Saturday 3 May 2014

हर शाम छत पे अकेले

हर शाम छत पे अकेले
गुमसुम से टहलते हैं । 

खुली जुल्फों के बादल
बरसने से डरते हैं । 

कितना कुछ कहने के बाद भी
कुछ कहने को तरसते हैं । 

कभी कहा तो नहीं पर
दिल दोनों के मचलते हैं ।

बनारस की हर सुबह में
तेरी यादों की सलवटें हैं ।

1 comment:

  1. अब कुछ कहने को बचा ही नहीं सर जी .
    आभार
    मुझे आपकी किताबे चाहिए थी .
    मुझे मेल पर सूचित कीजिये न की कैसे मिलेंगी .
    धन्यवाद
    विजय
    vksappatti@gmail.com

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