Wednesday 24 October 2012

लोक साहित्य : साहित्य के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में


    


      लोक साहित्य की चर्चा से पूर्व लोक साहित्य के अर्थ को समझना ज़रूरी है , विशेष रूप से लोक शब्द का अर्थ । “लोक” शब्द के संदर्भ में डॉ बच्चन सिंह लिखते हैं कि,‘‘ लोक एक भौगोलिक शब्द है । इसे लेकर विविध लोकों की कल्पना की गई है । ऋग्वेद (3/53/21 )में लोक जीव एवं जगत के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इससे इतर वेदों में दिव्य और पार्थिव लोकों की कल्पना की गई है । उपनिषदों में दो लोक माने गए हैं – इहलोक और परलोक । निरुक्ति में तीन लोकों का उल्लेख है –पृथ्वी,अन्तरिक्ष और द्युलोक । दूसरे शब्दों में इन्हें भू: , भुव: और स्व: कहते हैं । पौराणिक काल में सात लोकों और सात पातालों का उल्लेख मिलता है । चूँकि अब परलोक की कल्पना कल्पना मात्र रह गयी है, अत: लोक इहलोक के अर्थ में प्रयुक्त होता है । लोक धर्म कहने से लोक का अर्थ जनसामान्य हो जाता है ”(आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द – बच्चन सिंह, पृष्ठ संख्या -98 )इसीतरह लोकसाहित्य का अर्थ हमें जनसामान्य का साहित्य समझना चाहिये ।

लोक शब्द की प्राचीनता के संदर्भ में डॉ कृष्णदेव उपाध्याय लिखते हैं कि,लोक शब्द संस्कृत के लोकृ दर्शने धातु से धग्यम प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है । इस धातु का अर्थ देखना होता है जिसका लट लकार में अन्य पुरुष एकवचन का रूप लोकते है। अत: लोक शब्द का अर्थ हुआ देखने वाला। इस प्रकार वह समस्त जन समुदाय जो इस कार्य को करता है लोक कहलाएगा।’’ (लोक साहित्य की भूमिका –डॉ कृष्णदेव उपाध्याय ,पृष्ठ संख्या 26 )

 विकीपीडिया लोक साहित्य के संदर्भ में जानकारी देता है कि,लोक-साहित्य में जन-जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है। डा० सत्येन्द्र के अनुसार- "लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।" (लोक साहित्य विज्ञान, डा० सत्येन्द्र, पृष्ठ-03)साधारण जनता से संबंधित साहित्य को लोकसाहित्य कहना चाहिए। साधारण जनजीवन विशिष्ट जीवन से भिन्न होता है अत: जनसाहित्य (लोकसाहित्य) का आदर्श विशिष्ट साहित्य से पृथक् होता है। किसी देश अथवा क्षेत्र का लोकसाहित्य वहाँ की आदिकाल से लेकर अब तक की उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतीक होता है जो साधारण जनस्वभाव के अंतर्गत आती हैं। इस साहित्य में जनजीवन की सभी प्रकार की भावनाएँ बिना किसी कृत्रिमता के समाई रहती हैं। अत: यदि कहीं की समूची संस्कृति का अध्ययन करना हो तो वहाँ के लोकसाहित्य का विशेष अवलोकन करना पड़ेगा। यह लिपिबद्ध बहुत कम और मौखिक अधिक होता है। वैसे हिंदी लोकसाहित्य को लिपिबद्ध करने का प्रयास इधर कुछ वर्षों से किया जा रहा है और अनेक ग्रंथ भी संपादित रूप में सामने आए हैं-------------।’’

सरलता, कोमलता, सहजता और लोक जीवन का जैसा परिमल,विमल प्रवाह हमें लोकगीतों व लोक-कथाओं में मिलता है, वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। लोक-साहित्य में लोक-मानव का हृदय अपनी पूरी अनुभूतिमय सहजता से सामने आता है। लोक साहित्य के अंतर्गत निहित संगीतात्मकता ऐसी मधुर होती है कि मानों  प्रकृति स्वयं उन्हें गाती-गुनगुनाती और निर्मित करती है। लोक-साहित्य में निहित सौंदर्य का मूल्यांकन किसी सौंदर्य शास्त्र का मोहताज नहीं है अपितु यह सर्वथा अनुभूतिजन्य होता है। श्रुति एवं स्मृति ही वे माध्यम हैं जिनके सहारे  लोकसाहित्य की परंपरा जीवित रहती है और आगे बढ़ती है

 लोक साहित्य के अंतर्गत रचना अनेक कंठों से अनेक रूपों में बनते और बिगड़ते हुए  एक  विशिष्ट और सर्वमान्य रूप धारण कर लेती है,  इसतरह लोक साहित्य के अंतर्गत किसी विशिष्ट रचना की रचना प्रक्रिया समय और समाज के समानांतर चलते हुए एक लंबी सामाजिक जीवन प्रक्रिया का मान्य साहित्यिक रूप होता है परंपरागत एवं सामूहिक प्रतिभाओं से निर्मित होने के कारण विद्वानों ने लोकसाहित्य को "अपौरुषेय" की संज्ञा दी है। इसे इसतरह भी समझा जा सकता है कि लोक साहित्य के निर्माण या इसकी रचना प्रक्रिया में जो पौरुष है , वह पौरुष प्रकृति और समाज के ताने-बाने और इनके बीच के तादाम्य में निहित मानवीय चेतना का एक रूप है ।


एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर लोक साहित्य के अंतर्गत किन विषयों का समावेश होता है ? अथवा लोक साहित्य जीवन से जुड़े किन संदर्भों को अपने अंतर्गत समाहित करता है ? अब यहाँ ध्यान देना होगा कि लोक साहित्य अगर सामाजिक और साहित्यिक चेतना का रूप है तो इसमें मूल रूप से जीवन और प्रकृति  से जुड़े अनुभवों का सार होगा जो लोक मंगल, लोक रक्षक  लोक धर्म के भावों से भरा होगा । यह साहित्य जीवन की अनुभूतियों का सहज बयान होता है । ऋतुविद्या, स्वास्थ्यविज्ञान, कृषिविज्ञान, समाज,सामाजिक-सांस्कृतिक राजनीतिक परिस्थितियाँ , मिथक , धार्मिक और पौराणिक मान्यताएँ सभी कुछ इसके अंतर्गत समाहित होता है । जीवन की  अनुभूतियों, मान्य सामाजिक  नियमों एवं तत्संबंधी उपदेशात्मक बातों का  बड़ा ही सहज बयान लोक गीतों या लोक गाथाओं में मिलता है।
  साहित्य का समाजशास्त्र और इस साहित्यिक समाजशास्त्र का समाजशास्त्रीय अध्ययन हिन्दी साहित्य में एक नई संकल्पना रही है जिसे एक विधा के रूप में स्वीकार करने न करने का विवाद साहित्य अध्येताओं के लिए नया नहीं है । लोक साहित्य के संदर्भ में इसका अवलोकन वस्तु स्थिति को समझने का संभवतः एक नया दृष्टिकोण है, जिसकी स्वीकार्यता / अस्वीकार्यता गंभीर साहित्यिक विश्लेषण,विवेचन और अनुसंधान का विषय है । लोक साहित्य : साहित्य के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य  में, इस बात को स्पष्ट कर सकने में सहायक हो सकता है कि साहित्य का निश्चित रूप से एक समाजशास्त्र होता है । यह समाजशास्त्र मानव जीवन की सामाजिक प्रक्रिया एवं उसकी प्रकृतिगत सामंजस्यता के बीच निहित चेतना का परिचायक होता है ।

लोक साहित्य हमें समाज और सामाजिक परम्पराओं,मान्यताओं और संदर्भों से गहराई के साथ जोड़ता है । journal of indian folkloristics के अंतर्गत जनवरी-जून 1978 के अंक में छपे Suzanne Hanchett के आलेख में लोक साहित्य के सामाजिक परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में साफ लिखा गया है कि, Sociological studies have a few distinct advantages over folkloric and literary approaches which previously characterized scholarly studies of Hinduism.  First, sociological studies focus on folk religion as it is lived, that is, in a social context. Secondly, they are oriented towards theoretical questions and hypotheses, bringing Hindu folk ways into social science frameworks in several interesting ways. And third, they have told us much about the social consequences of ritual actions for Hindu community structure.” साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन साहित्यिक कलात्मकता के साथ-साथ इतिहास और समाज बोध को अपनी संकल्पना में समेटे हुए है । मानवीय संस्कृति की भौतिकवादी व्याख्या के परिणाम स्वरूप ही साहित्य के समाजशास्त्र की संकल्पना भी अस्तित्व में आयी ।
 मेरा आग्रह इस संदर्भ में मुख्यरूप से सिर्फ इतना है कि साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की पद्धति/प्रक्रिया/स्वरूप पे चर्चा करते हुए लोक साहित्य के स्वरूप को आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श के रूप में स्वीकार किए जाने की संभावनाओं पर जरूर गंभीर विचार होना चाहिए ।


                                        डॉ मनीष कुमार मिश्रा
असोसिएट – भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र(IIAS), शिमला
एवं प्रभारी- हिंदी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण, महाराष्ट्र
मो. 8080303132,09324790726
ब्लाग-www.onlinehindijournal.blogspot.com




Sunday 14 October 2012

आज फ़िर


आज फिर 
जब मिला तुमसे 
तो 
तुम्हारे साथ 
तुम्हारे पास 
तुमसे जुड़ी 
तुमसे बिखरी 
तुमसे सुलझती 
तुमसे उलझती 
वो सारी बातें 
वो सारी यादें 
वो सारी मुलाकातें 
एक बार फिर से  
खुद को थोड़ा और 
तुमसे जोड़कर 
खुश हैं 
फ़िर तुम्हारे बिना 
तुम्हारे लिए 
मचलने के लिए । 

हमसे एक बार भी

हमने उन तुन्द हवाओं में जलाएं है चिराग ,

जिन हवाओं ने उलट दी है बिसाते अक्सर ,

हमसे एक बार भी न जीता है, न जीतेगा कोई ,

हम तो जान के खा लेते है "मात " अक्सर 
असफलता मेरे शब्दकोष में नहीं है

Sunday 7 October 2012

seminar on hindi cinema


Hindi Cinema @ 100: A Retrospective 
(16-18 October 2012)
Hundred years of Hindi cinema’s existence should be an occasion to rewrite familiar histories in unfamiliar idioms and modes, especially when the contemporary cinematic moment seems to mark a distinct break from its immediate past. The emergence of digital technologies including the Internet and satellite television, globalisation and liberalisation, and a rapid urbanisation has reshaped Indian cinema as we knew it till the 1990s. It is not just the content and form of the cinema that has been aesthetically restructured but also the conditions of its production, distribution, trade, revenue, exhibition, viewing, relay, appreciation, notions of hits and flops and so on.
Conferring of industry status to the cinema in the 1990s made way for its corporatisation, rise of multiplexes, and the gradual fading away of single screen cinema halls in big cities, but also increasingly in smaller towns. This along with the growth of the internet has changed the nature of film viewing and appreciation across India. Film festivals that were earlier the mainstay of metropolitan centres are now travelling to smaller cities where a growing number of people desire to see cinema that is made outside of Hollywood and Bollywood. A case in point being the annual international film festivals held in places like Dharamshala, Gorakhpur, Faizabad and Ladakh. At the same time easy and inexpensive access to film-making equipment, has ensured that more and more people are turning to film-making with basic tools such as mobile phones and digital cameras.

Globalisation and liberalisation opened up gates for the inflow of legal money and the industry was no longer dependent on a handful of identified producers and other dubious resources. The multiplex phenomenon further opened up the business of film-making and film viewing practices. While this enabled independent film-makers to make and release films on unconventional themes and subjects, persistence of the old star-system and inflation in publicity and marketing budgets continues to haunt new trends. At the same time film-makers and the public are creating alternative avenues in terms of tv/internet releases, film festivals, and internet downloads. Excluded from the multiplexes, the subalterns have in turn invented their own shanty town khomchaplexes.   

It is not a coincidence that the period is also marked by an unprecedented rise of Film Studies. Recent years have seen a steady growth of scholarly output of monographs, anthologies, essays and seminars, matched by a proportionate rise in journalistic and popular writings on cinema. New areas of research such as fan cultures, diaspora films, film music, gender, visual culture, aesthetics and studies in early cinema have evolved in interesting ways. As the scholarly, the journalistic and the amateur reflections on cinema gain immediate, widespread visibility and rub shoulders with each other on television and the Internet, the older and arguably limited canons start giving way to thematic revisions based on larger, more encyclopaedic databases. New curatorial and analytical models of looking at old as well as contemporary films have thus come into play.

That the name Bollywood – howsoever disputed and imprecise - should gain currency as an omnibus descriptive term is in part a signature of this crisis of naming the above transformation. Implosion of various filmic energies into unheard channels of nomenclature yield terms like 'Jhollywood'(and such other terms) for cinema from Jharkhand .Thus, the contemporary cinematic moment, paradoxically, is as much about 'Hinglish' movies being made for diasporic and urban communities, as it is about Bhojpuri films displacing Hindi films from a part of its traditional stronghold in Bihar and UP. At the same time however there is also a resistance to “Bollywoodisation” of Hindi and other cinemas. In fact, most film scholars make a distinction between Bollywood cinema and Hindi cinema. They describe a certain type of cinema as represented by filmmakers in the 1990s as Aditya Chopra, Karan Johar and Subhash Ghai catering to an NRI audience as Bollywood. So this ascription of the emergence of the term Bollywood in the 90s provides certain formulaic and predictable ways of both film-making (such as the formula of item numbers) and film-classification. In contrast to the dominance of this term certain others argue that more interesting films are in fact being made outside of “Bollywood”.
We propose to revisit Hindi cinema @ hundred from a wide angle perspective in order to examine, situate and re-evaluate both Hindi cinema and film studies. Here are some possible themes and speakers:
  1. Film Studies historiography: major achievements, landmarks, turns, revisions, issues, dead ends, analytical terms, controversies, etc. emergent, exciting areas.
  2. Hindi Cinema @ 100: Continuities and discontinuities in themes/locales/aesthetic practices.
  3. Middle of the road cinema and its continuing popularity/whatever happened to art cinema?
  4. A history of Hindi Film Music: Production and consumption/listening cultures and practices gramophone/radio/television/youtube/mobile phones.
  5. Archiving cinema: official and the popular practices.
  6. Film Viewing and Appreciation: Then and now.  Film Society movement/travelling festivals in small towns.
  7. Reporting cinema: A history of journalistic interface with Hindi cinema.
  8. Changing languages and the invisible regional within the Hindi heartland.
  9. Khomchaplex
  10. A panel discussion on the historicity of creative processes in Hindi cinema.

Friday 28 September 2012

certificates by IIAS





मेरी कवितायें भाग- 2


          51. गाँव से शहर

गाँव से शहर को आती सड़क के किनारे
कई लोग हांथ हिलाते दिखते हैं
किसी की नम आँखों में
सुनहरे सपने दिखते हैं ।

शहर गाँव को सपने दिखाता है
सपनों से पास बुलाता है
लेकिन गाँव से शहर के बीच में
बहुत कुछ छूट जाता है ।

शहर जितना भरमाता है
गाँव उतना ही तरसाता है
जरूरतों के हाथ बिककर ही
कोई गाँव से शहर आता है ।





          52. अब तो यह ज़िंदगी
          मौत से जितना बच पाता हूँ
          उतना जीने की कोशिश करता हूँ
          आज़ कल ज़िंदगी ,
          बहुत डराने लगी है

          हादसों के बीच दबी सहमी
          हमेशा डरी- डरी सी
          अब तो यह ज़िंदगी
          बोझ लगने लगी है  ।











53. इस देश में संवेदनाएं
सुबह का अख़बार/ नाश्ता
कुछ देर से मिला
चुसकियों के साथ
सिसकियों का
अंदाज-ए-बयान

इस देश में संवेदनाएं
वेदनाओं के साथ
नहीं फूट रहीं हैं
आत्मकेंद्रियता में
बस टूट रही हैं









               54. तब वह भी मेरी तरह
 उसके भीगे हुए बालों से
 शबनम जब टूट कर बिखरती होगी
 उसकी पलकों के सहारे
 जब नजर कंही रुकती होगी
 उसके सुर्ख ओठों से
जब मुस्कान बिखरती होगी
उसकी नर्म और गर्म हथेली को
जब हवा छूकर गुजरती होगी
उसके कदमों की हर आहट पे
जब खुशबू बिखरती होगी
यादों में खोकर
जब वह भी मचलती होगी
तब वह भी मेरी तरह
शायद छत पे जाकर
बस चाँद देखती होगी ।





              55. तेरी इन आँखों ने
तेरी इन आँखों ने
जितने भी बयान दिये
गुनाह सारे
मेरे ही नाम किए
मैं सोचता रहा
फकत इतना कि
हालात पे अपने हम
हँस लें
या कि रो लें ।













56. तेरा मुझसे लिपट जाना
हर शाम गुजरती है
इन घने कोहरों के बीच
छा जाना कोहरे का
इन पहाड़ों पे
वैसे  ही लगा जैसे
तेरा मुझसे लिपट जाना ।





                                       








57. मैंने कुछ गालियां सीखी हैं
मैंने पूछा –
इन दिनों नया क्या सीख रही हो
उसने कहा-
पता है
मैंने कुछ गालियां सीखी हैं
यहाँ की प्रादेशिक भाषा में
मैंने कहा –
तुम्हें गालियों की क्या जरूरत पड़ गयी
उसने कहा –
यहाँ अब देश नहीं
प्रादेशिकता महत्वपूर्ण होने लगी है
प्रादेशिक भाषा में गाली देने से ही
हम अपने सम्मान की रक्षा कर पाते हैं
पराये नहीं अपने समझे जाते हैं
इस देश के कई प्रदेशों में
आत्मसम्मान से जीने के लिए
अब गालियां जरूरी हैं ।
             


58. वो मौसम 
मैंने बातों बातों में
फोन पे ही पूछा –
इतने दिनों बाद आ रहा हूँ
बोलो ,
तुम्हारे लिए क्या लाऊँ
उसने कहा-
वो मौसम 
जो हमारा हो
हमारे लिए हो
और हमारे साथ हो ,
हमेशा ।









59. टार्च
इन पहाड़ों पे हमेशा
एक टार्च, छाता और पानी की बोतल
साथ रखनी पड़ती है
एक आदत सी पड़ गयी है
टार्च
शाम के धुंधलके में रास्ता दिखाता है
छाता अचानक हुई बारिश से बचाता है
और चलते-चलते थक जाने पे
पानी सूखते गले को तर कर देता है
थोड़ा अजीब लगता है
यहाँ अचानक भी
अमूमन इससे जादा
कुछ भी नहीं होता है ।







60. नेल पालिश
अपनी लंबी,पतली और गोरी उँगलियों पे
लगे नेल पालिश को दिखाते हुए
उसने पूछा –
तुम्हें ये अच्छे लगे
आज ही लगाए हैं
लेटेस्ट पैटर्न   है
मैंने मुस्कुराते हुए कहा –
बहुत अच्छे हैं
तुम्हारे हांथ बहुत अच्छे हैं
तुम  बहुत अच्छी हो
तुमसे जुड़ी हर चीज बहुत अच्छी है
कुछ चीजें पुराने पैटर्न की भी हैं
बस उनके बारे में नहीं कह सकता
वह बोली-
नहीं,
तुम बहुत अच्छे हो




61. कैमरा
हर सुंदर नजारे को
अपनी यादों में कैद करने के लिए
हमने एक कैमरा खरीदा था
लेकिन हम भूल गए थे कि
कैमरा यादों को कैद कर सकता है
लौटा नहीं सकता
वैसे ही जैसे कि
यादों को जिया जाता है
तुम्हारे बाद तो
वह पड़े-पड़े ख़ुद ही ख़राब हो गया
या कहूँ तो
ख़ुद एक याद बन गया
वो भी
बिना एलबम के ।






62. चश्मा
इन आँखों को भी
आंखे चाहिए होती हैं
करीब की चीजों को
साफ-साफ देखेन के लिए
मुझे करीब की चीजों को
साफ-साफ देखने में दिक्कत होती है
चश्मे से
चीजें तो साफ दिख जाती हैं लेकिन
करीब के लोगों को पहचानने में
अभी भी दिक्कत होती है
चश्मा वहाँ काम नहीं करता ।









63. लाईटर
जेब टटोली तो
सिगरेट का पैकेट और लाईटर
दोनों मिल गए 
लेकिन पैकेट में सिगरेट नहीं थे
रात के दो बजे,
 कंही मिल भी नहीं सकते थे
सिगरेट का पैकेट फ़ेक दिया
और लाईटर
इस उम्मीद में जला ली कि
शायद कंही कोई सिगरेट
यहाँ-वहाँ रख भूल गया हूँ
ऐश ट्रे के पास
जली सिगरेटों की
नाउम्मीदी के सिवा कुछ ना था
लाईटर वापस जेब में रखकर
मैं और लाईटर
एक नई उम्मीद के साथ
सो गए / बुझ गए ।


64. स्वैटर
ठंडी से बचने के लिए
जब आलमारी में
गर्म कपड़े खोजने लगा तो
ढेरों शालों, सूट और ब्लेज़र के बीच
नीले रंग का
एक पुराना स्वैटर भी दिखा
सालों पहलें
तुमने अपने हांथों से बुनकर
किसी सर्दी में दिया था
पहन के देखा तो
थोड़ा चुस्त तो लगा लेकिन
मुझे आरामदायक और गर्म लगा
ना जाने कितनी सर्दियों की गर्माहट
आज मैं महसूस कर रहा था ।






       65.पेन
 वो पेन
 जो लैपटाप लाने के बाद
 मैं कम इस्तमाल करता हूँ
 स्टडी टेबल पर रखा तो है
 लेकिन सिर्फ़
 शोभा के लिए
 मैं भी सिर्फ़ शोभा या आदर का
 पात्र बनने से डरता हूँ इसलिए
 नई चीजों से जुड़ता रहता हूँ
 मेरा डर मुझे
 जोड़ता रहता है ।









66. पावर प्वाइंट 
पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन
के द्वारा
एक विद्वान महिला
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में
नदियों पे बिजली के लिए
बाँध बनाने की योजना पे
विद्वतापूर्ण चिंता व्यक्त कर रही थी
अपना आलेख समाप्त कर
हर्षित और खिली –खिली
वो महिला
तब अवाक रह गयी जब
मैंने पूछ लिया कि-
मैडम,
बिना पावर के
आपका पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन
कैसे होगा ?




          67. समाचार
बी.ए. की कक्षा में
चुलबुली सी उस लड़की ने
मुझसे पूछा कि-
सर, समाचार क्या होता है
मैंने कहा –
हर लड़की
एक समाचार होती है
और जो नहीं होती
उसका दर्द
सिर्फ़ वो ही जानती है ।
                     









      68. लिफ़ाफ़ा
 लिफ़ाफ़ा फाड़ के ख़त
 निकाल लिया जाता है
 फिर ख़त को संभालकर
 रखने के बाद
 लिफाफे को मोड़कर
 फ़ेक दिया जाता है
इसीतरह एक लिफ़ाफ़े को फेकते हुए
एकाएक जहन में
 ख़्याल आया कि
कई लोगों ने मुझे भी
सिर्फ़ और सिर्फ़
लिफ़ाफ़ा ही समझा ।










      69. नेलकटर
 बढ़े हुए नाखूनों को देखकर
 नेलकटर खोजने लगा
 फ़िर नाखूनों को काटते हुए
 सोचने लगा कि –
 अनावश्यक और अनचाही
 हर बात के लिए
 मेरे पास
 एक नेलकटर
 क्यों नहीं है ?











     70. वैलेट
3 साल की
छोटी बिटिया
स्कूल से पैदल घर आते हुए
अचानक मेरे पैरों से
 लिपट गयी
 मैंने उसकी तरफ देखा तो
उसने मांजिनीश की दुकान की तरफ
इशारा कर दिया
मैंने जब वैलेट देखा तो
वह लगभग खाली था
मैंने बिटिया से कहा –
आज पैसे नहीं हैं
 वह बोली –
पैसे नहीं
मुझे केक चाहिए
अब मैं उसे
 कुछ नहीं बताना चाहता था
मैंने लगभग खाली वैलेट को
पूरी तरह
 खाली हो जाने दिया
बिटिया
 केक पाकर खुश थी
और मैं
पूरी तरह खाली होकर ।

                                                                        

















71. पुरानी डायरी के पन्ने
पलटे हुए
 पुरानी डायरी के पन्ने
पलटता रहा
 अपना अतीत
और जीता रहा
उन सपनों के साथ
जो कभी
पूरे तो नहीं हुए लेकिन
हमेशा के लिए
मेरे साथ रहने लगे ।










  72. तेरे हांथों के लिखे ख़त
आज  पुरानी रद्दी को
रद्दी घोषित करने से पहले
जब देख रहा था तो
तेरे हांथों के लिखे
कुछ ख़त भी
ख़जाने की तरह मिल गए
अब यह ख़जाना
बेचैन किए रहता है ।












73. इंटरनेट
इस दुनिया से जुड़कर भी
इससे जुड़े रहने के लिए
एक वर्चुअल दुनिया
तकनीक ने इजात की है
जिसे इंटरनेट कहते हैं
दो फेस के बीच
अब फ़ेसबुक है
मिल –बैठ बातें करने के लिए
आन लाईन चैटिंग है
विडियो कान्फ्रेंसिंग है
इस वर्चुअल दुनिया में
हम ख़ुद को बनाते हैं
कोई ब्रह्मा नहीं
लेकिन ख़ुद को बनाने में
अक्सर हम बनाने लगते हैं
लगभग हर किसी को
जबकि सच्चाई
कंही और होती है
वर्चुअल और रियल के बीच
दमित भावनाओं और इच्छाओं के साथ
टहलती हुई
हमारी सच्चाई
जिसे हम लगातार
झुठलाते रहते हैं ।

















74. मेरी आँखें
मैंने कइयों से
यह सुना है कि
मेरी आँखें
बहुत बोलती हैं
सुबकुछ बोलती हैं
शायद इसीलिए
तुम हमेशा कहती थी
तुम्हारी आँखें
इजहार करना जानती हैं
तुम कुछ मत बोला करो ।










75. जूते
घिसे हुए जूते
और घिसा हुआ आदमी
बस एक दिन
रिप्लेस कर दिया जाता है
क्योंकि घिसते रहना
अब किस्मत नहीं चमकाती ।















75. तुम
तुम जो भी हो
तुम्हारा नाम जो भी हो
इतना तो सच है कि
तुम बराबर शामिल रही हो
और शामिल रहोगी
मेरे कुछ होने और
न होने के बीच ।














76. विजिटिंग कार्ड्स
एक शाम
इच्छा हुई कि
किसी से मिल आते हैं
किसी के यहाँ हो आते हैं
लेकिन किसके
टेबल पे रखे
सैकड़ों विजिटिंग कार्ड्स मे से
एक भी ऐसा न मिला
जिससे मिल आत
बिना किसी काम
बस ऐसे ही
सिर्फ मिलने के लिए
ऐसा कोई नहीं मिला ।







      77. परफ़्यूम
आज जब अचानक
एक परफ्यूम की दुकान
के सामने पहुँच कर
लगा वही परफ्यूम खरीदूँ
जिसकी ख़ुशबू में
तुम लिपटी रहती थी
वही नाम भी बताया
लेकिन उस परफ्यूम में
वो ख़ुशबू नहीं मिली
जो तुम्हारे बदन से आती थी
शायद वह
कंही और नहीं मिलेगी ।