करके/ये हर साल/किसका दहन कर रहे हैं?’26 मनीष जी की कविता में इसी कलात्मकता की ओर संकेत करता है। इस संग्रह में मनीष जी की अनुभूतियों का सबसे सशक्त रूप उनकी ‘माँ’ कविता में उभरकर सामने आता है। शायद यह कविता इस संग्रह की सबसे लंबी कविता भी है। हो भी क्यों न, व्यक्ति के समस्त जीवन की एकमात्र संभावना इस कविता के शीर्षक में छिपी हुई है। यदि इस कविता की भाव संपदा की व्याख्या की गई तो शायद अन्य किसी कविता के लिए अवकाश ही न मिले। कवि मनीष जी द्वारा अपनी माँ को समर्पित यह कविता उनके सहज, सरल और शांत व्यक्तित्व के निर्माण कर कहानी कहती है। इस कविता के तुरंत बाद की कविता में अपने पर हावी हो जाने के द्वंद्व में पददलित की हुई इच्छाओं का जैसा संक्षिप्त और सटीक प्रस्तुतिकरण कवि ने किया है उससे ‘तुम से प्रेम’ कविता कवि की प्रस्तुति का अंदाज ही बदल देती है। जो कवि अभी तक सरल शब्दों में अपनी बात रखता जा रहा था इस कविता से उसके शब्द अचानक अत्यंत गंभीर और गहरे अर्थों वाले दार्शनिक हो जाते हैं जिससे ऐसा लगता है मानो कवि वर्षों की काव्य साधना की चिर समाधि का अनुभव साथ लिए हुए धीरे-धीरे अपना पद्यकोश खोल रहा है। इस संग्रह में इस कविता से आगे की लगभग समस्त कविताएँ तीक्ष्ण कटाक्ष और पैनी दृष्टि के साथ एक ऐसे विद्वान पाठक का आग्रह करती हैं जिन्हें पढ़ने वाले के पास अपना स्वयं के अनुभव का एक इतिहास हो। ‘तुमने कहा’ कविता की पंक्तियाँ ‘मैं वही हूँ/जिसे तुमने/अपनी सुविधा समझा/बिना किसी/दुविधा के।’27 बताती हैं कि केवल दान करना ही प्रेम की इति नहीं होती, प्रतिदान का भी प्रेम के व्यापक संसार में बहुत गहरा महत्व है। प्रतिदान के अभाव में प्रेम के दूषित भाव का भी जन्म हो सकता है जिसके कारण प्रेम के दीर्घायु होने में संषय उत्पन्न हो जाता है। ‘लंबे अंतराल के बाद’ कविता की ये पंक्तियाँ इसी की ओर संकेत करती हैं ‘सालते दुःख से/आजि़्ाज आकर/वह मौन संधि/गैरवाजिब मानकर/मैंने तोड़ दी’।28 इस कविता में मनीष जी ने अत्याधुनिक और तकनीकी युग में जीवन को यथार्थ की कसौटी पर परखते हुए जीने वाले आज के युग के लोगों के उस तनाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो प्रतिदान के अभाव में उत्पन्न हो जाता है। इस अभाव को दूर करने का प्रयास संग्रह की अगली कविता ‘कुछ कहो तुम भी’ की निम्न प्रारंभिक पंक्तियों में ही दिखाई दे जाता है ‘यूँ खामोशी भरा/मुझसे/इंतकाम न लो/तुम/ऐसा भी नहीं कि/तुम्हें/किसी बात का/कोई/मलाल न हो/दूरियाँ कब नहीं थीं/हमारे बीच?/लेकिन/ये तनाव/ये कश्मकश न थी’29 मनीष जी के इस संग्रह में प्रेम का जो रूप दिखाई देता है वह एक के बाद एक आने वाली कविताओं में व्यक्तिगत से समष्टिगत विस्तार तो पाता ही है उसमें आलंबन का तिरोभाव भी होता चला जाता है। ‘जैसे होती है’ कविता की निम्न पंक्तियाँ एक प्रेमी में दूसरे प्रेमी के इसी विलय की ओर संकेत करती हैं ‘जैसे होती है/मंदिर/में आरती/सागर/में लहरें/आँखों/में रोशनी/फूल/में खुशबू/शरीर/में ऊष्मा/शराब/में नशा/और किसी मकान/में घर/वैसे ही/क्यों रहती हो?/मेरी हर साँस/में तुम।’30 मनीष जी की यह कविता कबीर के उस दोहे की बरबस ही याद दिला देती है जिसमें उन्होंने भी आलंबन के तिरोभाव का उल्लेख किया है। कबीर कहते हैं ‘जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाय, प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।’31 प्रेम के विस्तार में स्वयं का विलय कर देने का यह भाव कबीर और मनीष जी के भाव में नितांत समानता दर्शाता है। ‘प्रेम ओर समर्पण’ कविता प्रथमदृष्टया इस संग्रह के प्रतिकूल दिखाई देने पर भी इस संग्रह के लिए निहायत ही अनुकूल है पर इस कविता को इस संग्रह में जो स्थान दिया गया है वह अनुकूल जान नहीं पड़ता। इस कविता को इस संग्रह की कविताओं ‘अवसाद’ और ‘मतवाला करुणामय पावस’ के बीच कहीं होना चाहिए था। इसी तरह ‘आगत की अगवानी में’, ‘स्थगित संवेदनाएँ’, ‘जो लौटकर आ गया’ इस संग्रह की ऐसी कविताएँ हैं जिनकी गहराई को समझने के लिए वांछित परिपक्वता अभी मुझमें नहीं है ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस संग्रह की अंतिम कविता ‘बचाना चाहता हूँ’ को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि लेखक ने इस संग्रह की अंतिम कविता के रूप में इसको बहुत पहले ही लिख लिया होगा क्योंकि यह कविता हर लिहाज से संग्रह की अंतिम कविता के रूप में ही फिट बैठती है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने बीते हुए नितांत व्यक्तिगत और सुखदायी वैचारिक जगत् में विचरण करता है उससे पाठक को यह समाधान हो जाता है कि उसके प्रेम के ये ही निजी क्षण उसकी ऐसी अक्षय निधि हैं जो उसके अकेलेपन को भावों के परिवार से भर देती हैं और पाठक विवश हो जाता है कि यदि उसे अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे इन सुखद स्मृतियों को बचाना ही होगा। ऐसे निश्चय के साथ यह अंतिम कविता पाठक को अपने इस निर्णय पर अटल होने के लिए प्रेरित करती हैं जिसमें कवि कहता है ‘मैं/बचाना चाहता हूँ/दरकता हुआ/टूटता हुआ/वह सब/जो बचा सकूँगा/किसी भी कीमत पर’32 कवि ने बचाने वाली इस संपत्ति के कोष में जिस टूटते हुए मन, भरोसे की ऊष्मा, आँखों में बसे सपने की बात की है उनके लिए पाठक को लगता है कि ये तो स्वयं पाठक के मन में उठने वाले विचार हैं। इस प्रकार कवि मनीष की यह कविता भी पाठक के साथ तारतम्य स्थापित कर लेती है। इस अंतिम कविता को पढ़ने के बाद इस बात की तसल्ली होती है कि अपने दूसरे ही संग्रह की कविताओं में कवि मनीष ने पाठक की रुचि के अनुरूप ऐसी कविताओं की रचना की है जो पहली कविता से लेकर अंतिम कविता तक पाठक को बाँधे रखने में सफल होती है। यद्यपि इन कविताओं में ध्यानस्थ पाठक की चेतना भंग नहीं होती तथापि कुछ कविताओं का स्थान यदि इधर-उधर कर दिया जाता तो मेरे जैसे अल्पज्ञ किंतु भावुक पाठक को और भी अधिक आनंद आता। फिर भी कम शब्दों में रची हुई छोटी छोटी कविताएँ होने के बावजूद कवि ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस प्रकार से की है उसका रसास्वादन करते हुए साहित्य के बड़े-बड़े कवियों का अनायास स्मरण हो जाना कवि की कवितओं की सफलता और काव्य चेतना की गहराई की ओर संकेत करता है। इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि यह कवि केवल लिखने लिए ही कविताएँ नहीं लिखता बल्कि इसकी सूक्ष्म चैतन्य दृष्टि आज के आपाधापी भरे समय में भी मनुष्य को विश्राम देकर स्वयं के बारे में विचार करने के लिए बाध्य करती है। कवि के रूप में डाॅ. मनीष मिश्रा जी में असीमित संभावनाएँ हैं। अनंत संभावनाओं वाले कवि डाॅ. मनीष मिश्रा जी को उनके काव्य संग्रह ‘अक्टूबर उस साल’ की छोटी, सुंदर और गहरी कविताओं की रचना के लिए बहुत बधाई। संदर्भ- अनुक्रमणिका आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- शब्द सृष्टि दिल्ली, संस्करण- 2019, पृष्ठ-11 जैसे कि तुम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-91 जैसे कि तुम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-92 आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-13 आत्मीयता, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-13 https://www.hindisamay.com/content/714/1/अज्ञेय-कविताएँ-चुनी-हुई-कविताएँ.cspx#साँप जब कोई किसी को याद करता है, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, उपरोक्त, पृष्ठ-13 रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, बालकाण्ड, दोहा क्रमांक- 241 के अंतर्गत चैपाई क्रमांक-2 तुम्हारी एक मुस्कान के लिए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- शब्द सृष्टि दिल्ली, संस्करण- 2019, पृष्ठ-20-21 जब तुम साथ होती हो, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-26 वह साल, वह अक्टूबर, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-29 जीवन यात्रा, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-34 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-60 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-62 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-62 चाँदनी पीते हुए, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-66 मुझे आदत थी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-47 मुझे आदत थी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-48 रंग-ए-इश्क में, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-96 दो आँखों में अटकी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-83 यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-94 यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-95 http://kavitakosh.org/kk/हो_गई_है_पीर_पर्वत-सी_पिघलनी_चाहिए_/_दुष्यंत_कुमार इस दौर-ए-निजाम, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-98 यूँ तो संकीर्णताओं को, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-94 तुमने कहा, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-108 लंबे अंतराल के बाद, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-110 कुछ कहो तुम भी, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-113 जैसे होती है, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-122 https://hindisamay.com/kabir-granthawali/saakhi.htm दोहा क्रमांक 35 बचाना चाहता हूँ, अक्टूबर उस साल, डाॅ. मनीष मिश्रा, प्रकाशन- उपरोक्त, पृष्ठ-132 डाॅ. गजेन्द्र भारद्वाज, सहायक प्राचार्य हिंदी सी.एम.बी. काॅलेज डेवढ़, घोघरडीहा, जिला- मधुबनी, बिहार ईमेल- drgajendrabhardwajhindi@gmail.com संपर्क- 7898391639 ORCID iD- 0000-0002-0712-9187

Saturday 19 December 2020

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज़ ।

ठुमरी की ठनक और ठसक का दस्तावेज़ ।
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में अध्येता के रूप में दो वर्षों तक जिस समर्पण और निष्ठा के साथ डॉ. ज्योति सिन्हा अपने शोधकार्य में लगी रहीं, उसके प्रतिफल के रूप में 614 पृष्ठों की यह पुस्तक हमारे सामने है । पुस्तक का शीर्षक है –“बनारसी ठुमरी की परंपरा में ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियाँ एवं उपलब्धियां (19वीं-20वीं सदी ) । पुस्तक का प्रथम संस्करण वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ । प्रकाशक रहा स्वयं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला, हिमाचल प्रदेश । डॉ. ज्योति सिन्हा अपने शोध आलेखों एवं पुस्तकों के माध्यम से संगीत के विभिन्न पक्षों पर अकादमिक योगदान देती रही हैं । लेकिन यह पुस्तक उनकी एक “नई पहचान” गढ़ती सी दिख रही है । इस पुस्तक के माध्यम से ज्ञात होता है कि इन ठुमरी गायिकाओं ने अपने संघर्ष को समयानुकूल रूपांतरित करने एवं उसे धार देने में कोई कमी नहीं छोड़ी । ऐसा इसलिए ताकि जीवन जीना थोड़ा सरल हो सके और कला का सफ़र अधिक खूबसूरत । ये गायिकायें अपने जीवन की ही नहीं अपितु अपनी कला की भी शिल्पी रहीं । इन डेरेवालियों, कोठेवालियों के निजी जीवन के नजाने कितने ही तहख़ाने अनखुले रह गये । कितनी ही सुरीली आवाज़ोंवाली बाई जी के नाम गुमनामी में ही दफ़न हो गये । लेकिन समय की धौंकीनी में इनके ख़्वाब हमेशा पकते रहे । इन गायिकाओं ने अपने दर्द को भी अपनी गायकी से एक ख़ास तेवर दिया । इन गायिकाओं के जीवन से बहुत से रंग और मौसम सामाजिक व्यवस्था ने बेदख़ल कर दिये थे । बावजूद इसके इनके जीवन में स्वाद लायक नमक की कोई कमी नहीं थी । ये हमेशा नयेपन का उत्सव मनाते हुए आगे बढ़ी । इनके जीवन में संघर्ष और संगीत की निरंतरता असाधारण रही । इनकी ठुमरी आज़ लोकचित्त के इंद्र्धनुष सी है । यह ठुमरी न जाने कितनी ही खोई हुई आवाज़ों का इक़बालिया बयान है । बड़ी मोती बाई , रसूलन बाई, विद्याधरी बाई, काशी बाई, हुस्ना बाई, जानकी बाई, सिद्धेश्वरी देवी, अख्तरी बाई, जद्दन बाई, राजेश्वरी बाई, टामी बाई, कमलेश्वरी बाई, चंपा बाई , गौहर जान, मलका जान, केसर बाई केरकर, सितारा देवी और गिरजा देवी तक की पूरी ठुमरी गायकी की परंपरा इस पुस्तक के माध्यम से संरक्षित हो गई है । सामगान, ध्रुवागान, जातिगान, प्रबंध, ध्रुवपद, धमार, ख़्याल, ठुमरी, टप्पा, गजल, क़व्वाली, होरी, कजरी, चैती इत्यादि सांगीतिक रूपों से भारतीय संगीत हमेशा ही प्रस्तुति पाता रहा है । इन्हीं में बनारस की एक महत्वपूर्ण गायकी परंपरा “ठुमरी” की रही है जो गेय विधा के रूप में प्रसिद्ध मूल रूप में एक “नृत्य गीत भेद” है । ठुमरी भारतीय संगीत के “उपशास्त्रीय वर्ग” में स्थान बनाने में सफल रही है । यह शृंगारिक एवं भक्तिपूर्ण दोनों ही रूपों में प्रस्तुत की जाती रही है । 19वीं शताब्दी में ध्रुवपद और ख़याल की तुलना में इसकी लोकप्रियता अधिक बढ़ी । स्त्रियों के जिस वर्ग ने इस गायकी को अपनाया उन्हें गणिका, वेश्या, नर्तकी, बाई इत्यादि नामों से संबोधित किया गया । इसे “तवायफ़ों का गाना” कहते हुए इससे जुड़ी स्त्रियों को हेय दृष्टि से ही देखा गया । इन स्त्रियों को समाज के सम्पन्न और विलासी पुरुषों का संरक्षण प्राप्त होता था । ये अपनी कला के दम पर नाम और शोहरत पाती थी । आर्थिक और कलात्मक वर्चस्व के साथ - साथ अपरोक्षरूप से सामाजिक दबदबा भी ये हासिल करती थीं । इनका यह दबदबा इनके संरक्षकों के माध्यम से होता था । लेकिन जन सामान्य के बीच ये “बुरी स्त्री” के रूप में ही जानी जाती रहीं । इनके जीवन में पुरुषों की अधिकांश सहभागिता सिर्फ़ मनोरंजन और आनंद के लिए ही रही । इनका निजी जीवन संपन्नता के बावजूद संवेदना और प्रेम के स्तर पर त्रासदी का निजी इतिहास रहा है । इन्हें सामाजिक नैतिकता और आदर्श के लिए हमेशा “खतरनाक” माना गया । जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद इन गायिकाओं ने अपनी कला साधना में कोई कमी नहीं रखी । इनमें से कई गायिकायें 10 से 20 भाषाओं में गाती थीं । अपनी नज़्में ख़ुद लिखती एवं उनकी धुन बनाती । तकनीकी बदलाव के अनुरूप अपने आप को तैयार किया । गौहर जान और जानकी बाई ने ग्रामोंफोन की रिकार्डिंग में अपना परचम लहराया । गौहर जान ने बीस से अधिक भाषाओं में 600 से अधिक रिकार्डिंग किये । इसी रिकार्डिंग की बदौलत गौहर देश ही नहीं विदेश में भी मशहूर हुई । जद्दन बाई ने सिनेमा संगीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया । अपनी बेटी नरगिस को उन्होने कामयाब अभिनेत्री बनाया । ग्रामोंफोन, संगीत कंपनी, रंगमंच और सिनेमा में इन गायिकाओं ने अतुलनीय योगदान दिया । इनमें से अधिकांश की व्यापक चर्चा इस पुस्तक में की गई है । इस पूरी पुस्तक को अध्ययन-अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से सात अध्यायों में वर्गीकृत किया गया है । प्रथम अध्याय ठुमरी की उत्पत्ति,विकास एवं ऐतिहासिक संदर्भों पर केन्द्रित है । इसमें ठुमरी की शैलियाँ, अंग, उपांग इत्यादि की भी चर्चा है । दूसरा अध्याय ठुमरी के सांगीतिक तत्व से संबन्धित है । इसमें राग, ताल, वाद्य, भाषा, साहित्य, रस, भाव, सौंदर्य, लोकतत्व और लोकधुन से जुड़ी जानकारी प्रस्तुत की गई है । तीसरा अध्याय बनारस संगीत परंपरा एवं बनारसी ठुमरी से संबंधित है । अध्याय चार ठुमरी गायिकाओं पर केन्द्रित है । उनकी परंपरा और सृजन संदर्भों की यहाँ व्यापक चर्चा है । अध्याय पाँच ठुमरी गायिकाओं की चुनौतियों एवं उपलब्धियों से संबंधित है । अध्याय छः उन तमाम संदर्भों पर केन्द्रित है जो ठुमरी के विकास में महत्वपूर्ण कारक रहे । अध्याय सात उपसंहार के रूप में दर्ज़ है । अंत में संदर्भ ग्रंथ सूची है जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है । इस सूची में 222 पुस्तकों एवं पत्र- पत्रिकाओं की जानकारी है । भविष्य में इस तरह के शोध कार्यों के लिए यह सूची बहुत ही सहायक होगी । इस पुस्तक ने बनारस को ठुमरी के संदर्भ में चित्रित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । दालमंडी, नारियल बाजार, राजा दरवाजा का कोठेवालियों का इलाक़ा, इनकी शान ओ शौकत और संगीत परंपरा का व्यापक वर्णन है । साथ ही नौका विहार, जल विहार, होली, जन्माष्टमी, सावन, बुढ़वा मंगल और गुलाब बाड़ी की संगीत माफ़िलों की भी विधिवत चर्चा की गई है । ठुमरी को नवीनता और जनप्रियता इसी बनारस से मिली । संगीत घरानों एवं गुणी उस्तादों के बीच ठुमरी बनारस में ही चमकी । 1790 से 1850 तक का समय ठुमरी और ठुमरी गायिकाओं के लिये काफी उत्साह जनक रहा । लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद काफी कुछ बदल गया । अंग्रेज़ वेश्याओं में दिलचस्पी तो लेते रहे पर “नेटिव म्युजिक” को कोई तवज्जो नहीं देते थे । इसके संरक्षण की उन्होने कभी कोई ज़रूरत नहीं समझी । तवायफ़ों के क्रांतिकारियों से संबंध और उन्हें सहायता पहुंचाने की कई बातों के सामने आने के बाद अंग्रेज़ हुकूमत सख़्त हो गई । “ब्रिटिश क्राउन ला” इसी सख्ती का परिणाम था । इसी क़ानून द्वारा सभी तवायफ़ों को वेश्याओं की श्रेणी में रखकर उनकी गतिविधियों को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित कर दिया गया । इसीतरह सन 1946 से 1952 तक एक सरकारी आदेशानुसार उन महिलाओं के गायन प्रसारण पर पाबंदी थी जिनका निजी जीवन सार्वजनिक तौर पर लांछित माना गया । ऐसे कई संदर्भ इस पुस्तक में मिलते हैं । हर तरह के शोध कार्यों की अपनी सीमाएं होती हैं । इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह बराबर महसूस हुआ कि - • कई ठुमरी गायिकाओं के नाम का उल्लेख तो पुस्तक में है लेकिन उनकी व्यापक चर्चा नहीं है । संभवतः यह उनसे जुड़ी सामग्री के अभाव के कारण भी हो सकता है । • ठुमरी गायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक क्रमबद्ध तरीके से जादा व्यवस्थित तरीके से सामने रखा जा सकता था । • स्त्रीवादी और मार्क्सवादी सिद्धांतों को कई जगह जिस तरह से उल्लेखित किया गया है वह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन व्यापक विवेचना और संदर्भों की कमी खटकती है । • कई बार विश्लेषण बहुत एकांगी और सपाट सा लगता है । इसी तरह जो बातें इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती हैं, वे निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझी जा सकती हैं - • सहज, सरल भाषा और छोटे - छोटे वाक्यों में तथ्यों की प्रस्तुति । • विषय से जुड़ा बड़ा संचयन कार्य । • ठुमरी गायिकाओं की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की तथ्यगत विवेचना का प्रयास । • बनारस की ठुमरी परंपरा को गहन रूप में प्रस्तुत करना । • स्त्री जीवन के संघर्ष को प्रेरक रूप में नई पीढ़ी के सामने रखना । समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि डॉ. ज्योति सिन्हा जी द्वारा किया गया बनारसी ठुमरी पर यह कार्य एक मील का पत्थर है । वे उस साहित्यिक परंपरा का हिस्सा बन चुकी हैं जिसमें कामेश्वरनाथ मिश्र, विश्वनाथ मुखर्जी, डॉ. शत्रुघ्न शुक्ल, भगवत शरण उपाध्याय और गजेन्द्र नारायण सिंह जैसे नाम लिये जाते रहे हैं । भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के महत्वपूर्ण प्रकाशन कार्यों में यह पुस्तक भी शामिल रहेगी । डॉ. मनीष कुमार मिश्रा सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण-पश्चिम, महाराष्ट्र Manishmuntazir@gmail.com मो- 8090100900

Thursday 10 December 2020

खजुरन : जोगियों का गांव ।

 खजुरन : जोगियों का गांव ।


उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले अन्तर्गत आनेवाले बदलापुर तहसील का एक गांव है खजुरन । यह गांव "जोगियों का गांव" के रूप में भी जाना जाता है । ऐसा नहीं है कि इस गांव के सभी लोग जोगी हैं, अपितु यहां जोगियों की पूरी एक बस्ती / टोला है । लगभग साठ से सत्तर घरों का यह जोगियान 400 से 500 की आबादी का है ।
ये सभी मुस्लिम परिवार हैं जो कई पुश्तों से यहां रह रहे हैं । कितनी पुश्तों से ? यह ठीक से कोई नहीं बता सकता । इनमें से अधिकांश के पास अपनी खेती बाड़ी की ज़मीन नहीं है । कुछ के पास है भी तो बड़ी मामूली सी । आवास भी अधिकांश लोगों को इंदिरा आवास  एवं प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से मिली हुई "कालोनी" है । बस्ती तक जानेवाली सड़क पक्की है, लेकिन बस्ती इनकी तंगहाली और ग़रीबी को उघार कर रख देती है ।
अब इनमें से अधिकांश लोग चीनी मिट्टी के बने बर्तन और कांच के कप और ग्लास बेचने का काम करते हैं । बेचने का यह सारा सामान ये मछलीशहर नामक जगह से लाते हैं । कुछ लोग पढ़ लिखकर दूसरे प्रतिष्ठित कार्य भी करने लगे हैं । नन्हें मास्टर ऐसे ही व्यक्ति हैं जो पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं । बस्ती के सभी लोग अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने में रुचि रखते हैं । आबादी के हिसाब से इनकी संख्या स्थानीय चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाने लगी है । यही कारण है कि ग्राम प्रधान इत्यादि इन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ देते रहते हैं । बस्ती में ही एक छोटी सी मस्जिद भी है जहां मोहम्मद नज़ीर शाह मौलवी के रूप में कामकाज देखते हैं । बुज़ुर्ग मौलवी धर्म को इंसानों का बनाया हुआ और सर्व धर्म समभाव की बात करते हुए भी इस्लाम की श्रेष्ठता को साबित करना नहीं भूलते । अपने आप को अबुल उलाइया सिलसिले से जुड़ा हुआ कहते हैं ।
जो लोग अभी भी सारंगी के साथ घर घर घूम कर गीत गाने और मांगने का काम करते हैं वे सुबह पांच बजे तक बस्ती से निकल जाते हैं और आस पास के इलाकों में अपना गीत सुनाकर अनाज और पैसे मांगते हैं । कई बार तो ये हप्तों, महीनों की लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं । राजा भर्तहरि और गोपीचंद  प्रसंग को ये विशेष रूप से गाते हैं ।
कथा शुरू होती है उज्जयिनी शहर के  राजा विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन से जिनकी  दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि वो विक्रमादित्य से बड़े थे।  कथाओं के अनुसार भर्तृहरि की दो पत्नियां होने के बावजूद उन्होंने पिंगला  नामक रानी से तीसरा विवाह किया को कि बहुत सुंदर थीं । भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे।                                                   
इसी बीच गुरु गोरखनाथ का आगमन भर्तृहरि के यहां हुआ।  गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया गया।  प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा को एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।
  भर्तृहरि ने वह फल स्वयं न खाकर अपनी तीसरी पत्नी को दे दिया । रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि  राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। अतः रानी ने फल कोतवाल को दे दिया । वह कोतवाल एक वेश्या से प्रेम  करता था अतः उसने फल उसे दे दिया। वेश्या अपने घृणित कार्य को सदा जवान रहकर नहीं करना चाहती थी । उसे लगा फल तो राजा को खाना चाहिए ताकि वे लंबे समय तक प्रजा की सेवा कर सकें ।
जब वही फल घूम फिर कर राजा के पास वापस आ गया तो उन्होंने इसकी गहरी छानबीन कराई । छानबीन से उन्हें अपनी प्रिय रानी पिंगला की बेवफ़ाई का पता चला । इससे आहत होकर उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में तपस्या शुरू कर दी। कहते हैं कि इसी गुफा में भर्तृहरि ने 12  वर्षों तक तपस्या की थी। उन्होंने वैराग्य शतक ,श्रृंगार शतक और नीति शतक नामक ग्रंथों की रचना भी की । वैसे लोक में इस कथा के अन्य कई रूप भी प्रचलित हैं जिनमें मृग शिकार की भी घटना का वर्णन है ।
खजुरन के अतिरिक्त भी आस पास के कई गावों में जोगी रहते हैं जो कि हिंदू हैं । गांव में स्थायी रूप से बसकर जोगी के रूप में इनका कार्य जारी है । इनकी नई पीढ़ी इस पेशे को नहीं अपना रही । उनके रहन सहन में भी काफी बदलाव आ गया है । सारंगी के साथ इनके गायन की यह विशेष शैली कई अन्य लोक कलाओं के साथ धीरे धीरे दम तोड़ रही है ।

                           डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
                           डॉ. उषा आलोक दुबे
 

Wednesday 21 October 2020

धमाल : संघर्ष का इकबालिया बयान ।



धमाल : संघर्ष का इकबालिया बयान   ।

सूफी संगीत के प्रभाव से जो गायन - शैली भारत में विकसित हुई उनमें ‘कव्वाली’ प्रमुख रही है। कव्वाली के साथ ही गुजरात के   ‘सिद्दी’  संप्रदाय के नृत्य और गायन शैली ‘गोमा’ और ‘धमाल’ भी सूफियों की परंपरा से ही विकसित हुए हैं। पश्चिमी गुजरात के राज पीपला जंगलों के नजदीक गोरीपीर ( सोलहवीं शताब्दी )की खानकाह है।  सिद्दी  पूर्वी अफ़्रीका के लोग हैं,जो गुजरात, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में स्थायी निवास करते हैं। ‘मलंगा’ एक अफ़्रीकी मूल का वाद्ययंत्र है। ‘गोमा’ शब्द सवाहिली ( Swahili)  भाषा का है जिसका अभिप्राय धार्मिक उत्सव मनाने से है। अफ्रीकी मूल के सिद्दी समुदाय के इस लोक नृत्य में विशिष्ट मुखाभिनय और वन्य जीवन से अनुप्राणित आहार्य के साथ  संगीत की जादुई लय-ताल का समावेश विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है ।

‘धमाल’ एक धार्मिक नृत्य की शैली रही है जो कि 19 वी शताब्दी से हिंदू - मुस्लिम सभी द्वारा समान रूप से मनायी /प्रस्तुत की जाती रही है। वैसे धमाल नामक एक शैली खुसरो ने शुरू की थी । इस शैली में लोग खड़े होकर अपने पैरों से एक गोल वृत्त बनाते हैं और विशेष ताल पर नृत्य करते हैं । सिद्दी  फकीर औरतों, बच्चों  के साथ रहते थे और मुस्लिम व हिंदू दोनों समाज के पीर, फ़कीर, साधू-संत, दरवेश इत्यादि से संबंध रखते थे । इसी तरह ही बाउल फकीरी  परंपरा बंगाल -बांग्लादेश में पायी जाती है। आऊल, बाउल,फ़कीर,साई,दरबेस,जोगी, सेन, नेरा- नेरी, कर्ताभाजा, किशोरी भाजा, सिद्दी  और भाट जैसे समुदायों में काफ़ी समानता रही है । इनमें हिन्दू, मुसलमान दोनों ही रहते हैं । 

अफ़्रीकी मूल के लोगों का गुजरात आना कब और कैसे हुआ, इस संदर्भ में विचारकों के अलग अलग मत एवं मान्यताएं हैं । कुछ लोग यह दावा करते हैं कि पहली बार  सूडान, तंजानिया, युगांडा आदि से विभिन्न कबीलों के लोग गुजरात के भरुच पोर्ट पर उतरे थे।  लेकिन ये कैसे और किन परिस्थितियों में यहां आए यह अज्ञात है । एक दूसरा वर्ग यह  मानता है कि पुर्तगालियों ने अफ्रीकी कबीलाइयों को जूनागढ़ के तत्कालीन नवाब को भेंट में दिया था। लेकिन इसके भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते । लेकिन यह मान्यता अधिक ठोस ज़रूर लगती है ।  कबीले के लोग यह मानते हैं कि हजरत बाबा गोर ने इन कबीलाइयों को संगठित कर इनके समुदाय को ’सिद्धि’ /सीद्दी घोषित किया। यह स्थान भरुच से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 
         बाबा हजरत जहां रहे वह स्थान हजरत बाबा गोर कहलाया। जहां सिद्धि समुदाय बाबा हजरत की अकीदत में हर साल जून या जुलाई महीने में इकट्ठा होकर उनकी आराधना करता है। भारत में इस समुदाय के करीब 70 हजार लोग हैं। इनमें से लगभग 10 हजार गुजरात में हैं। 
सिद्दी जनजाति गुजरात के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक है और इस जनजाति को सिद्धि, शीदी और हब्शी के नामों से भी जाना जाता है। गुजरात के अलावा, सिद्दी आदिवासी समुदाय कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में रहता है। सिद्दी शब्द अरबी शब्द `सय्यिद` या` स्यादि` की व्युत्पत्ति है। इसका अर्थ है बंदी, या दास। इस समाज के कई कलाकार पढ़े लिखे भी हैं और वे पूरी दुनियां में अपनी कला के प्रचार प्रसार का काम कर रहे हैं ।

         कुछ चिंतकों का यह भी मानना है कि वर्तमान के इस सिद्दी आदिवासी समुदाय के मूल अफ्रीकी पूर्वज 10 वीं शताब्दी के दौरान अरब व्यापारियों के साथ भारत आए थे। पहले ये लड़ाई के सैनिक या रजवाड़ों में मेहनतकश मजदूरों के रूप में  काम कर रहे होंगे ।  कालांतर में  इन सिद्दी जनजातियों में से कई ने घरेलू नौकरों के रूप में और खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करना शुरू किया होगा । आम लोगों के बीच आसानी से घुल मिल न पाने या अपना अलग समुदाय बनाने के लिए, इन सिद्दी जनजातियों में से कुछ ने वन क्षेत्रों के अंदरूनी हिस्सों में शरण ली। आगे चलकर इन्होंने अपने आप को धीरे धीरे अधिक व्यवस्थित करते हुए 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में, जंजीरा और जाफराबाद प्रांतों में, छोटी सिद्दी भूमि बनाई । 
 मुगलों के समय से ही ऐसे अफ़्रीकी मूल के गुलाम भारत में आने लगे थे । इन्हें भारत लाने और कई तरह के कार्यों में  जोड़ने की परंपरा पुर्तगालियों ने ही शुरू की । कई इतिहाकारों का यह भी मानना है कि मराठों और मुगल शासकों के बीच संघर्ष में सिद्दी जनजातियों ने भी पश्चिम भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । इतना ही नहीं अपितु अंग्रेजों के शासन काल में सिद्दी जनजातियों से कई  लोग सैन्य और सरकारी नौकरी में शामिल रहे ।
           आज इनकी स्थिति में काफ़ी बदलाव आ चुका है । खान पान, रहन सहन , बोली भाषा सभी कुछ व्यापक स्तर पर बदल चुकी है । अपनी मूल भाषा भूल चुके इस सिद्दी समाज की नई पौध  ने  हिंदी भाषा  के साथ साथ स्थानीय बोली - भाषा में  बात व्यवहार करना सीख लिया है।वर्तमान में  इनकी आबादी गुजरात के कच्छ,ताला गीर, जाजपीपला, अहमदाबाद, भारूच, रतनपुर, झगडिय़ा और सूरत के अलावा कर्नाटक और अंदमान निकोबार द्वीप समूह तक फैली हुई दिखाई पड़ती है । 

            समय बीतने के साथ इनकी प्राचीन परंपरा और संस्कृति को भी नया रूप मिला । अपने नृत्य, संगीत, लोकगीत, आदि कलाओं का इन्होंने कई परिवर्तनों के साथ जतन भी किया है । सिद्दी  समुदाय अपने पूर्वजों की पूजा करने की पुरानी प्रथा का आज भी  पालन करता है। इसे हिरियारू भी कहा जाता है। समय के साथ साथ इन्होंने कई धर्मों, पंथों और मान्यताओं को अपना लिया । हिंदू , ईसाई और इस्लाम धर्म इन्होंने समय समय पर अपना लिया । शादी विवाह के मामले में, इन सिद्दी जनजातियों को कुछ आरक्षण मिला हुआ है। अंतर्जातीय विवाह सिद्धियों के बीच कड़ाई से निषिद्ध है लेकिन इसमें भी व्यावहारिक स्तर पर बदलाव की सुगबुगाहट दिखने लगी है ।
        धमाल के नर्तक पहले भेड़िये या बाघ की खाल का उपयोग कमर के नीचे पहनने के लिए करते थे। समय के साथ इसमें बदलाव आया और वे कपड़े पहनकर उसपर मोरपंख बांधने लगे ।  अपने सिर में ये नर्तक खपच्चियों की टोपी, बाजूूूबंद और गले से कमर तक का खास तरह का बना पट्टा पहनते हैं। अपने चेहरे और शरीर पर  ये कई तरह के आदिवासी परंपरा के चिन्ह आज भी बनाते हैं । 

       यह लोकप्रिय नृत्य सिद्धि समुदाय के लोग अपने पूर्वज बाबा हज़रत की आराधना में करते हैं।  इस नृत्य को सिद्दी समुदाय के लोग अफ्रीकी ’गोमा’ संगीत पर  प्रस्तुत करते हैं, गोमा शब्द न्गोमा से बना है जिसका अर्थ ’ड्रम्स’ होता है।इस  नृत्य शैली में ड्रम के संगीत का अहम स्थान है। नृत्य के समय तेज और धूम-धड़ाके वाला संगीत दर्शकों को लय में थिरकने को मजबूर कर देता है। इस डांस के लिए जो ड्रम बाबा की मजार पर रखा हुआ है, वह इतना बड़ा और भारी है कि उसे चार लोग मिलकर ही नहीं  उठा सकते हैं, किसी अकेले के लिए उसे उठाना संभव नहीं । नृत्य के बीच समूह के कलाकार कई तरह के करतब भी दिखाते हैं । जैसे कि हवा में नारियल को उछाल उसे सर से फोड़ना, मुंह से आग के गोले निकालना इत्यादि ।
           इस आदिवासी समाज और इसके नृत्य को लेकर धमाल शीर्षक से कवियत्री  मुक्ता की एक कविता भी है जो इस समाज के संघर्ष को बड़ी सूक्ष्मता से दर्ज़ करता है । मुक्ता की यह कविता मनो इस समाज के संघर्ष का इकबालिया बयान हो । कविता निम्न रूप से है - 

"आदिवासी नर्तकियाँ नाचती हैं ‘ सिद्धी धमाल ‘
आदिवासी नर्तकियों की उफनती छातियों से दूध की नदी बहती है
अग्निगर्भा ऋतंभरायें परिक्रमा करती हैं पृथ्वी की
‘ सिद्धी धमाल ‘ नाचती आदिवासी नर्तकियों नें
सुरक्षित रखा है काली नस्लों को गर्भ में
आदिवासी नर्तकियों के पूर्वज गुम नहीं हुए हीरे की खदानों में
वे उतरते हैं नृत्य की थाप पर
संगीत की प्रतिध्वनियों में गूँजते हैं पूर्वजों के स्वर
आज भी वे नाचते प्रतीत होते हैं आदिवासी नृत्य ‘ सिद्धि धमाल ‘
आदिवासी नर्तकियाँ नाचती हैं घने जंगलों में, सागर तट पर
और कभी-कभी घनी बस्तियों में
सिद्धि नर्तकियों के पुरुष साथी अभिनय करते हैं वन्य पशुओं का
बाघ, भालू, शेर और जंगली भैसे जैसे दुर्दांत पशुओं का........."

          यह समाज समय के साथ अपनी संगति को बिठाते हुए भी अपनी प्राचीन कला के संरक्षण में जुटा हुआ है । ये कलाएं वर्तमान के कटघरे में अतीत के संघर्ष का इकबालिया बयान हैं । ये धमाल का कमाल है ।

 डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
    सहायक प्राध्यापक 
   के . एम. अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण पश्चिम महाराष्ट्र

    डॉ. उषा आलोक दुबे
    सहायक प्राध्यापिका
एम. डी. कॉलेज, परेल, मुंबई 



Thursday 15 October 2020

बाउल : वंचितों द्वारा संचित जीवन संगीत ।

 

बाउल : वंचितों द्वारा संचित जीवन संगीत ।

पूर्वी और उत्तर पूर्वी बंगाल ( विभाजन के पूर्व का बांग्लादेश भी ) के आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों   के हाशिये का समाज "बाउल" लोकगीत एवं लोकशैली का जन्मदाता रहा है । किसी भी मुख्यधारा के जाति,धर्म एवं पंथ से अलग अपनी पहचान रखनेवाला यह समाज अपने एक तारे / दो तारे से समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, अन्याय, अज्ञानता इत्यादि का पुरजोर विरोध किया ।
 
राजस्थान और मध्यप्रदेश में ऐसे गीतों की प्रस्तुति करने वाले भाट कहलाए । उत्तर प्रदेश में इन्हें सरंगी, जोगी या फ़कीर कहा गया । आऊल, बाउल,फ़कीर,साई,दरबेस,जोगी, सेन, नेरा- नेरी, कर्ताभाजा, किशोरी भाजा  और भाट जैसे समुदायों में काफ़ी समानता रही है । इनमें हिन्दू, मुसलमान दोनों ही रहते हैं । इनके संप्रदायों में कई आंतरिक भेद और वर्ग हैं । जैसे कि वैष्णव बाउल गो मांस नहीं खाते । चावल, मछली इत्यादि वे खाते हैं। ये लहसुन और प्याज भी कम ही खाना पसंद करते हैं। इनके आंतरिक समाज में गुरु का महत्व समान रूप से है । स्त्रियां आसानी से परपुरुष से संबंध बना लेती हैं । आपराधिक गतिविधियों में इनकी सक्रियता कम पायी गई है । लेकिन " जीवन रक्षा के लिए सबकुछ" इनका महत्वपूर्ण सामाजिक सिद्धांत है । इनकी 95% आबादी ग्रामीण इलाकों में ही रहती है। पश्चिम बंगाल के बर्धमान, बनकुरा, मिदनापुर और मुर्शिदाबाद जैसे इलाकों में ये बहुतायत में हैं । इनमें कुछ आदिवासी जातियां भी शामिल हैं, जैसे कि हरी, मुरमुर और बुगडी ।

 बाउल शैली पर बौद्धों, सूफियों और संतों का समान प्रभाव रहा । इनके दार्शनिक विचारों में देहतत्व, प्रेमतत्व, गुरुतत्व , परम सत्ता, स्व अनुभूति, गुरु का महत्व, मधुकरी और अहम के त्याग जैसी बातें शामिल हैं । बाउल शब्द की उत्पत्ति को लेकर कोई निश्चित धारणा नहीं है । कुछ विद्वान बौद्ध शब्द "ब्रजकुल" से "बाजुल" और इसी से "बाउल" शब्द बना हो ऐसा मानते हैं । कुछ विद्वान इसे संस्कृत के "व्याकुल"  तो कुछ अरबी के "औलिया" शब्द से भी इसका संबंध मानते हैं । इन्होंने सामाजिक विषमताओं, धार्मिक पाखंडों इत्यादि पर जिसतरह चोट की, वह कट्टरपंथी हिंदुओं और मुसलमानों को रास नहीं आया । कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं जहां इन लोक शैलियों के ख़िलाफ़ फतवे तक जारी हुए । एक ऐसे ही फतवे का जिक्र मौलाना रियाजूद्दीन अहमद के नाम से मिलता है । ये वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर से संबंध रखते हैं । उन्नीसवीं सदी के अंत में इन्होंने "बाउल धांगशेर फतवा / Baul Dhangsher Fatva" जारी किया था । ऐसे विरोधों से सीधे सीधे बचने के लिए ही इन कलाकारों ने अपरोक्ष रूप में कलात्मकता और रहस्यात्मकता के साथ अपनी बात कहनी शुरू की हो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।
बाउल गीत मानवता की अनमोल धरोहर हैं । ये हिंसा के खिलाफ मानवता, समानता, समरसता और सर्वसमावेशी व्यवस्था के पक्षधर हैं । सन 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सुधीर चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक"बाउल फ़कीर कथा" के माध्यम से पूरे विश्व का ध्यान इनकी तरफ़ खींचा । आज के बाजारवादी युग में "बाउल" को भी एक कमोडिटी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध कराया जा रहा है । कई दक्ष और पेशेवर गायक बाउल की प्रस्तुतियों से देश विदेश में नाम कमा रहे हैं । इंटरनेट पर उनके बाउल आसानी से सुने और खरीदे जा सकते हैं । इस तरह " बाउल" मधुकरी से परे अब प्रॉफिट मार्जिन की नई कमोडिटी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है ।

लेकिन बाज़ार के इस खेल ने वास्तविक बाउल कलाकारों के जीवन संघर्ष  को और अधिक बढ़ा दिया । उनकी आर्थिक स्थिति चिंतनीय है । बाज़ार और तकनीक के गठजोड़ ने कलाओं का व्यापक प्रचार प्रसार तो किया लेकिन वास्तविक लोक कलाकारों को इससे नुक़सान अधिक हुआ । महाराष्ट्र में लावणी कलाकारों का दर्द भी कुछ ऐसा ही है । आवश्यकता इस बात की है कि जिन समुदायों ने पीढ़ी दर पीढ़ी इन कलाओं को समृद्ध किया, इन कलाओं के माध्यम से समाज प्रबोधन का महत्वपूर्ण कार्य किया, विरोधों का डटकर सामना किया  उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाय । राज्य और केंद्र सरकार के स्तर पर उनके भरण पोषण की यथोचित योजना शुरू की जाए । उनकी कलाओं को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया जाय । क्योंकि बाउल जैसी शैली मानवीय अस्मिता का प्रतीक है । यह संगीत जीवन की समरसता का संगीत है । यह हमारी थाती है । 
    डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
    सहायक प्राध्यापक 
   के . एम. अग्रवाल महाविद्यालय कल्याण पश्चिम महाराष्ट्र

    डॉ. उषा आलोक दुबे
    सहायक प्राध्यापिका
एम. डी. कालेज, परेल, मुंबई 

Monday 5 October 2020

भारतीय उपमहाद्वीप में क़व्वाली और तकनीकी परिप्रेक्ष्य ।

 

              भारतीय उपमहाद्वीप में क़व्वाली और तकनीकी परिप्रेक्ष्य ।  

                                           डॉ मनीष कुमार मिश्रा

                                         डॉ उषा आलोक दुबे

 

             भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद की जड़ें  इस्लामिक परमानंद प्राप्ति की उस शास्त्रीय परंपरा में है जो अरब और फ़ारस में 09 वीं से 11 वीं सदी के बीच विकसित हुई और धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में आयी । “तरीक़ा” और “तौहीद” के माध्यम से ईश्वर से एकाकार होने की सूफ़ी पद्धति लोकप्रिय हुई । “मकाम” इसका चरम स्थल है । भारतीय उपमहाद्वीप में चिश्तिया परंपरा बड़ी महत्वपूर्ण रही । सूफ़ी संत मोईनुद्दीन चिश्ती जो कि हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़ के नाम से जाने जाते हैं वे अजमेर में सन 1236 के आस-पास आये । इसी परंपरा में काकी, बाबा फ़रीद और निज़ामुद्दीन औलिया जैसे अनेकों सूफ़ी संत हुए जिनसे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ियाना परंपरा को बढ़ावा मिला ।

       सूफ़ीवाद सीखने से अधिक अनुभूति का विषय मानी गयी । “जीकर” और “समा” संगीत के माध्यम से सूफ़ी ईश्वर से एकाकार होने की राह में आगे बढ़ते हैं । “समा” के आयोजन में समय, स्थान और लोग इत्यादि को लेकर नियम रहे हैं । पूरे  भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी कलाओं की संगीतमय प्रस्तुति के रूप में क़व्वाली की पहचान बन गयी । नृत्य का सूफियों के यहाँ कोई बुनियादी स्वरूप नहीं मिलता । “समा” के समय पागलों की तरह नाचना, चिल्लाना इत्यादि आत्मा की छटपटाहट मानी गयी है । ऐसी अवस्था को “हाल” कहते हैं । ऐसी अनुभूतियों के लिए तैयार होने में क़व्वाली सहायक होती है । क़व्वाली की भाषा आत्मा की भाषा मानी जाती रही है । समय के साथ पूरी सूफ़ी परंपरा में बड़े बदलाव हुए । क़व्वाली भी दरगाहों और ख़ानकाहों से निकलकर एक व्यवसाय के रूप में बढ्ने लगी । इन्हीं सब स्थितियों, परिस्थितियों का गंभीर अकादमिक अध्ययन व विवेचना बहुत जरूरी है ।

                   सूफी परंपरा का रास्ता रहस्यात्मक रहा है। सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवम् धार्मिक परिस्थितियों ने सूफी परंपरा को आकार दिया राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं एवम् आंदोलनों ने सूफी परंपरा को वैश्विक विस्तार देने में सहायता की । बहुत से तकनीकी विकास ने भी  सूफी परंपरा के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । 19वी शताब्दी में जब प्रेस का भारत और एशिया में आगमन हुआ तो यह बहुत क्रांतिकारी था । मनचाहे विषयों पर लिखित रूप में अध्ययन सामग्री की सहज उपलबधता बड़ी बात थी। सूफी साहित्य और संगीत को  इससे प्रचारित-प्रसारित होने का  तीव्र रास्ता मिला। इसी तरह ऑडियो रिकार्डिंग की खोज ने सूफी संगीत को अधिक लोकप्रियता दी। चिश्तिया संप्रदाय से जूड़ी  कव्वालीअब रिकार्ड होकर घर-घर तक पहुँचने लगी। पाकिस्तान के मशहूर कव्वाली गायक नुसरत फतेअली खॉ की 100 से अधिक सी.डी. रिकार्ड हुई। सूफी संगीत अन्य प्रकार के संगीत से जुड़कर अपना एक नया रूप प्रस्तुत करने में कामयाब हुआ। इस तरह कव्वाली और सूफी संगीत पूरी दुनिया में लोकप्रिय होने लगा। यह संगीत संलयन का ही प्रभाव रहा कि परंपरागत श्रोताओ के अतिरिक्त पूरे विश्व में सूफी संगीत के दीवाने तैयार हुए। कंप्युटर और इंटरनेट ने इसे और आगे बढाया। आज विश्व में कई ऐसी वेबसाईट हैं जो सूफी संप्रदाय, संगीत इत्यादी की जानकारी प्रदान करने का कार्य कर रही हैं।

              सूफी संगीत  परमानंदको पाने का मार्ग/साधन है। सूफी संगीत के आचार-विचार और इसे सुनने  को लेकर काफी कुछ लिखा गया है।  सूफी संतों की दरगाह पर आज भी लाखों लोग आते हैं   इजिप्ट / मिस्र  में बाकायदे ऐसी दरगाहों, मजारों इत्यादि के व्यवस्थापन के लिए सरकारी ब्युरो बने हुए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ चढ़ावे के रूप में बड़ी रकम आती है। कट्टरपंथियों द्वारा इनका विरोध  लगातार होता रहा है कि लेकिन इनकी लोकप्रियता में कोई कमी नही आयी है। सन 1925 के बाद अरब में ऐसे कट्टरपंथियों ने सूफियों की निशानी को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तुर्की, इंडोनेशिया जैसे देशों में विरोध के बावजूद सूफी परंपरा और विचारधारा को माननेवाले सक्रिय हैं। कई देशों में सूफी विचारधारा कोकट्टर इस्लाम के विपरीत पेश किया जाता है। धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता जैसे मुद्दों कोसूफी समूहोंकी आड़ में प्रस्तुत कर इस्लाम की कट्टरता के विरोध का एक राजनैतिक तरीका।

               कव्वाली की उत्पत्ति कुछ लोग अरबी शब्द  कौल से मानते हैं। जिसका अर्थ है कथन या वचन। यह सूफी संप्रदाय की एक आराधना पद्धति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यह ईश्वर/खुदा से संवाद बनाने का साधन है। कव्वाल गाते हुएहाल की स्थिति में पहुँचते हैं जहाँ वे सामने बैठे बंदों से नहीं सीधे खुदा से संवाद करते हैं। कव्वाली की शुरूआत हम्दसे होती है जो उस परवर दिगार की शान में गायी जाती है। उसके बाद नाता जो पैगंबर हजरत मोहम्मद की शान में होती है। इसके बाद  मर्सिया, गजल, काफी, रंग और मुनाद प्रस्तुत किया जाता है।

             भारत में कव्वाली की शुरूआत 13 वी शती में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) और हजरत अमीर खुसरो से होती है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि आडियो रिकार्डिंग की सुविधा ने कव्वाली को लोकप्रिय करने में महत्त्वपूर्ण  भूमिका निभाई। कल्लन जैसे  कव्वालों के रिकार्ड 1920-25 के आस-पास निकलने शुरू हुए । वाद्य यंत्रों में शुरुआती दिनों में हारमोनियम की जगह सारंगी इस्तमाल होती थी। 1940 के बाद जो कव्वाल आये उनमें जानी बाबू कव्वाल, इस्माइल आजाद कव्वाल, युसूफ आजाद कव्वाल इत्यादि हैं। इस क्षेत्र में मर्दो के एकाधिकार को भोपाल की शकीला बानो भोपाली ने तोड़ा ।

          धीरे-धीरे कव्वाली के स्वरूप में परिवर्तन आता गया। लोकप्रिय/पॉपुलर कव्वाली और इसी का एक रूप मुकाबला--कव्वाली अधिक लोकप्रिय होने लगी। फिल्मों में क़व्वाली भरपूर इस्तमाल हुई। हिंदी फिल्मों के संदर्भ में देखें तोमुगल--आजम, ताजमहल, ‘धर्मा, ‘पुतलीबाई, ‘बरसात की रात, ‘कव्वाली की रात, ‘अमर-अकबर-एँथोनी जैसी अनेकों हिंदी फिल्मों में कव्वाली का उपयोग किया गया। फिल्मों में आकर कव्वालीटेक्नोकव्वाली हो गई। यहॉ कव्वाली को लोकप्रिय बनाने के लिए हरतरह के वाद्ययंत्र को उपयोग में लाया गया। इन्हें किसी से परहेज नहीं था।

           कव्वाली के संदर्भ में सीधे तौर पर लिखी हुई जानकारी नहीं मिलती। इस संदर्भ में जो थोड़ी जानकारी उपलब्ध होती है वह तजकिरा और मल्फुजत के माध्यम से होती है। तजकिरा में सूफियों के जीवन, कायों, चमत्कारों इत्यादि का जिक्र होता है तो मुल्फुजत में सूफीयों के संवादों को प्रस्तुत किया जाता है।  समाके जिक्र हिंदू-मुस्लिम साहित्य में मिल जाता है,इस्लाम में इसकी स्वीकृति-अस्वीकृति के संबंध में। दक्षिण एशिया में सूफी परंपरा का बड़ा श्रेय मोईन्नूदीन हसन चिश्ती का ही माना जाता है। 20 वी शताब्दी के अंत तक इस रहस्यात्मक अनुभूति पर लिखे जाने का एक कारण इसकी आध्यात्मिक शुद्धता, पवित्रता इत्यादि को बनाये रखना भी हो सकता है। चुंकि यह अल्लाह के इबादत का महत्त्वपूर्ण तरीका था अतः इसे जनसामान्य में प्रचालित करने की जरूरत महसूस नहीं की गई होगी। इसलिए यह परंपरा आभिजात्य मुस्लिमों के लिए रही ना कि जन सामान्य के लिए।

           शेख निजाम्मूद्दिन औलिया के जीवन और समय को लेकर भारतीय इतिहासकार खालिक अहमद निजामी का कार्य बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। उनका प्रकाशित  मोनोग्राफ इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। लेकिन उन्होंने संगीत के पक्ष को लेकर अधिक लिखा है। कव्वाली संगीत एवम् उसकी प्रस्तुति को लेकर उन्होंने विस्तार से चर्चा की है। अल्ला केकौलसे चलते हुए  पॉपुलरकव्वाली तक की कव्वाली की  यात्रा मुख्य रूप से दो भागों में बटी हुई है।

 1) अभिजात्य मुस्लिमों के लिए निर्धारित और नियंत्रित क़व्वाली ।

 2) आम जन मानस के बीच लोकप्रिय बंधनमुक्त कव्वाली।

कव्वाली की शैली में यह बदलाव बड़े व्यापक रूप में हुआ है। निश्चित तौर पर इसमें तकनीकी विकास का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। सन 1944 मेंनाईट बर्डनामक फिल्म के गानेहसीनों के लिए में कव्वाली का पहला फ़्यूजन रूप दिखायी पड़ा।

             महफिले--समा पवित्र स्थलों पर पूरे अदब, एहतराम और लिहाज के साथ प्रस्तुत की जाती थी। क्लबों, फिल्मों और ऐसे ही अन्य मनोरंजन के स्थलों पर प्रस्तुत की जानेवाली कव्वाली को  समाकहा जाता है। तकनीक के विकास और व्यावसायिकता के दबाव में कव्वाली का व्यावसायीकरण बहुत तेजी से हुआ।महफिल--समामें औरतों का निषेध था लेकिन व्यावसायिक प्रस्तुतियों में औरतों ने सूफियाना कलाम गायकी में अपना नाम कमाया। पाकिस्तानी गायिका आबिदा परवीन कुछ ऐसी ही मशहूर गायिकाओं में से एक  हैं। यह सच है कि चिश्तिया संप्रदाय की परंपरा में उनके खानकाहों में जो महफिल--सान होती थी उसमें कव्वाल पुरुष ही होते थे । इसी शाखा से जुड़े अमीर खुसरो ने अरबी, फारसी शैलियों को मिलाकर हिंदी / खड़ी बोली हिंदी में कव्वाली की परंपरा को आगे बढ़ाया।

             इसी चिश्तिया शाखा से जुड़े ताजूद्दीन चिश्ती, नूर मोहम्मद महरवी, मोहम्मद सुलेमान तौनसवी और ख्वाजा गुलाम फरीद आज के पाकिस्तान में सूफियाना विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए जाने गये। विशेष रूप से पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रांत में कव्वाली गायकों/संगीतकारों की अच्छी संख्या  रही। इन्हें  हमनवा कहा जाता था। सूफी संगीत का साक्षात अनुभव धिकर कहलाता जो अपने सुननेवालों को  फना का आध्यात्मिक अनुभव करता था। एक अदब के तहत ये आयोजन होते थे। ऐसे आयोजनों में ताली इत्यादी बजाना प्रतिबंधित था, इसकी मनाई होती। शर्रिया कानून (शरत) के तहत वैसे भी औरतों का पुरुषों की उपस्थिति में गाना इस्लाम में प्रतिबंधित माना गया है। औरतों की उपस्थिति में पुरुषों के अपनेपथ से भटकने का भी अंदेशा रहता होगा। इसलिए भी शायद खानकाहों में औरतों का प्रवेश वर्जित रखा गया

              कव्वाली की प्रस्तुति के समय कव्वाल चमकदार कपड़े पहनते हैं। जैसे-जैस इसका व्यावसायिक रूप बढा, कई वाद्य यंत्रों का प्रयोग भी इसमें होने लगा। दक्षिण एशिया में कव्वाली के व्यावसायिक एवं आधुनिक स्वरूप को लोकप्रिय बनाने वाले लोगों में नुसरत फतेअली खान का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने कई पश्चिमी गायकों को अपनी शैली से प्रभावित किया । हिंदी फ़िल्मों के लिए भी आप ने कई गाने गाये। मुकाबला कव्वाली 40 के दशक से हिंदी फिल्मों में लोकप्रिय रहा है। हिंदी फिल्मों की कव्वाली में किसी महिला के सहभागी होने का पहला मामला सन 1945 में आया। फिल्मजीनत में दिखायी पड़ता है। इस फिल्म का लोकप्रिय गीत रहा ---- ‘‘आहें ना भरे, शिकवे ना किये।इसके बाद सन 1960 मेंबरसात की रातफिल्म में औरतों का समूह कव्वाली गाते हुए दिखायी पड़ता है । इसी तरह फिल्म निकाह जो कि सन 1982 आयी। फिल्म बर्निंग ट्रेन में भी औरतों द्वारा कव्वाली प्रस्तुत की गई। सन 1960 में ही आयी मुगल--आजम में भी औरतों द्वारा कव्वाली प्रस्तुत हुई।

        सोशल मीडिया ने भी कव्वाली के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ी भूमिका निभाई वो भी बिना किसी लैंगिक भेदभाव के भारत की बात करें तो यहाँ 300 मिलियन (30 करोड़) से भी जादा स्मार्ट फोन इस्तमाल में लाये जा रहे हैं। इंटरनेट के इस्तमाल में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है। यूट्यूब चैनल के माध्यम से लोग अपना पसंदीदा संगीत या कि पूरी फिल्म इत्यादि बनाकर उसे दुनिया भर के लोगों के बीच आसानी से पहुँचा रहे हैं। जहाँ तक सूफियाना कव्वाली की बात है तो ऐसे कई गायक हैं जिन्होंने इंटरनेट पर अपना गीत  अपलोडकरके लोकप्रियता कमाई। बहुत से प्रॉडक्शन हाऊस भी इसी सोशल मीडिया पर चल रहे हैं।

          नुसरत का जन्म एक पाकिस्तानी संगीतकार परिवार में हुआ। उन्हें तबला वादन की शिक्षा मिली। खयाल औरध्रुपदगायकी के साथ उन्होंने कव्वाली भी सीखी यद्यापि वे किसी खानकाह से जुड़े नहीं थे। सन 1971 में उन्होंने अपना कव्वाली टोली/समूह तैयार किया। उनकी लोकप्रियता भी धीरे-धीरे काफी बढ़ गई थी। पीटर गॅब्रीयल के साथ मिलकर उन्होंने अपना पहला कव्वाली फ्युजन अलबम सन 1990 मेंमस्त मस्तनाम से लाया। इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों के साथ उनके आवाज के संश्र्लेषण ने पूरी दुनिया को उनका दीवाना कर दिया। सन 1997 में अपनी मृत्य तक वे इस फ्युजन कव्वाली के साथ प्रयोग करते रहे। कई कव्वाल जो परंपरागत रूप से खानकाहों की कव्वाली से जुड़े थे वे भी नुसरत की तारीफ करते थे लेकिन वे यह बताना नहीं भूलते थे कि नुसरत कव्वाल नहीं, कव्वाली गायक थे। अर्थात खानकाहों के / से जुड़े परिवारों से वे  नहीं थे। दिल्ली में हर साल आयोजित होनेवाला जश्न--खुसरोकार्यक्रम कव्वाली के व्यावसायिक कामयाबी का एक उदाहरण है। यह आयोजनआगा खान ट्रस्ट ऑफ कल्चरद्वारा होता है। सूफियाना कलाम से सजा यह आयोजन निजामुद्दीन खानकाह की जद में होता है। इसके लिए मँहगे टिकट बेचे जाते हैं। इसमें अब कई तरह के वाद्ययत्रों का उपयोग होने लगा है जो परंपरागत खानकाही कव्वाली से मेल नहीं खाता। आगा खान ट्रस्ट  यह कार्यक्रम फोर्ड फाऊंडेशन और इंडिया इंटरनॅशनल सेंटर के साथ मिलकर करता रहा है।

            वर्तमान में निजामुद्दीन की खानकाह के अधिकांश कव्वाल सिकंदरा घरानेसे ताल्लुक रखते हैं। जो कि बुलंदशहर  में आता है। मोहम्मद इमाद खान ऐसे ही कव्वाल हैं जो खानकाह से परंपरागत रूप से जुड़े हुए हैं। उनकी कव्वाली टीम मिराज कव्वाली के नाम से जानी जाती है। इस तरह के व्यावसायिक कव्वालें के समक्ष जो दर्शक या संगीत प्रेमी होते हैं वे सभी धर्मों से आते हैं। ऐसे में उनके अनुकूल होकर कव्वाली प्रस्तुत करना महत्त्वपूर्ण होता है। सूफी परंपरा से जुड़े व्यावसायिक कव्वालियों को करने वाले इसमे किसी तरह की बुराई नहीं मानते। उनके अनुसार हम सभी एक ही  ईश्वर की संतान हैं। सब को उसका संदेश मिले, कृपा मिले, इसमें किसी को भी कोई ऐतराज कैसे हो सकता है?

              वाद्ययंत्रों को लेकर एक बड़ा परिवर्तन मुगल काल में हुआ। खास तौर परअकबरऔरजहाँगीरके समय में। कुंजी पटल वाले वाद्यंत्रभारत के संगीत कार्यक्रमों में इन्हीं के समय आया। हारमोनियम एक ऐसा ही वाद्ययंत्र था। सारंगी और सितारा पहले से ही कव्वाल उपयोग में लाते रहे हैं। लेकिन ब्रिटिश शासन में इसमें काफी परिवर्तन हुआ। सूफियाना शास्त्री गायकी की लोकप्रियता ने कव्वाली को नई पहचान दी। इस्लाम के प्रचार-प्रसार में भी इसका महत्त्वूपर्ण योगदान रहा। हिंदुस्तान में दरगाहों और खानकाहों की जगह  जैसे-जैसे बढ़ती गई वैसे-वैसे सूफी गायकी भी मशहूर होती रही। खानकाहो से जुड़े अधिकांश कव्वाल शास्त्रीय गायकी में शिक्षित होते थे। कव्वाल बुनियादी तौर पर संगीतकार होते थे। वे कव्वाली के गीत या बोल को नहीं लिखते थे। सूफी संत ये बोल / गीत लिख करके देते थे ।

          ऐसी मान्यता है कि कव्वाली की शुरूआत  पीर निजामुद्दीन औलिया के मार्गदर्शन में अमीर खुसरो ने शुरू किया। लेकिन इसके बीज मोईन्नूद्दीन चिश्ती ने भारत की धरती में बोये ।  बगदाद से अजमेर आनेपर हिंदुओं केभजन-कीर्तन की तर्ज  पर समा की परंपरा का रूप धीरे-धीरे कव्वाली के रूप में बदला। इसे निखारने का काम निश्चित तौर पर अमीर खुसरो ने किया। अमीर खुसरो द्वारा सिखाये गये गायको और संगीतकारों के माध्यम सेकव्वाल बच्चेघराना शुरू हुआ। ये सभी निजामुद्दीन के खानकाह से जुड़े हुए थे। ये कव्वाल फारसी, हिंदवी, उर्दू, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली हिंदी इत्यादी भाषाओं में कव्वाली प्रस्तुत करते थे । धीरे-धीरे इसका भी विस्तार हुआ और कई भारतीय भाषाओं में कव्वाली गाने का जिक्र मिलने लगा। यह सिलसिला कव्वाल गायकों के व्यावसायिक कार्यक्रमों की वजह से और बढ़ा।

         कव्वाली में प्रायः एक या दो मुख्य गायक होते हैं। जिनके पास हारमोनियम होता है। कोरस से लिए पाँच- साथी कलाकार होते हैं। ढोलक का इस्तमाल ये करते हैं।  हमीदुद्दीन वो पहले सूफी संगीतकार थे के जिन्हें इलतुतनिष की कोर्ट में गाने का अवसर मिला था। हमीदुद्दीन दिल्ली में काजी भी थे। सुलतान अलाउद्दीन खिलजी खुद बहुत बड़े संगीत प्रेमी थे। इनके दरबार में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही तरह के विद्वान मौजूद थे। अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को अपने विषय में महारत थी। खुसरो को खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि माना जाता है। उन्हें कव्वाली का भी जनक कहा जाता है। तबला और सितार की खोज का श्रेय भी खुसरो और नायक गोपाल को ही है। इन्होंने अरबी, फारसी और भारतीय संगीत में संलयन / संश्र्लेषण से कई नई राग रागिनियों को जन्म दिया, जो आम जनता और दरबारों में लोकप्रिय हुई । राग यमन, हुसैनी, दरबारी इत्यादी कुछ ऐसी ही गायकी की नई पद्धतियाँ थी। आगे चलकर यह सिलसिला अकबर के दरबार में भी कायम रहा

         

          समा के आयोजन में समय, स्थान, लोग इत्यादि को लेकर भी नियम रहे हैं। जैसे कि नमाज के समयसमा नहीं होनी चाहिये। इसे सड़क या ऐसी जगह नहीं करना चाहिये जहाँ लगातार आना जान होता हो या वह जगह जो अपवित्र मानी जाती है। इसे ऐसे व्यक्ति के घर भी नहीं करना चाहिए जो क्रोधी, व्यभिचारी इत्यादि हो। इसे ऐसे लोगों के ही बीच करना चाहिये जो दानिशमंद हो । समा में आये लोगों को शांति और सलीके से बैठना चाहिये। आपस में बात-चीत नहीं करनी चाहिये।वाह-वाह या ताली पीटने जैसी बातों से भी उन्हे बचना चाहिये। अर्थात एक शिष्टाचार के तहत उन्हेंसमा में आना चाहिए।

           कव्वाली की प्रस्तुतीकरण को  लेकर भी कुछ नियम माने गये हैं। जैसे से कि - कव्वाली के बोल स्पष्ट रूप से उच्चारित हों एवम्  श्रोताओं  तक सुनायी पड़ने चाहियें। वाद्ययंत्रो की आवाज ठीक तरीके से निकलनी चाहिये। कव्वाली की आवाज तेज और भारी होनी चाहिये। मधुर, पतली या बहुत सुरीली आवाज की यहाँ उतनी अहमियत नहीं मानी जाती। कव्वाली प्रस्तुत करनेवाले लोगों के बीच बेहतर ताल-मेल होना चाहिए।बारंबारताका यहाँ महत्त्व है इसलिए ऐसे गीतों का चुनाव होना चाहिए जो इस तरह के हों ।ठेका, ‘वजन, ‘बंदिश, ‘तर्ज, ‘सुरइत्यादि का ध्यान रखना चाहिए। समाकला नहीं अपितु ईश्वर को याद करने की पद्धति ही है। सूफी अपना संदेशप्रेमके माध्यम से देते है।समा में सूफियों की कुछ खास पद्धतियाँ भी थीं । जैसे कि हल्क  - इसमें सूफी रोते  हुऐ नाचते  हैं एवम् पागलों की तरह चिल्लाते  हैं।

       अकेले भारत में उन्नीसवीं सदी के मध्य तक 112 स्थानीय प्रेस थे जो फारसी और उर्दू में प्रकाशन से जुड़े थे। ये धर्म, कविता और कानून से संबंधित सामग्री छापते थे । इसी तरह ईरान और मिश्र  के कई छापाखानों से सूफी संदेशो, कालाओं इत्यादि की छपायी के प्रमाण मिलते हैं। इसकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी रहा होगा कि प्राच्यवादी विचारकों नेसूफीयत को इस्लाम से अलग करके इसपर लिखना शुरू किया। दूसरी तरफ सुधारवादी एवम् कट्टरपंथी विद्वान अपने तरीके से इसपर लगातार लिख रहे थे। इसतरह अरबी, फारसी, अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी में सूफी विचारों पर लेखन की परिपाटी बनी। अनुवाद के माध्यम से इसतरह के लेखन कार्य अन्य भाषाओं में भी संभव हो सका। खुद कई सुफी इस प्रकाशन व्यवसाय की महत्ता को देखते हुए इससे जुड़े।  भारत में ऐसे सूफियों में हसन निजामी का नाम आता है। जो कि खुद एक बड़े लेखक रहे और 1908 से उर्दू में प्रकाशन कार्य से जुडे।अनवर अल कुद्स जैसी सूफी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। यह पत्रिका मुंबई से ही अक्टूबर 1925 से फरवरी 1927 तक प्रकाशित हुई  

          इस तरह तमाम जन माध्यमों ने सूफियों को भी यह मौका दिया कि वे अपनी परंपरा को विस्तार से पूरी दुनियाँ के बीच रख सकें। साथ ही साथ कट्टरपंथियों या आधुनिकतावादियों द्वारा जो आरोप उनपर लगाये जाते, उनका वो भी व्यापक स्तर पर जबाब दे पाये। सूफी संगीत रिकार्डिंग के माध्यम से पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ जिससे इसे जुड़े कलाकारों को आजीविका के नये साधन मिले तो नई चुनौतिया भी। कलाकारों को एक तरफ अधिक कार्यक्रम करने, रिकार्डिंग करने, सूफी संगीत सिखाने, इत्यादि के अधिक अवसर उपलब्ध हुए तो नये कलाकारों के साथ व्यापक व्यावसायिक चुनौती भी मिलने लगी। नये परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए उनमें जो कलाकार तालमेल बैठाने में सफल हुए उन्होंने व्यावसायिक सफलता के नये मकाम हासिल किये। लेकिन जो कलाकार पुरानी पद्धतियों और शैलियों में परिवर्तन के खिलाफ रहे वे व्यावसायिक स्तर पर सफल नहीं हो पाये। फिर सिर्फ अच्छे घरानों से जुड़े होने  से भी काम नहीं चलता, उन्हें अपनी गायकी और शैली को निखारने की निरंतर आवश्यकता थी। जिनके अंदर यह फन नहीं था उन्हें उनकी परंपरागतखानकाहों या सिलसिले में भी सिर्फ विशेष परंपरा के निर्वहन की औपचारिकता मात्र के लिए गाने का अवसर दिया जाने लगा। अन्य कार्यक्रमों से अलग कर दिये जाने की साफ चेतावनी मिलने लगी।

             एक दूसरी चुनौती तकनीक खुद बन गई। रिकार्डिंग के कारण छोटे-मोट कलाकारों को जो अवसर मिलते थे वे कम होने लगे। क्योंकिकव्वाल पार्टीको बुलाकर कव्वाली कार्यक्रम कराना लोगों को खर्चीला लगने लगा। जब कि अच्छे से अच्छे कव्वालों की कैसेट।/सीडी बाजार में उपलब्ध होती जो एक तरफ बजता रहता और लोग जलसे का आनंद लेते रहते। इससे कव्वाल पार्टियों विशेष तौर पर छोटे स्तर के कलाकारों का नुकसान हुआ। इसतरह तकनीक ने जहाँ उनकी सहायता की वहीं उनके लिए चुनौती भी खड़ी की। ऐसा नहीं था किप्रिंटको सूफीयों ने एकदम से एकस्वर में स्वीकार कर लिया हो। कई सूफियों ने इसका विरोध भी किया। उन्होंने तर्क दिया कि मौखिक परंपरा में गुरू सही उच्चारण इत्यादि के साथ सीखनेवालों को सिखाता है। उनपर ध्यान रखता है। उनकी गलतियों पर उन्हे टोकता है। लेकिन छपी हुई पुस्तक यह सब नहीं कर सकती। परिणाम स्वरूप वह गलत शिक्षा और विचार का प्रचार-प्रसार करेगी। चिश्तीयों में भी कई लोगों द्वारा इसके विरोध के संदर्भ मिलते हैं। पंजाब से संबंधित चिश्ती गुरू / पीर हैदर अली शाह (मृत्यु 1908) ऐसे ही सूफियों में से थे।

            समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ी मत के प्रचार – प्रसार में इनके सिद्धांतों के अतिरिक्त क़व्वाली जैसी गायन शैली का भी महत्वपूर्ण योगदान है । इसके प्रचार प्रसार में पहले दरगाहों और ख़ानकाहों की बढ़ती संख्या बाद में छपाई और रिकार्डिंग की तकनीकी व्यवस्थाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । हिन्दी सिनेमा के साथ साथ पश्चिमी संगीत और वाद्ययंत्रों के संलयन से इसकी वैश्विक लोकप्रियता आसमान पर पहुँच गई । बहुत सारी वैचारिक जडताओं से भी क़व्वाली अपनी व्यावसायिक संलग्नता के कारण ही अलग हो पायी ।

 

                              डॉ मनीष कुमार मिश्रा

                              सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग

                              के एम अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण

                              महाराष्ट्र ।

 

                              डॉ उषा आलोक दुबे

सहायक आचार्य – हिन्दी विभाग

                              एम डी कालेज,परेल – मुंबई

                              महाराष्ट्र ।

 

    संदर्भ ग्रंथ सूची :

        1. SUFI Winter Issue Binnual Journal – Sufism: History, politics and culture: A   Conversation with CARL ERNST, Interviewd by ILewellyn Smith, winter 2014.

2. बाम्बे टॉकी - राजकुमार केसवानी। वाणी प्रकाषन, नई दिल्ली संस्करण - 2011.

3- Rethinking Qawwali: Perspectives of Sufism, Music, and Devotion in North India – by – Christopher Paul Holland B.A.- The University of Texas at Austin, May 2010.

4- The Sufi Music of India and Pakistan: Sound Context and Meaning in Qawwali – Regula Qureshi.

5- Genedered Sufi Music: Mapping Female Voices in Qawwali Pervormance from bollywood to youtube channels. & Benson Rajan, September 12, 2018. www.maifeminism.com

6- The Sufi order in Islam – Trimingham J.S., Oxford. 1971.

7- The History of Sufism in India, Vol. I, 1978 – SAA Razvi.

8- The Delhi Sultanate – 1999 by V. D. Mahajan.

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10- A Multimodal Analysis of Qawwali : From Ecstasy to Exotic Trance – Iram Amjad, University of Management and Technology, Lahore, Pakistan, Linguistics & Literature Review (LLR) ISSN : 2409 – 109x online Vol. 3 issue I, March 2017.

11- दास्तान मुगल बादशाहों की - - हेरम्ब चतुवेंदी। लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019.

12- हुमायूँ नामा - गुलबदन बेगम अनुवादक - फजल शाह फजल। रामपुर रजा लाइब्रेरी, रामपुर, 2015

13-. मध्यकालीन भारत के मुसलमान शासकों की धार्मिक उदारता प्रथम भाग 1 - संग्रहकर्ता -सैय्यद सबाहउद्दीन अब्दुर्रहमा। संपादक - डॉ. डब्लू. एच. सिद्दीकी तथा डॉ. अबू साद - इस्लाही। रामपुर रजा लाइब्रेरी, रामपुर। वर्ष 2008.

14- वही। भाग दो

15- वही। भागतीन

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