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Tuesday 26 August 2014

वो पहली मुलाक़ात । (कहानी )

                
         ये रात कैसे बीतेगी ? लाइट चली गयी है और बिस्तर पर पसीने से तर – बतर पड़ा हुआ हूं ।बड़ी ख़ामोशी से अपनी तनहाई से लड़ रहा था । लेकिन थक गया, शरीर में जैसे जान ही नहीं बची । जान तो अटकी हुई है उसकी हाँ या ना में,या शायद हाँ और ना दोनों के ही डर में । लगभग 13 – 14 सालों की उलझन और इंतजार के बाद, आज दो टूक पूछ लिया । लेकिन पूरा शरीर जैसे निचुड़ सा गया है । सांसें गर्म और धड़कन तेज़ । ज़िंदगी ख़ुद जैसे एक बीमारी हो और इश्क़ इस बीमारी की जड़ । फ़िर काहे का इश्क़ ? अपनी बकैती ही साली .......... अजीब सा डर और घबराहट है । क्या पिछला सब ख़त्म हो जाएगा ? क्या वो कुछ बोलेगी ? क्या अब कभी नहीं बोलेगी ? और बोलेगी तो क्या होगा ? क्या मैं कर पाऊँगा ? उफ़ !!! सर भारी हुआ जा रहा है । लग रहा है जैसे कोई सर में खीलें ठोक रहा हो,मैं जितना चिल्लाऊँ वह उतनी ही ज़ोर से हथौड़ा मेरे सर पर मारे ।  रात के दो बजे हैं,बाहर अजीब सा सन्नाटा है। बाहर जितना सन्नाटा है अंदर उतना ही शोर और बेचैनी, सर दर्द से लगता है फट जाएगा । सिगरेट, हाँ सिगरेट कहाँ है ?
              अंधेरे में सिगरेट और लाइटर खोजने में इधर महीनों से अभ्यस्त हो चुका हूँ । स्टडी टेबल पर ही तो रखता हूँ । मिल गया । अंदर के शोर और बाहर के सन्नाटे के बीच छत पर जाकर सिगरेट पीना ही मुझे ठीक लगा । छत पे कोई नहीं था..... मेरे जाने के बाद भी । मैं तो खोया हुआ था कालेज के दिनों के उस हर एक पल में जो हमनें या तो साथ बिताये थे या फ़िर साथ-साथ जिये थे । रात के अंधेरे में पूरा शहर डूबा हुआ था, दिन में जो पेड़,रास्ते और घर  इतने सुंदर और परिचित से लगते हैं इस अंधेरे में डरावने । आख़िर अंधेरे में डर क्यों लगता है ? अंधेरा डर बढ़ा देता है । तो क्या मेरे अंदर के डर के पीछे भी कोई अंधेरा है ....मन का अंधेरा  ? उसकी यादों के साये मेरा पीछा कर रहे हैं। मानो सिगरेट के धुएँ में यादें जैसे अधिक साफ़ होकर सामने आने लगीं हों ।
               तो कहाँ से शुरू करूँ ? हाँ मेरे बनारस आने से । कामायनी का समय तो शाम 7-8 बजे का ही था लेकिन कैंट स्टेशन वाराणसी पहुंची वह रात एक बजे । उस रात जनवरी की गलती ठंड में दाँत कटकटाते बी.एच.यू गेस्ट हाउस तक पहुंचा । सुबह ज्वाइनिंग के लिए रिपोर्ट भी करना था ।  सुबह गुलाबी ठंड के साथ कंबल में दुबका हुआ ही था कि गेस्ट हाऊस के भाई माखन सिंह जी ने चाय के कप के साथ उठा दिया । चाय की तलब लगी ही थी । माखन जी उम्र में मेरे पिताजी के बराबर होंगे,पर मेरा पैर छू रहे थे । मेरे बार-बार मना करने पर भी अपना तर्क रखते हुए कहते हैं कि आप बाभन हैं और फिर गुरु भी । जीवन पे पहली बार लगा कि ब्राह्मण और गुरुजी होना बुरा नहीं है ।
                तो माखन जी की चाय के बाद घड़ी देखी तो लगा नास्ता भी कर लिया जाय नहीं तो डायनिंग एरिया से कोई और बुलाने आ ही जाएगा । बिना ब्रश- दातून के नास्ता करने पहुंचे तो देखा पूड़ी,सब्जी और जलेबी के साथ चाय । बस मुड़िया के लगे रहे अंतिम चुस्की तक । नास्ते के बाद जब प्रेशर का आभास हो गया तो नित्य क्रिया निपटाने में भी देर नहीं की । फ़िर सूट – बूट में विभाग जाकर ज्वाइनिंग की औपचारिकता पूरी की और पुराने मित्र भाई कमलेश  के साथ किराये का मकान खोजने निकल पड़े । बी.एच.यू  के स्टाफ़ क्वाटर में तुरंत मकान मिलना संभव नहीं था । यहाँ हर काम के लिए लंबी प्रक्रिया का प्रावधान है । इतनी लंबी की हमारा नंबर आते- आते हमारा प्रोजेक्ट पूरा हो जाये और हम रवानगी की तैयारी में लगते । मकान की तलाश में दो-चार जगह दौड़ने के बाद मन हुआ बाबा विश्वनाथ जी का  दर्शन कर लिया जाय । उनकी नगरी में मकान लेने से पहले उनके दरबार में हाजिरी जरूरी समझी । तो सँकरी- सँकरी गलियों के बीच से भोले बाबा के गर्भगृह तक जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । माँ अन्नपूर्णा और माँ पार्वती के भी दर्शन किये। फ़िर बनारसी छोले बटूरे को भकोस के अस्सी घाट के लिए निकल पड़े । गंगा मईया को देख मन प्रसन्न हो गया । आनंद नामक नईया के खेवईया के साथ गंगा जी में उतर गए । पानी शीतल था । इस समय बरसात नहीं है इसलिए नदी बीच में सूखी है । बीच मजधार पहुँच  पूरे बनारस को समझने का प्रयास किया । मरीन ड्राइव भी याद आया । अब दो साल के लिये अस्सी घाट ही हमारा मरीन ड्राइव हो गया ।
                भाई कमलेश ने बताया कि लाल बहादुर शास्त्री जी का गाँव उस तरफ है और वे नदी पार कर रोज़ पढ़ने के लिए सामने घाट की तरफ आते थे । हमने कहा रोज़ नहीं एकाध बार हुआ था ऐसा । लेकिन कमलेश जी बोले नहीं रोज़ । कहानी सुनी तो हमने भी थी लेकिन आज गंगा नदी के बीचों- बीच खड़े होकर उनके गाँव,नदी और घाट की जो स्थिति देखी तो यकीन हो गया कि कमलेश जी की कहानी झूठी है । लगभग 1.5 किलोमीटर लंबी गंगा जी को पार करना किसी बच्चे के लिए लगभग असंभव है । अच्छा वो इतनी जहमत क्यों उठाए ? क्योंकि उसके पास मल्लाह को देने के लिए पैसे नहीं होते थे ..........। बनारस का कोई मल्लाह किसी स्कूल जाने वाले बच्चे को इसलिए नाव में नहीं बैठायेगा क्योंकि उसके पास पैसे नहीं हैं, ये बात भी गले नहीं उतरती । हाँ लड़कोरी में कभी नाव पकड़ के गंगा पार किये होंगे तो वो अलग मामला होगा । लेकिन फ़िर भी जो इतिहास के ज्ञानी तथ्यों और प्रमाणों के आधार पे हमें गलत साबित करने का मन बना रहे हों उनसे अनुरोध है समय न बर्बाद करें । हम तो जो देखे उसी के हिसाब से समझे ।
               वहाँ से वापस घाट पर आये तो लेमन टी पीने का मन हुआ । पहली बार देखे की हाजमोले की गोली,नीबू का रस,पानी और उबली हुई चाय से इतनी स्वादिष्ट लेमन टी बन सकती है । चाय का मूल्य 06 रूपये मात्र । इस अजब चाय का गज़ब स्वाद मुंहा में संभाले वापस लंका आये  और फ़िर गेस्ट हाउस । कल से “लंका टू वी.टी.” के बीच ही दौड़ना है । मेरा मतलब है बी.एच.यू. के मुख्य लंका गेट से  कैम्पस के ही विश्वनाथ टेंपल तक । सेंट्रल आफिस और सेंट्रल लाईब्रेरी वहीं है । ..................... जय भोले नाथ की ।
              लेकिन ये बनारस भोसड़ी का है बड़ा अजीब शहर। संकरी गलियों में पनारा बहता हुआ । सड़कों पर ट्रैफ़िक नियमों की माँ-बहन करते हुए कहीं से भी घुसना। ठुकने- ठुकाने पर बकैती करना । पान मुँह में दबा के मस्त रहना और बाबा विश्वनाथ एवं राजा बनारस को छोड़ सभी को बनारसी शिष्टाचार निभाते हुए “भोसड़ी का” कहकर संबोधित करना ।हम तो शुरू – शुरू में परेशान रहे फ़िर रम गए और ऐसे रमे की बनारसी चेतना के साथ नई चैतन्यता से अभिभूत हो गये । उस दिन मणिकर्णिका पर थोड़ी देर के लिये ये चेतना छूटी और ............... लगी पड़ी है अबतक ।  
             यहाँ के धर्मात्मा सुबह मुर्गे से भी पहले उठ जाते हैं और फ़िर टन..टन..टन.......यही ससुर सुबहे बनारस है ? दिनभर बकचोदी और सांझे खटिया से चिपक भी जायेंगे । जब तक मेरी कशिका से  मुलाक़ात नहीं हुई थी तो लगता था बनारस आकार गलती की । उससे भी बड़ी गलती की बी.एच.यू. ज्वाइन करके । बी.एच.यू. याने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी याने काशी हिंदू विश्वविद्यालय याने नेतागिरी का गढ़ याने सर्व विद्या की राजधानी । पहली बार सुना तो अजीब लगा - सर्व विद्या की राजधानी, ये क्या बला है ?  लेकिन रहते – रहते और रमते – रमते समझ गए । यही समझे कि यह कुछ नहीं बाबा भारती का घंटा है । अब चूतिया माफिक ये मत पूछिएगा बाबा भारती कौन ? और पूछने का मन करे भी तो  “काशी का अस्सी” वाले काशीनाथ जी से पूछिएगा, विद्वान आदमी हैं, ऐसी शब्दावली का पत्रा- पंचांग सब है उनके पास ।
             वैसे सर्व विद्या की राजधानी तो है बी.एच.यू. लेकिन इसको समझने के लिये ज़रूरी है कि आप का इससे वास्ता पड़े । मेरा पड़ा है और जब से पड़ा है क्या बतायें हम पर क्या – क्या पड़ा हैं ? सेंट्रल आफ़िस में जिसके पास आप की फाइल अटकी तो मानो अटकी । और फ़िर किसके पास नहीं अटकी ? मुझे तो लगा जैसे यहाँ निपटाने का काम कम, अटकाने का जादा होता है । आखिर दिव्य निपटान वाली परंपरा का शहर है । पानचबाऊ बाबू आप का काम तो समय पर नहीं करेगा लेकिन हरबार कोई नया ज्ञान ज़रूर दे देगा, आख़िर सर्व विद्या की राजधानी जो है । आप को ऐसा – ऐसा ज्ञान मिलेगा कि बस............परम ज्ञानी होकर निकलोगे यहाँ से । एक बात यह भी समझ में आयी कि सारे प्रकांड विद्वान बनारस में ही क्यों होते थे ? आख़िर जैसा – जैसा कांड इंहा हो जाता है………… छोड़िये अब तो दिल्ली प्रकांड विद्वान टाईप वालों का अड्डा हो गया है । शायद मोदी जी का मिनी पीएमओ बनने से बनारसी प्रकांडों के दिन बहुरें । वैसे देश के अन्य विश्वविद्यालयों की तुलना में यहां फिर भी गनीमत है।  ये तो काम अटका रहता है तो बकैती के अतिरिक्त कुछ सूझता नहीं।  
           उस दिन सेंट्रल आफ़िस से पैदल लौटेते हुए वी.टी.(विश्वनाथ टेंपल) आया । मन किया एक कोल्ड काफ़ी हो जाय । गुलाबी सर्दियों में वी.टी. की कोल्ड काफ़ी का मजा ही अलग है । फ़िर एकाएक ख़याल आया कि मंदिर में पहले चलकर बाबा विश्वनाथ जी के दर्शन कर लिए जाएँ । जैसे कि बाबा ने खुद ही बुलाया हो हमें, ठीक उसी तरह जैसे गंगा माँ ने मोदी जी को बुलाया और प्रधानमंत्री बना दिया । जब गंगा माँ प्रधानमंत्री बना सकती हैं तब भोले बाबा हमें क्या नहीं बना सकते ? यही सोचकर  हमनें उनकी आज्ञा का पालन ज़रूरी समझा ।
                बाबा के आगे नतमस्तक होकर जैसे ही बाहर निकले हाय !!! किसी की झील सी आँखों में अटक गए । सेंट्रल आफ़िस में फ़ाइल का अटकना खल रहा था लेकिन यहाँ ख़ुद का अटकना ....मजा आ गया । काली जींस,पीला कुर्ता, गले में नीला स्कार्फ़, आँखों काली और खुले हुए बालों में लगभग पाँच फुट नौ इंच की एक सुंदर सी युवती के साक्षात दर्शन हुए । साक्षात इसलिए लिख रहें हैं क्योंकि “ऑनलाइन” और “इन ड्रीम” ऐसी बातें हमारे साथ आम हैं । वैसे उसकी सैंडल भी देखे थे,आवारगी के दिनों में सैंडलों से .............छोड़िये, अब अपने मुँह अपनी बेज्जती काहें करवाएँ । अब भी आवारा ही हैं लेकिन शरीफ़ टाईप के आवारा । और कसम से ये शरीफ़ टाईप के आवारा बड़े कमीने होते हैं साले । हम उतने नहीं हैं डाइल्यूटेड वर्जन हैं । आख़िर मास्टर के लड़के थे सो जादा बिगड़ने का मौका ही नहीं मिला । ख़ूब लतियाये गये हैं । लतखोरी टाईपवाला कोई किटाणु घुस गया था अंदर लेकिन सही ख़ुराक न मिलपाने की वजह से वह कुपोषित ही रहा और हम एम.ए.,पीएच.डी. करके नौकरी हथियाने में कामयाब हुए । प्रोफेसर वाली नौकरी वो भी हिंदी के  । याने बिगड़ते – बिगड़ते हमारी तो बन गयी लेकिन हम जिन्हें पढ़ायें और जो हम से पढ़ लें ..............उनका क्या  होगा भोलेनाथ ? अब हम क्या कहें, सब भोलेनाथ की मर्ज़ी है । जय भोलेनाथ ।
   ख़ैर.....बात हो रही थी कि कैसे हम किसी की झील सी आँखों में अटक गए । सच में उन नीमकश निगाहों में बहुत गहराई थी । उन आखों को देख लगा जैसे जब ज़िंदगी खुद अपने लिए सपने तलाशती होगी तो इन्हीं आँखों में आकार झाँकती होगी । उन आँखों में मासूमियत ,कौतूहल,चंचलता और उमंग थी । पलभर को लगा जैसे वे आँखें मैं सालों से पहचानता हूँ । मेरा कोई अंजाना रिश्ता रहा हो उन आखों से । स्मृतियाँ मानस में तेजी से घूमने लगीं । मुंबई,दिल्ली,अमृतसर,गाँव,हॉस्टल,पुणे,अजमेर,अलीगढ़,शिमला....और न जाने क्या –क्या याद आ रहा था कि किसी ने आवाज़ दी । आवाज़ भी तो जानी-पहचानी थी । ये उसी की आवाज़ थी । वो मेरे इतने करीब खड़ी थी कि और जादा करीब की कोई गुंजाइश नहीं बची । वो मुस्कुरा रही थी और मैं हतप्रभ ।
       “कब सुधरोगे तुम ?” – उसने मेरे कान में धीरे से कहा ।
       “जी ....वो मैं समझा नहीं । मुझसे कुछ गलती हुई ?” – मैंने डरते हुए पूछा ।
      “ हूँ.......तो जनाब ने अभी पहचाना नहीं । डरो मत..... मैं कशिका । अन्नू की फ्रेंड । कॉलेज में थी तुम लोगों के साथ । साइंस सेक्शन ..... ’’ - वो बोल ही रही थी कि मैंने उसकी बात काट दी ।
      “ओय चुड़ैल, तु जिंदा है । लगभग 13 साल बाद मिल रही है । एकदम से कैसे पहचान लिया मुझे ?” – मैंने कशिका को गले लगाते हुए पूछा ।
       “तेरी आँखें जिस तरह से घूरती हैं, दुनियाँ में बड़ा से बड़ा कमीना भी ऐसे नहीं घूरता होगा........... और तेरी आँखें आज भी बहुत बोलती हैं ।’’ - यह कहकर उसने बाहें फैला दी और मैंने उसे फिर से बाहों में ले लिया ।  फ़िर ध्यान आस-पास गया तो लगा कई लोग घूर रहे थे । मंदिर परिसर में आपत्तिजनक हरकतों पर रोक थी और लोग जिस तरह हमें देख रहे थे,हम समझ गये कि इन्हें घोर आपत्ति है । इसके पहले कि बात बढ़ती और कोई विपत्ति आती,हम दोनों मंदिर से बाहर आ गये ।
“अरे यार !!!! तुम्हारे चक्कर में प्रसाद लेना तो भूल ही गयी ।’’ - कशिका बोली ।
“ चिंता न करो बालिके । भोलेनाथ तुमसे अति प्रससन्न हैं और हमसे मिलाकर उन्होने तुम्हारी सारी मनोकामना पूर्ण कर दी है वो भी बिना सोलह सोमवार के व्रत के ।’’ – मैंने मज़ाक करते हुए कहा ।
“अभी मिले हैं वो भी पूरे 13 साल बाद । हम कहाँ हैं ?,क्या कर रहे हैं ? कुछ पता नहीं । और तुम शुरू हो गये ........... कितनी जल्दी रहती है न तुम्हें सब कुछ निपटाने की ?” – कशिका ने आँखें बड़ी करते हुए कहा ।
“ अच्छा तो तुम्हें भी आराम से निपटाने का शौख है ? बनारसी अंदाज़वाला दिव्य निपटान ?” –मैंने फ़िर शरारत में पूछा ।
“ मैं समझी नहीं । क्या मतलब ?” – उसने अबोध बच्चों की तरह पूछा ।
 “नहीं कुछ नहीं छोड़ो । चलो कोल्ड काफ़ी पिलाता हूँ । अच्छी मिलती है यहाँ, जानती हो ना ?” – मैंने उत्सुकता के साथ पूछा ।
“ अरे बाबा,बनारस आये मुझे सिर्फ दो दिन हुए हैं । शॉर्ट टर्म मेडिकल कोर्स के लिये आयी हूँ, दिल्ली ही रह रहे हैं । एम.बी.बी.एस. इन्टरन्शिप के बाद से ही जॉब शुरू किया । पापा का तो तुम्हें पता ही था, फ़िर इधर मौका मिला तो एम.डी. कर रही हूँ । सो मॉरल आफ़ द स्टोरी इज कि मैं बनारस पहली बार आयी हूँ और मुझे यहाँ का कुछ भी पता नहीं । टेम्पल कैंपस में ही था सो आ गयी दर्शन करने । वो क्या बोला तुमने दिव्य निपटान वो क्या है ?” – उसने ठनक के साथ पूछा ।  
“ छोड़ो ना ........ ऐसे नहीं समझोगी । उसके लिए बनारस में कम से कम साल भर रहना पड़ेगा और रहकर रमना पड़ेगा । फ़िर जब भोलेबाबा का प्रसाद ग्रहण करोगी और आत्मलीन होकर सुबहे बनारस में ......... छोड़ो चलो काफ़ी पीते हैं ।’’ – मैंने दुकान की तरफ इशारा किया ।
हम दुकान में गये और एक टेबल बनारसी अंदाज़ में हथिया के बैठ गये । काफी के लिए कह दिया और फ़िर कशिका ने ही बात शुरू की ।
कितनी भारी भरकम हिंदी और फिलासोफिकल बातें करने लगे हो । वो दिव्य वर्ड से ही मुझे लगा कि कोई आध्यात्मिक बात होगी – दिव्य निपटान, साउंड्स ग्रेट । अब साफ- साफ बता दो  क्या है ये?” – उसने मासूमियत से पूछा ।
“ अरे यार .......मैं भी कहाँ से बोल गया । देखो मैडम, बनारस में बात साफ-साफ नहीं की जाती बस सुविधा के लिए बात फरिया दी जाती है । हम जितना फरिया सकते थे फरिया दिये अब खाते – पीते समय अगर ऐसा पचौरा बतियाती रहोगी तो एक झन्नाटा देंगे उलट जाओगी, समझी ।” – यह कहते हुए मैंने भी इसबार शरारत के साथ आँखें बड़ी कर लीं ।
“ आई काँट बिलीव दिस ? तुम गुंडों की तरह बात कर रहे हो ? हाउ यू कैन डू दिस ? जानवर ..... ज़ाहिल...... ” – उसने गुस्से में कहा और लगा जैसे रो देगी ।
“ सॉरी यार ....... अब तुम भी तो जिद्द करती हो । नहीं बता सकता । जितना बता सकता था,बता दिया । प्लीज़ ..... रिलेक्स ।’’ – मैंने उसे मनाते हुए कहा ।
“सॉरी क्यों बोल रहे हो ? नहीं अच्छा लगता । सॉरी तो कभी बोलना ही नहीं मुझे । छोड़ो.... मैं अपने अंकल से पूछ लूँगी । यहीं बनारस में ही रहते हैं । रिटायर्ड आई.ए.एस. हैं । उन्हें ज़रूर पता होगा ..... काफ़ी धार्मिक हैं ..... मिलाऊंगी तुम्हें उनसे । उन्हीं के पास रुकी हूँ ।” – कशिका ने सहज होते हुए कहा ।
                मैंने सोचा चलो जान छूटी । बकैती कभी – कभी कितनी भारी पड़ जाती है । अब क्या बताते उसे ? कि दिव्य निपटान याने रात को भांग खाना,भांग खा के चापकर भोजन भकोसना (बनारसी आदमी पेट भरकर नहीं गले तक चापकर खाता है ) और सुबह –सुबह कई चोथ टट्टी करना । छि....छि ....अच्छा हुआ कुछ नहीं बोले । रिटायर्ड अंकल ससुर निपटेंगे । हम भी देखें क्या बताते हैं और कैसे ?
 “तुम बनारस में क्या कर रहे हो ?” – कशिका ने पूछा
 “ जी मैडम,पहले हम बाप के पैसों पर अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर रहे थे, इन दिनों सरकार के पैसों पर देश का भविष्य । याने की हम प्राध्यापिकी कर रहे हैं और दो साल की फ़ेलोशिप पर एशिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में देश के सबसे बड़े हिंदी विभाग से जुड़कर अध्ययन – अध्यापन का छोटा सा कार्य कर रहे हैं । ’’ – मैंने हँसते हुए कहा ।
क्या दिन आ गए हैं,कैसे-कैसे लोग प्रोफ़ेसर हो जा रहे हैं ?”- कशिका ने ताना कसते हुए कहा ।
“ सही बात है । चरसी और ठरकी लोग जब एम.डी. डॉक्टर हो जा रहे हैं ....तब तो ....कुछ भी हो सकता है !!!! मैडम, एक चाय बेचनेवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है ।” – मेरी इस बात पर दोनों खिलखिला उठे । हमनें काफ़ी पी । कालेज़ के दिनों को याद किया और अगले दिन फ़िर वी.टी. पर मिलने के वादे के साथ बिदा हुए ।
           कशिका कालेज़ के दिनों की दोस्त है । वो थी तो अन्नु यानी अनिता की दोस्त लेकिन कभी बुरी नीयत के साथ हम भी उसके दोस्त बन ही गए थे । ख़ूब मस्ती होती । कैंटीन,बॉटनी गार्डन,चाय की टपरी। सिगरेट,बियर,चिलम और पैसे न होने पर बीड़ी भी हमारे शौख थे। हर बुराई के दरवाजे पर हमारी दस्तक थी, लेकिन हम बुरे नहीं थे । कशिका चिलम की शौखीन थी, लकिन ख़ास मौक़ों पर । वो अनोखे तरीक़े से चिलम बनाती थी । बिसलरी की बोतल में पानी भरकर उसके नीचे कई छेद कर देती और बोतल के मुहानें पर जलती हुई चिलम रख देती । जैसे –जैसे बोतल का पानी नीचे गिरता जाता,बोतल चिलम के धुएँ से भर जाती । पानी पूरी तरह से गिर जाने के बाद हांथ से नीचे के छेद को बंद करती और मुहाने पे रखी चिलम हो हटा धुएँ का कश लगाती । हम लोग उसे चरसी साइंटिस्ट कहते । फ़िर अचानक कशिका के पिताजी की मृत्यु हुई और कशिका को अपने मामा जी के पास दिल्ली शिफ़्ट होना पड़ा । शुरू - शुरू में संपर्क बना रहा लेकिन बाद में सिर्फ़ कशिका की यादें ही रह गईं । कशिका दिखने और पढ़ने दोनों में स्मार्ट थी । शरारत तो जैसे उसका दूसरा नाम था । हम दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे लेकिन इसतरह की कभी कोई बात नहीं हुई । मौका ही नहीं मिला । वो अचानक चली गयी थी ..........सबकुछ छोड़कर । लेकिन कुछ था जो हम दोनों के बीच बचा हुआ था । जैसे अलग – अलग मौसम के थपेड़ों और तपन के बाद भी बारिश की एक फुहार जमीन के किसी कोने में दबे हुए बीज़ को अंकुरित कर देती है, वैसा ही कुछ आज हम दोनों ने महसूस किया । अब तो पल्लवित और पुष्पित होने का मन था ।  
              तो उस दिन के बाद हम लगभग रोज मिले । उस दिव्य निपटान वाली बात पर मुझे ख़ूब गालियाँ मिलीं । वो लगभग महीने भर बनारस रही,अपने अंकल के घर......... और मेरे साथ । बनारस के घाट,अस्सी चौराहा,शाम की गंगा आरती, गोदोलिया मार्केट, काशी चाट,पुराना विश्वनाथ मंदिर, काल भैरव, सारनाथ, तुलसी मानसमंदिर, दुर्गामंदिर, संकटमोचन, रामनगर किला, बी.एच.यू.का मधुबन, लंका, वी.टी., सिगरा, आई.पी.माल, केरला कैफ़े, श्यामल होटल, बुक टेएक्स्टीलाइट, पिज्जेरियो, पहलवान की लस्सी, केशव का पान, तेलियाबाग का बाटी-चोखा, कचौड़ी गली, क्षीर सागर, रिदम कैफ़े, डी.एल.डब्लू, रविदास पार्क,सामने घाट,कैंट,और कभी –कभी तो मणिकर्णिका घाट भी.......... हमारी इन दिनों की आवारगी के साथी । हमने बनारस की कच्ची शराब नूरी”,“छैला”, “मजनूँसाथ में चखी । हरिश्चंद्र घाट पर खोपड़ी वाले औघड़ी बाबा के साथ गांजे का कश लगाया, कुछ विदेशी मित्रों के साथ अस्सी घाट पर सिगरेट के मसाले को “लरामिक रोलिंग पेपर” में लपेटकर छल्ले उड़ाये, गोदोलिया की मशहूर भाँग छानी और फिर एक दिन गंगा भी नहा लिए, इस उम्मीद के साथ कि कोई पाप किया होगा तो धुल जाएगा । और घाट पर पागलों की तरह एक साथ चिल्लाये भी हर.....हर.....हर...महादेव......... । ऐसा लगा जैसे महादेव भी मुस्कुरा दिये हों ।
                 उस दिन गंगा आरती के बाद हम दोनों मणिकर्णिका घाट पर ही बैठे थे । रात के नौ बजे  होंगें। घाट पर आठ – दस चिताएँ जल रहीं थी तो कुछ को अपनी पारी का इंतजार था। कुछ परिजन डोम से “अपनी वाली लाश” जल्दी निपटाने की चिरौरी कर रहे थे । कहीं लकड़ी का मोलभाव तो कहीं मुखाग्नि का । “राम नाम सत्य है” यह आवाज कानों में पड़ते ही व्यापरियों के चेहरे पर चमक आ जाती । मृत्यु के व्यापार का यह धार्मिक प्रतिष्ठान बहुत कुछ सिखाता है । चिता के साथ शरीर जल जाता है,हमारी भौतिक इकाई समाप्त हो जाती है लेकिन शेष कुछ तो बचना चाहिए ? क्या इस तरह निःशेष होकर मरना परमात्मा या प्राकृतिक चेतना का अपमान नहीं ? चिताओं से उठने वाली खास तरह की गंध से मन भारी हो गया था लेकिन उस पूरी निस्तब्धता में असीम शांति थी जो मन को गहराई तक अपने में डुबाये हुए थी । सामने गंगा की धारा और बगल में वह लड़की जो कल तक मेरी दोस्त थी,प्रेमिका थी लेकिन आज अचानक लगा जैसे वह मेरी चेतना,मेरी संवेदना का भाव है । उसके बिना तो पूर्ण होना संभव ही नहीं। उसके कोमल,मुलायम,गर्म और गोरी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर मैंने कहा
“कशिका”
“ हूं बोलो ’’ – उसका खोया हुआ सा जबाब ।
“ मेरे साथ पूरी ज़िंदगी रहोगी ? मेरी पत्नी, मेरी दोस्त और मेरी पूर्णता का प्रतीक बनकर ।’’ – मैंने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा ।
  “ इन जलती हुई चिताओं के बीच तुम्हें ........ यही जगह मिली थी .......मेरी भी क्या किस्मत है ....... छोड़ो ...... नहीं बोलना कुछ ।’’ – उसने मुँह दूसरी तरफ़ फेर लिया ।
“ वो दरअसल ...... मैंने सुना है कि चुड़ैलों को यहीं प्रपोज़ किया जाता है ....... अमावस की काली रात में .......इसीलिए यहीं पूछा ।’’ – मैंने उसे हंसानें के लिए कहा और वो खिलखिला के हंस भी पड़ी ।
    उस दिन बात वहीं ख़त्म हो गयी । कशिका आज दिल्ली वापस जा रही है । कैंट स्टेशन पर उसे छोडने गया । गाड़ी इत्तफ़ाकन सही समय पर आयी । उसका सामान बर्थ के नीचे रखकर मैं उसके बगल में बैठ गया । गाड़ी छूटने में समय था ।
तो क्या सोच ?’’- मैंने पूछा
“ चुड़ैल से पूछो जाकर ।’’- उसने हँसी को दबाते हुए कहा ।
“ चुड़ैल से ही पूछ रहा हूँ ।” –मैंने शांत होकर जबाब दिया । 
थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे फ़िर कशिका ने बोलना शुरू किया –
“ मैं तुम्हें हमेशा से पसंद करती थी । आई लव यू । तुम्हारी लाइफ पार्टनर बनना मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी होगी । लेकिन तुम जानते हो डैड की डेथ के बाद मामा जी ने ही हमें संभाला । मेरी सारी इच्छा उन्होने पूरी की । सगी बेटी की तरह प्यार करते हैं मुझे । मैं दिल्ली पहुँचकर उनसे और माँ से बात करूंगी फ़िर जैसा होगा ........... ।’’
कशिका बोल ही रही थी कि ट्रेन का हॉर्न बजा और ट्रेन धीरे-धीरे चलने लगी ।
“ जाओ, नीचे जाओ, ट्रेन चल दी । आइ विल कॉल यू ।”- कशिका ने एक साँस में कह दिया ।
मैं ट्रेन से नीचे उतर आया और कशिका ट्रेन के दरवाजे पे खड़ी हांथ हिला रही थी । उसकी आँखों में पानी था और ओठों पर मुस्कान । इमोशन का अजीब सा कॉम्बिनेशन था ।
         वापस कमरे पर जब से आया हूँ अजीब सी बेचैनी है । रात को खाने की इच्छा भी नहीं हुई । लेटे मगर आँखों में नीद नहीं । कुछ समझ नहीं आ रहा था । बस परेशान थे । इसीलिए सिगरेट फूँकने छत पर चले आये । हमारा बस चलता तो बहुत कुछ फूँक देते । सब से पहले तो साला ऊ मणिकर्णिका घाट । चेतना – संवेदना वाला सारा दर्शन वहीं समझे थे और चूतिया माफ़िक शादी के लिए पूछ बैठे । अब जब बनारसी चेतना लौटी है तो समझ में आ रहा है कि बकचोदी कर गए ।
               अब ऊ हाँ बोले तो साला शादी करो और अगर कहीं ना बोल दिया तो इज्जत की तो समझो साली .... लग गयी । सच में ......इसको कहते हैं समस्या,बनारसी चेतना वाली समस्या । चलिये जो होगा निपटेंगे ....लेकिन ई बार फँस गए गुरु । दर्शन- वर्षन के चक्कर में गड़बड़ा गए । चेतना..... संवेदना.... भाव ...... पूर्ण होने का भाव .... इनकी माँ का ..... । ऊपर से जब बाप पूछेगा कि बाभन के छोड़ के बाबू साहेब वाली बिरादरी में काहें मुँह मारना चाह रहे हो तो क्या बोलेंगे ?...... बाबा भारती का घंटा ? वैसे भी उनको पूरा विश्वास है कि एक दिन हम उनकी नाक ज़रूर कटवाएँगे ।
    जाओ यार ..... परेशान हैं हम ।  
                                            डॉ मनीषकुमार सी. मिश्रा
                                            यूजीसी रिसर्च अवार्डी
                                            हिन्दी विभाग
                                            बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी
                                            मो. 8853523030
                                            manishmuntazir@gmail.com  


          


Wednesday 24 March 2010

बोध कथा १० : आदमी

बोध कथा १० : आदमी
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      एक बहुत ही दानी और अमीर व्यापारी के बारे में सुन कर गरीब ब्राह्मण रामानंद ने सोचा क़ि वह भी क्यों ना व्यापारी  के पास जा कर कुछ स्वर्ण मुद्राएँ मांग लाये.अपने मन की बात जब रामानंद ने अपनी धर्म पत्नी से कही तो उन्होंने भी इसके लिए हाँ कर दिया .
        फिर क्या था ? सुबह -सबेरे ब्राह्मण देवता चना-चबैना-गंगजल लेकर नगर क़ी तरफ निकल पड़े.लम्बी पद यात्रा कर के जब वे व्यापारी के पास पहुंचे तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना ना था. उन्होंने व्यापारी को अपनी सब ग्रह दशा बता दी. व्यापारी ने बड़े ही अनमने भाव से उनकी बात सुनी.अंत में बोला'' ठीक है ब्राह्मण ,कल आ जाना.आज कोई आदमी नहीं है.'' इतना कह कर वह व्यापारी घर के अंदर चला गया. ब्राह्मण सोचने लगा क़ि कुछ  बड़ा सा दान मिलने वाला है.एक दिन इन्तजार सही.नगर में इधर-उधर घूम कर भूखे पेट जैसे-तैसे उन्होंने रात बिताई.सुबह जब फिर व्यापारी के पास गए तो व्यापारी ने वही टका सा जवाब दिया.  ''कल आना,आज आदमी नहीं है.''
                              इस तरह लगभग एक महीना बीत गया. ब्राह्मण रोज व्यापारी के पास जाता  और व्यापारी वही रटा-रटाया जवाब देता क़ि,''कल आना,आदमी नहीं है .'' इस बार भी जब ब्राह्मण को वही जवाब मिला तो ,उससे रहा नहीं गया.ब्राह्मण ने हाँथ जोडकर विनम्रता पूर्वक कहा,''हे सेठ श्री,गलती आप की नहीं है. आप के पास आदमी नहीं है ,और मैं तो आप को ही आदमी समझ कर आ गया था.बड़ी भूल हुई,अब नहीं आऊंगा .''इतना कह कर ब्राह्मण तो चला गया पर व्यापारी को काटो तो खून नहीं.वह अपने व्यवहार पर अंदर ही अंदर जीवन भर शर्मिंदा होता रहा.
                             हमे जीवन में किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखनी  चाहिए.रहीम ने लिखा भी है क़ि------
                              '' रहिमन वे नर मर चुके,जो कुछ मांगन जांहि
                      उनसे पहले वो मुवें,जिन मुख निकसत नाहिं ''  

Thursday 18 March 2010

बोध कथा-६: भौतिकता

बोध कथा-६: भौतिकता 
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                                         कविता अभी ४ साल क़ी ही है. लोगों को यह लगता है क़ि वह बड़ी खुशनसीब है. उसके पिताजी किसी बड़ी विदेशी कंपनी में मैनेजर हैं. माँ भी कॉलेज में अध्यापिका हैं. घर में पैसे क़ी कोई कमी नहीं है. फिर कविता अपने माँ-बाप क़ी इकलौती संतान है.वह जो चाहती है,वह वस्तु उसे तुरंत दिला दी जाती. उसकी देख -रेख  करने के लिए घर में आया भी थी. माँ-पिताजी दोनों घर से बाहर रहते.ऐसे में अकेले ही कविता बोर हो जाती. उसे घर से बाहर भी जाने क़ी इजाजत नहीं थी.सिर्फ रविवार को माँ-पिताजी दोनों ही घर पे रहते.लेकिन उनका घर पर रहना भी ना रहने क़ी ही तरह था.वे दोनों अपने ऑफिस और महाविद्यालय क़ी ही बातों में उलझे रहते.कविता क़ी तरफ ध्यान देने का उन्हें मौका ही नहीं मिलता.
                                     ऐसे ही एक रविवार को जब दोनों लोग घर पे थे,कविता पहले दौड़ कर माँ के पास गई और बोली,''माँ ,आज तो छुट्टी है ना ? फिर मेरे साथ खेलो ना ." कविता क़ी बात सुनकर माँ बोली,'' अरे बेटा,बहुत काम है.मुझे बच्चों के पेपर चेक करने हैं.एक काम करो, तुम पापा के साथ जा कर खेलो .'' इसतरह माँ ने कविता को टाल दिया और वापस अपना काम करने लगी.
              माँ के पास से कविता पिताजी के पास आ गई. उसके पिताजी भी अपने   
 लैपटॉप  पर कुछ  जरूरी काम  कर रहे थे. कविता ने उनसे भी वही बात कही. इस पर उसके पिताजी मुस्कुराते हुए बोले,'' अगर मैं आप के साथ खेलूंगा  तो पैसे कौन  देगा ? आप जाओ ,मुझे जरूरी काम है. परेशान मत करो.''कविता चुप-चाप उलटे पाँव अपने कमरे में चली आयी. थोड़ी देर रोती रही .फिर अचानक उसका ध्यान अपने पैसों के गुल्लक पर गया. वह उस गुल्लक को लेकर अपने पिताजी के पास गई और बोली,''पापा, मेरे पास जितने पैसे हैं आप सब ले लो.पर मेरे साथ खेलो ना ,प्लीज़ .''
              मासूम कविता क़ी बातें सुनकर उसके पिता अवाक रह गए .उन्होंने कविता को अपनी गोंद में उठा लिया.और बोले,''बेटा ,मुझे माफ़ कर दो.इस पैसे और भौतिकता क़ी दौड़ में  अपने पिता होने क़ी जिम्मेदारी को भूल गया था.आज तुम ने मेरी आँखें खोल दी .''
                                                        इस तरह कविता के पिता को अपनी गलती समझ में आयी.कविता जैसे बच्चों के लिए ही शायद किसी ने कहा है कि--------- 
                                         '' सब के साथ है,मगर अनाथ है.
                              आज का बचपन बहुत बेहाल है .''        

( i do not hvae any copy right on the said above photos.)   

ताशकंद शहर

 चौड़ी सड़कों से सटे बगीचों का खूबसूरत शहर ताशकंद  जहां  मैपल के पेड़ों की कतार  किसी का भी  मन मोह लें। तेज़ रफ़्तार से भागती हुई गाडियां  ...