Friday 14 August 2009

अपने देश की आजादी


६२ साल की बूढी हो गयी,
अपने देश की आजादी ।
हाल मगर बेहाल रहा,
जनता रह गयी ठगी प्रिये ।
भूख-गरीबी-लाचारी,
अब भी हमको जकडे है
फसा इन्ही के चंगुल में,
देखो पूरा देश प्रिये ।
हर आँख के आंसू पोछ्नेवाला,
सपना ना जाने कँहा गया ?
खून के आंसू रोने को,
सब जन हैं मजबूर प्रिये ।
गिद्धों के सम्मलेन में,
गो-रक्षा पे चर्चा है।
नही-नही जंगल में नही ,
संसद की यह बात प्रिये ।
अपने देश में आने से,
खुशियों ने इनकार किया ।
दुःख की ही अगवानी में,
बीते इतने साल प्रिये ।
लोकतंत्र के तंत्र-मन्त्र में,
चिथडा-चिथडा जनतंत्र हुआ ।
रक्षक ही भक्षक बनकर,
नोच रहे यह देश प्रिये ।
अजब-गजब का खेल तमाशा ,
नेता-अफसर मिल दिखलाते।
सन ४७ से अब तक,
बनी ना कोई बात प्रिये ।
एक थाली के चट्टे-बट्टे,
राजनीती के सारे पट्ठे ।
बोल बोलते अच्छे-अच्छे,
पर गंदे इनके काम प्रिये ।
मन्दिर-मस्जिद -गिरिजाघर में,
जिसको पाला -पोसा जाता,
वो अपनी रक्षा को बेबस
कर दो उसको माफ़ प्रिये ।
आजीवन वनवासी हो कर,
राम अयोध्या छोड़ गए ।
बचे-खुचे मलबे के नीचे ,
मुद्दे केवल गर्म प्रिये ।
ऐसे में जश्न मानाने का ,
औचित्य कहा है बचा हुआ
समय तो है संकल्पों का,
शंखनाद तुम करो प्रिये।
आवाहन का समय हो गया,
पहल नई अब हो जाए।
लोकतंत्र की राह पे ही,
बिगुल क्रान्ति का बजे प्रिये ।
अपने अधिकारों के खातिर,
खुल के हमको लड़ना होगा ।
जन्हा-कंही कुछ ग़लत हो रहा,
हल्ला बोलो वन्ही प्रिये ।
गांधी-नेहरू का सपना ,
पूरा हमको करना होगा ।
वरना पीढी आनेवाली ,
गद्दार कहे गी हमे प्रिये । ।
---अभिलाषा
डॉ.मनीष कुमार मिश्रा

1 comment:

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