Friday 7 May 2010

हवाओं से बात करता रहा मैं /

हवाओं से बात करता रहा मैं ;

आखें बिछा रखी थी राहों में ,

आसमान ताकता रहा मैं ;

कान तरसते रहे चन्द बोल उनके सुने ,

काटों बीच खुसबू तलाशता रहा मैं ;

सुबह फिजाओं से हाल उनका पूंछा ,

भोर की किरणों में उनको पुकारता रहा मैं /

हवाओं से बात करता रहा मैं ;

Thursday 6 May 2010

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,

खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए ,

इंतजार अब भी है उसको की वो पलट आएगा ,

क्या जानता था वो की उसका प्यार बदल जायेगा /

दबी हुई आशाओं से अब लड़ पड़ता है वो ;

क्या पता था की निराशाओं से ना लड़ पायेगा /

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,
खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए ,

उस दिल को कभी मोहब्बत सिखाया था उसने ,

उस हंसी के इश्क से दिल के हर कोने को सजाया था उसने ;

उस गुदाज बदन को कभी भावों से संवारा था उसने ,

क्या जानता था वो अनजान बन यूँ ही निकल जायेगा ,

क्या जानता था उसके दिल में पत्थर भी बसाया था उसने ;

झुके कंधे आँखों में आंसू लिए ,

खड़ा एक कोने में चेहरे पे उदासी लिए /

अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य

अमरकांत का प्रकीर्ण साहित्य :-
      अमरकांत ने गंभीर कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त कुछ बाल साहित्य तथा प्रौढ नवसाक्षर लोगों के लिए भी कुछ छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं। उन्हीं में से कुछ का हम यहाँ संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे।
1) झगरू लाल का फैसला :-
      'कृतिकार` प्रकाशन द्वारा 1997 में प्रकाशित 23 पृष्ठों की यह पुस्तक बढ़ती जनसंख्या की समस्या को लेकर लिखी गयी है। यह पुस्तक कराड़ों साधारण लोगों के बीच परिवार कल्याण की योजनाओं को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से लिखी गयी है।
      इसमें झगरू और मगरूलाल नामक दो भाईयों की कहानी है जो पिता की मृत्यु के उपरांत अलग हो जाते हैं। झगरू अपना परिवार बढ़ाता जाता है जिसके कारण आर्थिक संकटों में फसा रहता है। मगरू और उसकी पत्नी परिवार नियोजन के उपयों को अपनाते हैं और दो से अधिक बच्चे नहीं होने देते। इस कारण वे झगरू की अपेक्षा अधिक अच्छा जीवन यापन करते हैं।
      पुस्तक का संदेश यही है कि हमें अपने परिवार को छोटा रखना चाहिए तथा लड़के लड़की के बीच कोई भेद नहीं मानना चाहिए।
2) सुग्गी चाची का गाँव :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा यह लघु उपन्यास 1998 में प्रकाशित हुआ। 23 पृष्ठों का यह लघु उपन्यास अशिक्षा और अंधविश्वासों के विरूद्ध चलाए गए संघर्ष व आंदोलन की कथा है। ग्रामीण पाठकों के लिए मुख्य रूप से लिखा गया यह लघु उपन्यास अतिशय संक्षिप्त एवम् सरल भाषा में हैं। 
      इस लघु उपन्यास के केन्द्र में सुग्गी चाची हैं जो एक छोटे से गाँव में रहती हैं। पर उस गाँव में सुविधाओं का अभाव है। सुग्गी चाची गाँव में स्कूल और अस्पताल खुलवाने के लिए प्रयत्न करती हैं। पहले लोग उनका साथ नहीं देते पर धीरे-धीरे लोग सुग्गी चाची के बात समझते हैं और उनके प्रयास में उनका साथ देते हैं।
3) खूँटा में दाल है :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा सन् 1991 में प्रकाशित यह 32 पृष्ठों का एक लघु बाल उपन्यास है। इसमें एक छोटी सी चिड़िया के संघर्ष की कहानी को बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
      इस पुस्तक में 'धीरा` नाम की एक चिड़िया की कहानी है। जो दाल का एक दाना खूँटे मंे रखकर खाना चाहती थी कि खूँटा व दाल हड़प लेता है। धीरा ने बढ़ई से खूँटे की शिकायत की, बढ़ई की शिकायत राजा से और राजा की शिकायत रानी से की। रानी ने भी उसकी बात नहीं मानी। फिर धीरा ने रानी की शिकायत साँप से और साँप की शिकायत लाठी से की।
      इस पर भी धीरा का काम नहीं बना। पर उसने हिम्मत नहीं हारी। लाठी की शिकायत आग से, आग की समुद्र से और समुद्र की शिकायत उसने हाथी से की। इस पर भी जब काम न बना तो उसने हाथी की शिकायत जाल और जाल की शिकायत चूहे से की। चूहे ने धीरा के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए उसकी मदद की।
      इस तरह अंत में चिड़िया को उसकी दाल मिल जाती है। इस लघु बाल उपन्यास का संदेश यही है कि हमें हिम्मत न हाते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए।
4) एक स्त्री का सफर :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा ही सन 1996 में प्रकाशित 22 पृष्ठों की यह पुस्तक अशिक्षा, अंधविश्वास और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में होने वाले भयंकर रोगों के प्रति हमें सजग बनाते हुए भविष्य के प्रति हमें आशान्वित भी करती हैं।
      इस पुस्तक में सरोस्ती नामक एक विकलाँग स्त्री की कहानी है। बचपन में वह पोलियो का शिकार हो गयी थी। उसे अपनी विकलाँगता के कारण कई बार अपमानित भी होना पड़ा था। पर उसने पढ़ने का निर्णय लिया और पढ़कर शिक्षिका बन गई। उसने अपना सारा जीवन औरतों की शिक्षा एवम् विकास में लगाने का प्रण किया था।
      इस तरह इस पुस्तक के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि शिक्षा ग्रहण करके हर कोई अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। स्वावलंबी बनकर, समाज में प्रतिष्ठा के साथ जीवन यापन कर सकता है।
5) वानर सेना :-
      'कृतिकार प्रकाशन` द्वारा यह बाल उपन्यास 1992 में प्रकाशित हुआ। यह 32 पृष्ठों का है। सन 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन` के दौरान बलिया के बच्चों ने भी वानर सेना बनाकर इस लड़ाई मे हिस्सा लिया। उसी का रोचक वर्णन इस लघु बाल उपन्यास में है।
      कहानी मुंशी अम्बिका प्रसाद के लड़के केदार से शुरू होती है। उसके बड़े भाई निर्मल की एक पुस्तक उसने चोरी से पढ़ी। वह गाँधी जी की आत्मकथा थी। केदार इससे बहुत प्रभावित हुआ और उनकी तरह बनने की ठान लेता है।
      अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर वह छोटा सा पुस्तकालय शुरू करवाता है। स्कूल में हड़ताल करवाने में अहम भूमिका निभाता है। शहर में पोस्टर चिपकाता है। इसी तरह के कई कार्यो का वर्णन इस लघु बाल उपन्यास में है।
      इस बाल उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बलिया के छोटे-छोटे बच्चों द्वारा किये गये क्रांतिकारी कार्यो का वर्णन किया है।
      इसी तरह की कई अन्य पुस्तकें भी अमरकांत ने लिखी है। बाल साहित्य का हिस्सा होते हुए भी ये बड़ी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। खासकर तब जब कोई अमरकांत के संपूर्ण रचनात्मक व्यक्तित्व की पड़ताल करना चाहता हो। 'वानर सेना` को पढ़कर यह आसानी से समझा जा सकता है कि 'इन्हीं हथियारों से` जैसा उपन्यास लिखने की प्रेरणा बीज रूप में अमरकांत के मन मंे बहुत पहले से ही था। 'वानर सेना` और 'इन्हीं हथियारों से` की पृष्ठभूमि में बलिया का वही आंदोलन है।
      इस तरह समग्र रूप से अमरकांत की कहानियों, उपन्यासों, संस्मरण और प्रकीर्ण साहित्य को देखने के पश्चात हम कह सकते हैं कि अमरकांत का रचना साहित्य बहुत बड़ा है। वे अभी तक लगातार अपने रचना संसार को बढ़ाने में लगे हैं।
      अमरकांत का साहित्य अपने समय का जीवंत दस्तावेज है। उनकी कहानियाँ उन्हें प्रेमचंद के समकक्ष प्रतिष्ठित करती हैं तो 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यास महाकाव्यात्मक गरिमा से युक्त हैं। 'सुरंग` जैसे उपन्यास समाज के परिवर्तन के साथ आग बढ़ने की प्रेरणा से युक्त हैं। 'आकाश पक्षी` जैसे उपन्यास बदलती सामाजिक व्यवस्था में होनेवाले परिवर्तन का बड़ा ही गंभीर और सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत करते हैं।
      समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत का पूरा साहित्य हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर है। विशेष तौर पर आजादी के बाद के देश के सबसे बड़े वर्ग ''निम्न मध्यमवर्गीय समाज`` के जीवन में निहित सपनों, दुखों, परिवर्तनों और प्रगति की सूक्ष्म विवेचना अमरकांत के साहित्य में मिलती है। अमरकांत का साहित्य इन्हीं संदर्भो में 'भारतीय` है और यथार्थ की जमीन से जुड़ा हुआ है।

कुछ यादें कुछ बातें/amerkant

कुछ यादें कुछ बातें :-
      कहानियों एवम् उपन्यासों के अतिरिक्त अमरकांत द्वारा लिखी गयी यह एकमात्र संस्मरणात्मक पुस्तक है। 147 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन 'राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.` द्वारा सन् 2005 में हुआ।
      इस पुस्तक में अमरकांत में कई साक्षात्कारों, समय-समय पर छपे आलेखों एवम् संस्मरणों को संकलित किया गया है। अमरकांत के व्यक्तित्व एवम् साहित्यिक यात्रा को समझने में यह पुस्तक बड़ी ही सहायक है। इसमें अमरकांत के बचपन से लेकर सफल साहित्यकार बनने तक की सारी बातों का बड़े ही रोचक तरीके से वर्णन किया गया है।
      इसके अतिरिक्त रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द गुप्त, अमृतराय, रांगेय राघव, नामवर सिंह, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, डॉ. जगदीश गुप्त जैसे कई साहित्यकारों एवम् समीक्षकों से अपनी मुलाकातों का जिक्र अमरकांत ने विस्तार के साथ किया है। साथ ही साथ इनमें से कइयों के साहित्य एवम् विचारधारा के संदर्भ में अपना अभिमत भी अमरकांत ने व्यक्त किया है।
      साहित्य, समाज, राजनीति आदि विषयों पर अमरकांत के विचारों से अवगत होने में यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। ऐसे विषयों पर अमरकांत ने कुछ कहने से अक्सर ही अपने को बचाया है। जो कुछ कहा भी है वह कही एक जगह संग्रहित रूप से मिलना मुश्किल था। पर इस पुस्तक ने इस मुश्किल को समाप्त कर दिया।
      समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि 'कुछ यादें कुछ बातें` अमरकांत के विचारों एवम् उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने में बड़ी उपयोगी है।

लहरें -अमरकांत का नया उपन्यास /amerkant

लहरें -अमरकांत का नया उपन्यास  :-
      अमरकांत का यह उपन्यास अभी पुस्तकाकार रूप में नहीं छपा है। इसका प्रकाशन कादम्बिनी पत्रिका के उपहार अंक-1 में अक्तूबर, 2005 में प्रकाशित हुआ। लेकिन यह उपन्यास, अमरकांत की कथा यात्रा का एक प्रमुख एवम् महत्वपूर्ण पड़ाव है। अत: अमरकांत के उपन्यासों की चर्चा मंे 'लहरें ` की चर्चा बड़ी आवश्यक है।
      इस उपन्यास के संदर्भ में अमरकांत स्वयं लिखते हैं कि, ''इस दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवम् संपूरक हैं। उनके मेल से ही एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं सहभागिता जरूरी है परंतु आज के भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की प्राप्तियाँ वांछित अनुपात से बहुत ही कम हैं, अत: दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ में अमूमन स्त्रियों के विरूद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीड़न, अन्याय तथा हिंसा है।............ कुछ बातें तो मैंने उस समय देखी या सुनी थीं, जब मेरी उम्र बीस वर्ष भी नहीं थी। ....... वर्षो पहले 1995 में भीष्म साहनी का एक पत्र पाकर मैंने इसी समस्या पर एक लंबी कहानी लिखने की कोशिश की थी किंतु सफलता नहीं मिली। अब उक्त कथा लघु उपन्यास के रूप में प्रस्तुत है। नारी-पुरूष संबंधों के अनेक रूप एवम् आयाम हैं, जिन पर लेखक लोग लिखते ही रहते हैं। यह एक रचनात्मक कृति है और इसमें नारी-पुरूष संबंधों के कुछ रूप तथा नारी समाज के आंदोजित मन की एक झलक प्रतिबिंबित है।``43
स्त्री विमर्श की चर्चा आज जोरों पे है। ऐसे में यह उपन्यास समय के साथ अमरकांत की कदमताल का प्रतीक है। वे एक सजग साहित्यकार है। स्त्री के शोषण एवम् उसके अधिकारों को लेकर वे लगातार लिखते रहे हैं। 'सुरंग` भी इसी लेखन की एक अगली कड़ी है।
      'लहरें ` बच्ची देवी नामक एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसका विवाह श्यामा प्रसाद नामक एक नौकरी पेशा पढ़े लिखे व्यक्ति से होती है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता चलता है। लेकिन शादी के बाद जब श्यामा प्रसाद को पता चलता है कि उसकी पत्नी निपट गवार, भुच्चड़, भुख्खड़ और सिर्फ दो कक्षा तक पढ़ी है तो वह गुस्से में उसे माँ-बाप के पास ही छोड़कर शहर चला आता है। उसके पिता उसे समझाने की पूरी कोशिश करते हैं पर वह किसी की एक नहीं सुनता।
      श्यामा प्रसाद को शादी के पहले बताया गया था कि बच्ची देवी पढ़ी लिखी, सुंदर और संस्कारों वाली लड़की है। पर विवाह के बाद उसे समझ में आ जाता है कि उससे झूठ बोला गया था। अत: वह अपनी पत्नी को गाँव छोड़कर शहर में रहने लगा था। पर एक दिन उसे अपने पिताजी का पत्र मिलता है। पत्र में उन्होंने लिखा था कि अब वे अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं। वे अब बच्ची देवी का खयाल नहीं रख सकते। अत: वह आकर अपनी पत्नी को अपने साथ ले जाये। फिर भले ही उसे शहर लाकर मार डाले। इस पत्र को पढ़कर श्यामा प्रसाद को पिताजी पर दया आयी और वह अपनी पत्नी को अपने साथ गाँव से शहर लेकर आया।
      बच्ची देवी के आ जाने पर उसके मोहल्ले की स्त्रियाँ उससे मिलने को आतुर हो उठती हैं। कारण यह था कि श्यामा प्रसाद अभी तक अकेले रहते थे, तो मोहल्ले की औरतों को घूरना, अजीब तरह से इशारे करना आदि ऐसी ही बातों के कारण वे स्त्रियों के बीच चर्चा का विषय रहते थे। अब जब उनकी पत्नी आ जाती है तो सब स्त्रियाँ यह जानने को उत्साहित हो जाती है कि ऐसे आवारा और झैला बनकर घूमने वाले व्यक्ति की स्त्री आखिर कैसी है?
      धीरे-धीरे मोहल्ले भर के लोगों को पता चल जाता है कि श्यामा प्रसाद की औरत निपट गवार है और श्यामा प्रसाद हमेशा उसे डॉटता ही रहता है। बच्ची देवी की जान पहचान धीरे-धीरे मोहल्ले की सुमित्रा, सरोजबाला और विमला जैसी स्त्रियों से हो जाता है। सुमित्रा जब बच्ची देवी से मिलती है और उसकी बातें सुनती है तो उसे यह एहसास हो जाता है कि ग्रामीण समाज में स्त्रियों की दशा कितनी दयनीय है। उनका कितना शोषण होता है। वे अपने को कितना दीन-हीन और गिरा हुआ समझती हैं। जब बच्ची देवी कहती है कि, ''ए बहिनी, छोड़ो इन बातों को.... सच तो यह है, मर्द चाहे जैसा हो, स्त्री का भरण-पोषण तो उसी से होता है। मर्द से ही तो स्त्री की जिनगी है, मर्द ही उसका सहारा है, उसकी इज्जत है। न होने से तो अच्छा है शराबी, रंडीबाज, ऐवी, अंधा, कोढ़ी, लूला कोई भी मर्द हो।....``44 तो सुमित्रा जी की आँखों से भी आँसू गिरने लगते हैं।
      सुमित्रा उसे खूब समझाती है। मोहल्ले की स्त्रियों द्वारा बनायी गयी मंडली में आने के लिए कहती हैं। पढ़ने-लिखने, कपड़े पहनने और खाना किस तरह परोसना चाहिए जैसी सभी बातें उसे सिखाती हैं। बच्ची देवी भी पूरा मन लगारक सब सीखती है। वह अपने आप को बदलने की कोशिश करने लगती है। परिणाम स्वरूप उसका उठना-बैठना, बात-व्यवहार सब बदलने लगता है।
      पर श्यामा प्रसाद को अपनी पत्नी का यह बदला हुआ रूप बिलकुल पसंद नहीं आता है। जब उसे यह मालूम पड़ता है कि उसकी पत्नी पढ़ना और सिलाई का काम सीख रही है तो वह गुस्से से लाल हो जाता है। वह बच्ची देवी को घर से बाहर निकाल देता है। जब मोहल्ले की औरतों को यह पता चलता है कि बच्ची देवी के साथ श्यामा प्रसाद ने अन्याय किया है तो वे सब बच्ची देवी को साथ लेकर श्यामा प्रसाद पहुँँचती हैं।
      लेकिन बिस्तर पर पड़े श्यामा प्रसाद की हालत देखकर वे डर जाती हैं। डाक्टर बुलाये जाते हैं। पता चलता है कि उन्हें हल्का दिल का दौरा पड़ा था। धीरे-धीरे श्यामा प्रसाद की हालत में सुधार होता है। उनका व्यवहार बच्ची देवी के प्रति नरम एवम् सामान्य है। पर बच्ची देवी के मन में एक डर बना रहता है कि कहीं पूरी तरह ठीक हो जाने के बाद श्यामा प्रसाद पुन: अपना 'मर्दानापन` न दिखाने लगा। अमरकांत का यह उपन्यास बच्ची देवी के मन में निहित आशंका के साथ ही समाप्त हो जाता है।
      अमरकांत का यह उपन्यास जिन संदर्भो में नया है वह यह कि पहली बार अमरकांत का कोई पात्र बदलाव की प्रक्रिया से जुड़कर अपनी स्थिति को बदलने की चेेष्टा करता हुआ दिखायी पड़ रहा है। 'बच्ची देवी` ऐसी ही एक पात्र है। अन्यथा अमरकांत के बारे में अक्सर यह कहा गया कि, ''जीवन के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत के एक रूपी कथानकों ने शुरू में देना शुरू किया था, वह अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा लगने लगा है।``45
      अमरकांत का यह उपन्यास निश्चित तौर पर स्त्रियों के स्वावलंबन और समाज में पुरूषों के बराबर अधिकार की वकालत करते हुए उन्हें संगठित रूप से अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा प्रदान करता है। इस उपन्यास का शीर्षक 'लहरें स्त्रियों को जीवन में अशिक्षा, गरीबी, परावलंबन और शोषण रूपी अंधेरे के बीच से शिक्षा, संगठन, अधिकार, स्वावलंबन और आत्मसम्मान की सुरंग से निकलते हुए समाज अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने के लिए प्रेरित करता सा मालूम पड़ता हैं।
 

सुन्नर पांडे की पतोह / amerkant

सुन्नर पांडे की पतोह :-
      112 पृष्ठों का यह छोटा सा उपन्यास सन् 2005 में 'राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.` द्वारा प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास अपने पति द्वारा परिव्यक्त राजलक्ष्मी नामक स्त्री की कहानी है जो अपने ही ससुर की बुरी नीयत को ताड़कर घर छोड़कर निकल जाती है। घर से बाहर निकलकर वह समाज के नर-भेडियों से न केवल अपनी इज्जत की रक्षा करती है बल्कि कुछ ऐसे कार्य भी करती है जो उसके जैसी समाज की स्त्रियों के लिए एक सबक, एक प्रेरणा स्त्रोत का काम करता है।
      रविवार दिनांक 27 नवंबर 1988 को 'जनसत्ता` में अमरकांत का एक साक्षात्कार छपा। उनसे यह साक्षात्कार कुमुद शर्मा ने लिया था। इस साक्षात्कार में उन्होंने बतलाया कि, ''जीवन की कई घटनाओं को देखने-सुनने से ही इस रचना को लिखने की प्रेरणा हुई थी। कभी एक कहानी लिखी थी 'सुहागिन` नाम से जो छपी नहीं। छपने के लिए कहीं भेजी ही नहीं। बाद में सोचा कि इस पर विस्तार से लिखना ठीक होगा। इसमें एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अशिक्षित है, जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है। लेकिन वह बिना सहारे के अपनी जिंदगी काट देती है। वह काफी संवेदनशील और संघर्षशील स्त्री है। उसे उपयुक्त परिवेश मिला होता तो एक अधिक क्षमतावान स्त्री के रूप में उसका विकास हो सकता था।``38
      यह पूछे जाने पर कि इस उपन्यास के पीछे उनकी मानवीय, सामाजिक और राजनीतिक चिंता क्या है? तो अमरकांत कहते हैं कि, ''समाज में स्त्रियां जो विडंबनापूर्ण जीवन व्यतीत कर रही हैं, उसी से संबंधित रचना है। हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि नारी की क्षमताओं को पूरी अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती। जिस सामाजिक परिवेश और मान्यताओं में वह जीती है, उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं में वह जीती है, उसकी तात्कालिक जिंदगी और उसकी क्षमताओं के बीच काफी चौड़ी खाई नजर आती है। इसलिए वह समाज में कारगर भूमिका अदा नहीं कर पाती। उसका सारा जीवन नारी जीवन की व्यर्थता की ओर ही संकेत करता है। इस तरीके से आप सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को भी समझ सकते हैं कि यह कितनी पिछड़ी हुई है।``39
      अमरकांत के उपर्युक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि वे सामाजिक मान्यताओं और स्त्रियों की क्षमताओं के बीच निहित खाई से अच्छी तरह परचित हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और स्त्रित्व की रक्षा में ही उसका सारा श्रम लग जाता है। ऐसी ही स्त्री की जिजीविषाओं का लेखा-जोखा अमरकांत ने इस उपन्यास 'सुन्नर पांडे की पतोह` के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
      राजलक्ष्मी का विवाह झुल्लन पांडे से होता है। पर सास यह नहीं चाहती कि राजलक्ष्मी और झुल्लन के बीच पति-पत्नी जैसे घनिष्ठ संबंध इतने जल्दी बने। वह इन दोनों के प्रेम के बीच दीवार की तरह खड़ी हो जाती है। माता के इस तरह के व्यवहार और घरेलू परिस्थितियों से तंग आकर आखिर एक दिन झुल्लन घर छोड़ कर कहीं चला जाता है।
      सास अतिराजी का व्यवहार राजलक्ष्मी के प्रति हमेशा ही कठोर रहा। उसका मन में राजलक्ष्मी के प्रति इतनी घृणा भरी रहती है कि यह अपने पति सुन्नर पांडे को उकसाती है कि वह राजलक्ष्मी के साथ सोने जाये। वह सुन्नर पांडे से कहती है कि, ''आप जाइए न - कहने पर दरवाजा खोल देगी। पता नहीं कौन-कौन तो आते रहते हैं दिन रात। मैं कहाँ तक देखती रहूँगी? जाइए, जाइए - अभी जवान है - आसानी से गोद में आ जाएगी - जाइए, उठिए।..... मैं क्या कहूँगी - मैं तो उसकी जवानी मिट्टी में मिला देना चाहती हूँ।``40
      अतिराजी की बातों से स्पष्ट है कि वह राजलक्ष्मी को बिलकुल पसंद नहीं करती है। कारण यह था कि उसने अतिराजी की इच्छा के विरूद्ध अपने पति से संबंध बनाये और माँ बनी। हलाँकि उसका बच्चा कुछ दिनों बाद मर जाता है। सास-ससुर की बातें सुनकर राजलक्ष्मी का खून खौल जाता है। वह उनके सामने आकर कहती है कि, ''मैं आप दोनों की बातें सुन चुकी हूँ। मैं नहीं जानती थी कि आप लोग इतना गिर जाएँगे। पर मैं कहे देती हूँ - मुझमें सती का तेज है। जिनके हाथों में मैंने अपना हाथ दिया था, उन्हीं के लिए मैं अभी जिन्दा हूँ। मैं अपने तेज से आप दोनों को भस्म कर सकती हूँ। और कुछ नहीं तो मैं अपनी जान दे सकती हूँ।``41
      इस तरह मन में असीम पीड़ा के साथ सुन्नर पांडे की पतोह घर छोड़ देती है और अनजानी-अनदेखी राह पर निकल देती है। निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में निहित अभाव, आक्रोश, पीड़ा, दीनता और पारिवारिक परिस्थितियों के चित्रण में अमरकांत को महारत हासिल है। यह उपन्यास भी इसी का एक सुंदर उदाहरण है। जीवन की सच्चाई को पूरी ईमानदारी से चित्रित करते हुए अमरकांत कभी-कभी अक्सर खुद बड़ी जड़ स्थिति पैदा कर देते हैं। इसलिए उनकी कई कहानियों और उपन्यासों को पढ़ते समय अक्सर यह लगता है कि कथानक कुछ अलग होता है तो अधिक अच्छा होता। पर ऐसा सोचते समय हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि अमरकांत जीवन को जीवन में रहते हुए ही चित्रित करना पसंद करते हैं। कहानी को कलात्मक रूप से सजाना अच्छा है पर सिर्फ सजावट में यथार्थ की बुनियाद से उखड़ जाना उन्हें पसंद नहीं है।
      अमरकांत के संदर्भ में मार्कण्डेय जी लिखते हैं कि, ''अमरकांत उन्हीं लेखकों में से एक हैं, जो निकट के छूटे हुए जीवन की ओर बार-बार लौटते हैं, इसलिए जहाँ उनकी उचनाओं के चरित्र समसामयिक मालूम होते हैं, वहीं इस बात का भी संकेत देते हैं कि लेखक की चेतना में इन चरित्रों के बाद एक खालीपन आना शुरू हो गया है। जीवन के संबंध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का जो आभास अमरकांत के एक रूपी कथानकों ने शुरू में देना शुरू किया था, वह अब एक तरह से ठहरा हुआ अनुभव-बोध-सा लगने लगा है।``42
      मार्कण्डेय ने यह बात बहुत पहले लिखी है। पर अमरकांत के पूरे साहित्य पर हम आज भी नजर डालें तो यह बात सही ही लगती है। उनकी यह 'अपरिवर्तनशील दृष्टि` ही सही अर्थो में उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। यहाँ 'अपरिवर्तन` किसी ठहराव का प्रतीक न होकर लेखक की अपने समाज, साहित्य और लेखन के प्रति की गई प्रतिबद्धता का प्रतीक है। बहुत संभव है कि 'सुन्नर पांडे की पतोह` राजलक्ष्मी अपना घर छोड़ने के बाद कभी न कभी किसी अच्छे पुरूष का स्नेह व आसरा पाकर अपनी गृहस्थी फिर से बसा लेती। या फिर जीवन की सच्चाई को स्वीकार करते हुए अपनी देह को ही अपने जीवन यापन का सबसे सशक्त हथियार बनाती। लेकिन अमरकांत के यहाँ यह संभव नहीं है। उनके पात्र सिर्फ रचना की गुणवत्ता के लिए अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करते। वे वैसे ही जीवन को स्वीकार करते हैं और संघर्ष करते हैं।
      समग्र रूप से अमरकांत के इस उपन्यास के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि इस उपन्यास के माध्यम से वे निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की विडम्बनाओं, उनकी सामाजिक राजनीतिए एवम् आर्थिक स्थिति के बीच परिव्यक्त स्त्री के जीवन, संघर्ष को पूरी सहजता और मार्मिकता के साथ चित्रित करते हैं। स्त्री संघर्ष से जुड़ा यह उपन्यास एक छोटी परिधि का बड़ा उपन्यास है। क्योंकि अपने छोटे से कथानक के दायरे में इस उपन्यास ने समाज में व्याप्त कई बुनियादी सवालों को उठाने की कोशिश की है। 
 

अमरकांत का उपन्यास -इन्हीं हथियारों से

  अमरकांत का उपन्यास -इन्हीं हथियारों  से 
      'राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.` द्वारा सन् 2003 में प्रकाशित 536 पृष्ठों का यह उपन्यास, अमरकांत द्वारा लिखे गए अब तक के उपन्यासों में सबसे बडा है। साथ ही साथ इसका कथानक भी बाकी उपन्यासों से बिलकुल अलग है। 'सूखा पत्ता` के बाद अमरकांत के जिस उपन्यास की चर्चा सबसे ज्यादा हुई वह 'इन्हीं हथियारों से` है।
      उपन्यास के आरंभ में उपन्यास के बारे में बताते हुए अमरकांत लिखते हैं कि, ''यह रचना उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से जनपद पर केंन्द्रित स्वाधीनता आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। सन् 1942 ई. में 'भारत छोड़ो` जनक्रान्ति के दौरान कुछ दिनों के लिए बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था। गाँवों में पंचायत सरकारें कायम हुई थी। परन्तु, यह ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है, बल्कि उस आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों के निजी अनुभवों, ऐतिहासिक घटनाओं तथा बयालिस से लेकर स्वतंत्रता- प्राप्ति तक के समय की एक यथार्थवादी परिकल्पना है। वस्तुत: बलिया के बहाने, एक कल्पित कथा द्वारा इस ऐतिहासिक जमाने का स्मरण किया गया है, जब देश की जनता ने स्वाधीनता के लिए विदेशी हुकूमत के विरूद्ध बगावत का झंडा उठाते हुए जबरदस्त संघर्ष किया, जनगिनत कुर्बानियाँ दीं और भयंकर दमन का सामना किया।``31
      अमरकांत का यह उपन्यास 'साक्षात्कार` नामक पत्रिका में 'आँधी` शीर्षक से धारावाहिक रूप मंे छप चुकी है। बाद में अपने मित्र कवि अमरनाथ श्रीवास्तव के आग्रह एवम् सहयोग से अमरकांत ने इसका शीर्षक बदल कर 'इन्हीं हथियारों से` शीर्षक के साथ इसे उपन्यास रूप में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया। इस तरह यह उपन्यास 2003 में पाठकों के लिए पुस्तकाकार रूप में सामने आ सका।
      इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद समीक्षकों के बीच यह चर्चा का विषय बना रहा। वेदप्रकाश जी इस उपन्यास के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''पिछले दिनों इतिहास और निकट अतीत को आधार बनाकर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं। अमरकांत का नया उपन्यास 'इन्ही हथियारों से` सन 42 के भारत छोड़ो आन्दोलन पर केन्द्रित है। लेकिन इस केन्द्र के समानान्तर और भी कई उपकेन्द्र हैं जो इस उपन्यास को बहुआयामी, बहुरसात्मक और स्वाधीनता की कामना को ठोस तथा जीवन्त बनाते हैं। इसमें स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्रता, जीवन के विविध हिस्सों से अलग-ओढ़ी हुई नहीं है, साक्षात परिदृश्य है,.....।``32
      निश्चित तौर पर वेद प्रकाश जी की उपर्युक्त बात एकदम सही है क्योंकि इस उपन्यास को पढ़ते हुए इसके बहुआयामी स्वरूप और इसके विशाल परिदृश्य से पाठक अवगत हो जाता है। सामान्य तौर पर इतने बड़े उपन्यास के केन्द्र मंे कोई बड़ा नायक होता है और बाकी सभी पात्र, घटनाएँ एवम् उपकथाएँ मुख्य कथा के साथ नाटकीय रूप में जुड़ती चली जाती हैं। लेकिन इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने बलिया जिले का एक 'कोलाज़` प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न किया है। वहाँ के लोग, उनकी सोच, उनका रहन-सहन ये सब इस उपन्यास का हिस्सा है। बलिया का प्राकृतिक वर्णन करने में भी अमरकांत पीछे नहीं रहे हैं। अमरकांत खुद बलिया जिले के हैं। इसलिए यहाँ से उनका आत्मीय लगाव होना स्वाभाविक भी है। अपने और बलिया के संबंधों को अमरकांत ने इस उपन्यास में बड़े ही कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। निश्चित तौर पर यह उनके रूचि का विषय रहा इसलिए जिसके वर्णन में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी।
      इस उपन्यास के बडे हो जाने के कारणों में शायद एक कारण यह भी रहा हो। वैसे इतना मोटा उपन्यास लिखने के पीछे एक और सच्चाई भी है, जिसे अमरकांत बड़ी सहजता से बतलाते है। साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बतलाया कि जब यह 'साक्षात्कार` में धारावाहिक रूप में छप रहा था तो हर अंक के लिए एक निश्चित धन राशि अमरकांत को मिल जाया करती थी। आर्थिक परेशानियों के बीच यह मदद अमरकांत के लिए बड़ी बात थी। कुछ यह भी कारण रहा कि यह उपन्यास इतना मोटा बना। इस तरह लेखक की रूचि और 'जरूरत` दोनों कारणों के एक साथ मिल जाने के कारण यह उपन्यास इतना मोटा हो गया। अन्यथा अमरकांत के इसके पहले के लिखे गए कोई भी उपन्यास 200-250 पृष्ठों से अधिक नहीं है।
      इस उपन्यास की खूबियों की चर्चा करते हुए वेद प्रकाश जी लिखते हैं कि, ''.... 'इन्हीं हथियारों से` एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है। प्रेमचंद के बाद इस तरह के उपन्यास कम ही लिखे गए हैं। जीवन की भव्यता को कोई एक पुस्तक जितना समेट सकती है, उतना यह उपन्यास समेटता है।..... इस उपन्यास में भी सम्पूर्ण युग का व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुआ है। व्यास और महाभारत एक युग की देन थे, अमरकांत और उनका यह उपन्यास दूसरे युग की देन हैं। क्या हमारे युग का महाकाव्य ऐसा ही नहीं होगा?``33 वेद प्रकाश जी एक उपन्यास को महाकाव्यात्मक गौरव वाला माना है। साथ ही साथ उन्होंने एक प्रश्न भी किया है कि आखिर हमारे युगा का महाकाव्य ऐसा नहीं तो कैसा होगा? निश्चित तौर पर यह प्रश्न अमरकांत के साहित्य को लेकर पुन: एक नये विमर्श की तरफ इशारा कर रहा है।
      यह उपन्यास खुद अमरकांत की अपनी सीमाओं को तोड़ता सा दिखायी पड़ता है। उनकी कहानियों एम् अन्य उपन्यासों को लेकर समीक्षक अक्सर एक बात बड़ी आसानी से कह जाते थे कि अमरकांत चूँकि 'मोहभंग` के कथाकार है इसलिए उनके सभी पात्र हमेशा गहरी निराशा और 'करूण काईयॉपन` से ग्रस्त रहे हैं। लेकिन इस उपन्यास की स्थिति भिन्न है। ''इस उपन्यास में निराशा और मोहभंग नहीं, जीवन में भरपूर आस्था, उत्साह, आशा तथा भविष्य की एक कल्पना है जिसका आधार है - साधारण जनता का ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध संयुक्त प्रतिरोध। इस कृति में आशा और आस्था के पीछे स्वाधीनता आन्दोलन है जबकि कहानियों की पृष्ठभूमि में स्वातंत्रोत्तर भारत की विसंगत जीवन-स्थितियाँ।``
      अमरकांत के रचनात्मक साहित्य पर गिरिराज किशोर जी लिखते हैं कि, ''रचनात्मक लेखन के संदर्भ में एक और बात मुख्य हैं वह है प्राथमिकताओं का निर्धारण। प्राथमिकता निर्धारण करते समय लेखक के सामने मुख्य बात उसके युग का संघर्ष है। अनुभव और तत्कालीन मानव मूल्यों के बीच से उभरने वाला संघर्ष! ऐतिहासिक परिवेश और समकालीनता के बीच स्थापित होने वाला वह बारीक रिश्ता जो कभी नजरअंदाज हो जाता है। लेखक की ऐतिहासिकता की समझ इस प्राथमिकता को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।..... लेखक बनने की यह भी एक अनिवार्य शर्त है कि वह मानवीय मूल्यों के संदर्भ में अपने युग की सामाजिकता और आर्थिक ऐतिहासिकता का भी विश्लेषण करे।``35
      यद्यापि गिरिराज जी का उपर्युक्त वक्तव्य अमरकांत के संपूर्ण रचनात्मक साहित्य को लेकर किया गया है। पर यह 'इन्हीं हथियारों से` के संदर्भ अधिक सटीक प्रतीत होता है। बलिया के लोग पेचकस, लाठी, पुरानी साइकल, भोंपू, पलाश और ड़डा लेकर अंग्रेजों की बंदुकों का सामना करने निकल पड़ते हैं। दलित, मजदूर, बच्चे औरतें, व्यापारी, मुसलमान और वेश्याएँ भी इस आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए आतुर दिखायी पडती हैं।
      इस उपन्यास के माध्यम से अमरकांत ने एक कोशिश यह भी की है कि इतिहास में गाँधी का मूल्यांकन नए सिरे से होना चाहिए। यह अमरकांत की नई और अनोखी पहल है। खुद अमरकांत के शब्दों में ''...... मैंने उपन्यास लिखा 'इन्हीं हथियारों से` कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान बनने का समर्थन किया था, 42 के दिनों में। इस उपन्यास में मैंने कम्युनिस्ट पार्टी की इसी बिंदु पर आलोचना की है। उस समय कांग्रेसियों का ट्रेंड किधर जा रहा था? फिर उस दौर में कम्युनिस्टों की गतिविधियों पर और तरह से भी प्रश्नचिन्ह लगाये गये हैं। इन सारे बिंदुओं को मिस करते हुए भावुकता के आवेग में यह आरोप लगाना कि इस उपन्यास में गाँधी का महिमामण्डन है, सही नहीं है। साहित्य में लोकतंत्र विरोधी माहौल से मुझे बहुत रोष है। 'इन्हीं हथियारों से` में गाँधी को यथार्थपरक दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है। यथार्थ विरोधी दृष्टि से गाँधी की बुराई करना उतना ही बुरा है जितना कि उनका अकारण महिमामण्डन करना। गाँधी साम्राज्यवाद विरोध के महान स्तंभ थे। खादी चरखा द्वारा उन्होंने साम्राज्यवाद को भारी चुनौती दी थी। मैं गाँधीवादी नहीं हूँ, लेकिन मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि हमारे इतिहास में गाँधी की भूमिका का सही मूल्यांकन होना चाहिए जो अभी तक नहीं हुआ है।``36
      इस उपन्यास के संदर्भ में वेद प्रकाश जी के शब्दों में अंतिम रूप से यही कहा जा सकता है कि, ''..... यह उपन्यास लेखक की कहानियों की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। यह समकालीन राजनीति और व्यवस्था से नैतिकता और ईमानदारी की माँग करता है। समकालीन भ्रष्टाचार तथा अमानवीयता पर गहरी चोट करता है। अमरकांत की कहानियों को एक निरंतरता देता है। लगता है जैसे उनका सारा साहित्य मिलकर विसंगति का विशाल बिम्ब निर्मित कर रहा हो।``३७



1.Amarkant's Inhin Hathiyaron Se - (Hindi)

इन्हीं    हथियारों  से  



2.Amarkant's Aakash Pakshi - (Hindi)

आकाश  पक्षी 



3.Amarkant's Sookha Patta - (Hindi)

सूखा  पत्ता 



4.Amarkant's Sunnar Pandey Ki Patoh - (Hindi)

सुन्नर  पाण्डेय  की  पतोह 



5.Amarkant's Inhin Hathiyaron Se - (Hindi)

इन्हीं हथियारों  से  





7.Amarkant's Ek Dhani Vayakti Ka Bayan - (Hindi)

एक  धनी  व्यक्ति का  बयां  



8.Amarkant's Pratinidhi Kahaniyan : Amarkant - (Hindi)

प्रतिनिधि  कहानियां  : अमरकांत 



9.Amarkant's Beech Ki Deewar - (Hindi)

बीच  की दीवार  -



10.Amarkant's Gramsevika - (Hindi)

11.Amarkant's Katili Rah Ke Phool - (Hindi)

कटीली  रह  के  फूल  





14.Amarkant's Sunnar Pandey Ki Patoh - (Hindi)

सुन्नर  पाण्डेय  की  पतोह 

 


अमरकांत और निम्न मध्यमवर्गीय जीवन बोध

 अमरकांत और निम्न मध्यमवर्गीय जीवन बोध 
      अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से निम्न मध्यमवर्गीय समाज का चित्रण अधिक किया है। अमरकांत हमेशा अपने परिवेश से जुड़े रहे और वास्तविक जीवन में जो कुछ देखा, समझा उसी को अपने साहित्य का विषय बनाया। इसी संदर्भ में शेखर जोशी लिखते हैं कि, ''आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य की विडम्बना यह रही की घोर पारम्परिक व्यवस्था में रहते हुए भी अनेकों कथाकार आधुनिकता के जोश में महानगर के खण्डित पारिवारिक सम्बन्धों पर झूटी रचनाएँ करने लगे जबकि अमरकांत ने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके जैनुइन होने का रहस्य है।``24 शायद यही कारण है कि अमरकांत निम्न मध्यवमवर्गीय समाज के अंदर व्याप्त लाचारी, परेशानी, तंगी, स्वार्थ, आदर्श, मोहभंग, दीनता और मनोवैज्ञानिक मानसिक स्थितियों को इतनी गंभीरता के साथ चित्रित करने में सफल हुए। व्यंग्य, निरीहता, पीड़ा, शोषण, विसंगतियां, चालाकी, कुटिलता और मूर्खता तथा गवारूपन जैसी अनेकों बातों के चित्रण मे अमरकांत को महारत हासिल है।
      अमरकांत 'नई कहानी` के दौर के कथाकार हैं। लेकिन कई मायनों में अमरकांत अपने समकालीन साहित्यकारों से अलग थे। मधुरेश इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''उनके समकालीनों के बीच तब बहुतों को उनकी स्थिति बड़ी दयनीय लगी होगी और यह भी हो सकता है कि बहुतों को वह अपने समय से पीछे छूट जाते भी लगे हों - अपनी कहानियों की विषयवस्तु के चयन में ही नहीं, शिल्प-संचेतना और भाषा शैली की दृष्टि से भी। लेकिन एक तरह से अमरकांत का यह समय से पीछे छूट जाना ही उनका अपने समय से आगे बढ़ जाना था - कम से कम आज इसे प्रमाणित कर सकने में किसी किस्म की कोई दिक्कत पेश नहीं आनी चाहिए। अमरकांत जितनी सादालौही के साथ अपने आस-पास की जिन्दगी पर लिख रहे थे उसकी सादगी में ही उसकी सादी शक्ति छिपी थी।``25 स्पष्ट है कि अमरकांत ने जिस वर्ग विशेष को अपने कथा साहित्य का विषय बनाया, वह उनके परिवेश के सर्वथा अनुकूल था।
      अमरकांत के संदर्भ में राजेन्द्र यादव लिखते हैं कि, ''..... अमरकांत टुच्चे, दुष्ट और कमीने लोगों के मनोविज्ञान का मास्टर है। उनकी तर्कपद्धति, मानसिकता और व्यवहार को जितनी गहराई से अमरकांत जानता है, मेरे खयाल से हिन्दी का कोई दूसरा लेखक नहीं जानता।..... निम्न मध्यमवर्गीय दयनीयता, असफलता और असहायता के बीच, उस सबका हिस्सा बनते हुए उसने कहानियाँ लिखी हैं। आर्थिक रूप से विपन्न, आधी आढ़ने - आधी निचोड़ने वाले बुजुर्ग, छोटे क्लर्क या बेकार नवयुवक अमरकांत के प्रिय पात्र हैं; और अभाव किस तरह नैतिकता और संस्कारों को स्तर-स्तर तोड़ता है - उसका सशक्त अध्ययन क्षेत्र है।``26 स्पष्ट है कि अमरकांत ने निम्न मध्यवर्गीय समाज के मनोविज्ञान को बखूबी समझा और उसे अपने साहित्य का विषय भी बनाया।
      अमरकांत के उपन्यासों की बात करें तो कई ऐसे पात्र सामने आते हैं जिनके माध्यम से अमरकात ने निम्नमध्यवर्गीय समाज के जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया है। 'सूखा पत्ता`, 'सुखजीवी`, 'कँटीली राह के फूल` तथा 'बीच की दीवार` जैसे उपन्यासों में तो इस तरह का चित्रण न के बराबर है। पर 'ग्रामसेविका`, 'सुन्नर पांडे की पतोह`, 'आकाश पक्षी` और 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण जरूर है। मुख्य पात्र के रूप में न सही पर प्रसंगानुकूल पात्रों का चित्रण उनके पूरे सामाजिक परिवेश को पाठकों के मानस में जीवंत कर देता है।
      'ग्राम सेविका` उपन्यास मेें कई ऐसे निम्न मध्यवर्गीय पात्रों का जिक्र है जो अपनी अज्ञानता, रूढियों और अंधविश्वास के कारण दमयंती की बातों पर संदेह करते हुए उसके बारे में अनुचित बातें करते हैं। छकौड़ी की स्त्री, सुमिरनी दाई, भीम पासी, रमैनी, सहुकाइन कुछ ऐसे ही पात्र हैं जो आशंका से करे हैं। लेकिन जंगी अहिर, जमुना कुछ ऐसे पात्र हैं जो दमयंती की बातों पर विश्वास करते हुए उसके पति सहानुभूति का भाव रखते हैं।
      इस समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़ियों और अज्ञानता तथा भोलेपन को लेखक ने कई जगह दिखलाया है। जमुना को बच्चा होने पर उसके कमरे की हालत परंपराओं के नाम पर ऐसी कर दी गयी कि बच्ची बिमार हो गई। इसके बाद भी झाड़-फूँक कराने में सबने अधिक दिलचस्पी ली। मिसिराइन और झींगुर सोख टोना-टटका के लिए ही पूरे गाँव में मशहूर थे। इस समाज की आर्थिक विपन्नता का भी वर्णन अमरकांत कई संदर्भो में करते हैं। जैसे कि दमयंती के स्कूल में दोपहर के समय बच्चों को पाउडर का दूध दिया जाता था। ऐसे में, ''....उन लड़कों की मातायें भी, जो अपने लड़कों को स्कूल नहीं भेजती, उनको गिलास या कटोरा पकड़ा देती और उनको ठेल कर कहती, ''जा, दूध ले आ स्कूल से।`` ऐसे ही अनेकों प्रसंग अमरकांत ने इस उपन्यास में चित्रत किये हैं।
      'सुन्नर पांडे की पतोह` में दोमितलाल की सिफारिश करते हुए सुन्नर पांडे की पतोह कहती है कि, ''मालिक, दुखिया है, बड़ा सीधा-सादा है। मेहनत खूब करता है। बाप बड़ा ऐबी था, सब फूॅक-ताप गया। सन्तान भूखों मरने लगी। सूखा पड़ा तो यह अपने बड़े भाई के साथ शहर भाग आया। दोनों भाई मेहनत-मजूरी करते थे.... बाद में बड़े भाई ने इसको मारकर बाहर निकाल दिया.... बड़ा कंस है वेो....।``27 दोमितलाल जैसे ही कई अन्य निम्न मध्यमवर्गीय पात्र इस उपन्यास में हैं। सुनरी, दुबे ड्राइवर, बुधिया ऐसे ही पात्र हैं। मुख्य कथा के साथ इनकी कथाओं को जाड़ते हुए अमरकांत ने संक्षेप में ही इनके जीवन का परिचय दे दिया है।
      'आकाश पक्षी` उपन्यास की मुख्य कथा तो सामंती परंपराओं वाले राजा साहब से परिवार के पतन और हेमा तथा रवि के प्रेम की है। पर राजा साहब के विचार और निम्न वर्ग पर उनका रोब इस वर्ग की स्थिति को स्पष्ट करता है। हेमा का कहानी कि, ''हमारी रियासत में बड़े लोगों द्वारा गरीब लोगों को मारने-पीटने और सताने की घटनाऍ सदा होती रहती थीं। .... कुछ अन्य लोगों को छोड़कर शेष जनता भयंकर निर्धनता में जीवन व्यतीत करती थी। दोनों जून रोटी का प्रबंध करना उनके लिए कठिन हो जाता था। उसका कोई नहीं था - न ईश्वर और न खुदा। जो कुछ था, वह राजा ही था।``28 हेमा की बात में जिन लोगों का जिक्र है वे इसी दबे-कुचले निम्न मध्यवर्ग की तरफ ही इशारा करते हैं।
      'इन्हीं हथियारों से` अमरकांत का नवीनतम और महत्वपूर्ण उपन्यास है। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय बलिया में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था। बलिया को ही केन्द्र में रखकर लिखे गये इस उपन्यास में निम्न मध्यवर्गीय जीवन के कई चित्र प्रस्तुत हुए हैं। साथ ही साथ इस उपन्यास की जो सबसे खास बात है वह यह कि इस उपन्यास के निम्न मध्यवर्गीय और मध्यवर्गीय पात्र उस तरह की निराशा, हताशा और मोहभंग के शिकार नहीं हैं, जैसे की अमरकांत के कथा साहित्य के अधिकांश पात्र हैं। कारण यह है कि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि के आजादी का संकल्प है न कि आजादी के बाद का मोहभंग। यहॉ जीवन में भरपूर आशा, विश्वास, उत्तेजना और भविष्य को लेकर सुनहरे सपने हैं।
      उपन्यास के निम्न मध्यवर्गीय पात्रों में नफीस, हसीना चूड़ीहारिन, श्यामदासी, ढेला, गोपालराम, किसुनी चाट वाला, धनेसरी, किनरी, फूलनी, छकौड़ी, भोलाराम, चनरा, भीमल-बो भगजोगिनी और रामचरन प्रमुख है। दरअसल उपन्यास में कोई प्रमुख नायक या नायिका नहीं हैं। साथ ही साथ इसकी कोई एक केन्द्रिय कथा भी नहीं है। उपन्यास में कई पात्रों से जुड़ी हुई कथाएँ हैं। प्रेम, राजनीति, डाकू, सन्यासी, वेश्या, दलाल और स्कूल-कॉलेज में पढ़नेवाले भावुक लड़कों का उपन्यास में न केवल जिक्र है अपितु उनसे संबंधित कई छोटी-बड़ी कहानियाँ भी इस उपन्यास में मिलती हैं।
      उपन्यास में एक बात और स्पष्ट होती है कि अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय पात्र मध्यवर्गीय पात्रों की तुलना में अधिक कर्मशील और विचारों को लेकर दृढ़ दिखते हैं। इसी संदर्भ में वेदप्रकाश लिखते हैं कि, ''....अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय मानसिकता का भेद भी चित्रित किया है। यह भेद व्यक्त नहीं व्यंजित है। अधिकार मध्यवर्गीय पात्र उतने सकर्मक और स्पष्ट रूप से फैसला लेने वाले नहीं हैं जितने निम्नवर्गीय पात्र।``29 स्पष्ट है कि अमरकांत की दृष्टि निम्न मध्यवर्गीय समाज के साथ सिर्फ सहानुभूतिपूरक न होकर एक गहरी वैचारिक दृष्टि के कारण भी था।
      अमरकांत के उपन्यासों की अपेक्षा उनकी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्र अधिक उभर कर आया है। नौकर, जिंदगी और जोंक, दोपहर का भोजन, मूस, हत्यारे, बहादुर, निर्वासित, फर्क, कुहासा, लाखों और 'जाँच और बच्चे` जैसी कहानियों में उनकी संवेदनाएँ, सहानुभूति और इस वर्ग को लेकर उनका वैचारिक दृष्टिकोण एकदम साफ हो जाता है। अमरकांत की ये कहानियाँ बहुत चर्चित भी रही हैं और इनपर समीक्षकों की पर्याप्त समीक्षाएँ लिखी गई हैं।
      डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत 'कफन` की परम्परा के रचनाकार हैं। ....अमरकांत की कहानियाँ द्वंद्वात्मक दृष्टि से परस्पर विरोधी स्थितियों का समाहार कर पाने की शक्ति से रचित हैं। इसी अर्थ में वे 'कफन` की परम्परा में हैं। यह दृष्टि और शक्ति अमरकांत की अधिकांश कहानियों में सुलभ है।``30 अमरकांत की इस शक्ति का परिचय 'जिंदगी और जोंक` जैसी कहानियोें में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है। कहानी का पात्र 'रजुआ` जितना निरीह और जितनीय दयनीय स्थिति में जीता है उतना ही काइयाँ और वर्ग सुलभ व्यावहारिक गुणों से संपन्न है। वह छोटी जातियों के बीच अंधविश्वास, भूत प्रेत और ऐसी बातों का प्रचार करता है। खुद दाढ़ी बढ़ाकर शनीचरी देवी को जल चढ़ाता है, पगली को फुसलाकर अपने पास रखता है और अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
      अमरकांत अपने 'रजुआ` जैसे निम्न मध्यवर्गीय पात्रों के साथ तो सहानुभूति दिखलाते हैं पर उनकी परिस्थितियों के प्रति उतने ही निर्मम दिखायी पड़ते हैं। ''यह बात जिम्मेदारी के साथ कही जा सकती है कि जितनी वास्तविक और जटिलता के लिए निम्न और निम्न मध्यवर्गीय पात्रों की करूण स्थिति का चित्रण अमरकांत की कहानियों में मिलता है, उतना समकालीन कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है।``31 शायद यही कारण है कि अमरकांत को निम्न मध्यवर्गीय समाज का कहानीकार माना जाता है।
      'मूस` भी अमरकांत की चर्चित कहानियों में से एक है। कहानी का मुख्य पात्र 'मूस` ही है। जो उतना ही निरीह है जितना की 'रजुआ`। बल्कि कुछ संदर्भो में वह 'रजुआ` से भी अधिक दयनीय दिखायी पड़ता है। परबतिया के आगे उसकी एक नहीं चलती। परबतिया हर ढ़ंग से उसको अपने इशारे पर नचाती है। 'मुनरी` के साथ रहकर उसके अंदर के लिए भी तैयार हो जाता है। मुनरी किसी और के साथ घर बसाने के बाद भी मूस के प्रति भी मानव सुलभ रागात्मक भाव को बरकरार रखती है। अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय पात्रों में यहीं 'मानवीय दृष्टि` उनके मध्यवर्गीय पात्रों की अपेक्षा   कृत अधिक विस्तृत और स्पष्ट है।
      'दोपहर का भोजन` कहानी में अमरकांत ने जीवन में आर्थिक अभावों और उससे पनपती मानसिकता, व्यावहारिक द्वंद्व और यथार्थ से ऑखे मिलाने की जटीलता को दिखलाने का सफल प्रयास किया है। 'नौकर` और 'बहादुर` जैसी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय लोगों के प्रति मध्यवर्गीय मानसिकता स्पष्ट होती है। बात-बात पर गालियाँ देना, मारना-पीटना और हर बात के लिए इस वर्ग को शक की निगाह से देखना जैसे इस वर्ग विशेष के लिए ईश्वर द्वारा तॅय की गयी नियति हो।
      'हत्यारे` अमरकांत की कहानियों में एक विशेष स्थान रखती है। इसमें एक ऐसी मानसिकता की तरफ इशारा किया गया है जो धीरे-धीरे अति आत्मकेन्द्रित होती हुई पूरी तरह अमानवीय हो जाती है। कहानी के पात्र 'गोरा` और 'साँवले` ने वेश्या लड़की के साथ शारीरिक सुख पाने के बाद जब पैसे देने की बात आयी तो छुट्टा लगने के नाम पर भाग खड़े हुए। इतना ही नहीं जब उनका पीछा करने वाला व्यक्ति उनके बहुत करीब आ गया तो उसके पेट मे छूरा भोक दिया। यह कहानी एक साथ कई चित्र प्रस्तुत करती है। एक तरफ तो यह शक्तिहीन और अमानवीय समाज का कृरतम देहरा सामने लाती है तो दूसरी तरफ निम्न मध्यवर्गीय समाज की उस वेश्या लड़की की मानसिक अवस्था पर सोचने को मजबूर करती है जो अपना शरीर देने के बाद भी ढगी जाती है। उसकी निरीह स्थिति का आकलन दिमाग को झकझोर के रख देता है।
      'निर्वासित` कहानी का गंगू निम्न मध्यवर्गीय समाज का ही प्रतिनिधी है। बनिये के साथ वह पूरी ईमानदारी के साथ काम करता। लेकिन एक दिन जब गंगू ने अपने लिए कुछ पैसे माँग लिए तो बनिया आग बबूला हो गया। उसने गंगू से कहा, ''....इसीलिए कहा गया है कि नीचों के साथ एहसान नहीं करना चाहिए। देख, मैं सब कुछ जानता हूॅ। सच-सच बता, क्या तू सब्जी में पेसे नहीं मारता?.... तू अभी निकल जा यहॉ से।.... अगर तू अधिक टर्र-टर्र करेगा, तो पुलिस बुलाकर तुझे जेल भिजवा दूँगा। भाग यहाँ से....।``32 इस तरह निम्न मध्यवर्गीय समाज का व्यक्ति अपनी पूरी ईमानदारी और निष्ठा के बावजूद आरोप और शोषण का शिकार होता है।
      'कुहासा` भी इसी तरह की कहानी है। जहॉ 'दूबर` शहर में आकर अपनी आजीविका चलाना चाहता है। पर शहर के सफेदपोश दलाल ठंडी में ठिकुरकर उसे अपने प्राण त्यागने पड़ते हैं। यहॉ पर भी पात्र के प्रति सहानुभूति और उसकी परिस्थितियों के प्रति लेखक की निर्ममता स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ती है।
      'फर्क` कहानी समाज में व्याप्त उस मानसिक फर्क को स्पष्ट करती है जहाँ पर सारी सामाजिक नैतिकता और विचार बदल जाते हैं। यह बदलाव की नई तरह की सामाजिक बुराइयों का कारण भी है। मोहल्ले के एक छोटे-मोटे चोर को पकड़कर लोग बहुत मारते हैं। उसकी सारी सफाई, याचना और दुख मोहल्लेवालों को बनावटी लगता है। उसके कर्म को वे माफी के योग्य नहीं समझते। उसे पकड़कर, मारकर वे पुलिस के हवाले कर देते हैं। पर जब पुलिस थाने में 'मुखई डाकू` को देखते है तो उसकी बहादुरी और चरित्र का गुणगान करने लगते हैं। यदी वह फर्क है जो अमरकांत इस कहानी के माध्यम से दिखाना चाहता हैं।
      'लाखो` कहानी की मुख्य पात्र भी लाखों नामक स्त्री है। जिसे उसके घरवाले गंगास्थान के बहाने अनजान जगह छोड़कर चले जाते हैं। लाखो दुबारा अपने घर न जाने का निश्चय करते हुए चुनिया की विवाहिता के रूप में नया जीवन शुरू करती है। पर चुनिया की मृत्यु के बाद वह नौसा और उसकी पत्नी के आग्रह पर उनके साथ रहने लगती है। दोनों पति-पत्नी उसकी खूब सेवा करते हैं। पर जब वह बहकावे में आकर जमीन अपने भतीजे नौसा को लिख देती है तो फिर नौसा व उसकी पत्नी का व्यवहार उसके प्रति पूरी तरह बदल जाता है। उसे मारा-पीटा जाने लगता है और अंत में एक दिन उसकी लाश उन्हीं खतों में मिलती है जिन्हें अपना कहने का अधिकार लाखों खो चुकी थी।
      'जाँच और बच्चे` अमरकांत की नवीनत रचना है। अभाव ग्रस्त चनरी और चिरकुट की हालत ऐसी हो गई थी कि उन्हें माँगे भीख भी नहीं मिलती थी। अकाल के दिनों में उनकी हालत बड़ी दयनीय थी। वह खुद कहती है कि, ''....अब लोग लाठी लेकर दौड़ा लेते हैं, गाली देत ेहैं, 'हरामी` मर भुक्खे.... तुम्हारे पास पैसा हो तो ले जाओ.... नहीं तो भाग जाओ।``33 चिरकुट इस भुखमरी को सह नहीं पाता और मर जाता है। सरकारी अधिकारी यह जानना चाहते हैं कि चिरकुट कैसे मरा? चनरी कहती है कि, ''मौउवत आ गई थी, मालिक - काल ले गया।``34 इस तरह निम्न मध्यवर्गीय जीवन में निहित विवशता और निरिहता को अमरकांत चिरकुट और चनरी के माध्यम से सामने लाते हैं।
      अमरकांत के उपन्यासों और कुछ कहानियों की उपर्युक्त विवेचना के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से निम्न मध्यवर्गीय समाज का व्यापक, विस्तृत और गहरा चित्रण किया है। अपने निम्न मध्यवर्गीय समाज के साथ अमरकांत की पूरी सहानुभूति दिखायी पड़ती है। पर इनकी परिस्थितियों के चित्रण में अमरकांत एकदम निर्मम दिखायी पड़ते हैं। उनकी परिस्थितियों के प्रति निर्ममता ही पात्रों के प्रति सहानुभूति को और तीव्र कर देती है। अमरकांत के निम्न मध्यवर्गीय समाज के पात्रों की संवेदना और व्यवहार मध्यवर्गीय पात्रों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और मानवीय है। 
 

अमरकांत और आधुनिकता बोध / amerkant

अमरकांत और आधुनिकता बोध :-
      देश की स्वतंत्रता के साथ ही साथ देश का विभाजन हो गया। देश के बँटवारे के साथ भीषण साम्प्रदायिक दंगो ने हमारी राष्ट्रीयता की जड़े हिला दी। भुखमरी और अकाल की परिस्थितियों ने मानव मूल्यों को झकझोर दिया। देश की स्वतंत्रता के साथ देशवासियों ने बहुत से सपने सजोये थे। इन सपनों के टूटने से जो दुख, निराशा और आत्मग्लानि सामान्य जनता ने महसूस की उसे अपने कथासाहित्य के माध्यम से अमरकांत ने पाठकों के सामने लाया। अमरकांत 'नई कहानी` आंदोलन के कथाकार है। 'नयी कहानी` में जटिल जीवन यथार्थ की व्यापक स्वीकृति अभिव्यक्त हुई, इसके माध्यम से 'व्यक्ति-चेतना` को महत्व मिला। कोरी भावुकता धीरे-धीरे कहानियों से हटने लगी। इस 'नयी कहानी` के अंदर निहित नयेपन को बोध के धरातल पर 'आधुनिकता` से भी जोड़कर देखा जाता है। डॉ. रामचंद्र तिवारी इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''.... 'आधुनिकता बोध` जीवन के जटिल यथार्थ के अनेक स्तरों, भावस्थितियों, मनोदशाओं और अनुभव खंडों की एक समवेत संज्ञा है, जो गत्यात्मक और परिवर्तनशील है।``64
      यहाँ पर हमें यह भी समझना होगा कि यूरोप में द्वितीय माहयुद्ध के बाद जो एक नयी यांत्रिक सभ्यता उभरी और उसके दबाव में मूल्यों का जो बिखराव वहाँ के समाज में हुआ वह भारतीय परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न था। लेकिन इसका एक सामान्य रूप जरूर यहाँ के समाज को भी प्रभावित कर रहा था। जब हम अमरकांत के संदर्भ में 'आधुनिकता बोध` की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय आजादी के बाद लगातार बदलते सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश में सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं से जूझते जनमानस की मानसिक और व्यवहारिक स्थितियों के आकलन से है। समय के साथ समाज कहाँ तक बदल सका, नए मूल्यों को कहाँ तक आत्मसाथ कर पाया, ये तमाम बातें अमरकांत के कथासाहित्य के माध्यम से हम समझने का प्रयास करेंगे।
      अमरकांत के उपन्यास 'ग्राम सेविका` की दमयंती पढ़ी-लिखी स्त्री है। वह ग्रामसेविका के रूप मंे कार्य करते हुए गाँव की भलाई के लिए स्कूल खोलना चाहती है। पर उसे ग्रामीण लोग ताने मारते हैं। उसे गिरी हुई चरित्र की स्त्री समझते हैं। ये तमाम संदर्भ आजादी के बाद बदलाव की उस स्थिति को स्पष्ट करते हैं जहाँ सरकार पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास और शिक्षा प्रचार-प्रसार की नीति पर आगे बढ़ना चाह रही थी। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और जीवन शैली से समाज को जोड़ना चाह रही थी। पर समाज की सदियों से चली आ रही परंपराएँ, रूढियाँ और जातिगत बंधन इन सब के आड़े आ रहे थे।
      इसी तरह 'आकाश पक्षी` उपन्यास के राजा साहब आज़ादी के बाद रियासत विहीन हो जाते हैं। पर बदली हुई सामाजिक स्थिति को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें अब भी लगता है कि काँग्रेस शासन चला नहीं पायेगी और रियासत के दिन फिर लौटेंगे। हेमा की माँ को हेमा के शलवार-कमीज पहनने पर ऐतराज था। पर हेमा अपनी माँ की मानसिकता का समझती है। वह माँ के संबंध में कहती है कि, ''वे जिंदगी भर एक पिछड़ेपन की पुरानी लीक पर चलती रही। इसलिए किसी भी नयी बात को स्वीकार करना उनके लिए बहुत ही कठिन होता था। फिर पुरानी मान्यताओं को तोड़ना उस समय आसान होता है, जब हम शिक्षित हों, हमारा हृदय उन्मुक्त हो और जब हम दूसरों से मिलंे-जुलें। लेकिन जब हमारा हृदय अपनी ही सीमाओं को सब कुछ समझता हो तो किसी चीज को बदला नहीं जा सकता। अपने चारों ओर लक्ष्मण-रेखा खींचकर अपने घमंड और झूठी शान में डूबे रहना उस गड्ढे के पानी की तरह है, जिसका निकास कहीं नहीं होता और जो धीरे-धीरे सड़ता रहता है।``65
      ऐसा ही ठहराव 'सुरंग` लघु उपन्यास की पात्र बच्ची देवी के जीवन में था। लेकिन वह मोहल्ले की स्त्रियों के संपर्क में आकर लिखना-पढ़ना सीखते हुए अपने बात-व्यवहार में बदलाव लाती है। इस तरह शिक्षित और संगठित होकर बच्ची देवी बड़े ही सकारात्मक रूप सें अपने वांछित अधिकार के लिए लड़ती है।
      इसी तरह 'काले उजले दिन` का नायक अपने लिए पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों वाली पत्नी की कामना रखता है। पर उसकी पत्नी इसके विपरीत स्वभाव की होती है। यद्यपि वह अपने पति के प्रति समर्पित और सेवा-भाव करने वाली स्त्री थी, पर अपने पति के मनोनुकूल नहीं थी। इसी कारण उसका पति शादी के बाद भी रजनी की तरफ आकर्षित होता है और बाद में उससे विवाह भी कर लेता है। स्पष्ट है कि यहाँ नायक की पत्नी आधुनिक जीवन शैली को नहीं अपना पाती, इसी कारण उसे मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है।
      अमरकांत की कहानियों की बात करें तो 'कलाप्रेमी`, 'लड़का-लड़की`, 'उनका जाना और आना`, तथा 'चाँद` जैसी कई कहानियाँ हैं जहाँ आधुनिक समाज के रंग-ढंग और इसकी जीवन शैली के प्रति पात्रों में एक खास और स्पष्ट लगाव दिखायी पड़ता है। 'कलाप्रेमी` का सुमेर कामर्शियल आर्ट के महत्व को स्वीकार करते हुए मिसेज रंजन जैसे लोगों से जुड़ते हुए जीवन में आगे बढ़ रहा है। जब कि आदर्श और नैतिकता की दुहाई देनेवाला सुबोध भी अच्छा कलाकार है। पर वह आधुनिक और नए समाज की चाल में अपने को ढाल नहीं पाता, अत: वह गुमनाम है।
      'लड़का-लड़की` कहानी का चंदर तारा के सामने आदर्श, त्याग और प्रेम की बातें करता है। जब तारा उसके अनुरूप अपने को ढालते हुए पिता को भी सारी बातें बताकर विवाह के लिए उन्हें राजी करती है; तब चंदर विवाह से पीछे हटने लगता है। इस पर तारा उसे खूब जलील करती है उसकी किसी भी दया को नकार देती है। स्पष्ट है कि पढ़-लिखकर ही तारा स्थितियों को समझते हुए उस पर एक ठोस निर्णय ले पाती है। इसी तरह 'उनका जाना और आना` कहानी के गोपालदास के लड़के पढ़-लिखकर शहरों में बस गये हैं। अत: वे गाँव में आकर अपने बच्चों की शादी करने की बात को सिरे से नकार देते है। अत: जब गोपालदास जी ही विवाह में सम्मिलित होने शहर जाते हैं तो वे पूरे समारोह में अपने आप को अलग-अलग और 'अनचाहा` सा महसूस करते हैं। आधुनिक जीवन शैली और बदली हुई मानसिकता किस तरह संबंधों के नाजुक बंधन को ठेस पहुँचाती है, इसे इस कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है।
      'चाँद` कहानी के प्रदीप का मित्र अपने सामाजिक संबंधों की बदौलत ही शहर में खुद प्रतिष्ठित व्यक्ति के रूप में जाना-जाने लगा था। आधुनिक भौतिकवादी समाज में अवसरवादिता किस तरह प्रगति का एक माध्यम बन गई है, इसे इस कहानी द्वारा समझा जा सकता है। पक्षधरता कहानी की मोहिनी भी पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों की हिमायती स्त्री है। वह अनुचित बातों पर सबको झिड़कते हुए, ''यह वाहियात बात है। साथ ही साथ उसकी उपस्थिती में कोई भी औरत ऐसे कार्य नहीं कर सकती थी जो अक्सर ग्रामीण, अनपढ़ स्त्रियाँ करती है। जैसे कि, ''घर में कोई भी भदेसी भाषा नहीं बोल सकेगी। खाट पर बैठकर कोई नहीं खायेगी। सबके सामने बाल खोलकर जूँ कोई भी नहीं बिन सकेगी। बच्चे शोर नहीं मजायेंगे और नई बहू के कमरे में भीड़ नहीं लगायेंगे। दोपहर में गप्पबाजी नहीं हो सकेगी। मुहल्ले की बूढ़ी, खूसट चाचियों और दादियों को 'लिफ्ट` नहीं दी जायेगी।....।``67
      इस तरह समग्र रूप से हम कह सकते है कि अमरकांत के कथासाहित्य में कई ऐसे संदर्भ हैं जहाँ आधुनिक जीवन की सकारात्मक और नकारात्मक स्थितियाँ सामने आती हैं। समय के साथ बदलते हुए सामाजिक मूल्यों पर अमरकांत की पैनी दृष्टि सतत बनी हुई है। आधुनिक समाज की अवसरवादिता, आत्मकेन्द्रियता, भौतिकता और स्वार्थी मनोवृत्ति के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और प्रगति के अवसरों के बीच समाज की विकासशील स्थिति को भी अमरकांत चित्रित करते है। इस तरह सामाजिक बदलाव से जुड़े हर पक्ष पर विचार करते हुए अमरकांत किसी एकाकी स्वरूप को सामने लाने से बचते हैं। यह सारी स्थितियाँ अमरकांत की वैचारिक परिपक्वता को समझने में हमारी मदद करते हैं। 
 

अमरकांत के कथा साहित्य में नारी संबंधी दृष्टि/ amerkant

अमरकांत के कथा साहित्य में नारी संबंधी दृष्टि :-
      अमरकांत के लेखन का जो दायरा था वह निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की समस्याओं के आस-पास केन्द्रित रहा है। इस समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को अमरकांत ने व्यापक विस्तार के साथ चित्रित किया है। अमरकांत के कथासाहित्य में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, उनका शोषण, आर्थिक परिस्थितियों के दबाव में स्त्री-पुरूष संबंधों का बिखराव, प्रेम संबंधों में स्त्री की स्थिति और पवित्र संबेधों की आड़ में उसके शारीरिक शोषण जैसी बातों को देखा जा सकता है।
      आज़ादी के बाद समाज का मध्यमवर्ग काफी हद तक लड़कियों को पढ़ाने और नौकरी कराने जैसी स्थितियों को स्त्रीकार कर चुका था। पर ग्रामीण समाज में ऐसी स्थितियाँ उतनी व्यापक नहीं थी, जितनी की शहरों में। साथ ही साथ आधुनिकता और फैशन की चका चौंध से स्त्रियाँ दूर ही थी। आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में भी परंपरागत सामंती मानसिकता बरकरार थी। ऐसे में एक विचित्र सामाजिक स्थिति उत्पन्न हो गई थी। पुरूष पढ़-लिखकर अपने आप को आधुनिक समझने लगे थे। वे अपने लिए शहर की पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों वाली आदर्श नायिका की इच्छा रखते थे। जबकि उनकी पारिवारिक जड़े सुदूर ग्रामीण अंचलों में परंपराओं, आदर्शो और रूढ़ियों में जकड़ी थी। अपनी जड़ों से कटकर अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीने की हिम्मत पुरूष पात्रों में नहीं थी। वे शायद यही कारण है कि ये पात्र चोरी-छुपे प्रेम का प्रपंच तो फैलाते थे पर उसे सामाजिक मान्यता दिलाने की हिम्मत नहीं रखते थे। ऐसे में स्त्रियों को मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता था। प्रेम की पवित्र भावनाएँ झूठी लगने लगती। उनकी मानसिक स्थिति एकदम निरीह व्यक्ति की तरह हो जाती। वह अंदर ही अंदर घुटती, सारी सामाजिक मान्यताओं को दोषी मानती। पर इन सबको धता बताते हुए सामाजिक विद्रोह की तरफ वह भी आगे नहीं बढ़ पाती है। विशेषकर मध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों की यही स्थिति अमरकांत के कथा साहित्य में दिखायी पड़ती है। जब कि अमरकांत के निम्नवर्गीय महिला पात्र मध्यवर्गीय महिला पात्रों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट, तर्कसंगत और व्यवहारिक प्रतीत होती हैं। अमरकांत के उपन्यासों और कहानियों में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनके आधार पर उपर्युक्त विवेचन की पुष्टि की जा सकती है।
      अमरकांत के उपन्यास 'ग्राम सेविका` की दमयंती आर्थिक परेशानियों के चलते 'ग्राम सेविका` की नौकरी करती है। पर उसके इस कदम को गाँव की स्त्रियाँ आशंका की दृष्टि से देखती है। उसके ऊपर व्यंग्य बाण चलाते। दमयंती के बारे में औरतें कहती कि, ''....बाबा रे, किस तरह चलक कर चलती है! लाज-हया धोकर पी गयी है! मर्दों मे किस तरह मटक-मटक कर बोलती है! उस दिन बिलाक के अफसर आये थे तो बेशर्म की तरह न मालूम क्या गिटपिट-गिटपिट कर रही थी। पूरी आवारा है आवारा। सत्तर चूहे खाकर बिल्ली हुई भगतिन। धर्म नाशने आयी है मुंहजली।``55 ग्रामी स्त्रियों की इस तरह की बातों से स्पष्ट है कि उस समय स्त्रियों की शिक्षा से दूरी बनी थी। वे परंपरागत मान्यताओं के आधार पर ही जीवन यापन कर रही थी।
      गाँव के प्रधान दमयंती को बेटी कहकर संबोधित करते पर वे उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि, ''...स्त्री के दिल में कामना स्वयं नहीं जगती है, बल्कि वह जगाई जाती है। घोड़े की तरह स्त्री को भी वश में किया जाता है। जिसको घोड़े को वश में करने की कला आती है वही स्त्री को वश में कर सकता है। उसी में स्त्री खुश भी रहती है।``56 पासी टोला की सरस्वती पर प्रधान जी की नीयत खराब हुई थी। उसे पाने के लिए उन्होंने उसके पति को बुरी तरह पिटवाया। फिर उसके उपचार और हर तरह की मदद में सबसे आगे रहे। उस पर प्रधान जी ने बड़ा उपकार किया और बदले में ''एक रोज सरस्वती को अकेले में पकड़ लिया था। वह कुछ नहीं बोली थी। वह रोती हुई उनकी गोद में आ गिरी थी। उपकार बहुत बड़ी चीज है। संकट में उपकार का अस्त्र अचूक होता है।``57 इस तरह प्रधान जी जैसे पात्रों के माध्यम से अमरकांत ने मध्यमवर्गीय समाज के चारित्रिक और व्यावहारिक दोगलेपन को दिखाते हुए स्त्री के प्रति उसके दृष्टिकोण को भी व्यक्त करते हैं।
      अमरकांत के कथा साहित्य के मध्यमवर्गीय पात्रों में अधिकांश पात्र ऐसे हैं जो स्त्री के संदर्भ में एकदम आदर्शवादी और आधुनिक दिखायी पड़ते हैं। विशेष तौर पर पढ़े-लिखे युवा पात्र। 'आकाश पक्षी` उपन्यास का पात्र रवि कहता है कि, ''....जमाना तेजी से बदल रहा है। आप देख रही हैं आज औरतें अधिक से अधिक पढ़ रही है, ऊँचे-ऊँचे पदों पर काम कर रही हैं, भाषण दे रही हैं, कॉलेजऱ्यूनिवर्सिटियों में पढ़ा रही हैं। औरत-मर्द में कोई ऊँचा-नीचा थोड़े है? सभी बराबर हैं। जो काम मर्द कर सकते हैं और करते हैं, वही औरतें भी कर सकती हैं और करती हैं....।``58 यहाँ रवि के माध्यम से अमरकांत स्त्री संबंधी अपने प्रगतिशील विचारों को सामने रखते हैं। रवि आगे यह कहता है कि, ''....कुछ लोग शिक्षा का गलत अर्थ लगाकर सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। वे पढ़-लिख जाएँगे और अपनी योग्यता का झूठ-मूठ प्रदर्शन करेंगे, अपने समय को गलत कामों में बरबाद करेंगे। ऐसे लोग स्त्रियों और पुरूषों, दोनों में मिल जाएँगे। पर शिक्षा का यह मतलब कतई नहीं है। शिक्षा का मतलब है मेहनती बनना, दुनिया की हलचलों को जानना, उसमें हिस्सा लेना, अपने दोषों को दूर करना, पुरानी गलत बातों के खिलाफ संघर्ष करना। इसके बिना जीवन एकदम बेकार हो जाता है। अगर औरत पढ़ेगी तो निश्चित रूप से अपनी गृहस्थी को अच्छे ढंग से रखेगी, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देगी, उनको साहसी बनाएगी।``59 इस तरह के ही विचार अमरकांत के अधिकांश युवा नायकों के हैं। वे स्त्रियां को समान अवसर, शिक्षा और बराबरी का दर्जा दिये जाने की हिमायत करते हुए नजर आते हैं।
      इस तरह अमरकांत के कथा साहित्य में स्त्रियों संबंधी विचार दो संदर्भो में सामने आते हैं। एक उन पात्रों द्वारा जो युवा और पढ़े-लिखे हैं तथा स्त्रियों को भी समान अवसर, शिक्षा और समाज में बराबर का दर्जा देने की बात करते हैं। दूसरी तरफ वे पात्र हैं जो स्त्रियों का सिर्फ शोषण करना चाहते हैं। 'पलाश के फूल` कहानी के रायसाहब की दृष्टि में, 'स्त्री माया है!.... उसमें शैतान का वास होता है, वही भरमाता, चक्कर खिलाता ओर नकर के रास्ते पर ले जाता है।``60 रायसाहब ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि अँजोरिया के साथ लंबे समय तक शारीरिक संबंध स्थापित करने के बाद जब वह साथ रहने (रखेल के रूप में) की बात करती है तो रायसाहब को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर खतरा महशूस होने लगता है। 'मुक्ति` कहानी का मोहन कई वर्षो तक अपनी पत्नी को छोड़कर मधु के साथ संबंध बनाये रखता है। लेकिन ससुर की तरफ से मोटी रकम और जमीन का लालच मिलने के बाद वह मधु को पथ-भ्रष्ट औरत मानते हुए उससे अलग हो जाता है। 'महुआ` कहानी के अनिलेश का मानना था कि, ''....भव सागर में स्त्रियाँ मछलियाँ है और वह मछुआ! वह कहता था कि जाल डालने के लिए बुद्धि और अनुभव की आवश्यकता होती है, बुरे काम के लिए कोई भी स्त्री बुरी नहीं होती और परिश्रम वहीं करना चाहिए जहाँ सफलता की आशा हो। इसीलिए वह गरीब या मर्द शून्य कुटुम्बों, कमजोर पतियों की बीबियों तथा घरेलू अन्यायों से असन्तुष्ट युवतियों को ध्यान में रखकर योजनाएँ बनाता था।``61
      इस तरह स्पष्ट है कि अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों के जीवन से जुड़े हुए ऊनके पहलुओं की चर्चा अपने कथा साहित्य के माध्यम से करते हैं। उनके शोषण की कई विचित्र स्थितियों को भी सामने लाते हैं। जैसे कि 'सुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में सास का खुद अपने पति से अपनी ही बहू की आबरू लूटने की बात करना या फिर 'मूस` कहानी की परबतिया का अपने पति के लिए ही नई जवान औरत को घर में लाना। लेकिन जहाँ तक अमरकांत के स्त्री संबंधी दृष्टिकोण की बात है तो वह प्रगतिशील ही दिखायी पड़ती है। 'सुरंग` लघु उपन्यास में अमरकांत का यही दृष्टिकोण अधिक मुखरित होता है। अमरकांत लिखते हैं कि, ''इस दुनिया में स्त्री और पुरूष परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। वे बनावट और प्रकृति में भिन्न होते हुए भी परस्पर सहयोगी, सहभागी एवं संपूरक हैं। उनके मेल से ही एक संपूर्ण संसार बनता है और दूसरा नया संसार निर्मित होने की भूमिका तैयार होती है। स्पष्ट है कि किसी सामाजिक प्रगति या नये समाज के निर्माण में इनका परस्पर स्वैच्छिक, मनपसंद सहयोग एवं सहभागिता जरूरी है परंतु आज के भारतीय समाज में शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन, जनतांत्रिक अधिकार, सुरक्षा, न्याय आदि के मामलों में स्त्रियों की प्राप्तियाँ वांछित अनुपात से बहुत ही कम हैं, अत: दोनों के परस्पर संबंधों के संदर्भ में अमूमन स्त्रियों के विरूद्ध इतना असंतुलन, जोर-जबर्दस्ती, पाखंड, उत्पीडन, अन्याय तथा हिंसा है।``62
      स्पष्ट है कि अमरकांत महिलाओं के अधिकारों, सुरक्षा, न्याय, आर्थिक स्वावलंबन और स्वैच्छिक तथा मनपसंद सहभागिता की बात करते हुए 'स्त्री विमर्श` को लेकर चल रही विचारधारा में अपनी सशक्त उपस्थिती दर्ज करा रहे हैं। वैसे भी स्त्री विमर्श पुरूषों के समक्ष स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक समानता हेतु किये जा रहे आंदोलन का ही नाम है। परितोष बैनर्जी इस संबंध में लिखते हैं कि, '' 'नारीवाद` एक विशिष्ट मतवाद है जो इस सिद्धांत पर आधारित है कि स्त्रियों को इस पुरूष शासित समाज में निम्न स्थान दिया गया है और पुरूषों के साथ समान अधिकार एवं प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। अन्य शब्दों में, नारीवाद उस प्रवृत्ति का द्योतक है जो लिंग पर आधारित पारम्परिक शक्ति-व्यवस्था का पुनर्विन्यास चाहती है।``63 अमरकांत का यह लघु उपन्यास 'सुरंग` नारी मन के आंदोलित स्वरूप की झलक प्रस्तुत करता है। उपन्यास की पात्र 'बच्ची देवी` शिक्षा ग्रहण करते हुए, मोहल्ले की स्त्रियों की मदद से बड़े ही सकारात्मक रूप में अपने वांछित अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ती है।
      इस तरह समग्र रूप से अमरकांत के कथा साहित्य को देखते हुए हम कह सकते हैं कि अमरकांत का नारी संबंधी दृष्टिकोण प्रगतिशील है। वे स्त्रियों को समान अवसर, शिक्षा, सुरक्षा, न्याय, स्वैच्छिक सहभागिता और उनके आर्थिक स्वावलंबन के हिमायती हैं। वे स्त्री-पुरूष को परस्पर विरोधी प्रतिस्पर्धी नहीं मानते। वे दोनों को एक दूसरे का परस्पर सहयोगी, सहभागी एवं संपूरक मानते हैं। साथ ही साथ 'सुरंग` जैसे लघु उपन्यास के माध्यम से वे स्त्रियों के संगठित होकर अधिकारों के लिए लड़ने के भी पक्षधर दिखायी पड़ते हैं।