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Wednesday 24 October 2012

लोक साहित्य : साहित्य के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में


    


      लोक साहित्य की चर्चा से पूर्व लोक साहित्य के अर्थ को समझना ज़रूरी है , विशेष रूप से लोक शब्द का अर्थ । “लोक” शब्द के संदर्भ में डॉ बच्चन सिंह लिखते हैं कि,‘‘ लोक एक भौगोलिक शब्द है । इसे लेकर विविध लोकों की कल्पना की गई है । ऋग्वेद (3/53/21 )में लोक जीव एवं जगत के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इससे इतर वेदों में दिव्य और पार्थिव लोकों की कल्पना की गई है । उपनिषदों में दो लोक माने गए हैं – इहलोक और परलोक । निरुक्ति में तीन लोकों का उल्लेख है –पृथ्वी,अन्तरिक्ष और द्युलोक । दूसरे शब्दों में इन्हें भू: , भुव: और स्व: कहते हैं । पौराणिक काल में सात लोकों और सात पातालों का उल्लेख मिलता है । चूँकि अब परलोक की कल्पना कल्पना मात्र रह गयी है, अत: लोक इहलोक के अर्थ में प्रयुक्त होता है । लोक धर्म कहने से लोक का अर्थ जनसामान्य हो जाता है ”(आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द – बच्चन सिंह, पृष्ठ संख्या -98 )इसीतरह लोकसाहित्य का अर्थ हमें जनसामान्य का साहित्य समझना चाहिये ।

लोक शब्द की प्राचीनता के संदर्भ में डॉ कृष्णदेव उपाध्याय लिखते हैं कि,लोक शब्द संस्कृत के लोकृ दर्शने धातु से धग्यम प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है । इस धातु का अर्थ देखना होता है जिसका लट लकार में अन्य पुरुष एकवचन का रूप लोकते है। अत: लोक शब्द का अर्थ हुआ देखने वाला। इस प्रकार वह समस्त जन समुदाय जो इस कार्य को करता है लोक कहलाएगा।’’ (लोक साहित्य की भूमिका –डॉ कृष्णदेव उपाध्याय ,पृष्ठ संख्या 26 )

 विकीपीडिया लोक साहित्य के संदर्भ में जानकारी देता है कि,लोक-साहित्य में जन-जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है। डा० सत्येन्द्र के अनुसार- "लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।" (लोक साहित्य विज्ञान, डा० सत्येन्द्र, पृष्ठ-03)साधारण जनता से संबंधित साहित्य को लोकसाहित्य कहना चाहिए। साधारण जनजीवन विशिष्ट जीवन से भिन्न होता है अत: जनसाहित्य (लोकसाहित्य) का आदर्श विशिष्ट साहित्य से पृथक् होता है। किसी देश अथवा क्षेत्र का लोकसाहित्य वहाँ की आदिकाल से लेकर अब तक की उन सभी प्रवृत्तियों का प्रतीक होता है जो साधारण जनस्वभाव के अंतर्गत आती हैं। इस साहित्य में जनजीवन की सभी प्रकार की भावनाएँ बिना किसी कृत्रिमता के समाई रहती हैं। अत: यदि कहीं की समूची संस्कृति का अध्ययन करना हो तो वहाँ के लोकसाहित्य का विशेष अवलोकन करना पड़ेगा। यह लिपिबद्ध बहुत कम और मौखिक अधिक होता है। वैसे हिंदी लोकसाहित्य को लिपिबद्ध करने का प्रयास इधर कुछ वर्षों से किया जा रहा है और अनेक ग्रंथ भी संपादित रूप में सामने आए हैं-------------।’’

सरलता, कोमलता, सहजता और लोक जीवन का जैसा परिमल,विमल प्रवाह हमें लोकगीतों व लोक-कथाओं में मिलता है, वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। लोक-साहित्य में लोक-मानव का हृदय अपनी पूरी अनुभूतिमय सहजता से सामने आता है। लोक साहित्य के अंतर्गत निहित संगीतात्मकता ऐसी मधुर होती है कि मानों  प्रकृति स्वयं उन्हें गाती-गुनगुनाती और निर्मित करती है। लोक-साहित्य में निहित सौंदर्य का मूल्यांकन किसी सौंदर्य शास्त्र का मोहताज नहीं है अपितु यह सर्वथा अनुभूतिजन्य होता है। श्रुति एवं स्मृति ही वे माध्यम हैं जिनके सहारे  लोकसाहित्य की परंपरा जीवित रहती है और आगे बढ़ती है

 लोक साहित्य के अंतर्गत रचना अनेक कंठों से अनेक रूपों में बनते और बिगड़ते हुए  एक  विशिष्ट और सर्वमान्य रूप धारण कर लेती है,  इसतरह लोक साहित्य के अंतर्गत किसी विशिष्ट रचना की रचना प्रक्रिया समय और समाज के समानांतर चलते हुए एक लंबी सामाजिक जीवन प्रक्रिया का मान्य साहित्यिक रूप होता है परंपरागत एवं सामूहिक प्रतिभाओं से निर्मित होने के कारण विद्वानों ने लोकसाहित्य को "अपौरुषेय" की संज्ञा दी है। इसे इसतरह भी समझा जा सकता है कि लोक साहित्य के निर्माण या इसकी रचना प्रक्रिया में जो पौरुष है , वह पौरुष प्रकृति और समाज के ताने-बाने और इनके बीच के तादाम्य में निहित मानवीय चेतना का एक रूप है ।


एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर लोक साहित्य के अंतर्गत किन विषयों का समावेश होता है ? अथवा लोक साहित्य जीवन से जुड़े किन संदर्भों को अपने अंतर्गत समाहित करता है ? अब यहाँ ध्यान देना होगा कि लोक साहित्य अगर सामाजिक और साहित्यिक चेतना का रूप है तो इसमें मूल रूप से जीवन और प्रकृति  से जुड़े अनुभवों का सार होगा जो लोक मंगल, लोक रक्षक  लोक धर्म के भावों से भरा होगा । यह साहित्य जीवन की अनुभूतियों का सहज बयान होता है । ऋतुविद्या, स्वास्थ्यविज्ञान, कृषिविज्ञान, समाज,सामाजिक-सांस्कृतिक राजनीतिक परिस्थितियाँ , मिथक , धार्मिक और पौराणिक मान्यताएँ सभी कुछ इसके अंतर्गत समाहित होता है । जीवन की  अनुभूतियों, मान्य सामाजिक  नियमों एवं तत्संबंधी उपदेशात्मक बातों का  बड़ा ही सहज बयान लोक गीतों या लोक गाथाओं में मिलता है।
  साहित्य का समाजशास्त्र और इस साहित्यिक समाजशास्त्र का समाजशास्त्रीय अध्ययन हिन्दी साहित्य में एक नई संकल्पना रही है जिसे एक विधा के रूप में स्वीकार करने न करने का विवाद साहित्य अध्येताओं के लिए नया नहीं है । लोक साहित्य के संदर्भ में इसका अवलोकन वस्तु स्थिति को समझने का संभवतः एक नया दृष्टिकोण है, जिसकी स्वीकार्यता / अस्वीकार्यता गंभीर साहित्यिक विश्लेषण,विवेचन और अनुसंधान का विषय है । लोक साहित्य : साहित्य के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य  में, इस बात को स्पष्ट कर सकने में सहायक हो सकता है कि साहित्य का निश्चित रूप से एक समाजशास्त्र होता है । यह समाजशास्त्र मानव जीवन की सामाजिक प्रक्रिया एवं उसकी प्रकृतिगत सामंजस्यता के बीच निहित चेतना का परिचायक होता है ।

लोक साहित्य हमें समाज और सामाजिक परम्पराओं,मान्यताओं और संदर्भों से गहराई के साथ जोड़ता है । journal of indian folkloristics के अंतर्गत जनवरी-जून 1978 के अंक में छपे Suzanne Hanchett के आलेख में लोक साहित्य के सामाजिक परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में साफ लिखा गया है कि, Sociological studies have a few distinct advantages over folkloric and literary approaches which previously characterized scholarly studies of Hinduism.  First, sociological studies focus on folk religion as it is lived, that is, in a social context. Secondly, they are oriented towards theoretical questions and hypotheses, bringing Hindu folk ways into social science frameworks in several interesting ways. And third, they have told us much about the social consequences of ritual actions for Hindu community structure.” साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन साहित्यिक कलात्मकता के साथ-साथ इतिहास और समाज बोध को अपनी संकल्पना में समेटे हुए है । मानवीय संस्कृति की भौतिकवादी व्याख्या के परिणाम स्वरूप ही साहित्य के समाजशास्त्र की संकल्पना भी अस्तित्व में आयी ।
 मेरा आग्रह इस संदर्भ में मुख्यरूप से सिर्फ इतना है कि साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की पद्धति/प्रक्रिया/स्वरूप पे चर्चा करते हुए लोक साहित्य के स्वरूप को आदर्श,प्रादर्श और प्रतिदर्श के रूप में स्वीकार किए जाने की संभावनाओं पर जरूर गंभीर विचार होना चाहिए ।


                                        डॉ मनीष कुमार मिश्रा
असोसिएट – भारतीय उच्च अध्ययन केंद्र(IIAS), शिमला
एवं प्रभारी- हिंदी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय,कल्याण, महाराष्ट्र
मो. 8080303132,09324790726
ब्लाग-www.onlinehindijournal.blogspot.com




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