Monday 10 August 2020

टिटिहरी की काँद

 1. टिटिहरी की काँद


बाँसों में मरमराती 

हवा के साथ

टिटिहरी की काँद

कानों में पड़ रही थी

उस गहराती हुई रात में हवा 

पानी को हिलोरती रही 

मन - मिट्टी को 

भिगोती रही ।


सुबह अनमनी सी 

धूप तो निकली 

पर खिली नहीं 

बल्कि बादलों से

संवरा गई 

उसका श्यामल सौंदर्य

आलस का अनुष्ठान रचे था ।


उछार के बाद

अघायी धरा का

प्रीतिस्निग्ध चटक रंग

सतरंगी था 

शकुंतिका मुंडेर पर थी 

मोर मंदिर के कलश पर 

और मन

दूर किसी प्याजी रंग की आंखों में

कैद ।


       डॉ मनीष कुमार मिश्रा ।

Sunday 9 August 2020

हिन्दी : पक्ष – प्रतिपक्ष

 

हिन्दी : पक्ष – प्रतिपक्ष

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक , हिन्दी विभाग

के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण – पश्चिम , महाराष्ट्र

manishmuntazir@gmail.com

8090100900 / 9082556682

 

          हिंदी के पक्ष में जिस भावुकता के साथ तर्क रखे जाते हैं उन्होंने हिंदी का कोई भला नहीं किया अपितु नुकसान ही अधिक हुआ । हिंदी की पक्षधरता में ही व्यापक दोष रहा है । आजादी के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के निर्धारण के बाद भी अगर कोई देशज / क्षेत्रीय भाषाओं के वर्चस्व को नहीं समझ पा रहा है तो निश्चित ही यह विचार उसे निष्पक्षता से आकलन नहीं करने देगा । इस देश की संरचना ही बहुवचनात्मक है । इस संरचना के बीच अगर किसी एक भाषा को व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता दिलानी है तो वह इन तमाम भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय और आदान - प्रदान की व्यापक श्रृंखला के माध्यम से ही हो सकता है । क्योंकि जिस भाषा को भी आप "राष्ट्र भाषा" का ताज देना चाहते हैं, उस भाषा का प्राण तत्व इन्हीं भारतीय भाषाओं में निहित होना चाहिए । अगर ऐसा नहीं हुआ तो विरोध,संघर्ष और अस्मिता मूलक विचारधाराओं के बोझ के नीचे "राष्ट्र भाषा" का सपना टूट या बिखर जायेगा । शायद आज तक यही हुआ भी । बावजूद इसके कि आप के पास वो सारे आंकड़े हैं जो ये बताते हैं कि हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है, यह विश्व के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है इत्यादि ।

          इन आकड़ों की बाजीगरी के साथ हिंदी की श्रेष्ठता को लेकर चर्चा करते हुए हम फ़िर एक बहुत बड़ी गलती करते हैं । हिंदी के श्रेष्ठ या अधिक व्यापक हो जाने से अन्य भारतीय भाषाओं का महत्व कम नहीं हो जाता, इस बात को हम भूल जाते हैं । लेकिन अपरोक्ष रूप से हम उन्हें कमतर आंकने लगते हैं और फ़िर तुलना की नई बहस शुरू हो जाती है । तमिल जैसी प्राचीन और समृद्ध भाषा को अपनी तुलना ही करवानी होगी तो वह संस्कृति से एक बार करवा भी ले, हिंदी से क्यों करवाए ? ऐसी ही तमाम बातें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी हैं ।

         ख़ुद हिंदी पट्टी में हिंदी की सहायक कई भाषाओं ने इधर अपने तेवर कड़े कर लिए तो हम यह तर्क देने लगे कि बोलियां भाषा होने का स्वप्न देख रही हैं । अब ऐसी बातों से संघर्ष की स्थिति बन गई । भोजपुरी, राजस्थानी इत्यादि इसका उदाहरण है । फ़िर हमारा तर्क भी कितना अपमानजनक है । जिन्हें आप सिर्फ़ बोली समझने या मानने की भूल कर रहे हैं उनकी व्याप्ति विश्व की कई भाषाओं से बड़ी है । इसलिए हमें ऐसे तर्कों से बचना चाहिए । भोजपुरी को लेकर तो स्वर अधिक ही मुखर है ।

          दूसरी गलती हम यह करते हैं कि अंग्रेजी को अपना दुश्मन सिद्ध करने में लग जाते हैं जबकि उसी अंग्रेजी को भारतीय संविधान ने 343(1) के तहत आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया हुआ है । अंडमान, अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, गोवा, मेघालय, मिज़ोरम और नागालैंड जैसे प्रदेशों की अंग्रेजी एकमात्र आधिकारिक भाषा है ।1 सह आधिकारिक भाषा तो कई राज्यों की है । हमारा संविधान इसी अंग्रेजी भाषा में लिखा गया । उच्च शिक्षा और शोध के तमाम कार्य अंग्रेजी में हो रहे हैं । सच कहूँ तो भारत के पिछले 700-800 वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो सबसे अधिक “व्याप्ति, रोज़गार और पसंद” की भाषा के रूप में अंग्रेजी का कोई मुक़ाबला ही नहीं है ।  लगभग 600 वर्षों तक राज़ करने वाली फ़ारसी भी नहीं ।

          डॉ. रामविलास शर्मा जी लिखते हैं कि,’’इस दास्ता में भी हमने अंग्रेजी को क्यों नहीं अपनाया ? इसलिए कि हमारी भाषा हमारी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक है ।’’2 रामविलास जी बड़े आलोचक हैं,लेकिन क्या वे नहीं जानते कि हमने अंग्रेजी को बड़ी शिद्दत के साथ अपनाया ? रोज़गार एवं उच्च शिक्षा की भाषा के रूप में अपनाया । विश्व के ज्ञान से जोडनेवाली एक व्यापक भाषा के रूप में अपनाया । इसी अंग्रेजी भाषा में उच्च शिक्षा ग्रहण करने बाद भारत लौटे डॉ. आंबेडकर और महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा दी । अंग्रेजी सीखने वाले कैसे राष्ट्रनिष्ठ नहीं थे यह समझ में नहीं आता । जहां तक प्रश्न राष्ट्रीय चेतना का है तो इस संदर्भ में 1951 में गठित राधाकृष्णन समिति की रिपोर्ट में साफ़ लिखा गया है कि,”यह सत्य है कि अंग्रेजी भाषा देश की एकता के उत्थान में एक महत्वपूर्ण तथ्य रही है । दरअसल, राष्ट्रीयता की संकल्पना तथा राष्ट्रीयता की भावना मुख्य रूप से भारत में अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य के उपहार हैं ।’’3

 

         भारत में आज़ादी के बाद भाषा के रूप में अंग्रेजी का व्यापक प्रसार हुआ । यह आधुनिक ज्ञान – विज्ञान, तकनीक, शोध और उच्च शिक्षा की प्रमुख भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुई । भारतीय भाषाओं के बीच आपसी वर्चस्व और विरोध की क्षेत्रीय राजनीति ने अंग्रेजी की राह को अधिक सुगम बनाया । “रोज़गार के अवसर वाली भाषा” के रूप में अंग्रेजी के मुक़ाबले कोई भाषा खड़ी ही नहीं हो पाई । इस तरह हिन्दी समेत तमाम भारतीय भाषाओं का जो नुकसान हुआ उसके लिए हमारी वैचारिक संकीर्णता और राजनीतिक अकर्मण्यता ही जिम्मेदार है न कि अंग्रेजी ।

 

         संपर्क भाषा के रूप में हिंदी भी लगातार विकसित हुई । हिंदी पट्टी में तो इसका विस्तार सबसे अधिक है । देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी हिंदी है । किंतु हिंदी इस देश में “अवसर और प्रभाव” की भाषा उस तरह नहीं बन सकी जैसे अंग्रेजी बनी । इस देश के राजनेताओं और हिंदी सेवा के नाम पर मलाई काट रहे मठाधीसों ने हिंदी के नाम पर सिर्फ भावनाएं भड़काईं तथा खाये, पीये और अघाये साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे रहे । आज़ भी वे यही कर रहे हैं । अपनी अकर्मण्यता छिपाने के लिये वो सारा ठीकरा अंग्रेजी पर फोड़ देते हैं । अंग्रेजी को चार गलियाँ देते हुए हिंदी को लेकर बड़ी-बड़ी भावुकतापूर्ण बात करना मानों हिंदी दिवस का राष्ट्रीय फ़ैशन हो गया है । आप तर्क और तथ्यों के साथ इनकी कलई खोलो तो आप देशद्रोही तक बना दिये जाओगे । राष्ट्र भक्ति / राष्ट्र द्रोही  का प्रमाण पत्र तो जैसे ये अपनी जेब में लेकर टहलते हैं । केंद्र सरकार द्वारा संचालित देश भर के केंद्रीय विद्यालयों में हिंदी और सामाजिक अध्ययन को छोडकर बाक़ी सभी विषय अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाये जाते हैं ।4

 

                    बीसवीं शती की शुरुआत तक अनुमानतः इस देश में एक करोड़ के आस-पास की आबादी अंग्रेजी में शिक्षित थी । इसका कारण यह था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार और प्रशासन का जो ढाँचा विकसित किया वह इस देश के लिए एकदम नया और संभावनाओं से  भरा हुआ था । अनुवादक, द्विभाषिये, मुंशी, डाक़कर्मी, सिपाही, वकील, शिक्षक, क्लर्क, रेल कर्मचारी, कारखानों के मज़दूर, प्रेस के कारीगर, फोटोग्राफी, सिनेमा, संपादक, लेखक, वितरक, दलाल, बैंक कर्मचारी, चिकित्सक इत्यादि को लेकर एक सुनियोजित संगठनात्मक ढाँचा जो अंग्रेज़ खड़ा कर रहे थे उसमें भारतीय युवाओं को अपना भविष्य नज़र आ रहा था । वो इन अवसरों का लाभ उठाते हुए अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करना चाहते थे । इसलिए उन्होने अंग्रेजी भाषा में रुचि दिखाई और उसे अपनाया । अंग्रेजी को अपनाने के पीछे उनके अंदर कोई राष्ट्रद्रोह की भावना काम नहीं कर रही थी ।

 

                    जहाँ तक अंग्रेजी को भारतीयों पर धोपने का आरोप है इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूँगा कि 26 जनवरी 1835 को अंग्रेजों ने यह नीति स्पष्ट कर दी कि तकनीकी और चिकित्सा क्षेत्र की शिक्षा सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेजी में ही दी जायेगी । इस नीति के पीछे  एक महत्वपूर्ण कारक राजाराम मोहनराय जैसे विचारकों की अंग्रेजी शिक्षा के हक में मांग भी थी । लेकिन ये वही अंग्रेज़ ही थे जो 1835 के पहले स्थानीय भाषाओं में ऐसी शिक्षा के हिमायती थे और उसे प्रोत्साहन भी दे रहे थे । 1783 के आस-पास उन्होने उच्च न्यायालय से फ़ारसी को हटाकर वह जगह अंग्रेजी को दे दी । यह काम उन्होने / ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में आते ही नहीं किया अपितु यह करने के लिए उन्होने लगभग दो शताब्दियों का इंतजार किया ।

 

                 इन दो शताब्दियों में उन्होने आधुनिक भारतीय भाषाओं को अपने प्रक्षेत्रों में प्रोत्साहित किया । जैसे-जैसे उनके व्यापार/शासन का क्षेत्र बढ़ता गया उन्होने हिंदुस्तानी और अंग्रेजी को अधिक प्रोत्साहित किया । यह प्रोत्साहन उन्होने भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान या प्रेम में नहीं अपितु अपनी प्रशासनिक एवं व्यावसायिक मजबूरियों के नाते दिया । ठीक वैसे ही जैसे भारतीय अवसरों की तलाश में अंग्रेजी को अपना रहे थे । यह पूरा मामला आर्थिक समृद्धि और शक्ति का था जिसमें भाषा एक साधन मात्र थी । अंग्रेजों को जब यह लगने लगा कि शासन- प्रशासन के कार्यों को अब अंग्रेजी के ही बूते चलाया जा सकता है तो उन्होने उस दिशा में कदम उठाये । वैसे भी 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार खत्म करते हुए भारत की बागडोर सीधे अपने हांथ में ले चुकी थी ।

 

           अंग्रेज़ अब सीधे-सीधे शासक बन गये थे । फ़िर अंग्रेजी का भारत में कोई व्यापक विरोध भी नहीं था अपितु भारतीयों द्वारा समर्थन के स्वर अधिक मुखर थे । विष्णू शास्त्री चिपलूंकर जैसे विद्वानों ने अंग्रेजी को “शेरनी का दूध” कहकर संबोधित किया ।  अनुमानतः 1882 तक देश के 60% विद्यालयों में किसी न किसी रूप में अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही थी । इन तमाम बातों के परिप्रेक्ष्य में यह अधिक तर्क संगत लगता है कि भाषा के रूप में अंग्रेजी को अंग्रेजों ने अपनी व्यवस्थित नीतियों द्वारा इतना संभावनापूर्ण बनाया कि इसके समर्थन में एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग खड़ा हो गया । विरोध का स्वर उस तुलना में क्षीण था । अतः व्यापारी और शासक के रूप में उनके हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँच रहा था । ऐसे अवसर का एक चतुर शासक के रूप में निश्चित तौर पर उन्होने लाभ उठाया ।   

 

         किसी दूसरे की लकीर को छोटी करके हम अपनी लकीर बड़ी नहीं कर सकते । अपनी लकीर को बड़ी करने के लिये दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति का होना बड़ा आवश्यक है । हाल ही में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की अनिवार्यता को जिस तरह से स्वीकार किया गया है उससे लगता है कि बदलाव की सकारात्मक स्थितियाँ बनेंगी । इस तरह की पहल का स्वागत होना चाहिये । हिंदी को अगर सही अर्थों में राष्ट्रभाषा बनना है तो उसे इन्हीं आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच अपने प्राण तत्वों को सिंचित करना होगा । इन भाषाओं के साथ आदान-प्रदान की व्यापक शृंखला की शुरुआत करनी होगी । “भारतीय भाषा और संस्कृति विश्वविद्यालय” जैसी कोई नई शृंखला बड़े स्तर पर शुरू करनी होगी ।

 

           किसी भी भारतीय भाषा में परास्नातक की उपाधि लेने वाले के लिये यह अनिवार्य हो कि वह उस भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भारतीय भाषा में भी लिखने और बोलने का विधिवत ज्ञान हासिल करे । क्षेत्रीय नौकरियों में डोमेसाइल की अनिवार्यता की जगह उस क्षेत्र विशेष की भाषा में स्नातक या परास्नातक वाले आवेदकों को वरीयता दी जाये । कहने का तात्पर्य यह है कि भाषिक स्तर पर आदान-प्रदान की संभावनाओं को अधिक से अधिक प्रोत्साहन देना । जब तक भारतीय भाषाओं को “अवसर की भाषा” के रूप में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तब तक “इच्छित भाषा” के रूप में उनकी लोकप्रियता नहीं बढ़ेगी । किसी भाषा विशेष के विरोध से तो बिलकुल भी नहीं ।

         निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के साथ जो सपने सँजोये गये हैं वे बिलकुल पूरे किये जा सकते हैं लेकिन उसके लिये चरणबद्ध तरीके से ढाँचागत संरचना पर कार्य करना होगा । कुछ बुनियादी बातों का विशेष खयाल रखना होगा । जैसे कि –

1.  अंग्रेजी सहित विश्व की किसी भी भाषा के प्रति दुराग्रह उचित नहीं । यह हमारी सोच को संकीर्ण करेगा ।

2.  भारतीय भाषाओं को समान स्तर पर आदर और सम्मान देना, हिंदी के विकासात्मक भविष्य के लिये अनिवार्य है ।

3.  हिंदी और समस्त भारतीय भाषाओं / बोलियों के बीच व्यापक और सतत आदान-प्रदान की आवश्यकता है ।

4.  यह आदान-प्रदान किसी प्रकल्प की तरह समितियों या अकादमियों के सीमित व्यक्तियों के बीच में नहीं बल्कि जीवन शैली और दैनिक व्यवहार के बीच शामिल हो ।

5.  भारतीय भाषा और संस्कृति के व्यापक अध्ययन और अंतर्विषयी शोध कार्यों के लिये सैकड़ों शैक्षणिक संस्थाओं का गठन IIT की तरह चरण बद्ध तरीके से हो ।

6.  हिंदी पट्टी के छात्रों को दक्षिण भारतीय और दक्षिण के छात्रों को हिंदी पट्टी की भाषा को पढ़ने हेतु प्रोत्साहित किया जाय ।

7.  अधिक से अधिक भारतीय भाषाओं के ज्ञान पर नौकरी में विशेष भत्ते की योजना रहे । इन्हें नौकरी और पदोन्नति में विशेष वरियता भी मिले ।

8.  भारतीय भाषाओं में सभी प्रकार की उच्च शिक्षा सहज रूप से सुलभ हो सके इस पर गंभीरता पूर्वक कार्य होना चाहिये ।

9.  हमें हिंदी विरोध के प्रतिउत्तर में किसी भाषा का विरोध नहीं करना है अपितु उस विरोध के कारणों के समूल नाश के लिये कार्य करना होगा ।

10.  हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाओं को “आर्थिक प्रगति और रोज़गार के व्यापक अवसर वाली भाषा” के रूप में बदलना होगा ।

                      इन सभी बातों के लिये दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बहुत ज़रूरी है । हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, सभी की भावनाओं का ख्याल रखना ज़रूरी है । इसलिए तमाम वाद – विवादों के बीच संवादों के माध्यम से धैर्य और दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ना होगा । भारतीय भाषाओं को जिद्दी नहीं ज़मीनी होते हुए नाम से अधिक काम के बारे में सोचना होगा । जिस भाषा के पास जितना अधिक काम / रोजगार का अवसर होगा उतना ही उसका नाम होगा । अन्यथा कौन सी भाषा का अख़बार अधिक छपता है और किस भाषा को बोलने वाले लोग कितने अधिक हैं, ऐसे आकड़ों के साथ हम आत्ममुग्ध होकर अपने आप को सिर्फ़ छलते रह जायेंगे ।

 

 

 

 

संदर्भ :

1.       भारत में विदेशी लोग एवं विदेशी भाषाएँ, समाजभाषा – वैज्ञानिक इतिहास – श्रीश चौधरी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2108 । पृष्ठ संख्या – 419 ।

2.       भारत की भाषा समस्या – रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, सातवाँ संस्करण-2017 । पृष्ठ संख्या – 24

3.       राधाकृष्णन समिति रिपोर्ट ( 1951 : 316 ) नई दिल्ली, भारत सरकार प्रकाशन विभाग ।

4.       भारत में विदेशी लोग एवं विदेशी भाषाएँ, समाजभाषा – वैज्ञानिक इतिहास – श्रीश चौधरी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण -2108 । पृष्ठ संख्या – 421 ।

 

Tuesday 4 August 2020

स्वराज्य का सपना और प्रेमचंद ।

          स्वराज्य का सपना और प्रेमचंद ।

                                                       डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

सहायक प्राध्यापक – हिन्दी विभाग

के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय

कल्याण (पश्चिम), महाराष्ट्र

manishmuntazir@gmail.com

 

 

             हिन्दी पट्टी के लोगों के लिए सचमुच यह गर्व का विषय है कि उनके पास प्रेमचंद जैसा कद्दावर कथाकार “है” । एक ऐसा कथाकार जिसने भारतीय साहित्य की अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बनाया । प्रेमचंद ने जो लिखा वो लोगों को अपना सा लगा । हिन्दी पट्टी को साहित्य के मंच से समाज सुधार के लिए वैचारिक स्तर पर आंदोलित करने वाले प्रेमचंद प्रमुख और अगुआ लेखक हैं ।

            हिन्दी पाठकों की जमीन प्रेमचंद के पूर्व जासूसी और अइयारी उपन्यासों से देवकीनंदन खत्री जैसे लेखक कर चुके थे । इन उपन्यासों की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोगों ने इन उपन्यासों को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी । कल्पना, जासूसी, ऐय्यारी, तिलिस्म  की दुनिया में भ्रमण करने वाले इन पाठकों को यथार्थ की ठोस जमीन पर समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ़ वैचारिक स्तर पर गंभीर बनाना आसान नहीं था । यह वैसा ही था जैसे दिनभर अपनी मर्जी से कहीं भी घूमने-फ़िरने वाले किसी बालक का अचानक स्कूल में दाखिला करा देना । दाख़िला कराना आसान है लेकिन बच्चे के अंदर अनुशासन और अध्ययन रुचियों का निर्माण कराना कठिन है । इस कठिन कार्य को प्रेमचंद ने कर दिखाया ।

           प्रेमचंद इसलिए नहीं बड़े लेखक हैं कि उन्होने बड़ा लोकप्रिय साहित्य लिखा अपितु समाज के लिए उपयोगी साहित्य को लिखना एवं उसे लोकप्रिय बनाने के लिए, प्रेमचंद को  अधिक याद किया जायेगा । प्रेमचंद ने हिन्दी पट्टी के पाठकों की रुचियों का परिमार्जन किया । समाज और समाज की समस्याएँ जो कि साहित्य के हाशिये पर थी उसे केंद्र में स्थापित करने का श्रेय प्रेमचंद को है । 1918 से लेकर 1936 तक के समय में प्रेमचंद ने बेहतरीन कथा साहित्य लिखा । हंस जैसी पत्रिका का संपादन किया । उर्दू और हिन्दी के बीच में एक सेतु बनाने का कार्य भी प्रेमचंद ने किया । अपने समय के दबाव के बावजूद अपनी रचना को नया कलेवर दिया ।  

             प्रेमचंद के प्रशंसकों में पंडित जवाहरलाल नेहरू भी एक थे । अपूर्वानंद अपने आलेख में लिखते हैं कि, “नेहरू ने आर. के. करंजिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि हम सब गाँधी-युग की संतान हैं। हिन्दी साहित्य में किसी प्रेमचंद-युग की चर्चा नहीं होती, उर्दू साहित्य में भी शायद नहीं। लेकिन यह कहना बहुत ग़लत न होगा कि अज्ञेय हों या जैनेंद्र या और भी लेखक, वे प्रेमचंद-युग की संतान हैं।’’1 प्रेमचंद ने सिर्फ़ गाँव-जवार को ही अपने साहित्य में चित्रित नहीं किया अपितु उनके साहित्यिक क़नात के नीचे गाँव और शहर दोनों थे । शायद यही कारण था कि अपने समय के समाज को अधिक व्यापक रूप में वो चित्रित कर सके ।

            प्रेमचंद का समय आंतरिक जटिलताओं के संघर्ष का समय था । हिन्दी – उर्दू का झगड़ा चरम पर था । एक तरफ़ अल्ताफ हुसैन हाली तो दूसरी तरफ़ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी – अपनी पताका संभाले हुए थे । बंगाल का विभाजन हो चुका था। महात्मा गांधी भारत की आज़ादी के नये नायक के रूप में लोकप्रिय हो रहे थे । गहरे उपनिवेशवाद की छाप गाँव से लेकर शहर तक दिखाई पड़ रही थी । यद्यपि प्रेमचंद के गावों में उसतरह की कुलबुलाहट नहीं थी जैसी कि आज़ादी के तुरंत बाद फणीश्वरनाथ रेणु के “मैला आँचल” में दिखाई पड़ती है । फ़िर भी बहुत कुछ था जो बदल रहा था । रेलवे, फैक्ट्रियाँ, सड़कें, चीनी मिलें, सिनेमा, अंग्रेज़ों के वफ़ादार जमीदार, रायसाहब इत्यादि के ताने-बाने के बीच समाज में बदलाव और संघर्ष की एक आंतरिक धारा थी । इसकी एक झलक किसानों के अंदर पनप रहे विद्रोह में भी देखी जा सकती है । रमा शंकर सिंह लिखते हैं कि  “बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में अवध में किसान आंदोलनों की श्रृंखला चल पड़ी थी। प्रतापगढ़ में बाबा रामचंद्र किसानों से कह रहे थे कि वे अंग्रेजों को टैक्स न दें।“2

          जगह-जगह छापे खाने खुल रहे थे । तरह-तरह की पत्र – पत्रिकाओं के माध्यम से समाज प्रबोधन का कार्य हो रहा था । राजा रवि वर्मा जैसे कलाकार मंदिरों में कैद देवी-देवताओं को पोस्टर चित्रों के माध्यम से घर-घर पहुंचा चुके थे । अछूतानंद जैसे नायक दलित समाज को आंदोलित कर रहे थे तो डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी शिक्षा पूरी कर के भारत आ चुके थे । स्त्रियाँ शिक्षित हो रहीं थी । उनके अधिकारों एवं शिक्षा को लेकर पक्षधरता बढ़ रही थी । 1894 के भूमि अधिग्रहण क़ानून का विरोध और दमन दोनों हुआ । जालियावाला बाग जैसा जघन्य हत्याकांड अंग्रेज़ सरकार पहले ही कर चुकी थी । इन तमाम घटनाओं के बीच से प्रेमचंद सेवा सदन, गोदान और रंगभूमि जैसे उपन्यास लिखते हैं । प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जिस तरह से ब्रिटिश सरकार उपनिवेशवाद की जड़ों को भारत में जमा रही थी उसका एक व्यापक चित्र प्रेमचंद के साहित्य में मिलता है । 

         स्वामी दयानंद सरस्वती का “आर्य समाज” जिस तरह से देश में सक्रिय था उससे प्रेमचंद भी प्रभावित हुए । समाज में व्याप्त वेश्यावृत्ति की समस्या का निराकरण जिस तरह वे “सेवा सदन” बनाकर दिखाते हैं, उससे उनपर आर्य समाज के प्रभाव को साफ़ देखा जा सकता है । कुछ विद्वानों का मानना है कि यह प्रभाव सिर्फ़ आर्य समाज का नहीं था । इस संदर्भ में रमा शंकर सिंह अपने लेख में लिखते हैं कि,“विक्टोरियन नैतिकताबोध से भारतीय समाज के ऊपर कानून लाद दिए गए थे और भारतीय पुरुष समाज सुधारक जैसे मान चुके थे कि स्त्री का उद्धार करना उनका पुनीत कर्तव्य है।’’3 इन्हीं सब के बीच प्रेमचंद साहित्य के समाज और समाज के साहित्य दोनों को बदल रहे थे । उनके इस बदलाव को समाज ने भी स्वीकार किया क्योंकि वह कोई वैचारिक या काल्पनिक बदलाव मात्र नहीं था । इस बदलाव का एक अंडर करेंट समाज महसूस कर रहा था जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है ।

             प्रेमचंद लेखन की शुरुआत उर्दू से करते हैं । उनकी कृतियों को अंग्रेज़ सरकार प्रतिबंधित करती है । प्रेमचंद सहज,सरल और सपाट भाषा में लिखते हैं ताकि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके । वे प्रगतिशील विचारों के अगुआ बनते हैं । साहित्य को उस मशाल की संज्ञा देते हैं जो राजनीति के आगे-आगे चलकर उसका पथ प्रदर्शन करे । 1906 से 1936 तक लिखा गया उनका पूरा साहित्य अपने समय और समाज की त्रासदी का बयान है । मंगलसूत्र उपन्यास वो पूरा नहीं कर सके । कफ़न उनकी लिखी अंतिम कहानी साबित हुई । अंतिम पूर्ण उपन्यास के रूप में उन्होने गोदान जैसी सशक्त रचना दी । कमल किशोर गोयनका ने उनकी 25 से 30 लघु कहानियाँ भी खोजी हैं जो पाठकों के लिए सहज रूप से उपलब्ध हो चुकी है । बलराम अग्रवाल अपने आलेख – प्रेमचंद की लघु कथा रचनाएँ में इसकी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं ।4 प्रेमचंद ने तीन सौ के आस-पास कहानियाँ लिखीं । अधिकांश कहानियों के केंद्र में समाज की कोई न कोई समस्या है । पंच परमेश्वर, पूस की रात, ठाकुर का कुआं , नमक का दरोगा, आत्माराम, बड़े घर की बेटी, आभूषण, कामना, बड़े भाई साहब, सत्याग्रह, घासवाली और कफ़न जैसी उनकी कहानियाँ अधिक लोकप्रिय रही हैं । लेकिन उनकी समस्त कहानियों में समस्याओं और सूचनाओं का इतना अंबार है कि हिन्दी पट्टी के समाज और समाज मनोविज्ञान को समझने में ये बहुत सहायक हैं । साहित्य को सामाजिक सरोकारों एवं प्रगतिशील मूल्यों के साथ जोड़कर प्रेमचंद ने एक नई परिपाटी शुरू की ।  

          डॉ. कमल किशोर गोयनका ने तमाम प्रमाणों एवं साक्ष्यों के आधार पर यह साबित किया है कि प्रेमचंद को जिस तरह रामविलास शर्मा जी गरीब और जीवन भर तंगी में ही रहने की बात करते हैं वह गलत है ।5 प्रेमचंद की माली हालत हमेशा ठीक ठाक रही । लेकिन उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से हमेशा ही उस शोसित-वंचित की चिंता की जो ब्रिटिश कालीन उपनिवेशिक समाज में सम्पन्न वर्ग द्वारा निचोड़ा जा रहा था । प्रेमचंद का समय कई विचारधाराओं के उत्थान का भी समय था । निश्चित था कि प्रेमचंद भी किसी न किसी रूप में इनसे प्रभावित होते । किसान आंदोलन, भूमि अधिग्रहण कानून, रुसी क्रांति, लियो टोल्सटाय, गांधी और डॉ आंबेडकर की विचारधाराओ ने प्रेमचंद को प्रभावित किया । 1927 से डॉ. अम्बेडकर के आंदोलनों की तीव्रता ने पूरे देश को प्रभावित किया । प्रेमचंद की कई महत्वपूर्ण कहानियाँ इसी के बाद ही आयीं । जैसे किठाकुर का कुँआ”, “दूध का दाम”, “सद्गति” और उनकी अंतिम कहानी “कफ़न” । यद्यपि कफ़न को लेकर दलित साहित्य समीक्षकों ने प्रेमचंद की कड़ी निंदा भी की है लेकिन वह एक ख़ास नजरिये से देखना भर है, उसमें समग्रता का अभाव है ।

         31 जुलाई 1880 को जन्में प्रेमचंद ने 08 अक्टूबर 1936 को अंतिम सांस ली । तमाम सामाजिक,राजनीतिक परिस्थितियों और विचारधाराओं के बीच प्रेमचंद जिस भारत की संकल्पना को अपने साहित्य के माध्यम से साकार कर रहे थे वहाँ समतामूलक सर्वसमावेशी स्वराज्य का सपना था । उनकी राष्ट्रियता की छवि में जन्मगत वर्ण व्यवस्था की गंध तक स्वीकार्य नहीं थी । नवजागरण की पृष्ठभूमि से उठे सारे सवालों को वे अपने साहित्य के माध्यम से उठा रहे थे । राष्ट्रीय रंगमंच पर गांधी और आंबेडकर के विचारों से उस भारत को गढ़ना चाह रहे थे जिसमें मनुष्यता महत्वपूर्ण है । चित्त की उदारता सिर्फ़ विचारों और ग्रंथों तक सीमित न होकर वह व्यवहार का हिस्सा बने, यह प्रेमचंद की इच्छा थी । उपनिवेशिक दबाव और प्रभाव के बीच भारत का जो छविकरण “Land of Religion and Philosophy” के रूप में किया जा रहा था वह इस भारत की समग्र आत्मा का प्रतिनिधित्व नहीं था । उसमें वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में भविष्य की संकल्पना स्पष्ट नहीं थी ।

         प्रेमचंद ने साहित्य को अपने समाज और समय की धड़कन में बदलते हुए नायकत्व की पूरी परिपाटी को बदल दिया । मनुष्यता को साहित्य के केंद्र में स्थापित किया । अनुभूति की जीवंतता को प्रेमचंद ने महत्वपूर्ण माना । उत्तर भारत की स्मृतियों, अनुभूतियों, रंग, रूप, रस और गंध सबकुछ प्रेमचंद ने अपने साहित्य में समेटा । भूत और भविष्य की चिंता को व्यर्थ का भार मानने वाले प्रेमचंद अपने वर्तमान को पूरी समग्रता से चित्रित करते हैं । समाज के दबे – कुचले और शोषित वर्ग को मनुष्यता का स्वर प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से ही दिया । कठिनाइयों से लड़ने के लिये गति और बेचैनी को प्रेमचंद महत्वपूर्ण मानते थे । वे एक ऐसे साहित्य के हिमायती थे जो संघर्ष के लिये बेचैनी पैदा करे । प्रेमचंद के साहित्य में समय विशेष का लोक चित्त और उसका इतिहास धड़कता है ।

              प्रेमचंद ने गाँव के जिस जीवंत परिवेश का चित्रण करते हैं उसने उनकी बाद की पीढ़ी के लिए एक रास्ता प्रसस्त किया । सरोकारजन्य साहित्य की परिपाटी उन्हीं की देन है । प्रेमचंद के बाद शिव प्रसाद सिंह, फणीश्वरनाथ रेणु, चन्द्र्किशोर जायसवाल, अमरकांत, संजीव, रामधारी सिंह दिवाकर, राकेश कुमार सिंह, मैत्रयी पुष्पा, काशीनाथ सिंह, देवेन्द्र, अखिलेश, महेश कटारे, सत्यनारायण पटेल और शिवमूर्ति जैसे कथाकारों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया । प्रेमचंद की परंपरा में कई शाखाएँ मानी जा सकती हैं जो उनके विचारों को अग्रगामी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

             प्रोफ़ेसर चित्त रंजन मिश्र के अनुसार  गोरखपुर के बाले मियाँ के मैदान में गाँधी जी का भाषण सुनने के बाद ही उन्होने सरकारी नौकरी से 1921 में त्यागपत्र दिया । बाद में वे लमही अपने गाँव लौट गये थे । प्रेमचंद के साहित्य की एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि प्रेमचंद अपने पात्रों की आर्थिक स्थिति का वर्णन अवश्य करते हैं । न केवल वर्णन करते हैं अपितु उस पैसे के आने और जाने के संदर्भ को भी बड़े सलीके से चित्रित करते हैं । यह अर्थ उस व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में क्या बदलाव लाता है, उसकी सोच को किस तरह प्रभावित करता है, इसका व्यापक चित्र खींचते हैं । कबीर और तुलसी के बाद संभवतः प्रेमचंद का ही पाठक वर्ग सबसे बड़ा हो । इन पाठकों तक प्रेमचंद धर्म और कर्मकांडों के माध्यम से नहीं अपितु धार्मिक पाखंडों की पोल खोलते हुए पहुँचते हैं । सामाजिक विसंगतियों की गाँठों को लेकर अपने पाठकों तक जाते हैं ।  प्रेमचंद ख़ुद भी अपने आप को वैचारिक स्तर पर माँजते रहे । सन 1916 से 1936 तक आते-आते प्रेमचंद में यह बदलाव साफ़ दिखायी पड़ता है । प्रेमचंद की हिन्दी वह हिंदुस्तानी थी जिसकी बात गाँधी जी करते थे । ठेठ जन की भाषा को उन्होने अपनाया ।

            फ़िल्मों की दुनियाँ में भी प्रेमचंद ने क़दम तो रक्खा लेकिन वे यहाँ से निराश अधिक हुए ।  प्रेमचंद की लिखी फिल्म ‘द मिल मजदूर’ मुंबई में 5 जून 1939 को इंपीरियल सिनेमाघर में लंबी लड़ाई के बाद रिलीज हुई थी। वैसे तो यह फिल्म 1934 में ही बनकर  तैयार हो चुकी थी, लेकिन उस समय मुंबई के बीबीएफसी (बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) ने इसे प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं प्रदान की । उन्हें यह लगता था कि फ़िल्म मजदूरों को बरगला सकती है और वे हड़ताल कर सकते हैं । तत्कालीन सेंसर बोर्ड में सदस्य के रूप में शामिल बेरामजी जीजीभाई मुंबई मिल एसोसिएशन के भी अध्यक्ष थे, वे इस फ़िल्म को मिल  एसोसिएशन के हितों के अनुकूल नहीं समझते थे । 1937 में बीबीएफसी का फिर से गठन हुआ और नए सदस्य चुने गए। तब जाकर इस फ़िल्म को प्रदर्शित करने का रास्ता साफ हुआ । यह फ़िल्म प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रदर्शित हुई ।

          प्रेमचंद खेतिहर भारतीय जनमानस के सबसे बड़े और सबसे अधिक स्वीकृत कथाकारों में रहे हैं । उनके साहित्य के माध्यम से बहस और चिंतन की गुंजाइस लगातार बनी हुई है । वे अपनी किरदार निगारी में अद्भुद रहे । प्रेमचंद का साहित्य अपने समय की वास्तविकता की तलाश है । इस तलाश की केन्द्रिय इकाई मानवीयता है । प्रेमचंद ने अपने पाठकों के साथ जिस विश्वास की परंपरा का निर्माण किया, उतनी मज़बूत और व्यापक कड़ी उनके बाद का कोई भी लेखक अभी तक नहीं बना पाया है । अपने समय के संघर्ष का मानो प्रेमचंद इक़बालिया बयान दर्ज़ कर रहे हों ।

       

संदर्भ :

1.   प्रेमचंद 140 : सातवीं कड़ी : हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद-युग की चर्चा क्यों नहीं? –अपूर्वानंद https://www.satyahindi.com/literature/140-years-of-premchand-part-7

2.   प्रेमचंद का सूरदास आज भी ज़मीन हड़पे जाने का विरोध कर रहा है और गोली खा रहा है! – रमा शंकर सिंह, https://junputh.com/open-space/rama-shankar-singh-on-premchand-jayanti

3.   वही 

4.   प्रेमचंद की लघु कथा रचनाएँ – बलराम अग्रवाल https://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/articles/606/premchand-ki-laghukatha-rachanayein

5.   प्रेमचंद गरीब थे, यह सर्वथा तथ्यों के विपरीत है – रोहित कुमार हैप्पी’, https://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/articles/600/grib-nahi-the-premchand.html?