Showing posts with label अमरकांत के कथा साहित्य का शिल्प. Show all posts
Showing posts with label अमरकांत के कथा साहित्य का शिल्प. Show all posts

Tuesday 5 July 2011

अमरकांत के कथा साहित्य का शिल्प




          अमरकांत 'नई कहानी` आदोलन के प्रमुख कथाकार हैं। यह 'नई कहानी` वास्तव में पूर्व से प्रचालित कहानी विधा में एक नया और महत्वपूर्ण मोड़ था। आज़ादी के बाद का मोहभंग, निराशा और जीवन के यथार्थ के कहु अनुभव को नयी कहानी ने सामने लाया। 'नयी कहानी` के कथाकारों ने जो अनुभव निजी जीवन में किया ---- को अपनी लेखनी के माध्यम से सामने भी लाया। 'नयी कहानी` का यह नयापन स्वतंत्र भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक परिवर्तन के बीच से अपनी जमीन बना रहा था।
       अमरकांत के अबतक के संपूर्ण कथा साहित्य को उसकी समग्रता में देखने पर ज्ञात होता है कि अमरकांत बदलते सम्-सामजिक परिवेश के आधार पर अपने विचारों में भी आमूल-चूल परिवर्तन ला रहे हैं। अमरकांत के पात्रों की हालत में पहले परिवर्तन दिखलायी नहीं पड़ता था पर 'सुरंग` जैसे लघुउपन्यास की पात्र बच्ची देवी अपने पति की नज़रों में ऊँचा उठने और आस-पास के शहरी वातावरण में ढलने के लिए मोहल्ले की ही पढ़ी-लिखी स्त्रियों की मदद लेती है। इस तरह अब अमरकांत के पात्र भी-आपसी सहयोग और शिक्षा के माध्यम से अपनी स्थिति में बदलाव ला रहे हैं। 'इन्हीं हथियारों से` जैसे उपन्यास के माध्यम से अमरकांत गाँधीवाद के समर्थक नज़र आते हैं और गाँधी के पुर्नमूल्यांकन की बात करते हैं। में जाती-स्थितियाँ अमरकांत के बदलते दृष्टिकोण की इतलक है।
       अमरकांत के कथा साहित्य में वह परिवेश पूरी तरह से चित्रित हुआ है जो अमरकांत का स्वयं का परिवेश रहा है। बलिया, लखनऊ, इलाहाबाद और गोरखपुर जैसे शहरों का वर्णन अमरकांत के पूरे कथा साहित्य में दिखायी पड़ता है। यहाँ की बोली, संस्कृति, खेती, मिट्टी, मान्यताएँ और ऐतिहासिक बातों की चर्चा अमरकांत ने विस्तार के साथ की है। अमरकांत के कथा-साहित्य में 'आंचलिक बोध की व्यापकता हो है, पर इसके आधार पर अमरकांत को आंचलिक कथाकार नहीं कहा जा-सकता। अमरकांत लंबे समय तक बलिया और इलाहाबाद में रहै। वहाँ की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवम् ऐतिहासिक स्थितियों से वे अच्छी तरह वाकिफ थे। अत: अपनी कथाओं में प्रसंगवश जब इन बंचलों का वर्णन वे करते हैं तो उसमें विस्तार के साथ-साथ वास्तविकता की भी गहरी छाप दिखायी पड़ती है।
       अमरकांत नई कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकारों में से एक हैं। 'नई कहानी` पर महानगरीय जीवन में निहित अकेलेपन, संवेदनशून्यता और अतिव्यस्तता का भी प्रभाव पड़ना सहज ही था। साथ ही साथ अर्थ के आधार पर बदलते संबंधो की स्थिति बेरोजगारी की समस्या जातिगत बंधनों की शिथिलता की समस्या, एकाकीपन, अजनबीपन, कुंठा, संत्रास और इन सब के बीच जीवन जीने के लिए आभिशप्त व्यक्ति की मानसिक स्थिति को अमरकांत ने बड़ी ही गहाराई और आर्मिकता के साथ चित्रित किया है। यहाँ एक बात यह भी ध्यान रखनी होगी कि अमरकांत ने अपने कथासाहित्य में प्राय: छोटे शहरों, कस्बों या उसने सटे हुए ग्रामीण अंचलो को ही चित्रित किया है। ऐसा इसलिए नहीं कि वे महानगरीय जीवन को काल्पनिक रुप से प्रस्तुत नहीं कर सकते थे। बल्कि इसलिए क्योंकि वे जिस परिवेश में स्वयं रह रहे थे, उसी को पूरी वास्तकिता और ईमानदारी के साथ चित्रित करने में विश्वास करते थे। साथ ही इन कस्बों एवम् ग्रामीण अंचलों में निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्गीय जीवन के जिन पहलुओं को लेकर अमरकांत ने कथा साहित्य की रचना की, वह उनके समकालीनों में कम ही दिखायी पड़ती हे। कुछ समीक्षकों ने अमरकांत के इस दायरे को 'सीमित दृष्टिफलक` कहते हुए उन्हें 'छोटे दायरे` का कथाकार माना। लेकिन निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग को केन्द्र में रखकर कथा साहित्य रचनेवाले कथाकार का दायरा 'छोटा` किस तरह से मान लिया जाता है यह बात हमारी समझ में नहीं आती। दूसरी बात अगर 'दायरे` की करें तो अमरकांत का जो भी दायरा था वह उनकी अपनी परिवेशगत सीमा थी। जिस तरह के परिवेश में उन्होंने अपना जीवन जिया, उसी को उन्होंने अपने कथासाहित्य में चित्रित भी किया। शायद यही कारण है कि अमरकांत के कथासाहित्य में इतनी सहजता एवम् वास्तविकता दिखायी पड़ती है। अमरकांत ने मात्र कल्पना को आधार बनाकर आधुनिक जीवन की विसंगतियों एवम् जटिलताओं का दिखाने का प्रयास नहीं किया। अमरकांत के कथासाहित्य में जो यथार्थ बोध लक्षित होता है, उसका भी कारण यही है।
       अमरकांत के कथासाहित्य को अगर संवेदना की दृष्टि से देखें तो हम पायेंगे कि उनके उपन्यायों एवम् कहानियों के कथानक कलात्मक दृष्टि से अपनी संवेदनाओं के अनुरुप ही-गढ़े गये हैं। कथानक में इतनी सहजता,परिवेश गत जुड़ाव दिखायी पड़ता है कि उसमें कोई बात जबरजस्ती थोपी गयी हो ऐसा-बिलकुल भी नहीं लगता। रजुआ,मूस का फिर हत्यारे जैसी-कहानियों के पात्रों का संवाद,उनकी सामाजिक परिस्थिति आदि को अमरकांत बढ़ी सूक्ष्मता और चालाकी के साथ दिखाते हैं। उनकी हमेशा यह कोशिश रहती है कि पात्रों की निरीहता के प्रति पाठको में अधिक करुणा और उसकी परिस्थितियों के प्रति क्रोध और धृणा का भाव जागृत हो। ऐसा करने में वे सफल भी दिखायी पड़ते हैं। अमरकांत के अंदर मनोविज्ञान की अच्छी समझ दिखायी पड़ती है। शायद यही कारण है कि राजेन्द्र यादव उन्हें 'मानसिक टुच्चेपन` का श्र्रेष्ठ कथाकार मानते हैं। यह अमरकांत के कथा साहित्य की बहुत बड़ी शक्ति भी है। यह वही शक्ति है जिसके माध्यम से अमरकांत पाठकों के अंदर मनचाहे तरीके से संवेदनाएँ जागृत कराने में सफल होते रहे। अमरकांत के पात्र दोहरे चरित्र वाले हैं। लेकिन कथानक में स्थितियाँ के अंदर वे इस तरह परिवर्तन लाते हैं कि पात्रों काऱ्यह दोहरा चरित्र उजागर हो ही जाता है। इन सारी-परिथितियों में व्यंग्य और नाटकीयता का उपयोग अमरकांत खूब करते हैं। जिनके बारे में हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं।
       अमरकंात के कथासाहित्य में निहित शिल्प के संदर्भ में एक बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि वे अपने कथानको के सर्वथा अनुरुप हैं। कला और शिल्प के बीच सुंदर समन्वय अमरकांत के कथा साहित्य में दिखायी पड़ता है। यह सच है कि नई कहानी में शिल्प नहीं कथ्य महत्वपूर्ण हो गया। पर इस नये कथ्य ने ही नये शिल्प के स्वरुप को सामने लाया। परंपरागत शिल्प किसी भी दृष्टि से इस नये कथ्य की अभिव्यक्ति में सहायक नहीं हो सकता था। शिल्प की इस नयी स्थिति को देखकर कई समीक्षकों को यह भी शक हुआ कि नई कहानी में कथ्य नहीं,सिर्फ शिल्प ही शिल्प है। शिल्प में आया हुआ यह परिवर्तन कोई कृत्रिम नहीं था अपितु नये-संदर्भो में यह उसके विकास का सहज स्वरुप था।
       शिल्प के इन नये स्वरुपों का कथासाहित्य में जमकर उपयोग किया गया। मिथ्रित शैली का एक नया ढाँचा इस समयके कथानक के माध्यम से सामने लाया। दोहरे शिल्प के प्रयोग से कथासाहित्य की अर्थवत्ता और संवेदनशीलता में वृद्धि दिखायी पड़ी। एक ही कहानी में अनेक कथाओं के शिल्प का भी उपयोग किया गया। अमरकांत के यहाँ भी इस मिथ्रित शिल्प पद्धति का भरभूर उपयोग किया गया।'इन्हीं`हथियारों से`या 'बिदा की रात`जैसे उपन्यास में इसी तरह का प्रयोग दिखायी पड़ता हैं। डायरी शैली का उपयोग अमरकांत ने न के बराबर किया है। उनके कई उपयासों एवम् कहानियों में पात्रों के द्वारा लिखे गये पात्रों के माध्यम में कथानक-आगे बढ़ता हुआ तो दिखायी पड़ता है पर इन्हें हम डायरी शैली के-अंतर्गत नहीं मान सकते। चित्रात्मक शैली का भी उपयोग अमरकांत ने अपने कथासाहित्य में किया है। अमरकांत की सूक्ष्म चित्रण क्षमता का अंदाजा इस शैली के माध्यम से लगाया जा सकता है। इसीतरह अमरकांत ने रेखाचित्र तथा संस्मरणात्क शैली का भी उपयोग चरित्र रेखांकन के लिए किया। आत्मकथात्मक शैली में तो उन्होंनें कुछ उपन्यासों की ही रचना की। यहाँ पर मुख्य पात्र आपबीती कहता हुआ दिखायी पड़ता है। 'आकाश पक्षी`अमरकांत का ऐसा ही उपन्यास हैं। इसके अतिरिक्त आत्मविश्लेषणाव्यक शैली प्रलापात्मक शैली,चेतना प्रवाह शैली, वर्णनात्मक शैली, नाट्या शैली, पूर्व-दीप्तिशैली एवम् समन्वित शैली की छाप अमरकांत के कथासाहित्य पर स्पष्ट रुप से दिखलायी पड़ती है।
       अमरकांत का कथासाहित्य अनेक अर्थो में प्रेरक साहित्य रहा है। प्रेमचंदकी परंपरा को अमरकांत ने वस्तु और शिल्प दोनों धरातलों पर विकसित किया है। जहाँ एक और उन्होंनें सामाजिक यथार्थ का संवेदनात्मक निदर्शन किया वहीं दूसरी और समाज को जागरुक और सचेत बनाने-का प्रयास किया। उनकी रचनाओं में जो प्रयोगधर्मी विकास लक्षित होता है वह एक संवेदनशील रचनाकार की रचनाधर्मिता का प्रमाण है। वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से उन्होंनें थ्रेष्ठ कथात्मक कृतियाँ तो प्रस्तुत की ही हैं साथ ही अन्य कथाकारें के लिए सुगम पथ भी प्रशस्त किया है। अपने कथासाहित्य के माध्यम से वे अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति और सामाजिक स्थितियों के साथ तदाकार होने की स्थिति स्पष्ट करते हैं। प्रत्येक प्रकार के परिवेश को वे समग्रता, पूर्णता और प्रभावान्विति के साथ प्रस्तुत करते हैं। अमरकांत के कथा साहित्य में निहित यही विशेषताएँ अपने समकालीनों में उनकी एक विशिष्ट पहचान बनाती है।
       अमरकांत के कथा साहित्य का शिल्पगत वैशिष्ट्य ही इस अध्याय का मुख्य विषय है। इस अध्याय के अंतर्गत हम शिल्प से जुड़ी प्रमुख बातों की विवेचना विस्तार से करते हुए अमरकांत के शिल्प संबंधी दृष्टिकोण को सामने लाने का प्रयत्न करेंगे।
1. शिल्प का स्वरुप और सृजन :-
       समय, दशा, काल तथा परिस्थितियाँ-परिवर्तन+शील हैं। अपने समय विशेष की परिस्थितियों में जीते हुए हर सजग और संवेदनशील कथाकार उनको अपने साहित्य का विषय बनाता है। अपने अनुभव,विचार और कल्पना को वह साहित्य के माध्यम से मूर्त रुप प्रदान करता है। एक ही समय में रहनेवाले साहित्यकारों के अनुभव का दायरा एक सा ही हो यह आवश्यक नहीं है। साथ ही साथ सबकी आभिव्यक्ति पद्धति भी अलग ही होती है। शिल्प अभिव्यक्ति की पद्धति का एक प्रकार ही है। जिसतरह विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन होता रहता है उसीतरह शिल्प का स्वरुप भी हमेशा बदलता रहता है। समस्त रचना विधायक तत्वों के सहयोग से किसी कृति विशेष को जो साहित्मक प्रतिभा प्राप्त होती है उसे शिल्प की परिणति का आधार कहा जा सकता है। सीधे सरल संदर्भो में हम 'रचना प्रक्रिया`को शिल्प मान सकते हैं। शिल्प के अंतर्गत बाह्म रचना प्रणाली के साथ-साथ आंतरिक प्रणालियों का भी सहयोग होता है।
       शिल्प-विधि के संदर्भ में डॉ.अनिल सिंह अपनी पुस्तक 'कथाकार शानी` में लिखते हैं कि,''शिल्प-विधि के लिए-अंग्रेजी में टेकनीक शब्द का प्रयोग होता है। टेकनीक के अतिरिक्त अंग्रेजी में सेटिंग,मेनिक्स,कंस्ट्क्शन,आटीस्टी्,आर्ट एक्सप्रेशन जैसे कई शब्दो का प्रयोग किया गया है। हिन्दी के समीक्षक भी शिल्प,शिल्प-विधान, रचना पद्धति आदि शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी भाषा के किसी न किसी शब्द के पर्याय के रुप में प्रयुक्त करते हैं। एक्सप्रेशन अर्थिव्यक्ति है, आर्ट कला है और टेकनीक ढ़ग,विधान,तरीका है। अंग्रेजी का टेकनीक शब्द,इसके सर्वाधिक निकट है। टेकनीक से तात्पर्य रचना-पद्धति से है। शिल्प रचना को एक रुप प्रदान करता है। किसी वस्तु के रुप में परिवर्तन करना शिल्प-विधि पर ही निर्भर करता है जो-साहित्यकार की इव्छा तथा उद्देश्य के अनुसार होता है।``1
       हम यहाँ पर अमरकांत के कथा साहित्य के शिल्पगत वैशिष्ट्य की विस्तार से चर्चा करेगें। निम्नलिखित बिंदुओं के स्पष्टीकरण से इस शिल्पगत वैशिष्ट्य की स्थिति स्पष्ट होती जायेगी। साथ ही साथ हम विजयमोहन सिंह की कही उस बात की गहराई को भी समझ सकेंगे जिसमें वे कहते हैं कि,''अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं,जैसी माँग कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी।``अमरकांत'नयी कहानी`के कथाकार रहे हैं साथ ही साथ एक लेखक के रुप में उनकी लेखनी सतत चल रही है। अत:अब तक प्रकाशित अमरकांत के समग्र कथासाहित्य को केन्द्र में रखकर हम उसके शिल्पगत वैशिष्ट्य को समझने का प्रयास इस अध्याय में करेंगे।
2) संरचनात्मक वैशिष्ट्य :-
       साहित्य लेखन की जो भी विधा हो,उसका उसके शिल्प से बड़ा ही घनिष्ठ और महत्वपूर्ण संबंध होता है। हम जिस प्रणाली में किसी रचना विशेष को प्रस्तुत करते हैं वही उसका शिल्प कहलाता है। किसी वस्तु के निर्माण में कई प्रक्रियाँ होती हैं साथ ही साथ उन प्रक्रियाओं के लिए कई विधिओं का भी प्रयोग होता है। ये सारी प्रक्रियाएँ और विधियाँ ही संयुक्त रुप में 'शिल्प विधी` कही जाती हैं। इसलिए जब बात किसी साहित्मिक रचना के शिल्प-विधी की होती है तो यहाँ पर 'शिल्प-विधि`का तात्पर्य उस कृति विशेष की रचना पद्धति से है। कृति विशेष के लिए अपनायी जानेवाली रचना पद्धति रचनाकार की अपनी अनुभूतियों एवम् उसकी प्रयोगात्मक दृष्टि पर आधरित होती है। हर रचनाकार समय की माँग के अनुसार अपनी रचना-पद्धति में परिवर्तन लाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि शिल्प का कोई निश्चित या परंपरागत स्वरुप हमेशा स्थायी नहीं रहता है। यह एक सतत् गतिमान प्रक्रिया है,जिसमें परिवर्तन-हमेशा होता रहता है। शिल्प को लेकर हमेशा ही नये-नये प्रयोग साहित्य जगत में होते रहते हैं। हर रचनाकार अपनी अनुभूतियों के लिए किसी बनी बनायी साहित्मिक विधा के मापदेड को स्वीकारने के लिए बाहम नहीं होता। वह नये प्रयोगों के लिए स्वतंत्र होता है। यही नये प्रयोग युगानुरुप शिल्प के नये ढाँचे को हमारे सामने लाते हैं।
       कृति विशेष की शिल्प-विधी और-विषय वस्तु दोनों का महत्व समान होता है। किसी को-किसी से कमतर नहीं आँकना चाहिए। विद्वानों के-बीच अक्सर शिल्प और विषय वस्तु के महत्व को लेकर बहरग चलती रहती है। लेकिन हमें दोनों का ही महत्व समान नज़र आता है। प्रा. सतीश पाण्डेय इस संदर्भ में लिखते हैं कि,''किसी भी रचना में उसकी शिल्प-विधी और विषय-वस्तु दोनों का समान महत्व होता है। दोनों के बीच कोई विभाजक रेखा खींचकर इनका अलग-अलग महत्व आंकना दुष्कर ही नहीं, कृत्रिम भी हो सकता है। शिल्प यथार्थ परिवेश से संयृक्त कथ्य से उद्भूत होता है और वह जीवन के मानवीय संदर्भो में इतना लीन हो जाता है कि उसे अलग से न तो परिभाषित किया जा सकता है, न स्पष्ट ही। अनुभूति के स्तर पर उसकी प्रतिति भर हो सकती है। वस्तुत:किसी भी कृति में शिल्प तो हवा की तरह विद्यमान रहती है। जिस प्रकार हवा सर्वत्र व्याप्त होती है,किन्तु उसका प्रत्यक्षी-करण नहीं होता,उसी तरह शिल्प का भी पृथक प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। फिर भी अनेक अवसरों और संदर्भो में दोनों की अलग-अलग स्थिति को स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है।``3 प्रा. सतीश जी की बातों से स्पष्ट है कि-विषय-वस्तु और शिल्प दोनों का ही महत्व समान है।
       कोई लेखन अपनी किसी कृति के लिए जिस शिल्प का उपयोग करता है, उस शिल्प के माध्यम से लेखक के दृष्टिकोण एवम् उसके रुचि को भतीभाँति-समझा जा सकता है। अपने अमूर्त भावों को लेखक शिल्प के माध्यम से ही एक मूर्तस्वरुप प्रदान करता है-लेखक मन में जो सोचता और जिसतरह इसे प्रस्तुतकरता है वही पद्धति विशेष ही अपनी समग्रता में शिल्प कहलाती है। लेकिन शिल्प और विषय में जो बुनियादी अंतर है उसे भी समझलेना आवश्यक है। डॉ.गोपाल राम इस संबंध में लिखते हैं कि,''भी कला में उसके शिल्प का विषय से अनिवार्य और घनिष्ठ संबंध होता है। शिल्प की विश्ष्टिटा के चलते ही विषय-विशेष को वैशिष्ट्य प्राण्त होता है और शिल्प का तो अस्तित्व ही विषय सापेक्ष है। विषय से अलग शिल्प की कल्पना असंभव है। ईश्वर निर्मित वस्तुओं के संबंध में कुछ कहना तो कदाचित संभव नहीं,पर मानव-रचित पदार्थो के आकार या रुप पर उसके मूलभूत,उदे्दश्य अर्थात'विषय` का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। एक उदाहरण से इस कथन की पुष्टि की जा सकती है। एक मंदिर का आकार वही नहीं होता, जो मस्जिद या गिरिजाघर का होता है। व्याख्यान कक्ष की बनावट शयन-कक्ष या पुस्तकालय या दुकान की बनावट से भिन्न-होती है। यही बात उपन्यास या अन्य कलाकृतियों के संबंध में भी कही जा सकती है।`` अपने इस उदाहरण के माध्यम से गोपालराम जी ने एकदम सरल तरीके से विषय और शिल्प के अंतर को बताते हुए भी उनकी परस्पर सापेक्षता को हमारे सामने रखते हैं।
       शिल्प संबंधी उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि, ''वस्तुत:शिल्प ही वह माध्यम है जिससे लेखकीय दृष्टिकोण और उसकी अनुभूति अभिव्यंजित होती है। कला के विभिन्न तत्वों की संयोजना का वह विधान जिससे रचनाकार की अनुभूति मूर्त रुप धारण कर ले, शिल्प-विधी कहलाती है।`` हिन्दी कथा-साहित्य में औपन्यासिक शिल्प-विधी और कहानी के शिल्प का अपनी एक इतिहास है। कहानी के उपकरण के रुप में-कल्पना और भाव, प्रेम, सौन्दर्य, कथानक आधार, करुणा एवम् हास्य की चर्चा होती है तो उपन्यास की शिल्प-विधी के विभिन्न तत्वों के रुप में लेखकीय उद्देश्य, दृष्टिकोण या दर्शन, देशकाव्य, कथावस्तु, संवाद - योजना, चरित्र - चित्रण, भाषा एवम् शैली की व्रत प्रमुखता से उठायी जाती है। हिन्दी उपन्यास एवम् कहानी की शिल्पगत विकास यात्रा की चर्चा यहाँ उचित नहीं प्रतीत होती। शिल्प, शिल्प के अर्थ, विषय और वस्तु के बीच के अंतर को समझने के बाद अब अमरकांत के कथासाहित्य के संदर्भ में विभिन्न शैलियों के उपयोग की चर्चा हम आगे करेंगे।
2) शैलीगत वैविध्य :-
       हर लेखक या रचनाकार अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा, शिल्प, संवाद, पात्र, कथानक एवम् परिवेश के माध्यम से अपनी एक विशेष पद्धति का निर्माण करते हैं। इस विशेष पद्धति को ही उसकी शैली भी कही जाती है। अपनी रचनाओं की आवश्यकतानुसार रचनाकार कई शैलियों को अपनाता है। यहाँ पर यह बात भी हमें समझती होगी कि कोई रचनाकार जिस शिल्प विधियों का चमन करता है वह उसके अपने निजी जीवन एवम् परिवेश से भी गहरा संबंध रखती हैं। आंचलिकता की शैली कोई रचनाकार तभी अपना पायेगा जब वह एवम् उस अंचल से अच्छी तरह परिचित होगा। अन्यय वह अपनी रचनाओं में प्रभाव नहीं डाल पायेगा। इस तरह किसी लेखक के द्वारा अपनायी जानेवाली शैलियाँ उसके अपने व्यक्तित्व को भी समझने में काफी मदद करती हैं।   अमरकांत के अब तक के संपूर्ण कथासाहित्य में अपनायी गयी शैलियों के आधार पर हम अमरकांत के व्यक्तित्व को भी समझ पायेंगे। हिन्दी कथासाहित्य में वर्णनात्मक शैली, सांकेतिक शैली, आत्मकथात्मक शैली, पत्रात्मक शैली, चेतना-प्रवाह शैली, डायरी शैली, पूर्वदीप्ति शैली, नाटकीय शैली, दृश्य-विधान शैली, उद्धरणात्मक - प्रतीकात्मक शैली एवम् समय-विपर्यय जैसी शैली अपनायी जाती रही है।
       अमरकांत के उपन्यासों के संदर्भ में बात करें तो हम पायेंगे कि 'सूखापत्ता` से लेकर 'बिदा की रात` तक के अपने औपन्यासिक सफर में अमरकांत ने कई शैलियों का उपयोग किया है। यहाँ पर हम संक्षेप में इन सभी उपन्याओं में अपनायी गयी शैलियों की चर्चा करगें। यहाँ यह भी समझना होगा कि उपन्यासकार अपने किसी भी उपन्यास में सिर्फ एक शैली का उपयोग नहीं करता। कथानक की आवश्यकतानुसार वह एक ही उपन्यास में कई शैलियों का उपयोग भी करता है।
       'सूखा पत्ता` अमरकांत का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास की व्यापक चर्चा भी हुई है। अमरकांत भी यह मानते हैं कि उन्होंने शुरू में जो उपन्यास लिखें,उनमें 'सूखा पत्ता` विशिष्ट है। जिसका स्वरूप पूर्वदीप्ति या 'फ्लैश बैक` के माध्यम से सामने आता है। उदाहरण के लिए अमरकांत उपन्यास की शुरूआत करते हुए लिखते हैं कि,''जब कभी अपने लड़कपन और स्कूली दिनों की बात सोचता हूँ तो सबसे पहले अपने चार दोस्तों और मनमोहन की याद आती है.....।``6 स्पष्ट है कि अमरकांत अपनी बात करते हुए अपने बचपन और स्कूल के दिनों को याद करते हुए इस उपन्यास की शुरूआत कर रहे हैं। यह आत्मकथात्मक और पूर्वदीप्ति शैली मिश्रित स्वरुप है जिसका उपयोग उन्होंने उपन्यास के शुरुआत में ही किया। निर्मल सिंहल जी ने अपनी पुस्तक 'नई कहानी और अमरकांत` में यह स्वीकार किया है कि अमरकांत मुख्य रुप से आत्मकथ्य और रेखाचित्र शैली का उपयोग अपने कथा साहित्य में करते हैं। साथ ही साथ नई कहानी आंदोलन में शिल्प को लेकर, उसके मिश्रित स्वरुप को लेकर जिस तरह प्रयत्न किये गये, उससे अमरकांत अलग दिखायी पड़ते हैं। वे लिखती थी हैं कि, ''अमरकांत में शिल्प प्रयोगों की यह विविधता नहीं है।`` शिल्प को लेकर तरह-तरह के प्रयोग करने की प्रवृत्ति उनकी नहीं है।``7 सिंहल जी की यह बात मोटे तौर पर सच अवश्य है किंतु यह कहना कि 'शिल्प को लेकर तरह-तरह के प्रयोग करने की प्रवृप्ति अमरकांत की नहीं है। यह बात मेरे मतानुसार उचित नहीं हैं। क्योंकि अमरकांत ने नवीनतम उपन्यासों (इन्हीं हथियारों से, सुरंग, बिदा की रात) और उनकी कई कहानियों में शिल्प को लेकर काफी प्रयोग दिखायी पड़ता है। साथ ही साथ यह भी समझना होगा कि शिल्प के साथ यह प्रयोग जानबूझकर किया गया, ऐसा भी नहीं लगता। फिर उपन्यासों में तो कई शैलीगत विधाओं का मिश्रण हमें सहज रूप में दिखायी पड़ जाता है। आत्मकथात्मक, रेखाचित्र, पूर्वदीप्ति, व्यंग्यात्मक, स्वप्न-विश्लेषण और संवाद शैली जैसी अनेकों शैलीगत विधाओं का उपयोग अमरकांत लगातार करते आ रहे है।
       अमरकांत नििवचशत तौर पर शिल्प को लेकर हमेशा सजग रहे हैं। यह अलग बात है कि उनके कथा साहित्य में कथानक का प्रवाह इतना सहज, सरल और सुसंगठित होता है कि शिल्प को लेकर उनकी सप्रयास सजगता पाठकों और समीक्षकों को नजर नहीं आती। 'दोपहर का भोजन जैसी` कहानी में 'मौन` अधिक दिखायी पड़ता है। यह विस्तार भी नहीं है। स्पष्ट है कि जहाँ कथानक के केन्द्र में 'भूख` और इस भूख के साथ सामंजस्य बैठना ही उद्देश्य होगा वहाँ पात्रों का मौन रुप ही सामने आयेगा। और फिर अगर पात्रों को मौन ही अधिक रहना है तो कथानक का विस्तार भी कम होगा। अमरकांत की कहानियों को 'शिल्पविहीन` भी कहा गया है। क्योंकि उनकी ज्यादातर कहानियाँ या तो आत्मकथात्मक रूप में किसी घटना विशेष को लेकर लिखी गयी हैं या फिर रेखाचित्र के रूप में किसी पात्र के वर्णन के साथ। पर इन दोनों ही स्थितियों में कुछ चीजें बड़े स्पष्ट रूप से सामने आयी हैं। जैसे कि घटनाओं या पात्रों के माध्यम से यथार्थ चित्रण, व्यंग्यात्मकता, मनोवैज्ञानिक विवेचना और सहज तथा सरल भाषा का उपयोग। अमरकांत शिल्प को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानते हैं जितना की वस्त को। अपने साक्षात्कार के दौरान जब मैंने उनसे दोनों के संतुलन को लेकर बात की तो उन्होने कहा कि, ''.....संतुलन कोई गणित थोड़े ही है। वस्तु जो है वह जीवन है। कथा में जैसे कथा तत्व है। आप पूरे जीवन के अंर्तविरोधों को देखते हैं, जीवन को देखते है, समझते हैं। तब जाकर आपकी कथा बनती है। किसी भी साहित्यिक विधा में अगर जीवन ही जीवन है, कहा नहीं है तो वह पत्रकारिता हो जायेगा। लेखक अपने तरीके से दोनों का इस्तमाल करता है। लेखक का काम है जीवन को देखना और उससे बिम्ब प्राप्त करना। उसमें कला और वस्तु दोनों होता है। तराजू पर कला और वस्तु को संतुलित नहीं किया जा सकता। पर दोनों आवश्यक हैं। किसका कितना अनुपात है यह रचना के स्वरूप पर भी निर्भर करता है। साथ ही साथ यह 'इवर डेवलपिंग` चीज है। यह कोई स्थिर चीज नहीं हैं। यह बात लेखक की मेहनत और क्षमता पर भी आधारित हैं।.....।``8 स्पष्ट है कि अमरकांत शिल्प के प्रति सजग हैं, लेकिन जिस तरह उन्होंने कभी सप्रयास या काल्पनिक रूप में कोई कहानी या उपन्यास नहीं लिखा, उसी तरह किसी शिल्पगत स्वरूप को भी सप्रयास नहीं अपनाया। अपने कथानक के अनुरूप उन्हें जो शैली सही लगी, उसी का उन्होंने चयन किया।
       इस बात को मधुरेश जी ने भली-भाँति समझा और वे लिखते है कि, ''...यह भी हो सकता है कि बहुतों को वह अपने समय से पीछे छूट जाते भी लगे हों - अपनी कहानियों की विषयवस्तु के चयन में ही नहीं, शिल्प-संचेतना और भाषा-शैली की दृष्टि से थी। लेकिन एक तरह से अमरकांत का यह समय से पीछे छूट जाना ही उनका अपने समय से आगे बढ़ जाना था। कम से कम आज से प्रमाणित कर सकने में किसी किस्म की कोई दिक्कत पेश नहीं आनी चाहिए। ....उनकी कहानियाँ ऊपरी तौर पर कैसी भी शिल्प सजगता में जैसी हीन और असावधान दिखायी देती हैं, वस्तुत: वे वैसी हैं नहीं। यह बात अलग है कि अपनी सादगी के कारण ही वह सजगता उतनी आसानी से पकड़ में नही आती है, जितनी आसानी से राजेन्द्र यादव, रेणु या निर्मल वर्मा की कहानियाँ आ जाती हैं।``9
       इसलिए यह कहना कि अमरकांत का कथा साहित्य शिल्पविहीन है या अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में शिल्प को लेकर प्रयोग नहीं किये, यह उचित नहीं जान पड़ता। 'शिल्प-विहीन शिल्प` भी शिल्प का एक प्रकार ही है। अमरकांत की कई कहानियों में यह शिल्प दिखायी पड़ता है। उपेन्द्रनाथ अश्क जी इस बारे में कहते हैं कि, ''शिल्प का एक रूप होता है, जिसे हम शिल्प-विहीन शिल्प - आर्ट-लेस-आर्ट कहते हैं। तोलस्ताय ने इसे बहुत ऊँची कला माना है। 'दोपहर का भोजन` इस कला का सर्वोत्कृष्ट नमूना है।``10 अत: अमरकांत को लेकर यह मान लेना ही उचित लगता है कि वे शिल्प के नये से नये स्वरूप से भली-भाँति परिचित थे। अपने कथानक के अनुरूप उन्होंने शिल्प का भी चुनाव किया और उसके साथ न्याय करने में भी सफल रहे। विविध शैलियों का प्रयोग उन्होंने बड़ी सजगता पर पूरी सजगता के साथ किया है।
       'सूखा पत्ता` उपन्यास में अमरकांत ने पत्र शैली और संवाद शैली का भी उपयोग किया है। उपन्यास के पात्र 'कृष्ण` और 'उर्मिला` के बीच लिखे गये कई पत्रों का जिक्र इस उपन्यास में है। कथावस्तु के विकास के लिए उपन्यास या कहानी के पात्रों के बीच पत्र व्यवहार को दिखाया जाता है। इससे आत्मीय मनोभावों को गहराई से प्रस्तुत करने का अवसर कथाकार को मिल जाता है। उपन्यास के पात्र 'कृष्ण` और 'उर्मिला` के प्रेम भाव को व्यक्त करने के लिए अमरकांत ने यहाँ इस शैली का उपयोग किया।
       इसी तरह अमरकांत के दूसरे उपन्यासों में भी कई शैलियों का मिश्रित प्रयोग लक्षित होता है। 'ग्राम सेविका` उपन्यास में वर्णनात्मक और संवाद शैली का व्यापक प्रयाग हुआ है। उपन्यास की पात्र 'दमयंती` कई बार 'फ्लैश बैक` में भी जाकर अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं को याद करती है। 'काले उजले दिन` नामक अपने उपन्यास की शुरूआत ही अमरकांत जिन वाक्यों से करते हैं, वे हैं, ''वे दिन कितने काले थे? आज जब भी उन दिनों की याद आती है तो कलेजा मुँह में आता है।....।`` स्पष्ट है कि यहाँ पर भी उन्होंने पूर्वदीप्ति और आत्मकथात्मक शैली का उपयोग किया है। 'आकाश पक्षी` नामक अमरकांत का उपन्यास भी मुख्य रूप से इन्हीं दो शैलियों को लेकर दिखा गया है। इस उपन्यास में भी अमरकांत ने संवाद शैली का भी उपयोग किया है। सांकेतिक शैली का उपयोग न केवल इस उपन्यास बल्कि अमरकांत के कई अन्य उपन्यासों और कहानियों में हुआ है। जहाँ लेखक किसी घटना या उससे जुड़ी परिस्थिति अथवा पात्रों के बीच संवाद के आधार पर विस्तार से कुछ कहने से बचता है, वहॉ वह सांकेतिकता का उपयोग करता है।     
       अमरकांत का एक और उपन्यास है 'सुन्नर पांडे की पतोह` इस उपन्यास में उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त उद्धरण शैली को भी अमरकांत ने उपयोग में लाया है। हिन्दी के प्रारंभिक उपन्यासों एवम् कहानियों में इस शैली का उपयोग अधिक होता था। लेकिन आधुनिक कथा साहित्य में धीरे-धीरे इसका उपयोग कम हो गया। फिर भी आंचलिक कथा साहित्य में इनका अपना महत्व बना रहा। ठीक इसी तरह ऐतिहासिक उपन्यासों में भी इस उद्धरण शैली को प्रमुखता के साथ अपनाया गया। अन्यथा सामान्य आधुनिक उपन्यासों में इस शैली का उपयोग कथा साहित्य के पात्रों की मन:स्थिति, उनके परिवेशगत जुड़ाव या किसी लोकगीत भी इस शैली का सीमित उपयोग कथानक से जुड़े परिवेश के लोकधर्मी स्वरूप को सामने लाने के लिए ही किया है। जैसे कि 'सुन्नर पांडे की पतोह` में वे लिखते है, ''जब उसकी डोली ससुराल पहुँची तो औरतों ने दूल्हा-दुल्हिन का परछौना करते हुए निम्नलिखित गीत गया था।
हँसत-खेलत मोरे बाबू गइल,
मन धुमिक काहें अइलें,
मन बेदिल काहें इसलें,
सासु छिनरिया न जोग कइलें, मन धूमिल काहें अइलें,11
अथवा   - ''चुटकी भर सेनुरा के कारण ए बाबा,
हो गइली बेटी पराई......।``12
- ''इलाहाबाद की लड़की बड़ी शैखीन होती है,
कभी जूता, कभी चप्पल, कभी सैंडिल पहनती है....।``13
            अमरकांत ने इस उद्धरण शैली का उपयोग 'इन्हीं हथियारों से` नामक अपने उपन्यास में भी खूब किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -
''डोमराज भीयभीय न होना, निष्ठुरता हारेगी।
प्रभु की करूणा हृदय चीरकर यह बाजी मारेगी।
अन्तर भींग रहा है, कैसे दीपक राग जगाऊँ?
बापू, अपनी निनगारी दे, मैं भी आग लगाऊँ``14

''काया का पिंजडा डोले रे, एक साँस का पक्षी बोले।
जाने से ना घबरारा,
दुनिया है मुसाफिर खाना,
काया का.....।``15

''प्रलय-घन छा रहे साथी।
महा विध्वंस बेला का सन्देशा ला रहे साथी।
प्रलय घन छा रहे साथी।
पुराने खंडहर ढहते, गगनचुम्बी महल बहते,
अडिग प्राचीर वाले दुर्ग भी स्थिर नहीं रहते,
उन्हीं पर झोपड़ी के तृण उछलते जा रहे साथी,
प्रलय घन छा रहे साथी।
प्रलय ही सृष्टि है नूतन, निधन में निहित है नवजीवन,
इसी अवसान में ही है नवल निर्माण परिवर्तन,
मिली इति आज अथ-पथ में नए दिन आ रहे साथी,
प्रलय-घन छा रहे साथी।``16

''अंग्रेजों का छक्का छूट गया,
शेखी मिल गई धूल, भाई शेखी मिल गई धूल,
कलेजे बीच गोली निकली.....
सिर पर बाँधे कफनिया हो%%
शहीदों की टोली निकली.....।``17



       'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास में उद्धरण शैली के ऐसे ही कई अन्य उदाहरण देखे जा सकते हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के इस उपन्यास में आज़ादी की लड़ाई के दौरान गाये जाने वाले गीतों का इस उद्धरण शैली में अमरकांत ने प्रस्तुतीकरण किया है।
       'इन्हीं हथियारों से` अमरकांत का महत्वपूर्ण और विशिष्ट उपन्यास है। इस उपन्यास में मिश्रित शैलियों का प्रयोग आसानी से देखा जा सकता है। दृश्य शैली, संवाद शैली, समय-विपर्यय शैली, स्वप्न विश्लेषण शैली, विश्लेषणात्मक शैली, सांकेतिक शैली, व्यंग्यात्मक शैली, हास्य शैली, प्रतीकात्मक शैली और ऐसी ही कई अन्य शैलियों का भरपूर उपयोग अमरकांत ने इस उपन्यास में किया है। इस उपन्यास में कोई केन्द्रिय नायक या नायिका नहीं है। उपन्यास कई दृश्यों, भाषणों, संवादों, उद्धरणों, ऐतिहासिक संदर्भो के बीच कई छोटे-मोटे कथानकों का ताना-बाना है। यह उपन्यास कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से अनूठा है। अमरकांत शिल्प के संदर्भ में मानते हैं कि, ''कथा में तो शिल्प होना चाहिए। उसमें शैली तक टेकनिक होनी चाहिए। उसमें संकेत होने चाहिए, प्रतीक, व्यंग्य और हास्य भी होना चाहिए। अर्ज की गंभीरता होनी चाहिए, एक विशेष अंदाज से कहना चाहिए, ताजगी और नवीनता होना चाहिए, रूप होना चाहिए, यह चारों चीजें मिलकर कथा-शिल्प निर्माण होता है।``18
       स्पष्ट है कि अमरकांत शिल्प को लेकर कभी किसी तरह की दुविधा में नहीं रहे। उनकी बातों एवम् उनके कथा साहित्य के माध्यम से बात स्पष्ट भी हो जाती है। शिल्प विधि या शिल्प-विधान को लेकर डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा की स्पष्ट राय है कि, ''शिल्प-विधी या शिल्पविधान का सम्बन्ध वस्तुत: उपन्यास के सृजन पक्ष से है। उपन्यासकार के मस्तिष्क में समाज की सच्चाइयां, आदमी की हालत और परिवेश के यथार्थ संग्रहीत होते रहते हैं। इसका वर्णन करने के लिए उसके मन मे भावों का उद्वेलन होता है। वह इन संग्रहीत भावों अथवा भाव वस्तु को कैनवस पर उतारना चाहता है। और जिस ढंग से, जिस प्रक्रिया से उसे उतारा गया है, वही इसका शिल्प-विधान है। उपन्यासकार जो कुछ कहना चाहता है, या जो उसने कहा है, वह उपन्यास की भाव वस्तु है और जिस ढंग से, जिस ढांचे में उसे प्रस्तुत किया है, वह उसका शिल्प विधान है। भाव वस्तु उपन्यास का बाह्या पक्ष और शिल्प विधान आभ्यन्तरिक। दूसरे शब्दों में, उपन्यास के सृजन की आंतरिक प्रक्रिया ही उसका शिल्प विधान है।``19 अमरकांत का शिल्प विधान उनके कथानकों के सर्वथा अनुरूप रहा। जहाँ जो शैली उन्हें उचित लगी, उन्होंने उसका उपयोग किया।
       अमरकांत कहानीकार के रुप में अधिक जाने गये। उनकी कहीनियों कि मौलिकता ने सभी को आकर्षित किया। उनकी कहानियों में निहित घटनाओं पर पाठक सहज विश्वास करता सा चलता है, क्योंकि ये घटनाएँ काल्पनिक न होकर यथार्थ की भाव भूमि से जुड़ी होती हैं। अमरकांत अपने पात्रों के व्यक्तित्व को भी अपनी विशेष शैली से सामने लाते रहे हैं। चरित्र प्रधान, घटना प्रधान, कार्य प्रधान, वातावरण प्रधान, प्रभाव प्रधान, हास्य प्रधान और ऐसे ही कहानियों के अन्य स्वरुपों में भी वे लिखते रहे हैं। अमरकांत का कहानी लेखन 'नई कहानी` के साथ शुरु हुआ। स्वतंत्रता, विभाजन, लोकतंत्र, लोकतंत्र में निहित भ्रष्टाचार, अफसरशाही, अवसरवादिता, भाई भतीजावाद, लाल फीताशाही, मोहभंग, आर्थिक दबाव, आर्थिक दबाव में बदलते संबंधो के आयाम, वर्ग-स्वार्थ, स्त्रियों के शोषण, असफल होते प्रेम संबंध, आवासीय समस्या, रुढ़ियों, परम्पराओं, अंधविश्वासों, शिक्षा के द्वारा बदलाव और आधुनिता बोध तथा मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग की स्थिति को रेखंकित करते हुए अमरकांत ने अनेकों कहानियाँ लिखीं।
      स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी में शिल्प के प्रयोग को लेकर डॉ. एम. एल. मेहता का स्पष्ट मत है कि, ''स्वातंत्र्योत्तर कहानी के शिल्प के प्रयोगों पर दृष्टिपात करते हैं तो दो भिन्न धाराओं के दर्शन होते हैं - पहली धारा है शिल्प की प्रमुखता के लिए प्रयोग। विशेष प्रभाव लिए प्रयोग। दूसरी धारा है शिल्प के आग्रह के त्याग के लिए प्रयोग। सहज प्रभाव के लिए प्रयोग। युगबोध के संदर्भ में कथ्य को दोनों ही प्रकार के लोगों ने महत्व दिया।``20 जहाँ तक अमरकांत का प्रश्न है तो वे कई संदर्भों में अपने समकालीनों से भिन्न दिखायी पड़ते हैं। उनकी भाषा में व्यंग्य अधिक दिखायी पड़ता है। शिल्प के प्रति उनका आग्रह कथानक को लेकर सामने आता है। सप्रयास शिल्प की प्रमुखता के लिए या अपनी विशिष्टता को बतलाने के लिए उन्होंने किसी शैली विशेष का उपयोग नहीं किया। उन्होंने कथ्य और शिल्प दोनों के ही महत्व को स्वीकार किया। इसीलिए अमरकांत 'नई कहानी` के 'शिल्प तथा कथ्य` संबंधी ढाँचे मेंे फिट नहीं बैठते।
       मधुरेश जी इस संदर्भ में लिखते हैं कि, ''उनके समकालीन कहानीकार धर्मवीर भारती, रेणु, राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा और कमलेश्वर आदि यदि एक ओर भाषा के गुलबूटे काट रहे थे, कहानी में सांकेतिकता के नाम पर बिंबों और प्रतीकों का कोष लुटा रहे थे तो दूसरी ओर पूरी-की-पूरी कहानी को स्त्री-पुरूष संबंधों के घेरे में कैद कर देने की साजिश रच रहे थे तब अमरकांत अपने मध्यवर्गीय परिवेश की जिंदगी को उसी की अपनी, ऊपर से काफी कुछ रूखड़-सी लगने वाली भाषा में, अभिव्यक्ति दे रहे थे। .....आज समय ने इसे काफी कुछ स्पष्ट कर दिया है कि इस शोर-शराबे से अलग हटकर अमरकांत और उनके कुछेक दूसरे समानधर्मा कहानीकारों ने जो कुछ किया वही अधिक विवेकपूर्ण था।``21
       अमरकांत 'नई कहानी` आंदोलन के कथाकार जरूर रहे हैं पर 'नयेपन` के नाम पर वे यथार्थ की जमीन से नहीं कटे। साथ ही साथ हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि 'नई कहानी आंदोलन` का समय तो बहुत छोटा रहा। पर अमरकांत का कहानी लेखन सतत जारी है। और जब भी हम अमरकांत के पूरे कथा साहित्य के आधार पर उनके पूनर्मुल्यांकन को अंकित करना चाहेंगे तो हमें उन्हें 'नई कहानी` के ढाँचे से अलग ही रखना पड़ेगा। अमरकांत का पूरा कथा साहित्य पुनर्मुल्यांकन के नये मानदंडों की माँग कर रहा है। अमरकांत का कथा साहित्य किसी आंदोलन विशेष के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहा है। उनकी प्रतिबद्धता लेखन की ईमानदारी के प्रति रही है। यथार्थ से जुड़े रहकर, कोरी भावुकता से बचे रहने की है। सामाजिक परिस्थितियों को उनकी पूरी निरीहता में व्यक्त करने की रही है। जिस जीवन को उन्होंने खुद लिया, जैसा परिवेश उन्हें खुद मिला, उसे उसी रूप में कथासाहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करना ही उनकी प्रतिबद्धता थी। सिर्फ दिखावे या दूसरे से अलग अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के लिए 'नये` के नाम पर प्रयोग करने से अमरकांत हमेशा बचते रहे। डॉ. विश्वनाथ तिपाठी अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में लिखते है कि, ''अमरकांत उन रचनाकारों मंे हैं जिनकी कहानियाँ ने केवल कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं बल्कि जो हमारे समय का अपूर्ण ही सही प्रामाणिक दस्तावेज हैं। आज यह कार्य अनेक पुराने समाजचेता रचनाकार कर रहे हैं लेकिन हमारे विषमताग्रस्त सामाजिक वातावरण की तर्कहीनता, असुरक्षा, संत्रास का सर्वाधिक विश्वसनीय और मार्मिक चित्रण अमरकांत की कहानियों में मिलता हैं।``22
       अमरकांत ने अपनी कहानियों में विभिन्न शैलियों का या उसने मिश्रित स्वरुप का उपयोग किया है या नहीं यह बिचारणीय है। उनके उपन्यासों के संदर्भ में तो यह बात साफ हो चुकी है कि उन्होंने अनेकों शैलियों का भरभूर उपयोग किया है। वह भी पूरी सहजता और सजगता के साथ। यह बात तो सही है कि अमरकांत की अधिकांश कहानियों को देखने से यह स्पष्ट को जाता है कि उनमें शिल्प-प्रयोगों की विविधता उस तरह की नहीं है जैसी की उनके उपन्यासों में दिखायी पड़ती है। यहाँ उनकी प्रवृत्ति एकदम भिन्न दिखायी पड़ती है। ठीक उसीतरह जैसे उपन्यासों में प्रेम की जिस कोरी भावकता को वो सामने लाते रहे वह उनके कहानियों में नहीं दिखायी पड़ती।
     निर्मल सिंहल इस संदर्भ में लिखती हैं कि,'' अमरकांत ने मुख्यत: दो प्रकार की कथा-प्रद्धति अपनाई हैं-आत्मकथ्य और रेखाचित्र की। उनकी कुछ कहानियाँ इस प्रकार की भी हैं जहाँ किसी व्यक्ति-विशेष का चरित्र नहीं उभरता अपितु एक स्थिति का चित्रण होता है और लगता है यहाँ कहानीकार अदृश्य रूप से उपस्थित है और स्थिति का वर्णन कर रहा है- 'इटरव्यू`, काली-छाया`, 'फर्क`, 'शाम`, 'एक बाढ़ कथा` आदि कहानियों को इसी रूप में देखा जा सकता है। 'इटरव्यू`, 'कालीछाया`, 'फर्क`, 'गले की जंजीर` कहानियाँ स्थिति-विशेष पर जन-प्रतिक्रियाओं के माध्यम से अपना रूप ग्रहण करती हैं। 'जिदगी और जोंक` और 'दो चरित्र` में व्यक्ति-चित्र के साथ-साथ मध्यवर्ग के लोगों की मानसिकता और प्रतिक्रियाओं का अंकन हुआ है। 'स्वामी`, 'निर्वासित` और 'फ्लाश के फूल` में कहानी किसी पात्र द्वारा सुनाई जाती है। अमरकांत अपने अधिकांश प्रमुख पात्रों की बाह्य रूप, आकृति और उनकी वेशभूषा का वर्णन करके उन्हें पाठकों के सम्मुख साक्षात् कर देते हैं। उनकी यह प्रवृत्ति उन्हें प्रेमचंद से मिलती है। उनके समकालीन कहानीकारों में यह प्रवृत्ति अपेक्षाकृत काफी कम है।``23   
     अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में निर्मल जी की उपर्युक्त विवेचना एकदम सटीक लगती है। अमरकांत की अधिकांश कहानियाँ इसी प्रवृत्ति की हैं। ये अमरकांत की अपनी विशेषता है, जिसे कुछ समीक्षकों ने उनकी सीमा या पिछड़ापन भी माना है। सिर्फ मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग को केन्द्र में रखकर लेखन करने के कारण कुछ समीक्षकों उन्हें 'सीमित दायरों` का लेखक कहा है। लेकिन अमरकांत का दायरा ना तो सीमित रहा और न ही किसी दायरे विशेष के प्रति प्रतिबद्ध। आज़ादी के बाद के मोहभंग और त्रासदी पर लिखने वाले अमरकांत 'इन्हीं हथियारों से` जैसा उपन्यास भी लिखते हैं जो आज़ादी की लड़ाई जुड़े संघर्ष को दर्शाता है। 'बिदा की रात` जैसे उपन्यास में वे मुस्लिम समाज, मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति और भारत विभाजन की त्रासदी पर लिखते नजर आते हैं। प्राय: अमरकांत के पात्र परिस्थितियों के दबाव में बद् से बद्तर जीवन जीते हुए दिखायी पड़ते हैं। कोरी भावकता के साथ अमरकांत किसी नाटकीय स्थिति से उनकी परिस्थितियों में सुधार नहीं लाते। लेकिन 'सुरंग` जैसे उपन्यास की पात्र बच्ची देवी मोहल्ले की स्त्रियों की मदद से शिक्षित होकर अपने अंदर तबदीली लाने में सफल होती है। ये सारी स्थितियाँ दर्शाती हैं कि अमरकांत का लेखन सामाजिक परिवेश में हो रहे बदलाव के साथ नयी स्थितियों और विचार धारा को आत्मसाथ कर रहा है। ' जाँच और बच्चे ` नामक उनका नवी नहम कहानी संग्रह वर्ष 2005 में प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह में कुल 11 कहानियाँ हैं। इन कहानियों के माध्यम से अमरकांत की शैली और विचारधारा में हो रहे परिवर्तन को समझा जा सकता है।
      'एक निर्णायक पत्र` मुख्य रूप से मास्टर कुमार विनय और नीति के बीच की कथा है। इस 'बीच की कथा को` प्रेम कथा कहना ठीक नहीं होगा। विनय कुमार नीति को मन लगाकर प्री-मेडिकल परीक्षा की तैयारी करवाते हैं, वह सफल भी होती है। पढ़ाई करने वह लखनऊ पहुँचकर नाटकीय रूप में उसे अपने होटल के कमरे में लाता है और बातों ही बातों में कहता है कि,'अब यह पाखंड करने लगी? तुम जैसी औरत की इज्जत-आबरू मैं चौपट करके रख दूँगा।``24 फिर वह नीति को पूरी तरह नग्न कर देता है। इसपर नीति रोते हुए कहती है कि,''सर,आपको पूरा हक है। इज्जत-आबरू, प्राण, सब कुछ मैं आपको सहर्ष देने को तैयार हूँ गुरू-दक्षिणा के रूप में।``25 अब यहाँ हमें याद रखना होगा कि अमरकांत की प्रेम संबंधी कहानियों में नायक हमेशा नायिका से आदर्शवादी, एकनिष्ठ और समर्पित होने की उम्मीद तो करता रहा है, पर उसे इस तरह बलात् हासिल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। साथ ही साथ उसका अपना प्रेम भाव, पारिवारिक दबाब, कुंठा, असंतोष और ऊँचा उठने की इच्छा और कामुकता के साथ जुड़ा रहा है। जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ वह एक आदर्शवादी प्रेमी के रूप में सामने आता है और प्रेम के उदात्त स्वरूप को प्रस्तुत करता है। दोनों ही स्थितियाँ में प्राय: नायिका भी अपनी स्थिति स्पष्ट कर देती है, वह या तो नायक के स्वार्थ और कायरता को धिक्कार देती है, या उसके आदर्श-प्रेम को मन ही मन स्वीकार करते हुए परिस्थितियों से समझौता कर लेती है। लेकिन इस कहानी में अंत तक ऐसा कुछ दिखायी नहीं पड़ता। यह तो कथ्य में कुछ नये की बात हुई। इस कहानी का शिल्प भी देखें तो हम पायेंगे कि अमरकांत ने इस कहानी में अन्य पात्रों के चरित्र को उभारने की वैसी कोशिश नहीं की है, जैसी की पहले की कहानियों में करते रहे हैं। इस कहानी के पात्रों की समस्या उनकी निजी लगती है, न कि वह अपने पूरे परिवेश या वर्ग की समस्या बनकर उभरे। 'संवाद शैली` का उपयोग इस कहानी में अधिक है। यद्यपि कथानक सपाट ही कहा जायेगा।
     इसी संग्रह की एक छोटी सी कहानी है 'जाँच और बच्चे`। इसी कहानी के नाम पर इस संग्रह का नाम रखा गया है। इस कहानी का शिल्प भी मुझे वैसा ही नजर आता है जैसा कि 'दोपहर का भोजन`। बल्कि कुछ संदर्भो में उससे भी अधिक उन्नत। कथानक सपाट की कहा जायेगा पर 'शिल्प विहीन शिल्प` को यहाँ भी देखा जा सकता है। जाँच अधिकारी चनरी से उसके पति चिरकुट के मृत्यु का कारण जानना चाहते है। वे पूछते भी हैं कि, ''तो भूख से मरे या बीमारी से, साफ-साफ बता दीजिए......।``25 मुनरी बस इतना कहती है कि, ''मौउवत आ गई थी, मालिक.....काल ले गया......``26 इस तरह भुंखमरी से मरे चिरकुट की मृत्यु का कारण क्या है यह कोई कहता नहीं है। पर जाँच अधिकारी सारी स्थिति समझ रहे हैं। घर पहुँच कर वे पत्नी से कहते भी हैं कि, ''देखो, मैं इधर मोटा तो नहीं हो गया हूँ ?``27 
     इसतरह अमरकांत की नई कहानियों के आधार पर उनके कहानी साहित्य में कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पे हो रहे परिवर्तनों को हमें समझना होगा। अमरकांत की कहानियों के बारे में कुछ लोगों का मानना है कि,'' अमरकांत की कहानियों में व्यक्ति-चित्र पद्धति हो या आत्मकथ्य (आत्मकथ्य के माध्यम से वस्तुत: कहानीकार व्यक्ति-चित्र ही देता है ) पद्धति, विसंगत और विडंबनायुक्त स्थितियों के अंतर्विरोधों से युक्त होकर वह मात्र रेखाचित्र या व्यक्ति चित्र नहीं रह जाती। इन कहानियों में अमरकांत पात्र-विशेष को केन्द्र में रखकर स्थितियों तथा अन्य पात्रों को गौण या उस प्रमुख पात्र की मन: स्थिति के अनुकूल या उसका चरित्र उभारने का निमित्त मात्र नहीं बनाते अपितु उनका स्वतंत्र चित्रण करते हैं। उदाहरणार्थ 'घर` कहानी का प्रमुख पात्र विनय है लेकिन कहानीकार प्रकाशक बलराम सिंह का समग्र चित्रण पूरी तन्यमता से करता है और उसके चरित्र को उसकी संपूर्णता में पकड़ लेता है। ``27  अमरकांत की अधिकांश कहानियोेें को देखने पर उपर्युक्त तथ्य एकदम सरीक लगते हैं। पर इन्हें अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में अंतिम सच मान लेना हमारी भूल होगी। क्योंकि अमरकांत का लेखन कार्य सतत् जारी है। 'जाँच और बच्चे` जैसे संग्रह की व्यापक समीक्षा की आवश्यकता है। ठीक इसीतरह समय-समय पर अमरकांत की जो कहानियाँ हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है` उन्हें भी आधार बनाकर मूल्यांकन की नई स्थितियों को हमें स्वीकार करना होगा। फिर अमरकांत के कथ्य और शिल्प की बात को हमेशा 'नई कहानी` के स्वरूप से जोड़ते हुए ही दिखेना भी गलत है। अमरकांत के मूल्यांकन के लिए नये मापदंड ही हमें बनाने पड़ेगे, अन्यथा उनके साथ न्याय नहीं हो पायेगा।
     'अमरकांत वर्ष-1` की संपादकीय लिखते हुए रवीन्द्र कालिया लिखते हैं कि,   ''......नयी कहानी की आन्दोलनगत उत्तेजना समाप्त हो जाने के बाद हमें अमरकांत का मूल्यांकन और अध्ययन अधिक प्रासंगिता लगा। विजयमोहन सिंह का यह कथन कुछ लोगों को अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है कि अमरकांत की कहानियाँ नयी हिन्दी-समीक्षा के लिए एक नया मानदण्ड बनाने की माँग करती हैं, जैसी कभी मुक्तिबोध की कविताओं ने की थी। परन्तु यह सच है कि अमरकांत की चर्चा, उस रूप में, उस माहौल में, उन मानदण्डो` से सम्भव ही नहीं थी। ये मानदण्ड वास्तव में तात्कालीन लेखकों समीक्षकों की महत्वकांक्षाओं के अन्तर्विरोध के रूप में विकसित हुए थे।``28 
   इस तरह समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य में कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर व्यापक प्रयोग नहीं हुए हैं। क्योंकि सिर्फ प्रयोग करने के लिए प्रयोग करना अमरकांत का स्वाभिवक गुज नहीं था। फिर भी कहानियों की अपेक्षा अमरकांत के उपन्यासों में शिल्प औश्र कथ्य संबंधी प्रयोग अधिक दिखायी पड़ता है। विशेष तौर पर वर्ष 2000 के बाद के उपन्यासों के कथानक और शिल्प में। 'सुरंग,` 'बिदा की रात` और 'इन्हीें हथियारों` से ऐसे ही कुछ उपन्यास है। अमरकांत की कहानियों का शिल्प उनके कथानक के सर्वथा अनुरूप है। अमरकांत ने शिल्प और कथ्य के बीच संुदर समन्वय स्थापितह किया। इधर 'जाँच और बच्चे` जैसे उनके नये कहानी संग्रहों की कुछ कहानियों शिल्प और कथ्य दोनों ही संदर्भो में नये स्वरूप की जान पड़ती हैं। 'जाँच और बच्चे` जैसी कहानी 'दोपहर का भोजन` की ही तरह विशिष्ट दिखायी पड़ती है। इसलिए अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य को देखते हुए यह जरूरी है कि उनके मूल्याकंन के लिए नए समीक्षा मान दंडों की आवश्यकता है। 'नई कहानी` और उस दौर के समीक्षा के वे मानदंड जो लेखकों और समीक्षकों की अपनी महत्वकांक्षाओं के अंतर्विरोध के परिणामस्वरूप विकसित हुए हैं, उनसे अमरकांत का मूल्यांकन न तो संभव है और ना ही उचित।
4. भाषा :-
     अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा में तत्सम शब्दों की प्रधानता रही है। उनके साहित्य को डॉ. गोविन्द स्वरूप गुप्त जी 'जनसाधारण की भाषा का कोश` कहते हैं। गुप्त जी ने उनके कहानी संग्रहों के आधार पर लिखा है कि, ''अमरकांत जी तत्सम प्रधान लेखक हैं। 'देश के लोग` तथा 'जिदगी और जोंक, इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं। इन कहानियों को आधार मानकर ही भाषा वैज्ञानिक संदर्भ व्याख्यााति किया जा सकता है। अमरकांत जी के 'देश के लोग` पुस्तक में कुल प्रयुक्त में शब्दों की संख्या 46,683 है तथा 'जिंदगी और जोंक` नामक पुस्तक में 54,054 शब्द हैं। अमरकांत जी ने अपनी पुस्तकों में कुल 269 संस्कृत या तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। विदेशी भाषाओं के शबदों में, अरबी के 221, फारसी के 173, तुर्की के 06 तथा अंग्रेजी के 200 शब्दों का प्रयोग उपर्युक्त दो कहानी संग्रहों में हुआ है। अन्य सभी शब्द तद्भव अथवा देशत हैं। इन शब्दों संख्याओं का प्रयोग प्रतिशत की दृष्टि से अत्यंत नगण्य हैं। अरबी 21:, फारसी शब्द 17:, अंग्रेजी, अंग्रेजी शब्द 19: तथा संस्कृत शब्द 26: है।``30
        निश्चित ही डॉ. गोविन्द स्वरूप गुप्त जी ने बड़ी मेहनत से ये आँकडे प्रस्तुत किये हैं। अगर इस तरह के आँकडे आज अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य को लेकर प्रस्तुत करने हो तो यह बड़ा गंभीर और धैर्यपूर्ण कार्य होगा। अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य को लेकर इस तरह कोई निश्चित शब्दों की गणना का काम भले ही ना हुआ हो, पर डॉ. गोविन्दस्वरूप के पूर्ववर्ती इस कार्य और अमरकांत के कथा साहित्य को पढ़कर इस बात का अंदाजा बड़ी सहजता से लगाया जा सकता है कि उनके संपूर्ण कथा साहित्य में तत्सम शब्दों की ही अधिकता है। इस लिए उन्हें 'तत्सम प्रधान लेखक` अगर डॉ. गोविन्द स्वरूप गुप्त जी कहते हैं, तो यह उचित ही है। पर ऐसा कहने से एक जो भ्रम उभरता है वह यह कि क्या अमरकांत सप्रयास तत्सम शब्दों के प्रयोग के लिए प्रतिबद्ध थे? मुझे लगता है ऐसा नहीं था। अमरकांत मूलत: हिन्दी के लेखक है। आजादी के बाद 'नई कहानी आंदोलन` के दौर में वे लिखना प्रारंभ करते हैं। उनके कथा साहित्य के केन्द्र में मुख्य रूप से मध्यवर्ग और निम्न मध्य वर्ग रहा। ऐसे में उनके कथा साहित्य में तत्सम् शब्दों की ही प्रधानता होनी चाहिए।
       एक बात और ध्यान देने योग्य है कि अमरकांत की भाषा हमेशा उनके कथानक के अनुकूल रही है। 'विदा की रात` अमरकांत का नवीनतम उपन्यास है। इसका कथानक मुख्य रूप से मुस्लिम परिवारों से जुड़ा हुआ है। अत: इस उपन्यास के संवादों में अरबी, फारसी और उर्दू के शब्दों की बहुलता है। बहुलता से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि तत्सम शब्दों की अपेक्षा इनकी संख्या अधिक है, मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है कि चुंकि कथानक मुस्लिम परिवार से जुड़ा है अत: अमरकांत ने पात्रों के संवादों मेें अरबी, फारसी और उर्दू के शब्दों को अधिक से अधिक मात्रा में शामिल किया है। उदाहरण के तौर पर उपन्यास का एक अंश देखिये -
       ''नहीं, नहीं, मैं गुस्सा नहीं करता। बस बात इतनी सी थी कि अब्बू ने जो फ़ैसला किया था, वह मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया। फिर खुदा की कसम खा लेना? इसका क्या मतलब? एक सियासी आदमी की घटिया बात पर भड़क कर खुदा की कसम खा लेना! दुनिया में बहुत-से लोग हैं, जो बात-बेबात पर खुदा की कसम खा लेते हैं और बाद में उसे निभाते भी नहीं। खुदा की कसम खाना मामूली चीज़ नहीं है।..मैं सियासी बातों को सियासी ढंग से सोचने का हामी हूँ, मज़हबी सियासत का जवाब उसकी मुखालिफ सियासत ही है। यह इसलिए है कि मज़हब और मज़हबी सियासत दो अलग चीजें हैं। मजहबी सियासत में मज़हब की बातें की तो जाती है।, लेकिन मज़हब के उसूलों पर कोई नहीं चलता। खैर, फिलहाल, मैं इसी तरह सोचता हूँ। मैं गुस्सा नहीं हूँ। अब्बू को मैं क्या कहूँ, ऐसे मेहनती और ऊँचे खय़ाल के शख्स़ कम मिलेगे।``31
     उपर्युक्त उपन्यास के अंश को पढ़कर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अमरकांत कथानक के अनुरूप ही भाषा और शब्दों के प्रयोग में विश्वास करते हैं। कथानक के पात्रों के संदर्भ में भी अमरकांत की यह सतर्कता हमेशा बनी रही है। अमरकांत अपनी भाषा को लेकर हमेशा सचेत रहे हैं। 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास में वे बलिया का वर्णन करते हैं। ऐसे में इस क्षेत्र की भाषा पर भी वे विस्तार से अपनी राय रखते हैं। वे लिखते हैं कि, ''मैं अब इस क्षेत्र की भाषा की ओर आपका ध्यान दिलाता हूँ।.......यहाँ की भोजपुरी भाषा में तत्सम शब्दों की भरमार है, देशज शब्द कम ही हैं। तत्सम शब्दों को ढाल या तोड़ लिया गया है। इन शब्दों पर गौर कीजिए 'कुकुर आईल`,'बाँदर गईल`। बात यह है कि राजनीतिक रूप से यदि यह क्षेत्र किसी के अधीन हुआ भी है तो उसने कभी अपनी अस्मिता नहीं खोई है।........इस क्षेत्र की दूसरी विशेषता यह है कि हमारी बोली में एकवचन नहीं है यानी हम एकवचन में नहीं, बहुवचन में बोलते हैं। यहाँ यहाँ कोई व्यक्ति 'मैं` नहीं 'हम` है। 'हम जात बानी,` 'हम खात बानी`। सामूहिक रूप से बोलता है यहाँ का हर पुरुष, हर स्त्री, हर बच्चा। यह प्राचीन गणतन्त्र होने की निशानी है।``32 
   उपन्यास के उपर्युक्त अंश को पढ़कर हम समझ सकते हैं कि अमरकांत अपने कथा साहित्य में जिस क्षेत्र या परिवेश का वर्णन करते हैं, उसकी हर स्तर पर गहरी समझ भी रखते हैं। डॉ. आभा शर्मा अमरकांत की भाषा के संदर्भ में लिखती हैं कि, ''अमरकांत की भाषा, सहज, सरल और सादगी भरी है। इसके कारण इनकी कहानियों में भाषा की दुरुहता नहीं आ पायी। कहानियों के कथ्य को सार्थक रूप से सम्प्रेषित करने में सहज समर्थ है। वस्तुत: नए कहानीकारों ने अपनी कहानियों में भाषा के सहज प्रवाह द्वारा पाठक पर गहरा प्रभाव छोड़ा है। उसमें न तो किसी प्रकार का आवरण है और न ही भाषा को अलंकृत करने की प्रवृत्ति। इसलिए हम देखने हैं कि अमरकांत की भाषा भी प्रेमचंद की भाषा की तरह प्रभावोत्पादक है। वे पाठक के मन पर स्पष्ट प्रभाव छोड़ने वाली बात अपनी सहज और सरल भाषा के माध्यम से कह देते हैं।``33  निश्चित तौर पर अमरकांत की यही सहजता और सरलता उनकी सबसे बड़ी शक्ति रही है।
    अमरकांत प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार हैं। भाषा के स्तर पर भी उन्होंने कई चीजें प्रेमचंद से ही सीखी हैं। बल्कि प्रेमचंद की भाषा का विकास हम अमरकांत की भाषा को मान सकते हैं। सहजता है, सरलता है, सुसंगठित स्वरूप है पर पूरी सजगता भी है। हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह अमरकांत की भाषा के संदर्भ में लिखते हैं कि, ''अमरकांत की भाषा प्रेमचंद की परंपरा का अद्यतन विकास है। वही सादगी और वही सफाई है। पढ़ने पर गद्य की शक्ति में विश्वास जमता है।``34 
    अमरकांत की भाषा सरल है और इस सरलता में ही उनकी सारी शक्ति छिपी हुई है। अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा में स्थानीय बोलियों और शब्दों को विशेष ढ़ग से ढाल कर या तोड़कर बोलने की परंपरा का भी उदाहरण मिलता है। उनके निम्न मध्यवर्गीय अनपढ़ पात्रों के संवादों में उनका भाषिक अज्ञान झलके, इसका पूरा प्रयत्न अमरकांत ने किया है। साथ ही आंचलिक या ग्रामीण शब्दों में उनका भाषिक अज्ञान झलके, इसका पूरा प्रयत्न अमरकांत ने किया है। साथ ही आंचलिक या ग्रामीण शब्दों को भी अमरकांत ने कथानक को सहज और विश्वसनीय बनाने के लिए उपयोग में लाया है। 'जिंदगी और जोंक` कहानी के रजुआ के कुछ संवादों को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। जैसे कि -
       ''इनखिलाफ जिन्दाबाद। महात्मा गान्ही की जै।``35
       ''सुनो-सुनो, गान्ही महात्मा को सरकार जब जेहल में डाल देती है तो एक दिन क्या होता है कि सभी सिपाही-प्यादा के होते हुए भी गान्ही महात्मा जेहल से निकल आते हैं और सब की आँखों पर पट्टी बंधी रह जाती है। गान्ही महात्मा सात समुन्दर पार करके जब देहली पहुॅचते हैं तो सरकार उन पर गोली चलाती है। गोली गान्ही महात्मा की छाती पर लगकर सौ टुकडे हो जाती है और गान्ही महात्मा आसमान में उड़कर गायब हो जाते हैं।``36
       अमरकांत की भाषा में व्यंग्यात्मकता, लोकोक्ति तथा मुहावरे, शब्द चयन आदि की चर्चा स्वतंत्र रूप से आगे की जायेगी। यहाँ एक बात का और उल्लेख जरूरी है कि अमरकांत की भाषा में विभिन्न पशु-पक्षियों की भंगिमाओं का उपयोग पात्रों के संदर्भ में चित्रित करने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित कुछ वाक्यों को देखा जा सकता है।
1)    ''माँ की मृत्यु के बाद वह चिड़िया की तरह आजाद हो जायेगी।``37
2)    ''उसने मुँह को गाय की पगुरी की तरह चलाने की चेष्टा की``38
3)    ''सारे शरीर पर किसी बीमार गाय के पैरों का पीलापन छाया हुआ था।``39
4)    ''उसने कौए की भाँति सिर घुमा कर शंका से दोनों ओर देखा``40
5)    ''कभी-कभी वे कुत्तों की तरह चौकन्ने हो कर इधर-उधर देख लेते।``41
6)    ''उनके छोटे-छोटे बच्चे खूॅटों में बँधे बछड़ों की तरह किलकारियाँ मारते हुए दौड-दौड कर कुछ दूर जाते थे और फिर अपनी माँओं के पास लौट आते थे।``42
7)    ''अब सुरसती के बाबू का क्रोध खूँटा तुड़ाए भैंसे की तरह उन्मुक्त हो गया।``43
8)    ''बड़े इत्मीनान से अपनी बिच्छूनुमा मूँछों को ऐंठ रहा था।``44
9)    ''उसके ..... चोंच की तरह लम्बी नाक और आगे की ओर बिचके होंठो को देख कर किसी ऊँट की याद आ जाती थी।``45
10)  ''वे बाड़ों में बन्द चूजों की तरह टुकुर-टुकुर बाहर देख रहे थे।``10
       इसी तरह के अनेकों अन्य उदाहरण अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य से खोज कर निकाले जा सकते हैं। इनकी संख्या निश्चित तौर पर इतनी होगी ही कि एक स्वतंत्र पुस्तक इसपर निकाली जा सके। अमरकांत के समकालीन कथाकारों में भाषा संबंधी यह विशिष्ट गुण उतने अधिक पैमाने पर नहीं दिखायी देते जितना की अमरकांत के कथा साहित्य में। अमरकांत अपने पात्रों की बाह्या स्थिति को व्यक्त करने के लिए प्राय: ऐसे ही उदाहरण देते हुए दिखयी पड़ते हैं।
       इस संदर्भ में डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है कि, ''अमरकांत के चहाँ पात्रों की उपमा प्राय: पशु पक्षियों से दी जाती है। विशेषत: उनकी विशिष्ट चेष्टाओं की। यह प्राय: नहीं कहा जाता कि वह गधा जैसा था। उसने गधे की तरह दुल्लती मारी या उसने कौवे की तरह मुड़कर देखा - ऐसा कहा जाता है।.... अमरकांत के यहाँ पात्रों का पशु - पक्षी रूप में चित्रण उस विशिष्टता को प्रकट करने के लिए आता है जो विशिष्ट परिस्थितियों में पात्रों की बाह्याान्तर स्थिति को सामने ला देती है।``47
       इस तरह हम कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा तत्सम प्रधान होते हुए भी अपने कथानक के सर्वथा अनुरूप रही है। सहजता और सरलता के साथ भाषागत पूरी सजगता अमरकांत के यहाँ है। उनकी भाषा को प्रेमचंद की भाषा परंपरा का अद्ययतन विकास मानना गलत नहीं होगा। व्यंग्य अमरकांत की भाषा का प्रमुख अंग है। पात्रों का पशु-पक्षी के रूप में चित्रण अमरकांत ने उनकी बाह्या चेष्टाओं को व्यक्त करने के लिए एवम् व्यंग्य का पुट देने के लिए ही किया है। अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा में निहित सरलता ही उसकी शक्ति है।
5. लोकोक्ति तथा मुहावरे :-
       लोकोक्तियों तथा मुहावरों को सामान्य जन-जीवन की अभिव्यक्ति के सहज उपकरण के रूप में स्वीकार किया गया है। लोकोक्ति और मुहावरे में जो बुनियादी अंतर है वह यह कि लोकोक्ति अपने आप में एक पूर्ण वाक्य रूप या विचार होती है। जब कि मुहावरा वाक्य में पद या पदबंध के रूप में जुड़कर वाक्य का एक अंग बनता है। मुहावरों का अर्थ प्रयुक्त शब्दों के लक्षणाशक्ति के आधार पर निकलता है। लोकोक्तियों में यही अर्थ शब्दों की व्यंजना शक्ति के आधार पर निकलता है। 'मुहावरा` इस शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा से मानी जाती है। जिसका शाब्दिक अर्थ, 'अभ्यास करना` है। डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय मुहावरों के संबंध में लिखते हैं कि, ''....मुहावरों के लाक्षणिक और अभिधेयार्थ में कुछ-न-कुछ सम्बन्ध अवश्य होता है। मुहावरों का सम्बन्ध सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, मनौवैज्ञानिक और साहित्यिक कारणों से अवश्य होता है। मुहावरे अनजाने में निरंतर बनते रहते हैं; निरंतर प्रयोग में आते रहते हैं ....मुहावरे जन-साधारण की भाषा, संस्कृति के प्रभाव और विदेशी मुहावरों के प्रभाव से स्वयं विकासित होते हैं। मुहावरे के अर्थ-द्योतन की क्षमता पीढ़ियों के निरंतर प्रयोग से आती हैं।``48 इसी तरह लोकोक्तियों के संदर्भ में डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय जी लिखते है। कि, ''कहावत उस बँधे पद-समूह को कहते हैं, जिसमें अनुभव की कोई बात संक्षेपत: सुन्दर, प्रभावशाली और चमत्कारी ढ़ग से कही जाती है। संस्कृत और हिन्दी में कहावत को सूक्ति, प्रवाद वाक्य अथवा लोकोक्ति भी कहते है। और अँगरेजी में इसे (च्तवअमतइ) तथा उर्दू में 'मसल` कहा जाता है। कहावतें मुहावरे से भिन्न हैं इनका प्रयोग मूहावरों की भाँति एक वाक्य में हो पाना सम्भव नहीं।``49
       डॉ. ओम प्रकाश गुप्त जी मुहावरे को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि, ''प्राय: शारीरिक चेष्टाओं, अस्पष्ट ध्वनियों, कहानी और कहावतों अथवा भाषा के कतिपय विलक्षण प्रयोगों के अनुरूप या आधार पर निर्मित और अभिधेयार्थ से भिन्न कोई विशेष अर्थ देनेवाले किसी भाषा के गठे हुए रूढ़ वाक्य, वाक्यांश अथवा शब्द इत्यादी को मुहावरा कहते हैं।``50 अगर डॉ. ओम प्रकाश गुप्त जी की इस परिभाषा पे ध्यान दें तो एक नई बात सामने आती है। वो यह कि 'भाषा के गठे हुए रूढ़ वाक्य, वाक्यांश अथवा शब्द सभी को मुहावरा मानना पड़ेगा। जबकि डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय जी के अनुसार
       ''मुहावरा वाक्यांश है। मुहावरे का स्वतंत्र प्रयोग नहीं हो सकता। मुहावरे को 'माध्यम` की आवश्यकता होती है।``51 मुहावरे की उपर्युक्त परिभाषाओं में निहित विरोधाभास विचारणीय है।
     डॉ. बदरीनाथ कपूर जी ने इस बात पर भंगीरता पूर्वक विचार करते हुए इसकी व्यापक विवेचना की है। मुहावरे के संबंध में वे उपर्युक्त विरोधाभास को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं कि, ''हम कह सकते हैं कि 'मुहावरा` कुछ शब्दों ऐसा बहुप्रचलित गठजोड़ है जो इकाई के रूप में प्रयुक्त होता और सप्मिलित शब्दों के सामूहिक अभिधेयार्थ से भिन्न किसी प्रभावपूर्ण अर्थ की सृष्टि करता है।``52फिर ऐसी कई इकाइयों की चर्चा डॉ. बदरीनाथ कपूर ने विस्तार से की है। साथ ही साथ मुहावरे के कई शब्दों में आवश्यकतानुसार एकवचन की जगह बहुवचन और भिन्न रूपों में एक से अधिक मुहावरों के उदाहरण भी उन्होंने प्रस्तुत किये हैं। इसतरह तमाम विवेचनों से मुहावरे को शब्दों की इकाई मानना ही उचित लगता है। ये एक इकाई के रूप में प्रयुक्त होकर वाक्य का हिस्सा बनते हैं अत: इने वाक्यांश ही माना जा सकता है।
       लोकोक्ति और मुहावरे के अर्थ को सक्षेप में समझने के बाद हम अमरकांत के कथा साहित्य में प्रयुक्त लोकोक्तियों तथा मुहावरों की चर्चा करेंगे। अमरकांत ने अपने पूरे कथा साहित्य में अनेकों मुहावरों एवम् लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। आस्तीन का साँप, कुंडली मार कर बैठना, जान में जान आना, नून-तेल-लकड़ी का फेर, बाल-बाल बचना, बहती गंगा में हाँथ धोना, सब गुड़ गोबर होना, छठी का दूध याद आना, हड्डी-पसली एक करना, दाल न गलना, चेहरे का रंग उड़ना, हिरन होना, हथियार डालना, कान खड़े होना, मैदान छोड़ना, नमक-मिर्च लगाना, हरकत से बाज आना, टस से मस न होना, कान गरम करना, लाज हया घोलकर पीना, तलवार लटकना, हाँथ साफ करना, मुँह मारना, होश फाख्ता होना, भूत सवार होना, आँखे बटन होना, कच्चे चबा जाना, नानी याद आना और गला फाड़कर बोलना ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं जिनका उपयोग अमरकांत ने अपने कथा साहित्य में जमकर किया है।
       अपने समकालीन कथाकारों की तुलना में अमरकांत ने लोकोक्तियों तथा मुहावरों का उपयोग अधिक किया है। मुहावरों एवम् लोकोक्तियों के संदर्भ में कहा ही जा चुका है कि ये जन साधारण की भाषा क बीच से, उनकी संस्कृति, व्यवहरा आदि से प्रभावित होते हुए स्वयं ही निर्मित होते रहते हैं। अमरकांत के कथा साहित्य के केन्द्र में मुख्य रूप से मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज के पात्र हैं, अत: अमरकांत के साहित्य में इस वर्ग विशेष में प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों का भी होना सहज ही है।
       डॉ. आभा शर्मा इस संदर्भ में लिखती हैं कि,''मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी अमरकांत ने अपने समकालीनों की तुलना में अपनी कहानियों में अधिक कियाहै। दरअसल निम्नमध्यवर्गीय पात्र प्राय: मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करते हुए अनेक कहावतों और लोकोक्तियों का सहारा लेते हैं। अत: अधिकतर निम्नमध्यवर्गीय होने के कारण अमरकांत की कहाीनयों के पात्र भी मुहावरों और लोकोक्तियों की प्रयोग अन्य वर्गो की अपेक्षा अधिक करते हैं। परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि इनके प्रयोग से अमरकांत की भाषा और अधिक प्राणवान, सशक्त, प्रवाहयुक्त और प्रामाणिक हो गई है। भाषा का यह यथार्थ और वास्तविक निरूपण अमरकांत की विशेषता है।``53
       यद्यपि डॉ. आभा शर्मा ने उपर्युक्त बात अमरकांत की कहानियों के संदर्भ में कह रही हैं, परंतु अमरकांत के उपन्यास पर भी यही बात लागू होती है। 'बिदा की रात` उपन्यास को हम अगर उदाहरण के तौर पर देखें तो हम पायेंगे कि अकेले इस उपन्यास में ही लगभग 60 से आवााध्क मुहावरे तथा लोकोक्तियाँ उपयोग में लायी गयी हैं। जैसे कि-नाक से पिलाना, दिन में ही सितारे नज़र आना, अक्ल का दुश्मन, अक्ल लौट आना, तबीयह न लगना, गाल फुलाना, दिमाग, कुंद होना, नस-नस पहचानना, कान खोलकर सुनना, चेहरा तमतमाना, जबान खींच लेना, कलेजे में छुरा भोंकना, आँखें फाड़कर देखना, बेवक्त की शहनाई बज़ाना, लट्टू होना, कंधोंपर बोझ आना, आँखे बाहर निकालना, कनेजा ठंडा होना, एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना, अक्ल काम न करना, चेहरे की चमक बुझना, मुँह लटकना, नज़र लगना, चेहरा फूल की तरह खिलना, तेजी से जिस्म फेंकना, प्यार लुटाना, नौ-दो ग्यारह होना, ज़बान मोटी होना इत्यादि।
       यह तो एक उपन्यास का उदाहरण है। इसी तरह अगर हम अमरकांत के प्रकाशित सभी उपन्यासों में मुहावरों और लोकोक्तियों को खोजें तो इनकी अच्छी खासी संख्या सामने आ सकती है। मुहावरों की तुलना में लोकोक्तियों का उपयोग अमरकांत ने कम किया है। शायद इसका कारण यह हो कि मुहावरे वाक्यांश के रूप में आसानी से लेखन के प्रवाह में शामिल हो जाते हैं। जबकि लोकोक्तियों के साथ वाक्य विन्यास में इतनी सहजता नहीं होती होगी। निर्मल सिंहल जी ने अपनी किताब 'नई कहानी और अमरकांत` के अंतर्गत लोकोक्ति तथा मुहावरों की चर्चा सादृश्य विधान के संदर्भ में की है। क्योंकि इनमें (मुहावरों तथा लोकोक्तियों में) दृश्यात्मकता के साथ-साथ स्थिति विशेष जैसा ही प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता होती है। इसी बात को प्रमाएिात करती हुई निर्मल जी कुछ मुहावरों का उदाहरण भी देती हैं। इसतरह स्पष्ट होता है कि अमरकांत और लोकोक्तियों का अपने कथासाहित्य में मुहावरों एवम् लोकोक्तियों का उपयोग कई बातों को ध्यान में रखकर करते हैं। वास्तव में अमरकांत के कथा साहित्य की भाषा में निहित विशिष्ट शैलियों में मुहावरेदार शैली और कहावतेदार शैली को भी गिना जा सकता है। श्री विजय कुमार वैराटे ने अपनी पुस्तक 'कथाकार अमरकांत` में इन दोंनों शैलियों की न केवल चर्चा करते हैं बल्कि उसका उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। ''जैसी नीयत वैसी बरकत, मुँह कुकर चाटते, मुँह में राम बगल में छुरी, सुर्खाब के पर लगना, खेत खास गदहा और मार खास जुलाहा और दाँत से पकड़ना``54 ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं जिनका वैराटे जी जिक्र करते हैं। इन दो शलियों के अतिरिक्त पत्रात्मक शैली, रूआंसू भाषा शैली, उपमात्मक शैली, ग्राम्य एवम् जन मानस की शैली, रोमान्टिक शैली, शरीर सौष्ठात्मक शैली, क्रोधात्मक शैली और वर्णनात्मक शैली को उदाहरण के साथ वैराट जी ने विवेचित किया है। स्पष्ट है कि अमरकांत की भाषा में शैलियों का मिश्रित उपयोग व्यापक स्तर पर हुआ है।
       इस तरह समग्र रूप से हम अमरकांत के कथा साहित्य के संदर्भ में कह सकते हैं कि अमरकांत ने लोकोक्तियों तथा मुहावरों का व्यापक प्रयोग किया है। मुहावरों की तुलना में लोकोक्तियाँ कम नज़र आती हैं, पर यह किसी भी रूप में उनके समकालीन कथाकारों की अपेक्षा अधिक ही है। अमरकांत का साहित्य अगर 'जन भाषा का कोष` है तो इस कोष में जन-साधारण की भाषा में सहजता से जुड़ने वाले मुहावरों और लोकोक्तियों की भी भरमार है। जो अमरकांत की भाषा को अधिक विश्वसनीय और सरल बनाती हैं।
6. एब्सर्डिटी :-
       'एब्सर्डिटी` यह एक अंग्रेजी भाषा का शब्द है। '।इेनतक` का अंग्रेजी में अर्थ 'ब्व्डच्।ब्ज् व्ग्थ्व्त्क् त्म्थ्म्त्म्छब्म् क्प्ब्ज्प्व्छ।त्ल्` के अनुसार - ब्वउचसमजमसल पससवहपबंस वत तपकपबनसवने है। अर्थात कुछ ऐसा जो तर्कहीन या विसंगत हो। '।इेनतक` इस शब्द की उत्पत्ति लैटीन भाषा के '।इेनतकने` से हुई है। जिसका अर्थ है- 'व्नज वि जपउम`। वास्तव में जब किसी व्यक्ति की मन:स्थिति ठीक नहीं होती तो वह अपने व्यवहार में भी कुछ ऐसी चेष्टाएँ करता है जिसे हम विसंगत या तर्कहीन कहते हैं। साथ ही साथ हमंें यह भी समझना होगा कि 'मन:स्थिति` ठीक न होने का अर्थ भी कहीं न कहीं उस व्यक्ति विशेष के व्यहारगत चेष्टाओं के आधार पर ही पहले जाना जा सकता है। लेकिन बाहर दिखायी पड़ने वाली ये असंगत या तर्कहीन चेष्टायें अनायास नहीं होती। इन सभी चेष्टाओं या विसंगत व्यवहार के पीछे कोई न कोई मूल कारण अवश्य होता है। निर्मल सिंहल इसी संदर्भ में लिखती हैं कि, ''एब्सर्डिटी के तत्व भी अमरकांत की कहानियों में मिल जाते हैं। विसंगत और तर्कहीन स्थितियाँ विसंगत तथा तर्कहीन मन:स्थिति भी उत्पन्न करती हैं जिसका प्रभाव संबद्ध व्यक्ति की चेष्टाओं और व्यवहार पर भी पड़ता है। अत: बाहरी तौर पर असंबद्ध और न समझ आने वाली चेष्टाएँ और व्यवहार के भी वस्तुगत कारण होते हैं, वे अकारण या निरर्थक नहीं होते, उसका कोई न कोई आधार अवश्य होता है।``55 यद्यपि सिंहल जी ने अमरकांत की कहानियों में एब्सर्डिटी के तत्व मिलने की बात करती हैं, पर वास्तव में अमरकांत के उपन्यासों में भी ये तत्व बिखरे पड़े हैं। अत! यह कहना गलत नहीं होगा कि अमरकांत के कथा साहित्य में एब्सर्डिटी के तत्व बिखरे पड़े हैं। फिर वे चाहे उनके उपन्यास हों या कहानियाँ।
       'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास का पात्र गोबर्धन ''ढेला का ऐसा दीवाना हो गया कि एक दिन गंगा नदी के किनारे जाकर और वहाँ से मिट्टी का एक बड़ा ढेला लाकर उससे अपनी आल्मारी को सुशोभित कर दिया उसने। इससे क्या तृप्ति मिलती थी उसे, यह तो वही जानता है.....।``56 अब यहाँ तर्क की दृष्टि से देखें तो गोबर्धन का यह व्यवहार असंगत या तर्कहीन ही कहा जायेगा। क्योंकि ढेला से प्रेम करने, उससे मिलने, बात करने आदि से उसे सुख मिले या संतुष्टी मिले यह बात तो समझ में आती है, लेकिन ढेला के विरह में गंगा किनारे से मिट्टी के ढेले को लाकर घर में जतन से रखने की बात समझ में नहीं आती है। वास्तव में उसका यह तर्कहीन व्यवहार उसकी तर्कहीन मन:स्थिति का परिणाम है। ढेला के वियोग में वह तँय नहीं कर पा रहा है कि वह क्या करे? ऐसे में गंगा किनारे घूमते हुए वह जब मिट्टी के ढेले को देखता होगा, तो उसे अकस्मात ही अपनी प्रियसी ढेला का खयाल आया होगा। और इसी विसंगत मन:स्थिति में वह उसे उठाकर घर लाता है, ढेला के प्रतीक स्वरूप।
       ठीक इसी तरह गोबर्धन के ''बातें करते समय बीच में 'थू` की आवाज``57 निकालने की आदत भी अनायास नहीं है। इसके पीछे के कारण को बतलाते हुए अमरकांत ही आगे लिखते हैं कि, ''बातचीत के दौरान बीच-बीच में मुँह दाएँ या बाएँ घुमाकर 'थू` कहना उस पिछड़े शहर के कुछ नवयुवक आधुनिकता का लक्षण समझते थे। इसकी शुरुआत उस समय हुई जब दो वर्ष पहले दयाशंकर का एक रिश्तेदार कन्हैया इलाहाबाद से आया था। .....हटर-हटर उसकी बातें बड़ी दिलचस्प होतीं, जिनके बीच वह 'थू` कहता। .....ये आदतें दयाशंकर ने सीख लीं, जिससे गोबर्धन ने ग्रहण कर लीं।``58
       'बिदा की रात` उपन्यास का मुनीर अहमद अपनी बेगम सुल्ताना को हनीमून की रात कहता है, ''आइए, भूजा खाया जाए।``59 अब हनीमून की रात भूजा खाने के पीछे क्या तर्क हो सकता है? उसका यह व्यवहार विसंगत ही कहा जायेगा। लेकिन उसकी यह बात अनायास नहीं है। दरअसल मुनीर हनीमून की पहली रात में अपने और अपनी बेगम के बीच हिचक, दिखावे और बनावटीपन को दूर कर एक सहजता लाना चाहते थे। हुआ भी यही। ''इस वाकया ने धीरे-धीरे सुलताना बेगम की हिचक, लेहाज वगैरह दूर कर दिया और उनके रिश्ते में कोई दिखावा और बनावटीपन नहीं रहा।``60
       'सुन्नर पंाडे की पतोह` उपन्यास में सुन्नर पंाडे की पतोह ''जिसने जिन्दगी भर लहसुन-प्याज तक न हुआ और सदा रूखा-सूखा ही खाया``61 अचानक सुनरी से कहती है, ''दोमित की दुल्हिन......कलिया खाने का बड़ा मन कर रहा है.....।``62 सुन्नर पंाडे की पतोह का अचानक गोश्त खाने की इच्छा बड़ी विसंगत लगती है। पर इसके पीछे भी उसका एक मानसिक द्वंद्व है। वह यह महसूस कर चुकी है कि अब वह जीवित नहीं बचेगी। जीवन भर उसने अपने सतित्व की रक्षा की । पुरूष प्रधान समाज में लगातार संघर्ष करती रही। ईश्वर पर पूरा विश्वास रखा। गोश्त का कभी भी सेवन नहीं किया। लेकिन अब जब उसे यह यकीन हो गया कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह अपनी जीवन भर की सीमाओं से निकलकर एक बार आज़ाद होकर जीना चाहती है। वह वो सब कुछ करना चाहती है जो उसने अपने जीवन में पहले नहीं किया। गोश्त खाने की इच्छा व्यक्त करना भी शायद उसकी इसी मन:स्थिति का व्यक्त रूप था।
       अमरकांत के अन्य उपन्यासों में भी एब्सर्डिटी के ऐसे ही तत्व देखने को मिल जायेंगे। उनकी कहानियों में एब्सर्डिटी को लेकर समक्षकों के बीच व्यापक चर्चा हो चुकी है। दरअसल अमरकांत को लंबे समय तक उपन्यासकार के रूप में साहित्यिक प्रतिष्ठा नहीं मिली। ना ही उनके उपन्यासों की व्यापक समीक्षा ही विद्वानों के बीच हुई। यही कारण रहा कि अमरकांत की कहानियों को लेकर जितनी विशद विवेचना और जितने शोध कार्य हुए उतने उनके उपन्यासों को लेकर नहीं हुए। लेकिन इधर परिस्थितियाँ धीरे-धीरे ही सटी पर बदल रही हैं। अमरकांत के नये उपन्यासों की व्यापक चर्चा हो रही है। अमरकांत के नये उपन्यासों की व्यापक चर्चा हो सही है। उन्हें उनके उपन्यास 'इन्हीं हथियारों से` के लिए वर्ष 2007 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया। आशा है आकाश पक्षी, सुन्नर पांडे की पतोह, सुरंग, बिदा की रात और इन्ही हथियारों से जैसे अमरकांत के नवीन उपन्यासों को केन्द्र में रखकर समीक्षा और शोधकार्य की नयी प्रक्रिया प्रारंभ होगी। जिससे अमरकांत के समग्र कथासाहित्य के आधार पर शिल्प, कथ्य, भाषा और विचारधारा संबंधी नयी बातें सामने आ सकेंगी।
       अमरकांत की कहानियों में एब्सर्डिटी तत्व के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
1)    'डिप्टी कलक्टरी` कहानी के शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का डिप्ली कटलरी के इम्तहान में बैठा हुआ है। वह सफल होगा या नहीं यह प्रश्न शकलदीप बाबू को परेशान किये हुए है। विश्वास और अविश्वास के बीच उनका व्यवहार अजीब हो गया है। वे पहले फीस के पैसे के नाम पर बिफर पड़ते हैं, फिर स्वत: डेढ़ सौ रूपये दे देते हैं। इसके बाद उनकी अपनी दिपचर्या में भी परिवर्तन हो गया। ''उनकी आदत छ: साढे छ: बजे से पहले उठने की नहीं थी लेकिन .....अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे गुसलखाने में ले जा कर स्नान करने लगे।``63 उनका इस तरह का 'एब्सर्ड` व्यवहार उनकी 'एब्सर्ड` मन:स्थिति का ही परिणाम था।
2)    'दो चरित्र` कहानी का जनार्दन मेहनत से काम करने वाले लड़के के पास जाते हैं। ''फिर सहसा बिजली की फुर्ती से .....उसे एक लात जमाते हुए मुँह विकृत कर फुसफुसाहट भरी आवाज में बोले, ''भाग साले यहाँ से, चोट्टा कहीं का।``64 दरअसल जनार्दन उस मेहनती बच्चे को उसकी मेहनत का उचित पारिश्रमिक नहीं देना चाहते थे। साथ ही साथ वे अपानी उस बात को भी सही साबित करना चाहते थे जिसके अनुसार भिखमंगे बच्चे काम चोर होते हैं, और उन्हें काम दिया भी जाय तो वे इससे जी चुराकर एक दिन में ही भाग जायेंगे। इस तरह उसे मारकर जनार्दन बाबू मात्र 10 पैसे में अपना काम करा लेते हैं और उसके भाग जाने से उनकी कही हुई बात सच साबित हो गयी। लेकिन उनके इस पूरे व्यवहार को वह मेहनती लड़का बिलकुल नहीं समझ सका होगा।
3)    'लड़की और आदर्श` कहानी का नरेन्द्र मन ही मन कमला से प्यार करता है। उससे प्रेम के इजहार को लेकर बहुत प्रयत्न करता है। सभी से कमला की तारीफ करता था। मगर जब वह समझ जाता है कि कमला उसे नहीं मिलेगी तो दोस्तों में अपनी शाख बनाये रखने के लिए कमला के बारे में यह कहना शुरू कर देता है कि, ''ऐसी लड़कियाँ अच्छे आचरण की थोड़ी होती हैं। हमारे घरों की औरतों में जो शील, संकोच और शरम-लिहाज होता है, वह इनमें कहाँ? खूबसूरती में भी ये हमारे घर की औरतों को क्या खाकर पाएँगी? जो कुछ उनके पास मिलेगा वह है टीप-टाप, नाज-नखरा और लचकना-मटकना...।``65
4)    'हत्यारे` कहानी के दोनों मित्र साँवले और गोरे बारी-बारी से वेश्या के साथ शारीरिक सुख भोगते हैं। पर पैसे देने के नाम पर छुट्टे लाने का बहाना करके जूते हाँथ में उठाकर भाग निकलते हैं। भागते समय उनमें से एक दूसरे से कहता है कि, ''भाग साले! आर्थिक और सामाजिक क्रान्ति करने का समय आ गया है।``66 अब पाठकों को यहॉ यह समझने में मुश्किल हो सकती है कि आखिर किसी वेश्या के हिस्से के पैसे न देकर आर्थिक और सामाजिक, क्रांति कैसे आ सकती है? दरअसल ये दोनों पात्र क्रांति से संबंधित कोई कार्य नहीं कर रहे, पर वे जो कर रहे हैं उसके अव्यवहारिक, असामाजिक और अमानवीय पक्ष से वे भली-भाँति परिचित हैं। फिर ऐसी मत:स्थिति में वे केवल अपने द्वारा किये हुए कार्य को एक तर्क एक 'जस्टीफिकेशन` देना चाहते हैं, फिर वह तर्क कितना भी वाहियात या हास्यास्पद क्यों न हो। फिर संबंधित तर्क के हास्यास्पद होने से वे अपने मन के गंभीर द्वंद्व को ज्यादा आसानी से सहज कर सकते थे। शायद यही कारण होगा जो अपने द्वारा किये गये घृणित कार्य को वे क्रांति कहते हैं।
5)    'रामू की बहन` कहानी का रामू जिस घर में काम करता था, वहाँ सबकी बात मानता था। सबका कहा हुआ सारा काम बड़े मन से खुशी-खुशी कर डालता था। लेकिन ''उसकी एक आदत अजीब थी। वह सबका काम करता, लेकिन जब दीपा कोई काम करने को कहती तो वह गंभीर हो जाता और वहाँ से खिसक जाता``37 दीपा के घर वाले उसकी इस आदत से परेशान थे। उन्हें समझ में नहीं आता था कि आखिर रामू की दीपा से क्या दुश्मनी हो सकती थी? दरअसल रामू को दीपा को देखकर अपनी बहन धीरा की याद आती थी, जिसके कारण उसे अपना घर छोड़कर भागना पड़ा था। इसी कारण वह दीपा का कहा हुआ कार्य न करके एक आंतरिक खुशी और संतुष्टि रामू को मिलती थी। और यही आंतरिक खुशी ही दीपा के प्रति उसके 'एब्सर्ड` व्यवहार का कारण था।
6)    'हंगामा` कहानी की पात्र 'लीला` का पूरा व्यवहार जो की 'असहज` लगता है वह कहीं न कहीं लीला के जीवन से जुड़े सबसे बड़े अभाव के कारण है। वह एक बच्चा चाहती है, पर उसकी यह चाहत पूरी नहीं हो पाती। इस कारण उसके व्यवहार में एक निरर्थक 'प्रतियोगिता का भाव` घर कर जाता है। जैसे कि, ''वह किसी औरत को कभी कोई नई और अच्छी साड़ी पहने देख लेती तो काफी परेशान हो जाती। तब वह उस औरत से बोलना भी बन्द कर देती।  .....जब उसे इत्मीनान हो जाता कि जब वह साड़ी पुरानी पड़ गयी है, तब वह उस औरत से फिर बोलना शुरू कर देती।``68 लीला यह स्वीकार नहीं कर पा रही थी कि दूसरों के पास कुछ ऐसा है, जो उसके पास नहीं है। अथवा उसके पास भी वह सब कुछ है जो दूसरों के पास है।
       इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत के उपन्यासों एवम् कहानियों में एब्सर्डिटी के तत्व समान रूप से मिलते हैं। कथानक में एब्सर्ड व्यवहार के माध्यम से अमरकांत पात्रों के मानसिक चेष्टाओं को भी चित्रित करने का प्रयास करते है। वर्णन तो वे पात्रों के तर्कहीन या असंगत व्यवहार की करते हैं, परंतु उसके माध्यम से उसकी मानसिक दशा को भी बतलाने में पूरी तरह सफल हो जाते हैं।

ताशकंद शहर

 चौड़ी सड़कों से सटे बगीचों का खूबसूरत शहर ताशकंद  जहां  मैपल के पेड़ों की कतार  किसी का भी  मन मोह लें। तेज़ रफ़्तार से भागती हुई गाडियां  ...