Tuesday 10 September 2013

साहित्यिक सारणी

दगा लोटन पाटील 
एम.ए.(हिंदी ) 
(मु.वनावल पो. जातोडे ता.शिरपुर
 जि.धुळे(४२५४०५)महाराष्ट्र.
मो.९६८९५९९५५६

अनुक्रमांक
साहित्यिक का नाम
जन्म
मृत्यु
जेनेन्द्रकुमार
२ जनवरी १९०५
२४ दिसंबर १९८८
कमलेश्वर
६ जनवरी १९३२
२७ जनवरी २००७
मोहन राकेश
८ जनवरी १९२५
३ जनवरी १९७२
वृंदावनलाल वर्मा
९ जनवरी १८८९
२३ फरवरी १९६९
श्रीधर पाठक
 ११ जनवरी १८५८
१३ सितम्बर १९२८
रांगेय राघव
     १७ जनवरी १९२३
 १२ सितम्बर १९६२
जयशंकर प्रसाद
     ३० जनवरी १८८९
१४ जनवरी १९३७
सोहनलाल द्विवेदी
 २२ फरवरी १९०६
  ०१  मार्च १९८८
रामनरेश त्रीपाठी
     ०४ मार्च १८८१
  १६ जनवरी १९६२
१०
स.ही. वात्स्यायन अज्ञेय
०७ मार्च १९११
०४ अप्रैल१९८७
११
महादेवी वर्मा
२६ मार्च १९०७
 ११ सितम्बर१९८७
१२
केदारनाथ अग्रवाल
०१ अप्रैल१९११
२२ जुन २०००
१३
माखनलाल चतुर्वेदी
०४ अप्रैल१८८९
  ३० जनवरी१९६८
१४
राहुल सांकृत्यायन
०९ अप्रैल १८९३
१४ अप्रैल १९६३
१५
अयोध्यासिंह उपाध्याय
 १५ अप्रैल १८६५
१९४५
१६
सुमित्रानंदन पंत
२० मई१९००
 २८ सितम्बर१९७७
१७
देवेंद्र सत्यार्थी
     २८ मई १९०८
१९७४
१८
कन्हैयालाल मित्र प्रभाकर
२९ मई १९०६
०९ मई १९९५
१९
विष्णु प्रभाकर
     २१ जुन १९१२
  ११ अप्रैल २००९
२०
देवकीनंदन खत्री
     २९ जुन १८६१
१ अगस्त १९१३
२१
नागार्जुन
     30 जुन १९११
५ नवंबर१९९८
२२
प्रेमचंद
 ३१ जुलाई १८८०
८ अक्तूबर१९३६
२३
पुरुषोत्तम दास टंडन
      १ अगस्त १८८२
  १ जुलाई १९६२
२४
मैथिलीशरण गुप्त
३ अगस्त१८८६
१२ दिसंबर १९६४
२५
भीष्म साहनी
८ अगस्त १९१५
११ जुलाई २००३
२६
सुभद्राकुमारी चौहान
 १६ अगस्त १९०४
१५ फरवरी १९४८
२७
अमृतलाल नागर  
 १७ अगस्त १९१६
  २३ फरवरी १९९०
२८
हजारीप्रसाद द्विवेदी
१९ अगस्त १९०७
१९७९
२९
दुष्यंतकुमार
     ०१ सितम्बर १९३३
    २२ जुन २०००
३०
सियारामशरण गुप्त
     ०४ सितम्बर १९३३
  २९ मार्च १९६३
३१
भारतेंदू हरिश्चंद्र
९ सितम्बर १८५०
०६ जनवरी १८८५
३२
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
१५ सितम्बर १९२७
२३ दिसंबर १९८३
३३
प्रभुनाथ गर्ग (काका हाथरसी )
१८ सितम्बर १९०६
१८ सितम्बर १९९५
३४
रामधारीसिंह दिनकर
२३ सितम्बर १९०८
२४ अप्रैल१९७४
३५
मुकुटधर पाण्डेय
३० सितम्बर १८९५
१९८८
३६
आ. रामचन्द्र शुक्ल
०४ अक्तूबर १८८४
२ फरवरी १९४१
३७
गजानन माधव मुक्तिबोध
१३ नवम्बर १९१७
 ११ सितम्बर १९६४
३८
हरिवंशराय बच्चन
२७ नवम्बर १९०७
१८ जनवरी २००३
३९
काका कालेलकर
०१ दिसंबर १८८५
२१ अगस्त १९८१
४०
यशपाल
०३ दिसंबर१९०३
२६ दिसंबर १९७६
४१
बालकृष्ण शर्मा नविन
    ८ दिसंबर १८९७
२९ अप्रैल १९६०
४२
इलाचन्द्र जोशी
    १३ दिसंबर १९०३
१९८२
४३
रामवृक्ष बेनीपुरी
२३ दिसंबर१८९९
 ९ सितम्बर १९६८
४४
धर्मवीर भारती
२५ दिसंबर१९२६
४ सितम्बर १९९७
४५
महावीर प्रसाद द्विवेदी
१८६४
२१ दिसंबर १९३८
४६
उपेन्द्रनाथ अश्क
१९१०
१९ जनवरी १९९६
४७
जगन्नाथदास रत्नाकर
भाद्रपद शुक्लपंचमी(१८६६)
    २१ जुन १९३२

Monday 9 September 2013

हिंदी दिवस और हिंदी

मुझे आजकल यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि ``भारत पूरी दुनियाँ के लिए सिर्फ एक बाज़ार बनकर रह गया है। दरअसल इस तरह की बात करनेवाले अधिकांश लोग यह बात बड़े दुखी मन
से, मुँह विकृत करके और तमाम समसामायिक वैश्विक गतिविधियों को पतन की दिशा में अग्रसर मान कर ऐसा कहते हैं। उन्हें पता नहीं क्यो यह लगता है कि जो हो रहा है वह बहुत बुश है। धर्म और दर्शन के इस देश को बाज़ार के रूप में इस इक्कीसवी शटी में एक नई और सशक्त पहचान मिल रही है; यह कईयों के लिए दुख का विषय हो सकता है पर मेरे लिए और सशक्त पहचान मिल रही है; यह सुखात्मक अनुभूति का विषय है। क्योंकि भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के युग मं बाज़ार ही जीवन की संजीवनी है। और यदि हम इस संजीवनी का सुमेरू पर्वत हैं तो निश्चित तौर पर यह आनंद, गर्व और सुखात्मक अनुभूति की बात है। साथ ही साथ एक सच्चाई यह भी समझनी होगी कि `सिर्फ बाज़ार बन ज़ाना' कोई साधारण बात नहीं है। इस इक्कीसवी शटी में बाजार बन जाने का अर्थ है निरंतर विकास, प्रगति, संपन्नता, क्रर्यशिक्त में वृद्धी, रोजगार, शिक्षा, तकनीक, समानता, कानून, समान अवसर, प्रतियोगिता, सम्मान, जात-पात की बंधन से मुक्तता और स्वावलंबन। इसलिए बदले वैश्विक परिदृश्य में अगर कोई राष्ट्र पूरे विश्व के लिए एक बाज़ार बनकर उभर रहा है तो वह उत्पादक, उपभोक्ता और इनके बीच `लाभ के लिए होनेवाले व्यापार का सबसे बड़ा लाभार्थी भी है। इसे हमें अच्छी तरह समझना होगा। आज हम एक गुलाम उपनिवेश के रूप में बाजार नहीं बन रहे हैं अपितु दुनियाँ के सबसे बड़े स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र के बाज़ार के रूप में उभर रहे है। इसलिए डरने की आवश्यकता नहीं इसीबात की है कि इस बाजारवाद और भूमंडळीकरण की वैश्विक गति के बीच से ही हम अपनी राष्ट्रीय प्रगती को सुनिश्चित करें। और पूरी दुनियाँ के सामने एक आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श के रूप में सामने आयें।
आज भारत अगर पूरी दुनियाँ के सामने शिक्तशाली बाज़ार के रूप में उभरा है तो हिंदी भाषा भी इस बाजार की सबसे बड़ी शिक्त के रूप में सामने आयी है। क्योंकि बाज़ार में व्यापार बिना आपसी समझ के संभव नहीं है। इस `आपसी समझ' में सहजता तरलता और विश्वास पैदा करने का काम हिंदी ने किया है। इसका फायदा बाज़ार को भी हो रहा है, हिंदी को भी हो रहा है और हिंदी से जुड़े लोगो को भी। इसबात का अंदाजा इसीबात से लगाया जा सकता है कि दुनियाँ के सबसे ताकतवर राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति श्रीमान बुश ने हाल ही के दिनों में अमेरिकियों को हिंदी सीखने की सलाह दी। अगर मान लूँ कि भारत दुनियाँ का सबसे बड़ा बाज़ार है तो इस बाज़ार में हिन्दी की जयजयकार अनिवार्य है। हिंदी को जो सम्मान, जो अधिकार हमारी संविधान देना चाहता था वह कटिपत्र कारणों से व्यवहारिक धरातक पर अभी तक संभव नहीं हो पाया। पर आज का भारतीय बाज़ार इस दिशा में आशा की एक तेज किरण है। जिस तरह भारतीय बाज़ार में हिंदी का बोलबाला बढ़ रहा है, उसे देखकर अब यह लगने लगा है कि हिंदी आनेवाले दस-पन्द्रह सालों के बाद सही अर्थो में राष्ट्रभाषा और राजभाषा बन ही जायेगी।
हमारे इस महान भारत देश को लोकतांत्रिक ढाँचा जिस संविधान पर टिका हुआ है, उसी संविधान के अनुच्छेद 343, राजभाषा अधिनियम 1963 (यथा संशोधित 1967) के अनुसार बनाये गये नियम एवम् समय-समय पर जारी होनेवाले सरकारी आदेशों का अभिप्राय केवल इतना होता है कि हिन्दी को काम-काज में अंग्रेजी का स्थान लेना है। सारी विभागीय कसरत इसी उ ेश्य को केन्द्र में रखकर के की जाती है। पर यह बात विविधताओं से भरे इस देश के लिए कुछ हद तक आसान नहीं रही तो एक बहुत बड़ी हदत तक इसे आसान होने नहीं दिया गया। क्षेप्रियता की राजनीति, भाषा की राजनीति और अवसरवादिता के चूल्हे पर कई लोग अपनी रोटी सेकते रहे। जिस हिंदी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में अबतक शासकीय कार्यो में रीढ़ की हड्डी बनी नही अपितु कईयों के लिए गले की हड्डी जरूर बनी रही। जिसे न तो निगलते बने और नही उगलते। ग ीवाले ही नहीं र ीवाले भी इस हिंदी का मूल्य कम ही आकते रहे। लेकिन उदारीकरण, बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण और निजीकरण की आँधी ने हवा का रूख मोड़ दिया है। अकेले विज्ञापन का कारोबार भारत में 10 बिलियन डालर से अधिक का हो गया है। हर वर्ष से इस क्षेत्र में 30 से 35 प्रतिशत व्यापारिक पूँजी की बढ़ोत्तरी का अनुमान लगाया जा रहा है। विज्ञापन की दुनियाँ हिन्दी को किस तरह हॉथों-हॉथ बढ़ा रही है, उपयोग में ला रही है, इस्तमाल कर रही है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। चाहे-अनचाहें आप विज्ञापन देखने के लिए मजबूर हैं, पर आपकी इस मजबूरी में हिंदी की मजबूती आपके सामने हैंं। यहाँ पर भी कुछ लोग बाजार की यह कहकर आलोचना करते है कि वह हिंदी को बढ़ावा नहीं दे रही अपितु इस्तमाल कर रही है। अब ऐसे महानुभावों को मैं कैसे समझाऊँ कि भाषा को इस्तमाल कर रही है। अब ऐसे महानुभावों को मैं कैसे समझाऊँ कि भाषा को इस्तमाल करना ही उसे बढ़ावा देने का सबसे कारगर तरीका है।
जहाँ तक बैंकिंग क्षेत्र में हिंदी के विकास की बात है तो वर्ष 2003-04 से लेकर अबतक (2007-08) की आर.बी.आय. की वार्षिक रिपोर्ट तथा दिसंबर 2007 में प्रकाशित `भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति एवम प्रगति संबंधी रिपोर्ट 2006-07 के हवाले से ज्ञात होता है कि - 1990 के दशक से ही विश्व बैंकिंग उद्योग में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। परिचालन, भूमंडलीकरण, विनियमन और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के सहारे यह क्षेत्र निरंतर प्रगति कर रहा है। गहन प्रतिस्पर्धात्मक कारोबार का दबाव भी इस क्षेत्र पर पड़ा है। पर सहज विस्तार और अधिग्रहण की नीति को अपना कर बैंकिंग क्षेत्र अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा है। सांगली बैंक का आय.सी.आय.सी. बैंक द्वारा और हल ही में सेन्चूरियन बैंक ऑफ पंजाब का एच.डी.एफ बैंकद्वारा अधिग्रहण इस बात के ही नये उदाहरण है। कृषि प्रधान भारत देश में किसानों की मानसून पर निर्भरता और इसके कारण उन्हें होनेवाली परेशानियों की समझते हुए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने आपदाग्रस्त किसानों के लिए शहर के तौर पर ऋण गारंटी योजना अमल में लाने के लिए सक्रिय हुई। जिसमें आर.आर.बी. ग्रामीण सहकारी बैंकों सहित सभी वाणिज्य बैंकों को अनिवार्यत: शामिल होना पड़ा। इसपर भी देशभर में बढ़ती किसानों की आत्महत्या ने सभी का ध्यान किसानों की समस्याओं की तरफ खींचा। नतीजतन सरकार ने तत्काल राहत प्रदान करने हेतु सभी छोटे किसानों की 50,000 तक की राशि का कर्ज माफ कर देने का निर्णय लिया। इससे साठ हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार अर्थव्यवस्था पर पड़ा, किंतु हमारी अर्थव्यवस्था इसे झेल लेगी, ऐसा विश्वास विशेषज्ञों एवम् सरकार ने दिलाया। डाटा केन्द्रों की स्थापना, केन्दीकृत प्रणाली और कोर बैंकिंग का बृहद पैमाने पर कार्यान्वयन हमें आज बैंकिंग सेक्टर में दिखायी पड़ता है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने तो करीब दस हजार शाखाएँ पूरे देश में फैला दी हैं। उसकी इसी विस्तारक नीति के फलस्वरूप हाल ही में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने असम के नए जिलों अर्थात उदालगुड़ी, चिरंग और बक्सा के लिए भारतीय स्टेट रिजर्व बैंक को अग्रणी (लीड) बैंक बनाने का निर्णय लिया है। भारत में अब भी बैंकों का अधिकतर कारोबार बड़े शहरों की ओर हो रहा है। ग्रामीण अंचलो तक बैंको की सेवा उपलब्ध कराने के लिए वर्ष 2006 से यह अनिवार्य किया गया कि किसी भी बैंक की नई शाखा खोलने के लिए उसका अनुमोदन रिजर्व बैंक से लिया जाय। और रिजर्व बैंक ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी बैंक की जो नई शाखाएँ खोली जा रही है उन शाखाओं में से आधी `कम बैंकिंग सुविधायुक्त क्षेत्रों' में खोली जायें। इन सभी के बीच वर्ष 2006 के दौरान 5.5 वृद्धी के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था ऊँची वृद्धि जारी रही। भारत से 09.05 की तेज वृद्धि रही। वर्ष 2007-08 के लिए यह वृद्धि कम करके 8.5 तक ऑकी जा रही है। पर वैश्विक उत्पादन में वृद्धि की अगवाई उभर रहे एशिया ने ही की। अमेरिका मंदी का प्रभाव पूरी दुनियाँ पर है पर भारत की विकास प्रक्रिया जारी है। विकासमान एशिया में मुद्रास्फीति वर्ष 2000-2004 के 2.6 से बढ़कर वर्ष बढ़कर वर्ष 2005 में 3.6 और 2006 में 4.0 तक हो गयी है।
दिनांक 08 मार्च 2008 के टाइम्स ऑफ इंडिया के (मुंबई संस्करण) में एक लेख छपा जिसमें के हवाले से यह बताया गया कि `` रिपोर्ट में यह उम्मीद भी जतायी गई कि आनेवाले दिनो में भारत चीन की तुलना में विकास प्रक्रिया में कहीं आगे निकल जायेगा। साथ ही साथ इस प्रगती में भारत के की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी। इन सारी बातों की यहाँ पर चर्चा करने के पीछे दो महत्त्वपूर्ण उ ेश्य हैं। पहला यह कि भारत की मजबूत अर्थव्यवस्था को बैंकिंग की प्रगति के आधार पर हम समझ सकें और यह भी समझ ले कि भारत में बैंकिंग से जुडी सरकारी नीतियाँ सामाजिक सरोकारों, राष्ट्रीय उ ेश्यों की पूरक भी होती हैं। राष्ट्र का विकास के अंतर्गत सिर्फ आर्थिक विकास महत्त्वपूर्ण नहीं है। अपितु आर्थिक ढ़ाँचे के साथ-साथ सामाजिक, भौगोलिक एवम राजनीतिक परिस्थितियों का भाँपते हुए उन्हें भी विकासोन्मुख दिशा देनी हैं। निश्चित तौर पर या बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। शायद इसीकारण ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी बैंक को परिभाषित करते हुए यह परिभाषा देती है कि, लेकिन यह परिभाषा राष्ट्रीयकृत बैंकों की राष्ट्रीयत्व प्रगति में योगदान के भिन्न पक्षों के स्वरुप को अपने में समेटने में विफल दिखायी पड़ती है। इसीकारण कभी - कभी कई विद्ववान एक मासूम सा सवाल कर बैठते हैं कि बैंको का हिन्दी के विकास से क्या लेना-देना है? मजाक के लहजे में ही सही पर कई बार राजभाषा अधिकारियों को `भार अधिकारी' कह कर भी संबोधित किया जाता है। उनकी नज़रों में राजभाषा अधिकारी एक ऐसा व्यिक्त है जो डिस्पैच से लेकर नोटिंग, ड्राफ्टिंग, ट्रांसलेटिंग और इंटरप्रेटिंग का काम या खुद ही करता है या फिर विभाग के लिपिक या अनुवादक से करवाता है। साथ ही साथ वह बैंको के मूल कार्य में किसी तरह का कोई `प्रोडक्टिव' सहयोग नहीं देता इसलिए वह भार अधिकारी है जिसे बैंको को अनावश्यक रूप से ढोना पड़ता है। जब कि सच्चाई यह है कि राजभाषा अधिकारी राष्ट्रीय विकास के आर्थिक एवम् सामाजिक सरोकारों के बीच एक सेतु का कार्य करता है। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए बैंको के राजभाषा विभागों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया भी है।
14 सितंबर 1949 में इस देश के संविधान ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिन्दी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया। 14 सितंबर 1999 को इस विभाग की स्थापना को 50 वर्ष पूरे हो गये। संसदीय राजभाषा समिति का गठन हुआ और इस विशेष अधिकार भी दिया गया। इस समिति की वजह से ही 1970 से 1980 के बीच हिंदी स्टाप संख्या में अच्छी वृद्धि हुई। राजभाषा विभागो द्वारा समय-समय पर संगोष्ठियों एवम् हिंदी से संबंधित प्रतियोगिताओ का आयोजन करके, कर्मचारियों के मन में हिंदी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने प्रयास निरंतर किया जाता रहा है। परवर्ती संदर्भो के लिए पुस्तकों का प्रकाशन एवम् उनकी सहज उपलब्धता को भी सुनिश्चित किया जाता है। पारिभाषिक शब्दावली एवम् कार्यालयीन शब्दावली के विकास में भी राजभाषा विभाग का महत्त्वपूर्ण कार्य राजभाषा विभाग ने किया है।
राजभाषा विभाग के सामने भी हिंदी में कार्य निष्पादन को लेकर कई व्यवहारिक और तकनीकी समस्या रही है। हमारे यहाँ आज भी पत्रों के प्रारूप बड़े पैमाने पर पहले अंग्रेजी में ही बनता है, तत्पश्चात उसके हिंदी अनुवाद का कार्य किया जाता है। यह अनुवाद इतना तकनीकी और क्लिष्ट होता है कि हिंदी का सामान्य पाठक इसे कठिन मानकर अंग्रेजी में ही व्यवहार करना उचित समझता है। किसी स्थानीय समाचार पत्र के संदर्भ में मैंने पढ़ा था कि उसके मुख्य संपादक रोज अपनी संपादकीय रोज अपनी संपादकीय लिखने के पश्चात कार्यालय के बाहर सड़क किनारे बैठने वाले एक मोची के पास जाते और उसे अपनी संपादकीय इस हिदायत के साथ सुनाते कि जहाँ भी कोई शब्द या वाक्य उसके समझ में ना आये, वह वहाँ टोक दे। इस तरह वे संपादक महोदय, अपनी संपादकीय लिखने के बाद उस मोची के माध्यम से यह सुनिश्चित करते थे कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसे उनके अखबार का सामान्य पाठक सझ पा रहे है या नहीं। कहने का आशय केवल इतना है कि अनुवाद और कार्यालयीन शब्दावली के नाम पर नए शब्दों को गढ़ने से कहीं ज्यादा जरूरी यह है कि आम बोलचाल की भाषा में इस्तमाल होनेवाले शब्दों को हिंदी मे समाहित कर लिया जाय। अँग्रेजी भाषा इस तरह के व्यवहार के लिए अप्रतिम उदाहरण है। हर वर्ष इसके शब्दकोश में हजारों ऐसे ही नये शब्दों को समाहित किया जाता है। इससे भाषा अधिक संपन्न तो होती है साथ ही साथ इसका व्यवहार क्षेत्र भी अधिक विस्तारित होता है। व्याकरणिक चुनौती, तकनीकी शब्दावली की चुनौती, पर्यायमूलक शब्दों के चयन की चुनौती, अनुवाद की चुनौती, सीमित कर्मचारी संख्या और इन सबसे बढ़कर हिंदी को लेकर जो एक हीनता का भाव उच्चाधिकारियों में रहा उनसे जूझते हुए राजभाषा विभाग नि:संदेह अपने कार्य को पूरी दक्षता और समर्पण के साथ अंजाम देते रहे है।
आज हिंदी और रोजगार आपस में अच्छी तरह जुड़े हुए है। बाज़ार में इनका अपना महत्त्वपूर्ण ताना-बाना बन गया है। संचार, सूचना और प्रौद्योगिक के साथ-साथ हिंदी हर नए क्षेत्र में अपने स्वरूप को ढालती हुई अपना विकास स्वत: कर रही है। न केवल अपना विकास कर रही है, अपितु खुद से जुड़ने वालों के पालन-पोषण का माध्यम भी बन रही है। आज हिंदी न केवल भारत बल्कि दुनियाँ के कई अन्य देशों में भी बोली, समझी और पढ़ाई जाती है। रूस के 08, पश्चिमी र्जनमी के 17 और अमेरिका के 38 विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन - अध्यापन की व्यवस्था है। (भाषा पत्रिका के आंकड़ों के आधार पर) ब्रिटेन, बेल्जियम, रूमानिया, स्वीडन तथा ऐसे ही कई देशों में हिंदी अध्यापन की व्यवस्था है। जापान में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर तक हिंदी सीखने की व्यवस्था है। भारतीय आबादी वाले मॉरिशस फीजी ट्रिनिदाद, टीवागो और सूरीनामा जैसे देशों में स्कूल से लेकर कॉलेज तक हिंदी पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था है। यहाँ हिंदी भाषी लोगों का वर्चस्व है। कई पत्र-पत्रिकाएँ एवम् समाचार पत्र यहाँ से हिंदी में प्रकाशित होते हैं। रेडिओ पर कई घंटों तक के हिंदी कार्यक्रमो के प्रसारण की व्यवस्था इन देशो में है। खाड़ी के कई देशों में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई में हिंदी कार्यक्रमो के प्रसारण की व्यवस्था इन देशो में है। वास्तव में भारत राष्ट्र का विकास ये दो अलग बिंदु न होकर एक ही सिक्के के दो पहलू है। जैसे-जैसे राष्ट्र प्रगति करेगा वैसे-वैसे राष्ट्रभाषा का भी दायरा और दर्जा दोनों ही विकसित होते जायेंगे। ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक बनकर सामने आयेंगे।
पिछले 15-20 सालों की बात करें तो हम पायेंगे कि बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में हिन्दी राष्ट्र की प्रगति में कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़ी है। तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी के कई ऐसे साफ्टवेयर बनाये जा चुके हैं जिससे इंटरनेट और वेब की दुनियाँ में भी फाऊन्डेशन (पेनस्टेट), जीएनयू लिनक्स इन इंडिया, कोलेबरेटिव डेवलपमेंट ऑफ इंडियन लैंग्वेज टेकनालजी, भारतीय भाषा कनर्वटर, गेट टू होम: हिन्दी इंडियन स्क्रिप्ट्स इनपुट सिस्टम और आई राईट 32 जैसी तकनीक काफी कारगर साबित हो रही है। इन तकनीकों के कारण ही आज इंटरनेट पर हिंदी के बहुत से पोर्टल। वेबसाइट और ब्लाग्स उपलब्ध हैं। हंस, वागर्थ, तद््भव, हिंदी नेस्ट, अभिव्यक्ति, अनुभूति, सृजनगाथा, मीडिया विमर्श, हिंदी यूएसए, इबडम, इंद्रधनुष इंडिया, काव्यकोष और भारत दर्शन ऐसे ही कुछ पोर्टल और वेबसाइट हैं जिन्हें आप इंटरनेट की दुनियाँ पर कई `सोशल नेटवर्किन्ग साइट हैं। ऑर्कुट, अड्डा डॉट कॉम और आईबीबो कुछ ऐसी ही साईट्स के नाम हैं। इनपर पंजीकरण करने के बाद अपनी मनपसंद कम्युनिटी को बनाकर उससे पूरी दुनियाँ के लोगों को जोड़ सकते हैं। उनके साथ अपने - विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इन तमाम साईट्स पर संदेश भेजने और प्राप्त करने के लिए भाषा के रूप में हिंदी का विकल्प मौजूद है। हिन्दी से जुड़ी हजारों की संख्या में हिंदी की कम्युनिटीज भी हैं। हिन्दी साहित्य, हिन्दी पत्रिकाएँ, हिन्दी पप्राचार, हिन्दी के रचनाकार हिन्दी पी.एच.डी. स्टुडेंटस कम्युनिटी, चेन्नई के हिंदी भाषी, हिंदी लवर्स, हिंदी पप्राचार, हिन्दी के रचनाकार, हिन्दी सिनेमा, हिंदी कविता, हिंदी की कहानियाँ और आईआईटी में हिन्दी जैसी न जाने कितनी ही कम्युनिटीज से हजारो-लाखों लोग जुड़े हैं। वे आपस में हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और हिंदी के विकारा को लेकर घंटों संवाद करते हैं। जिस तरह इन तमाम सोशल कम्युटिंग वेबसाइट्स पर लोग अलग-अलग कम्युनिटीज के माध्यम से जुड़ रहे हैं ठीक उसी तरह से आजकल इंटरनेट पर उपलब्ध हिंदी से संबंधित कई `ब्लॉग' बने हुए हैं। ये ब्लॉग किसी खास विषय के आधार पर बनाये जाते हैं, और धीरे-धीरे इनसे पूरी दुनियाँ के लोग जुड़ते जाते हैं। अगर अज हम इंटरनेट पर उपलब्ध हिंदी के ब्लाग की बात करें तो इनकी संख्या हजारों में है। अभिव्यक्ति, अंगारे, अंतरजाल, अंतरिक्ष, अंतर्ध्वनि, अंतर्नाद, अक्षरग्राम, अनपढ़, अनुवाद, अपना कोना, आईना, आदिवासी, चिंतन, चौपाल, बेबाक, बात पते की, पलाश, भारतीय सिनेमा, नुक्कड, पहला पन्ना, शब्दयात्रा और शब्दायन ऐसे ही कुछ हिंदी `ब्लॉग' के नाम हैं। हिंदी का यह तकनीकी स्वरूप इसकी प्रगति के एक नये आयाम का प्रतीक है। इन ब्लॉग के माध्यम से इनके `ओनर' अच्छा खासा पैसा भी कमाते हैं। उदाहरण के तौर पर टेक्नोस्पॉट डॉट नेट' ब्लाग से जुड़े ओन? आशीष मोहटो एवम् मानव मिश्र ने मुझे बताया कि गूगल या इस तरह की तमाम सर्च मशीन पर लोग विज्ञापन के लिए संपर्क करते हैं। एक निर्धारित धनराशि, निर्धारित समय के लिए इन `सर्च मशीनों' को विज्ञापन दाता दे देते हैं। फिर ये सर्च मशीनस संबंधित विज्ञापन से जुड़े ब्लॉगस पर वह विज्ञापन उपलब्ध करा देती है। अपना कमिशन काँट करके विज्ञापनदाता द्वारा दी गई राशि का बड़ा हिस्सा उन ब्लागर्स को दे दी जाती है जिनका ब्लॉग संबंधित विज्ञापन के लिए इस्तमाल किया गया हो। अब अगर किसी हिंदी पुस्तक विक्रेता, प्रकाशक, रचनाकार, वेबओनर को अपना विज्ञापन देना है तो वह हिंदी ब्लागर्स में ही किसी को चुनेगा। इस तरह हिंदी में तकनीकी प्रगति के साथ आय के नए तरीके भी सामने आ रहे है। हाल ही में हैदराबाद के गुगल ऑफिस में `गुगल ब्लागर्स' की एक मिटिंग हुई। इस मिटिंग से आये `टेक्नो स्पॉट डॉट नेट' के ओनर श्रीमान आशीष मेहतो एवम मानव मिश्र ने बताया कि सिर्फ गूगल के हिंदी ब्लागर्स की सालाना आय करोड़ों में होगी। सामान्य रूप से हर ब्लाग्स का ओनर जो महिने में 30 से 35 घंटे के लिए देखा जाता है वह 25 से 200 डालर तक कमायी कर सकता है। इसतरह स्पष्ट है कि तकनीकी विकास से हिंदी भाषा का विकास राष्ट्र का विकास और रोजगार के नए स्वरूपों का परिचायक है। कई बार हमें समाचार पत्रों एवम् मीडिया चैतलों से इसी तकनीक के गलत उपयोग का पता चलता है। पर सिक्के के दो पहलू तो होते ही हैं। यह बहुत कुछ हमपर भी निर्भर करता है कि हम किस दिशा में और कैसे आगे बढ़े।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में प्रयोजनमूलक हिंदी, कार्यालयीन शब्दावली तकनीकी शब्दावली और ऐसे ही अन्य शब्दकोशों का भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इनसे न केवल हिंदी भाषा समृद्ध हुई बल्कि हिंदी में काम-काज की कई तकनीकी समस्याओं का समाधान भी हुआ। सन 1964 में कलकत्ता के राष्ट्रीय ग्रंथालय से 2190 भारतीय भाषाओं के कोशों की सूची प्रकाशित की जा चुकी है। इस सूची में हिन्दी के प्रकाशित कोशों का जिक्र है। यह संख्या किसी भी अन्य भाषा के प्रकाशित शब्दकोशों की तुलना में अधिक हैं। यह स्थिति 1964 की रही। आज की हम बात करें तो हिंदी में प्रकाशित शब्दकोशों की अनुमानित संख्या एक हजार से भी अधिक है। जिनमें कई थिसारस, इन्साइक्लोपीडिया, पर्यायवाची शब्दकोश, मुहावरे और लोकोक्ति कोश शामिल हैं। कृषि ज्ञानकोष, मानविकी पारिभाषिक कोश, समाजशास्त्रीय विश्वकोश भौगोलिक शब्दकोश भाषा-विज्ञान कोश, हिन्दी कथा कोश, हिन्दी साहित्य कोश, प्रासंगिक कथा कोश, प्राचीन चरित्र कोश, पुराण संदर्भ कोश, और इनसे भी बढ़कर साहित्यकार विशेष के साहित्य पर आधारित कई कोश प्रकाशित हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर हरदेव बाहरी का प्रसाद साहित्य कोश। इनके अतिरिक्त हिन्दी बोलियों के कोश और हिन्दी से अन्य भाषा के कोशो की संख्या काफी है। इन सब शब्दकोशों को अगर एक करके देखा जाय तो हिंदी से संबंधि शब्दकोशो के आगे दुनियाँ की काई भाषा नहीं टिकती। इसतरह इन प्रकाशित हो रहे हिंदी के शब्दकोशों के माध्यम से हमें हिन्दी भाषा के विशाल व्याप्ति क्षेत्र और इसके प्रचार-प्रसार में हो रहे कार्यो का एक संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है।
आज विदेशी पूँजीगत निवेश भारत में बढ़ रहा है। इस मामले में इसने अबतक के सभी पूर्व रिकार्डो को तोड़ दिया। समाष्टिगत आर्थिक नातियों की स्थिति आशावादी है। विदेशी पूँजी के साथ इस देश की सभ्यता-संस्कृति-भाषा और वेश-भूषा के भी बाज़ार अपने तरीके से अपना रहा है। इसके परिणाम कितने अच्छे या बुरे होंगे यह अभी से कहना जल्दबाजी होगी। पर यह सच्चाई अवश्य है कि बाज़ार की ताकत ने इन सभी को नए तरीके और नए स्वरुप से ऑकना शुरु किया है। टीवी पर इन दिनों जीएमआर नाम एक विज्ञापन काफी आकर्षक है। विज्ञापन में दिखाया जाता है कि घर में बैठे माँ-बाप ईश्वर से इस बात की प्रार्थना कर रहे हैं कि उनके बच्चे को यू.एस.ए. का वीजा मिल जाय तो उसकी जिंदगी बन जायेगी। पर वह बेटा थोड़ी देर में नाचता-कूदता हुआ घर के अंदर आता है और कहता है कि मुझे वीजा नहीं मिला। दरअसल वह यह बतलाना चाहता है कि अच्छी कमाई कर सकते है। ये सारी स्थितियाँ भारत की बदलती हुई तस्वीर को समझने में हमारी मदद करती हैं। निजी क्षेत्र के साथ स्पर्धा के कारण सरकारी संस्थान, बिमा और बैंक भी सभी आधुनिक सुविधाओं को अपने ग्राहकों तक पहुँचाने के लिए अपने मूलभूत ढाँचे में आमूलचूक परिवर्तन ला रहे हैं। अब बैंक `हर मोड़ पर साथ' निभाने की बात करते हुए इसे `रिश्तों की जमापूँजी मानने लगे हैं।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी पता चलता है कि हिंदी भाषा और राष्ट्र के विकास के साथ-साथ साहित्य और समाज का संबंध भी प्रगाढ़ हो रहा है। `साहित्य और समाज की नई चुनौतियाँ' नामक अपने एक लेख में प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर लिखते हैं कि, ``साहित्य और समाज का संबंध इधर बहुत प्रगाढ़ हुआ है। हिन्दी भाषा के विकास के साथ पठन-पाठन को बहुत बढ़ावा मिल रहा है। साहित्य की स्वीकृत विधाओं के अलावां अन्य क्षेत्रों और विधाओं को लेकर जो लेखन शुरू हुआ है वह महत्त्वपूर्ण है। ... साहित्य को हम केवल कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि तक सीमित नहीं रख सकते। अलग-अलग अनुशासनों में जो लेखन सामने आया है, वह साहित्य का ही हिस्सा है और उसी का विकास भी। उदाहरण के तौर पर पेट्रोलियम संस्थाओं की पत्रिकाएँ जिस तरह के वैज्ञानिक साहित्य को सरलतम भाषा में प्रस्तुत करती है वह अत्यंत उपयोगी और सार्थक है। उसी तरह वित्तीय संस्थाएँ भी अपना काम हिंदी में करना शुरु कर चुकी हैं। यहाँ तक कि संस्कृति मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अंतर्गत विदेशो में जो काम हिंदी में शुरू हुआ है, वह बेहद सर्जनात्मक और उसपर ध्यान दिया जाना चाहिए।'' इसेक अतिरिक्त कमलेश्वरजी ने प्रवासी भारतियों के हिंदी साहित्य, आदिवासी क्षेत्र से आ रहे लोकधर्मी साहित्य के साथ-साथ दलित साहित्य को बहुमूल्य माना है। कमलेश्वर जी की बातों से स्पष्ट है कि 21 वी शती में साहित्य और समाज का संबंध प्रगाढ़ हो रहा है। इससे साहित्य और भाषा का विकास तो हो ही रहा है साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय की नई लड़ाई, नई चिंताएँ हमारे सामने आ रही हैं। स्त्री-विमर्श से संबंधि आधुनिक साहित्य में ये चिंताएँ हमे विस्तार में दिखायी पड़ती हैं। इसतरह राष्ट्रभाषा हिन्दी का विकास नई सामाजिक और आर्थिक लड़ाई को भी प्रमुखता दे सामने ला रहा है।
भारतीय बाजार में भाषा के रूप में सबसे बड़ी ताकत हिन्दी की ही है। हिन्दी ज्यादा से ज्यादा भारतीय उपभोक्ताओं की संवेदना से जुड़ी हुई है। बाजार इन संवेदनाओं के रास्ते से ही लाभ का मार्ग प्रशस्त करता है। भारतीय बाज़ार में लाभ कमाने का एक माध्यम हिंदी है। यह हिंदी और हिंदीवालों दोनों के लिए सुखद स्थिति है। भारतीय बाज़ार में निवेशकों का विश्वास बढ़ा है। मध्यम वर्गीय व्यक्ति भी मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से आर्थिक निवेश की स्थितियों को लेकर जागरूक हुआ है। यह बदलती हुई आम आदमी की धारणा का ही परिणाम है कि भारत का पहला सम्पूर्ण हिंदी अखबार `बिजनेस स्टैडर्ड' नाम से प्रकाशित होने लगा है। यहाँ पर भी समझनेवाली बात यह है कि अखबार हिंदी का पर नाम `बिज़नेस स्टैन्डर्ड''। अब कुछ लोग इसकी भी आलोचना कर सकते हैं पर मेरे हिसाब से यह नाम बिलकुल उपयुक्त है। क्योंकि बिज़नेस और स्टैंडर्ड जैसे शब्द अब सिर्फ अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि बाज़ार के शबद बन गये हैं। भारत के गाँव देहात का अनपढ़ किसान भी बिज़नेस का अर्थ खूब समझता है। गॉवों में गरीब किसानों की सहायतार्थ जारी किये गये किसान क्रेडिट कार्डो के दम पर किसान खुद शाहुकारी वाली भूमिका निभाने लगे। इनसे उन्हें कितना लाभ हुआ इसकी तो कोई जानकारी मेरे पास नहीं पर, उनके इस व्यवहार से उनकी `बिजनेस' में दिलचस्पी जरूर समझी जा सकती है। इलेक्ट्रानिक मीड़िया में सीएनबीसी आवाज जैसे चैनल आर्थिक मामलों को ही लेकर चल रहे हैं। उनकी टी.आर.पी. किसी भी अन्य समाचार चैनल के मुकाबले कमज़ोर नहीं है। बाज़ार का यह विकास हिंदी के एक नये भाषायी स्वरुप को सामने ला रहा है। यह हिंदी भाषा ही है जो आम भारतीय उपभोक्ता को बाज़ार से जोड़कर उसकी प्रगति में अपना योगदान दे रही है। `बिजनेस स्टैंडर्ड' अखबार अपने विज्ञापन में कहता भी है कि, ``मैं व्यापार की गति को प्रगति देता हँू। मैं हिंदी हँू'' स्पष्ट है कि हिन्दी भारतीय आर्थिक विकास में अहम भूमिका में है। जो इसकी ताकत को नहीं समझेगा वह बाज़ार में ताकतवर नहीं बन पायेगा।
समग्र रूप में हम कह सकते है कि भारत राष्ट्र इस 21वीं शती में प्रगति के नित नये आयामों को पार कर रहा है। राष्ट्र की प्रगति के साथ-साथ आज हिंदी की व्याप्ति का क्षेत्र भी बढ़ रहा है। न केवल इसकी व्याप्ति का क्षेत्र बढ़ रहा है अपितु यह विकास की प्रक्रिया में व्यापाक स्तर पर सहभागी भी है। बाज़ार में आर्थिक मजबूती के साथ-साथ हिंदी का बोलबाला बढ़ा है। बदलते हुए आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी राष्ट्रीय प्रगति के साथ कदम ताल कर रही है। आशा एवम पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा एवम् राजभाषा के रूप में अपनी मंजिल हो पायेगी ही साथ ही साथ राष्ट्रीय विकास में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती रहेगी।
संदर्भ ग्रंथ :-
1. भारतीय रिजर्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट 2003-04 आर.बी.आय.
2. भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति एवम् प्रगति संबंधी रिपोर्ट 2006-07 आर.बी.आय.
3. चैलेन्जज ऑफ इंडियन बैंकिंग - जाधव
4. मनी, बैंकिंग, इंटरनेशनल ट्रेड एण्ड पब्लिक फाइनंस - डी. एम. मिथानी
5. अन्डरस्टैंडिंग लैन्गुएज ऐज़ कम्युनिकेशन - टी. पाण्डेय
6. भाषा और समाज - रामविलास शर्मा
7. भूमंडलीकरण, निजीकरण व हिन्दी - डॉ. माणिक मृगेश
8. जनसंपर्क और विज्ञापन - डॉ. निशांत सिंह
9. राजभाषा सहायिका - अवधेश मोहन गुप्त
10. भाषा त्रैमासिक (विश्व हिंदी सम्मेलन अंक) - के.हि.वि./75/2000
11. बया पत्रिका - प्रथम अंक (दिल्ली)
12. हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग - 56 वॉ अधिवेशन विवरण पुस्तिका
13. लेंग्वेज टेकनॉलजी डेवलपमेन्ट ऑफ इंडिया - डॉ. ओम विकास
14. ग्लोबल डिफ्युजन ऑफ द इंटरनेट - पीटर वॉलकॉट, सिमूर गुडमैन
15. ग्लोबलाइजेशन एण्ड द इंटरनेट : अ रिसर्च रिपोर्ट - रोहिताश्व चट्टोपाध्याय

डॉ मनीषकुमार मिश्रा
असोसिएट – IIAS शिमला एवं
प्रभारी – हिंदी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण- महाराष्ट्र
EMAIL- manishmuntazir@gmail.com
BLOG- www.onlinehindijournal.blogspot.in
 — at Kalyan(w).

उज़्बेकी कोक समसा / समोसा

 यह है कोक समसा/ समोसा। इसमें हरी सब्जी भरी होती है और इसे तंदूर में सेकते हैं। मसाला और मिर्च बिलकुल नहीं होता, इसलिए मैंने शेंगदाने और मिर...