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Wednesday 6 July 2011

अमरकांत और शिल्प भाग-२


अमरकांत और शिल्प भाग-२  
6)    'हंगामा` कहानी की पात्र 'लीला` का पूरा व्यवहार जो की 'असहज` लगता है वह कहीं न कहीं लीला के जीवन से जुड़े सबसे बड़े अभाव के कारण है। वह एक बच्चा चाहती है, पर उसकी यह चाहत पूरी नहीं हो पाती। इस कारण उसके व्यवहार में एक निरर्थक 'प्रतियोगिता का भाव` घर कर जाता है। जैसे कि, ''वह किसी औरत को कभी कोई नई और अच्छी साड़ी पहने देख लेती तो काफी परेशान हो जाती। तब वह उस औरत से बोलना भी बन्द कर देती।  .....जब उसे इत्मीनान हो जाता कि जब वह साड़ी पुरानी पड़ गयी है, तब वह उस औरत से फिर बोलना शुरू कर देती।``68 लीला यह स्वीकार नहीं कर पा रही थी कि दूसरों के पास कुछ ऐसा है, जो उसके पास नहीं है। अथवा उसके पास भी वह सब कुछ है जो दूसरों के पास है।
       इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत के उपन्यासों एवम् कहानियों में एब्सर्डिटी के तत्व समान रूप से मिलते हैं। कथानक में एब्सर्ड व्यवहार के माध्यम से अमरकांत पात्रों के मानसिक चेष्टाओं को भी चित्रित करने का प्रयास करते है। वर्णन तो वे पात्रों के तर्कहीन या असंगत व्यवहार की करते हैं, परंतु उसके माध्यम से उसकी मानसिक दशा को भी बतलाने में पूरी तरह सफल हो जाते हैं।
7. कथा रचना पद्धति:-
       कथाकार अमरकांत के उपन्यासों और कहानियों को देखकर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी ज्यादा तर रचनायें आत्मकथ्य पद्धति और व्यक्ति चित्र पद्धति में ही लिखी गई हैं। उपन्यासों में कई अन्य पद्धतियों का मिश्रित प्रयोग विस्तार से लक्षित होता है, पर कहानियों में ऐसी स्थितियाँ कम ही हैं। राजेन्द्र यादव अमरकांत के संदर्भ में लिखते हैं कि,''वह हिन्दी का सबसे 'अनऐस्यममिंग` कथाकार हैऱ्या मुगालते देने लेने से अलग। मैंने उसके नाम से बहुत वक्तव्य या दावे भी नहीं देखे। और जैसा कि मैंने कहा, अपनी मूल बनावट, रचना-संसार संवेदना में हर बार चैखव की ही याद दिलाता हैैैैै। वह है भी अभाव, अवसाद और अर्थहीनता का कथाकार। मन:स्थितियों के उसके विश्लेषण और प्रयत्नों की हस्यास्पदता किसी बहुत बड़ी तकलीफ से आते हैं।``69
       अमरकांत की कहानियों को रचना पद्धति के आधार पर बाँटते हुए निर्मल सिंहल लिखती हैं कि,''.......गले की जंजीर, निर्वासित, कबड्डी, घुड़सवार, लड़की की शादी, विजेता, अमेरिका की यात्रा आदि अनेक कहानियाँ आत्मालाप या आत्मकथ्य की पद्धति के अंतर्गत रखी जा सकती हैं। जनमार्गी, संत तुलसीदास और सोलहवाँ साल, सवा रूपए, जिंदगी और जोंक, जोकर, दो चरित्र, उनका जाना और आना, स्वामी, गगन बिहारी, छिपकली, देश के लोग, डिप्टी कलेक्टरी, कलाप्रेमी, परमात्मा का प्रेमी, दुर्घटना तथा महान चेहरा आदि कहानियों में रेखाचित्र या व्यक्ति-चित्र की पद्धति अपनाई गई है। लेकिन इस स्थूल वर्गीकरण से अमरकांत की कहानियों को मात्र आत्मकथ्य या रेखाचित्र मान लेना सर्वथा अनुचित है। व्यक्ति को उसके परिवेश के समस्त अंतर्विरोधों के साथ जिस ढंग से अमरकांत चित्रित करते हैं, उससे उनके व्यक्ति-चित्र पूरे एक वर्ग की मानसिकता और व्यवहार के प्रामाणिक दस्तावेज बन जाते हैं।``70
       उपर्युक्त वर्गीकरण में कुछ अन्य कहानियों के नाम भी जोंड़े जा सकते हैं। आत्मालाप या आत्मकथ्य पद्धति के अंतर्गत सहधर्मिणी, मिठास, टिटिहरी, शाम के घिरते-अँधेरे में भटकता नौजवान और रेखाचित्र या व्यक्ति-चित्र पद्धति के अंतर्गत कुहासा, हंगामा, रामू की बहन, मछुआ, मूस, बहादुर और गगनबिहारी जैसी कहानियाँ आ सकती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि यह वर्गीकरण बड़ा ही सतही है। अमरकांत की कहानियों में जिस मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज से जुड़े पात्रों का चित्रण है उनकी सामाजिक स्थिति, उनकी आर्थिक परिस्थिति, उनकी चिंताएँ, उनकी मनोदशा, उनका मानसिक टुच्चापन, उनका 'एब्सर्ड` व्यवहार, अभावों के बीच टूटते उनके आदर्श और अर्थ के दबाव में बदलते संबंधों के आयाम को जिस गहराई से अमरकांत प्रस्तुत करतें हैं वह उनकी अपनी एक विशिष्ट रचना पद्धति है।
       अमरकांत के संदर्भ में भगवान सिंह की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि,''अमरकांत किसी भी पक्ष में अतिरिक्त सजगता दिखाए बिना, किसी की उपेक्षा किस बिना, किसी संगठन या चौकड़ी से जुड़े बिना, किसी तरह की बड़बोली किए बिना, सर्जना के किसी एक पक्ष के प्रति अतिरिक्त सजग हुए बिना, और सभी पक्षों में एक संतुलन बनाते हुए लेखन करना है, इस चेतना और संकल्प तक से अनवधान, प्रकृतिस्थ होकर रचना कर रहे थे।``71 ऐसे समर्पित कथाकार अमरकांत की रचना पद्धति भी अपने अंदर पूरी सहजता और सरलता समेटे हुए है। अमरकांत हमेशा आत्मप्रचार और व्यावसायिक तिकड़मों से दूर रहे। यही कारण रहा कि उन्होंने किसी भी तरह से अपने कथा साहित्य को 'विशिष्ट` या दूसरों से भिन्न साबित करने के लिए 'नकल` एवम् 'कल्पना` का सहारा नहीं लिया। जबकि ''इस दौर में कुछ लेखन, अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए,आत्ममुग्ध भाव से अपनी पिछली पीढ़ी के रचनाकारों का कुछ यूँ मजाक उड़ा रहे थे जैसे उनके उन्होंने कुछ पाया और लिया ही न हो और बता रहे थे कि उनकी दूकान का सारा माल नया, अलग और चमकदार है।``72
       अमरकांत की कहनियों की तरह अगर उनके उपन्यासों को देखें तो यहाँ पर भी आत्मकथ्य और व्यक्ति चित्र पद्धति के उपन्यास ही अधिक हैं। जैसे की सुखापत्ता, आकाश पक्षी, काले-उजले दिन और कटीली राह के फूल आत्मकथ्यात्मक हैं तो सुन्नर पांडे की पतोह, सुखजीवी, ग्रामसेविका, सुरंग और बिदा की रात जैसे उपन्यासों को हम व्यक्ति चित्र पद्धति के अंदर गिन सकते हैं। लेकिन उपन्यासों के संदर्भ में इस तरह का वर्गीकरण तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि उपन्यासों में कई रचना पद्धतियों का मिश्रित स्वरूप होता है। 'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास इसका अप्रतिम उदाहरण है। विभिन्न रचना पद्धतियों का अनूठा सामंजस्य इस उपन्यास में दिखायी पड़ता है। ''उपन्यास एक मकान है, जिसमें अनेक खिड़कियाँ को परखना होगा। तभी उसकी पूरी कला का आकलन किया जा सकता है।``73
       इसतरह समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत की कहनियों में विशष रूप से आत्मकथ्य और रेखाचित्र पद्धति का उपयोग हुआ है। लेकिन यह वर्गीकरण बहुत ही सतती है। अमरकांत ने जिस सरलता और सजगता के साथ मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय समाज की स्थिति को अपने कथा साहित्य में व्यक्त किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उपन्यासों के संदर्भ में किसी एक पद्धति विशेष के अंतर्गत उसको रखना तर्कसंगत नहीं है। उपन्यासों में कई रचना पद्धतियों का मिश्रित स्वरूप हमारे सामने आता है। फिर अमरकांत के उपन्यासों के संदर्भ में भी वर्गीकरण करना ही हो तो मोटे तौर पर यहाँ पर भी कहानियों जैसी ही स्थिति शिल्प के स्तर पर नज़र आती है।
8. बिम्ब और प्रतीक:-
       ऐन्द्रिय अनुभवों को कल्पना के द्वारा प्रस्तुत करने का कार्य बिम्ब करता है। 'बिम्ब` मुख्य रूप से काव्य के एक उपकरण के रूप में जाना है। लेकिन अब ये साहित्य की अन्य विधाओं में भी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में स्वाकार कर लिया गया है। 'नयी कहानी` में यथार्थ बोध क्षमता बोध, अस्तित्व बोध, भारतियता बोध, तटस्थता और सूक्षम इंद्रिय बोध के लिए बिम्बों का जमकर उपयोग कथाकारों द्वारा किया गया। बिम्ब एकल भी हो सकते हैं और संश्लिष्ट भी। ये स्थिर भी हो सकते हैं और गतिशील भी।
       बिम्ब और प्रतीक में बुनियादी फर्क है। प्रतीक वास्तव में पश्चिमी साहित्य में प्रयुक्त होनेवाले 'सिंबल` शब्द का हिंदी रूपांतरण है। प्रतीक का संबंध इन्दियों से नहीं बल्कि बुद्धि से माना जा सकता है। जबकि बिम्ब का संबंध सीधे-सीधे इद्रियों से होता है। प्रतीक रूढ़ भी होते हैं और स्वच्छद भी। अर्थात कुछ प्रतीक परंपरागत रूप से स्वीकार किये जाते हैं तो कुछ नये प्रतीक कथाकार अपनी सजगता, निपुणता और प्रयोगधमिता के आधार पर गढ़ते हैं। इन्हे ' परंपरागत` और 'वैयक्ति` प्रतीक भी कहा जाता है। प्रतीकों के उपयोग से अर्थ को नई गहराई, नया स्वरूप और नई व्यंजकता मिलती है। काव्य में 'प्रयोगवाद` के अंतर्गत वैयक्तिक प्रतीकों का खूब उपयोग हुआ। प्रतीकों को लेकर इस युग में इतने प्रयोग हुए कि कई जगह इन प्रतीकों से हास्यास्पद स्थितियाँ भी उभरने लगीं।
       अमरकांत के कथा साहित्य में भी बिम्बों और प्रतीकों का व्यापक उपयोग हुआ है। अमरकांत के यहाँ प्रतीकात्मकता दो स्तरों पर दिखायी पड़ती है। एक तो कहानियों और उपन्यासों के शीर्षकों में और दूसरी तरफ पात्रों के नामों में भी। विशेष तौर पर उनके निम्न मध्यवर्गीय पात्रों में। 'मूस`, 'बहादुर`, 'चिरकुट`, 'जन्तू`, 'ढेला`, 'झींगुर` 'दूबर` 'पिलपिली` और 'छकौड़ी` अमरकांत के कुछ ऐसे ही पात्रों के नाम हैं, जिनके नाम से ही उनके जीवन में निहित दरिद्रता, हीनता, संघर्ष आदि को समझा जा सकता है। ठीक इसीतरह अमरकांत की कहानियों एवम् उपन्यासों ें शीर्षक भी बड़े प्रतीकात्मक हैं। जैसे की 'इन्हीं हथियारों से`, 'सुरंग`, 'बिदा की रात`, 'सुखजीवी` 'काले उजले दिन` और 'आकाश पक्षी` अमरकांत के कुछ उपन्यासों के नाम हैं। ये शीर्षक उपन्यास में भावों को प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त करते हैं।
       'इन्हीं हथियारों से` शीर्षक इस बात का प्रतीक है कि बलिया को स्वतंत्र कराने के लिए हर जाति-धर्म, हर उम्र का व्यक्ति उसे जो भी मिला उसी को हथियार मानकर निकल पड़ा। फिर हाँथ में लाठी हो, लकड़ी हो, पत्थर हो या साइकल की चैन। ये जनता केे वही हथियार हैं जिनके लिए अमरकांत ने 'इन्हीं हथियारों से` शीर्षक को चुना 'सुरंग` उपन्यास की बच्ची देवी अज्ञानता और अपने गवारू पन को त्याग कर मोहल्ले की स्त्रियों के सहयोग और समर्थन के साथ पढ़-लिखकर अपने पति के योग्य बनने का प्रयत्न करती है। लेकिन उसके इस प्रयत्न का परिणाम क्या होगा, इसके प्रति वह आशंकित भी है। वह एक 'सुरंग` से होकर जा तो रही है पर 'उसपार` क्या होगा उसे भी मालूम नहीं है। 'बिदा की रात` उपन्यास की सुल्ताना बेगम अपने शौहर और बेटे के चले जाने के दुख को झेल रही है। खुद शादी के बाद उसके जीवन में बहुत परिवर्तन आ गया था। इस लिए इस उपन्यास के लिए 'बिदा की रात` यह शीर्षक बड़ा प्रतीकात्मक है। 'सुखजीवी` उपन्यास का नायक सिर्फ अपने सुख चैन की बात सोचता है। उसका व्यक्तित्व एक आत्मकेन्द्रित व्यक्ति का है। अत:उसके व्यक्तित्व के प्रतीक के रूप में 'सुखजीवी` शीर्षक भी उचित ही है। 'आकाश पक्षी` उपन्यास की नायिका चाहती तो थी कि वह आज़ाद पक्षी की तरह स्वतंत्र रूप से जीवन जिये। कोई बात उसपर धोपी न जाये। वह अपने व्यक्तित्व का विकास खुद कर, किंतु जीवन भर उसकी यह उम्मीद पूरी नहीं हो पाती है। अत:उसके मन के भावनाओं के अनुरूप इस उपन्यास का शीर्षक भी बड़ा ही प्रतिकात्मक है।
       ठीक इसीतरह अमरकांत की कहानियों के शीर्षक भी बड़े प्रतीकात्मक है। 'जिदगी और जोंक`, 'गगन बिहारी`, 'म्यान की दो तलवारे`, 'अमेरिका यात्रा`, 'लड़की और आदर्श`, 'मूस`, 'हत्यारे`, 'छिपकली`, 'विजेता`, 'मछुआ`, 'फर्क`, 'मकान`, 'हंगामा`, 'कुहासा`, 'कबड्डी`, 'चँाद`, 'बीच की जमीन` 'टिटिहरी`, 'हार`, ठंड और ऊष्मा` तथा 'मिठास` कुछ ऐसे ही शीर्षक हैं। 'जिंदगी औैर जोंक` कहानी का मुख्य पात्र रजुआ के जीवन में निहति निरीहता यह दर्शाती है कि वह जिंदगी से जोंक की तरह लिपटा हुआ है। 'गगन बिहारी` कहानी ऐसे व्यक्ति का चरित्रांकन है जो दीवा स्वप्न अधिक देखता है और मेहनत और श्रम के माध्यम से आगे बढ़ने की राह में देर तक चल नहीं पाता। 'म्यान की दो तलवारे साथ काम करने वाले दो मित्रों की कहानी है जो आपसी अहम् के कारण हमेशा एक-दूसरे का विरोध करते रहते हैं। इसी तरह 'अमेरिका यात्रा` भी एक ऐसे लड़के की कहानी है जो अपने यथार्थ को समझे बिना बड़ी-बड़ी काल्पनिक योजनाएँ बना डालता है। उपर्युक्त विवेचित सभी कहानियों इसीतरह प्रतिकात्मक अर्थ बोध करानेवाले शीर्षक के साथ लिखी गयी हैं। अमरकांत की कहानियों में प्रतिकात्मका अगर कम दिखायी देती है तो इसका यह कदापि कारण नहीं है कि वे शिल्प की इस तरह की बारीकियों के प्रति सजग नहीं है। दरअसल अमरकांत की कहानियों अपने समय के यथार्थ को बतलाने वाले दस्तावेजों की तरह हीं यहाँ जीवन की सच्चाई है, उसमें निहित समस्या और उसका सामाजिक कारण ही अत:ऐसे में कल्पना, बनावटी संवेदना और सप्रयास शिल्प के तथाकथित रूपों को प्रस्तुत करने की न तो आवश्यकता भी और न ही उनका कोई औचित्य।
       अमरकांत ने अपने कथ्य साहित्य में सामान्य बिम्बों का उपयोग किया है। लेकिन अमरकांत के बिम्बों का स्वरूप भी उनके समकालीनों से सवर्था भिन्न है। इस संदर्भ में निर्मल सिंहल लिखती है कि, ''अमरकांत के बिम्ब अन्य कहानीकारों से इस अर्थ में विशिष्ट हैं कि वे अधिकांशत: उनकी कहानियों के पात्रों से संबंधित हैं जैसे उनके रूप-आकार, वेशभूषा, सौंदर्य; विभिन्न चेष्टाएँ जैसे-उसकी चाल, घूरना, मुँह तनना, काँपना, देखना, खाना, बीनना, दौड़ना, झाँकना, सरकना, मुसकराना, हिलना, प्रहार करना, सिर हिलाना, छटपटाना आदि; उनकी आवाजें जैसे-हँसी, चिल्लाना, बोलना, सिसकना, किलकारी, हिचकी, रोना, गरजना तड़पना आदि; पात्रों की ही कार्य-पद्धति, व्यवहार, मुद्रा, जीवन-पद्धति, हालत या स्थिति या पात्रों के ही विभिन्न मनोभावों जैसे दिल बैठना, आक्रोश, आशा, गुस्सा, जोश, दिल जलना, उत्साह, बेचैनी,शरम आदि। अन्य प्रकार के बिंब या उपमा बहुत कम हैं।``74
       अमरकांत के कथा साहित्य में यद्यपि बिम्बों और प्रतीकों का व्यापक उपयोग हुआ है। फिर भी इनकी अपनी एक सीमा रही है। प्रतीकों का उपयोग पात्रों के नामोंे एवम् कथा साहित्य के शीर्षकों के लिए हुआ है तो 'बिम्ब` का सामान्य उपयोग पात्रों की विभिन्न चेष्टाओं को पशुओं की चेष्टाओं के समान बतलाने के लिए किया गया है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी इस संदर्भ में लिखते भी हैं कि, ''अमरकांत के यहाँ पात्रों की विशिष्ट भंगिमाओं को चित्रित करने के लिए उन पर नाना प्रकार के पशुओं पक्षियों की भंगिमाओं को आरोपित किया गया है। अमरकांत की कहानियों में पात्र प्राय:कौवे, चूहे, भेड़, कुत्ते, गीदड़, ऊँट, चील, सुअर, बन्दर, सुग्गे, घोड़े, चमगादड़, खरगोश आदि के रूप में बार-बार चेष्टायें करते चित्रित हैं। लेकिन अमरकांत के यहाँ फैंटेसी शिल्प नहीं है।.......अमरकांत की कहानियों में मनुष्य कभी पशु-पक्षी जैसा आचरण करता है और फिर मनुष्य रूप में आ जाता है। इसलिए उनके यहाँ मनुष्यता और पशुता का द्वंद्व बना रहता है।``75
       इसतरह उपर्युक्त विवेचन के आधार पर समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य ''की वस्तुनिष्ठता भी जब शिथिलता का भ्रम पैदा करती है पर वास्तविकता यह है कि यह प्रक्रिया रूपगत कुशलता का ही ज्ञात-अज्ञात अतिक्रमण है। बौद्धिकता और भावुकता, प्रतिबद्धता और रूपात्मकता के अतिवाद से अलग अमरकांत सहज 'वर्णनात्मक` और 'मुखरता` के भेद से परिचित हैं।``76
9. मिथक योजना:-
       अमरकांत के कथा साहित्य में मिथकीय प्रयोगों की भरमार नहीं है। लेकिन कई जगह ये मिथक हमें दिखायी पड़ते हैं। कथा साहित्य में कथाकार रोचकता लाने के लिए मिथकों का प्रयोग करता है। वह इन मिथकों का वैयक्तिक रूप में सृजन नहीं करता। कथासाहित्य में मिथक सिर्फ रोचकता के लिए ही नहीं अपितु कई बार कथानक की आवश्यकता के रूप में भी सामने आते हैं। पौराणिक कथाओं के वे तत्व जो सम् सामयिक स्थितियों के साथ जुड़कर एक नया अर्थ बतलाते हैं। ये ही मिथक कहलाते हैं। मिथकों का प्रचलन समाज में धर्म और संस्कृति के साथ जुड़ते हुए युगोंऱ्युगों से होता रहा है। मिथकों का ऐतिहासिक महत्व 'इतिहास बोध` के संदर्भ में नहीं माना जा सकता लेकिन सामाजिक इतिहास को समझने में मिथक सहायक अवश्य होते हैं। ये मिथक कभी-कभी साहस और संबल के लिए भी उपयोग में लाये जाते रहे हैं। अमरकांत के ही शब्दों में कहूँ तो, ''आततायी व्यवस्था से लड़ने के लिए विद्रोही जनता अनेक तरीके अपनाती है, जिनमें धार्मिक और पौराणिक ग्रन्यों की मनमानी व्याख्या से निकाले जुज़ से झटपट तैयार अफवाहें भी होती हैं।``77
       अमरकांत के कथा साहित्य में मिथकीय प्रयोग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
1)    'इन्हीं हथियारों से` उपन्यास में बलिया के नामकरण के संदर्भ मेें अमरकांत लिखते हैं कि, ''कोई कहता है राजा बलि के नाम पर बलिया बना, कोई कहता है बाल्मीकि के नाम पर......।``78 इसी उपन्यास में रक्षा बंधन के अवसर पर राखी-बाँधने या न बाँधने के संदर्भ में आनंदी का यह कहना कि, ''हमारे यहाँ यह अशुभ माना जाता है.....।``79 सामाजिक मान्यताओं के मिकथीय स्वरूप को ही व्यक्त करता है।
2)    'जुन्नर पांडे की पतोह` उपन्यास में अमरकांत लिखते हैं कि, ''....फिर भी रोज सवेरे वह नई आशा और नई उमंग से अपने पति के आने की प्रतीक्षा करती। और जब वह रोज माथे में सिन्दूर लगाती तो सिन्दूर की वह रेषा उसके मन को अपार बल प्रदान करती। उसे लगता कि उसका सुहाग अटल है और सती-सावित्री की तरह वह अपने पति  को जरूर अपने पास लौटा लाएगी।``80 इसी उपन्यास में जब सुन्नर पांडे की पतोह कोठरी में किसी साँप के बोलने की आवाज महसूस करती है तो वह दोनों हाँथ जोड़कर कहती है कि, ''हे लछना फुआ, हम जुगुल तिवारी के वंशज हैं, जो भूल-चूक हो गई हो, क्षमा करना.....।``81 आगे अमरकांत 'लछना फुआ` की कथा भी बतलाते हैं। जिससे लछना फूआ संबंंधी मिथक स्पष्ट हो सके लछना, जुगुल तिवारी की इकलौती बहन थी। उसे एक बार जब साँप ने काँटा तब उसे मारने को गाँव के लोग जमा हो गये। पर लछना से सबको मना करते हुए कहा, ''ना, मार%मति। अब हमारा पूजि गया। पँचैया को दूध-लावा चढ़ाकर हमारी पूजा करना। आगे हम इस वंश के मरद-स्त्री-बच्चा, किसी को भी नहीं काटेंगे। हमारा नाम ले लेंगे लोग, किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा.......।``82
3)    इसी तरह ग्रामसेविका उपन्यास की जमुना को जब बच्ची पैदा होती है तो ''कोठरी के भीतर औैैैैर दरवाजे पर बोरसी में आग जला दी गयी। दरवाजे पर एक बन्दर की खोपड़ी तथा दो जूते टाँग दिये गये। जैसा कि इस गाँव के लोंगों में विश्वास था,ऐसा इसलिए किया गया कि बच्चे को भूत-प्रेत और हवा बतास न लगे।``83 इस तरह की बातों का कोई तर्क संगत या वैज्ञानिक आधार नहीं होता। पर सालों-साल ये मिथक, मान्यता या परंपरा के नाम पर निभाये जाते हैं। इसी उपन्यास में 'गड़तुआ बाबा` का भी जिक्र है। जिनके बारे में बताते हुए अमरकांत लिखते हैं कि, ''गाँव के दक्षिण में पासी टोला कुछ चमारों के घर भी थे। वहीं एक छोटा बगीचा भी था, जिसमें मरे हुए छोटे बच्चे गाड़े जाते थे। लोगों का विश्वास था कि बगीचे में तड़तुआ बाबा रहते हैं और वह बच्चों को पकड़ लेते हैं।``84
4)    'सूखा पत्ता` उपन्यास का दीनेश्वर कहता है कि, ''भूत-प्रेत आदि को वश में किया जा सकता है। जो कोई बारह बजे रात के गंगाजी के किनारे श्मशान घाट पर रह जायेगा। उसमें एक दैवी शक्ति आ जायेगी और वह जो काम चाहेगा, प्रेतात्माओं से करा सकेगा। बस उसको एक क्षण के लिए भी डरना नहीं चाहिए। निडर रहने पर उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा और यदि जरा भी डरा तो प्रेत-पिशाच उसका फौरन नाश कर देंगे।``85
5)    'बउरैया कोदो` नामक कहानी में एक साधारण गदहे के संदर्भ में एक सज्जन कहते हैं कि, ''....जब अति हो जाती है तो ईश्वर भी कुपित हो जाता है। यह गधा नहीं, कोई अवतार है। जो जीवात्मा महान होती है, उसी में परमात्मा अवतरित होता है। हमारे पाप कर्म से ये नाराज हैं। इनकी पूजा करो, इनके हाथ जोड़ो, इनको शांत करा....।``86
6)    'जिंदगी और जोंक` कहानी का पात्र रजुआ ने दाढ़ी रख ली और तँय किया कि जब तक बरन की बहू को कोढ़ नहीं फूटेगा वह दाढ़ी नहीं बनायेगा। इसी संदर्भ में उसने शनीचरी देवी को प्रतिदिन जल चढ़ाना भी प्रारंभ कर दिया। अमरकांत आगे शनीचारी के बारे में लिखते हैं कि, ''शनीचरी अपने जमाने की एक प्रचंड डोमिन थी। ....एक बार किसी लड़ाई में एक डोम ने शनीचरी की खोपड़ी पर लट्ठ जमा दिया। जिससे उसका प्राणान्त हो गया। लेकिन एक-डेढ़ हफ्ते बाद ही उस डोम के चेचक निकल आयी और वह मर गया। लोगों ने उसकी मृत्यु का कारण शनीचरी देवी का प्रकोप समझा। डोमों ने श्रद्धा में उसका चबूतरा बना दिया और तब से वह छोटी जातियों में शनीचरी माता या शनीचरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी।``87
       इस तरह हम देखते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य में जो मिथकीय संदर्भ आये भी हैं वे अपने कथानक के परिवेश से ही संबद्ध हैं। इसलिए इन्हें पढ़ते हुए बिलकुल भी यह नहीं लगता कि अमरकांत ने रोचकता आदि के लिए सप्रयास इनका जिक्र किया है। अपितु ये संदर्भ भी मुख्य कथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं। समग्र रूप से हम कह सकते हैं कि अमरकांत के कथा साहित्य में मिथकीय संदर्भ कम हैं लेकिन वे जहाँ भी प्रस्तुत हुए हैं वे मुख्य कथानक कसे इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनका संदर्भ सहज और महत्वपूर्ण लगता है। वे जानबूझकर कथानक के अंदर आरोपित किये हुए नहीं लगते।
10) शब्द चयन
       अमरकांत ने अपने कथा साहित्य के लिए जिस तरह शब्दों का चयन किया है, उससे ज्ञात होता है कि उनका शब्द ज्ञान विस्तृत और समृद्ध है। उनके कथा साहित्य में कथानक के अनुरूप तत्सम, तद्भव, स्थानीय और हिंदी के अतिरिक्त अरबी, फारसी और अंगे्रजी के शब्द दिखलायी पड़ते हैं। वैसे तो अमरकांत के कथा साहित्य में तत्सम् शब्दों की भरमार है, पर अन्य भाषा के शब्दों को भी उन्होंने उपयोग में लाया है। अमरकांत द्वारा प्रयुक्त शब्दों को निम्नलिखित शीर्षकों के वर्गीकरण के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है।
1) तत्सम शब्द :-
       अमरकांत को तत्सम प्रधान लेखक माना जाता है। अमरकांत के संपूर्ण कथा साहित्य में तत्सम शब्दों की भरमार है। कथा साहित्य में इन शब्दों का प्रयोग अमरकांत ने बड़ी कुशलता के साथ किया है। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि अमरकांत अपने भाषायी ज्ञान के प्रदर्शन हेतु इन तत्सम शब्दों का उपयोग कर रहे है। इन शब्दों का प्रयोग कथानक के सर्वथा अनुरूप दिखायी पड़ता है। ऐसे ही कुछ तत्सम शब्द इस प्रकार है, ''प्रतीक्षा, आगन्तुक, प्रत्येक, प्रशंसापूर्ण, नेत्र, विश्वासपूर्ण, व्यक्ति, उदारतापूर्वक, सम्मति, प्रकट, मौलिकता, कर्णस्पर्शी, आत्म-संतुष्टि, जिज्ञासा, गोश्त, मुद्रा, करूण, रहस्यपूर्ण, असमंजस, दार्शनिक, क्षण, सम्मति, स्वभाव, संबंधित, योग्य, मानसिक, अनभिज्ञता, प्रलाप, हृदय, व्याप्त, एकत्रित, सम्बोधित, सूचित, व्यर्थ, सभ्यता, तुच्छ, दृष्टिगोचर, विराजमान, अतएव, श्रेणियों, उपस्थित, प्राथमिक, अवकाश, वैद्य, विक्रेता, आर्थिक, विद्यार्थी, भाव-भंगिमा, उत्यंत, तुच्छ, भावना, शरीर, नितम्बों, स्वागत, घोषणा, राष्ट्रपति, खण्डन, गर्व, छात्र, शंकालु, निम्नलिखित, शांतिपूर्वक, आश्वासन, भविष्य, निम्न, मध्य, वर्ग, संगठित, सज्जन, पूर्वघोषित, आमूल, परिवर्तन, उत्तेजित, अत्याचार, सम्भवत:, द्वंद्व, मित्र, सुशोभित, पश्चात्, पूर्णतया, सम्पादक, आश्चर्य, तर्क, दुष्टतापूर्वक, रहस्यमयी, मौखिक, सहानुभूति, अवश्य, विस्तार, उद्घाटन, रूचि, दृष्टि, संबंध, धारणाएँ, संगठित, प्रथम, समुचित, निश्चय, प्रधान, विस्तारपूर्वक, ललाट, निरीक्षण, चेष्टाओं, प्रति, सहानुभूति, उपदेश, अन्तरतम, विचित्र, अनिश्चितकाल, चिंतित, उत्तर, रिश्तेदार, साधिकार, वनमानुष, सुरक्षित, मनोवैज्ञानिक, बाध्य, प्रारभिक, सिद्धांत, युक्तिऱ्युक्त, दृढ़, परिचित, बुद्धि, प्रदर्शित, सशंकित, उत्साह, विश्वविद्यालय, रहस्योद्घाटन, कद्दावर, घोषित, रचयिता, नामकरण, रसिक, उदार, नव, दाम्पत्य, वर्णन, स्वादिष्ट, श्रेणी, साहित्य, राजनीति, प्रलय, विषय, अनुरूप, प्रबलतम, शत्रु, सिद्ध, परिवर्तित, आकर्षित, सौन्दर्य, शिक्षा, प्रखर, अधिकांश, व्यतीत, विलम्ब, क्षण, तत्पश्चात्, व्यंग्य, संक्षेप और विराग।``88
       

ताशकंद शहर

 चौड़ी सड़कों से सटे बगीचों का खूबसूरत शहर ताशकंद  जहां  मैपल के पेड़ों की कतार  किसी का भी  मन मोह लें। तेज़ रफ़्तार से भागती हुई गाडियां  ...